Download App

जिंदगी तबाह करता तेजाब

तेजाब की खुली बिक्री पर रोक लगाने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने पिछले साल दिसंबर के पहले हफ्ते में राज्य सरकारों को नसीहत दी थी कि वे 31 मार्च, 2014 तक तेजाब की बिक्री के नियम बनाएं और तेजाबी हमलों के पीडि़तों को मुफ्त इलाज और उन की प्लास्टिक सर्जरी के बाबत भी ब्योरा दें. गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने ही 18 जुलाई, 2013 को एक आदेश में गाइडलाइन जारी की थी जिस में कहा गया था कि तेजाबी हमलों को गैर जमानती जुर्म माना जाए, 18 साल से कम उम्र के लोगों को तेजाब न बेचा जाए, तेजाब खरीदने वाले से उस का पता व फोटो पहचानपत्र लिया जाए और तेजाबी हमले से पीडि़त को राज्य सरकारें 3 लाख रुपए का मुआवजा दें जिन में से 1 लाख रुपए हमले के 15 दिन के अंदर दिए जाएं.

एक बड़ी कानूनी दिक्कत यह है कि तेजाबी हमलों के बाबत अलग से कोई धारा वजूद में नहीं है. अभी ये मामले धारा 307 (हत्या की कोशिश), धारा 320 (गंभीर चोट पहुंचाना) और धारा 326 (घातक हथियारों से जानबूझ कर प्रहार कर चोट पहुंचाना) के तहत दर्ज किए जाते हैं. कवायद यह चल रही है कि धारा 326 को और विस्तार देते हुए उस में ही तेजाबी हमलों के मामले दर्ज किए जाएं, इस तरह जल्द ही धारा 326 (ए और बी) वजूद में आ सकती हैं.

अदालती सलाह

तेजाब पीडि़तों खासतौर से महिलाओं के प्रति सुप्रीम कोर्ट की मंशा और हमदर्दी बेशक स्वागतयोग्य है पर इस में व्यावहारिकता का अभाव है इसीलिए अब तक अधिकांश राज्य सरकारें तेजाब बिक्री के नियम नहीं बना पाईं और ऐसा लग भी नहीं रहा कि निकट भविष्य में बना भी पाएंगी. केवल बिहार, जम्मूकश्मीर और पुद्दूचेरी सरकारें ही सुप्रीम कोर्ट के तेजाब बिक्री संबंधी दिशानिर्देशों का पालन करते हुए नियम बना पाई हैं. जो सरकारें नियम नहीं बना पाईं उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देशों को ही नियम मानते हुए आदेश जारी कर दिए हैं. इस की वजह यह है कि अधिकांश राज्यों के विधि विभागों में पर्याप्त अमला नहीं है, लिहाजा, इस आदेश का पालन करने के लिए उन्होंने सुप्रीम कोर्ट की मंशा को ज्यों का त्यों लागू करने में ही भलाई समझी.

पर यह अंतरिम व्यवस्था ज्यादा दिन नहीं ढकेली जा सकती. आज नहीं तो कल, राज्य सरकारों को अपना मसौदा तैयार कर कानून बनाना ही पड़ेगा. इस बाबत विधानसभा के पटल पर नए कानून का ब्योरा रखा जाएगा और पारित होने पर उसे राज्यपाल के पास अनुशंसा के लिए भेजा जाएगा. सरकारें कितनी भी जल्दी करें, इस प्रक्रिया में 2-3 साल लग ही जाएंगे. क्योंकि हरेक राज्य में लंबित पड़े विधेयकों की संख्या बहुत ज्यादा है और विधानसभाओं का अधिकांश वक्त विधायकों के होहल्ले की बलि चढ़ जाता है.

खतरनाक रसायन

तेजाब एक खतरनाक रसायन है जिस का इस्तेमाल घरेलू टौयलेट क्लीनर्स से ले कर बड़े उद्योगों में बड़े पैमाने पर किया जाता है. अर्थशास्त्री और उद्योग विशेषज्ञ तो मानते हैं कि जिस देश के उद्योगों में तेजाब की जितनी ज्यादा खपत होती है वह उतना ही संपन्न और विकसित होता है. तेजाब का इस्तेमाल मोटर मैकेनिक भी करते हैं और सोने के गहने व धातुएं चमकाने में सुनार भी करते हैं. इस से दवाएं बनती हैं जबकि कृषि कीटनाशकों की तो तेजाब के बगैर कल्पना भी नहीं की जा सकती. प्रयोगशालाओं में विज्ञान के विद्यार्थी तो बगैर तेजाब के कई प्रयोग करने की सोच भी नहीं सकते.

शैक्षणिक संस्थान

सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देशों के बाद अपराधियों पर तो कोई फर्क नहीं पड़ा लेकिन शैक्षणिक संस्थानों की सिरदर्दी बढ़ने लगी है. बीती 24 मार्च को पूर्वी दिल्ली के कुछ स्कूलों पर प्रशासन ने छापा मार कर नाजायज तेजाब पकड़ा और कानूनी कार्यवाही भी कर डाली. स्कूलों के संचालक कानूनी झमेले में पड़ कर अब अदालत के बेवजह चक्कर काटने को मजबूर हैं. प्रशासन ने इन स्कूलों में छापा मार कर ‘नाजायज’ तेजाब पकड़ा और उस का ब्योरा मांगा तो स्कूल प्रबंधन विवरण देने में नाकाम रहा. इस पर प्रशासन ने स्कूलों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज कर दिए. सुप्रीम कोर्ट की हिदायतों में कहीं शिक्षण संस्थानों का उल्लेख नहीं था पर प्रशासन ने जो किया और जो आगे करेग वह इन छापों से उजागर हुआ. कानून पूरी तरह अभी बना नहीं है पर उस का दुरुपयोग और मनमानी शुरू हो गई है.

आज तक किसी शिक्षण संस्थान में कोई तेजाबी हमला नहीं हुआ है. प्रयोगशाला में इस्तेमाल होने वाले रसायनों और दूसरे उपकरणों की तरह तेजाब का भी हिसाबकिताब नहीं रखा जाता. यह कोई गुनाह नहीं है क्योंकि रोज प्रैक्टिकल होते हैं और रोज ही छात्रों को प्रयोग होने वाले सामान व रसायन दिए जाते हैं. अब शिक्षण संस्थानों को हिसाब- किताब रखना होगा कि कितने और कौन से छात्र को कितना तेजाब दिया गया और उस ने प्रैक्टिकल में ही उसे इस्तेमाल किया. मुमकिन है झल्लाए शिक्षण संस्थान भी आतेजाते वक्त छात्रों की तलाशी गुंडे, मवालियों और पेशेवर मुजरिमों की तरह लेना शुरू कर दें. इस से छात्रों और उन की पढ़ाई पर कितना बुरा असर पड़ेगा, इस का सहज अंदाजा लगाया जा सकता है.

खरीदबिक्री पर सख्ती

तेजाब का रिकौर्ड न रखने वाले स्कूलों पर भारतीय दंड संहिता की धारा 188 के तहत कार्यवाही की गई है. यह मकसद से दूर पढ़ाई में खलल डालने वाली बात है. तेजाब की बिक्री को ले कर अगर जरूरत से ज्यादा सख्ती बरती गई तो तय है कि छोटे उद्योग दिक्कत में पड़ेंगे ही, साथ ही बड़े उद्योगों को भी भारी संकट का सामना करना पड़ेगा. वजह, यह आशंका है कि फिर तेजाब की कालाबाजारी होने लगेगी. बात जहां तक महिलाओं की है तो उन के प्रति जो हिंसक अपराध होते हैं, उन 10 लाख में भी 1 तेजाबी हमले का नहीं होता, हालांकि जो होता है वह दिल दहला देने वाला होता है. इसीलिए होहल्ला ज्यादा मचता है, समाज संवेदनशील हो उठता है और ‘पकड़ो’, ‘फांसी दो’ की आवाजें आने लगती हैं.

ऐसे में सहज सवाल यह उठता है कि क्या औरतों को जलाया नहीं जाता या औरतें खुद जल नहीं मरतीं, क्या वे कुएं में नहीं ढकेली जातीं या स्वयं नहीं कूदतीं, फिर हमदर्दी में भेदभाव क्यों? क्या घासलेट और गैस सिलेंडर की बिक्री रोकी जा सकती है? क्या सारे कुएं पाटे जा सकते हैं? चाकूहथौड़े से ले कर रिवौल्वर जैसे जानलेवा हथियारों की बाबत क्या किया जाएगा? अदालती फरमान कई माने में बेतुका है जिस पर अमल से भी कोई फायदा होने वाला नहीं. मसलन, जो अपराध के लिए तेजाब खरीदेगा वह अपनी पहचान का इस्तेमाल करने की बेवकूफी क्यों करेगा. इस से होगा यह कि जो पहचानपत्र दिखा कर तेजाब खरीदेंगे उन पर पुलिस शिकंजा कसेगी कि बताओ, जो तेजाब खरीदा था वह कहां गया, कितना बचा और कितना इस्तेमाल किया.

तेजाब किसी भी तरह से गोलाबारूद या जहर नहीं है फिर भी अदालती दबाव में इसे गृह मंत्रालय जहर की श्रेणी में रखने जा रहा है जबकि वह उद्योगधंधों और रोजमर्रा की जरूरतों व खपत के बारे में नहीं सोच रहा.

दर्ज मामले

यह जान कर हैरानी होती है कि देश में अभी तक तेजाबी हमलों के महज 1,500 के लगभग ही मामले दर्ज हुए हैं. इस से ज्यादा हैरत वाली बात यह है कि राष्ट्रीय अपराध रिकौर्ड ब्यूरो के पास तेजाबी हमलों का कोई साफ आंकड़ा नहीं है. सब से ज्यादा तेजाबी हमले कर्नाटक में दर्ज किए गए हैं. 1990 से ले कर अब तक वहां हुए तेजाबी हमलों की तादाद 100 भी नहीं है यानी सालाना 7 मामले दर्ज हुए. कई प्रदेशों में तो तेजाबी हमलों के इक्कादुक्का मामले ही सामने आए हैं. जाहिर है, समस्या उतनी गंभीर है नहीं, जितनी बताई जा रही है.

पीडि़तों को राहत दी जाए, उन का इलाज किया जाए, प्लास्टिक सर्जरी की जाए, ये एतराज की बातें नहीं पर राज्य सरकारें बेहतर जानती हैं कि तेजाब की बिक्री को नियमकानूनों में बांधा गया तो छोटे कारीगरों को खाने के लाले पड़ जाएंगे जिस का असर राजस्व और तरक्की पर भी पड़ेगा. बीते 10 साल मीडिया ने जम कर तेजाब पीडि़तों से ताल्लुक रखती सामग्री प्रचारितप्रसारित की, तेजाब की बिक्री को कोसा, कइयों को तो तेजाब फुटपाथ पर पानी की तरह बिकता नजर आया. इस अतिशयोक्ति से वाहवाही तो खूब मिली पर तेजाबी हमलों में कोई कमी नहीं आई जो 5 साल से स्थिर है.

