Download App

सफर अनजाना

बात पुरानी है, मैं और मेरे पति ट्रेन से सैकंड क्लास डब्बे में इंदौर जा रहे थे. हम जहां बैठे, ठीक उस के दूसरी तरफ दूसरा परिवार बैठा था. उन के साथ तकरीबन 8-10 साल के 2 छोटे बच्चे थे. वे रात को खाने के समय ट्रेन में इधरउधर दौड़ते फिर रहे थे और उन के मातापिता उन के मुंह में खाने का ग्रास डाले जा रहे थे. बच्चे खाना बर्थ पर गिरा रहे थे. उन के मातापिता पढ़ेलिखे लग रहे थे, लेकिन फिर भी बच्चों को ऐसा करने से मना नहीं कर रहे थे.

भोजन के कारण गंदी हुई सीटें देख कर हमें बहुत खराब लग रहा था. भोजन के बाद उन्होंने खाने के लिए कुछ फल निकाले. बच्चे फलों के छिलके व बीज कंपार्टमैंट में ही इधरउधर फेंकने लगे. जब ट्रेन के चलने का समय हुआ व और यात्री डब्बे में आने लगे तो हमें हैरानी हुई कि उन्होंने अपना सामान पैक करना शुरू कर दिया और कहने लगे, ‘चलो, अपनी सीट पर चलते हैं.’ यह देख कर कि पढ़ेलिखे लोग भी ऐसी हरकत करते हैं, मैं हैरान थी.

डिंपल पंडया, अहमदाबाद (गुज.)

*

मैं उज्जैन से पुणे जा रहा था. ट्रेन में हमारी खिड़की वाली सीट थी. पास की बर्थ पर नवविवाहित दंपती बैठे थे. यात्रा शुरू होने के 1 घंटे बाद पास बैठे सज्जन बोले, ‘‘सर, मिसेज का जी बहुत मितला रहा है, उल्टी जैसा हो रहा है. इन्हें खिड़की के पास बैठने देंगे तो शायद इन्हें राहत मिलेगी.’’ मैं इनकार न कर सका. शेष यात्रा में वे हंसते, मुसकराते, बतियाते और चुहलबाजी करते रहे. तबीयत खराब जैसी कोई बात मुझे दिखाई नहीं दी.

कुछ ही देर बाद उसी कोच में बैठे अपने परिचित मित्र से मैं मिलने गया. वे अपनी सीट पर नहीं थे. मैं लौट आया. उन महाशय, जिन की पत्नी को मैं ने अपनी सीट दी थी, ने मुझे जाते हुए तो देखा था लेकिन तुरंत ही वापस लौटते नहीं देखा था. मैं ने सुना, वे अपनी पत्नी से कह रहे थे, ‘‘क्यों, उसे बेवकूफ बना कर तुम्हें खिड़की के पास कैसा बिठाया?’’ उन महाशय की पत्नी ने चूंकि मुझे वापस लौटते देख लिया था, इसलिए उस ने होंठों पर उंगली रख चुप रहने के लिए इशारा किया. वे सकपका गए.

बड़ौदा से आगे किसी स्टेशन पर उतरने के लिए जैसे ही वे खड़े हुए, मैं स्वयं को रोक न सका. नाराज होते हुए पूछा, ‘‘क्यों भई, पत्नी को खिड़की के पास बैठाने के लिए झूठ बोलते तुम्हें शर्म नहीं आई?’’ ‘‘इस में शर्म की क्या बात है? आप से जबरदस्ती तो नहीं की थी हम ने? पूछा था तो आप इनकार कर देते.’’ जहां धन्यवाद या आभार मानने की अपेक्षा की जाती है वहां रूखे शब्दों में प्रतिप्रश्न सुन कर मैं निरुत्तर हो भौचक उस व्यक्ति को देखता रह गया.

डा. एम जी नाडकर्णी, उज्जैन (म.प्र.)

हमारी बेडि़यां

घटना नागपुर जिले के एक गांव की है. 12वीं कक्षा में पढ़ने वाली किशोरी का उसी के गांव के एक युवक से प्रेमसंबंध था. परिजनों को यह पसंद न था और उन्होंने किशोरी को प्रेमसंबंध खत्म करने की हिदायत दी लेकिन वह अपने प्रेमी को छोड़ने के लिए तैयार न हुई. युवक से प्रेमसंबंध खत्म कराने के लिए परिजन किशोरी को एक 66 वर्षीय तांत्रिक के पास ले गए. तांत्रिक ने लड़की के सामने परिजनों से गहन पूछताछ की और विशेष शक्ति से उपचार करने का झांसा दिया. तांत्रिक की 26 वर्षीय एक महिला सहयोगी भी उस के साथ रहती है. उसी सहयोगी की मदद से तांत्रिक ने किशोरी को अपने विशेष उपचार कक्ष में ले जा कर पूरी तरह नग्न कर दिया. उस के अंगों से खेलते हुए तांत्रिक ने उस का 2-3 बार बलात्कार किया. अस्मत लुटने के बाद किशोरी को बेहोशी की दवा दे कर सुला दिया गया.

तांत्रिक ने परिजनों को युवक के प्रेम का भूत किशोरी के दिल और दिमाग से पूरी तरह से निकालने के लिए कुछ और प्रभावी उपचार भी जरूरी बता कर उन्हें घर भेज दिया. रात 7 बजे से तांत्रिक ने किशोरी पर अघोरी उपचार शुरू किया. पूर्णरूपेण नग्न किशोरी पर दिया रख कर कई जगह चटके दिए गए. इस दौरान पानी पीपी कर छात्रा बेहोश होती रही और तांत्रिक अपनी महिला सहयोगी के सामने ही किशोरी से रात 10 बजे तक उपचार के बीच बारबार बलात्कार कर रंगरेलियां मनाता रहा. महिला सहयोगी उसे बारबार उकसाती रही. जब तांत्रिक व उस की महिला सहयोगी दोनों सो गए तब पीडि़त किशोरी दुष्टों के चंगुल से छूट कर अपने घर पहुंची और रोरो कर सारे मामले की जानकारी परिजनों को दी.

गंगाप्रसाद मिश्र, नागपुर (महा.)

*

घटना थोड़े समय पहले की है, सोमवार का दिन था. मैं रोज की तरह मंदिर जा रही थी. रास्ते में एक साधु, जिस के एक हाथ में कमंडल, दूसरे हाथ में नाग की पिटारी थी, मुझ से बोला, ‘‘बेटी, आज सोमवार है, नाग देवता को दूध पिलाएगी तो नाग देवता तेरा भला करेंगे.’’

मैं ने 2 रुपए का सिक्का उस के कमंडल में डाल दिया.

वह बोला, ‘‘तेरी क्या मनोकामना है?’’

मैं ने कहा, ‘‘मेरे बच्चे अच्छे नंबरों से पास हो जाएं.’’

