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यह कब तक चलेगा मी लौर्ड?

अदालतों का काम है फैसला देना और शासनप्रशासन का दायित्व है, अदालतों के फैसलों को लागू करना. लेकिन ऐसा लगता है कि सरकारों ने अदालती आदेशों की अनदेखी करना तय कर लिया है, खासकर पर्यावरणीय मामलों में. रेत खनन, नदी भूमि, तालाब भूमि, प्रदूषण से ले कर प्रकृति के विविध जीवों के जीवन जीने के अधिकार तक के बारे में देश की छोटीबड़ी अदालतों ने जाने कितने अच्छे आदेश बीते वर्षों में दिए हैं.

लेकिन उन सभी की पालना सुनिश्चित हो पाना, आज भी एक चुनौती की तरह हम सभी को मुंह चिढ़ा रहा है. कितने अवैध कार्यों को ले कर रोक के आदेश भी हैं और आदेश के उल्लंघन का परिदृश्य भी. किसी भी न्यायतंत्र की इस से ज्यादा कमजोरी क्या हो सकती है कि उसे अपने ही आदेश की पालना कराने के लिए कईकई बार याद दिलाना पड़े. आखिर यह कब तक चलेगा और कैसे रुकेगा? बहस का यह बुनियादी प्रश्न है.

आदेश 1 : दादरी जलक्षेत्र

उत्तर प्रदेश के गौतम बुद्ध नगर जिले की दादरी तहसील का एक गांव है बील अकबरपुर. यहां स्थित विशाल जलक्षेत्र 300 से अधिक दुर्लभ प्रजातियों के पक्षियों का घर है. वास्तव में यह जलक्षेत्र नदी के निचले तट की ओर स्थित बाढ़ क्षेत्र है. रिकौर्ड में दर्ज इस का मूल रकबा 72 हेक्टेअर था. वर्ष 2009 में जांच के दौरान कुछ पर्यावरण कार्यकर्ताओं ने मात्र 32.7 हेक्टेअर रकबा ही शेष पाया. बाकी पर अतिक्रमण हो चुका था. खासकर, एक निजी विश्वविद्यालय द्वारा किए गए अतिक्रमण को ले कर मामला प्रकाश में आया. इस संबंध में दायर मामले पर विचार करते हुए राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण ने वर्ष 2012 में इस जलक्षेत्र के 500 मीटर के दायरे में किसी भी निर्माण पर रोक लगा दी थी. यह न्यायिक आदेश की प्रशासनिक अवहेलना नहीं तो और क्या है कि बावजूद इस के, निर्माण कार्य जारी रहा. लिहाजा, 2 वर्ष बाद 19 सितंबर, 2014 को राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण मौके की वीडियोग्राफी करने का आदेश देने को विवश हुआ.

आदेश 2 : मूर्ति विसर्जन

अदालती आदेश की पालना में ढिलाई का एक दिलचस्प मामला इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा वर्ष 2012 में नदियों में मूर्ति विसर्जन को लगाई रोक को ले कर है. उत्तर प्रदेश शासन ने अदालत के सामने एक बार फिर हाथ खड़े कर दिए कि वह मूर्ति विसर्जन की वैकल्पिक व्यवस्था नहीं कर पा रहा है. यह लगातार तीसरा साल है कि जब शासन ने अलगअलग बहाने बना कर छूट हासिल की है. हकीकत यह है कि शासन ने मूर्ति विजर्सन की वैकल्पिक व्यवस्था के लिए अभी तक राशि ही जारी नहीं की है तो वैकल्पिक व्यवस्था कहां से हो? जाहिर है कि इस अदालती आदेश की पालना में शासन की कोई रुचि नहीं. किंतु फिर भी इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा छूट पर छूट दिए जाना, आश्चर्यजनक भी लगता है और विरोधाभासी भी.

आदेश 3 : रिवर रेगुलेटरी जोन

यह मामला 18 सितंबर का है. राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण ने ‘रिवर रेगुलेटरी जोन’ को ले कर स्पष्ट विचार पेश न करने को ले कर केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय को एक बार फिर कठघरे में खड़ा किया. रिवर रेगुलेटरी जोन यानी नदी नियमन क्षेत्र को समुद्री नियमन क्षेत्र की तर्ज पर एक ऐसे क्षेत्र के रूप में परिभाषित और अधिसूचित किया जाना अपेक्षित है कि नदियों के बाढ़क्षेत्र में बढ़ आए अतिक्रमण को रोकने की कानूनी बाध्यता सुनिश्चित की जा सके. गौरतलब है कि हिंडन यमुना बाढ़ क्षेत्र में अतिक्रमण के इसी मामले की सुनवाई करते हुए गत वर्ष न्यायाधिकरण ने मंत्रालय से पूछा था कि वह क्या कार्यवाही कर रहा है. 2 दिसंबर, 2013 कोे मंत्रालय ने मंजूर किया था कि देश की सभी नदियों के किनारों के ‘नदी नियमन क्षेत्र’ कैसे हों, इस पर रिपोर्ट तैयार करने के लिए उस ने विशेषज्ञ समूह गठित कर लिया है. लेकिन पिछले 10 महीनों के दौरान हुई 8 सुनवाइयों के बावजूद मंत्रालय ने कोई रिपोर्ट पेश नहीं की.

बहानेबाजी पर नरमी

इतनी बार बहाने बना कर तो कोई एक छोटे से बच्चे को नहीं बहलाफुसला सकता, जितनी बार इस मामले में मंत्रालय ने हरित न्यायाधिकरण के आदेश की अनसुनी की है. नदियों के प्रवाह और भूमि की सुरक्षा पर हमारी सरकारों का यह रवैया तब है कि जब उत्तराखंड व हिमाचल में गत वर्ष घटी त्रासदी की याद अभी मिटी नहीं है और जम्मूकश्मीर में तूफान से हुई मौतों पर आंसुओं के बहने का सिलसिला अभी जारी है. ताज्जुब है कि 10 महीने बाद भी मंत्रालय वही कह रहा है कि ‘नदी नियमन क्षेत्र’ की व्यावहारिकता जांचने के लिए उस ने विशेषज्ञ समूह बनाया है. जल संसाधन मंत्रालय कह रहा है कि उसे और समय चाहिए और न्यायाधिकरण है कि अभी भी देरी की वजह पूछ रहा है.

सरकारें अक्षम, वसूलो हर्जाना

समझ में नहीं आता कि यदि ‘रिवर रेगुलेटरी जोन’ को परिभाषित और अधिसूचित करने को ले कर मंत्रालय कोई रिपोर्ट पेश नहीं कर पा रहा तो अदालत उसे अक्षम करार दे कर नदी पर काम करने वाली किसी अन्य भारतीय एजेंसी को यह काम क्यों नहीं सौंप देती. राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण चाहता तो यह काम जिओग्राफिकल सर्वे औफ इंडिया या उस जैसे किसी अन्य विशेषज्ञ को सीधे सौंप सकता है. 3 साल बीत जाने के बावजूद, उत्तर प्रदेश शासन द्वारा मूर्ति विसर्जन के लिए वैकल्पिक व्यवस्था न कर पाने को ले कर इलाहाबाद हाईकोर्ट भी यही रुख अपना सकता है.

बेहतर तो यह होता कि नदी, भूगोल, प्रदूषण और पानी पर काम करने वाली विशेषज्ञ भारतीय एजेंसियां स्वयं पहल कर अपनी अक्षमता का सुबूत देते हुए अदालत से कहतीं कि वे यह काम कर सकती हैं, अदालत यह काम उन्हें सौंप दे. खर्च और विलंब के कारण हुए पर्यावरणीय नुकसान के हर्जाने की वसूली संबंधित सरकारों के संबंधित विभाग व अधिकारियों की तनख्वाह से की जाती.

दो पहलू और भी

उक्त तीनों मामले तो ताजा नजीर मात्र हैं. दिल्ली में जंगल क्षेत्र के चिह्नीकरण के लिए राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण ने गत वर्ष दिल्ली के वन विभाग को 6 माह का समय दिया था. वन विभाग ने चिह्नीकरण कर डिजिटल नक्शा बनाने में 1 साल लगा दिया. ऐसे मामलों को देख कर हम अंदाजा लगा सकते हैं कि देश के लिए अहम जाने कितने ही आदेशों की पालना को ले कर सरकारी रवैया ऐसा ही होगा. इन उदाहरणों से यह भी स्पष्ट है कि सरकारें जिन मामलों की पालना करना नहीं चाहतीं, उन में ऐसा ही टालू रवैया अपनाती हैं. छिपा एजेंडा यानी किसी अवैध कार्य को जारी रखने में शासनप्रशासन की सहमति होती है. जो प्रशासक सहमत नहीं होते, रेत खनन के 2 मामलों में उन का हश्र हम नोएडा और चंबल में देख चुके हैं. शायद यहां एक अहम प्रश्न, पालना करने वालों की सुरक्षा का भी है. किंतु हकीकत का यह पहलू सिर्फ कौर्पोरेट लालच के खिलाफ आए आदेशों की पालना का है. दूसरा पहलू इस से जुदा है. कौर्पोरेट हित के मामलों में जारी आदेशों की पालना सरकारें बिना समय गंवाए करती हैं. दिल्ली में ई-रिकशा संबंधी मूल आदेश समाने है, जिस के जारी होने के अगले ही दिन एक नामी आटो कंपनी के तिपहिया का विज्ञापन कमोबेश सभी अखबारों में दिखाई दिया. राजस्थान से ले कर बिहार तक जुगाड़ गाडि़यों को ले कर भी कुछ ऐसा ही चित्र था. बहस इस विरोधाभास को ले कर भी उतनी ही जरूरी है, जितनी कि पर्यावरणीय मामलों में ढिलाई को ले कर. क्या हम करेंगे?

स्वच्छता अभियान : सामाजिक सोच में बदलाव जरूरी

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ‘स्वच्छ भारत अभियान’ 2 अक्तूबर से जिस जोशोखरोश के साथ शुरू हुआ, लगातार कायम नहीं रह पाया. 2 सप्ताह बीततेबीतते फिर चारों ओर वही गंदगी का आलम दिखने लगा है. गलियों, सड़कों के किनारे कूड़े के ढेर देखे जा सकते हैं. मोदी ने सरकारी कर्मचारियों को स्वच्छता की शपथ दिलाते हुए कहा था कि यह अभियान लगातार चलता रहना चाहिए जब तक हमारे सारे शहर साफ नजर नहीं आने  लगें. शपथ में कहा गया था, ‘‘मैं स्वच्छता के प्रति समर्पित रहूंगा और इस की खातिर समय दूंगा. न मैं खुद गंदगी फैलाऊंगा और न किसी को फैलाने दूंगा.’’ मोदी के इस अभियान की शुरुआत के साथ ही केंद्रीय मंत्री, सांसद, विधायक, पार्षद झाड़ू ले कर रेलवे स्टेशनों, बस अड्डों, सड़कों, गलियों में सफाईर् करते दिखाईर् दिए. अभिनेता, खिलाड़ी गांवों को गोद ले रहे हैं पर शीघ्र ही स्वच्छता का बुखार उतरता दिख रहा है.

अधिकतर नेताओं का मकसद सफाईर् से नहीं था. झाड़ू हाथ में ले कर उन के फोटो अखबारों में छपे और खानापूरी हो गई. इसी तरह अफसरों द्वारा भी सफाई की औपचारिकता निभ गई. जनता में भी पहले की तरह कूड़ाकचरा जहांतहां फेंकने, गंदगी फैलाने की आदत में कोई बदलाव नहीं आया. जिंदगी फिर पुराने ढर्रे पर चल पड़ी है.