यह महज इत्तफाक है कि तेजाबी हमलों में जो मामूली बढ़ोत्तरी हुई वह मीडिया के मचाए होहल्ले के बाद हुई. साल 2006 के बाद ये हमले कुछ बढ़े तो लगता ऐसा है कि यह तेजाबी हमलों के लिए प्रचार का नतीजा था जिस ने अपराधियों को तेजाब के इस्तेमाल के लिए उकसाया. बारबार पीडि़ता का जला चेहरा दिखाया और छापा गया. उस की आपबीती को चटखारे ले कर पेश किया, जो कारोबार का हिस्सा था. इस में यदि कोई संदेश या हल होता तो तेजाबी हमले बजाय बढ़ने के कम होने चाहिए थे. अपराध मनोविज्ञान के सिद्धांतों के तहत यह बात भी गौर की जानी चाहिए कि कई अपराधी तेजाब का इस्तेमाल इसलिए भी नहीं करते कि उन्हें खुद अपने झुलसने का डर रहता है. हमारे देश में कानून बनाना अब सहज होता जा रहा है. अदालतें खिंचाई करती हैं. संसद विधेयक ला कर अपना काम पूरा कर देती है पर इस से अपराध कम नहीं होते. शायद ही कोई अदालत या सरकार यह गारंटी ले कि तेजाब की बिक्री पर सख्ती से तेजाबी हमलों पर अंकुश लग जाएगा. फिर तेजाब की बिक्री पर बेवजह की बात करना बेमानी होगा.

लुंबिनी के बौद्ध मंदिर में चढ़ावा

हिंदू धर्म की धार्मिक कुरीतियों का विरोध करने के लिए महात्मा बुद्ध ने बौद्ध धर्म की शुरुआत की थी. समय के साथसाथ बौद्ध धर्म में भी हिंदूधर्म की कुरीतियां घर बनाने लगीं. बौद्ध धर्म के सब से पवित्र माने जाने वाले लुंबिनी के माया मंदिर में इस को आसानी से देखा जा सकता है. लुंबिनी को महात्मा बुद्ध की जन्मस्थली माना जाता है. 1896 में पहली बार लुंबिनी की खोज हुई थी. उस के बाद यूनेस्को ने इस को विश्व धरोहर के रूप में संरक्षित रखने के आदेश दिए थे. 

अब लुंबिनी विश्व धरोहर के रूप में जानीपहचानी जाती है. लुंबिनी नेपाल के दक्षिण में बसा है. यह भारत की सीमा से लगा जिला है. उत्तर प्रदेश के ककरहा गांव से 24 किलोमीटर दूर है. पहले इसे रूमिनोदेई गांव कहा जाता था. आज के समय में पूरी दुनिया में 50 करोड़ से अधिक बौद्ध धर्म को मानने वाले लोग हैं. इन सभी के लिए लुंबिनी तीर्थस्थल के समान है. आज भी बड़ी तादाद में विदेशी पर्यटक यहां आते हैं. वे घंटों पार्क में बैठ कर ध्यान लगाते हैं और मंदिर की परिक्रमा करते हैं.

बुद्ध का जन्म शाक्य क्षत्रियकुल में हुआ था. शाक्य गणराज्य की राजधानी कपिलवस्तु थी, जहां से कुछ दूरी पर ही लुंबिनी पड़ता है. कपिलवस्तु में भी पुरातत्त्व विभाग की खुदाईमें गौतम बुद्ध के समय के अवशेष मिले हैं. बताते हैं कि गौतमबुद्ध की माता मायादेवी सफर कर रही थीं. इसी दौरान उन को प्रसव पीड़ा शुरू हो गई. तब यहां के शालवृक्ष के नीचे मायादेवी ने जिस बच्चे को जन्म दिया, वही आगे चल कर बुद्ध बना. आज वहां मायामंदिर बन चुका है. 

दुनियाभर में फैले बौद्ध धर्म के अनुयायी यहां दर्शन के लिए आते हैं. मायामंदिर सफेद पत्थर से बना है. इस के ऊपर पीतल प्रतीक चिह्न बना है. मंदिर के अंदर वह जगह है जहां समझा जाता है कि महात्मा बुद्ध जन्म के बाद रहे थे. इस की गवाहउस समय की ईंटें और पुराना निर्माण हैं जो अब भी मौजूद हैं. इस निर्माण को बचाए रखने के लिए सीमेंट और लोहे की चादरों का कहींकहीं उपयोग किया गया है. ऊपर के स्थान की परिक्रमा करने के लिए किनारे में लकड़ी का रास्ता बनाया गया है, जिस पर से होते हुए लोग इस जगह की परिक्रमा करते हैं. मंदिर को बाहर से देखने पर इस बात का एहसास नहीं होता कि इस के अंदर कितना पुराना निर्माण सुरक्षित रखा गया है. मंदिर के अंदर किसी भी तरह की फोटोग्राफी मना है.

शुरू हुआ चढ़ावा

इस स्थान के एक किनारे पर वह जगह है जहां जन्म के बाद गौतम बुद्ध को लिटाया गया था. इस जगह को अभी भी एक चादर से ढका जाता है. पहले इस चादर को लोग पास से महसूस करने के लिए केवल छू भर लेते थे. अब यह परंपरा बदल रही है. अब यहां दर्शन करने वाले लोग इस चादर पर अपनेअपने देश की मुद्रा चढ़ावे के रूप में चढ़ाते हैं. मंदिर के बाहर आ कर लोग उस वृक्ष की ओर जाते हैं जहां गौतम बुद्ध का जन्म हुआ था.  यहां पर अब बौद्ध भिक्षु बैठने लगे हैं. वैसे तो ये बौद्ध भिक्षु केवल ध्यान में डूबे दिखते हैं. इन के आसपास पैसे रखे होते हैं. ये बौद्ध भिक्षु 10-15 की कतार में बैठे होते हैं. दर्शन करने आए लोग उन के सामने पैसे रख देते हैं. जिस वृक्ष के नीचे गौतम बुद्ध पैदा हुए थे उस के नीचे अगरबत्ती और दिया जलाने के लिए वहां सामग्री बेची जाती है. एक बौद्ध भिक्षु इस काम को करता दिखता है.

माया मंदिर के पास ही अशोक स्तंभ के पास एक दानपात्र रखा है. शीशा लगे इस दानपात्र में देशविदेश की मुद्राएं देखी जा सकती हैं. यहां पर कुछ महिलाएं अगरबत्ती, दिए और दूसरी पूजा सामग्रियों को बेचती हैं. लुंबिनी आने वाले लोग बताते हैं कि पिछले कुछ सालों से यह काम शुरू हो गया है. पहले किसी भी मंदिर में ऐसे चढ़ावा नहीं चढ़ता था. वहीं मंदिर के आसपास अब भीख मांगने वाले भी बैठे दिख जाते हैं. कुछ तो बाकायदा कंठीमाला धारण किए दिखते हैं. मायामंदिर के अलावा दूसरे मंदिरों में भी दानपात्र लगे हैं. वहां मायामंदिर जैसा पूजापाठ तो नहीं दिखता पर बौद्ध के नाम पर लकड़ी की माला, रुद्राक्ष और दूसरे पत्थरों की बिक्री खूब होती है.

बदल रही पहचान

लुंबिनी का मंदिरों वाला यह इलाका बाकी शहर से अलग है. यह काफी शांत और भव्य मंदिरों व संग्रहालयों का शहर है. यहां एक बहुत ही खूबसूरत नहर बनाई गई है. बौद्धधर्म को मानने वाले हर देश के मंदिर यहां पर बने हैं. बौद्धधर्म को मानने वाले ज्यादातर लोग अपने देश के मंदिर में ही जाते हैं. ये लोग चढ़ावा भी विदेशी मुद्रा में ही चढ़ाते हैं. एक तरह से देखा जाए, बौद्धधर्म का हिंदूकरण होने लगा है. अयोध्या में बौद्धधर्म के लिए काम करने वाले युगल किशोर शरण शास्त्री कहते हैं, ‘‘नेपाल का बौद्धधर्म हमेशा से ही हिंदू धर्म से प्रभावित रहा है. ऐसे में इस तरह के बदलाव कोई चौंकाने वाले नहीं लगते हैं. हम इसे बौद्धधर्म के हिंदूकरण की शुरुआत मान सकते हैं. बौद्धधर्म के विरुद्ध यह ब्राह्मणवादी मानसिकता की साजिश है. चढ़ावा चढ़ाने को बढ़ावा देने वाले लोग चाहते हैं कि हिंदूधर्म की तरह बौद्धधर्म भी सामाजिक कुरीतियों में उलझ जाए,’’ वे आगे कहते हैं, ‘‘बौद्धधर्म में 3 विचारधाराएं महायान, वज्रयान और हीनयान हैं. इन में महायान विचारधारा के लोग कर्मकांडी होते हैं. ये लोग ही बौद्धधर्म में चढ़ावा संस्कृति को बढ़ावा दे रहे हैं.’’

अगर बौद्ध मंदिरों में इसी तरह से चढ़ावा चढ़ता रहा तो बौद्धधर्म की पहचान बदल जाएगी. लुंबिनी आने वाले पर्यटक काफी पैसे वाले विदेशी होते हैं. वे महात्मा बुद्ध के नाम पर दिल खोल कर पैसा खर्च करते हैं. यही वजह है कि मंदिरों से लगे लुंबिनी के इलाके में होटल, रैस्तरां और दूसरी तरह की तमाम दुकानों की भरमार है. यहां रहने वाले नेपाली दुकानदार कई बार चीजों के मूल्य नेपाली मुद्रा में बताते हैं. नेपाली मुद्रा का भाव कम होता है. ऐसे में विदेशी अपनी मुद्रा में भुगतान कर देते हैं. नेपाली दुकानदार बिना बकाया पैसा वापस किए विदेशी मुद्रा रख लेते हैं. बौद्धधर्म को मानने वाले लोग ज्यादातर इस चालाकी को समझ नहीं पाते हैं.

वैवाहिक खोजबीन : जन्मपत्री नहीं जासूस चाहिए

शालिनी और संजीव के परिवार एकदूसरे को लंबे अरसे से जानते थे. इस नाते शालिनी के लिए संजीव कोई अनजाना नहीं था. संजीव अच्छी जगह काम करता था. उस की तनख्वाह भी आकर्षक थी. कहने का मतलब उस में वे सभी गुण थे जो किसी आदमी में शादी करने के लिए होने चाहिए. दोनों परिवार एकदूसरे के काफी नजदीक भी थे, जिसे अब वे रिश्तेदारी में बदलना चाहते थे. और उन्होंने ऐसा किया भी यानी शालिनी और संजीव की सगाई कर दी.

सगाई के बावजूद शालिनी ने महसूस किया कि संजीव ने कभी अपनी तरफ से उसे कौल नहीं किया, न ही रोमांटिक होने का कोई संकेत दिया और जब कभी वे साथ फिल्म भी देखने जाते तो सिनेमाघर में अजनबियों की तरह पास बैठे रहते. संजीव ने कभी शालिनी का हाथ तक नहीं पकड़ा. इन तमाम संकेतों से शालिनी को संदेह होने लगा कि कहीं संजीव का अफेयर तो नहीं है.