वह बोला, ‘‘तेरे पर्स में जो सब से बड़ा नोट है वह इस कमंडल में डाल दे.’’

उस वक्त मेरे पर्स में 100 रुपए का ही सब से बड़ा नोट था. मैं ने वह नोट उस के कमंडल में डाल दिया. उस समय उस ने मेरा बे्रनवाश कर दिया था और मैं उस की बातों में आ गई. हालांकि मेरे दोनों बच्चे पढ़ाई में अच्छे हैं. हमेशा अच्छे नंबरों से पास होते हैं. फिर मैं क्यों उस की बातों में आ गई, जानतेबूझते बेवकूफ बन गई.

ऊषा जैन, राणा प्रताप बाग (दि.)

आप के पत्र

सरित प्रवाह, अगस्त (प्रथम) 2014

आप की संपादकीय टिप्पणी ‘वादों का खोखला बजट’ सटीक लगी. वैसे तो सरकार कोई भी हो, बजट का ढर्रा वही रहता है. हजार, लाख, करोड़ के आंकड़ों में लिपटे बजट से आम आदमी का क्या सरोकार. स्वास्थ्य बजट में सरकार चाहे जितनी वृद्धि कर ले, सरकारी अस्पतालों में आज भी सस्ती दवाएं ही दी जाती हैं और महंगी दवाओं को बाजार से खरीदने के लिए लिख दिया जाता है. अस्पतालों की मशीनें खराब रहने के कारण बाजार से महंगे टैस्ट कराने पड़ते हैं. जनता को बुलेट ट्रेन की इतनी आवश्यकता नहीं जितनी कि मानवरहित क्रौसिंग पर गार्डयुक्त फाटक और रेलवे के लंबे सफर में साफ व शुद्ध भोजन और हर कोच के शौचालय में पानी की सुचारु आपूर्ति की है.

मुकेश जैन ‘पारस’, बंगाली मार्केट (न.दि.)

*

कटु सत्य को उकेरता आप का संपादकीय ‘वादों का खोखला बजट’ बहुत प्रभावशाली लगा. सच है कि देश के विशाल रथ की बागडोर थामने वाले सत्ताधारी नेता न जाने कब तक उस के पहिए को अपने स्वार्थ के दलदल में फंसा कर निरीह जनता को अपने झूठे वादों की मृगतृष्णा के पीछे भटकाए रखेंगे. गरीबी, बेकारी, महंगाई की मार से रक्तरंजित जनता की कराह इन धृतराष्ट्रों को कब सुनाई देगी. बजट के सुनहरे जाल में जनता को उलझा कर कब तक उसे बेवकूफ बनाते रहेंगे. समस्त विश्व को ‘सर्वे भवंतु सुखिन:’ का मंत्र देने वाले महान देश के भ्रष्टों की ऐसी महिमा रही है कि करोड़ों के बजट की रोटियों का एक छोटा सा निवाला भी भूखों तक मुश्किल से पहुंच पाता है.

रेणु श्रीवास्तव, पटना (बिहार)

*

सारगर्भित संपादकीय टिप्पणी ‘वादों का खोखला बजट’ पढ़ कर अच्छा लगा. यद्यपि देश के करोड़पतियों ने नरेंद्र मोदी सरकार से व्यक्तिगत लाभ प्राप्त करने के लालच में वित्तमंत्री अरुण जेटली के आम बजट को बहुत अधिक सराहा है, तथापि रोज कुआं खोद कर पानी पीने वाले गरीबों, मध्यवर्ग व निम्नमध्यवर्ग की जनता के लिए बजट में दीर्घकालिक वादों के सिवा कुछ नहीं है.

सर्वविदित है कि आज महंगाई के दौर में रुपए की कीमत बहुत अधिक घटी है. ऐसे में अरुण जेटली ने आयकर के निचले स्लैब पर 50 हजार रुपए की छूट दे कर ईमानदार आयकरदाताओं पर कोई बड़ा एहसान नहीं किया है. यूपीए सरकार के वित्तमंत्री पी चिदंबरम ने अपने पूर्व बजटों में महिलाओं और 80 वर्ष के ऊपर के नागरिकों को आयकर में विशेष रियायतें प्रदान की थीं जबकि जेटली ने उन को भी कड़वी दवा पिला कर उन्हें नजरअंदाज किया है. मोदी सरकार के प्रथम आम बजट में आम जनता की यह आशा बलवती थी कि जेटली कुछ ऐसा क्रांतिकारी बजट पेश करेंगे जो कांगे्रसी सरकारों के बजटों से पूरी तरह भिन्न हो, किंतु ऐसा नहीं हुआ. कहना न होगा कि उन का बजट यूपीए सरकार का ही मिलाजुला प्रारूप है.

डा. जे डी जैन, नोएडा (उ.प्र.)

*

संपादकीय टिप्पणी ‘सरकार का धार्मिक एजेंडा बरकरार’ पढ़ी. धार्मिक प्रचारप्रसार पर चाहे संवैधानिक पाबंदी हो, फिर भी सरकार करदाताओं के पैसे से पर्यटन के नाम पर तीर्थयात्राओं को सुगम बनाने के लिए भरपूर पैसा दे रही है. वास्तव में होना तो यह चाहिए कि तीर्थस्थानों को चंदे और दान में मिली रकम से ठीक कराया जाए, जैसे गैर धार्मिक पर्यटन स्थलों के साथ होता है पर यह फैसला तो मतदाताओं ने कर दिया था कि इस बार धर्म पर पैसा न्योछावर हो.

मायावती के पदचिह्नों पर सरदार पटेल की मूर्ति पर 200 करोड़ रुपए खर्च करना कोई नई बात नहीं है. वैसे करोड़ोंअरबों खर्च कर मूर्तियां स्थापित करना, तीर्थस्थलों पर बेतहाशा खर्च हमारे जैसे देश के लिए कतई शोभा नहीं देता, जहां महंगाई, गरीबी, भ्रष्टाचार से जनता त्राहित्राहि कर रही हो.

कैलाश राम गुप्ता, इलाहाबाद (उ.प्र.)

*

आप की टिप्पणी ‘गरीबों की रोजीरोटी की सुरक्षा’ उम्दा लगी. भारत में 45 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे है जिन्हें दो वक्त को रोटी नहीं मिलती. वे इतने कमजोर हैं कि चोरी भी नहीं कर सकते. वे बच्चों को बेचते हैं. विदेशों से लोग गोआ आते हैं और बच्चों के साथ यौन इच्छा पूरी करते हैं. कुछ लोग बच्चों के अंग काट कर उन से भीख मंगवाते हैं. सरकार शिक्षा पर बहुत कम खर्च करती हैं. करोड़ों बच्चे फीस के पैसे न होने के चलते स्कूल नहीं जाते. ऐसे बच्चों को आतंकवादी खरीद कर शिक्षा देते हैं और फिर उन्हें आतंकवादी बना देते हैं.

