तेजाब की खुली बिक्री पर रोक लगाने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने पिछले साल दिसंबर के पहले हफ्ते में राज्य सरकारों को नसीहत दी थी कि वे 31 मार्च, 2014 तक तेजाब की बिक्री के नियम बनाएं और तेजाबी हमलों के पीडि़तों को मुफ्त इलाज और उन की प्लास्टिक सर्जरी के बाबत भी ब्योरा दें. गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने ही 18 जुलाई, 2013 को एक आदेश में गाइडलाइन जारी की थी जिस में कहा गया था कि तेजाबी हमलों को गैर जमानती जुर्म माना जाए, 18 साल से कम उम्र के लोगों को तेजाब न बेचा जाए, तेजाब खरीदने वाले से उस का पता व फोटो पहचानपत्र लिया जाए और तेजाबी हमले से पीडि़त को राज्य सरकारें 3 लाख रुपए का मुआवजा दें जिन में से 1 लाख रुपए हमले के 15 दिन के अंदर दिए जाएं.

एक बड़ी कानूनी दिक्कत यह है कि तेजाबी हमलों के बाबत अलग से कोई धारा वजूद में नहीं है. अभी ये मामले धारा 307 (हत्या की कोशिश), धारा 320 (गंभीर चोट पहुंचाना) और धारा 326 (घातक हथियारों से जानबूझ कर प्रहार कर चोट पहुंचाना) के तहत दर्ज किए जाते हैं. कवायद यह चल रही है कि धारा 326 को और विस्तार देते हुए उस में ही तेजाबी हमलों के मामले दर्ज किए जाएं, इस तरह जल्द ही धारा 326 (ए और बी) वजूद में आ सकती हैं.

अदालती सलाह

तेजाब पीडि़तों खासतौर से महिलाओं के प्रति सुप्रीम कोर्ट की मंशा और हमदर्दी बेशक स्वागतयोग्य है पर इस में व्यावहारिकता का अभाव है इसीलिए अब तक अधिकांश राज्य सरकारें तेजाब बिक्री के नियम नहीं बना पाईं और ऐसा लग भी नहीं रहा कि निकट भविष्य में बना भी पाएंगी. केवल बिहार, जम्मूकश्मीर और पुद्दूचेरी सरकारें ही सुप्रीम कोर्ट के तेजाब बिक्री संबंधी दिशानिर्देशों का पालन करते हुए नियम बना पाई हैं. जो सरकारें नियम नहीं बना पाईं उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देशों को ही नियम मानते हुए आदेश जारी कर दिए हैं. इस की वजह यह है कि अधिकांश राज्यों के विधि विभागों में पर्याप्त अमला नहीं है, लिहाजा, इस आदेश का पालन करने के लिए उन्होंने सुप्रीम कोर्ट की मंशा को ज्यों का त्यों लागू करने में ही भलाई समझी.

पर यह अंतरिम व्यवस्था ज्यादा दिन नहीं ढकेली जा सकती. आज नहीं तो कल, राज्य सरकारों को अपना मसौदा तैयार कर कानून बनाना ही पड़ेगा. इस बाबत विधानसभा के पटल पर नए कानून का ब्योरा रखा जाएगा और पारित होने पर उसे राज्यपाल के पास अनुशंसा के लिए भेजा जाएगा. सरकारें कितनी भी जल्दी करें, इस प्रक्रिया में 2-3 साल लग ही जाएंगे. क्योंकि हरेक राज्य में लंबित पड़े विधेयकों की संख्या बहुत ज्यादा है और विधानसभाओं का अधिकांश वक्त विधायकों के होहल्ले की बलि चढ़ जाता है.

खतरनाक रसायन

तेजाब एक खतरनाक रसायन है जिस का इस्तेमाल घरेलू टौयलेट क्लीनर्स से ले कर बड़े उद्योगों में बड़े पैमाने पर किया जाता है. अर्थशास्त्री और उद्योग विशेषज्ञ तो मानते हैं कि जिस देश के उद्योगों में तेजाब की जितनी ज्यादा खपत होती है वह उतना ही संपन्न और विकसित होता है. तेजाब का इस्तेमाल मोटर मैकेनिक भी करते हैं और सोने के गहने व धातुएं चमकाने में सुनार भी करते हैं. इस से दवाएं बनती हैं जबकि कृषि कीटनाशकों की तो तेजाब के बगैर कल्पना भी नहीं की जा सकती. प्रयोगशालाओं में विज्ञान के विद्यार्थी तो बगैर तेजाब के कई प्रयोग करने की सोच भी नहीं सकते.