मोदी ने 2 अक्तूबर को नई दिल्ली में पंचकुइयां रोड के पास जिस वाल्मीकि मंदिर से इस अभियान की शुरुआत की थी, उसी के बाहर इधरउधर कूड़ा बिखरा पड़ा है. दिल्ली में जगहजगह कूड़े के ढेर नजर आ रहे हैं. डलावघर गंदगी से उफन रहे हैं. आसपास रहने वाले लोगों के लिए जीना मुहाल हुआ जा रहा है. देश में गंदगी का क्या आलम है उस का जायजा लेने की शुरुआत दिल्ली से ही करते हैं. जहां मोदी सरकार खुद मौजूद है. दिल्ली के विख्यात दर्शनीय जापानी पार्क के पास स्थित रोहिणी सैक्टर 15 का जी ब्लौक करीब 180 गलियों वाला क्षेत्र है. यहां 2 डलावघर हैं. एक ए ब्लौक के कोने पर और दूसरा बिजली दफ्तर के पास. ये दोनों कूड़ाघर गंदगी से अटे पड़े हैं. कूड़ा बीनने वाले लोग इन में से अपने काम की चीजें बीन लेते हैं.

इलाके में करीब 120 सफाई कर्मचारी हैं. यह इलाका उत्तरी दिल्ली नगरनिगम क्षेत्र में आता है जो भारतीय जनता पार्टी के पास 8-10 सालों से है. सफाई का सिस्टम यह है कि सुबह 6.30 बजे नगर निगम के सफाई कर्मचारी आते हैं, वे निगम के हर्बल पार्क में बने एक कमरे में लगी बायोमीट्रिक मशीन से अपनी हाजिरी लगा कर गलियों, सड़कों पर सफाई करने चले जाते हैं.

इन कर्मचारियों में औरतें और पुरुष दोनों हैं. ये झाड़ू निकाल कर सड़क किनारे कूड़ा इकट्ठा करते चलते हैं और फिर इस कूड़े को डलावघर में डंप कर दिया जाता है. डंप किए हुए कूड़े को उठाने की जिम्मेदारी दूसरे लोगों की है. दिल्ली में कई डलावघरों में इकट्ठा कूड़ा उठाने का जिम्मा निगम कर्मियों के पास है तो कुछ डलावघर निजी ठेकेदारों के हवाले हैं. डलावघरों का कूड़ा निगम की ट्रकनुमा बड़ी गाडि़यों द्वारा उठा कर जीटी करनाल रोड बाईपास पर बने कूड़ा केंद्र में डंप किया जाता है.

सफाईर् कर्मियों के ऊपर सफाई सुपरवाइजर और उन से ऊपर सैनेटरी इंस्पैक्टर होते हैं. कर्मचारियों की हाजिरी 2 बार होती है, साढे़ 6 बजे और फिर साढे़ 11 बजे. ढाई बजे कर्मचारियों की छुट्टी हो जाती है. मजेदार बात यह है कि सफाई कर्मचारी दलित जाति के हैं लेकिन ज्यादातर सुपरवाइजर और इंस्पैक्टर ऊंची जातियों से आते हैं.

किस के भरोसे कूड़ाघर

इस व्यवस्था के अलावा नगर निगम द्वारा छोटी गाडि़यों के जरिए भी गलीगली घूम कर कूड़ा इकट्ठा कराया जाता है. इन में निगम और निजी कंपनियों दोनों के लोग हैं. ऐसी गाड़ी में केवल ड्राइवर होता है जो सायरन बजाता चलता है  और लोग अपने घर का इकट्ठा कूड़ा इस गाड़ी में डाल देते हैं. इस के अलावा घरघर से कूड़ा एकत्रित करने वाले निजी लोग भी हैं जो निचली जातियों के लड़कों को पैसा दे कर घरों से कूड़ा उठवाते हैं. इलाके का सारा कूड़ा जीटी करनाल रोड पर जाता है. जीटी करनाल रोड का यह कूड़ा केंद्र विशाल कूड़े का पहाड़ बन चुका है. दिल्ली में ऐसे एक दर्जन केंद्र बताए जाते हैं. लेकिन इन केंद्रों से कूड़ा निष्पादन का कोई पुख्ता इंतजाम न तो निगम के पास, न ही सरकार के पास है. इन कूड़ा केंद्रों की गंदगी और बदबू दूरदूर तक फैल कर वातावरण को दूषित कर रही है और बीमारियां बढ़ा रही है.

भेदभाव की सड़ांध

सफाई कर्मचारियों की अपनी समस्याएं भी हैं. स्वच्छता अभियान से सफाई कर्मियों पर दबाव बढ़ा है. सफाई सुपरवाइजर, इंस्पैक्टर इलाकों में ज्यादा चक्कर लगाने लगे हैं. अपने इलाके के साथसाथ सफाई कर्मचारियों को दूसरी जगहों पर ले जा कर भी उन से सफाई कराई जाती है. पर उन्हें समाज में हिकारत से देखा जाता है. उन के साथ छुआछूत, भेदभाव आज भी कायम है. सफाईकर्मी जगदीश बताता है, ‘‘हमारे सरकारी स्कूल में बेटे को 3 बार फेल कर दिया गया. टीचर कहते हैं, पढ़ कर क्या करेगा. टीचर जानबूझ कर हमारे बच्चों की ओर ध्यान नहीं देते. प्राइवेट स्कूलों में गरीबों का कोटा है पर वहां हमारे बच्चों को लेते नहीं हैं.’’ महिला सफाई कर्मचारी सुशीला कहती है कि निगम वरदी, झाड़ू भी समय पर नहीं देता. हमें खुद अपने ही पैसे से झाड़ू खरीदनी पड़ती है. एक झाड़ू और डंडा 150 रुपए का आता है. ड्यूटी दूर एरिया में लगाईर् जाती है. आनेजाने में वक्त और पैसा अधिक लगता है. कईकई कर्मचारी तो रोहतक, सोनीपत, पानीपत तक से यहां आते हैं. इन्हें मात्र 6 से 10 हजार रुपए तनख्वाह दी जाती है. कर्मचारियों का कहना है कि उन्हें न ईएसआई की चिकित्सा सुविधा दी जाती है, न पैंशन न ग्रेच्युटी की. नए लोगों के लिए पैंशन की सुविधा भी छीन ली गई है. हजारों कर्मचारी ठेके पर काम करने को मजबूर हैं. सफाई के इस काम में बड़ी धांधली है, भ्रष्टाचार है. ऊंची जातियों के अफसर ठेकेदारों से मिल कर ज्यादा लोगों के वेतन उठा लेते हैं.

यह भी कहा जाता है कि दिल्ली के सभी नगर निगमों में ऐसे कर्मचारी भी हैं जो खुद कहीं और काम करते हैं लेकिन अपनी जगह कम पैसे दे कर किसी और को सफाई करने भेज देते हैं. ऐसे में न ये कर्मचारी जिम्मेदारी से अपना काम करते हैं न इन के अधिकारी साफसफाई को गंभीरता से लेते हैं, जो ऊंची जातियों के हैं. यानी मिलीभगत से गड़बडि़यां चल रही हैं.

कर्मचारी और कामचोरी

सफाई कर्मचारियों में भी आदतन निकम्मापन है. बहुत से कर्मचारियों का यूनियनों में दबदबा है. वे अपनी पगार लेने के अलावा और कोई काम नहीं करते. दिल्ली में सफाई मजदूर वर्ग से जुड़ी दर्जनभर से ज्यादा यूनियनें हैं, जिन का काम दफ्तरों में नेतागीरी करना ही है. हाजिरी दे कर पार्कों में बैठे रहते हैं, ताश खेलते हैं, फिर अपने घर चले जाते हैं. अनेक कर्मचारी तो ड्यूटी के समय और बाद में शराब के नशे में रहते हैं.

भ्रष्टाचार का कूड़ा

ऐसे कर्मचारियों के संगठनों वाले स्वतंत्र संयुक्त मोरचा के अध्यक्ष संतलाल चावरिया भ्रष्टाचार की बात मानते हुए कहते हैं कि सफाई इंस्पैक्टर 50-50 हजार रुपए महीना निगम पार्षद तक पहुंचाते हैं. सफाई कर्मियों के पैसे खा लिए जाते हैं. उन की वरदी, साबुन, रेहड़ी, झाड़ू के पैसे इंस्पैक्टर उठा लेते हैं. जबकि कर्मचारी प्रदूषण से जूझते हैं, उन्हें मास्क तक नहीं दिए जाते. यह हालत दिल्ली में ही नहीं, कमोबेश हर जगह है. इसलिए हमारे शहर दुनिया के सब से गंदे शहरों में शुमार हैं. कुछ समय पहले ब्रिटेन की महारानी भारत आई थीं तो उन्होंने अपने देश में लौट कर कहा कि दिल्ली बहुत गंदा शहर है. विश्वभर में यह बात फैली और हमारे यहां इस की चर्चा काफी दिनों तक होती रही. तब केंद्र में इंद्रकुमार गुजराल सरकार थी. बाद में दिल्ली सरकार और नगर निगम के अफसरों की नींदें खुलीं और सफाई के नाम पर खासखास सड़कों पर झाड़ू लगाई गई, चूने की लकीरें साफसाफ दिखने लगीं. कुछ समय बाद फिर वही हाल.

लुटियंस जोन को छोड़ दिया जाए तो बाकी दिल्ली कूड़े के ढेर में तबदील दिखती है. गलियों, सड़कों से नाक पर रूमाल रख कर गुजरना पड़ता है. अवैध कालोनियों में तो हालात और बदतर हैं. गंदगी ने शहरों के जीवन की गुणवत्ता को छीन लिया है. चारों तरफ फैली भयानक गंदगी निम्नता की सीमा तक पहुंच रही है.

बदहाल नगरपालिका

कुछ समय पहले देश में नगरपालिकाएं, नगर परिषद गरिमापूर्ण संस्थाएं होती थीं. उन में प्रतिष्ठित लोग चुने जाते थे. वे जनता की समस्याओं का खयाल रखते थे और समाधान करते थे. सफाईर्, बिजली, पानी से ले कर शिक्षा, स्वास्थ्य पर विशेष ध्यान दिया जाता था. आज हालत यह है कि माननीय सदस्य आएदिन शोरशराबे, हुल्लड़बाजी, राजनीतिक स्वार्थों और योजनाओं का पैसा अफसरों, ठेकेदारों, दलालों के साथ मिल कर डकारने की जुगत में रहते हैं.

देश में रोजाना हजारों मीट्रिक टन कचरा पैदा होता है. मुंबई और दिल्ली में दर्जन से अधिक कचरे के ढेर हैं जो अब पहाड़ की शक्ल ले चुके हैं. मुंबई में 100 हैक्टेअर से अधिक जगह में फैले देवनार कूड़ा स्थल पर 100 लाख टन से ज्यादा कूड़े का ढेर लग चुका है. कुछ ऐसा ही हाल दूसरे महानगरों और शहरों का है. यह कचरा जन स्वास्थ्य के लिए बड़ी चुनौती बनता जा रहा है. आज कितने ऐसे शहर हैं जिन पर गर्व किया जा सकता है? क्या आप स्वच्छता के मामले में अपने शहर पर गर्व कर सकते हैं?

हम हैं जिम्मेदार

हमारे मन में अपने शहर के प्रति गर्व की भावना उत्पन्न कैसे होगी, जब हर कदम पर हम उसे ज्यादा से ज्यादा गंदा बनाने में खुद शामिल हैं. बाहर दुनिया के किसी भी देश में लोगों को अपने शहर में भारत की तरह खुलेआम बेशर्मी से थूकते, पेशाब करते, कूड़ा फेंकते नहीं देखा जाता. ऐसा करते हमें न शर्र्म आती है, न पश्चात्ताप होता है और न किसी का भय रहता है. हम घर का कूड़ा गलियों, सड़कों पर बिना किसी हिचक के ऐसे फेंक देते हैं मानो गलियों, सड़कों, महल्ले की सफाई से हमें कोई मतलब नहीं है. ये सब करने में गांव और शहर वाले सब बराबर से जिम्मेदार हैं. अकसर हमारे शहरों की सड़कें, गलियां तभी साफसुथरी दिखती हैं जब कोई मंत्री,  नेता आने वाला होता है या विश्व का कोई नेता या विश्व बैंक का अफसर, वरना हम गंदगी में रहने, जने के आदी हो  चुके हैं. आदत ऐसी कि साफसुथरी जगह पर हमें नींद नहीं आती.   

