सरित प्रवाह, अगस्त (प्रथम) 2014
आप की संपादकीय टिप्पणी ‘वादों का खोखला बजट’ सटीक लगी. वैसे तो सरकार कोई भी हो, बजट का ढर्रा वही रहता है. हजार, लाख, करोड़ के आंकड़ों में लिपटे बजट से आम आदमी का क्या सरोकार. स्वास्थ्य बजट में सरकार चाहे जितनी वृद्धि कर ले, सरकारी अस्पतालों में आज भी सस्ती दवाएं ही दी जाती हैं और महंगी दवाओं को बाजार से खरीदने के लिए लिख दिया जाता है. अस्पतालों की मशीनें खराब रहने के कारण बाजार से महंगे टैस्ट कराने पड़ते हैं. जनता को बुलेट ट्रेन की इतनी आवश्यकता नहीं जितनी कि मानवरहित क्रौसिंग पर गार्डयुक्त फाटक और रेलवे के लंबे सफर में साफ व शुद्ध भोजन और हर कोच के शौचालय में पानी की सुचारु आपूर्ति की है.
मुकेश जैन ‘पारस’, बंगाली मार्केट (न.दि.)
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कटु सत्य को उकेरता आप का संपादकीय ‘वादों का खोखला बजट’ बहुत प्रभावशाली लगा. सच है कि देश के विशाल रथ की बागडोर थामने वाले सत्ताधारी नेता न जाने कब तक उस के पहिए को अपने स्वार्थ के दलदल में फंसा कर निरीह जनता को अपने झूठे वादों की मृगतृष्णा के पीछे भटकाए रखेंगे. गरीबी, बेकारी, महंगाई की मार से रक्तरंजित जनता की कराह इन धृतराष्ट्रों को कब सुनाई देगी. बजट के सुनहरे जाल में जनता को उलझा कर कब तक उसे बेवकूफ बनाते रहेंगे. समस्त विश्व को ‘सर्वे भवंतु सुखिन:’ का मंत्र देने वाले महान देश के भ्रष्टों की ऐसी महिमा रही है कि करोड़ों के बजट की रोटियों का एक छोटा सा निवाला भी भूखों तक मुश्किल से पहुंच पाता है.