शादी जीवन का एक महत्त्वपूर्ण फैसला है. तमाम बातों को सोचसमझ कर व ऊंचनीच को देख कर ही इस संदर्भ में आगे कदम बढ़ाया जाता है. एक दौर तो वह था जब शादी के लिए केवल इतना आवश्यक था कि घर की बुजुर्ग महिलाओं का अपना नैटवर्क हुआ करता था जो अपनी उम्र की दूसरी महिलाओं व गौसिप आंटियों के जरिए लड़कियां लड़कों का चालचलन अच्छी तरह से मालूम कर लिया करती थीं. सबकुछ ठीक होता था तो फिर पंडित को बुला कर संभावित दूल्हादुलहन की जन्मपत्रियों का मिलान करा लिया जाता था.

प्राइवेट जासूसों का चलन

लकिन सोशल नैटवर्किंग, औनलाइन डेटिंग व मैट्रीमोनियल साइटों के बढ़ते चलन के कारण आज जिस प्रकार से युवा लड़के व युवा लड़कियां एकदूसरे से मिलते हैं, उस का पूरा अंदाज बदल गया है. साथ ही चिंताओं के दायरे में भी नयापन आया है. आज स्थिति यह है कि चाहे अरेंज्ड मैरिज हो या प्रेम विवाह, दोनों में ही कुछ महत्त्वपूर्ण जानकारियां हासिल करना आवश्यक हो गया है. जाहिर है यह काम परिवार की बुजुर्ग महिलाओं व पंडित के वश के बाहर है, खासकर तब जब लड़के व लड़की की रिहाइश के स्थान अलगअलग शहरों या अलगअलग देशों में हों. इसलिए विवाहपूर्व जानकारी हासिल करने के लिए प्राइवेट जासूसों का चलन बढ़ता जा रहा है.

आज शादी करने से पहले केवल इतनी जानकारी पर्याप्त नहीं है कि परिवार की पृष्ठभूमि, उस की आर्थिक स्थिरता, पूर्व वैवाहिक संबंध, अच्छीखराब आदतें, चरित्र व प्रतिष्ठा के बारे में ही मालूम किया जाए, बल्कि यह भी महत्त्वपूर्ण हो गया है कि लड़के व लड़की के सैक्सुअल झुकाव, सास की आदत, परिवार में भाईबहनों के हस्तक्षेप आदि के बारे में भी जान लिया जाए. इसी बदलते समाज को ध्यान में रखते हुए शालिनी ने एक प्राइवेट जासूसी एजेंसी से संपर्क किया, यह जानने के लिए कि संजीव का कहीं दूसरी जगह अफेयर तो नहीं है.

पारिवारिक जांचपड़ताल

एजेंसी ने संजीव के बारे में जानने के लिए एक किस्म का स्टिंग औपरेशन आरंभ कर दिया. संजीव के पास एक विषकन्या को भेजा गया, लेकिन वह जाल में नहीं फंसा. एजेंसी ने अपना तरीका बदला और विषकन्या की जगह एक विषलड़के को संजीव के पास भेजा. मालूम हुआ कि संजीव की दिलचस्पी विपरीत सैक्स में थी ही नहीं, वह समलैंगिक था. लेकिन संजीव के राज को दोनों परिवारों से शालिनी व एजेंसी ने यह कहते हुए छिपाया कि संजीव का कहीं दूसरी जगह चक्कर है. इस तरह एक खराब विवाह होतेहोते बच गया.

लेकिन अगर आप सोचते हैं कि आधुनिक विवाह में दबाव केवल लड़के व लड़की पर ही है तो अपने विचार बदल दें क्योंकि जांच की सूई सास पर भी तेजी से टिक रही है. मां के चरित्र के बारे में हमेशा जासूसी एजेंसियों से मालूम किया जाता है, खासकर अगर लड़का अपने मातापिता के साथ रहता है या मां उस के पास अकसर रहने के लिए आती है. लड़कियां जानना चाहती हैं कि वह किस किस्म के परिवार में जा रही है. ऐसी स्थिति में महिला जासूसों की भूमिका महत्त्वपूर्ण हो जाती है. दीपशिखा एक महिला जासूस हैं. वे सुबह 6 बजे उठने के बाद अपने बच्चे को स्कूल व पति का दफ्तर के लिए टिफिन तैयार करती हैं और फिर अपना लंच ले कर अपने काम पर निकल जाती हैं.

जिस घर की जांच करनी होती है उस में प्रवेश करने के लिए दीपशिखा सवेरे के समय को सब से महत्त्वपूर्ण मानती हैं क्योंकि उस समय पूरा घर उथलपुथल हुआ रहता है, सदस्य काम पर जाने की तैयारी में लगे होते हैं और दूध वाले से ले कर कामवाली बाई तक दरवाजे की घंटी बजा रहे होते हैं. दबाव का समय होता है और देखना यही होता है कि मां दबाव में किस किस्म की प्रतिक्रिया व्यक्त करती है, कामवाली बाई से कैसा व्यवहार करती है, कितना चिल्लाती है, क्या उस का बेटा उस के कब्जे में और पति उस का गुलाम है, ये सब बातें सुबह ही आसानी से मालूम हो जाती हैं. दीपशिखा के लिए बातचीत करते हुए किसी के घर में प्रवेश करना कठिन नहीं है. वे आधार कार्ड या कालोनी में किराए के लिए खाली अपार्टमैंट आदि के बारे में बातें करते हुए घुलमिल जाती हैं. इसी से ही वे मालूम कर पाती हैं कि घर में अटैच्ड बाथरूम कितने हैं और जीवनशैली का स्तर क्या है.

कामवाली बाई, सिक्योरिटी गार्ड, पड़ोसियों, कभीकभी संबंधित अंजान परिवार, अपने फोन पर चुपके से खींचे गए वीडियो के आधार पर दीपशिखा दफ्तर लौट कर अपनी रिपोर्ट टाइप करती हैं. यह सब इसलिए जरूरी है क्योंकि लड़कियां जानना चाहती हैं कि जिस परिवार में वे जाना चाह रही हैं वह किस किस्म (श्रेणी) के घर में आता है, कितने बाथरूम हैं, कितने नौकर हैं आदि. इन सब से ज्यादा लड़कियां यह जानना चाहती हैं कि सास कैसी है क्योंकि आखिरकार वही तो घर को चलाती है. इस में शक नहीं है कि अल्प जानकारी खतरनाक होती है और अगर उस में शक भी शामिल हो जाए तो वह विस्फोटक कौकटेल बन जाती है, जिसे (अरेंज्ड) विवाह बाजार में ज्यादातर परिवार बरदाश्त नहीं कर पाते. इसलिए यह जानना आवश्यक हो जाता है कि संभावित दूल्हे का चरित्र क्या है, लड़की का चालचलन कैसा है, क्या परिवार के पास उतनी ही संपत्ति है जितनी कि वैवाहिक विज्ञापन में बताई गई है? इस किस्म के तमाम प्रश्नों का उत्तर प्राइवेट जासूस एजेंसियां ही सही से दे सकती हैं, इसलिए उन्होंने अब घर की बुजुर्ग महिलाओं या पंडितों की भूमिका ले ली है.

आज देश का ऐसा कोई प्रमुख शहर नहीं है जहां विवाहपूर्व जानकारी एकत्र करने वाली जासूसी एजेंसियां मौजूद न हों, जैसे लेडीज डिटैक्टिव इंडिया यानी एलडीआई, ग्लोब डिटैक्टिव एजेंसी यानी जीडीए, वैटर्न इन्वैस्टीगेशन सर्विस यानी वीआईएस, ट्रुथ ऐंड डेयर डिटैक्टिव यानी टीडीडी आदि. इन में से कुछ एजेंसियों की तो अलगअलग शहरों में शाखाएं भी हैं और विदेशों में संपर्क एजेंसियां भी हैं. कहने का अर्थ यह है कि भारत में आधुनिक विवाह का कौन्सैप्ट पूरी तरह से बदल गया है. अब विवाह में खुशी संयोग की बात नहीं है बल्कि संयोग की आशंकाओं को दूर करने का प्रयास है, वह भी प्राइवेट जासूस एजेंसियों के सहारे, जो एक बार जांच करने के बाद कभी फौलोअप नहीं करतीं और न ही यह जानने का प्रयास करती हैं कि उन की रिपोर्ट के आधार पर परिवारों ने क्या फैसला लिया.

संपत्ति ब्योरे से कतराते आईएएस अधिकारी

प्रधानमंत्री पद संभालने के बाद नरेंद्र मोदी ने जो महत्त्वपूर्ण बातें कहीं उन में से एक यह बात भी थी कि नौकरशाह अपनी संपत्ति का ब्योरा दें. बात नई नहीं है, पिछली यूपीए सरकार भी अपने कार्यकाल में आईएएस अधिकारियों को इसी तरह हड़काती रहती थी लेकिन इस का कोई खास असर उन पर नहीं होता था. मौजूदा एनडीए सरकार उन्हें संपत्ति के ब्योरे की बाबत बाध्य कर पाएगी, यह देखना दिलचस्प होगा. सरकार के पास अपनी संपत्ति का विवरण हर साल जमा करना अब हर कर्मचारी व अधिकारी की कानूनी जिम्मेदारी बना दी गई है. ऐसा न करने पर सरकार उन के खिलाफ कार्यवाही कर सकती है. इस कानून का सीधा संबंध देश में पनप रहे भ्रष्टाचार और घूसखोरी से है. मिलने वाले वेतन से कर्मचारीअधिकारी कितनी जायदाद बना सकते हैं, यह भले ही सरकार तय न कर पाए लेकिन यह तो तय कर ही सकती है कि कितनी जायदाद आमदनी से ज्यादा थी.

सभी राज्यों में यह कानून लागू है. दिलचस्प बात तो यह है कि छोटे कर्मचारी समय पर अपनी संपत्ति का विवरण देते हैं पर आला अफसर, खासतौर से आईएएस अधिकारी नहीं देते. सरकार इन का कुछ नहीं बिगाड़ पाती, सिवा एक ही बात बारबार कहने के कि संपत्ति विवरण जमा करें. आज तक एक भी ऐसा मामला सामने नहीं आया  जिस में सरकार ने संपत्ति ब्योरा न देने वाले किसी आईएएस अधिकारी के खिलाफ कार्यवाही की हो. 20 जुलाई, 2014 तक 208 आईएएस अधिकारियों ने अपनी संपत्ति का ब्योरा नहीं दिया था. साल 2013 की तो छोड़ें, बीते सालों में भी अधिकारियों ने सरकार के आदेश की खुली अवहेलना की और रुतबे से नौकरी कर रहे हैं.

2012 में 130, 2011 में 49 और 2010 में 38 अधिकारियों ने संपत्ति का ब्योरा नहीं दिया. इस में गड़बड़ी की तमाम गुंजाइशें मौजूद हैं. मसलन, जिन अधिकारियों ने 2013 में ब्योरा दिया पर उस के पहले नहीं, उन की संपत्ति के बारे में सरकार अब कैसे पता लगाएगी. मुमकिन है, इस दौरान संपत्ति बेच दी गई हो.

कतराहट क्यों

अगर कुछ अधिकारी अपनी संपत्ति सरकार से छिपाते हैं यानी सार्वजनिक नहीं करना चाहते तो इस के पीछे 2 वजहें समझ आती हैं. पहली यह कि उन का राज खुल जाएगा. दूसरी, अहम बात यह है कि उन्हें इस बाध्यता पर एतराज है कि इस से क्या होगा, सरकार हमारा क्या बिगाड़ लेगी, वह तो चलती ही हम से है. ये दोनों ही बातें सच हैं. आईएएस अधिकारी को राजा यों ही नहीं कहा जाता, उसे इतने अधिकार और  सहूलियतें मिली होती हैं कि वह गलत तो दूर की बात है, सही रास्ते पर चले तो भी करोड़ों की जायदाद बना सकता है.