हमारे यहां स्वच्छता को ले कर कोई सख्त, प्रभावी कानून नहीं है. हालांकि अनुच्छेद-21 के तहत लोगों को पानी और सफाई का संवैधानिक मौलिक अधिकार प्राप्त है. संविधान में सफाई का काम करने वाली निचली जातियों के साथ छुआछूत निषेध कानून भी है पर सफाई के मामले में सामाजिक व्यवस्था ज्यादा प्रभावी साबित हो रही है. लोग निचली जातियों पर ही सफाई के लिए निर्भर हैं. 74वें संविधान संशोधन द्वारा राज्य सरकारों की पानी आपूर्ति और सैनिटेशन की जिम्मेदारी का हस्तांतरण स्थानीय निकायों को कर दिया गया. इस के लिए राज्य सरकारों द्वारा वित्तीय मदद, नीतिनिर्धारण से स्थानीय निकायों का पूरी तरह सशक्तीकरण कर दिया गया लेकिन मुंबई, दिल्ली जैसे शहरों की  स्लम और अवैध बस्तियों में रहने वाली करीब 50 फीसदी आबादी को न्यूनतम शहरी कानून नकारते हैं. लिहाजा, यहां सफाई और पानी की आपूर्ति के प्रति कोई ध्यान नहीं दिया जाता.

2004 में शहरी विकास मंत्रालय ने सैनिटेशन के लिए सुधार की गाइडलाइन जारी की थी और पब्लिकप्राइवेट पार्टनरशिप पर जोर दिया था. इस से हुआ यह कि पिछले कुछ सालों में सफाईर् के कामों के लिए निजी कंपनियां निगमों द्वारा लाई गईं. इस में हुआ केवल इतना कि सफाई करने वाले और कूड़ा उठाने वाले लोग तो वही दलित ही रहे पर यह काम कराने वाली कंपनियां और ठेकेदार ऊंची जाति के आ गए.

जवाबदेही तय नहीं

असल में भारत की यह गंदगी धार्मिकसामाजिक देन है. हमारा व्यवहार अलग ही है. यहां सफाई के काम को नीचा आंका जाता है. सफाई करने वालों को नीची नजरों से देखा जाता है. हम सफाई जैसे महत्त्वपूर्ण काम को जातिगत पेशा मानते हैं. एक ऐसा कर्म जिसे निचली जातियां ही कर सकती हैं. प्रथा है, मैला, गंदगी, कूड़ाकचरा हम करते हैं, उसे उठाता कोई और है.सफाई का जिम्मा हम ने सदियों पहले समाज के सब से निचले वर्ग को दे दिया था. वही वर्ग आज तक कूड़ाकचरा उठाने से ले कर हमारा मलमूत्र तक साफ करता आ रहा है.    

यह वर्ग अब शिक्षित, समझदार हो रहा है और जातिगत पेशे से छुटकारा पाना चाहता है इसलिए निकृष्ट, नीचा समझे जाने वाले सफाई के काम में इन की अब अधिक रुचि नहीं है, न इन के ऊपर बैठे अफसरों को. कचरा उठाने के लिए जिम्मेदार संस्थाएं सफाई करने, इकट्ठा करने और ढुलाई में नाकाम साबित हो रही हैं. ऐसे में मोदी के स्वच्छता अभियान में सफाईकर्मियों अफसरों में सक्रियता और कार्यकुशलता में कोई अंतर नहीं आया है. हो सकता है प्रधानमंत्री मोदी वास्तव में महात्मा गांधी की तरह स्वच्छतापसंद व्यक्ति हों या स्वच्छता का संदेश देशभर में फैला कर जनजन को जागृत करना चाहते हों या फिर सफाई अभियान उन की कोई मजबूरी हो लेकिन सत्य यह है कि वे अंतर्राष्ट्रीय नेता बन रहे हैं. स्वयं दुनिया का दौरा कर रहे हैं और दुनिया के नेताओं को भारत में आमंत्रित कर रहे हैं.

विश्व बैंक जैसी अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं और कईर् नामीगिरामी कंपनियां भारत आ रही हैं. भारत में अगर जगहजगह गंदगी देखने को मिलेगी तो कौन यहां आना, निवेश करना पसंद करेगा. लिहाजा, फायदे के लिए ऐसा किया जा रहा है.

खुद को बदलें

यह सच है कि भारत पर गंदगी और भ्रष्टाचार का धब्बा लगा है. अंतर्राष्ट्रीय निवेशक आजकल इस बात को ज्यादा तवज्जुह देने लगे हैं कि जहां वह पैसा लगाना चाहते हैं वे देश, उस के शहर साफसुथरे हों. इसलिए निवेश तब मिलेगा जब हमारे शहर साफसुथरे होंगे. यहां का वातावरण विदेशियों के अनुकूल होगा. लिहाजा, मोदी जानते हैं पैसा स्वच्छता से आएगा. सवाल है कि स्वच्छता को ले कर मोदी के इरादे नेक हैं लेकिन साफसफाई के प्रति हमारी जो पुरानी सामाजिक सोच है, क्या उस में बदलाव आ पाएगा? जब तक हमारी सोच औरों से सफाई करवाने वाली रहेगी, तब तक गंदगी हमारे जीवन में रचीबसी रहेगी. हम गंदगी फैला कर औरों के लिए अपराध कर रहे हैं. स्वच्छता की भावना हमारे गुणों में शामिल नहीं है. हमें स्वच्छता की सामूहिक भावना, सामूहिक विवेक को विकसित करना पड़ेगा.

ड्रैगन जैसा न हो भारत का विकास

आज जापान और चीन में इस बात को ले कर होड़ लग गई है कि भारत में ज्यादा निवेश कौन करे? निवेशकों में होड़ तभी होती है जब लाभ ज्यादा हो. शायद इस दृष्टि से दुनिया आज भारत को सब से मुफीद देशों में माप रही है. किंतु इस होड़ को ले कर हम इतने खुश क्यों हैं? शायद इसलिए कि हम निवेश के भूखे राष्ट्र हैं और चीन ने अगले 5 साल में भारत में 20 अरब डौलर का निवेश करने की घोषणा की है. सीमा पर जारी रार के बावजूद आर्थिक मोरचे पर 12 दस्तावेजी करार की कड़ी के जरिए भारत व चीन ने एकदूसरे का लाभ लेने की कोशिश की है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत और चीन को एक जिस्म, दो जान कहा है. शायद प्रधानमंत्री को भरोसा है कि हाथ मिलाते रहिए, एक दिन दिल भी मिल ही जाएंगे. यह आशा बलवती हो. किंतु इस खुशी में हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि जिस तरह जरूरत से ज्यादा किया गया भोजन जहर है, ठीक उसी तरह किसी भी संज्ञा या सर्वनाम का जरूरत से ज्यादा किया गया दोहन भी एक दिन जहर ही साबित होता है. चीन अपनी धरती पर यही कर रहा है. भारत अपने यहां यह न होने दे. चीन निवेश करे, किंतु द्विपक्षीय सहमत शर्तों पर.

गंगा जलमार्ग हेतु भारतीय अंतर्देशीय जलमार्ग प्राधिकरण द्वारा जारी विज्ञापन में कहा गया है कि परामर्शदाताओं का चयन, रोजगार आदि विश्व बैंक कर्जदाताओं के निर्देशों के अनुसार होगा. यह न हो.

विकास के मानकों की अनदेखी

यह सच है कि चीन ने अपनी आबादी को बोझ समझने के बजाय एक संसाधन मान कर बाजार के लिए उस का उपयोग करना सीख लिया है. यह बुरा नहीं है. ऐसा कर भारत भी आर्थिक विकास सूचकांक पर और आगे दिख सकता है. किंतु समग्र विकास के तमाम अन्य मानकों की अनदेखी कर के यह करना खतरनाक होगा. त्रासदियों के आंकड़े बताते हैं कि आर्थिक दौड़ में आगे दिखता चीन प्राकृतिक समृद्धि, सेहत और सामाजिक मुसकान के सूचकांक में काफी पिछड़ गया है. उपलब्ध रिपोर्ट बताती है कि चीनी सामाजिक परिवेश में तनाव गहराता जा रहा है. अमेरिका की ‘गैलप’ नामक अग्रणी सर्वे एजेंसी के मुताबिक, दुनिया के खुशहाल देशों की सूची में भारत, चीन से 19 पायदान ऊपर है. भारत के 19 फीसदी लोग अपने रोजमर्रा के काम और तरक्की से खुश हैं, तो चीन में मात्र 9 प्रतिशत.

जनवरी 2013 से अगस्त 2013 के महीनों में करीब 50 दिन ऐसे आए, जब चीन के किसी न किसी हिस्से में कुदरत का कहर बरपा. औसतन 1 महीने में 6 दिन. बाढ़, बर्फबारी, भयानक लू, जंगल की आग, भूकंप, खदान धंसान और टायफून आदि के रूप में आई कुदरती प्रतिक्रिया के ये संदेशे कतई ऐसे नहीं हैं कि इन्हें नजरअंदाज किया जा सके. खासतौर पर तब, जब उत्तराखंड और कश्मीर के जलजले के रूप में ये संदेशे अब भारत में भी आने लगे हैं.

यह कमाना है या गंवाना?

6 जनवरी, 2013 की बात करें तो चीन में व्यापक बर्फबारी से 7 लाख 70 हजार लोगों के प्रभावित होने का आंकड़ा है. प्रदूषण की वजह से चीन की 33 लाख हैक्टेअर भूमि खेती लायक ही नहीं बची. ऐसी भूमि में उत्पादित फसल को जहरीला करार दिया गया है. तिब्बत को वह ‘क्रिटिकल जोन’ बनाने में लगा हुआ है. अपने परमाणु कचरे के लिए वह तिब्बत को ‘डंप एरिया’ के तौर पर इस्तेमाल कर रहा है. तिब्बत में मूल स्रोत वाली नदियों में बह कर आने वाला परमाणु कचरा उत्तरपूर्व भारत को बीमार ही करेगा.

एक रिपोर्ट के मुताबिक, वर्ष 2013 में प्राकृतिक आपदा की वजह से दुनिया ने 192 बिलियन डौलर खो दिए. आपदा का यह कहर वर्ष 2014 में भी जारी है. विकसित कहे जाने वाले कई देश स्वयं को बचाने के लिए ज्यादा कचरा फेंकने वाले उद्योगों को दूसरे ऐसे देशों में ले जा रहे हैं, जहां प्रति व्यक्ति आय कम है. क्या यह किसी अर्थव्यवस्था के ऐसा होने का संकेत है कि उस से प्रेरित हुआ जा सके? क्या ऐसी मलिन अर्थव्यवस्था में तबदील हो जाने की बेसब्री उचित है? गौरतलब है कि जिस चीनी विकास की दुहाई देते हम नहीं थक रहे, उसी चीन के बीजिंग, शंघाई और ग्वांगझो जैसे नामी शहरों के बाशिंदे प्रदूषण की वजह से गंभीर बीमारियों के शिकार हो रहे हैं. चीन के गांसू प्रांत के लांझू शहर पर औद्योगिकीकरण इस कदर हावी है कि वह चीन के सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में शुमार हो गया है.

सचेत रहे भारत

बीते 11 अप्रैल की घटना है. लांझू शहर को आपूर्ति किया जा रहा पेयजल इतना जहरीला पाया गया कि आपूर्ति ही रोक देनी पड़ी. आपूर्ति जल में बेंजीन की मात्रा सामान्य से 20 गुना अधिक पाई गई यानी एक लिटर पानी में 200 मिलीग्राम. बेंजीन की इतनी अधिक मात्रा सीधेसीधे कैंसर को अपनी गरदन पकड़ लेने के लिए दिया गया न्योता है. प्रशासन ने आपूर्ति रोक जरूर दी, लेकिन इस से आपूर्ति के लिए जिम्मेदार ‘विओलिया वाटर’ नामक ब्रितानी कंपनी की जिम्मेदारी पर सवालिया निशान छोटा नहीं हो जाता. भारत के लिए इस निशान पर गौर करना बेहद जरूरी है.

गौरतलब है कि यह वही विओलिया वाटर है, जिस की भारतीय संस्करण बनी ‘विओलिया इंडिया’ नागपुर नगर निगम और दिल्ली जल बोर्ड के साथ हुए करार के साथ ही विवादों के घेरे में है. सरकारी के स्थान पर निजी कंपनी को लाने के पीछे तर्क यही दिया जाता है कि गुणवत्ता सुधरेगी और सेवा का स्तर ऊंचा होगा. लेकिन सवाल तो यह है कि ‘पीपीपी’ के बावजूद गुणवत्ता की गारंटी नहीं है. यदि निजी कंपनी को सौंपे जाने के बावजूद दिल्ली का सोनिया विहार संयंत्र अकसर दिन में एक बार गंदला पानी ही नलों तक पहुंचाता है, तो फिर ‘पीपीपी’ किस काम की?

अनुभव बताते हैं कि ‘पीपीपी’ का मतलब परियोजना लागत का जरूरत से ज्यादा बढ़ जाना है. परियोजना लागत के बढ़ जाने का मतलब ठीकरा बिलों और करों के जरिए जनता के सिर फूटना है. यदि चीन जैसे सख्त कानून वाले देश में ‘विओलिया वाटर’ जानलेवा पानी की आपूर्ति कर के भी कायम है, इस से ‘पीपीपी’ मौडल में भ्रष्टाचार की पूरी संभावना की मौजूदगी का सत्य ही स्थापित होता है. बावजूद इस के, यदि भारतीय जनता पार्टी के घोषणापत्र में उक्त तीन पी के साथ पीपल यानी लोगों को जोड़ कर चार पी यानी ‘पीपीपीपी’ की बात कही गई थी, तो अच्छी तरह समझ लीजिए ‘मनरेगा’ की तरह ‘पीपीपीपी’ भी आखिरी लाइन में खड़े व्यक्ति को बेईमान बनाने वाला साबित होगा.

निजी कंपनी का काम मुनाफा कमाना होता है. वह कमाएगी ही. ‘कौर्पाेरेट सोशल रिसपौंसिबिलिटी’ का कानूनी प्रावधान भले ही हो, बावजूद इस के लाभहानि की जगह ‘अधिकतम लाभ’ के इस मुनाफाखोर युग में किसी कंपनी से कल्याणकारी निकाय की भूमिका निभाने की अपेक्षा करना गलत है. एक कल्याणकारी राज्य में नागरिकों की बुनियादी जरूरतों की पूर्ति सरकार की जिम्मेदारी होती है. इसे सरकार को ही निभाना चाहिए. जरूरत प्राकृतिक संसाधनों के व्यवसायीकरण से होने वाले मुनाफे में स्थानीय समुदाय की हिस्सेदारी के प्रावधान करने से कहीं ज्यादा, प्राकृतिक संसाधनों के शोषण को रोकने की है.  

लाभ के साथ हित भी जरूरी

यह भी न हो कि निवेशकों की शर्त पर चलतेचलते भारत की सरकार भी निवेशक जैसी हो जाए और परियोजनाओं में वह भी सिर्फ लाभ ही देखे जबकि सभी का हित भूल जाए. पारंपरिक रूप में भारतीय व्यापारी, लाभ के साथ हित का गठजोड़ बना कर व्यापार करता रहा है. यह गठजोड़ सरकार कभी न टूटने दे. भारत अब उसी वैश्विक होड़ में शामिल होता दिखाई दे रहा है, जिस में चीन और अमेरिका हैं.

सरकार को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि भारतीय विकास का भावी मौडल चाहे जो हो, वह चीन सरीखा तो कतई नहीं हो सकता. चीनी अर्थव्यवस्था का मौडल घटिया चीनी सामान की तरह है जिस का उत्पादन, उत्पादनकर्ता, उपलब्धता और बिक्री बहुत है किंतु टिकाऊपन की गारंटी न के बराबर. चीन आर्थिक विकास की आंधी में बहता एक ऐसा राष्ट्र बन गया है जिसे दूसरे के पैसे और सीमा पर कब्जे की चिंता है पर अपनी तथा दूसरे की जिंदगी व सेहत की चिंता कतई नहीं. यह खुद चीन के कारनामे बयान कर रहे हैं.

तेल ने बचाई साख

नरेंद्र मोदी अपने कर्मों से अच्छे दिन तो नहीं ला पा रहे पर दुनिया के दूसरे देशों के अच्छे कर्मों का वह फायदा जरूर उठा ले जाएंगे. पिछले एक साल से कच्चे तेल, जिस से पैट्रोल, डीजल, गैस, मिट्टी का तेल, प्लास्टिक बनते हैं, के दाम लगातार गिर रहे हैं. पहले कच्चे तेल के विश्व बाजार में दाम जम कर बढ़े थे और उस के चलते हर चीज के दाम बढ़ गए थे. लिहाजा, महंगाई उफान पर थी. मनमोहन सिंह सरकार इसी की शिकार हुई थी. अब पूरे विश्व में अर्थव्यवस्थाएं लड़खड़ाने लगी हैं जिस से कच्चे तेल की मांग घट रही है. ऊपर से अमेरिका ने अपने देश में तेल या उस की जगह ले सकने वाली प्राकृतिक गैस को निकालने का सस्ता तरीका ढूंढ़ कर, जम कर उत्पादन शुरू कर दिया है. अमेरिका के पंपों पर पैट्रोल अब कोकाकोला से भी सस्ता बिक रहा है, लगभग 300 रुपए का गैलन. अमेरिका 88 लाख बैरल तेल का उत्पादन कर रहा है जो 1986 से अब तक सब से ज्यादा है.

पश्चिमी एशिया में युद्ध का माहौल होने के कारण वहां भी मांग कम हो गई है. वहां के देश सड़कों, मकानों, उद्योगों पर पैसा खर्च नहीं कर रहे. वहां के शासक ज्यादा तेल उत्पादन कर के पैसा पश्चिमी देशों में जमा कर रहे हैं ताकि तख्ता पलटे तो भी उन्हें लगातार पैसा मिलता रहे. चीन के अलावा दुनिया के तकरीबन सभी देशों में कच्चे तेल की खपत घट रही है. अब आम लोगों को बढ़ते प्रदूषण से छुटकारा मिलेगा, फायदा होगा क्योंकि मांग कम होने का परिणाम होगा वातावरण में कम धुआं. नेता कई बार तो अच्छा काम करते हैं पर कई बार उन्हें दूसरों के अच्छे कामों का फायदा बैठेबिठाए ही मिल जाता है. तेल के मोरचे पर नरेंद्र मोदी सरकार ने अब तक कुछ नहीं किया है पर विश्व बाजार ने उन की इज्जत बचा ली.

जेलों का जंजाल

अमेरिका में जेलों को सरकारी विभाग ही नहीं चलाते, प्राइवेट कंपनियां भी चलाती हैं जो सरकार से कैदियों के रखने का खर्च लेती हैं. अमेरिकी सरकारें 4,800 अरब रुपए सालाना कैदियों पर खर्च करती हैं जिस का बहुत बड़ा हिस्सा इन प्राइवेट कंपनियों को ही जाता है. अब पता चलने लगा है कि ये कंपनियां जेलों में कैदी बढ़ते रहें, इस के लिए नएनए कानूनों की वकालत पर मोटा पैसा खर्च करती हैं और अगर कहीं कोई सरकार किसी कानून को ढीला करना चाहे तो उस के विरोध में चुने गए जनप्रतिनिधियों को पटाने में लग जाती हैं.

हमारे देश में भी यही हो रहा है. यहां जेलों में कैदियों की गिनती बढ़ रही है और जनता के मन में बैठाया जा रहा कि जिस पर आरोप लगे उसे जेल मिले, बेल नहीं. किसी को भी जेल में देख कर हमें पाशविक सुख का अनुभव होता है. यह गलत है. जेल के कई लाभ होते हैं पर सब से बड़ा यही होता है कि उद्दंड अपराधी को कुछ देर के लिए समाज से दूर कर दिया जाता है. पर जेल को निरर्थक सजाघर की तरह इस्तेमाल करना जेल अधिकारियों को अपार अधिकार देना है जो अमेरिका की निजी जेलों जैसे हैं. निजी जेलों में कंपनियां अपने मुनाफे देखती हैं, यहां जेलर व जेल अधिकारी.

जेलों में अपराधी जमा हो जाते हैं और इसलिए यह कहना कि वहां अपराध नहीं होते और अपराधी को अपराधभाव का दुख होता है गलत होगा. जेलों का होना जरूरी है पर उन में कैदी इतने कम हों कि जब तक कोई विशेष बात न हो, किसी को जेल में न डाला जाए. एक अपराधी या आरोपी के जेल में जाने से एक तरह से पूरा परिवार जेल में चला जाता है. मानसिक अवसाद छा जाता है. बहुत सा पैसा वकीलों की भेंट चढ़ जाता है. जेलों में भी हर तरह की रिश्वतें देनी पड़ती हैं. बच्चे परेशान हो जाते हैं. समाज उन्हें हिकारत से देखता है. अपराधी पेशेवर हो या अपराध गलती से हो, जेल में उस के साथ वही व्यवहार होता है और बाहर समाज उस के परिवार के साथ वही व्यवहार करता है. जेलों को धंधा नहीं बनाया जा सकता. आज चाहेअनचाहे अमेरिका में कंपनियों के लिए और यहां अफसरों के लिए यह धंधा बन गया है. विधायिका और न्यायपालिका को इस पर तुरंत रोक लगानी चाहिए.

क्यों जीती भाजपा

भारतीय जनता पार्टी को महाराष्ट्र व हरियाणा विधानसभाओं के चुनावों में मिली जीत के बाद कांगे्रस और दूसरी छोटी पार्टियां ही अप्रासंगिक नहीं हो गई हैं, भारतीय जनता पार्टी की पिछली पीढ़ी भी हाशिए पर चली गई. धर्म के स्थान पर विकास और सुशासन के मुद्दे पर लड़े गए इन 2 विधानसभाओं के चुनावों की इस जीत का श्रेय नरेंद्र मोदी की व्यावहारिक नीतियों को जाएगा. नरेंद्र मोदी मई से ही भावनाओं की जगह व्यावहारिकता की नीतियों पर चल रहे हैं और उन्होंने जातीय व धार्मिक भेदभाव को इस कदर अनावश्यक कर दिया कि जातीय, मुसलिमों, दलितों, पिछड़ों की मांगों को ले कर चलने वाली पार्टियां निरर्थक हो गईं.

देश की जनता शासन में बदलाव चाहती है जबकि कांगे्रस और दूसरी क्षेत्रीय पार्टियां शासन सुधार की बात करने तक को तैयार न थीं. ऐसे में जनता को भाजपा के रूप में विकल्प मिल गया. कांगे्रस व अन्य पार्टियां आज अपने नेताओं के लिए मौजूद दिखती हैं जनता के लिए नहीं. एक तरह से नरेंद्र मोदी ने भारतीय जनता पार्टी का भी कायापलट कर दिया है और उसे संकुचित व संकीर्ण दायरे से निकाल कर जनमानस के सामने पेश किया है. जो लोग पहले अपनेअपने इलाकों में सत्तारूढ़ पार्टी के शासन में घुटन महसूस कर रहे थे, अब एक नई सरकार और उसे चलाने वाली एक नई पार्टी की ओर देख सकते हैं जो इतिहास, धर्म, जाति, पोंगापंथी से ऊपर नजर आ रही है और देश के व्यापारों, उद्योगों, आर्थिक विकास को प्राथमिकता दे रही है.

नरेंद्र मोदी की इस दूसरी विजय के पीछे यही नीति परिवर्तन है जिस कारण मतदाताओं ने बनावटी व अनावश्यक भावनाओं में बह कर वोट नहीं दिया आशा की जानी चाहिए कि दूसरी पार्टियां इस से सबक सीखेंगी. हर नेता को अब जनता के लिए काम कर के दिखाना होगा, केवल बातों से चुनाव जीतना आसान नहीं है.