शैक्षणिक संस्थान

सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देशों के बाद अपराधियों पर तो कोई फर्क नहीं पड़ा लेकिन शैक्षणिक संस्थानों की सिरदर्दी बढ़ने लगी है. बीती 24 मार्च को पूर्वी दिल्ली के कुछ स्कूलों पर प्रशासन ने छापा मार कर नाजायज तेजाब पकड़ा और कानूनी कार्यवाही भी कर डाली. स्कूलों के संचालक कानूनी झमेले में पड़ कर अब अदालत के बेवजह चक्कर काटने को मजबूर हैं. प्रशासन ने इन स्कूलों में छापा मार कर ‘नाजायज’ तेजाब पकड़ा और उस का ब्योरा मांगा तो स्कूल प्रबंधन विवरण देने में नाकाम रहा. इस पर प्रशासन ने स्कूलों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज कर दिए. सुप्रीम कोर्ट की हिदायतों में कहीं शिक्षण संस्थानों का उल्लेख नहीं था पर प्रशासन ने जो किया और जो आगे करेग वह इन छापों से उजागर हुआ. कानून पूरी तरह अभी बना नहीं है पर उस का दुरुपयोग और मनमानी शुरू हो गई है.

आज तक किसी शिक्षण संस्थान में कोई तेजाबी हमला नहीं हुआ है. प्रयोगशाला में इस्तेमाल होने वाले रसायनों और दूसरे उपकरणों की तरह तेजाब का भी हिसाबकिताब नहीं रखा जाता. यह कोई गुनाह नहीं है क्योंकि रोज प्रैक्टिकल होते हैं और रोज ही छात्रों को प्रयोग होने वाले सामान व रसायन दिए जाते हैं. अब शिक्षण संस्थानों को हिसाब- किताब रखना होगा कि कितने और कौन से छात्र को कितना तेजाब दिया गया और उस ने प्रैक्टिकल में ही उसे इस्तेमाल किया. मुमकिन है झल्लाए शिक्षण संस्थान भी आतेजाते वक्त छात्रों की तलाशी गुंडे, मवालियों और पेशेवर मुजरिमों की तरह लेना शुरू कर दें. इस से छात्रों और उन की पढ़ाई पर कितना बुरा असर पड़ेगा, इस का सहज अंदाजा लगाया जा सकता है.

खरीदबिक्री पर सख्ती

तेजाब का रिकौर्ड न रखने वाले स्कूलों पर भारतीय दंड संहिता की धारा 188 के तहत कार्यवाही की गई है. यह मकसद से दूर पढ़ाई में खलल डालने वाली बात है. तेजाब की बिक्री को ले कर अगर जरूरत से ज्यादा सख्ती बरती गई तो तय है कि छोटे उद्योग दिक्कत में पड़ेंगे ही, साथ ही बड़े उद्योगों को भी भारी संकट का सामना करना पड़ेगा. वजह, यह आशंका है कि फिर तेजाब की कालाबाजारी होने लगेगी. बात जहां तक महिलाओं की है तो उन के प्रति जो हिंसक अपराध होते हैं, उन 10 लाख में भी 1 तेजाबी हमले का नहीं होता, हालांकि जो होता है वह दिल दहला देने वाला होता है. इसीलिए होहल्ला ज्यादा मचता है, समाज संवेदनशील हो उठता है और ‘पकड़ो’, ‘फांसी दो’ की आवाजें आने लगती हैं.

ऐसे में सहज सवाल यह उठता है कि क्या औरतों को जलाया नहीं जाता या औरतें खुद जल नहीं मरतीं, क्या वे कुएं में नहीं ढकेली जातीं या स्वयं नहीं कूदतीं, फिर हमदर्दी में भेदभाव क्यों? क्या घासलेट और गैस सिलेंडर की बिक्री रोकी जा सकती है? क्या सारे कुएं पाटे जा सकते हैं? चाकूहथौड़े से ले कर रिवौल्वर जैसे जानलेवा हथियारों की बाबत क्या किया जाएगा? अदालती फरमान कई माने में बेतुका है जिस पर अमल से भी कोई फायदा होने वाला नहीं. मसलन, जो अपराध के लिए तेजाब खरीदेगा वह अपनी पहचान का इस्तेमाल करने की बेवकूफी क्यों करेगा. इस से होगा यह कि जो पहचानपत्र दिखा कर तेजाब खरीदेंगे उन पर पुलिस शिकंजा कसेगी कि बताओ, जो तेजाब खरीदा था वह कहां गया, कितना बचा और कितना इस्तेमाल किया.

तेजाब किसी भी तरह से गोलाबारूद या जहर नहीं है फिर भी अदालती दबाव में इसे गृह मंत्रालय जहर की श्रेणी में रखने जा रहा है जबकि वह उद्योगधंधों और रोजमर्रा की जरूरतों व खपत के बारे में नहीं सोच रहा.

दर्ज मामले

यह जान कर हैरानी होती है कि देश में अभी तक तेजाबी हमलों के महज 1,500 के लगभग ही मामले दर्ज हुए हैं. इस से ज्यादा हैरत वाली बात यह है कि राष्ट्रीय अपराध रिकौर्ड ब्यूरो के पास तेजाबी हमलों का कोई साफ आंकड़ा नहीं है. सब से ज्यादा तेजाबी हमले कर्नाटक में दर्ज किए गए हैं. 1990 से ले कर अब तक वहां हुए तेजाबी हमलों की तादाद 100 भी नहीं है यानी सालाना 7 मामले दर्ज हुए. कई प्रदेशों में तो तेजाबी हमलों के इक्कादुक्का मामले ही सामने आए हैं. जाहिर है, समस्या उतनी गंभीर है नहीं, जितनी बताई जा रही है.

पीडि़तों को राहत दी जाए, उन का इलाज किया जाए, प्लास्टिक सर्जरी की जाए, ये एतराज की बातें नहीं पर राज्य सरकारें बेहतर जानती हैं कि तेजाब की बिक्री को नियमकानूनों में बांधा गया तो छोटे कारीगरों को खाने के लाले पड़ जाएंगे जिस का असर राजस्व और तरक्की पर भी पड़ेगा. बीते 10 साल मीडिया ने जम कर तेजाब पीडि़तों से ताल्लुक रखती सामग्री प्रचारितप्रसारित की, तेजाब की बिक्री को कोसा, कइयों को तो तेजाब फुटपाथ पर पानी की तरह बिकता नजर आया. इस अतिशयोक्ति से वाहवाही तो खूब मिली पर तेजाबी हमलों में कोई कमी नहीं आई जो 5 साल से स्थिर है.

यह महज इत्तफाक है कि तेजाबी हमलों में जो मामूली बढ़ोत्तरी हुई वह मीडिया के मचाए होहल्ले के बाद हुई. साल 2006 के बाद ये हमले कुछ बढ़े तो लगता ऐसा है कि यह तेजाबी हमलों के लिए प्रचार का नतीजा था जिस ने अपराधियों को तेजाब के इस्तेमाल के लिए उकसाया. बारबार पीडि़ता का जला चेहरा दिखाया और छापा गया. उस की आपबीती को चटखारे ले कर पेश किया, जो कारोबार का हिस्सा था. इस में यदि कोई संदेश या हल होता तो तेजाबी हमले बजाय बढ़ने के कम होने चाहिए थे. अपराध मनोविज्ञान के सिद्धांतों के तहत यह बात भी गौर की जानी चाहिए कि कई अपराधी तेजाब का इस्तेमाल इसलिए भी नहीं करते कि उन्हें खुद अपने झुलसने का डर रहता है. हमारे देश में कानून बनाना अब सहज होता जा रहा है. अदालतें खिंचाई करती हैं. संसद विधेयक ला कर अपना काम पूरा कर देती है पर इस से अपराध कम नहीं होते. शायद ही कोई अदालत या सरकार यह गारंटी ले कि तेजाब की बिक्री पर सख्ती से तेजाबी हमलों पर अंकुश लग जाएगा. फिर तेजाब की बिक्री पर बेवजह की बात करना बेमानी होगा.

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