एक आईएएस अधिकारी इतनी संस्थाओं का मुखिया होता है कि वह दस्तखत करने और न करने से भी खासा पैसा बना सकता है. नाम न छापने की शर्त पर मध्य प्रदेश कैडर के एक आईएएस अधिकारी का कहना है कि अब दिक्कत पैसों को छिपाने की पेश आने लगी है. इस के लिए काफी हेरफेर करना पड़ता है.  बात सच इस लिहाज से है कि सफेद कमाई और जायदाद का तो हिसाब सरलता से रखा जा सकता है पर काली कमाई के मामले में कई अड़चनें आती हैं क्योंकि नाजायज जायदाद छिपा पाना पहले जैसा आसान अब नहीं है.  इसी अधिकारी के मुताबिक, पैसा निकालने के लिए चैक और दूसरे कागजों पर जितने दस्तखत एक आईएएस अधिकारी करता है उतने किसी मंत्री को भी नहीं करने पड़ते.

सरकारी योजनाओं की राशि निकाल कर विभागों या एजेंसियों कोदेना हो, लाइसैंस, परमिट जारी करना हो या फिर सरकारी पैसों का इस्तेमाल के लिए दूसरी अनुमतियां देनी हों तो ऐसे दस्तावेजों पर आईएएस अधिकारी के दस्तखत अनिवार्य होते हैं. आजकल एक आईएएस अधिकारी को औसतन 75 हजार रुपए तनख्वाह मिल रही है पर उस का खर्च गैर आईएएस अधिकारियों के मुकाबले काफी कम होता है. आवास, पैट्रोल, बिजली, फोन, स्टाफ वगैरह का खर्च उसे अलग से मिलता है. आज आईएएस अधिकारियों के पास करोड़ों की जायदाद है तो बात गोरखधंधे या हैरत की नहीं बल्कि गड़बड़ी की है.

बेलगाम अफसर

आईएएस अधिकारियों की जायदाद का ब्योरा समेट कर जनता के सामने पेश करने वाला केंद्र सरकार का कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग भी अपने निरंकुश अफसरों के सामने असहाय नजर आता है. 2 साल पहले इस विभाग ने जायदाद का ब्योरा न देने वाले अफसरों को लताड़ लगाई थी पर वह बेअसर साबित हुई थी. ऐसे में जाहिर है अधिकारी पकड़े जाने के डर से अपनी संपत्ति का ब्योरा नहीं देते और जो देते हैं वे काफी कुछ छिपा जाते हैं जिस की कोई जांच नहीं होती. कार्यवाही तब होती है जब वे पकड़े जाते हैं. इस मामले में मध्य प्रदेश कैडर के आईएएस दंपती टीनू जोशी और अरविंद जोशी के नाम लिए जा सकते हैं जिन के यहां एक छापे में अरबों की बेनामी जायदाद पकड़ी गई थी. इस संपत्ति का विवरण कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग को नहीं दिया गया था और दिया भी नहीं जा सकता था क्योंकि वह 300 करोड़ रुपए की थी. इसीलिए आयकर विभाग की नजरें तिरछी हुई थीं. इस जायदाद में जमीनें, नकदी, मकान और जेवरात के अलावा महंगी कारें, कीमती साडि़यां और शराब तक शामिल थी.

जोशी दंपती की औसत आय डेढ़ लाख रुपए महीना यानी 18 लाख रुपए सालाना थी जिस से 20 साल की नौकरी में बगैर कोई खर्च किए भी वे महज 3 करोड़ 60 लाख के लगभग जायदाद बना पाते. यह 300 करोड़ रुपए की कैसे हो गई, इस की व्याख्या करने की जरूरत नहीं. जोशी दंपती ने साल 2010 में अपनी जायदाद के ब्योरे में महज 50 लाख रुपए की संपत्ति दर्शाई थी.

करते हैं हेरफेर

सख्ती, थोड़ी सी ही सही, किए जाने का प्रभाव यह पड़ रहा है कि आईएएस अधिकारी संपत्ति के ब्योरे के मामले में सरकार को खुलेआम गुमराह करने लगे हैं. उदाहरण उत्तर प्रदेश कैडर के 1974 के बैच के अधिकारी अजित कुमार सेठ का लें तो उन्होंने अपने पास 4 मकानों का होना दर्शाया है पर किसी भी मकान की कीमत 7 लाख रुपए से ज्यादा नहीं बताई है. बात बड़ी दिलचस्प है कि इस अधिकारी द्वारा साल 1995 में नोएडा में एक फ्लैट 4,66,740 रुपए में खरीदा गया था तब से इस की कीमत इतनी ही बताई जा रही है. इस पर शोध होना जरूरी है कि 19 साल में इस फ्लैट की कीमत बढ़ी क्यों नहीं और सरकार का कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग क्यों इस तरफ से आंखें मूंदे बैठा रहता है यानी दी गई संपत्ति विवरण का मूल्यांकन या सत्यापन नहीं किया जाता. जिस कौलम में जायदाद का वर्तमान मूल्य लिखा होता है उसे ज्यों का त्यों उतार दिया जाता है. ऐसा एक नहीं, सैकड़ों अधिकारी कर रहे हैं.  जानकारी न देना तो गुनाह है ही पर गलत जानकारी दे कर सरकार को गुमराह करना उस से भी ज्यादा संगीन गुनाह है.

सरकार की संपत्ति की परिभाषा में सोने के गहने और दूसरी जगह किया गया निवेश शामिल नहीं  है इसलिए आईएएस अधिकारी इन में ज्यादा पैसा लगाते हैं.

पकड़े जाने पर बहानेबाजी 

अजित कुमार सेठ जैसे लगभग 200 आईएएस अधिकारी ऐसी खामियों का फायदा उठा रहे हैं. उन के मकानों और जमीनों की कीमत सालों से स्थिर है.  रिटायरमैंट के बाद वे यही जायदाद जब करोड़ों में बेचेंगे तब सरकार का कोई जोर इन पर नहीं चलेगा. आय से ज्यादा संपत्ति पकड़ी जाती है तो आईएएस अधिकारी तरहतरह की सफाई देने और बहाने बनाने लगते हैं.  मध्य प्रदेश के ही एक अधिकारी रमेश थेटे जब इस मामले में पकड़े गए तो उन्होंने अजीब दलील यह दी थी कि चूंकि वे दलित हैं इसलिए उन्हें परेशान किया जा रहा है. इस बात से किसी ने हमदर्दी नहीं रखी और जल्द ही खुलासा भी हो गया कि आमदनी का जाति से कोई संबंध नहीं होता. एक बैंक ने उन की पत्नी नंदा थेटे को लाखों का फायदा पहुंचाया था. बात खुली तो ये अधिकारी चुप हो गए और अब मामला भी आयागया होता जा रहा है.

नएनए हथकंडे

मौजूदा तकरीबन 4,200 आईएएस अफसरों में से 10 फीसदी यानी 420 ही ऐसे निकलेंगे जो जायदाद के मामले में पाकसाफ हों. फर्क इतना है कि कुछ संभल कर जायदाद बनाते हैं तो कुछ किसी की परवा नहीं करते. अधिकारियों ने बचने का नया तरीका यह निकाल लिया है कि जायदाद अब नजदीकी रिश्तेदारों के नाम से बनाई जाए. हालांकि यह भी जोखिम वाला काम है पर जानकारी देने से तो बेहतर है. इसलिए, जरूरी हो गया है कि सरकार उन के नजदीकी रिश्तेदारों की भी जायदाद का ब्योरा मांगे. इस से पता चल जाएगा कि कल तक जो फटेहाल थे, वे कैसे मालामाल हो गए. अभी तक मातापिता, संतानों और जीवनसाथी के नाम से खरीदी गई संपत्ति का ब्योरा देना पड़ता है पर इस से भी कतराहट है तो इस का दायरा बढ़ाए जाने की जरूरत महसूस होने लगी है.

आर्थिक खबरें

शेयर बाजार में अस्थिरता का माहौल

शेयर बाजार में अस्थिरता का माहौल है. देश के कई आर्थिक मोरचों, जैसे मुद्रास्फीति की दर घटने, तिमाही परिणाम बेहतर रहने, विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की भारतीय अर्थव्यवस्था के साकार रहने की भविष्यवाणी व वित्तमंत्री के विकास दर में सुधार के अनुमान के बाद भी शेयर सूचकांक में उथलपुथल हो रही है. इस की वजह अंतर्राष्ट्रीय बाजार की कमजोर स्थिति को माना जा रहा है. हमारा शेयर बाजार अंतर्राष्ट्रीय बाजारों के इशारे पर घटताबढ़ता ज्यादा नजर आ रहा है. किसी भी मजबूत बाजार के लिए इतनी संवेदनशील स्थिति उचित नहीं है.

यदि हमें मजबूत होना है तो मजबूती का आधार इस तरह की संवेदनशीलता पर ठीक नहीं है. यह अच्छा है कि बाजार को प्रधानमंत्री पर भरोसा है. महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनाव के बाद एक्जिट पोल भाजपा के पक्ष में आए तो बाजार में 3 दिन की सुस्ती टूटी और वह तेजी पर बंद हुआ. चुनाव की तारीख के दिन तो बाजार 350 अंक टूट कर 2 माह के निचले स्तर पर पहुंचा. रुपए का भी यही हाल रहा. बाजार को मोदी से उम्मीद है तो यह उम्मीद बरकरार रहनी चाहिए.

एक देश एक मोबाइल का तोहफा

मोबाइल अखिल भारतीय पोर्टेबिलिटी पर पिछले 3 साल से संशय की स्थिति बनी हुई है. हर साल उपभोक्ता को उम्मीद रहती है कि इसी वर्ष से यह व्यवस्था लागू हो जाएगी लेकिन कुछ न कुछ अड़चन सामने आ जाती है. मोबाइल पोर्टेबिलिटी सेवा प्रदाता को बदलने की तो लागू हो चुकी है लेकिन एक देश एक मोबाइल का मुद्दा अभी सुलझा नहीं है. हाल ही में दूरसंचार आयोग ने कह दिया है कि अगले वर्ष मार्च के बाद से यह व्यवस्था लागू हो जाएगी. इस व्यवस्था के लागू होने के बाद सेवा प्रदाता को 2 दिन में नए शहर में उपभोक्ता को यह सेवा उपलब्ध करानी होगी. इस व्यवस्था के लागूहोने से उपभोक्ता के लिए उस का मोबाइल नंबर एक तरह से दूसरी पहचान बन जाएगी. मोबाइल हर एक का उपकरण बन गया है और यह सुविधा देश के हर नागरिक की जरूरत बन गई है इसलिए जितना हो सके उसे इस से जुड़ी सुविधाएं उपलब्ध कराई जानी चाहिए. सेवा प्रदाता मनमानी नहीं करें, इस पर भी कड़ी नजर रखी जानी चाहिए.