एक पाठक

*

नदियों को जोड़ना

अगस्त (प्रथम) अंक में प्रकाशित लेख ‘बजट 2014-15 : शब्दों और वादों की बाजीगरी’ पढ़ा. मैं यहां नदियों को जोड़ने की योजना के बारे में प्रकाश डालना चाहूंगा, जिसे ऐसे बजटों के माध्यम से कभी भी पूरा नहीं किया जा सकता है. नदियों को जोड़ने की योजना तकरीबन 150 वर्ष पहले की थी और यह विचार अंगरेजों का था. 1858 में जब कर्नल और्थर कौटन, हाइड्रोलिक इंजीनियर ने महानदी पर अपनी रिपोर्ट ओडिशा में उपनिवेशी शासन को सौंपी थी, तब नदियों को जोड़ने का विचार उठा था. 1960 में इस मुद्दे को तत्कालीन विद्युत और सिंचाई मंत्री के एल राव ने उठाया था. उन का प्रस्ताव था कि गंगा नदी को कावेरी नदी से 2,640 किलोमीटर की दूरी को एक कैनाल द्वारा जोड़ा जाए. उस समय इस परियोजना में 12 हजार करोड़ रुपए का अनुमानित खर्च निहित था, जिस के कारण इसे कार्यान्वित नहीं किया जा सका.

आज उक्त परियोजना का अनुमानित खर्च बढ़ कर भारत के वार्षिक बजट जितना होगा. इस के अतिरिक्त इस परियोजना में गंगा के पानी को छोटानागपुर पावर और इस से आगे ले जाने के लिए विद्युत की भारी मात्रा की आवश्यकता भी होगी. वर्तमान में तो भारत की अनेक नदियों को जोड़ने की बात की जा रही है, जिस में उक्त अनुमानों से कई गुना खर्च की आवश्यकता होगी. इस दृष्टि से वर्ष 2014-15 में लघु राशियों के प्रावधान बेमानी हैं. 1977 में कैप्टन दस्तूर कमेटी ने नदियों के संबंध में एक व्यापक योजना सामने रखी थी. योजना के अंतर्गत, हिमालयन नदियों को एक हार की आकृति में जोड़ा जाना था. इस कमेटी ने दिल्ली और पटना को जोड़ने के लिए 4200 किलोमीटर लंबी हिमालयन कैनाल और 9,300 किलोमीटर लंबी दक्षिणी कैनाल का प्रस्ताव रखा था. इस की अनुमानित लागत 24 हजार करोड़ रुपए थी. इस प्रस्ताव को भी वित्तीय और तकनीकी आधार पर इंटीग्रेटेड वाटर रिसोर्स डैवलपमैंट प्लान के लिए गठित नैशनल कमीशन ने अस्वीकृत कर दिया था.

वर्तमान योजना नैशनल वाटर डैवलपमैंट एजेंसी द्वारा तैयार की गई है, जिस में गंगा के पानी की लिफ्ंिटग की सिफारिश की गई है. इस के अंतर्गत पूर्वी बहाव वाली नदियों अर्थात प्रायद्वीप कंपोनैंट के 16 लिंकों और हिमालयन कंपोनैंट के 14 लिंकों को तैयार करने की योजना है. इस के लिए हजारोंकरोड़ों रुपए की आवश्यकता है. सरकार इन योजनाओं के नाम पर ऊंट के मुंह में जीरा वाली कहावत को चरितार्थ कर जनभावनाओं से खेल रही है, समूचे राष्ट्र को धोखे में रख रही है.

बालकृष्ण काबरा, नागपुर (महा.)

*

धर्म के नाम पर धंधा

सरिता पत्रिका मानवीय चेतना का इतना महत्त्वपूर्ण दस्तावेज है कि इसे हर इंसान को पढ़ना चाहिए. पत्रिका जिस प्रकार से धार्मिक पाखंड, राजनीति की कलाबाजी, जातीय उन्माद, सड़ीगली परंपराओं से बजबजाते समाज का चित्रण करती है, उस के लिए पूरी संपादकीय टीम को नमन करता हूं.

अगस्त (प्रथम) अंक में प्रकाशित लेख साईं बाबा बनाम शंकराचार्य विवाद: धर्मों में आपसी पुराने वैर का एक और दोहराव’ पढ़ा. धर्म के नाम पर देशभर में जो धंधा चल रहा है, उसी का यह विस्फोट है. दरअसल, धर्म के ठेकेदारों को अपनी दुकानदारी की चिंता परेशान कर रही है. धार्मिक आयोजनों व भगवान की पूजा की विधियों को ले कर मेरे मन में कुछ प्रश्न उठते रहते हैं. समाज में आज कई तरह की पूजापाठ व धार्मिक आयोजन हो रहे हैं. उस के बावजूद पापाचार, व्यभिचार और अत्याचार बढ़ रहे हैं, आखिर ऐसा क्यों? अगर ईश्वर सर्वव्यापी है तो उसे हम मंदिरों में ही क्यों पूजते हैं?

डा. रघुवंश कुमार, पटना (बिहार)

*

लालूनीतीश गठजोड़

अगस्त (प्रथम) अंक में छपे लेख ‘जंगलराज से मंगल की उम्मीद’ पर किए गए नीतीश व लालू के गठबंधन को पढ़ कर याद आया कि ‘कच्चा धागा प्रेम का मत तोड़ो चटकाय, टूटे से फिर ना जुड़े, जुड़े गांठ पड़ जाय’ वाली कहावत की सचाई से आंख बंद कर ये दोनों कितना ही लैलामजनू का स्वांग रचें, समय आने पर जब अहं का टकराव होगा तो ये दोनों दंगल में उतरते हुए, रेल लाइन समान 2 ऐसी समानांतर रेखाएं बन जाएंगे जो कभी भी और कहीं जा कर मिलती ही नहीं हैं. नीतीश अपनी नैया पार लगाने की कितनी ही जुगत लगा लें, मतदाताओं की जागरूकता के सामने वे अपने इस कुप्रयास में भी सफल नहीं हो पाएंगे.

ताराचंद देव रैगर, श्रीनिवासपुरी (न.दि.)

*

गंगा की सफाई

अगस्त (प्रथम) अंक में लेख आबोहवा नहीं, धार्मिक एजेंडा है ‘गंगा की सफाई’ पढ़ कर याद आया कि मैली होती जा रही गंगा की हालत से व्यथित हो कर पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई ने कहा था, ‘हम ने नदियों को पूजा नहीं, दूषित किया है.’ गंगा ही क्या किसी भी नदी की साफसफाई में करोड़ों रुपए फूंक दिए जाएं पर जब तक हमारी मानसिक सोच कुंठित है तब तक सब व्यर्थ है.

टीसीडी गाडेगावलिया, पश्चिम विहार (न.दि.)

*

लेखिका बधाई की पात्र

अगस्त (प्रथम) अंक में छपे लेख ‘जब कोई बात बिगड़ जाए’ की लेखिका को बधाई देना चाहता हूं. अकसर हम देखते और सुनते आए हैं कि मैं ने ऐसा नहीं कहा था या मेरा मतलब ऐसा नहीं था. कहा था या नहीं, मतलब था या नहीं, बात तो बिगड़ ही गई. रिश्ते ठीक करना आज के समय में दुर्लभ सा ही लगता है. एक मेरे मित्र हैं जो मिलने पर पुराने किस्से ले बैठते हैं जिन में अधिकतर उन की अपनी तारीफ होती है. इसी तरह एक दूसरे मित्र हैं जो छुट्टी से वापस आने पर हमेशा यही कहते हैं, ‘मैं ने आप को बहुत मिस किया.’ मेरे से कोई उत्तर न पा कर वे मुझ से पूछते हैं, ‘आप भी तो मुझे याद करते होंगे?’ मेरी समझ में नहीं आता कि मैं उन्हें कैसे समझाऊं कि ऐसा नहीं होता.

पत्नी के यह पूछने पर कि ‘मैं कैसी लग रही हूं’ या ‘चिकन कैसा बना है’, मुझे कुछ खास मेहनत नहीं करनी पड़ती क्योंकि वह सदैव सुंदर लगती है और चिकन हमेशा स्वादिष्ठ बनता है. पर हां, यह कहने पर कि ‘जरा चख कर बताइए नमक ठीक है या नहीं,’ मैं दुविधा में पड़ जाता हूं. मेरा जवाब होता है, ‘ठीक है, फिर भी एक दफा तुम भी चख लो तो अच्छा होगा.’

ओ डी सिंह, बड़ौदा (गुज.)

*

रीतिरिवाजों के नाम पर पाखंड

अगस्त (प्रथम) अंक में प्रकाशित लेख ‘साईं बाबा बनाम शंकराचार्य विवाद : धर्मों में आपसी पुराने बैर का एक और दोहराव’ पढ़ा. स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती द्वारा साईं पूजा का अचानक विरोध करना समझ से परे है. भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है जबकि यहां अधिकतर विवाद धर्म, आस्था को ले कर पनपते हैं. यही नहीं, शिक्षा, नौकरी और भी पता नहीं कहांकहां धर्म के आधार पर ही आरक्षण की नीति बना कर भेदभाव होता है. हिंदू धर्म में रीतिरिवाजों के नाम पर कितने ही पाखंड होते हैं. इन सब मुद्दों के बारे में स्वरूपानंद सरस्वती के मुंह से आज तक एक शब्द भी नहीं निकला जबकि शिरडी में न तो लूटखसोट है न दानदक्षिणा के लिए जोरजबरदस्ती.

स्वामीजी के पास करोड़ोंअरबों रुपए हैं. उन के ठाटबाट राजामहाराजाओं से कम नहीं हैं. ऐसे में वे अपने को संन्यासी क्यों कहते हैं? हैरानी यह है कि उन्हें पूजने वाले अंधभक्तों को यह सब दिखाई नहीं देता. कितना अच्छा होता कि साधुसंन्यासी देश में व्याप्त भ्रष्टाचार, महंगाई, बलात्कार, हिंसा की घटनाओं पर बोलते हुए समाज को सही दिशा दिखाते तो शायद ‘निर्भया’ जैसे कांड न होते.   डा. जागृति ‘राज’ जबलपुर (म.प्र.)

गीता रस्तोगी : बोनसाई से सजाती संवारतीं घर

उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के बेहद पौश इलाके हजरतगंज में रहने वाली गीता रस्तोगी ने अपने घर के लौन को बगिया में बदलने के लिए बोनसाई का सहारा लिया है. बोनसाई के तमाम तरह के पौधों के साथ उन की बगिया में आम्रपाली आम, अमरूद और नीबू के पेड़ भी लगे हैं. 

लखनऊ के खानदानी व्यवसायी परिवार से संबंध रखने वाली गीता रस्तोगी पहले पुराने लखनऊ के चौक महल्ले में रहती थीं. वहां घर में जगह ज्यादा नहीं थी तो घर के टैरेस पर ही अपनी बगिया लगाई थी. 16 साल पहले वे हजरतगंज में शाहनजफ रोड पर आ बसीं. यहां उन के घर में काफी जगह थी जिस में उन का मखमली घास का लौन तैयार हुआ, फिर आम, अमरूद, नीबू और दूसरे पेड़ लगाए गए. अपने लौन को खूबसूरत बनाने के लिए गीता रस्तोगी ने बोनसाई से तैयार होने वाले पौधों का सहारा लिया. उन के पास करीब 50 प्रकार के बोनसाई के पेड़ हैं. 

बोनसाई के पौधे लंबी उम्र के होते हैं. अगर इन की सही देखभाल की जाए तो ये 100 साल की उम्र तक भी रह सकते हैं. वैसे बोनसाई से लौन और घर सजाने की पहल के चलते इस का बिजनैस भी शुरू हो गया है. करीबकरीब हर छोटेबडे़ शहर में बोनसाई को बेचने वाले लोग मिल जाते हैं. इस की कीमत पेड़ की प्रजाति और उस की उम्र के हिसाब से तय होती है. आमतौर पर इस की कीमत 500 रुपए से शुरू हो कर 8 हजार रुपए तक होती है. इन पेड़ों में साइकस, पाम, आम, नीबू, अमरूद, शहतूत, नारंगी, बोगनबेलिया, कैक्टस और सफेद करौंदा प्रमुख होते हैं.

गीता कहती हैं, ‘‘अपने घर में बोनसाई तैयार कर के बगिया सजाने में ज्यादा खुशी मिलती है. यह आप की पेड़पौधों में रुचि को भी प्रदर्शित करता है.’’

बोनसाई के पेड़ की खूबसूरती में गमले का भी बड़ा योगदान होता है. बोनचाइना के बने गमले और पौट ज्यादा पसंद किए जाते हैं. कुछ लोग पीतल के गमलों का प्रयोग भी करते हैं. बोनसाई के पेड़ जब पुराने हो जाते हैं तो उन में फूल और फल भी निकलने लगते हैं. तब ये देखने में बहुत प्यारे लगते हैं. बोनसाई के जरिए कम जगह में ज्यादा पौधे देखने और समझने को मिल जाते हैं. पौधे में लगे फल और फूल को बडे़ होते देखना बहुत रोमांचक लगता है.

कैसे तैयार करें बोनसाई : बोनसाई तैयार करने के लिए पुराने पेड़ों की कलम कर के उन को जमीन में लगाया जाता है. सालभर के बाद पौधे को जमीन से निकाल कर गमले में लगा देते हैं. इस की खाद के रूप में सड़ी गोबर वाली खाद का प्रयोग बेहतर होता है. इस के 1 साल बाद पतले तार के सहारे पौधे को आकार देने का काम शुरू करते हैं. अब इस को पौट में लगा दिया जाता है. पौट में मिट्टी में कोयले का चूरा, नीम की खली, हड्डी का चूरा मिलाते हैं. हर पेड़ के लिए खाद की मात्रा अलगअलग होती है. पौधे के तने को पाइप के सहारे खड़ा करते हैं. धीरेधीरे इसी पौट में पौधा बड़ा होने लगता है. तब हर साल इस की कटिंग की जाती है. जब पौधा पूरी तरह से मजबूत हो जाता है तो पाइप और तार अलग कर दिया जाता है. इस के बाद बड़ी सावधानी के साथ पौट की मिट्टी और दूसरी चीजों को बदला जाता है.

घर में रखे पौधों को समयसमय पर इन को लौन में रख कर धूप दिखानी जरूरी होती है. इन पौधों को सीधे धूप में नहीं रखना चाहिए. बोनसाई के जरिए कम जगह में ज्यादा पौधे रखने का सुख महसूस किया जा सकता है. बोनसाई के पौधे लगाने/उगाने में थोड़ी मेहनत जरूर लगती  है पर इस से दिल को सुकून मिलता है.  

मेहनत का काम है बगिया सजाना

बगिया कोई भी कहीं भी हो, उसे सजाने में लगातार मेहनत करनी पड़ती है. बगिया की शौकीन गीता रस्तोगी कहती हैं, ‘‘घर की बगिया या लौन सजाना मेहनत का काम होता है. पानी, मिट्टी और खाद का उपयोग कर के बगिया को सजाया जासकता है. मुझे साफसुथरा और हराभरा लौन पसंद आता है. इस को बनाने के लिए चुनी गई जगह को फर्श से ऊंचा रखा जाता है. इस के चारों ओर पेड़ और लताओं वाले पौधे लगाए जाते हैं. किनारे पर ऊंचे दिखने वाले पेड़ लगाए जाते हैं. बगिया में सजावट वाले पेड़पौधों के अलावा फल वाले पेड़ भी होने चाहिए. आज के समय में बच्चों को दिखाने के लिए भी घर की बगिया काम आती है. हमारे घरों में रहने वाले बहुत से बच्चों ने बाजार में बिकने वाले फल तो देखे होते हैं पर पेड़ में लगे हुए फल उन को कम ही देखने को मिलते हैं. ऐसे में अपनी बगिया में वे फलों से लगे पेड़ भी देख सकते हैं.’’

गीता रस्तोगी आगे बताती हैं, ‘‘आज की बगिया पहले जैसी नहीं रह गई है. अब इस को सजाने के लिए बहुत से काम किए जाते हैं.  हम जब विदेश घूमने जाते हैं तो वहां कई तरह के गार्डन घरों में देखने को मिलते हैं. वहां से अपने घर की बगिया सजाने के लिए पेड़ और दूसरी चीजें लाते हैं. कई बार पेड़ तो यहां नहीं लगते पर दूसरी सजावटी चीजों से हम घर की बगिया को सजाने में सफल होते हैं. इस काम में मेरे पति मेरा हौसला बढ़ाते रहते हैं. उन को सजावट की कोई चीज दिखती है तो वे ले कर आते हैं. कई बार बेटा और बहू भी इंटरनैट पर देख कर बताते हैं कि मैं अपने गार्डन को कैसे और अच्छा बना सकती हूं.’’

दिल को सुकून देती एम्ब्रोस की गार्डनिंग

‘खिलते हैं गुल यहां…’, ‘मैं ने कहा फूलों हंसो तो वो खिलखिला कर हंस दिए…’, ‘फूल आहिस्ता फेंको, फूल बड़े नाजुक होते हैं…’, ‘ऐ फूलों की रानी बहारों की मलिका…’, ‘फूल तुम्हें भेजा है खत में…’ जैसे गीत गुनगुनाना उन्हें इसलिए पसंद है क्योंकि इन गीतों में फूलों का जिक्र है. तरहतरह के फूलों के रसिया एम्ब्रोस पैट्रिक हमेशा फूल पौधों के बीच घिरे रहना पसंद करते हैं व फूलों और पौधों के बगैर उन की कोई बात पूरी ही नहीं होती. बचपन से फूलों और पौधों को गमले में लगाने के शौकीन रहे एम्ब्रोस ने अपने घर की छत पर काफी बड़ा और हर तरह के फूलों के पौधों से सजा गार्डन बना रखा है. काम के बोझ के बीच भी वे हर दिन 2 से 3 घंटे गार्डन की देखरेख में गुजारते हैं. छुट्टियों के दिन में तो 5-7 घंटे वे अपने फूलपौधों के साथ ही गुजारते हैं.

पटना के पुराने और व्यस्त इलाके पटना सिटी में घुसते ही हर ओर प्रदूषण, गाडि़यों की चिल्लपौं, जाम और गंदगी से भरी तंग सड़कों से गुजरते हुए जब हाजीगंज कैमाशिकोह, जिसे कौआखोह के नाम से भी जाना जाता है, पहुंचते हैं तो दिलोदिमाग में अजीब सी कड़वाहट और बौखलाहट पैदा होती है. उस महल्ले की एक छोटी सी गली से गुजर कर एम्ब्रोस पैट्रिक की विशाल व शानदार हवेली की छत पर पहुंचते हैं तो बड़े ही करीने से सजाए गए गार्डनिंग के करिश्मे को देख दिल को सुकून मिलता है.

बिहार अल्पसंख्यक ईसाई कल्याण संघ के सचिव और जीसस ऐंड मेरी एकेडमी के डायरैक्टर एम्ब्रोस पैट्रिक बताते हैं कि शहर में इतनी जमीन नहीं मिल पाती है कि बागबानी के शौक को बेहतर तरीके से जमीन पर उतारा जाए. घर की छत पर गमलों में कुछ फूलों और सजावटी पौधों को लगा रखा था, पर मन को सुकून नहीं मिल पा रहा था और बड़े पैमाने पर गार्डनिंग करने की इच्छा बढ़ती जा रही थी. एक दिन औफिस में बैठेबैठे अचानक खयाल आया कि क्यों न घर की छत को ही गार्डन के रूप में विकसित किया जाए. उस के बाद ही 4 हजार वर्गफुट की छत को गार्डन का रूप देने के मिशन में जुट गया. एम्ब्रोस की बगिया में करीब 1,200 बड़े और छोटे गमले हैं और सारे के सारे लोहे के स्टैंडों पर सजा कर रखे गए हैं. हरेक गमले में पौधा लगा है. कोई भी गमला खाली या बेकार नहीं पड़ा है. एम्ब्रोस कहते हैं कि इतने सारे गमले होने के बाद भी उन्हें लगता है कि काफी कम गमले हैं, अब ज्यादा जगह नहीं है कि और ज्यादा गमले छत पर रखे जा सकें. उन के गार्डन की सब से बड़ी खासीयत उस में कई किस्मों के गुलाब के पौधे हैं.

मल्टीकलर गुलाब से ले कर हरा, पीला, काला, सफेद, लाल, पिंक कलर के गुलाब के झूमते फूल बरबस ही आने वालों का ध्यान अपनी ओर खींचते हैं. लता वाला गुलाब उन के गार्डन का अनोखा कलैक्शन है. एम्ब्रोस के गार्डन में गेंदा, डहेलिया, कांजी, जूही, बोगनबेलिया, अड़हुल, चंपा, बेला, चमेली, रजनीगंधा समेत फिनिक्स पाम ट्री के पौधे झूमतेगुनगुनाते दिखते हैं. फिनिक्स पाम ट्री की खासीयत है कि वह सालभर हराभरा रहता है. मुसांडा के पौधे की अलग ही खूबसूरती है. इस पौधे के पत्ते सफेद और पिंक रंग के होते हैं.

गार्डनिंग का शौक रखने वालों को एम्ब्रोस यह सलाह देते हैं कि वे पूरी तैयारी के साथ ही गार्डनिंग की शुरुआत करें. पौधों और फूलों की किस्मों, किस पौधे में कब और कितना पानी व खाद डाली जाए, किस पौधे को कितनी धूप और छांव की दरकार है, इस की जानकारी होनी चाहिए. एम्ब्रोस पैट्रिक के जीवन का फलसफा है कि खुद की बगिया को महकाओ और दूसरे को भी इस के लिए प्रेरित करो.

साकल्ले दंपती का हराभरा बगीचा

मध्य प्रदेश जनसंपर्क विभाग से अतिरिक्त निदेशक पद से सेवानिवृत्त हुए प्रकाश साकल्ले की पत्नी शोभा इसी विभाग में जनसंपर्क अधिकारी थीं. दोनों जब भोपाल के शिवाजी नगर स्थित शासकीय आवास को छोड़ पत्रकार कालोनी के अपने घर में पहुंचे तो 2,700 वर्गफुट का मैदान बागबानी के लिए तैयार था. किचन गार्डनिंग को अहमियत देती बात यह है कि प्रकाश ने मकान बनाया 1,500 वर्गफुट एरिया में और बागबानी के अपने शौक को पूरा करने के लिए, 1,200 वर्गफुट की जगह घर के पीछे की तरफ छोड़ी.

इसे बागबानी का जनून ही कहा जाएगा कि दूसरे लोगों की तरह साकल्ले दंपती की दिलचस्पी नवागंतुकों को अपना मकान कम, बगीचा दिखाने में ज्यादा रहती है. इस की वजह भी मुकम्मल है कि इन दोनों का खाली वक्त बगीचे में ही गुजरता है. सेवानिवृत्ति के बाद हर कोई अपने शौक पूरे करता है, प्रकाश और शोभा ने भी यही किया. नौकरी के दिनों में ही दोनों ने तय कर लिया था कि अपने घर में एक खूबसूरत बगीचा जरूर लगाएंगे. बेटा अमेरिका के न्यूजर्सी शहर में नौकरी करने के लिए चला गया और बेटी की इंदौर में शादी हो गई, लिहाजा अकेलेपन से बचने के लिए दोनों ने बगीचा संवारना शुरू कर दिया.

शुरुआत अनाड़ीपन से

प्रकाश और शोभा दोनों को दूसरे कई लोगों की तरह बागबानी का कोई अनुभव नहीं था. कहेसुने की बिना पर उन्होंने अपने गार्डन की बुनियाद रखी. प्रकाश बताते हैं, ‘‘बड़ी मदद हमें उद्यान विभाग के विशेषज्ञों और सरिता के बागबानी विशेषांकों से मिली.’’

अतिरेक उत्साह में शुरू में ही इन्होंने वह गलती कर डाली जो आमतौर पर अधिकांश लोग करते हैं, बच्चों की तरह ज्यादा से ज्यादा पेड़ लगाने की. बगीचे के लिए इन्होंने जो लेआउट प्लान दिमाग में बनाया था, मैदान में आतेआते उस का मूलस्वरूप बिगड़ गया यानी उस पर अमल नहीं हो पाया. दोनों नर्सरी जाते और पेड़ खरीद कर बगीचे में लगा देते थे. देखते ही देखते सारा किचन गार्डन फल, फूल और सब्जियों से भर गया. शोभायमान पेड़ और बोनसाई हालांकि इन्होंने प्रवेशद्वार से ही लगा रखे हैं जो पूरी कालोनी से इन के घर को खास बनाते हैं पर बगीचे में पहुंचने के बाद पता चलता है कि शौक दरअसल क्या होता है. पानी तो भरपूर इन के घर में है लेकिन शुरुआती परेशानी जानकारियों के अभावों में मिट्टी की पेश आई. जमीन चूंकि ढलावदार थी, इसलिए उस में मिट्टी का कटाव ज्यादा होता था. लिहाजा, 2 साल तक इन्होंने खरीद कर मिट्टी डलवाई और जमीन को समतल किया.

इस के बाद बगैर सोचेसमझे ताबड़तोड़ तरीके से पेड़ लगाने शुरू किए. फलों में आम, अमरूद, पपीता, केला और अनार जैसे पेड़ लगाए तो छोटीछोटी क्यारियां बना कर सभी तरह की मौसमी सब्जियां लगानी शुरू कर दीं. गुड़हल, तरहतरह के गुलाब, चमेली, रातरानी, गेंदा और रजनीगंधा के पेड़ क्यारियों की मेंड़ व कोनों में लगाए ताकि जगह का ज्यादा से ज्यादा उपयोग हो और सब्जियां उगाने में दिक्कत न हो.

2 साल बाद जब बगीचा पूरा भर गया तो प्रकाश और शोभा को समझ आया कि उन्होंने ज्यादा फैलने वाले पौधों को पासपास लगाने की भूल कर दी है. लिहाजा, वक्त रहते उन्होंने उसे सुधारा और बगीचे में काम करने के लिए एक माली भी रख लिया.

सब्जियों पर जोर

साकल्ले दंपती के किचन गार्डन में पांव रखते ही लौन का मखमली एहसास होता है. तकरीबन 600 वर्ग फुट में इन्होंने दूब घास लगाई है. इस के बाद शुरू होता है फल, फूल और सब्जियों का क्षेत्र जो पुराने जमाने के बड़े बगीचों की याद ताजा कर देता है. उन परंपरागत बगीचों की खूबी या खासीयत यह होती थी कि बीच का हिस्सा सब्जियों के लिए छोड़ा जाता था और दोनों ओर मेंड़ों पर फूल लगाए जाते थे. फलों के पेड़ पर्याप्त दूरी पर लगाए जाते थे ताकि क्यारियों में मौसम के हिसाब से सब्जियां उगाई जा सकें. इस से गार्डन की शोभा भी बनी रहती है और हरियाली भी दिखती है.

होली के बाद बेल वाली सब्जियां लगाने के लिए साकल्ले दंपती लकडि़यों का मंडप बना लेते हैं तो अक्तूबरनवंबर में गोभी, बैगन, मटर और मेथी जैसी सब्जियां क्यारियों में लगाते हैं. घर की जरूरत के मुताबिक आलू, प्याज, हरा धनिया और हरीमिर्च भी लगाते हैं. इसे किचन गार्डन के प्रति व्यावहारिक और व्यावसायिक नजरिया ही कहा जाएगा कि जमीन का अधिकतम उपयोग किया जाए. अलंकृत बागबानी का अपना अलग महत्त्व है लेकिन छोटे स्तर पर उस की कोई व्यावसायिक उपयोगिता नहीं है. ज्यादा से ज्यादा सब्जियां उगाने की प्रवृत्ति बताती है कि उद्यान मालिक बाजार का मुहताज नहीं रहना चाहता. फल का पेड़ तो एक दफा लग जाए तो सालोंसाल फल देता रहता है.

अखरती नहीं मेहनत

अपने बगीचे में उगाई गई सब्जियां जब प्रकाश और शोभा अपने परिचितों और मिलनेजुलने वालों को देते हैं तो उन्हें अनूठी सुखद अनुभूति होती है. लेने वाला ही बागबाग हो जाता है. और इसलिए किचन गार्डन में की गई मेहनत इन्हें अखरती नहीं. भुट्टा खाने की इच्छा हो तो बाजार जाने की जरूरत नहीं, बगीचे में लगे 8-10 पेड़ों में से किसी एक से तोड़ो और गैस चूल्हे पर ही भून कर खा लो, यह एक अलग ही सुखद एहसास है. ये दोनों बाजार से सब्जियों की उन्नत प्रजातियां लाते हैं और बजाय उर्वरकों के, गोबर की खाद को प्राथमिकता देते हैं. बागबानी के सारे औजार अब तक एकएक कर वे खरीद चुके हैं. घर में बगिया लगा कर प्रकाश और शोभा अच्छीखासी बचत कर लेते हैं और उन का समय भी अच्छा बीत जाता है, घर की शोभा अलग बढ़ जाती है. इन की तरह आप भी अपने घर में बगिया लगाइए जो आप को सुखद एहसास कराएगी.

राजेश्वर सिंह की पुत्रवधू संगीता की महकती बगिया

पेशे से बिजनैसमैन और किसान राजेश्वर सिंह ने लखनऊ के आशियाना इलाके में अपने घर की जमीन के 3 हिस्से कर रखे हैं, जिन में उन्होंने बगिया तैयार कर रखी है. उन के घर की बाउंड्री पर अंगूर की लटकती हरीभरी बेल को देख कर अंदाजा लग जाता है कि उन की बगिया कितनी उपयोगी होगी. घर की बगिया के एक हिस्से में वे खेती करते हैं. इस में धान, गेहूं, केले, गन्ने और पपीते की फसलें तैयार होती हैं. दूसरा हिस्सा जो घर के सामने है वहां पर खूबसूरत लौन बनाया है. इस में फौआरा, विक्टोरियन स्टाइल के लैंपपोस्ट और एक झूला लगाया है. लौन के चारों ओर पपीते के पेड़ व अंगूर की बेल लगी है.

बगिया के तीसरे हिस्से में अमरूद, नीबू, अनार, पपीता जैसे फल लगे हैं. 80 साल के राजेश्वर सिंह इस की देखभाल करते हैं. इस काम में उन की बहू संगीता सिंह पूरी मदद करती हैं. संगीता कहती हैं, ‘‘हम घर की रसोई में अपनी बगिया में पैदा हुई सब्जी का उपयोग करते हैं. इस से हमें ताजी सब्जी खाने को मिलती है. खेत में सब्जी और दूसरी चीजों की फसल को तैयार करने के लिए मजदूरों की मदद लेते हैं. लौन और पेड़पौधों की देखभाल के लिए हम लोग मिल कर काम करते हैं.’’ 

घर की बगिया का इंटीरियर : राजेश्वर सिंह बताते हैं कि घर की बगिया को सुंदर बनाने के लिए जरूरी है कि घर की बगिया का भी इंटीरियर खूबसूरती से कराएं. बगीचे का रंगरूप ऐसा होना चाहिए जिस से वहां पर बैठने वाले को ताजगीभरा एहसास हो सके. बगीचा आप की रुचियों और बागबानी के तौरतरीकों को स्पष्ट करता है. जिन लोगों के बगीचे हमेशा टिपटौप रहते हैं उस से साफ पता चलता है कि वे लोग बगीचे की देखरेख सही तरीके से करते हैं. पौधों के बीच हिडेन लाइट का प्रयोग किया जाता है, जिस से पौधे की हरियाली और रोशनी दोनों का ही एहसास होता रहता है.

आजकल गार्डन में रखने वाले ऐसे झूले भी आते हैं जिन में गद्दी आदि रखने की जरूरत नहीं होती. बगीचे के साथसाथ घर को भी हराभरा बनाने के लिए इंडोर प्लांट तैयार किए जाते हैं. इन में रबर प्लांट, मनी प्लांट, क्रोटन, पाम और सिगोरियम प्रमुख होते हैं. इन प्लांट्स को एक सप्ताह घर के अंदर रख कर एक दिन बाहर धूप में रखें. घर की बगिया में लैंडस्केप तैयार कर उस को और सुंदर बनाया जा सकता है. पहाड़ों सा लुक देने के लिए रंगबिरंगे पत्थर लगाए जाते हैं. झरना और तालाब भी बनाया जाता है. तालाब में तैरने वाली आर्टिफिशियल बत्तख डाली जाती हैं. लाइटिंग का प्रयोग कर के इस को और भी खूबसूरत बनाया जा सकता है. बहू संगीता की मदद से राजेश्वर सिंहघर की बगिया के लुक को समयसमय पर बदलते रहते हैं ताकि उस का आकर्षण तरोताजा बना रहे.

अमेरिकी राष्ट्रपति की पत्नी का बागबानी लगाव

बागबानी का शौक दुनिया के हर कोने की हस्तियों पर किस तरह सिर चढ़ कर बोलता है, इस का अंदाजा अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा की पत्नी मिशेल ओबामा की गार्डनिंग में व्यस्तता को देख कर लगाया जा सकता है. पेड़पौधों और हरियाली के प्रति मिशेल का लगाव जगजाहिर है. तसवीरों में मिशेल वाइट हाउस के लौन में स्कूली बच्चों के साथ समर हारवैस्ंिटग का लुत्फ उठा रही हैं. बच्चों के साथ बगिया संवारती मिशेल बेहद उत्साहित नजर आ रही हैं. आप भी बागबानी में रुचि लीजिए, प्रकृति से रिश्ता जोडि़ए. फिर देखिए, जीवन में कैसी हरियाली आती है.

आजीविका बन सकती है बागबानी

बागबानी सिर्फ शौक है. शहरों में हरियाली देखनी है तो बागबानी का सहारा लेना ही पड़ेगा. बागबानी से जुड़ी वस्तुओं के बाजार बन गए हैं. उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में पहले राणा प्रताप मार्ग स्टेडियम के पीछे हजरतगंज में ही बागबानी का बाजार लगता था. अब गोमतीनगर, पीजीआई, महानगर और आलमबाग में भी इस तरह की तमाम दुकानें खुल गई हैं. यहां पौधे ही नहीं, तरहतरह के गमले, गमला स्टैंड और गमलों में डाली जाने वाली खाद बिकती है.

तेजी से हो रहे विकास के चलते शहरों के आसपास की हरियाली गायब हो गई है. ऐसे में घरों के अंदर, छत के ऊपर, बालकनी और लौन में छोटेछोटे पौधों को लगा कर हरियाली की कमी को पूरा करने का काम किया जा रहा है. यही वजह है कि बागबानी से जुड़े हुए कारोबार तेजी से बढ़ रहे हैं. एक ओर जहां सड़कों पर बागबानी को सरल बनाने वाली सामग्री की दुकानें मिल जाती हैं वहीं पौश कालोनियों में इस से जुड़े काम खूब होने लगे हैं.

बेच रहे हैं खाद और गमले

शहरों के आसपास की जगहों पर लोगों ने खाली पड़ी जमीन पर नर्सरी खोल ली है. कुछ कारोबारी नर्सरी से पौधे शहर में ला कर बेचते हैं. ये लोग कई बार गलीगली फेरी लगा कर भी पौधे, गमले और खाद बेचते मिल जाते हैं. जिन को पौधों की देखभाल करनी आती है वे समयसमय पर ऐसे पौधों की देखभाल करने भी आते हैं. इस के लिए वे तय रकम लेते हैं. ऐसे में बागबानी से जुड़ा हर काम आजीविका का साधन हो गया है. लखनऊ के डालीगंज इलाके में रहने वाला राजीव गेहार 20 साल से बागबानी के लिए गमले, खाद और दूसरे सामान बेचने का काम कर रहा है.

उस का कहना है, ‘‘जुलाई से ले कर अक्तूबर तक लोग पौधे लगाने का काम करते हैं. इन 4 माह को हम बागबानी का सीजन भी कहते हैं.’’

पहले पौधों को रखने के लिए मिट्टी के गमले ही चलते थे. वे कुछ समय के बाद ही खराब हो जाते हैं. अब सिरेमिक और प्लास्टिक के गमले भी आते हैं. सिरेमिक के गमले महंगे होते हैं. ये देखने में बेहद सुंदर, रंगबिरंगे होते हैं और जल्दी खराब नहीं होते. प्लास्टिक के गमले देखने में भले ही कुछ कम अच्छे लगते हों पर यह टिकाऊ होते हैं. गमलों से गिरने वाला पानी फर्श को खराब न करे, इस के लिए गमलों के नीचे रखने की प्लेट भी आती है. झूमर की तरह पौधों को लटकाने के लिए हैंगिंग गमले भी आते हैं. इन को रस्सी या जंजीर के सहारे बालकनी, लौन या फिर दीवार पर लटकाया जा सकता है.

पौधों को मजबूत बनाने के लिए खाद देने की जरूरत पड़ती है. इस के लिए डीएपी, पोटाश, जिंक जैसी खादें बाजार में बिकती हैं. राजीव कहते हैं, ‘‘मैं खादें बेच कर ही अपने घर का खर्च चलाता हूं. बागबानी करने में मदद करने वाली चीजें, जैसे कटर, खुरपी, स्प्रे भी बेचता हूं.’’

देखभाल में है कमाई

घर के लौन में मखमली घास लगी हो तो आप की शान बढ़ जाती है. अब तो इंटीरियर में भी पेड़पौधों को पूरी जगह दी जाने लगी है. ऐसे में इन का कारोबार करना मुनाफे का काम हो गया है. शादी, बर्थडे या मैरिज ऐनिवर्सरी की पार्टी आने पर घर के किसी हिस्से को पौधे से सजाने का चलन बढ़ गया है. हर किसी के लिए पौधों को रखना और उन की देखभाल करना सरल नहीं होता. ऐसे में छोटेबड़े पौट में पौधे लगा कर बेचने का काम भी होने लगा है.

ऐसे ही पौधों का कारोबार करने वाले दिनेश यादव कहते हैं, ‘‘हम पौधे तैयार रखते हैं. खरीदने वाला जिन गमलों में चाहे उन को रखवा सकता है. इस के बाद समयसमय पर थोड़ीथोड़ी देखभाल कर के पौधों को सुरक्षित रखा जा सकता है.’’ पौधों की देखभाल करने वाले नीरज कुमार का कहना है, ‘‘मैं गांव से नौकरी करने शहर आया था. यहां 2 हजार रुपए महीने की नौकरी मिल गई. इस से काम नहीं चल रहा था. मैं समय बचा कर कुछ लोगों के पेड़पौधों की देखभाल करने लगा. इस के बदले में मुझे कुछ पैसा मिलने लगा. धीरेधीरे मेरे पास पेड़पौधों की देखभाल का काम बढ़ गया. मुझे नौकरी करने की जरूरत खत्म हो गई. आज मेरे पास 50 ग्राहक हैं. मेरा काम ठीक से चल रहा है.’’

बक्शी का तालाब (लखनऊ) इलाके में रहने वाला रामप्रसाद पहले गांव में मिट्टी के बरतन बनाने का काम करता था. उस की कमाई खत्म हो गई थी. इस के बाद उस ने मिट्टी और सीमेंट के गमले बनाने का काम शुरू किया. वह कहता है, ‘‘मैं सड़क किनारे अपनी दुकान लगाता हूं. इस से लोग राह आतेजाते मेरे यहां से गमलों की खरीदारी करने लगे हैं. मेरी आमदनी बढ़ने लगी है. कुछ लोग सीमेंट के गमले अपनी पसंद के अनुसार भी बनवाते हैं. सीमेंट के गमलों का ज्यादातर प्रयोग लौन में रखने के लिए किया जाता है.’’

इस तरह बागबानी लोगों की आजीविका का आधार बन रही है और उन की आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ कर रही है.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें