बात पुरानी है, मैं और मेरे पति ट्रेन से सैकंड क्लास डब्बे में इंदौर जा रहे थे. हम जहां बैठे, ठीक उस के दूसरी तरफ दूसरा परिवार बैठा था. उन के साथ तकरीबन 8-10 साल के 2 छोटे बच्चे थे. वे रात को खाने के समय ट्रेन में इधरउधर दौड़ते फिर रहे थे और उन के मातापिता उन के मुंह में खाने का ग्रास डाले जा रहे थे. बच्चे खाना बर्थ पर गिरा रहे थे. उन के मातापिता पढ़ेलिखे लग रहे थे, लेकिन फिर भी बच्चों को ऐसा करने से मना नहीं कर रहे थे.

भोजन के कारण गंदी हुई सीटें देख कर हमें बहुत खराब लग रहा था. भोजन के बाद उन्होंने खाने के लिए कुछ फल निकाले. बच्चे फलों के छिलके व बीज कंपार्टमैंट में ही इधरउधर फेंकने लगे. जब ट्रेन के चलने का समय हुआ व और यात्री डब्बे में आने लगे तो हमें हैरानी हुई कि उन्होंने अपना सामान पैक करना शुरू कर दिया और कहने लगे, ‘चलो, अपनी सीट पर चलते हैं.’ यह देख कर कि पढ़ेलिखे लोग भी ऐसी हरकत करते हैं, मैं हैरान थी.

डिंपल पंडया, अहमदाबाद (गुज.)

*

मैं उज्जैन से पुणे जा रहा था. ट्रेन में हमारी खिड़की वाली सीट थी. पास की बर्थ पर नवविवाहित दंपती बैठे थे. यात्रा शुरू होने के 1 घंटे बाद पास बैठे सज्जन बोले, ‘‘सर, मिसेज का जी बहुत मितला रहा है, उल्टी जैसा हो रहा है. इन्हें खिड़की के पास बैठने देंगे तो शायद इन्हें राहत मिलेगी.’’ मैं इनकार न कर सका. शेष यात्रा में वे हंसते, मुसकराते, बतियाते और चुहलबाजी करते रहे. तबीयत खराब जैसी कोई बात मुझे दिखाई नहीं दी.

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