कीमत घटने का लाभ कौन डकार रहा है

अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल का दाम 5 साल के न्यूनतम स्तर पर पहुंचने वाला है. थोक सूचकांक की दर भी सितंबर में 5 साल के निचले स्तर 2.38 फीसदी पर दर्ज की गई और खुदरा बाजार में भी मुद्रास्फीति की दर में लगातार गिरावट आ रही है. यह माहौल बन गया है कि सबकुछ सस्ता हो गया है. आंकड़ों का यह खेल हमेशा भ्रम पैदा करता है जबकि यह पूरी तरह से गुमराह करने वाला काम होता है. सियासत के लिए आंकड़ों की बाजीगरी जनमत जुटाने की शतरंजी चाल होती है और सत्ता के लोलुप नेता इन आंकड़ों पर खूब सियासत करते हैं.

महंगाई घटने का आंकड़ा तो आता है लेकिन बाजार में सामान्य उपभोक्ता की जेब पर कोई फर्क नहीं पड़ता है, उसे तो जो कीमत महंगाई बढ़ने के दिन चुकानी पड़ी थी उसी दर पर महंगाई का आंकड़ा घटने की खबर वाले दिन भी चुकानी पड़ती है. डीजल की कीमत बढ़ती है तो बस, आटो व अन्य सार्वजनिक यातायात संचालक किराया बढ़ा देते हैं लेकिन जब तेल 5 साल में सब से कम कीमत पर उतर आता है तो किराया नहीं घटाया जाता है. यह हालत सरकारी बसों में भी है और निजी वाहन मालिक भी ऐसा ही करते हैं. बढ़े किराए को घटाना किसी भी संगठन को रास नहीं आता है. तेल कंपनियां अंधाधुंध मुनाफा कमा रही हैं. अपने कर्मचारियों को मालामाल कर रही हैं. जनता सिर्फ लूट का निशाना बनी हुई है. तेल कंपनियां अपने कर्मचारियों को सरकारी कर्मचारी की तर्ज पर वेतन, भत्ते या ओवरटाइम देने के लिए तैयार नहीं हैं. आम जनता को लूट रही तेल कंपनियों पर नियंत्रण क्यों नहीं है. संभव है कि ट्रांसपोर्ट मालिकों से कमीशन पहुंचता हो, इसे देखा जाना चाहिए.

रियलिटी बाजार पर नियामक जरूरी

भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड यानी सेबी सूचना छिपाने के 2007 के एक मामले में देश के सब से बड़े बिल्डर डीएलएफ के अध्यक्ष के पी सिंह तथा कंपनी के 6 निदेशकों पर 3 साल तक शेयर बाजार से पूंजी जुटाने पर प्रतिबंध लगा दिया है. सेबी के पूर्णकालिक सदस्य राजीव अग्रवाल के 44 पेज के इस आदेश के साथ ही भारतीय रियलिटी बाजार में भूचाल आ गया है. कंपनी को अब पैसा जुटाने के लिए अपनी संपत्ति को बेचने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है. डीएलएफ पर आए इस संकट के साए से इस क्षेत्र के लिए एक नियामक की जरूरत की मांग को बल मिला है. इस क्षेत्र के लिए कहा जाता है कि यहां पैसा बहता है और उस पर नियंत्रण की कोई व्यवस्था नहीं है. अंसल जैसे कुछ बिल्डर भी पहले शीर्ष पर चढ़ कर जमीन पर उतरे हैं. शेयर बाजार में डीएलएफ के शेयरों की कीमत जमीन पर उतर आई है. सेबी ने 2007 के जिस इश्यू को जारी करते समय सूचना छिपाने के लिए डीएलएफ को झटका दिया उस समय बिल्डर ने रिकौर्डतोड़ पैसा जुटाया था. बिल्डरों पर नकेल कसने की व्यवस्था नहीं है. उच्च न्यायालय ने चारमंजिले भवन के एक निर्माता को बुकिंग कराने वालों का पैसा लौटाने का आदेश दिया है.

इसी तरह से मुंबई की कोका कोला सोसाइटी के 100 फ्लैट तोड़े गए और फिर हाल ही में एक अन्य मामले में प्रतिस्पर्धा आयोग के फैसले को सही ठहराते हुए प्रतिस्पर्धा अपीलीय न्यायाधिकरण ने डीएलएफ पर 630 करोड़ रुपए का दंड लगाया. रियलिटी बाजार के लिए नियामक होता तो शायद लोगों को बड़े स्तर पर लूट का शिकार नहीं होना पड़ता. हालत यह है कि रियलिटी क्षेत्र के कारोबारियों के सब से बड़े संगठन रियल एस्टेट डैवलपर एसोसिएशन औफ इंडिया के एक शीर्ष पदाधिकारी का एक अखबार में बयान आया कि रियलिटी क्षेत्र पर सेबी के प्रतिबंध का असर नहीं पड़ेगा क्योंकि 94 प्रतिशत बिल्डर शेयर बाजार से जुड़े नहीं हैं. सवाल है कि इतना पैसा कहां से जुटाया जा रहा है? बैंक बिल्डरों को खूब कर्ज दे रहे हैं. पूंजी जुटाने के परंपरागत तरीके शेयर बाजार से रियलिटी एस्टेट दूर भागता है तो पैसा बनाने वाली इस मशीन के मूल तक पहुंचने के प्रयास सरकारी स्तर पर क्यों नहीं होते हैं? सरकार ने बिल्डरों को लूटमार करने की खुली छूट किसलिए दे रखी है? रियलिटी बाजार में छोटेबड़े काम के लिए पंजीकरण को अनिवार्य किया जाना चाहिए.

पाठ्यक्रम की पुस्तकें कैसी हों

राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद देश की बेहद महत्त्वपूर्ण संस्था है क्योंकि यहीं पाठ्यक्रम पुस्तकों का चयन होता है और इस बात की खुशी है कि परिषद इस का विशेष ध्यान रखती है कि वर्णों, जातियों, मान्यताओं, विचारधाराओं और धर्मों में पुस्तकें विभाजित न हों. पाठ्यक्रम की पुस्तकों को विशुद्ध रूप से ज्ञान के रूप में ही देखा जाना चाहिए.

देखने में यह भी आया है कि कुछ दूसरी संस्थाएं भी हैं जो पाठशालाओं और मदरसों में आपसी सद्भावना वाली पाठ्यसामग्री नहीं जुटा पा रही हैं जबकि स्कूल, कालेज और विश्वविद्यालयों की पुस्तकों का बड़ा महत्त्व होता है. यहां जो कुछ भी पढ़ाया जाता है उस का असर हर छात्र के मन में न केवल जीवनभर बना रहता है बल्कि एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को स्थानांतरित भी होता जाता है. इसलिए इस बात का ध्यान रखना आवश्यक है कि कोई भी विचार इन पुस्तकों में ऐसा नहीं होना चाहिए जिस से सांप्रदायिक तालमेल या किसी प्रकार की द्वेष भावना का प्रचार हो.

सभी पाठ्यपुस्तकें, चाहे वे विभिन्न भाषाओं की हों या अन्य किसी विषय की हों, इस बात का खास ध्यान रखा जाना चाहिए कि उन में प्रकाशित सामग्री मूल रूप से धर्मनिरपेक्ष हो. इस का असर यह होगा कि जब बच्चे मदरसों या सरस्वती शिशु मंदिर जैसे धर्मपोषित शिक्षा संस्थानों से आगे बढें़गे तो उन में सद्भावना का प्रचार होगा. शिक्षाविद और लेखक प्रदीप कुमार जैन का कहना है कि विभिन्न शिक्षा संस्थानों में पढ़ाई जाने वाली पुस्तकों में कई अंश ऐसे हैं जो बच्चों के मन में जातिगत, धार्मिक, सामाजिक और लैंगिक भेद का पता दे रहे हैं. ये पुस्तकें नन्हेमुन्नों के दिमाग में न केवल अंधविश्वास की नींव डाल रही हैं बल्कि उन्हें इस तरह का पाठ पढ़ा रही हैं कि आगे चल कर वे एकदूसरे से नफरत ही करते रहें. यही कारण है कि आज हिंदू मुसलमानों को शक की निगाह से देखते हैं और मुसलमान हिंदुओं को.

भेदभाव पैदा करती पुस्तकें

आएदिन आवाज आती है कि अमुक किताब में मुसलमानों को विदेशी आक्रमणकारी घोषित किया गया है या हिंदुओं के लिए ‘काफिर’ शब्द इस्तेमाल किया गया है. कहीं शिकायत आती है कि जमात-ए-इसलामी की पुस्तकों में लिखा है कि अकबर का पतन जिहालत और सत्ता के नशे के कारण, गैर मुसलिम रानियों और शियाओं के प्रभाव के कारण हुआ.

दूसरी तरफ सरस्वती शिशु मंदिर की पुस्तकों में गणित जैसे विषय को भी वैदिक विचारधारा के चश्मे से देखा जाता है. एक प्रश्न इस प्रकार का भी है कि रामचरितमानस की 110 चौपाइयां प्रतिदिन पढ़ने पर 12,970 चौपाइयां कितने दिनों में पूर्ण होंगी. इसी प्रकार से इसी संस्था की एक पुस्तक में लिखा है कि सम्राट अशोक एक महान शासक थे. बाद में उन्होंने बौद्ध धर्म ग्रहण किया और यज्ञों में बलि देना छोड़ दिया जिस के कारण समाज में कायरता फैल गई. ऐसी ही एक धार्मिक मिसाल सरकारी स्कूल में पढ़ाई जा रही भूगोल की पुस्तक में मिलती है जिस में लिखा गया है कि गंगा का उद्गम भगीरथ के सिर से हुआ है.

लता वैद्यनाथन का कहना है कि सरकारी स्कूल की कक्षा 5, 6, 7 और 8 की अंगरेजी और गृहविज्ञान पुस्तकों में लैंगिक मतभेद और पुरुष प्रधानता की बू आती है क्योंकि इन में दर्शाया गया है कि नारी पुरुष के मुकाबले कमजोर होती है जैसे, पिता कमाई करते हैं और माता रसोई में काम करती हैं, लड़के फुटबाल, हौकी, क्रिकेट आदि मेहनत के खेल खेलते हैं और लड़कियां घर में बैठती हैं या बाग में झूला झूलती हैं आदि. इस से बच्चों के बालमन में इस प्रकार की बात बैठ जाती है कि नारी के बस का कुछ भी नहीं है.

क्या हमारी पुस्तकों में कुछ इस प्रकार की बातें नहीं आ सकतीं कि महारानी अहल्याबाई होलकर ने मुसलमानों के लिए मसजिदों का निर्माण कराया. उसी प्रकार धर्म के प्रति औरंगजेब ने दिल्ली के ऐतिहासिक बाजार चांदनी चौक में अपने मराठा सिपहसालार अप्पा गंगाधर से खुश हो कर अप्पा गंगाधर मंदिर (गौरीशंकर मंदिर) की स्थापना की न केवल अनुमति दी बल्कि उस के निर्माण में सहायता की. यही नहीं, चांदनी चौक के शुरू में ही दिगंबर जैन लाल मंदिर को औरंगजेब के समय उर्दू मंदिर कहा जाता था.

हकीकत तो यह है कि एक ही क्षेत्र में रहने वाले हिंदुओं और मुसलमानों में इतनी समानता है जो अलगअलग इलाकों में रहने वाले हिंदुओं और मुसलमानों में नहीं होती. मसलन, बंगाल में रहने वाले मुसलमान के रीतिरिवाज, भाषा आदि बंगाल के हिंदू से अधिक मेल रखते हैं न कि दिल्ली वाले या पंजाब वाले मुसलमान से. इसी प्रकार केरल के हिंदू के रीतिरिवाज केरल के मुसलमान से अधिक समानता रखेंगे. यदि हम उस की तुलना उत्तर प्रदेश या हिमाचल के हिंदू से करें तो कोई भेद देखने को नहीं मिलता सिवा इस के कि वह हिंदू है.

बंगलादेश में हिंदू ईद मनाते हैं और मुसलमान दुर्गापूजा में उन का साथ देते हैं. बनारस के शिवाला महल्ले के हिंदू अपने मुसलमान भाइयों के साथ मुहर्रम में शामिल होते हैं. ऐसे ही राजस्थान में मुसलमान तानसेन और मीराबाई के पर्व को उसी उत्साह के साथ मनाते हैं जैसे हिंदू हजरत ख्वाजा निजामुद्दीन औलिया की दरगाह पर जाते हैं. मैसूर के श्रीरंगपट्टनम में टीपू सुलतान और उन के पिता हैदर अली का हिंदू मंदिरों को संरक्षण देना कोई ढकीछिपी बात नहीं है. ये कुछ उदाहरण पूर्णरूप से इस बात को दर्शाते हैं कि भारत की संस्कृति आपसी मेलजोल पर आधारित मिश्रित संस्कृति है. यह बात समझ से बाहर है. इसी प्रकार की परस्पर सद्भावना वाली सामग्री हमें अपनी पाठ्यपुस्तकों में देनी चाहिए.

सद्भावना की जरूरत

आज जरूरत इस बात की है कि मदरसों के सभी उलेमा इस बात को पुरजोर ढंग से बताएं कि इसलाम में दूसरे धर्मों के प्रति कोई नफरत की भावना नहीं है. हजरत मुहम्मद (सल्ल.) दुनिया में खुदा का यह पैगाम ले कर आए थे कि वह रब्बुल मुसलिमीन अर्थात केवल मुसलमानों का रब नहीं बल्कि रब्बुल आलमीन अर्थात सभी का भगवान है और उन पर रहमत करने वाला है.

जिहाद, काफिर, वंदेमातरम, अल्पसंख्यक, कोटा, परिवार नियोजन, उर्दू, 4 शादियां, तलाक आदि ऐसे मुद्दे हैं जिन पर आएदिन बवंडर खड़ा होता रहता है. ये सभी मुद्दे ऐसे हैं जिन में कहीं से कहीं तक गैर मुसलिमों के खिलाफ न तो नफरत का इजहार किया गया है और न ही कहीं कोई टकराव है. कट्टरपंथी और जिहाद के नाम पर लड़ने वाले लोग अकसर युद्ध के समय कुरआनी आयतों को दिखा कर इसलाम को बदनाम करने का प्रयास करते हैं.

मुसलमान सोचते हैं कि हिंदू उन्हें मुगलों के समय में किए गए जुल्मों की सजा, बाबरी मसजिद तोड़ कर, उन्हें म्लेच्छ बता कर और पाकिस्तान से संबंधों को ले कर, दे रहे हैं. इन सब पर आमनेसामने बैठ कर बात की जा सकती है और इन का हल निकाल कर एकदूसरे के प्रति नफरत की भावना को खत्म किया जा सकता है.

वास्तव में होता यह है कि जब अलगअलग शिक्षा संस्थानों के लिए पुस्तकें तैयार की जाती हैं तो ढंग के प्रकाशकों से न तो बात की जाती है और न ही सुलझी विचारधारा के लेखकों की रचनाएं प्रकाशित की जाती हैं. पिछले दिनों संचार माध्यमों से यह शिकायत मिली कि मध्य प्रदेश में सरकारी स्कूलों की पुस्तकों पर ‘कमल’ छपा हुआ है जोकि भाजपा का चुनाव चिह्न है. इस प्रकार की बातों से दूर रहने की जरूरत है. हजरत अमीर खुसरो की खानकाह से यह संदेश गया कि धर्म चाहे कोई भी हो, लोगों को मिल कर रहना चाहिए. वास्तव में हिंदी का जन्म हजरत अमीर खुसरो की हिंदवी भाषा से ही हुआ है. हजरत अमीर खुसरो मिश्रित संस्कृति के संगीत के रसिया थे.

मतभेद दूर करें

आज जरूरत इस बात की है कि खुले दिल से हिंदू और मुसलमान एकदूसरे को स्वीकार करें और जो भी मतभेद हैं, उन का समाधान किया जाए. यह काम तब तक नहीं होगा जब तक दोनों वर्ग खुल्लमखुल्ला एकदूसरे के सामने अपनी शिकायतें न रखें. शुतुरमुर्ग वाली पद्धति यहां नहीं चलेगी कि जब सार्वजनिक रूप से हिंदूमुसलमान मिलें तो सामने मीठे बोल बोलें और जब अपनेअपने संप्रदायों में बात करें तो दूसरों को शक्की बताएं. आमतौर पर देखा गया है कि जब एक मुसलमान दूसरे मुसलमान से या एक हिंदू दूसरे हिंदू से बात करता है तो उस का लहजा सांप्रदायिक होता है. हां, जब एक मुसलमान हिंदू से बात करता है तो दोनों धर्मनिरपेक्ष हो जाते हैं और आपसी सद्भाव पर विचार करते हैं. यह दोहरा मानदंड है. जब तक ईमानदारी से हिंदू और मुसलमान एकदूसरे से पेश नहीं आएंगे तब तक दोनों में नफरत का प्रचार होता रहेगा.

वास्तव में होना यह चाहिए कि अपनेअपने वर्गों में धर्मनिरपेक्ष हिंदुओं और मुसलमानों को कट्टरपंथी लोगों को समझाना चाहिए कि हिंदू और मुसलमान एकदूसरे के दुश्मन नहीं बल्कि दोस्त हैं, पूरक हैं. यदि इन बातों को ध्यान में रख कर पाठ्यपुस्तकों को प्रकाशित किया जाए तो  कोई दोराय नहीं कि सभी वर्गों में मेलमिलाप का प्रचार व प्रसार न हो.

पाठकों की समस्याएं

मैं 22 वर्षीया अविवाहिता हूं और बहुत भावुक किस्म की हूं. मेरे घर में एक बार किसी बात पर क्लेश हो गया था, उस समय गुस्से में आ कर मैं ने खुद को आग लगा ली, उस वक्त आवेश में होश खो बैठी थी. फलस्वरूप मेरा चेहरा और छाती जल गए. सर्जरी कराने की हैसियत नहीं है. तब मेरी सगाई हो चुकी थी लेकिन मेरे जलने की घटना के बाद वह टूट गई. मैं मंगेतर को दिलोजान से चाहती हूं, उसे भुला नहीं पा रही. अब हाल यह है कि सारे दिन रोती हूं. मेरे घर वाले मुझ से नफरत कर रहे हैं. मां दिनरात ताने मारती हैं कि मैं ने ही अपने हाथों सब उजाड़ा है. यह सब गुस्से में हुआ था. अब एक तो मुझे अपनी सुंदरता खोने का दुख है, दूसरे, सगाई टूटने का, क्या होगा मेरा? आप ही जीने की राह सुझाइए.

निसंदेह आप ने गलत किया, पर जो हो चुका उसे बदला तो नहीं जा सकता. यह तमाम प्रकरण ही खेद का विषय है. इसे एक दुखद प्रसंग समझ कर धीरेधीरे भूलना ही होगा. अब आप को अपने अंदर हिम्मत तो पैदा करनी ही होगी. खेद की बात यह है कि आप के घर वाले आप से अच्छा व्यवहार नहीं कर रहे, हालांकि समय के साथसाथ वे ठीक हो  जाएंगे. आप को अब पूरी हिम्मत और आत्मविश्वास के साथ एक नया जीवन शुरू करना होगा. उत्साह के साथ नए जीवन की शुरुआत कीजिए.

*

मैं एक 23 वर्षीया विवाहिता, 2 छोटे बच्चों की मां हूं. मेरे पति बेहद जिद्दी इंसान हैं, वे परदेस में रहते हैं और मैं यहां उन के संयुक्त परिवार के साथ रहती हूं. पति की जरा सी बात न मानो तो वे जोर से चिल्लाने व मारनेपीटने लग जाते हैं. घर के लोग भी उन के आते ही मेरी शिकायत करते हैं और उन का मुझ पर चीखना शुरू हो जाता है. मेरी कोई बात नहीं मानते. अगर कहती हूं, नौकरी कर लूं तो कहते हैं, तलाक ले ले. क्या करूं?

आप पति के साथ ही बाहर चली जाएं तो अच्छा रहेगा और वहां जा कर पति का विश्वास जीतने की कोशिश करें. उन की बात का विरोध न करें. घर वाले आप की शिकायत करते हैं तो कुछ बदलाव आप अपने व्यवहार में ला कर देखिए, फर्क पड़ेगा. क्या पति की बात का जवाब कुछ गलत अंदाज में देती हैं आप? रही बात कि पतिदेव झगड़ालू किस्म के हैं तो जब निभाने का प्रश्न आता है तो आप को ही समझौता करना होगा. एक बार उन के अनुसार चलेंगी तो वे भी आप से लड़नाझगड़ना छोड़ कर आराम से बातचीत करेंगे.

*

मैं 25 वर्षीय अविवाहित, सेना में कार्यरत हूं. कुछ समय पहले विवाह के लिए एक लड़की देखी जो देखने में साधारण थी. कन्या पक्ष द्वारा जवाब मांगने पर हम ने कहा कि सोच कर बताएंगे. इस बीच मेरी बहन ने लड़की के विषय में पता किया तो मालूम हुआ कि लड़की का चरित्र ठीक नहीं है. इस बीच लड़की ने मुझे पत्र लिखे, जिन का मैं ने औपचारिक सा एक जवाब दे दिया था. अब आलम यह है कि उन्होंने कई लोगों को पत्र दिखाए और अब वे लोग धमकी दे रहे हैं कि हमारी लड़की से शादी करनी पड़ेगी. बोलते हैं कि कोर्ट में कहेंगे कि लड़के वाले दहेज मांग रहे हैं, ये लड़की ने स्वयं मेरे कमान अफसर को संबोधित कर पत्र लिखा है कि आप की यूनिट में मेरा मंगेतर है जो शादी से मुकर रहा है. क्या ये लोग मुझे झूठे आरोप में फंसा सकते हैं? मेरी मरजी के खिलाफ यह शादी हो सकती है? तनाव में मैं ने पीना भी शुरू कर दिया है, क्या करूं?

आप एक बहादुर वीर सैनिक हैं. देश का गर्व हैं और एक छोटी सी मुश्किल से घबरा गए. वैसे जब आप को विवाह करना ही नहीं था तो उसे अपना पता देना ही नहीं चाहिए था, न पत्र का जवाब ही देना चाहिए था. आप अपने कमान अफसर को सब बात बता दें और समझा दें कि लड़की वाले आप को ब्लैकमेल कर रहे हैं. वे सब स्थिति समझ कर आप का साथ देंगे. लड़की वाले कुछ भी नहीं कर सकते. शादी की बात हुई नहीं तो दहेज कहां से आ गया. आप ने पत्र में कुछ ऐसा तो नहीं लिखा था जो वे आप के पत्र दिखाते फिर रहे हैं. आप स्थिति से घबरा कर पीना बंद कर के अपने काम पर ध्यान दीजिए, लड़की वाले कुछ नहीं कर सकते. आप स्पष्ट रूप में उन को मना कर दें, तो वे स्वयं ही चुप हो जाएंगे.

*

मैं 25 वर्षीय विवाहित पुरुष हूं, 6 महीने पहले ही विवाह हुआ है. हनीमून के समय से ही पत्नी मुझे परेशान करने लगी, घर में मेरा व मांबाप का कोई भी कहना नहीं मानती, घर का कोई काम नहीं करती, दिनभर बिस्तर पर लेटी रहती है और रातभर जागती है, कभी कहती है पेट में दर्द है, कभी सिर में. डाक्टर को दिखाया तो उस की दवा फेंक देती है, कहती है कि मैं उस के मांबाप के पास रह कर बिजनैस करूं और अपने मांबाप को छोड़ दूं, जो मैं कतई नहीं कर सकता. सासससुर उसे समझाने के बजाय उस की गलत हरकतों को बढ़ावा देते हैं. एक बार उस ने बताया कि उस का शादी से पहले दिमाग का इलाज हो चुका है. अब मनोचिकित्सक के पास जाना नहीं चाहती. मेरा कई बार आत्महत्या करने का दिल करता है पर मांबाप का ध्यान आ कर कदम पीछे कर लेता हूं, क्या करूं? राह सुझाइए?

आप की शादी गलत लड़की से हुई है और आप ने बताया कि उस का मनोचिकित्सक से इलाज भी हो चुका है. आप आत्महत्या का विचार कभी मन में ना लाएं. यद्यपि हम तो यही चाहते हैं कि घर हमेशा बसे  रहें पर आप के केस में आप का पत्नी से तलाक लेना ही ठीक रहेगा, कोशिश करिए कि सहमति से तलाक हो जाए, फिर कुछ समय बाद आप नया जीवन शुरू कर सकते हैं.

मेरी मां

मम्मी के बारे में मेरी अनगिनत यादें हैं. हम सब से दूर हुए मां को 12 वर्ष हो गए, फिर भी ऐसा लगता है जैसे वे हमारे साथ हैं, हमारे जीवन के हर अनुभव में. वे बहुत खुशमिजाज महिला थीं, जहां भी जातीं वहां का माहौल खुशनुमा बन जाता. मेरे पापा, भाई और हम दोनों बहनें ही उन की सारी दुनिया थी. मम्मी को घूमने का बहुत शौक था. घर के सारे काम खुद करने के बाद भी, जहां हम कहते, होटल या बाजार या फिर कोई फिल्म देखने, झट से तैयार हो जातीं. उन के मुंह से हम ने कभी ‘न’ नहीं सुना. मेरी मां भाई से ज्यादा मुझे प्यार करती थीं. मेरी हर बात पूरी करती थीं. उन का कहना था, ‘इसे यहां पर अपनी मरजी से रहने दो, शादी के बाद पता नहीं कैसा घरपरिवार मिले.’ आज मम्मी हमारे बीच नहीं हैं पर उन के आशीर्वाद से हमारी जिंदगी वैसी ही है जैसा सपना उन्होंने हमारे लिए देखा था.

वर्षा चितलांग्या, चेन्नई (तमिलनाडु)

*

मैं अपनी मम्मी की बहुत शुक्रगुजार हूं. वे आज भले ही हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उन की हिदायतें, उन की बातें, उन की सीख हमारे बीच है. उन का आशीर्वाद हमारे साथ है. बात उस समय की है जब मेरा बेटा सालभर का था. उस ने चलना शुरू किया था. मैं घर के कामों में व्यस्त थी. बेटा अपनी हरकतों से कभी हंसा रहा था तो कभी मैं परेशान हो रही थी. वह अपनी तरफ मेरा ध्यान आकर्षित करने की कोशिश कर रहा था. धीरेधीरे वह बाहर बरामदे में चला गया. इधर मैं धुले कपड़े बौक्स में रखने लगी. तभी मुझे उस की कुलबुलाहट सुनाई दी. मुझे लगा, वह मुझे बुलाने की कोशिश कर रहा है. लेकिन मैं ने उस की तरफ ध्यान न दे कर काम में ध्यान लगा लिया. उस की आवाजें जारी थीं. तभी मेरे मस्तिषक में मेरी मम्मी की बात कौंधी, ‘बेटा, तुम काम में कितने ही व्यस्त हो लेकिन बच्चों को थोड़ीथोड़ी देर बाद देखते रहो. पता नहीं, वे किस मुसीबत में फंस जाएं.’ यह ध्यान आते ही मैं बाहर दौड़ी तो देखा कि बेटा रेलिंग में सिर फंसाए रो रहा है.

रेलिंग ऊपर से चौड़ी तथा नीचे से संकरी थी. उस ने ऊपर से अपना सिर डाल कर नीचे आ कर गरदन फंसा ली थी. अब उस से निकला नहीं जा रहा था. यह दृश्य देखते ही मेरे होश उड़ गए. मैं ने धैर्यपूर्वक बच्चे को उस में से निकाला और फिर प्यार किया. अगर मुझे अपनी मम्मी की बात समय पर याद न आती तो पता नहीं क्या होता?

पूनम सिंघल, पश्चिम विहार (न.दि.)

खेल आयोजनों की चमक दिखावे के फेर में दिवालिया होते देश

आज का युग दिखावे व चमकधमक का है. यदि आप ऐसा नहीं करते तो समाज में आप की हैसियत शून्य मानी जाती है. आधुनिक युग की यह थ्योरी हर जगह और हर क्षेत्र में लागू होती है, अंतर्राष्ट्रीय जगत में तो और भी ज्यादा, जहां दिखावे व शोशेबाजी का जबरदस्त बोलबाला है. गत दिनों स्कौटलैंड के ग्लासगो में संपन्न राष्ट्रमंडल खेलों में बहुत खुले हाथों से पैसा बहाया गया पर रिकवरी 10 फीसदी भी नहीं हुई. अनुमान लगाया जा रहा है कि आयोजक देश को इस से बहुत जबरदस्त घाटा झेलना पड़ा है.

ऐसी ही कहानी गत दिनों संपन्न हुए विश्वकप फुटबाल टूर्नामैंट की है जिस में धमाकेदार चमचमाते आयोजन के लिए ब्राजील को खूब वाहवाही मिली, भले ही अरबों डौलर फूंक कर भी वह फिसड्डी रहा. ब्राजील में भी गत दिनों संपन्न विश्वकप फुटबाल टूर्नामैंट के आयोजन पर 154 अरब डौलर का खर्चा आया, जिस में से 62 करोड़ डौलर अकेले रियो डी जेनेरियो के उस मरकाना स्टेडियम के नवीनीकरण पर फूंक डाले गए, जिस में कुल जमा एक यानी फाइनल मैच खेला गया था. कर्ज ले कर इतनी मोटी राशि फूंकने के बावजूद ब्राजील न तो टूर्नामैंट जीत सका, न ही उस की कुछ कमाई ही हुई.

भव्य आयोजन का दिखावा

इसी तरह 19 सितंबर, 2014 से दक्षिण कोरिया में हुए एशियाई खेलों के बाबत हुए खर्चों को ले कर भी जबरदस्त होहल्ला मचा क्योंकि मेजबान देश का मेजबान शहर इंचियोन पहले से ही घोर कर्ज की दलदल में नाक तक डूबा हुआ है. इस एशियाई आयोजन की लागत अब 3.89 बिलियन अमेरिकी डौलर आंकी गई है. अपै्रल 2007 में जब इस आयोजन का जिम्मा इस शहर को सौंपा गया था तब इस की लागत मात्र 1.62 बिलियन अमेरिकी डौलर आंकी गई थी. mचर्चा है कि मेजबान शहर ने इस के लिए कई अरब डौलर का विदेशी कर्ज अपनी सरकार की गारंटी पर लिया है. यह स्थिति केवल ब्राजील की ही नहीं, बल्कि हर उस देश की हो जाती है जो किसी भी प्रकार के क्षेत्रीय या अंतर्राष्ट्रीय खेल टूर्नामैंट आयोजित करने का जिम्मा ले लेता है.

दरअसल, आज अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर खेल टूर्नामैंट आयोजित करना सभी देशों में प्रतिष्ठा का विषय बन गया है. खेल आयोजन की जिम्मेदारी के लिए पहले तो जम कर लौबिंग व रिश्वत आदि समेत हर संभव जुगाड़बाजी की जाती है और जब आयोजन का जिम्मा मिल जाता है तो भारीभरकम कर्ज ले कर तैयारियों, नवीनीकरण व आधुनिकीकरण के नाम पर पानी की तरह पैसा बहाया जाता है. अधिक से अधिक दिखावा करते हुए आयोजन को भव्य से भव्य बनाने की कोशिश की जाती है चाहे नतीजा कुछ भी क्यों न हो.

शायद यकीन न हो लेकिन हकीकत यह है कि ब्राजील ने अपने मरकाना स्टेडियम का पिछले 7 सालों के दौरान यह चौथा नवीनीकरण किया है जिस पर अब तक कुल 293 करोड़ डौलर का खर्चा आया है, परंतु इस से भी बड़ी बात यह है कि उस की राष्ट्रीय फुटबाल टीम को पिछले एक दशक के दौरान एक बार भी इस स्टेडियम में खेलने का मौका नहीं मिला. mब्राजील के इसी स्टेडियम में 2 साल बाद यानी वर्ष 2016 में ओलिंपिक खेलों का उद्घाटन समारोह होगा और अब इस के लिए एक बार फिर से इस का नए प्रारूप में नवीनीकरण किया जाएगा. खबर है कि मूलत: फुटबाल के इस स्टेडियम को उद्घाटन समारोह स्थल में परिवर्तित करने बाबत एक बार फिर से करोड़ों डौलर फूंके जाएंगे. ओलिंपिक कमेटी के पैमाने बहुत अलग व काफी खर्चीले साबित होते हैं. उन्हें झेलना किसी छोटेमोटे देश के बस की बात नहीं है.

घाटे का सौदा

विश्व बैंक की रिपोर्ट बताती है कि लगभग सभी प्रकार के वैश्विक खेल आयोजन घाटे का सौदा साबित हो रहे हैं. फुटबाल, क्रिकेट, ओलिंपिक, एशियाई, राष्ट्रमंडल जैसे तमाम खेल आयोजन से पिछले 2 दशकों के दौरान कई देश या तो बरबाद हो गए या फिर घोर कर्ज में डूब गए. रिपोर्ट में बड़े विस्तार से बताया गया है कि पर्यटन और दर्शकों के लिहाज से भी ये आयोजन बिलकुल फिसड्डी साबित हुए हैं क्योंकि इन से एक फीसदी से भी कम राजस्व ही अर्जित हो पाया. रिपोर्ट के मुताबिक वैश्विक स्तर पर सर्वाधिक लोकप्रिय खेल क्रिकेट व फुटबाल हैं और रिटर्न की यह हालत इन के गढ़ों की है.

फुटबाल के खास रसियों में शुमार जरमनी में फीफा विश्व कप फुटबाल टूर्नामैंट वर्ष 2006 में आयोजित किया गया. टूर्नामैंट के दौरान लगभग सभी स्टेडियमों में दर्शकों की उपस्थिति औसत से भी काफी कम दर्ज की गई और पर्यटकों की आमद में भी सामान्य दिनों की अपेक्षा भारी कमी पाई गई. जरमनी को इस टूर्नामैंट से कुल मिला कर रिकौर्ड 134 अरब डौलर का नुकसान झेलना पड़ा था. तीसरे नंबर पर रहे जरमनी के नागरिक आज तक इस का दंश झेल रहे हैं. इसी प्रकार 2003 में दक्षिण अफ्रीका, जिंबाब्वे और केन्या तथा वर्ष 2007 में वैस्टइंडीज में संपन्न विश्व कप क्रिकेट टूर्नामैंट पूरी तरह घाटे का सौदा साबित हुए और इन सभी देशों के क्रिकेट बोर्ड अपनी लागत तक की भरपाई नहीं कर पाए. वर्ष 2004 में ओलिंपिक की मेजबानी करने वाला ग्रीस आयोजन के बाद दिवालिया हो गया. विश्व में ओलिंपिक खेलों का जनक ग्रीस को माना जाता है और इस नाते उस पर आयोजन की भव्य से भव्य बनाने का भारी वैश्विक दबाव था. अपनी आनबानशान के लिए उस ने बाजार में अरबों डौलर का कर्ज लिया जिस से बाद में तमाम देशों की अर्थव्यवस्था की चूलें हिल गईं और खुद वह दिवालिया हो गया. अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा यूरो का अस्तित्व भी एकबारगी डगमगा गया था.

इन सब से ऊपर बड़ी चिंताजनक व हास्यास्पद बात यह है कि आयोजन समाप्त होने के बाद स्टेडियम व खेलगांवों की दशा अत्यंत शोचनीय हो जाती है और उसे कोई पूछने वाला भी नहीं होता. जैसे ग्रीस में आज ओलिंपिक गांव कचराघर में तबदील हो चुका है तथा विभिन्न खेलों के लिए बनाए गए शानदार स्टेडियम स्थानीय आबादी के रोजमर्रा के काम आ रहे हैं. हकीकतन, रखरखाव व देखभाल के अभाव में ये अब खंडहर में तबदील हो चुके हैं. इस तरह के खेल आयोजन का सर्वाधिक फायदा संबंधित खेल संगठन को मिलता है न कि आयोजक देश को. वर्ष 2006 में जरमनी में आयोजित विश्व कप फुटबाल टूर्नामैंट में जरमनी को तो भारी घाटा हुआ पर विश्व फुटबाल संगठन यानी फीफा, जो टूर्नामैंट का कर्ताधर्ता है, मात्र 90 करोड़ डौलर का निवेश कर 324 करोड़ डौलर की कमाई कर गया.

कमोबेश सभी टूर्नामैंटों की ऐसी ही हालत है. वर्ष 2010 में विश्व कप फुटबाल टूर्नामैंट की मेजबानी करने वाले दक्षिण अफ्रीका का भी यही हाल रहा. दक्षिण अफ्रीका को जहां भारी नुकसान उठाना पड़ा वहीं फीफा ने मात्र 124 करोड़ डौलर खर्च कर 472 करोड़ डौलर की कमाई की. बड़ी मशक्कत के बाद वर्ष 2012 के ओलिंपिक खेलों की मेजबानी हासिल करने वाले ब्रिटेन को अरबों पौंड का घाटा झेलना पड़ा हालांकि लाभहानि के असली आंकड़े उस ने आज तक दुनिया को नहीं बताए. अपना देश भी इतने महंगे आयोजनों के दुष्परिणाम झेल चुका है. वर्ष 2010 में हुए राष्ट्रमंडल खेलों में पानी की तरह पैसा बहाया गया और अब समस्त रद्दोबदल व नवनिर्माण की धज्जियां उड़ रही हैं. खेलगांव समेत तमाम स्टेडियम बूचड़खानों में तबदील हो गए व जगहजगह सड़कों के किनारे लगे बुलैटपू्रफ शीशे करदाताओं के खूनपसीने की कमाई का मखौल उड़ा रहे हैं. औरों की तरह हमारी सरकार ने भी वास्तविक नफेनुकसान का चिट्ठा आज तक दुनिया के सामने नहीं रखा. पर अनुमान है कि इस आयोजन में सरकार को मोटा नुकसान उठाना पड़ा है.

वित्तीय भागीदारी जरूरी

असलियत तो यह है कि इस तरह के महंगे आयोजन हमेशा घाटे का सौदा सिद्ध होते हैं. कई अंतर्राष्ट्रीय व स्वतंत्र एजेंसियों के अध्ययन में भी यही तथ्य निकल कर आया है. चीन जैसे देश भले ही नफेनुकसान के सारे तथ्य पी जाएं और अपनेआप को सूरमा बताते फिरें, पर हकीकत में, यह झूठी शान व दिखावे के सिवा कुछ नहीं होता. होना तो यह चाहिए कि इस तरह के अंतर्राष्ट्रीय टूर्नामैंटों के आयोजन के लिए एक कोष बना दिया जाए, आयोजन से पूर्व बजट मुकर्रर किया जाए और इन टूर्नामैंटों में भाग लेने वाला प्रत्येक देश उस में अनिवार्य रूप से समानुपातिक भागीदारी करे. फीफा, अंतर्राष्ट्रीय ओलिंपिक कमेटी और अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट संघ जैसी वैश्विक संस्थाएं किसी देश की बड़ी मशक्कत के बाद उसे संबंधित खेलों की मेजबानी देती हैं और फिर मेजबान देश पर इसे अधिक से अधिक खर्च करने यानी भव्य से भव्य बनाने का दबाव डालती हैं. जब सभी देश समानरूप से वित्तीय भागीदारी करेंगे तो संगठन भी अनावश्यक दबाव नहीं डाल पाएंगे और मेजबान पर भी बेहद कम वित्तीय भार पड़ेगा. और तब खेलों में भी पारदर्शिता व स्वस्थ प्रतिस्पर्धा होगी.

भारत भूमि युगे युगे

छप्परफाड़ बोनस

इस बार दीवाली सूरत के हीरा व्यापारी साबजीभाई ढोलकिया के नाम रही जिन्होंने अपने संस्थान के कर्मचारियों को 50 करोड़ रुपए के उपहार बांट दिए. इन में गहने, फ्लैट्स व नकदी शामिल रहे. इसे दान या उपहार कुछ भी कह लें, उन के इस कदम ने नौकरमालिक यानी कर्मचारीनियोक्ता के संबंधों को झकझोर दिया है जिस पर तय है कि लंबी बहस होगी.

बिलाशक करोड़ों का यह बोनस प्रचार के लिए नहीं था. साबजीभाई बहुत नीचे से ऊपर उठे हैं, लिहाजा उन के इस बयान का स्वागत किया जाना चाहिए कि इस से रत्नकारों, जिन में सुनार भी शामिल हैं, की छवि चमकेगी. दूसरी अहम बात उन का यह कहना था कि अगर मैं हार्वर्ड में पढ़ा होता तो इतनी दरियादिली नहीं दिखा पाता. व्यावसायिक क्रूरता किसी सुबूत की मुहताज नहीं, लेकिन कुछ व्यापारी, उद्योगपति ऐसे हैं जो अपने कर्मचारियों के योगदान को पुरस्कृत भी करते हैं.

सिद्धू का यज्ञ

पूर्व क्रिकेटर व भारतीय जनता पार्टी के नेता नवजोत सिंह सिद्धू ने अमृतसर के होली सिटी स्थित अपने नए घर में  अपने जन्मदिन यानी 20 अक्तूबर को 101 ब्राह्मण इकट्ठा कर रखे थे. सालभर से सिद्धू एक यज्ञ करवा रहे थे जिस का मकसद घर की सुख, शांति, स्वास्थ्य वगैरह थे. इन्हीं दिनों सिद्धू अपनी  सुरक्षा व्यवस्था में कटौती किए जाने से भी चर्चा में थे.

अंधविश्वासों को बढ़ावा देते इस यज्ञ से धर्मों की वास्तविकता, जो दरअसल आपसी बैर है, भी उजागर हुई जब सिख धर्म के पैरोकारों ने इस बात पर एतराज जताया कि नवजोत सिद्धू को शिवलिंगों के बीच बैठ कर मंत्रोच्चार वगैरह नहीं करना चाहिए था. यानी पाखंड करने और फैलाने के लिए दूसरे धर्म का सहारा लेने की जरूरत नहीं, इस का इंतजाम तो हर धर्म में है.

राजभवन में भागवत

आम तो आम देश का खास और बुद्धिजीवी आदमी भी यह तय नहीं कर पा रहा कि आखिर देश चला कौन रहा है भाजपा, एनडीए, नरेंद्र मोदी या फिर आरएसएस लेकिन यह साफ दिख रहा है कि आरएसएस और उस के मुखिया मोहन भागवत की पूछपरख काफी बढ़ रही है. बीते दिनों उत्तर प्रदेश के राज्यपाल राम नाईक ने मोहन भागवत को राजभवन में आमंत्रित किया तो मीडियाकर्मियों ने सवालों की बौछार लगा दी. मौका था ‘राजभवन में राम नाईक’ पुस्तक के विमोचन का जो तबदील हो गया ‘राजभवन में मोहन भागवत क्यों,’ जिस पर नाईक का कहना था कि राजभवन सभी के लिए खुला है. भागवत तो मेरे निजी मित्र हैं तो उन्हें कैसे न बुलाता. आरएसएस को उदारवादी सामाजिक संगठन की मान्यता दिलाने में जुटे हिंदूवादियों की यह कोशिश साजिश ही कही जाएगी कि वे कट्टर हिंदूवाद को सत्ता के जरिए थोप रहे हैं.

स्मृति साड़ी हाउस

इसे हार की कसक और 2019 में जीत के लिए तैयारी ही कहा जाएगा कि अमेठी लोकसभा सीट से राहुल गांधी के हाथों हारने के बाद भी केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने दीवाली के ठीक पहले तकरीबन 7 हजार साडि़यां इस संसदीय क्षेत्र में बंटवाईं और उन के साड़ी वितरकों ने संकेत भी दिया कि साड़ी बांटने का यह सिलसिला जारी रहेगा. इत्तफाक से उसी दौरान निर्वाचन आयोग सरकार से सिफारिश कर रहा था कि पेड न्यूज को अपराध की श्रेणी में रखा जाए. पर ऐसे अनपेड तोहफों को किस श्रेणी में रखा जाएगा, इस सवाल का जवाब भी दिया जाना जरूरी है. स्मृति ने कितने पैसे इस बाबत खर्च किए, इस का विवरण नहीं मिला है. मतदाताओं को लुभाने का यह टोटका सनातनी है, लेकिन चल रहा है. हैरानी नहीं होनी चाहिए अगर जल्द ही राहुल गांधी पैंटशर्ट अमेठी भिजवाने लगें.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें