सरित प्रवाह, मई (प्रथम) 2014

संपादकीय टिप्पणी ‘कानून और न्यूनतम सजा’ में आप के तर्कसंगत विचार पढ़े. बेशक आप के विचार समाज व राष्ट्र की एक असहनीय पीड़ा को उजागर कर रहे थे, मगर लगता है इन तथाकथित कानूनों का असर न तो समाज के अलंबरदारों पर और न ही देश के राजनीतिज्ञों पर पड़ता कहीं से भी दिखाई दिया. न्याय और कानूनों को तो छोड़ ही दीजिए, क्योंकि ये डरावने हथियार तो मात्र देश के उन गरीब, निर्बल, अनपढ़ तथा बेसहारा लोगों के लिए ही बने हैं जिन के पास न तो पैसा है, न एप्रोच और न ही लड़नेमरने का दमखम.

नियम तो यह है कि दहेज लेना व देना दोनों ही अपराध हैं. तो क्या कभी भी, किसी ने भी यह पढ़ा या सुना है कि फलांफलां प्रतिष्ठित व्यक्ति का इन्हीं कानूनों के तहत कभी किसी पुलिस थाने से भी बुलावा आया हो, जो शादी के मौकों पर अपना स्टेटस सिंबल प्रदर्शित करते हुए लाखों ही नहीं, करोड़ों रुपए लुटाने से गुरेज नहीं करते. उन को न्यायालय तक ले जाया जाना तो दूर की कौड़ी है.

जहां तक बात धारा 498 ए की है, तो यह न केवल कानूनविद/न्यायविद ही बल्कि देश के नीतिनिर्धारक तक भी जानते हैं कि इस धारा का न केवल खुला दुरुपयोग हो रहा है, बल्कि इस के माध्यम से निर्दोष परिजनों तक को भी सामाजिक/ न्यायिक स्तर पर प्रताडि़त किया जा रहा है. मेरा आशय यह तनिक भी नहीं है कि ऐसे अपराधियों को बख्श दिया जाए या महिलाओं पर अत्याचार नहीं हो रहे हैं. तर्क यह है कि इस धारा को ईमानदारी व निष्पक्षता से लागू किया जाए ताकि अपराधी बचें नहीं और निर्दोष फंसें नहीं. 

ताराचंद देव रैगर, श्रीनिवासपुरी (.दि.)

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‘धर्म नहीं वर्ण अहम’ शीर्षक से प्रकाशित व इसी पर केंद्रित भारतीय राजनीति पर आप की टिप्पणी वाकई सराहनीय और विचारणीय है. आप ने बिलकुल सही कहा है कि देश की समस्या धर्म की इतनी नहीं है जितनी धर्मजनित जाति की है. देश की भोलीभाली जनता को अपने स्वार्थों की खातिर बलि का बकरा बनाने वाले तथाकथित देशप्रेमी उसी जनता का पूरे कार्यकाल में जम कर शोषण करते हैं जिस ने उन्हें गद्दी तक पहुंचाया होता है. मूर्खों की और बढ़ोतरी होती रहे, इन दगाबाजों की सरकार का रौब और रुतबा कायम रहे, इस के लिए वे कभी जाति तो कभी धर्म के नाम पर ऊंचनीच का षड्यंत्र रच कर अपना अभियान जारी रखना चाहते हैं. लेकिन देश का आदमी अब जागने लगा है. उस की सम झ में अब आने लगा है कि बात ऐसे बनने वाली नहीं.

छैल बिहारी शर्माइन्द्र’, छाता (.प्र.)

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‘धर्म नहीं वर्ण अहम’ शीर्षक से प्रकाशित संपादकीय टिप्पणी प्रशंसनीय है. 2014 के चुनावी मुद्दों में धर्म और जाति को ले कर आप ने अच्छा विश्लेषण किया है. मुसलिम वोटों की चिंता करीबकरीब सभी पार्टियों को है और शायद यही सभी पार्टियों व नेताओं के आपसी मनमुटाव का कारण भी है. यह मनमुटाव और आपस की गालीगलौज दुश्मनी में तबदील हो चुकी है. नई सरकार के लिए यह एक बड़ी चुनौती भी है.

अब चुनाव के नतीजे आ चुके हैं. एक पार्टी को बहुमत मिलने का क्रैडिट देश की जनता को जाता है. देश के नए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को बिना पक्ष व विपक्ष की परवा किए पूरे देश के हित में काम करना होगा. वे अपनी पार्टी के नहीं बल्कि पूरी जनता के प्रधानमंत्री हैं. इस बार चुनाव पुराने तरीकों से कुछ हट कर हुए हैं, इसलिए संसद में माहौल बदल सकता है. सोच बदली है तो परिणाम भी अच्छे ही होने चाहिए.

कुछ मुद्दे, जैसे शिक्षा, सुरक्षा, कश्मीर, कानून, आरक्षण इत्यादि पर संसद में बहस के बाद नई सरकार यदि पौलिसी बनाए तो उसे ख्याति मिल सकती है. उम्मीद करता हूं कि नए प्रधानमंत्री सब को साथ ले कर चलेंगे और हिंदूमुसलिम के भेदभाव को सदैव के लिए मिटा देंगे. विपक्ष भी हर हितकर मुद्दे पर सरकार का साथ देगा, ऐसी आशा है.

नई सरकार यह भी न भूले कि आज आम आदमी को चाय के लिए 10 से 20 रुपए देने पड़ते हैं जबकि संसद में करोड़पति सांसद चाय 1 रुपए में पीते हैं. आम आदमी असुरक्षित होने पर आएदिन अपनी जान गंवाता है जबकि सांसदों के बेटेबहुओं, बेटीदामादों के पीछे भी सुरक्षाकर्मी तैनात रहते हैं.

डी सिंह, बड़ौदा (गुजरात)

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संपादकीय टिप्पणी ‘बैंक और ग्राहक’ लीक से हट कर है. बैंक हमारी सेवा एवं सुरक्षा के लिए बने हैं न कि हमें परेशान करने के लिए. बैंकों का काम धीरेधीरे एकतरफा होता जा रहा है और उपभोक्ताओं की एकएक कर के परेशानियां बढ़ती जा रही हैं. उद्योगों को हजारों करोड़ रुपए के ऋण देने वाले बैंक गृहऋण, शिक्षाऋण, सोने के बदले ऋण आदि का धुआंधार प्रचार कर ग्राहकों को आकर्षित कर लेते हैं पर बाद में उन्हें एकएक कर के लंबे अनुबंधों, नियमों और रिजर्व बैंक के निर्देशों के नाम पर जम कर परेशान करते हैं. बैंक हमारी सहायता एवं सेवा के लिए स्थापित किए गए हैं ताकि हम अपनी बचत और कीमती गहनों को बैंक में रख कर सुरक्षित व निश्ंिचत नींद ले सकें.

बैंकों के नियम सरल एवं पारदर्शी होने चाहिए ताकि जनता अधिक से अधिक बैंकों की तरफ आकर्षित हो. बैंक एक ऐसे सा झेदार बनें जो समाज को स्थिरता देने की जिम्मेदारी भी निभाएं और जनता के आड़े वक्त काम आएं. जिस तरह रेलवे स्टेशनों पर वरिष्ठ नागरिकों के लिए टिकट लेने के लिए अलग काउंटर खुले हैं, उसी तरह बैंकों में भी लंबी लाइन से बचने के लिए वरिष्ठ नागरिकों के लिए एक अलग काउंटर होना चाहिए.

कैलाश राम गुप्ता, इलाहाबाद (.प्र.)

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संपादकीय टिप्पणी ‘धर्म नहीं वर्ण अहम’, ‘बैंक व ग्राहक’ और ‘थर्ड जैंडर को न्याय’ बेहद सटीक लगीं.

इस लोकसभा के चुनाव में सभी राजनीतिक पार्टियों ने शालीनता की सभी हदें पार कर जबानी जंग से भारत की जनता को यह जताने का प्रयास किया है कि नेताओं को सबकुछ कहने का अधिकार है और आम लोगों का दायित्व है कि वे उन की कही बातों को सुनें. क्या इस देश के कर्णधारों को नैतिकता का जरा भी खयाल नहीं है?

आज इन भ्रष्ट नेताओं ने अपने वोटबैंक की खातिर आम लोगों के बीच जाति, धर्म के नाम पर दीवार खड़ी कर दी है. सवर्ण जाति को तो इन नेताओं ने कुएं में धकेल दिया है. उन के साथ हर क्षेत्र में, चाहे शिक्षा हो या नौकरी या फिर फौर्म भरने की बात हो, बलि का बकरा सवर्ण जाति के ही लोग बन रहे हैं. आखिर ऐसा क्यों?

इस अंक में ‘अनोखी शर्त’ व ‘गृहिणी’ कहानियां मन को भा गईं. जबकि लेखों में ‘धर्म की मार झेलता जड़बुद्धि समाज’ और ‘जीत के लिए धार्मिक स्वांग का सहारा’ वर्तमान हालात पर करारी चपत हैं. ये लेख समाज को जागृत करने की दिशा में सुखद कदम है.

प्रदीप गुप्ता, बिलासपुर (हि.प्र.)

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चरित्र सिद्धांतों से क्या लेनादेना

मई (प्रथम) अंक में प्रकाशित लेख ‘आम चुनाव में खास बहूबेटियां’ पढ़ा. सत्ता को अपनी बपौती सम झ कर हमारे राजनीतिबाजों द्वारा अपने बेटेबेटियों व बहुओं को राजनीति में लाने की परंपरा हाल ही में कुछ बरसों से चल पड़ी है. इन्हें चरित्र एवं सिद्धांतों से क्या लेनादेना. जिस दल का पलड़ा भारी दिखा उसी में शामिल हो गए. वैसे यह परंपरा गांधी व सिंधिया परिवार से शुरू हुई है. आज मध्य प्रदेश में ऐसे दर्जनों नेता हैं जिन के दोनों हाथों में लड्डू हैं और जो देश की भोलीभाली जनता के कथित ‘महाराज’ व ‘राजासाहब’ बने बैठे हैं. इन के परिवारों के सदस्य दोनों बड़ी पार्टियों (कांग्रेस व भाजपा) में घुसे हुए हैं. यानी चित भी मेरी, पट भी मेरी. वंशवाद की इस बेल को फलने व फूलने से पहले ही जागरूक जनता को उखाड़ फेंकना होगा. वरना देश की कमान अयोग्य हाथों में चली जाएगी और फिर देश बरबाद हो जाएगा.

श्याम चौरे, इंदौर (.प्र.)

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शिक्षक आज के

यह बात सही है कि सरकारी स्कूलों में पढ़ाने वाले शिक्षक ज्यादा योग्य होते हैं और वेतन भी ज्यादा पाते हैं. बड़ेबड़े स्कूलों में जो शिक्षक कार्यरत हैं वे सिर्फ इसलिए नौकरी कर रहे हैं कि प्रयत्न करने के बाद भी उन्हें सरकारी स्कूलों में नौकरी नहीं मिल पाई है.

इस के बावजूद हकीकत यह है कि निजी स्कूलों का रिजल्ट बेहतर रहता है. कारण–प्रबंधन शिक्षकों के कार्य पर पैनी नजर रखता है व जरा भी रिजल्ट बिगड़ने पर वेतन वृद्धि में रोक, नौकरी से बाहर करने जैसे कड़े कदम उठा लेता है. जबकि सरकारी शिक्षकों पर इस तरह का कोई दबाव नहीं होता है, फलस्वरूप अधिक योग्य होने के बाद भी वे अपने कर्तव्य का पालन नहीं करते हैं एवं लापरवाह बने रहते हैं, जिस का असर छात्रों पर स्पष्ट दिखाई देता है.

इस में कोई शक नहीं कि आज के समय में शिक्षा एक बड़ा फायदे का व्यवसाय बन गया है. इसलिए इस क्षेत्र में बड़े पूंजीपति और प्रभावशाली राजनीतिज्ञों ने अपना नंबर दो का पैसा लगा रखा है एवं षड्यंत्रपूर्ण सरकारी स्कूलों को अनदेखा कर बर्बाद कर दिया है. ये शिक्षा माफिया जानते हैं कि मातापिता अपने बच्चों के भविष्य के प्रति बहुत जागरूक हो गए हैं, फलस्वरूप अपनी मेहनत की कमाई का एक बड़ा हिस्सा वे बच्चों की पढ़ाई पर खर्च कर सकते हैं, यहां तक कि वे कर्ज भी लेने से परहेज नहीं करेंगे. इसलिए सस्ती शिक्षा देने वाले शासकीय स्कूलों को बदतर कर दो, जिस से मजबूरी में ये प्राइवेट स्कूलों में अपने बच्चों को भर्ती कराएं और इस में ये लोग सफल हो गए हैं.

कुल मिला कर स्थिति यह है कि सरकारी स्कूलों की सुध लेने वाला कोई नहीं है. जबकि हमारे पास साधनोंसंसाधनों की कमी नहीं है.

अगर निर्णय लेने वाले जिम्मेदार लोग अपने निजी स्वार्थ को परे रख दें तो मृत हो चुके इन सरकारी स्कूलों को पुनर्जीवन मिल सकता है तथा बच्चों को उत्कृष्ट व सस्ती शिक्षा दी जा सकती है, जैसी हम दशकों पूर्व दिया करते थे.

सुधीर शर्मा, इंदौर (.प्र.)

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जबानी जंग

देश में हालिया संपन्न आम चुनाव के दौरान ऐसा लग रहा था जैसे चुनाव न हो कर नेताओं में जबानी जंग छिड़ी हो. मुसलिमों को अपना वोटबैंक समझ सैक्युलरिज्म का राग अलापने वाले कई राजनीतिक दल और हिंदुत्व को आदर्श मानने वाली पार्टी व उस के सहयोगी पार्टियों के बीच आरोपप्रत्यारोप के दौर चलते रहे.

उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के तेजतर्रार नेता मोहम्मद आजम खान बोले कि कारगिल युद्ध को मुसलिम फौजियों ने ही फतह किया था. तो वहीं, बिहार में भाजपा नेता गिरिराज बोले कि जिनजिन को नरेंद्र मोदी से परहेज है वे पाकिस्तान चले जाएं.

आजमजी से कहना है कि सीमा पर जंग होती है तो देश के सुरक्षाकर्मी लड़ते हैं, वे हिंदू या मुसलिम नहीं होते. वहीं, गिरिराजजी से कहना है कि देश में रह रहे तमाम अपराधियों, आतंकवादियों को तो आप पाकिस्तान नहीं भेज सकते हो तो मात्र मोदी विरोध के नाम पर किसी को पाकिस्तान कैसे भेज सकते हो.

राधेश्याम ताम्रकर, बड़वानी (.प्र.) द्य

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राजनीति में महिलाएं

मई (प्रथम) अंक का अग्रलेख ‘आम चुनाव में खास बहूबेटियां’ पढ़ कर सभी महिला उम्मीदवारों की पृष्ठभूमि के बारे में जान कर आश्चर्य होता है कि ये सभी बहूबेटियां, बहनें, भाभियां इतनी पढ़ीलिखी और सम झदार हैं, फिर भी अपने अभिभावकों और सरपरस्तों की दिनरात जहर उगलती जबान पर, इन की जबानें इतनी शांत क्यों हैं? कोई नेता अपने विरोधियों पर गालियों की बौछार कर रहा है तो कोई महिलाओं पर अभद्र टिप्पणी करने से बाज नहीं आ रहा है.

ऐसे में क्या इन खास बहूबेटियों का यह फर्ज नहीं बनता कि वे अपने बुजुर्गों को उन की गरिमा के प्रति सचेत करें और उन्हें सम झाएं कि सभाओं में सभ्यता से पेश आएं और नारियों का सम्मान करना सीखें. आखिर देश की संसद के निर्माण में 49 प्रतिशत योगदान महिलाओं का भी है. 

मुकेश जैनपारस’, बंगाली मार्केट (.दि.)

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