 

मोदी पर दारोमदार

भारतीय जनता पार्टी को महाराष्ट्र व हरियाणा विधानसभाओं के चुनावों में मिली जीतों ने उपचुनावों में हुई उस की हारों के धब्बे धो दिए हैं. हालांकि ये 2 राज्य भाजपा की झोली में आ गिरे हैं पर यह भी दिख रहा है कि नरेंद्र मोदी की सफलता अब लोकसभा चुनावों जैसी नहीं है. तर्क दिया जा सकता है कि महाराष्ट्र में भाजपा का अपनेआप बहुमत न पाने के पीछे शिवसेना का अलग चुनाव लड़ना था पर यह भी तो मानना होगा कि शिवसेना ने नरेंद्र मोदी की मुखालफत का जोखिम लिया और अपनेआप को भाजपा की कठपुतली होने से बचा लिया.

जो दिख रहा है उस से साफ है कि अन्य राज्य भी भाजपा की झोली में आ गिरेंगे और जम्मूकश्मीर भी भाजपाई हो जाए, तो आश्चर्य न होगा.

इस की मुख्य वजह चाहे जो भी हो, भाजपा की ये जीतें एक तरह से 1971 की इंदिरा गांधी की जीतों की तरह गहरा सामाजिक प्रभाव डालेंगी. गरीबी हटाओ और समाजवाद के नारे पर पनपी कांगे्रस ने तब सरकारीकरण की एक ऐसी लहर छोड़ी कि देश निकम्मेपन, लाइसैंसराज, रिश्वतखोरी और विघटन का शिकार हो गया. इंदिरा गांधी ने हर चीज को दिल्ली के प्लानिंग कमीशन के इशारे पर चलाना शुरू कर दिया. देश का जो तानाबाना अंगरेजों ने अपने प्रभाव वाले क्षेत्र में बुना था जिस में बराबरी, बोलने की आजादी, व्यवसाय की छूट, कानून का राज काफी हद तक कायम था, को उन्होंने 5-7 सालों में समाप्त कर डाला.

इंदिरा गांधी 1975 तक देश पर मानसिक बोझ डाल गई थीं और जब इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जगमोहन लाल सिन्हा ने उन के लोकसभा के चुनाव को खारिज किया तो देश ने राहत की सांस ली, भले ही यह सांस कुछ दिन की रही. बाद में देश ने वह आतंक देखा जो अंगरेजों के समय में भी नहीं दिखा था. उस के बाद देश नहीं संभला. 1977-80 की जनता पार्टी की सरकार भारी बहुमत के बावजूद डगमग रही. 1981-84 के बीच सिख अलगाववाद ने देश का जीना मुहाल कर दिया.

1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी नरेंद्र मोदी से भी ज्यादा बहुमत से जीते पर 2 साल में उन की आभा उतर गई. श्रीलंका में भारतीय सेना तमिल टाइगरों के हाथों बुरी तरह पिटपिटा कर आई. बोफोर्स तोप का मामला तूल पकड़ गया. राजीव गांधी हीरो की जगह चोर बन गए.

कहने का अर्थ है कि इंदिरा गांधी, जनता पार्टी और राजीव गांधी की भारी चुनावी जीतों का नतीजा देश का दीवाला निकालने में परिवर्तित हो गया. देश बहुत उथलपुथल से गुजरा. बाबरी मसजिद का मामला गरमाता रहा. पहले महंगाई की मार पड़ी फिर आर्थिक गिरावट. 1998 से 2004 के ढुलमुल शासन में भी कोई उल्लेखनीय काम न हो पाया. अब 10 साल बाद देश को बहुमत वाली स्थायी सरकार मिली है पर क्या नरेंद्र मोदी की बातें मंचों से उतर कर देश को बदल सकेंगी? ऐसे सवाल महत्त्व के होने लगे हैं क्योंकि नरेंद्र मोदी अब भारतीय जनता पार्टी से भी ऊपर पहुंच चुके हैं. उन्हें नागपुर का आदेश मानने को भी मजबूर नहीं किया जा सकता.

नरेंद्र मोदी एक सपना देख कर काम कर रहे हैं. देश करवट ले, जिस पौराणिक स्वर्णयुग की बात की जाती है उसे वे साकार कर के दिखा दें. एक साफ, स्वस्थ, सफल, सुशासित देश. ऐसा देश जहां कानून का राज हो, जहां व्यवसायी खुल कर काम करें, जहां हर चीज मेक इन इंडिया हो और भारत आबादी की तरह आर्थिक सक्षमता में भी विश्व में दूसरे नंबर पर हो. पर क्या वे उस लायक सामाजिक व राजनीतिक परिवर्तन ला रहे हैं? नौकरशाही के बलबूते पर देशों को नहीं चलाया जा सकता. घंटेघडि़यालों से प्रगति मिलती तो सऊदी अरब, येरुशलम और इटली सब से अधिक सफल देश होते. नरेेंद्र मोदी कहीं यज्ञहवनों से देश की शुद्धि के मंत्र पढ़ कर विकास तो नहीं करना चाह रहे? सफल भव: कहने से काम नहीं चलता.

देश को सफल बनाने के लिए जो जजबा हर देशवासी में पैदा करना है वह अभी दिख नहीं रहा. देश पिछली सरकारों से बुरी तरह त्रस्त था और उन से छुटकारा पा कर खुश है. पर यह न भूलें कि पिछली सरकारों ने लाखों ऐसे लोग पैदा किए थे जो परजीवी थे और आम जनता को चूस कर पनपे थे. वे निष्क्रिय हुए हैं, मरे नहीं हैं. वे फिर पनपेंगे. नरेंद्र मोदी के पास उन कैंसर सैलों को नष्ट करने के लिए टाइटेनियम डाइऔक्साइड की नैनोट्यूबें नहीं हैं. उन्होंने पैस्टीसाइड छिड़क कर जिंदा, लुटेरे शासकों को बेहोश किया है पर उन की जगह धर्म के नाम पर सदियों से कमाई करने वाले पुरोहित वर्ग को एक नई आशा दी है जिस का स्वच्छता, सफलता, सुदृढ़ता, सुशासन से कोई लेनादेना नहीं. नरेंद्र मोदी के पीछे भारी भीड़ है पर अफसोस है कि नकशा केवल उन के पास है और उस कुशलता की तकनीक भी जो किसी समाज को बदल सकती है.

नरेंद्र मोदी की विजय ने विचारकों को डरा दिया है. क्या प्रैस व लोकतंत्र स्वतंत्र रहेंगे, इस पर संदेह होने लगा है. क्या प्रैस को नरेंद्र मोदी के दोष निकालने की छूट मिलेगी? क्या समाज के माकूल परिवर्तन की बात की जा सकती है जिस से नरेंद्र मोदी के पंडों, नौकरशाहों, व्यापारियों और विदेशी भारतीयों को हानि होने का डर हो अगर कहीं ऐसा हुआ तो पहले शांति होगी, फिर घुटन और फिर आंधी आएगी जो वह सब नष्ट कर देगी जो शांति के दिनों बना होगा. ऊंची उठती लहरें कब सुनामी बन जाएं, क्या मालूम.

जातिवाद के शिकार कांटों का ताज क्यों है स्वीकार

ब्रिटिश शासन से आजादी पा लेने से ज्यादा महत्त्वपूर्ण घटना देश में गणतंत्र की स्थापना और धर्मनिरपेक्ष संविधान का लागू हो जाना थी. लेकिन जल्द ही संवैधानिक सुरूर समाज के दिलोदिमाग से उतर गया और पुराना गणतंत्र यानी जातिवाद फिर से दशक दर दशक नएनए तरीकों से पैर पसारने लगा. आज हालत यह है कि देश के एक सूबे बिहार के मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी के अपने ही राज्य के मधुबनी शहर के एक मंदिर में पूजा करने के बाद प्रबंधन द्वारा मंदिर को धुलवाए जाने पर बहस हो रही है कि मुख्यमंत्री छुआछूत के शिकार हो गए.

उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव स्वामी प्रसाद मौर्या ने यह कह दिया कि शादियों में गौरी पुत्र गणेश की पूजा नहीं करनी चाहिए. इस पर पार्टी सुप्रीमो मायावती ने मौर्या की निजी राय कहते हुए पल्ला झाड़ लिया. बहरहाल, यह सवाल न यहां से शुरू होता है और न खत्म. भारतीय समाज में लगातार इन सवालों पर बहस ही नहीं, बल्कि आंदोलन भी हुए. अंबेडकर से पहले और पेरियार के बाद भी यह सिलसिला कायम है. मायावती, जो भले आज इस सवाल से कन्नी काट रही हैं, उत्तर प्रदेश की सत्ता में उन के कायम होने में इसी वैचारिकी की नींव रही है.

सवाल यह है कि आज क्यों इन सवालों से इन्हीं सवालों को उठाने वाले अपना नाता तोड़ रहे हैं? यह कोई राजनीतिक भटकाव है या फिर दलितों के पूरे समाज में समाहित होने की प्रक्रिया, जिस में वे समाहित हो जाने में ही अपना हित समझते हैं? जो राजनीति जाति, धर्म, भाषा या अस्मिता पर आधारित होती है उस का इसी लय में बह जाने का खतरा हर वक्त बरकरार रहता है. ‘तिलक, तराजू और तलवार, इन को मारो जूते चार’ की जगह  ‘हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा विष्णु महेश है’ कहना ऐसे ही नहीं शुरू कर दिया, यह सिर्फ हिंदू धर्म के देवीदेवताओं के प्रति आकर्षणमात्र नहीं था बल्कि यह नरम हिंदुत्व के प्रति आकर्षण था. ‘हाथी आगे बढ़ता जाएगा, ब्राह्मण शंख बजाएगा’ कहतेकहते ‘हाथी’ उसी जातिवादी अहाते में चला गया जहां से निकलने के लिए उस का संघर्ष था और हाथी को दिल्ली ले जाने वाले ‘विकास के रथ’ पर सवार हो कर दिल्ली चले गए. यह एक रणनीति थी, जो अस्मिता आधारित संकीर्ण जातिवादी राजनीति को ‘नरम हिंदुत्ववादी’ राजनीति की तरफ ले कर चली गई. और ‘सर्वजन हिताय, बहुजन सुखाय’ वाले भ्रम में रह गए जो ‘बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय’ कह देने मात्र से हल नहीं होगा.

महापुरुषों की अनदेखी

दलित नेताओं ने धर्म, आडंबर, रूढि़वादी और जातिवादी व्यवस्था से दलित समाज को दूर रहने के तमाम संदेश दिए थे. इन प्रचारकों की सोच थी कि अगर दलितों को अपनी हालत में सुधार करना है तो धर्म और पाखंड की जंजीरों को तोड़ना होगा. आज का दलित समाज दलित नेताओं व विचारकों के मानअपमान को ले कर मरनेमारने पर भले तैयार हो जाता हो पर उन के विचारों पर चलने को तैयार नहीं है. जिन दलित विचारकों ने जीवनभर मूर्तिपूजा का विरोध किया, उन की मूर्तियां लगा कर ही दलित अपने को महान समझ रहा है. वह जातिवादी व्यवस्था का अंग बनने के लिए कट्टरपंथियों की ही तरह पूजापाठ और पाखंड को मानने लग गया है. दलितों को सुधारने का काम करने वाले राजनीतिक और गैर राजनीतिक संगठन अपने हित के लिए काम कर रहे हैं. वे साफतौर पर मानते हैं कि जब तक दलित खुद सुधरने को तैयार नहीं होंगे उन के हालात नहीं सुधर सकते.

सियासी भटकाव

हालिया संपन्न ‘कर्पूरी ठाकुर भागीदारी महासम्मेलन’ में बसपा नेता स्वामी प्रसाद मौर्या की बातों का विश्लेषण निहायत जरूरी हो जाता है कि वे भागीदारी की क्या रूपरेखा खींच रहे थे. उन्होंने कहा कि कट्टर व्यवस्था के लोगों ने पिछड़ों और निचलों का दिमाग नापने के लिए गोबर और गणेश का सहारा लिया था. यह सही भी है कि ऐसे डाक्टर, इंजीनियर होने का क्या मतलब जो यह दिमाग न लगाएं कि क्या गोबर का टुकड़ा भगवान के रूप में हमारा कल्याण कर सकता है, क्या पानसुपारी खा सकता है, क्या पैसे ले सकता है, क्या पत्थर की मूर्ति दूध पी सकती है? ऐसा कह कर उन्होंने कट्टरपंथियों की भी बुद्धि नाप ली और साबित कर दिया कि इन से जो चाहो, कराया जा सकता है.

इस घटना का विश्लेषण उन भावनाओं, जो किसी दलित के मंदिर में जाने के बाद आहत हो कर शुद्धिकरण करवाती हैं, से दूर हट कर करना होगा. और यह सिर्फ दलितोंपिछड़ों से जुड़ा सवाल नहीं है, बल्कि राष्ट्रनिर्माण का सवाल भी है, जो वैज्ञानिकता के बगैर अपूर्ण है. आजादी के 67 साल पूरे होने के बाद भी देश में रहने वाले गरीबों,खासकर दलितों की हालत में बहुत सुधार नहीं हुआ है. यह हाल तब है जब दलितों के हालात सुधारने के लिए सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर बहुत सारे प्रयास हो रहे हैं. आरक्षण जैसी योजनाओं का लाभ जागरूक दलितों ने उठा कर अपने हालात में सुधार कर लिया पर वे अपनी बिरादरी को क्या कुछ नया दे रहे हैं?

दलितों में वर्ग

दलितों के मुख्यरूप से 2 हिस्से हैं. एक हिस्सा वह है जो जागरूक था. उस ने आजादी के बाद दलितों के उत्थान के लिए चलने वाली योजनाओं का लाभ उठाया. दलितों का यह हिस्सा आज जातिवादी व्यवस्था का अंग बन चुका है. पढ़ालिखा होने के कारण यह हर योजना का आसानी से लाभ उठा रहा है. दलितों का दूसरा हिस्सा अपने हालात को सुधारने के लिए तैयार नहीं है. बहुत सारे प्रयासों के बाद भी ये लोग अभी भी अनपढ़ और पिछडे़ बने हुए हैं. ये बच्चों की शादी कम उम्र में कर देते हैं. खुद हर तरह का नशा करते हैं और बच्चों को इस से दूर रहने को कहते भी नहीं. तमाम सरकारी स्कूल होने के बाद भी बच्चों को पढ़ने के लिए नहीं भेजते. जानकारी के अभाव में दलितों के हित में चलने वाली सरकारी योजनाओं का ये लाभ भी नहीं ले पाते. अभी भी ये अपनी तरक्की के लिए दूसरों की ओर ताकते रहते हैं.

दलित समाज की एक बिरादरी मुसहर है. उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश और राजस्थान में इस बिरादरी के लोग बहुतायत में पाए जाते हैं. दलित समाज में ये सब से नीचे पायदान पर खड़े नजर आते हैं. सब से पिछड़े होने के कारण सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर इन को ऊपर उठाने के लिए बहुत सारे काम किए गए. इस के बाद भी ये पूरी तरह से बदहाल हैं. आज भी ये चूहा मार कर खाने के लिए मजबूर हैं. इन के घरों की औरतें पत्तल बनाने का काम करती हैं जबकि मर्द नशाखोरी करते हैं.

वाराणसी में मुसहर समाज की तरक्की के लिए काम करने वाले ‘आसरा’ संगठन के अजय पटेल कहते हैं, ‘‘हमारे संगठन के बहुत प्रयासों के बाद कुछ लोगों को, गरीबों के लिए दिए जाने की इंदिरा आवास योजना के तहत आवास देने की शुरुआत की गई है. इस के पहले इतने साल बीत जाने के बाद अभी तक कोई इंदिरा आवास इन लोगों को नहीं मिला था. जिस गांव के लोग जागरूक हैं और अपने हक की आवाज उठा रहे हैं, उन को सरकारी योजनाओं का लाभ मिल रहा है.’’

पाखंड के शिकार दलित

दलित समाज के जिन लोगों के पास पैसा आया वे संपन्न होने के बाद धर्म के पाखंड को बढ़ाने वाला काम कर रहे हैं. इस का नुकसान यह हुआ कि जो राजनीतिक दल उन की बेहतरी के लिए काम करने की कोशिश करते थे वे भी पुराने सिद्धांतों को छोड़ कर नई विचारधारा बना कर चलने लगे हैं. ऐसे में दलित समाज के उत्थान के लिए किए जाने वाले काम कमजोर पड़ गए या फिर खत्म कर दिए गए. इस को समझने के लिए बहुजन समाज पार्टी यानी बसपा का उदाहरण सब से आसान दिखता है. जातिवादी व्यवस्था का विरोध कर बसपा ने अपने जनाधार को बढ़ाया. जब उसे राजनीतिक ताकत हासिल हो गई तो उस ने अपनी पुरानी विचारधारा को छोड़ दिया. इस का नुकसान दलितों के साथ ही साथ खुद बसपा को भी हुआ. आज दलितों के लिए बसपा की नीतियां उसी तरह की हैं जैसी किसी दूसरे राजनीतिक दल की. बसपा की नीतियों के बदलने का लाभ जातिवादी व्यवस्था ने उठाया और वह दलितों क ो बसपा से अलग करने में सफल हो गई.

दिखावे की तरक्की

दलितों के हितों में काम करने वाले राजनीतिक और स्वयंसेवी संगठन दलितों में तरक्की का दिखावा करने की कोशिश में उन को मुद्दों से भटकाने का काम कर रहे हैं. ये संगठन होली में दलितों को रंग खेलने, दीवाली में दीये जलाने और मंदिरों में पूजा करवाने को ही तरक्की का हिस्सा मान लेते हैं. ऐसा करते समय वे भूल जाते हैं कि जिस जातिवादी व्यवस्था का वे अंग बनते जा रहे हैं वह उन की तरक्की में सब से बड़ी बाधा रही है. दलित राजनीति, जिस के मूल में ब्राह्मणवादी व्यवस्थाविरोधी स्वर थे, ने अपने समाज के लोगों में मनुष्य से मनुष्य के बीच भेद करने वाले विभाजनकारी विचार को निशाना बनाया था. पर उस राजनीति के भटकाव के बाद उस समाज का भटकाव कोई आश्चर्यजनक नहीं है. यह तो होना ही था. मौजूदा दलित इस बात को भांप रहे हैं कि सिर्फ कोरी वैचारिक बात करने से भेदभाव का हल नहीं होगा, बल्कि व्यावहारिकता में इस को अपनाना होगा. दलित नेताओं से दूर हुआ जनमत, तो वह ‘पत्थर को दूध पिलाने वालों’ के साथ चला गया है. दलित राजनीति आज दलित समाज में उभरे मध्यवर्ग के समझौतावादी हो जाने को एक खतरे के रूप में महसूस कर रही है लेकिन वह कुछ कर नहीं पा रही.

वर्णवादी प्रवृत्ति

लोकसभा चुनावों में उच्च वर्ग ने भाजपा के प्रति आकर्षण का सब से ज्यादा माहौल बनाया. ठीक इसी तरह की वर्णवादी प्रवृत्ति पिछड़ी जातियों में भी पनप रही है. मध्यवर्ग में पिछड़ी जातियों का शामिल हुआ वर्ग भाजपा के प्रभाव में आ रहा है. वह उस हिंदुत्ववादी प्रक्रिया के तहत आया है जो उस की पहचान के सवाल को हल करने का दावा ही नहीं करती, उस का हल ढूंढ़ने का प्रयास भी करती है. नए हिंदुत्ववादियों ने दलितों व पिछड़ों के मध्यवर्ग को सवर्णों की तरह कर्मकांडी बना दिया और उन्हें उन सब पाखंडों को करने की छूट दे दी जिन्हें वे पहले दूर से देखते थे. तो फिर ऐसे में वह दलितपिछड़ा जो किसी वैचारिकता नहीं बल्कि पहचान के सवाल पर किसी मायामुलायम के साथ गया था, क्यों उन के साथ अब भी रहेगा?

मायावती तो पेरियार की मूर्ति के सवाल पर भाजपा के सामने इस से पहले भी घुटने टेक चुकी हैं. 2002 में भाजपा के सहयोग से चल रही बसपा सरकार द्वारा जब लखनऊ के अंबेडकर पार्क में पेरियार की मूर्ति को लगवाने की बात सामने आई तो भाजपा, बजरंगदल व अन्य हिंदुत्ववादी संगठनों ने विरोध किया. जिस के बाद मूर्ति नहीं लग पाई. पेरियार की मूर्ति एक मूर्ति नहीं, बल्कि वह सशक्त विचार है, जो भाजपा सरीखे संगठनों को भारतीय समाज में अस्तित्व में रहने को एक कलंकित भाव में देखता था. इसीलिए इस विचार से आतंकित संगठनों ने 2007 में ‘तीसरी आजादी’ नाम की एक सीडी का भी विरोध किया था. मायावती यदि किसी की भी मूर्ति न लगवातीं तो ठीक था पर पहले सुझाव दे कर पीछे हटना असल में हाथ झटकना ही तो है.

मंदिर क्यों गए सीएम

बिहार के मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी, जो स्वयं के महादलित होने की वजह से समाज में बरती जा रही अस्पृश्यता व पूर्वाग्रह का शिकार खुद को कह रहे हैं, पर भी सवाल उठता है कि वे उस मंदिर में आखिर क्या करने गए थे? मांझी जब कहते हैं कि सोचिए, हम कहां खडे़ हैं, हम जातिवाद से घिर गए हैं, तो उन्हें भी यह सोचना चाहिए कि मंदिर, जहां वे गए थे वह भारतीय लोकतंत्र का कोई सदन नहीं, बल्कि पाखंडवादी व्यवस्था के तहत संचालित वह सदन है जिस के मूल विचार में दलितों का, पिछड़ों का प्रवेश वर्जित है. मांझी को उन के इस बयान के बाद उठ रहे उन सवालों से ज्यादा वहां जाने की अपनी वैचारिकी पर सोचना होगा. उन का कहना ‘वे महादलित हैं, इसलिए उन के साथ ऐसा हुआ, वे झूठ नहीं बोल रहे,’ उन को एक अपरिपक्व वैचारिक नेता के रूप में ही स्थापित करता है.

आज अगर खुद ऊंची जाति वाले और आरएसएस जैसे हिंदूवादी संगठन जातिगत समानता की बात करते हैं तो हैरत होना स्वाभाविक है कि आखिरकार इस चमत्कार के पीछे राज या साजिश क्या है और है भी कि नहीं.

राज भी साजिश भी

दरअसल 25 फीसदी आबादी वाला इलाका ही देश नहीं है जहां लाइटें चमचमाती हैं, भव्य मौल्स सीना ताने खड़े हैं और जहां जाति पूछ कर कोई भी बरताव नहीं करता. लेकिन बचा 75 फीसदी ज्यादा महत्त्वपूर्ण है, जहां दलितों का शोषण ब्राह्मणों के साथ खुद दलितों के अगड़े भी करने लगे हैं. आजादी के बाद पहली दफा ऐसा वक्त और माहौल देखने में आ रहा है कि दलित खुलेआम धरमकरम कर रहा है, पैसे लुटा रहा है और इसी बूते पर वह मुख्यधारा से जुड़ जाने की गलतफहमी पाले बैठा है. उधर, लोकसभा चुनाव भाजपा ने मंदिर या धर्म के मुद्दे पर नहीं बल्कि सामाजिक बराबरी के दम पर जीता है. पिछले दशक में एक बार फिर हिंदू शब्द की परिभाषा बदली गई है. इधर आरएसएस ने भी पैंतरा बदलते दलितों और आदिवासियों के नाम पर आनुषंगिक संगठन बना डाले हैं जिन का काम आदिवासी और दलितों को उन के हिंदू होने का एहसास कराते रह कर उन्हें यह बताना है कि तुम हिंदू हो और हिंदू शब्द या धर्म के माने जो भी निकालो लेकिन यह स्वीकार लो कि इस में जातिपांति थी और रहेगी.

इसी दौरान हैरतअंगेज तरीके से दलितों के लिए काम करने वाले सामाजिक संगठन सिमट कर रह गए. कांशीराम ने जो सामाजिक आक्रोश पैदा किया था वह एक समझौते में तबदील हो गया. यह समझौता था हम जातिवाद की विसंगतियों को विकास के जरिए सुधारने की कोशिश करेंगे. दलित अब पहले की तरह दीनहीन और गरीब नहीं रह गया है, लिहाजा पंडेपुजारियों का काम भी ज्यादा चल पड़ा. आरक्षण से सरकारी नौकरियों और शहरीकरण या शिक्षा से  दलितों के पास आए पैसे को लूटनेखसोटने की उन में होड़ मच गई. कांग्रेस इस बदलाव को भांप नहीं पाई और यह मान कर बैठी रही कि देश में अभी भी छुआछूत और जातिपांति है जिस के चलते भाजपा को सरकार बनाने लायक सीटें नहीं मिलेंगी. इसी गलतफहमी ने उसे महज 44 सीटों पर समेट कर रख दिया.

नया वर्णवाद

प्रधानमंत्री बनने के बाद से नरेंद्र मोदी सिर्फ विकास की बात कर रहे हैं. विदेशों में झंडे गाड़ते फिर रहे हैं, लेकिन हिंदुत्व या जातिपांति की बात उन्होंने नहीं की. आरएसएस ने जरूर बड़े सधे ढंग से कहा कि सदियों से वंचितों और शोषितों को गले लगाने का वक्त आ गया है. शुक्र इस बात का है कि उस ने माना तो कि देश में ये चीजें यानी भेदभाव, छुआछूत और जातिपांति थीं.

2 राज्यों के विधानसभा चुनावों, खासतौर से महाराष्ट्र में, इस का खासा असर देखने को मिला, जहां आरपीआई जैसे दलित हिमायती दलों का सूपड़ा ठीक वैसे ही साफ हो गया जैसे उत्तर प्रदेश में बसपा का हुआ था. बिहार में रामविलास पासवान भाजपा कीगोद में थे, इसलिए केंद्रीय मंत्री बन सवर्णों के साथ बैठे हैं. इस समीकरण और बदलाव को राजनीतिक के बजाय सामाजिक कहना ज्यादा सटीक लगता है क्योंकि वह इसी शर्त और तर्ज पर स्वीकारा गया है. दलित वर्ग के जिन जागरूक लोगों को दलित हितों की बात कहनी और करनी चाहिए थी, वे पंडेपुजारियों की भाषा बोलने लगे हैं. दानदक्षिणा झटकने के लिए दलितों को 2 वर्गों में बांट दिया गया है. ज्यादा पैसे वाले दलित ब्राह्मणों के खाते में गए तो कम पैसे वाले दलितों को उन्हीं की जाति के पंडों ने घेर लिया.

इक्कादुक्का लोगों और संगठनों ने इस नए वर्णवाद की साजिश के खिलाफ बोलने की कोशिश की पर उन की आवाज नक्कारखाने में तूती सरीखी साबित हुई. पढ़ेलिखे बुद्धिजीवी दलितों का एक बड़ा तबका हालात देख हताश है कि आखिर यह हो क्या रहा है, और इस से दलितों को फायदा क्या. मजबूरी और बेबसी में अभी खामोश और तटस्थ बैठा यह वर्ग आज नहीं तो कल, मुंह जरूर खोलेगा लेकिन तब तक कट्टर जातिवाद नए और पुराने धर्मग्रंथों के आदेशों को नए ढंग से अपने मुनाफे के लिए मोड़ लेंगे. लड़ाई या मुद्दा अभी भी संविधान बनाम धर्मग्रंथ है जिन में विकट का विरोधाभास है. इन में से देश में चल क्या रहा है, इसे समझने के लिए दिमाग पर ज्यादा जोर देने की जरूरत नहीं. देश में आज भी सही मानों में गणतंत्र नहीं वर्णतंत्र चल रहा है.

सनातनी रोड़ा

नए परिवर्तन से सभी सहमत हों, ऐसा भी नहीं है. जीतनराम मांझी के मुद्दे पर रांची में पुरी के शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद ने साफ कहा कि दलितों को मंदिर में नहीं जाना चाहिए, यह शास्त्रसम्मत बात है. इस से पहले दूसरे शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद, शिरडी वाले साईंबाबा और उन की पूजा को ले कर खासा बवाल मचा चुके थे जोहिंदू नहीं, सनातन धर्म की व्याख्या कर रहे थे. भव्य आलीशान वातानुकूलित मठों में बैठे इन शंकराचार्यों की स्थिति रईस दलितों जैसी ही है जिन्हें चिंता अपनी दुकानदारी की है. सनातन धर्म का फंडा ज्यादा नहीं चला क्योंकि वह प्राचीन शास्त्रवादी था जिसे दलित तो दलित, सवर्णों की भी नई पीढ़ी स्वीकारने को तैयार नहीं. आधुनिक संस्थान में इंतजाम ये किए गए हैं कि सब अपनी हैसियत के मुताबिक लूटेंखसोटें और कमाएं, कोई दूसरे के रास्ते में अड़ंगा नहीं डालेगा.

दलितपिछड़े असलियत में धर्म के बिचौलियों के बिछाए जाल में फंस रहे हैं जिस में सदियों से उच्च सवर्ण पहले ही शिकार हैं जो कर्मकांडों, पाखंडों, रीतिरिवाजों पर अपनी औरतों से दुर्व्यवहार भी करते हैं, अपना पैसा भी नष्ट करते हैं और खुद को शारीरिक कष्ट देते हैं. वास्तु, कुंडली, तीर्थयात्राओं, व्रत, उत्सवों के मारे सवर्ण, धर्म की लकीर पीटपीट कर कोई विशेष स्थान ग्रहण नहीं कर रहे पर अब दलित व पिछड़े उसी को दोहरा कर खुश हो रहे हैं. अब हो यह भी रहा है क दलित पंडे अपने मुताबिक धर्म और संस्कृति की व्याख्या करते हुए दलितों से पैसा बना रहे हैं. ज्यादा पैसे वाले दलितों में कर्मकांडों और मोक्ष की छटपटाहट को ब्राह्मण भुना रहे हैं. जिन्हें वाकई नीची जाति वालों से परहेज है बस, उन्हें ही शंकराचार्यों का बैनर रास आ रहा है.

दलित, महादलित, पिछड़े, अतिपिछड़े यह समझौता करते दिख रहे हैं कि उन का शोषण जाति के नाम पर भले ही हो पर उन्हें प्रताडि़त न किया जाए. इस बात के लिए वे पैसा चढ़ा रहे हैं. वे, दरअसल, सामाजिक दुत्कार से बचना चाह रहे हैं. व्यवस्था यह कर दी गई है कि अगर चक्रव्यूह से बचना है तो रास्ता धर्म से हो कर ही जाएगा, किसी संविधान, लोकतंत्र या गणतंत्र से नहीं.

– राजीव कुमार यादव के साथ लखनऊ से शैलेंद्र सिंह, भोपाल से भारत भूषण द्य

देसी टीवी पर विदेशी सीरियलों की नकल

कुछ अरसा पहले चीन ने अपने मुल्क में टैलीविजन पर प्रसारित होने वाले कई विदेशी शोज को प्राइम टाइम से बाहर कर दिया था. इस के पीछे चीन का मकसद देसी मनोरंजन और वहां के उद्योग को बढ़ावा देना था. भले ही इस फैसले के पीछे चीन का तानाशाही रवैया दिखता हो लेकिन उस की अपने देश की संस्कृति और मनोरंजन उद्योग की तरक्की के प्रति यह चिंता नाजायज नहीं कही जा सकती. वहीं, भारत में ठीक इस का उलटा हो रहा है. एक तो पहले से ही भारत में विदेशी मीडिया समूहों का वर्चस्व है, ऊपर से टीवी पर दिखाए जाने वाले ज्यादातर देसी सीरियल्स अमेरिकी शोज की भोंडी नकल या कहें देसी संस्करण बन कर रह गए हैं.

हमारे यहां प्रसारित होने वाले तकरीबन सभी रिऐलिटी शोज किसी न किसी विदेशी चैनल के शो की नकल होते हैं, खासतौर से अमेरिकी व ब्रिटिश शोज के, चाहे वह कौन बनेगा करोड़पति (हू वांट्स टू बी मिलेनियर) हो, कौमेडी नाइट विद कपिल (दी कुमार्स) हो, बिग बौस (बिग ब्रदर) हो, या फिर इंडियन आइडल (अमेरिकन आइडल), इंडियाज गौट टैलेंट (अमेरिकाज गौट टैलेंट), मास्टर शेफ (मास्टर शेफ आस्ट्रेलिया), इस जंगल से मुझे बचाओ (आई एम अ सैलिब्रिटी…गेट मी आउट औफ हिअर) या खतरों के खिलाड़ी (फिअर फैक्टर) हों. इन में से ज्यादातर शोज कौपीराइट ले कर बनाए गए हैं और कुछ वहां के शोज की मूल अवधारणा चुरा कर निर्मित किए गए हैं.

असल नकल साथसाथ

मजेदार बात यह है कि कई बार एक ही शो के देसी और विदेशी संस्करण एकसाथ टीवी के प्राइम टाइम पर देखे जा सकते हैं. उदाहरण के तौर पर एएक्सएन चैनल पर जब फियर फैक्टर आता था तो लगभग उसी दौरान कलर्स पर खतरों के खिलाड़ी का प्रदर्शन होता. ऐसा इसलिए चूंकि कई विदेशी चैनल भारत में टैलीकास्ट होने लगे हैं. बहरहाल, अमेरिकी कार्यक्रम को भारत में दिखाना कोई जुर्म नहीं है. समस्या है तो उन के कंटैंट को ले कर. दरअसल, भारत में प्रसारित होने वाले शोज के असल संस्करण अमेरिका और इंगलैंड के कल्चर के हिसाब से बने हैं. लिहाजा, उन में वहां के समाज की उन्मुक्तता, न्युडिटी, गालीगलौज और विचारधारा आना स्वाभाविक है. लेकिन जब इन के भारतीय संस्करण बनाए जाते हैं तो मामूली फेरबदल के नाम पर सिर्फ खानापूर्ति की जाती है.

रिश्तों में छिछोरपन

इन दिनों भारी टीआरपी बटोर रहे कौमेडी शो कौमेडी नाइट विद कपिल को बतौर उदाहरण ही देखते हैं. ब्रिटिश कौमिक शो ‘दी कुमार्स’ का प्लौट उड़ा कर बनाए गए इस शो में स्टैंड अप कौमेडियन कपिल शर्मा हास्य के नाम पर डबल मीनिंग चुटकुले, अश्लील इशारे और फुजूल किरदारों को पेश करते हैं. जैसा कि मूल शो में एक बुजुर्ग महिला किरदार को काफी ठरकी और बड़बोला किस्म का दिखाया गया है. उसी तर्ज पर कपिल ने भी अपने शो में एक नशेड़ी दादी का किरदार चस्पां कर दिया. दादी के किरदार में अली असगर की बेहद सस्ती और अश्लील हरकतें देख कर अच्छाखासा दर्शक शर्मिंदा हो जाए.

शायद तभी ‘तारक मेहता का उलटा चश्मा’ में जेठा भाई की प्रमुख भूमिका कर रहे दिलीप जोशी सवाल उठाते हैं कि किस घर में दादी इतनी दारू पी कर ऐसी छिछोरी हरकतें करती है जैसा कि इस शो में दिखाया जा रहा है. ऐसे ही शोज आने वाली पीढ़ी को पारिवारिक रिश्तों के प्रति गंभीर होने नहीं देते. चोरी के इन टीवी संस्करणों के साइड इफैक्ट अपने अश्लील और विवादास्पद कंटैंट के चलते कई बार प्राइम टाइम से बेदखल हुए शो ‘बिग बौस’ में भी बेशर्मी से उघड़ कर सामने आते हैं. अमेरिकी रिऐलिटी शो ‘बिग ब्रदर’ पर आधारित ‘बिग बौस’ में जानबूझ कर उस तरह की फिल्मी और सामाजिक हस्तियां शामिल की जाती हैं जो किसी न किसी तरह विवादास्पद रही हों. कोई फूहड़ और बड़बोली आइटम डांसर तो कोई गे फैशन डिजाइनर तो कोई रईस बिगड़ा नवाबजादा इस शो में जरूर शामिल होता है. पूरे सीजन इस शो में टास्क के नाम पर एकदूसरे को मांबहन की बीपनुमा गालियां देना, स्विमिंग पूल पर जिस्म उघाड़ कर मसाजबाजी और चुगलखोरियां ही दिखाई जाती हैं. इतना ही नहीं, हर बार 2 लोगों के बीच फर्जी प्रेमप्रसंग क्रिएट किया जाता है और फिर चोरीछिपे कैमरे में उन की कामक्रिया की खबरें भी उड़ाई व कथित तौर पर दिखाई भी जाती हैं. टीआरपी की भूख में मनोरंजन के नाम पर वे तमाम सीमाएं लांघी जाती हैं जो देशी दर्शकों के जेहन पर निगेटिव इंपैक्ट डालती हैं.

सट्टेबाजी का प्रचार

हमारे देश में जुआ अपराध को बढ़ावा देने वाला कितना जानलेवा खेल है, सब जानते हैं. पुलिस भी जहांतहां छापे मार कर जुआ खेलने वालों को पकड़ती रहती है. लेकिन जब यही जुआ किसी रिऐलिटी शो की आड़ में खेला जाता है तो लोग भूल जाते हैं कि हमारे समाज में किस तरह की मानसिकता पैदा होगी. अमेरिकन शो ‘डील या नो डील’, ‘हू वांट्स टू बी मिलेनियर’ की तर्ज पर बने ‘डील या नो डील’, ‘कौन बनेगा करोड़पति’, ‘जीतो छप्पर फाड़ के’, ‘सवाल दस करोड़ का’ और ‘क्या आप पांचवीं पास से तेज हैं’ जैसे झटपट पैसा जिताने वाले शो जुआ नहीं तो और क्या हैं.

गैर सामाजिक

‘स्टार वर्ल्ड’ पर एक सीरियल आता था, नाम था ‘वाइफ स्वैप’. लगता था इस शो की भारत में नकल नहीं की जा सकती, न इस पर आधारित कोई भारतीय संस्करण बन सकता है. यकीन नहीं होता था कि भारत में कोई महिला इस तरह के शो के लिए तैयार हो जाएगी, किसी अपरिचित के घर में 8 दिन बिताने को. सिर्फ बिताने को ही नहीं, उस के घर की सारी जिम्मेदारी लेने को. लेकिन एक चैनल पर ‘मां एक्सचेंज’ प्रोग्राम बना. यहां की महिलाएं भी तैयार हो गईं, घर की अदलाबदली को. इस में महशूर मौडलअभिनेत्री पूजा बेदी एक मध्यवर्गीय कौमेडियन के घर 8 दिनों के लिए शिफ्ट हुई थीं, शो का प्लौट वही था. महिला को 4 दिन उस घर के कायदेकानून के अनुसार रहना पड़ता है और बाकी के 4 दिन वह उस घर के सदस्यों के लिए अपने नियम बनाती है, जिस का पालन उन्हें हर हाल में करना होता है.

भारतीय समाज में नामुमकिन बात को इस शो में सिर्फ इसलिए दिखाया जा सका क्योंकि यह विदेशी शो की नकल मात्र था, वरना यहां कोई ऐसे कार्यक्रम की कल्पना भी नहीं कर सकता.

मासूमों से छिनता बचपन

इसी तरह छोटे बच्चों, किशोरों और युवाओं को सिंगिंग, ऐक्ंिटग टैलेंट पर बेस्ड रिऐलिटी शो के नाम पर न सिर्फ उन से 18-18 घंटे काम करवा कर बाल मजदूरी करवाई जाती है, बल्कि उन से उन का बचपन, शिक्षा, दोस्ती और कीमती समय भी छीना जाता है. यहां भी अमेरिकी शो ‘अमेरिकन आइडल’, ‘डांस विद सैलिब्रिटी’, ‘अमेरिकाज गौट टैलेंट’ और ‘एक्स फैक्टर’ की तर्ज पर ‘इंडियन आइडल’, ‘झलक दिखला जा’, ‘इंडियाज गौट टैलेंट’ और ‘एंटरटेनमैंट के लिए कुछ भी करेगा’ जैसे देसी संस्करण काम कर रहे हैं. प्रतिभाओं को नुमाइशी सामान बना कर उन से डांस और गायन प्रतियोगिताएं करवाई जाती हैं. मोबाइल से मैसेज का बड़ा बाजार अंधाधुंध कमाई करता है. जीतने वाले को प्रायोजक की तरफ से बड़े इनाम की घोषणा की जाती है और हर प्रतियोगी से उस के घर की दुखभरी कहानी सुनवा कर एसएमएस की भीख मंगवाई जाती है.

गुमनामी का अंधेरा

एक सर्वे के मुताबिक ऐसे ही रिऐलिटी शो की बदौलत सिर्फ मुंबई में 1 लाख से ज्यादा गायक स्ट्रगल कर रहे हैं और किसी को कोई मुकाम हासिल नहीं हो रहा. चैनल वाले प्रायोजकों के साथ मिल कर जनता का पैसा अंटी कर झोली भरभर कमाई करते हैं और इन प्रतिभाओं के हाथ सिवा नाकामयाबी के कुछ नहीं आता. वरना अब तक न जाने कितने इंडियन आइडल बन चुके हैं, कहां हैं वे सब? अमेरिकी तर्ज पर रिऐलिटी शो से शायद ही कोई सुपर सिंगर बना हो. ऊपर से इस तरह के विदेशी शो की देखादेखी किशोर और युवा अपनी पढ़ाईलिखाई छोड़ कर इन रिऐलिटी शोज के पीछे भागने से भी गुरेज नहीं करते.

जानलेवा तमाशा

ऐडवैंचर का शौक दुनिया में हर जगह है लेकिन खतरों के साथ खेलने का ऐडवैंचर अमेरिका जैसे मुल्कों में ज्यादा ही लोकप्रिय है. वहां सुरक्षा को ले कर जागरूकता भी ज्यादा है, इसीलिए वहां ‘फियर फैक्टर’ काफी हिट शो माना जाता है. हालांकि इस में ऐडवैंचर के नाम पर छिपकली और केकड़ों को पकड़ना, कई बार उन्हें खाना, कीचड़ में लोटना और हवा में कूदफांद करना ही शामिल होता है. लेकिन इस का भी देसी संस्करण ‘खतरों के खिलाड़ी’ के नाम से बनाया गया. पहले इस शो को अक्षय कुमार होस्ट करते थे. ताजा सीजन निर्देशक रोहित शेट्टी ने होस्ट किया था. असफल और गुमनाम फिल्मी कलाकारों की लंबी फौज यहां भी ऊटपटांग स्टंटबाजी करती है.

रचनात्मकता का अभाव

ये तो महज उदाहरण हैं. इंडियन टैलीविजन ऐसे ही सैकड़ों शोज से पटा है, जो न सिर्फ हमारे समाज को बहका रहे हैं बल्कि युवाओं को बरगला भी रहे हैं. हमारे यहां के ज्यादातर टीवी मालिक विदेशी हैं. लिहाजा, भारतीय मूल्यों पर आधारित शो बनाने की इन से उम्मीद नहीं की जा सकती. लेकिन जो बना सकते हैं वे भी नहीं बना रहे. अगर हम गुणवत्ता वाले कार्यक्रमों के लिए विदेशी शोज के मुहताज हैं तो हम जरूर वैचारिक दिवालिएपन से जूझ रहे हैं. हम भूल जाते हैं कि झटपट कमाई के उद्देश्य से बनाए गए ये फूहड़ और चोरी के शोज भविष्य की एक ऐसी पीढ़ी तैयार कर देंगे जो ओरिजिनल आइडिया न तो सोच पाएगी और न ही कुछ रचनात्मक सृजित कर पाएगी. फिर आखिर में टीवी पर सिर्फ विदेशी शोज ही टैलीकास्ट होंगे.

क्या हम मनोरंजन के बड़े और सार्थक माध्यम टैलीविजन को पाश्चात्य देशों की मुट्ठी में देना चाहते हैं? कम से कम दूसरे मुल्क तो यही चाहते हैं कि यहां घुसपैठ कर के वे मनमुताबिक मनोरंजन बेचें. जवाब खोजना जरूरी है वरना इस तरह हम वैचारिक तौर पर न अमेरिकी होंगे और न भारतीय. क्या हम सासबहू और साजिश से भरे शोज, विदेशी शोज के भारतीयकरण और फूहड़ हास्य ही बनाने लायक रह गए हैं?

चारफुटिया छोकरे

जब कोई हर्ष मामर जैसा बाल कलाकार ‘आई एम कलाम’ और ‘जलपरी’ जैसी फिल्मों में काम करता है तो उसे जरूर वाहवाही मिलती है. वही बाल कलाकार जब हाथ में पिस्तौल लहराते हुए किसी का मर्डर करता दिखता है तो यह सोचने पर विवश हो जाना पड़ता है कि क्या यही हमारे देश का भविष्य है? क्या यह भारत का ‘कलाम’ बनने लायक है?

‘चारफुटिया छोकरे’ बाल शोषण और बच्चियों के ट्रैफिकिंग पर बनी फिल्म है. फिल्म का विषय गंभीर है परंतु इस का ट्रीटमैंट गंभीर नहीं है.  मसालों में लिपटी यह फिल्म जायके को बिगाड़ देती है. इस फिल्म की कहानी में बहुत सारी बातें हैं. गांव में किसान के कर्जा न चुका पाने पर उस के बैल खोल कर ले जाने का जिक्र है तो किसान के बेटे द्वारा साहूकार के आदमी का मर्डर भी है. गांव में एक दबंग की दबंगई है तो किशोरियों को जबरन उठा कर उन से देह शोषण कराने की कहानी भी है. इस के अलावा एक एनजीओ द्वारा गांव में स्कूल बनवाने की बात भी है, साथ ही दबंगों द्वारा नायिका की अस्मत लूटने की कोशिश भी है.

दरअसल यह फिल्म कहना तो बहुत कुछ चाहती है परंतु ढंग से अपनी बात कह नहीं पाती. फिल्म की कहानी एक गांव से शुरू होती है. गांव के लठैत एक किसान द्वारा कर्ज न चुका पाने पर उस की हत्या कर देते हैं. किसान का बेटा अवधेश (हर्ष मायर) 4 फुट लंबा है. वह अपने बाप के कातिल को मार डालता है और अपने 2 दोस्तों गोरख (शंकर मंडल) और हरि (आदित्य जीतू) के साथ भाग जाता है. तीनों को गांव का एक दबंग नेता लखन (जाकिर हुसैन) संरक्षण देता है. तीनों चारफुटिए छोकरे के नाम से मशहूर हो जाते हैं.

गांव में एक युवती नेहा (सोहा अली खान) एक स्कूल खोलना चाहती है. वह एनआरआई है. उस का सामना भ्रष्ट दबंग लखन से होता है. उसे लखन द्वारा किशोरियों के देह शोषण की बात पता चलती है. वह न सिर्फ इन चारफुटिए छोकरों को सही राह पर लाती है, लखन जैसे गुंडे का खात्मा भी करती है. फिल्म की यह कहानी कहींकहीं डौक्यूमैंटरी सरीखी लगती है.  फिल्म की सब से बड़ी खामी कलाकारों के अभिनय की है.

सोहा अली खान बहुत सी फिल्में करने के बावजूद फिल्मों में चल नहीं पाई है. अन्य कलाकारों ने भी ढीलाढाला अभिनय किया है. एक अकेला जाकिर हुसैन ऐसा कलाकार है जिस ने कुछ कर दिखाया है. फिल्म का निर्देशन कमजोर है. हालांकि फिल्म बाल अपराधियों को सही रास्ते पर लाती दिखती है लेकिन साथ ही पुलिस की बर्बरता को भी दिखाती है कि वह गांव के दबंगों के इशारे पर 12-13 साल के किशोरों का भी एनकाउंटर करने से भी नहीं चूकती. विदेशों में इस तरह की फिल्म भले ही वाहवाही बटोर ले हमारे यहां ऐसी फिल्म ज्यादा नहीं चलने वाली. ‘बच्चों को स्कूल में शिक्षा मिले, प्यार मिले, संरक्षण मिले’ रवींद्रनाथ टैगोर की इस उक्ति को हवा में उड़ते दिखा दिया गया है.

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