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कथावाचकों के चक्रव्यूह में जनता, बिना अच्छी किताबें पढ़ें कैसे बनेगा देश विश्वगुरु

20 फरवरी को 58 साल की होने जा रहीं सिंडी क्रौफर्ड 80-90 के दशक की कामयाब और चर्चित माडल व ऐक्ट्रैस थीं जिन के पोस्टर युवा अपने कमरों में लगाया करते थे. न केवल अमेरिका बल्कि पूरे यूरोप और दुनियाभर के युवा सिंडी क्रौफर्ड के दीवाने थे. यह वह दौर था जब भारत के युवा ड्रीमगर्ल के खिताब से नवाज दी गईं ऐक्ट्रैस हेमामालिनी के पोस्टर अपने कमरों में लगाया करते थे.

दुनिया की टौप फैशन ब्रिटिश मैगजीन ‘वोग’ ने फरवरी 2024 के मुख पृष्ठ पर सिंडी की तसवीर उन की बेटी केया गेरवर के साथ छापी है लेकिन इस बार ‘वोग’ का फ्रंट पेज फैशन से ज्यादा पढ़नेपढ़ाने को ले कर चर्चित हो रहा है.

22 वर्षीया केया गेरवर ने हाल ही में अपना बुक क्लब ‘लाइब्रेरी साइंस’ लौंच किया है. बकौल केया, किताबें पढ़ना उन का जनून है. लाइब्रेरी साइंस को वे एक ऐसा कम्युनिटी मंच बताती हैं जिस में वे नए लेखकों को पेश करती हैं, किताबों को साझा करती हैं और पसंदीदा कलाकारों के इंटरव्यूज लेती हैं.

केया का उत्साह बेवजह नहीं है क्योंकि बड़ी तादाद में युवा किताबों की तरफ लौट रहे हैं. 1997 से ले कर 2012 के बीच जन्मी पीढ़ी को जेन जी कहा जाता है. अब अमेरिका और यूरोप के ये युवा सोशल मीडिया के शोरगुल और गपों से तंग आ चुके हैं और तेजी से किताबों के पन्नों में सुकून, ज्ञान और मनोरंजन ढूंढ़ रहे हैं जो उन्हें मिल भी रहा है.

साल 2023 के आंकड़े युवाओं के इस बदलते रुझान की पुष्टि भी करते हैं. अमेरिका और ब्रिटेन में इस साल कोई 145 करोड़ किताबें बिकीं. सुखद व हैरानी की बात यह है कि इन में से 80 फीसदी खरीदार युवा थे. यानी, युवाओं का मोह अब सोशल मीडिया और काफीहाउसों के शोरगुल से भंग हो रहा है. उन के कदम 70 के दशक के युवाओं की तरह लाइब्रेरियों की तरफ मुड़ रहे हैं, जहां आ कर किताबें पढ़ने वाले युवाओं की तादाद बीते साल 71 फीसदी बढ़ी है.

साहित्य और किताबों के लिए चर्चित प्लेटफौर्म ‘बुक्स औन द बेडसाइड’ की कोफाउंडर हैली ब्राउन युवाओं की दिलचस्पी को उधेड़ते बताती हैं कि उन की किताबों की दुनिया अविश्वसनीय रूप से व्यापक है. उस में कथा साहित्य के अलावा अनुदित कहानियां, संस्मरण और परंपरागत साहित्य भी लोकप्रिय हैं. एक और आंकड़े के मुताबिक, बीते साल अमेरिका में प्रिंटेड किताबों की बिक्री बढ़ी है. यूगाव की एक स्टडी के मुताबिक, 2023 में 40 फीसदी अमेरिकियों ने कम से कम एक किताब पढ़ी.

हमारे युवा कहां खड़े हैं

अमेरिका घोषित तौर पर क्यों विश्वगुरु है, केया गेरवर जैसी यंग सैलिब्रिटीज की सार्थक पहल इस सवाल का जवाब देती हुई कहती हैं कि आप को अगर दौड़ में बने रहना है तो पढ़ना तो पड़ेगा ही. मंदिरों में नाचगाने और राजनीति से आप देश के युवाओं को कुछ नहीं दे सकते, हां, काफीकुछ छीन लेने का गुनाह जरूर करते हैं. और यह गुनाह आज से नहीं, बल्कि सदियों से हो रहा है कि पढ़नेलिखने का अधिकार सिर्फ एक वर्गविशेष का हो, जिसे ब्राह्मण और अब दक्षिणापंथी कहा जाता है.

हिंदू धर्मग्रंथों में पढ़ने का हक केवल ब्राह्मणों को ही दिया गया है. यह उन की रोजीरोटी का जरिया भी रहा है. अब हालांकि पूरी तरह ऐसा नहीं है लेकिन एक साजिश के तहत युवाओं का ध्यान और रुझान साहित्य से भटकाया जा रहा है. कैसे, इसे समझने से पहले यह समझना जरूरी है कि आखिर सब को पढ़नेलिखने का अधिकार मिला कैसे और अब कैसेकैसे इसे छीना जा रहा है.

साल 1850 तक देश में गुरुकुल प्रथा चली आ रही थी जिन में केवल ऊंची जाति वाले युवाओं को ही शिक्षा दी जाती थी. यह शिक्षा भी धर्म आधारित होती थी. लार्ड मैकाले ने इसे खत्म किया जिस से ब्रिटिश हुकूमत को क्लर्क मिलते रहें (क्योंकि साहब लोग तो ब्रिटेन से ही आए थे). आजादी के बाद सरकारी के साथसाथ कौन्वेंट और पब्लिक स्कूल खुलना शुरू हुए जिस से आजादी के बाद शिक्षा सभी को सुलभ हो गई. यह और बात है कि यह केवल कहनेभर को रही.

जैसी भी हुई, हो तो गई लेकिन हिंदी दुर्लभ होती गई. अब आज मोबाइल और इंटरनैट के दौर में हिंदी केवल बोलने की भाषा होती जा रही है. नए दौर के बच्चे न तो इंग्लिश प्रभावी ढंग से जानते हैं और न ही उन की पकड़ अपनी मातृभाषा पर रह गई. नतीजतन, वे त्रिशंकु जैसे अधर में लटके हैं.

यों बदनाम किया उत्कृष्ट साहित्य को

जब थोक में अधकचरी भाषा वाले बच्चे जिंदगी के मैदान में उतरे तो उन का इकलौता मकसद नौकरी हासिल करना रह गया, जो अब तक है. लेकिन यह पीढ़ी बौद्धिकता के मामले में यूरोप और अमेरिका के युवाओं से काफी पिछड़ी हुई है. थोड़ी इंग्लिश और कंप्यूटर लैंग्वेज जानने वाले देश में और विदेश जा कर भी पैसा तो अच्छा कमा रहे हैं पर सुकून की तलाश में वे भटक भी रहे हैं. उन की इस ऊहापोह का फायदा धर्म के ठेकेदार उठा रहे हैं जिन्होंने धर्म को ही ज्ञान साबित कर दिया है.

लाख टके का सवाल यह है कि भारतीय युवा क्यों पढ़ाई के मामले में पिछड़ रहे हैं तो उस की एक बड़ी वजह भाषा है. ये युवा रागदरबारी पढ़ और समझ नहीं पा रहे हैं. जब इस दिक्कत को कुछ जागरूक प्रकाशकों ने समझा तो उन्होंने नफानुकसान की परवा न करते बहुत सस्ते दामों में अच्छी पत्रिकाएं उपलब्ध कराना शुरू किया. अब तक बड़ी तादाद में पिछड़े युवा पढ़ने लगे थे और कुछ दलित आदिवासी भी औपचारिक शिक्षा से इतर साहित्य में रुचि लेने लगे थे.

80-90 के दशक में जासूसी उपन्यास भी इफरात से पढ़े गए. इन से, हालांकि पाठकों को सिवा मनोरंजन के कुछ और हासिल नहीं हो रहा था लेकिन अच्छी बात यह थी कि लोगों की दिलचस्पी पढ़ने में बढ़ रही थी जिस के चलते वे धर्म संबंधी बहुत से सच नजदीक से समझने लगे थे.

चौकन्ने, चालाक श्रेष्ठ वर्ग को इस से चिंता होना स्वाभाविक बात थी क्योंकि शिक्षित कौम उन की गुलामी करना बंद कर देती है. मैकाले का मकसद कोई भारत को शिक्षित करना नहीं था बल्कि उसे लोग चाहिए थे जो बहीखाता और हिसाबकिताब लिखने लगें जिस से ब्रिटिश राज चलता रहे. इस चक्कर में आजादी के बाद लोग सचमुच पढ़ने लगे तो दिक्कत धर्म के दुकानदारों को हुई. इसी दौर में प्रेमचंद हुए और इसी दौर में भीमराव अंबेडकर भी हुए जिन्होंने साबित कर दिया कि देश के पिछड़ेपन की वजह अशिक्षा यानी शिक्षा पर एकाधिकार एक वर्ग का है.
ऐसी ही एक पत्रिका ‘सरस सलिल’ है लेकिन दक्षिणापंथियों ने इस के बारे में यह प्रचार करना शुरू कर दिया कि यह घटिया और सैक्सी मैगजीन है जो युवाओं को बिगाड़ रही है. इस में नंगीपुंगी तसवीरें छपती हैं. उलट इस के, हकीकत यह थी कि ‘सरस सलिल’ युवाओं को तर्क करना सिखा रही थी, अंधविश्वासों और पाखंडों से आगाह कर रही थी. यह चूंकि धर्म के धंधे पर चोट कर रही थी, इसलिए दक्षिणापंथियों को अखरने लगी थी. आज भी स्थिति ज्यों की त्यों है. ‘सरस सलिल’ दिलचस्पी से पढ़ी जा रही है लेकिन उस के बारे में दुष्प्रचार यथावत है.

इस तरह की पत्रिकाओं और साहित्य को हर स्तर पर हतोत्साहित करने का एक बड़ा फर्क यह जरूर पड़ा कि नए पाठक पैदा होना बंद हो गए, जो महंगी पत्रिकाएं और साहित्य अफोर्ड नहीं कर सकते थे. इत्तफाक से इसी दौर में मोबाइल का चलन बढ़ा था जिस के खतरों से अब हर कोई चिंतित है. इस की अधिकता से हैरानपरेशान युवा कैसे किताबों की तरफ भाग रहे हैं, इस से आगाह करने को हमारे पास कोई केया गेरवर नहीं है. लेकिन आज नहीं तो कल होगी जरूर क्योंकि हमारे युवा भी मोबाइल से ऊबने लगे हैं. लेकिन बाजार में दिमाग को खुराक देने वाली पत्रिकाएं और किताबें बहुत सीमित बची हैं. वे हमेशा की तरह ही पैसे वालों के लिए हैं जो आमतौर पर ऊंची जाति वाले आज भी हैं.

कथावाचकों की चांदी

बाजार में जो बहुतायत से मौजूद हैं वे समाज को भ्रष्ट करने वाले कथावाचक हैं. उन्हें हिंदू समाज का पथभ्रष्टक न कहना उन के साथ ज्यादती ही होगी. उन के फलनेफूलने की एक बड़ी वजह युवाओं के सामने अच्छे ज्ञानवर्धक, व्यावहारिक और तार्किक साहित्य की सीमितता तो है ही लेकिन दूसरी इस से बड़ी वजह हमारी पढ़ने की कम, सुनने की आदत ज्यादा है जिसे, अपने स्वार्थ के लिए ही सही, लार्ड मैकाले ने ध्वस्त किया था.

पंडेपुजारी हमें सदियों से ही कथाएं सुनाते रहे हैं. इस से जो नुकसान हुए उन में एक यह था कि धर्मग्रंथों का सच लोग जानसमझ ही न पाएं. कथावाचकों ने अपने हिसाब से इसे तोड़ामरोड़ा और पैसा बनाया. आज भी हो यही रहा है कि व्यास पीठ पर विराजा महाराज बड़ी बेशर्मीभरे आत्मविश्वास से कहता है कि लहसुन और प्याज कुत्ते के पेशाब से उत्पन्न हुए और पृथ्वी शेषनाग के फन पर टिकी है तो भक्तों की भीड़ तालियां बजा कर उसे सच मान लेती है.

ऐसी सैकड़ोंहजारों बातें धर्म की आड़ में बोली जाती हैं और उस से भी ज्यादा चिंता और अफसोस की बात कि वे पूरी श्रद्धा से सुनी जाती हैं. ऐसे में भारत कैसे विश्वगुरु बनेगा, सवाल तो है. इस के बजाय सोचा यह जाना चाहिए कि क्या ऐसे ही भारत, कथित तौर पर, विश्वगुरु बना होगा.

तुम हो नागचंपा – भाग 2

कामिनी को ले कर महीप अगले दिन सुबहसुबह स्वामीजी के आश्रम में चला गया. प्रवचन शुरू होने में समय था इसलिए कुछ लोग ही थे वहां पर. कामिनी सब से आगे की पंक्ति में बैठ गई. महीप उन लोगों की लाइन में लग गया जो आज स्वामीजी का विशेष दर्शन करना चाहते थे. यह दर्शन प्रवचन के बाद स्वामीजी के कमरे में होते थे. कितना समय स्वामीजी के साथ व्यतीत करना है उस के अनुसार पैसे दे कर पर्ची काटी जाती थी.

प्रवचन शुरू होतेहोते बहुत लोगों के एकत्र हो जाने से वहां काफी भीड़ हो गई थी. नीचे मोटी दरी बिछी थी जहां बैठे लोग बेसब्री से स्वामीजी के आने की प्रतीक्षा कर रहे थे. स्वामीजी जल्द ही आ गए. पीली धोती, पीला कुरता, माथे पर लंबा तिलक. भीड़ पर मुसकान फेंकते स्वामीजी सिंहासननुमा कुरसी पर विराजमान हो गए. व्याख्यान आरंभ करते हुए बोले, “आज मैं उन स्त्रियों के विषय में बताऊंगा जो पति की आज्ञा का पालन नहीं करतीं और उन की सेवा न करने पर उन्हें अगले जन्म में कैसेकैसे पाप भोगने पड़ते हैं.”

सभी ध्यानपूर्वक उन को सुन रहे थे. कामिनी को आशा थी कि पत्नी के हित में भी स्वामीजी कुछ कहेंगे लेकिन उसे यह विचित्र लगा कि पति के एक भी कर्तव्य की बात स्वामीजी ने नहीं की. पत्नी के लिए अनेक उलटेसीधे नियम बताए जो कामिनी पहली बार सुन रही थी, फिर भी वह प्रवचन सुनने और समझने का पूरा प्रयास कर रही थी.

व्याख्यान पूरा हुआ तो महीप ने उसे बताया कि दर्शनों के लिए बनी आज की सूची में उस का व कामिनी दोनों का नाम है. जल्द ही उन को एक कमरे में बुला लिया गया, जहां स्वामीजी मखमली कुरसी पर विराजमान थे. सामने 4 प्लास्टिक की कुरसियां रखीं थीं. एक सहायक हाथ में कागजपैन लिए आज्ञाकारी सा स्वामीजी की बगल में खड़ा था. महीप व कामिनी के पहुंचते ही सहायक ने उन का परिचय नपेतुले शब्दों में स्वामीजी को दे दिया.

दोनों स्वामीजी के सामने बैठ गए. स्वामीजी के ‘बोलो…’ कहते ही महीप ने एक बार में पत्नी के गर्भवती न होने का दुखड़ा सुनाया. कामिनी सिर झुकाए खड़ी थी.

उस पर ऊपर से नीचे भरपूर दृष्टि डालने के बाद स्वामीजी ने कहा, “कामिनी कुछ दिन आश्रम में बिताए तो अच्छा है. एक विशेष अनुष्ठान द्वारा इस के पापों का नाश कर शुद्धिकरण कर दिया जाएगा. चाहो तो आज ही इसे यहां छोड़ दो.”

“लेकिन मैं तो कोई सामान नहीं लाया. कामिनी के कपड़े…” महीप की बात अधूरी रह गई.

स्वामीजी बीच में बोल उठे, “यहां आश्रम के दिए कपड़े पहनने होंगे, ले कर आते तो भी व्यर्थ ही रहता तुम्हारा लाना.”

“ठीक है, इसे आज यहीं छोड़ कर जा रहा हूं मैं,” महीप स्वामीजी की ओर देख हाथ जोड़ते हुए बोला. कामिनी क्या चाहती है, यह किसी ने जानना भी आवश्यक नहीं समझा. महीप वापस घर लौट गया. कामिनी को आश्रम के एक कमरे में भेज दिया गया जहां बैंच लगे थे. कुछ अन्य लोग भी किसी प्रतीक्षा में वहां थे. सभी को शांत रहने व आपस में बातचीत न करने को कहा गया था. दोपहर को एक सेविका ने खाने की थाली ला कर दे दी.

धीरेधीरे सब लोग चले गए. कामिनी अकेले गुमसुम सी बैठी अपनी बीती जिंदगी में विचर रही थी. रहरह कर उसे आकाश की याद आ रही थी. आकाश उस के पिता का प्रिय शिष्य था. बचपन से ही उन के घर आताजाता था. साइकोलौजी में पीएचडी करने के बाद कामिनी के कालेज में पढ़ाने लगा था. वहां पढ़ने वाली लड़कियां आकाश सर का बहुत सम्मान करती थीं. वह उन सभी को कभी कमजोर न पड़ने और आंखें खोले रखने को कहा करता था.

कामिनी को भी वह विपत्ति में ढांढ़स बंधाते हुए हिम्मत बनाए रखने को कहता था. जब मां के बीमार हो जाने पर क्लास टैस्ट में कामिनी को बहुत कम अंक मिले थे तो आकाश ने उसे कहा था, “एक बेटी का फर्ज निभाते हुए पढ़ाई को समय न दे पाने मतलब यह नहीं कि हाथ से सब फिसल गया. अब वार्षिक परीक्षा में अच्छे अंक पाने के लिए यह सोच कर मेहनत करना कि अपने लिए भी कुछ फर्ज निभाने हैं और खुद को अब समय देना है तुम्हें.”

“काश, आकाश आज यहां होता तो बताता कि कहां कमी रह गई? क्या उस ने पत्नी का फर्ज नहीं निभाया? क्या सचमुच उस ने पाप किए हैं? शादी के बाद पतिपत्नी अपने रिश्ते को निभाते हुए आनंदित हों तो क्या यह गलत है? मन के साथ देह मिलन क्या बुरी सोच है? क्या संतान को जन्म देना ही उद्देश्य है विवाह का?’ सोचते हुए कामिनी उठ कर खिड़की से बाहर झांकने लगी.

शाम का झुटपुटा रात की ओर चल दिया. वापस बैंच पर बैठ थकी कामिनी ने आंखें मूंद दीवार से सिर टिका लिया.

“वहां चली जाओ,” कानों में आश्रम की एक सेविका का स्वर पड़ा तो कामिनी की तंद्रा भंग हो गई. चुपचाप उठ कर उस कमरे की ओर चल दी जहां सेविका ने इशारा किया था. बंद दरवाजा उस के जाते ही खुल गया. यह देख वह आश्चर्यचकित रह गई कि स्वामीजी ने उस के लिए स्वयं दरवाजा खोला है.

कमरा गुलाब की महक से गुलजार था. होता भी क्यों न? गुलाब ही गुलाब दिख रहे थे यहांवहां. स्वामीजी की मोटे कुशन वाली आराम कुरसी और बड़े से पलंग पर गुलाब की पंखुड़ियां बिखरीं थीं. कांच की साइड टेबल पर गुलाब के फूल की छोटी सी टहनी एक पतले गुलदस्ते में सजी थी. कुछ दूरी पर दीवार से सटी लकड़ी की नक्काशी वाली डाइनिंग टेबल थी, लेकिन कुरसियां केवल 2 ही लगी थीं. टेबल पर एक गिलास में गुलाबी पेयपदार्थ रखा दिख रहा था.

“बहुत थक गई होंगी. यहां कुरसी पर बैठ जाओ, इसे पी लो. दूध है जिसमें गुलाब का शरबत मिला है,” स्वामीजी ने कहा तो थकान से बेहाल कामिनी ने गिलास मुंह से लगा खाली कर दिया.

कुछ देर बाद एक सेवक खाना ले कर आ गया. 2 प्लेटें और कई व्यंजनों के डोंगे मेज पर सज गए. स्वामीजी कुछ देर चुप रहे फिर होंठों पर मुसकान लिए बोले, “तुम जानती हो कि पत्नी के पापी होने पर गर्भधारण में समस्या आती है. कुछ दिन मेरे साथ रहो, मैं स्वयं अपने हाथों से शुद्धिकरण कर पापों से मुक्ति दिलवा दूंगा. अनुष्ठान आज से ही प्रारंभ हो जाएगा. तुम को केवल अपना ध्यान सब ओर से हटा लेना होगा. ये गुलाब के फूल भी इसी अनुष्ठान के कारण बिछे हैं बिस्तर पर. सुगंध से शांति मिलेगी. आज जो दूध तुम ने पिया है उस में भी विशेष भस्म डाली गई है जो तुम को सब चिंताओं से दूर कर चैन की नींद सुला देगी. खाना खा लो अब, नहीं तो नींद आने लगेगी.”

कामिनी को सचमुच तेज नींद घेरने लगी. इस का कारण कामिनी की थकान थी या दूध में मिली भस्म, वह समझ नहीं पाई. पलपल गहराता नशा उस के सोचनेसमझने की शक्ति छीन रहा था. बैठेबैठे लुढ़कने लगी तो स्वामीजी ने उसे गोद में उठा कर बिस्तर पर लेटा दिया.

कुछ देर में खाना खा कर स्वामीजी कामिनी के पास आ कर बैठ गए. उसे हौले से सहलाते हुए वे कुछ बुदबुदा रहे थे. कामिनी ने आंखें खोल उन का हाथ हटा असहमति जताई. नींद से बोझिल कामिनी स्वयं को शक्तिहीन सा महसूस कर रही थी. अधखुले नेत्रों से अत्यंत व्याकुल हो उस ने स्वामीजी की ओर देखा तो मुसकराते हुए वे बोले, “डरो मत. मैं कुछ मंत्र पढ़ रहा हूं. तुम्हारी देह से पापमूलक तत्त्व मेरे स्पर्श के साथ बाहर निकलते जाएंगे. आराम से लेटी रहो तुम.”

कामिनी का स्वयं पर नियंत्रण नहीं था. चाह कर भी उठ नहीं पा रही थी. उसे अच्छी तरह समझ में आ रहा था कि यह स्वामी भेड़ की खाल में भेड़िया है. स्वामी अपनी पिपासा शांत कर सो गया. कामिनी की नींद आधी रात को टूटी. सोच रही थी कि क्या करे अब? महीप तो स्वामी पर इतना विश्वास करता है कि कामिनी द्वारा सब सच बता देने के बाद भी वह स्वामी का ही पक्ष लेगा. शायद इस चक्रव्यूह से वह निकल नहीं पाएगी.

महीप 2 दिनों बाद आया तो स्वामी ने कामिनी को कुछ दिन और वहां रहने का परामर्श दिया. कामिनी वापस जाने की कल्पना करती तो महीप की अप्रसन्न भावभंगिमाएं और क्रूर व्यवहार ध्यान आ जाता. यहां स्वामी की लोलुपता कांटे सी चुभ रही थी.
आश्रम में बैठे हुए जब स्वामीजी की अनुपस्थिति में कामिनी को महीप से कुछ देर बात करने का अवसर मिला तो कामिनी ने स्वामीजी की नीयत को ले कर शंका जताई. जैसा उस ने सोचा था वही हुआ. महीप ने उसे आंखें तरेर कर देखते हुए धीमी आवाज में 2-4 भद्दी गालियां दे डाली.

स्वामीजी की आज्ञा मान कामिनी को वहां कुछ और दिनों के लिए छोड़ महीप वापस चला गया. आश्रम में कामिनी को एक सेविका के सुपुर्द कर दिया गया. उस के खानेपीने, कपड़ों और दिन में क्याक्या करना है इस का प्रबंध वह सेविका कर रही थी. पूरा दिन स्वामी प्रवचन व भक्तों से मिलनेजुलने में व्यतीत करता और रात कामिनी के अंक में. इस बार महीप आया तो कामिनी को वापस भेजने की अनुमति स्वामी ने दे दी.

दिन बीतते रहे, लेकिन महीप के व्यवहार में कामिनी को कोई बदलाव दिखाई नहीं दिया. बातबात पर उस का हाथ उठा देना और एक रात के अतिरिक्त बाकी समय कामिनी के सामने त्योरियां चढ़ाए रखना अनवरत जारी था. कामिनी दिनरात महीप को सही राह सुझाने का उपाय सोचती, अपरोक्ष रूप से स्वामी का विरोध भी करती लेकिन महीप पर तो स्वामी जैसे लोगों का जादू सिर चढ़ा रहता है जो अपना भलाबुरा भी नहीं सोचते.

कामिनी का प्रयास होता कि महीप जब उसे आश्रम चलने को कहे वह कोई बहाना बना कर टाल दे. आश्रम से अनुष्ठान पूरा न हो पाने के फोन महीप के पास लगातार आ रहे थे. कामिनी पर एक दिन जब उस ने आश्रम चलने के लिए जोर डाला तो कामिनी के मना करते ही उस का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया. महीप द्वारा अनुष्ठान के बाद पाप धुल जाने और गर्भधारण करने की संभावना जतलाने का भी कामिनी पर कोई असर न दिखा तो आगबबूला हो उस ने कामिनी को तेज धक्का दे दिया. फर्श पर पेट के बल गिरी कामिनी का सिर दीवार से टकरातेटकराते बचा. हक्कीबक्की सी घबरा कर वह जल्दी से उठी. कुछ देर यों ही खड़ी रही, फिर दनदनाती हुई महीप के पास गई और उस के गाल पर एक तमाचा जड़ दिया. महीप के क्रोध की आग में इस थप्पड़ ने घी का काम किया.

“अब तो तुम्हें स्वामीजी के आश्रम में चलना ही पड़ेगा. जाते ही तुम्हारी शिकायत लगाऊंगा उन से,” कामिनी का हाथ पकड़ उसे खींचता हुआ महीप दरवाजे की ओर चल दिया. कामिनी को कुछ नहीं सूझ रहा था. चुपचाप आंखों में आंसू लिए महीप के साथ चल पड़ी.

आश्रम से सभी भक्त श्रोता जा चुके थे. स्वामीजी के कक्ष में महीप ने कामिनी के साथ प्रवेश किया. कामिनी को देख स्वामीजी गदगद हो उठे. महीप ने समीप रखे दानपात्र में 100 के नोटों की गड्डी डाल प्रणाम में सिर झुका दिया. स्वामीजी का आशीर्वाद पा कर महीप ने कामिनी के हाथ उठाने की बात उन को बताई. स्वामीजी मुसकराए, महीप का मन खिला कि अब कामिनी से वे अवश्य क्षमा मंगवा कर रहेंगे.

स्वामीजी ने कामिनी के सिर पर स्नेह से हाथ फेरा फिर बोले, “इस का मुखमंडल देख रहे हो? कैसा दपदप कर रहा है. अनुष्ठान के प्रथम चरण का प्रभाव है यह. कोई पुण्यात्मा ही जन्म लेगी भविष्य में इस के गर्भ से. इस की मार को तुम ईश्वर का प्रसाद समझ कर ग्रहण करो. यह कुपित हो गई तो तुम पर दुखों का पहाड़ टूट सकता है.”

महीप मन ही मन सहमति, असहमति के बीच झूलता हुआ भीगी बिल्ली बना बैठा रहा. कामिनी को स्वामीजी अनुष्ठान के लिए अपने कमरे में ले गए. महीप उस के कमरे से बाहर आने की प्रतीक्षा में आश्रम में यहांवहां टहल रहा था कि उसे आश्रम के दान कक्ष में बुला लिया गया. स्टाफ ने विशेष चढ़ावे की मांग की क्योंकि उन का कहना था कि ऐसा अवसर भाग्यशाली लोगों को ही मिलता है, जिस के परिवार के किसी सदस्य का स्वामीजी स्वयं शुद्धिकरण करते हैं. महीप ने प्रसन्न हो कर सामर्थ्य से अधिक दान दे दिया.

3-4 बार आश्रम जाने के बाद कामिनी ने यह जान लिया था कि उसे स्वामीजी की विशेष अतिथि मान वहां खूब सत्कार होता है. पति की रुखाई और दुर्व्यवहार से आहत कामिनी अब वहां जाने के लिए मना नहीं करती थी. स्वामीजी अब उसे कुछ दिनों के लिए रोक लेते और महीप को वापस भेज देते. घर में कामिनी व स्वयं पर एक रुपया भी खर्च करना महीप को अखर जाता था, लेकिन आश्रम में दानदक्षिणा दे अपनी जेब ढीली करवा कर वह प्रसन्न था.

स्वामीजी ने जब से कामिनी की मार को प्रसाद समझ कर ग्रहण करने को कहा था, तब से महीप कामिनी की ओर आंख उठा कर देखने की हिम्मत भी नहीं जुटा पाता था. उस के बाद जब भी वह कामिनी के समीप गया तो कामिनी ने मुंह फेर लिया. महीप ने हाथ बढ़ा कर उस का मुंह अपनी ओर करना चाहा तो कामिनी ने हाथ झटक दिया. महीप लाचार सा चुपचाप सो गया.

कामिनी को अपने इस व्यवहार पर खुद से शिकायत थी, लेकिन यह अचानक तो हुआ नहीं था. स्वामी के चक्रव्यूह में महीप भी फंसा था और कामिनी को भी फंसा दिया था उस ने. यद्यपि आश्रम में कामिनी को एशोआराम की जिंदगी मयस्सर थी, लेकिन उसे यह चाहिए ही कब था? वह तो महीप की अर्धांगिनी बन कर पति से वह सब चाहती थी जो जीवन बगिया महका दे।

कोई रास्ता न सूझने पर कामिनी को उकताहट होने लगी. कुछ दिनों के लिए उस ने मायके जाने का कार्यक्रम बना लिया. मायके पहुंच कर भी अपनी पीड़ा मन में दबाए रही. 2 छोटे भाइयों के सामने एक खुशहाल दीदी बने रहना पड़ता और मातापिता के सम्मुख उन की समझदार, सहनशील बेटी. महीप को ले कर कुछ कहना शुरू भी करती तो उन से वही रटारटाया जवाब मिलता, “बेटियों को ससुराल में बहुत कुछ सहना पड़ता है, इस में कोई बड़ी बात नहीं है. बड़ी बात तब है जब रिश्ता टूट जाए, लड़की मायके वापस लौट आए और उस के मांबाप किसी को मुंह दिखाने के काबिल न रहें.”

पतिपत्नी एकदूसरे के पूरक बन कर रिश्तों को संभालें

उत्तर प्रदेश के पीलीभीत में 11 फरवरी को पत्नी से प्रताड़ित हो कर एक युवक ने एसपी औफिस के बाहर जहर खा कर जान दे दी. 2 महीने पहले ही उस की शादी हुई थी. प्रदीप नाम का वह व्यक्ति अपनी पत्नी की प्रताड़ना से परेशान था. पुलिस ने उस की शिकायत दर्ज नहीं की थी. इस के बाद वह एसपी आवास के बाहर पहुंचा और वहां उस ने जहर खा लिया.

मिर्जापुर में 8 फरवरी को पत्नी से परेशान हो कर एक व्यक्ति कलेक्ट्रेट में धरने पर बैठ गया. पीड़ित पति ने धरनास्थल पर बैनर लगाया जिस में उस ने पत्नियों से सावधान रहने के लिए लोगों से अपील की. उस का कहना था कि उस की सुनवाई नहीं हो रही है. उस ने अपनी पत्नी को गुजाराभत्ता देने की लिए एक बौक्स बनाया जिस में उस ने एक स्लिप चिपका रखी थी. उस में लिखा था- ‘पत्नी गुजाराभत्ता की भीख’. वह इस तरह प्रशासन को अपनी स्थिति से अवगत कराने का प्रयास कर रहा था.

ऐसा नहीं है कि पति ही प्रताड़ित होते हैं. अखबारों में पत्नियों पर हो रहे प्रताड़ना के समाचार भरे पड़े हैं. 30 जनवरी को एक पत्नी के साथ जबरदस्ती रेप के आरोप में पति को कोर्ट ने 20 साल की सजा सुनाई. बिहार के चंपारण में अपर जिला एवं सत्र न्यायाधीश ने आरोपी पति को दोषी मानते हुए 20 वर्ष कठोर कारावास की सजा सुनाई, साथ ही, 60 हजार रुपए जुर्माना भी लगाया.

राष्ट्रीय अपराध रिकौर्ड ब्यूरो के हालिया आंकड़े देखें तो पिछले साल 22,372 गृहिणियों ने आत्महत्या की थी. इस के अनुसार, हर दिन 61 और हर 25 मिनट में एक आत्महत्या हुई है. देश में 2020 में हुईं कुल 153,052 आत्महत्याओं में से गृहिणियों की संख्या 14.6 प्रतिशत है और आत्महत्या करने वाली महिलाओं की संख्या 50 प्रतिशत से ज्यादा है.

नेशनल फैमिली हैल्थ रिपोर्ट के अनुसार, हर 3 में से एक महिला घरेलू हिंसा की शिकार होती है. वर्ष 2022 में राष्ट्रीय महिला आयोग ने घरेलू हिंसा के 6,900 मामले दर्ज किए.

दरअसल यहां समस्या पति व पत्नी के बीच आपसी तालमेल और एकदूसरे को समझने की है. पुरुषों को बचपन से यह सिखाया जाता है कि पत्नी उस के अधीन रहेगी. उसे पत्नी और परिवार का खर्च उठाना है. वह मालिक होगा और पत्नी उस की गुलाम. पत्नी ही उस के सारे काम करेगी. वहीं लड़कियों को बचपन से ही यह घुट्टी पिलाई जाती है कि पति ही परमेश्वर है. हर हालत में पति की बात माननी होगी. घर, परिवार और बच्चों को संभालना होगा. खाना बनाना होगा. पति के सारे काम करने होंगे.

पुराणों में महिलाओं को यह भी सिखाया जाता है कि वे अपने पतियों को नाम से न बुलाएं. दरअसल स्कंद पुराण में लिखा है कि पतियों को नाम से बुलाने पर उन की उम्र घटने लगती है. इसलिए पतियों की लंबी आयु के लिए महिलाएं कभी भी उन्हें उन के नाम से संबोधित नहीं करतीं. पत्नी को पतिव्रता बनने के धर्म सिखाए जाते हैं.

स्कंद पुराण में यह भी लिखा है कि वही महिलाएं पतिव्रता स्त्री कहलाती हैं जो अपने पतियों के खाने के बाद ही भोजन करती हैं. जो महिलाएं अपने पतियों के सोने के बाद सोती हैं और सुबह पति के उठने से पहले उठ जाती हैं उन्हें ही पतिव्रता पत्नी का दर्जा दिया जाता है. यदि उन का पति किसी कारणवश उन से दूर रहता हो तो एक पतिव्रता स्त्री को कभी श्रृंगार नहीं करना चाहिए.

गरुण पुराण के 18 अध्याय के 108वें श्लोक में पत्नीधर्म का वर्णन नीचे लिखे श्लोक में दिया गया है:

सा भार्या या गृहे दक्षा सा भार्या या प्रियंवदा.
सा भार्या या पतिप्राणा सा भार्या या पतिव्रता.

मतलब, पत्नी वही है जो गृहकार्य में दक्ष हो, सब से प्रिय वचन बोले, बड़ों की इज्जत करे, पति को सर्वोपरि का दर्जा दे और पत्नी के जीवन में पति के अतिरिक्त कोई पुरुष न हो.

ऐसेहु पति कर किए अपमाना. नारि पाव जमपुर दुख नाना॥
एकइ धर्म एक ब्रत नेमा. कायं बचन मन पति पद प्रेमा॥5॥

भावार्थ: ऐसे भी पति का अपमान करने से स्त्री यमपुर में भांतिभांति के दुख पाती है. शरीर, वचन और मन से पति के चरणों में प्रेम करना स्त्री के लिए, बस यह एक ही, धर्म है, एक ही व्रत है और एक ही नियम है.

इस तरह की मान्यताएं और मिलने वाली सीखें ही दांपत्य जीवन में जहर घोलती हैं. क्योंकि इस से एकदूसरे से अपेक्षाएं बढ़ जाती हैं. जिम्मेदारियों का बोझ भी बढ़ जाता है. जिसे उठाना पतिपत्नी दोनों के लिए ही आसान नहीं. वे एकदूसरे को गलत समझने लगते हैं. खुद को पीड़ित मान बैठते हैं. लड़की पढ़ीलिखी या पैसे वाले घर की हो तो उस का ईगो भी हर्ट होने लगता है. वह खुद को गुलाम समझने से इनकार करती है. यहीं से ईगो का क्लैश शुरू हो जाता है.

हाल ही में रिलीज हुई शिल्पा शेट्टी की फिल्म ‘सुखी’ एक हाउसवाइफ की जिंदगी के स्ट्रगल्स को दिखाती है. वह केवल एक दिन के लिए अपने दोस्तों से मिलने दिल्ली जाना चाहती है मगर उस के पति और बेटी ने उस को साफ मना कर दिया कि फिर घर कौन संभालेगा? मतलब, एक औरत घर संभालने और दूसरों को सुविधाएं देने के लिए ही बनी है, अपनी ख़ुशी के लिए उसे एक दिन भी नहीं मिल सकता. शिल्पा पति के मना करने के बावजूद चली जाती है और अपने दोस्तों के साथ मिल कर जिंदगी जीने का नया नजरिया ढूंढ़ती है. अपनी सभी पुरानी समस्याओं को भूल कर वह आगे बढ़ती है और अपनी जिंदगी को नए सिरे से जीने की कोशिश करती है. इस फिल्म में दिखाया जाता है कि एक कौमन हाउसवाइफ भी अनकौमन हो सकती है.

इसी तरह वर्ष 2000 में रिलीज हुई फिल्म ‘अस्तित्व’ भी महिलाओं की स्थिति दिखाती है. भारत के पितृसत्तात्मक समाज को दिखाने वाली यह फिल्म एक्सट्रामैरिटल अफेयर, पति का एब्यूज और एक महिला के अपनी पहचान को खोजने की कहानी है. आखिर में वह महिला अपने पति और बेटे को छोड़ कर चली जाती है और उस की होने वाली बहू उस का साथ देती है जो खुद अपने बौयफ्रैंड को छोड़ देती है.

वहीं, ‘पद्मावत’ जैसी फिल्में भी हैं. संजय लीला भंसाली की फिल्म ‘पद्मावत’ में रानी पद्मावती का जौहर बेहद भव्य तरीके से दिखाया गया है. रानियों और राज्य की सभी महिलाओं ने खुद को क्रूर शासक अलाउद्दीन खिलजी और उस की सेना से बचाने के लिए आग में कूद कर अपनी जान दे दी. फिल्म में जौहर को जितनी भव्यता से दिखाया गया है और उस का महिमामंडन किया गया उसे आज के समाज में स्वीकारना संभव नहीं. पुराने समय में जौहर के साथ सतीप्रथा भी काफी प्रचलित थी.

वह ऐसा समय था जब भारतीय समाज में पति की मृत्यु के बाद पत्नी को अपनी पवित्रता और प्रेम साबित करने के लिए पति की चिता के साथ ही जिंदा जला दिया जाता था. कई स्त्रियां इसे प्रेम से करती थीं लेकिन कई स्त्रियों को सिर्फ प्रथा के नाम पर आग में जिंदा जलने के लिए झोंक दिया जाता था. उन की चीखें, दर्द सबकुछ इस प्रथा की आड़ में छिप जाते थे.

आज की स्त्री पढ़ीलिखी है. वह भी अपना वजूद साबित करना चाहती है और इस में कुछ बुराई नहीं है. हम अपने बच्चों को अगर यह सिखाना शुरू करें कि शादी के बाद अपने रिश्तों को कैसे संभालना है और एकदूसरे का ख़याल रखते हुए शादी कैसे मैनेज करना है तो यह बेहतर होगा.

हमें समझना होगा कि पतिपत्नी एक ही गाड़ी के 2 पहिए हैं. दोनों में कोई अगर अपना काम करना बंद कर दे तो जिंदगी की गाड़ी पटरी से उतर जाती है. इसलिए एकदूसरे को सपोर्ट देने से ही दांपत्य जीवन सही से चल पता है. कार के गियर की तरह उन्हें एकदूसरे के साथ मैनेज करना होगा. गियर के दांत एक अक्ष पर गियर के दांतों के साथ दूसरे अक्ष पर जाल बनाते हैं और इस प्रकार दोनों अक्षों के घूमने के बीच एक संबंध बनता है. जब एक धुरी घूमती है तो दूसरी भी घूमती है. गियर को अलगअलग पैटर्न में व्यवस्थित किया जाता है. वैसे ही, पतिपत्नी आपसी रिश्तों में एकदूसरे के पूरक बन कर आगे बढ़ें.

मुझे जुड़वां बच्चे होने वाले हैं, क्या मैं एक बच्चा अपनी बहन को गोद दे दूं ?

सवाल

मैं 36 वर्षीय पुरुष हूं. मेरा 3 बार तलाक हो चुका है. पत्नी से एक भी बच्चा नहीं है. अब मैं शादी करना नहीं चाहता. इसीलिए मैं ने सरोगेसी से बच्चे करने के बारे में सोचा और ऐसा किया. पहले मेरे परिवार की तरफ से भी इस फैसले को ले कर कोई परेशानी नहीं थी, परंतु अब हुआ यों कि डाक्टर ने बताया कि सरोगेसी से मेरे एक नहीं, बल्कि 2 यानी जुड़वां बच्चे होने वाले हैं. इस पर मेरी बहन ने आपत्ति जताते हुए यह कहा कि मुझे दोनों में से एक बच्चा किसी को गोद दे देना चाहिए, जबकि मुझे और मेरे मातापिता को लगता है कि दोनों बच्चों की जिम्मेदारी और लालनपालन में कोई कमी नहीं होगी. मेरी बहन को लगता है यह असंभव है. मैं दुविधा में हूं कि क्या मुझे एक बच्चे को गोद दे देना चाहिए?

जवाब

आप ने जब सरोगेसी का फैसला लिया तो क्या आप ने दीनदुनिया के विचारों पर आश्रित हो कर यह फैसला लिया था? आप और आप के मातापिता को यदि लगता है कि आप 2 बच्चों की जिम्मेदारी उठाने में सक्षम हैं तो आप को अपनी बहन का कहा नहीं सुनना चाहिए. आप खुद सोच कर देखिए, किसी भी पिता के लिए अपने बच्चे को गोद देना कोई आसान काम नहीं है. बच्चे एक हों या 2, आप के लिए तो दोनों ही समान हैं.

वैसे भी बच्चा गोद देना या लेना कोई बाएं हाथ का खेल नहीं है. फिर भी आप ऐसा सोचेंगे तो जरूरी  नहीं कि कोई गोद लेने लायक परिवार मिल ही जाए. देखा जाए तो यह तो अच्छी बात है कि आप के एक की जगह 2 बच्चे हो रहे हैं. दोनों को एकदूसरे का साथ मिल जाएगा. वे आप को परेशान भी नहीं किया करेंगे. और आप की गैरमौजूदगी में भी वे अकेलापन महसूस नहीं करेंगे.

पैंसठ की उम्र में भी क्या मां बनना संभव है, जानें एक्सपर्ट से

एक विवाहित युगल के लिए मां-बाप बनना उनके जीवन का सबसे सुखद क्षण होता है, लेकिन कभी-कभी तमाम प्रयासों के बावजूद शादीशुदा जोड़े अपने घर के आंगन में बच्चों की किलकारियां सुनने से महरूम रह जाते हैं. ऐसे दम्पत्तियों के लिए आईवीएफ सेंटर्स एक वरदान साबित हो रहे हैं. आईवीएफ उपचार के चमत्कारी परिणाम देखे जा रहे हैं. ‘पैंसठ साल की आयु में भी मां बनने का सुख उठाने वाली उस महिला की खुशी का अंदाजा आप नहीं लगा सकते, जिसने पूरी जवानी एक बच्चे की आस में गुजार दी. दुनिया भर के ट्रीटमेंट कर डाले, मगर उनके आंगन में खुशी का फूल खिला तो आईवीएफ उपचार के बाद…’. ऐसा कहना है दिल्ली के नारायणा विहार स्थित ‘द नर्चर आईवीएफ क्लिनिक’ की निदेशक डा. अर्चना धवन बजाज का.

ब्रिटेन की यूनिवर्सिटी औफ नौटिंघम से रिप्रोडक्टिव टेक्नोलौजी में मास्टर्स डिग्री प्राप्त करने वाली डा. अर्चना धवन बजाज एक स्त्रीरोग विशेषज्ञ, एक परामर्शदाता, प्रसूति विशेषज्ञ और फर्टिलिटी और आईवीएफ के क्षेत्र में एक प्रतिष्ठित नाम बन चुका है. आज ‘द नर्चर आईवीएफ क्लिनिक’ में भारतीय दम्पत्ति ही नहीं, बल्कि विदेशी दम्पत्ति भी बच्चे की उम्मीद लेकर आते हैं, और अपने साथ खुशियों की सौगात लेकर जाते हैं.

आईवीएफ के प्रति आज भी लोगों में कई तरह की भ्रांतियां व्याप्त हैं. इससे जुड़े अलग-अलग प्रकार के ट्रीटमेंट से भी लोग वाकिफ नहीं हैं. इसके साथ ही आजकल गली-मोहल्लों में तेजी से खुल रहे आईवीएफ सेंटर्स में ठगे जाने के बाद कई दम्पत्ति निराश हो जाते हैं. आईवीएफ और उससे जुड़ी तकनीकी बातों पर डा. अर्चना धवन बजाज ने दिल्ली प्रेस की एसोसिएट एडिटर नसीम अंसारी कोचर से विस्तृत बातचीत की और आईवीएफ के बारे में विस्तृत जानकारी दी.

आईवीएफ क्या है?

आईवीएफ मतलब इन विट्रो फर्टिलाइजेशन अर्थात जो काम शरीर के अन्दर नहीं हो पा रहा है, उसको लैब में टेस्ट्यूब में सम्पन्न कराया जाता है और इस तरह एक महिला को मां बनने का सुख हासिल होता है. आमभाषा में इसको टेस्ट्यूब बेबी कहते हैं. महिलाएं कई कारणों से मां नहीं बन पाती हैं, जैसे उनकी फेलोपियन ट्यूब बंद हो या यूटेसर सम्बन्धी कोई रोग हो, या अनियमित मासिक हो अथवा कोई अन्य वजह हो, तो ऐसी महिला को हारमोंस के इंजेक्शन देकर हम उसके गर्भाशय में अंडे बनने की प्रक्रिया को तेज करते हैं. तैयार अंडों को ओवरी से बाहर निकाल कर लैबोरेटरी में उसके पति के स्पर्म के साथ फर्टीलाइज कराके एम्ब्रियो तैयार किया जाता है और तीन या पांच दिन के एम्ब्रियो को महिला की बच्चेदानी में डाल दिया जाता है. जब गर्भाशय की दीवार से एम्ब्रियो एटैच होकर मल्टीप्लाई करने लगता है तब कहते हैं कि महिला को गर्भ ठहर गया है. हम एक बार में ही दो या तीन एम्ब्रियो गर्भाशय में डालते हैं, ताकि गर्भ धारण में आसानी हो, लेकिन महिला की उम्र यदि ज्यादा है, अथवा अंडो की क्वालिटी बहुत अच्छी नहीं है, अथवा वह पहले भी आईवीएफ करवा चुकी है और वह फेल हो चुका है तो हम पांच या छह एम्ब्रियो भी डालते हैं ताकि गर्भधारण की सम्भावना बढ़ जाए.

आईवीएफ ट्रीटमेंट में कितना वक्त लगता है?

एक आईवीएफ साइकल को पूरा होने में बीस से पच्चीस दिन लगते हैं. ये निर्भर करता है महिला के अंडो की क्वालिटी पर भी. यदि क्वालिटी अच्छी नहीं है तो हम क्वालिटी इम्प्रूव करने के लिए कुछ दवाएं देते हैं. ऐसे में कुछ अधिक समय लग सकता है.

आईवीएफ द्वारा गर्भधारण करने के उपरान्त डिलीवरी नौरमल होती है अथवा सिजेरियन से बच्चा पैदा होता है. 

इस बारे में कोई हार्ड एंड फास्ट रूल नहीं है. यह पेट के अन्दर बच्चे की कंडीशन पर निर्भर करता है. यदि बच्चे की पोजिशन गर्भाशय में बिल्कुल ठीक है, ब्लड सप्लाई ठीक है, बच्चे के आसपास द्रव्य बेहतर है, तो नौरमल डिलीवरी भी होती है. लेकिन यदि किसी तरह की दिक्कत है, बच्चा आड़ा है, उसका वजन ज्यादा है, या जुड़वां बच्चे हैं तो आमतौर पर महिलाएं किसी तरह का रिस्क नहीं लेना चाहती हैं, इसलिए सिजेरियन कराना ही पसन्द करती हैं. आईवीएफ के जरिये बच्चा पाना किसी भी दम्पत्ति के लिए फाइनेंशियल और इमोशनल मैटर होता है, इसलिए वह बच्चे के जन्म के वक्त किसी तरह की परेशानी नहीं चाहते हैं. वे चाहते हैं कि उनका बच्चा बिल्कुल सेफ रहे, अत: ज्यादातर दम्पत्ति सिजेरियन द्वारा ही बच्चे को जन्म देने के इच्छुक होते हैं.

आईवीएफ से पहला बच्चा पाने वाली महिला को क्या भविष्य में नौरमल प्रेग्नेंसी भी ठहर सकती है? 

हां बिल्कुल हो सकती है. दरअसल आईवीएफ ट्रीटमेंट के दौरान महिला को जो दवाएं मिलती हैं, उससे गर्भाशय में अंडों की क्वालिटी अच्छी हो जाती है. इसलिए ऐसा हो सकता है कि बाद में वह नॉरमल तरीके से भी गर्भ धारण कर ले. ऐसे बहुत से उदाहरण मेरे सामने आये हैं.  कभी-कभी ये पता नहीं चलता कि गर्भधारण क्यों नहीं हो रहा है. ऐसी स्थिति में अगर पहला बच्चा आईवीएफ से हुआ है तो बहुत सम्भव है कि दूसरी बार महिला नौरमल तरीके से ही गर्भ धारण कर ले.

अगर एक बार में गर्भाशय में दो से चार एम्ब्रियो डाले जाते हैं तो क्या जुड़वा या इससे ज्यादा बच्चे होने की सम्भावना नहीं होती?

जी हां, बिल्कुल होती है. दो या कई बार तीन बच्चे भी हो जाते हैं. कई कपल्स तो इस बात से बहुत खुश होते हैं कि उनका परिवार एक ही बार के एफर्ट में पूरा हो गया. मगर कई बार आर्थिक रूप से कमजोर दम्पत्ति दो या तीन बच्चे होने पर उतनी खुशी व्यक्त नहीं कर पाते. इसके अलावा एक परेशानी बच्चे की सेहत को लेकर भी होती है. यदि तीन बच्चे मां के गर्भ में हैं तो आमतौर पर उनका वजन कम होता है. कभी-कभी डिलिवरी वक्त से पहले हो जाती है. ऐसे में जन्म के उपरान्त बच्चों को लम्बे समय तक इंटेंसिव केयर यूनिट में रखना पड़ता है, जिसके कारण दम्पत्ति पर अतिरिक्त आर्थिक बोझ पड़ता है.

कम से कम और अधिक से अधिक कितनी उम्र की महिलाएं आईवीएफ के लिए आपके पास आती हैं? 

अधिक से अधिक मैंने पैंसठ साल की महिला का आईवीएफ किया है. वह बच्चा पाकर बहुत खुश हुई थीं. मगर इस उम्र में आईवीएफ कराने की राय मैं नहीं देती हूं. क्योंकि जब आप पच्हत्तर साल के होंगे, तब आपका बच्चा सिर्फ दस साल का होगा. ऐसे में उसकी देखभाल, शिक्षा और अन्य जिम्मेदारी आप किसके कंधे पर डाल कर जाएंगे? फिर साठ या पैंसठ साल की उम्र में महिलाओं का शरीर काफी कमजोर हो चुका होता है. अंडों की क्वालिटी भी अच्छी नहीं रहती. ऐसे में होने वाले बच्चे में भी स्वास्थ्य सम्बन्धी परेशानियां पैदा हो सकती हैं. वह मानसिक रूप से कमजोर हो सकता है. इसलिए मेरा मानना है कि अगर शादी के सात से दस साल के अन्दर आप मां नहीं बन पायी हैं तो पैंतीस से पैंतालीस साल के बीच आपको आईवीएफ करवा लेना चाहिए. इस उम्र में महिला शारीरिक रूप से भी तंदरुस्त होती है और मानसिक रूप से भी. वहीं कम उम्र में आईवीएफ उसी हालत में कराना चाहिए जब गर्भाशय सम्बन्धित कोई सीरियस प्रौब्लम महिला को हो, या उसकी फेलोपियन ट्यूब ही पूरी तरह से बंद हो. ऐसे में आईवीएफ ही गर्भधारण का एक रास्ता बचता है.

आईवीएफ ट्रीटमेंट के दौरान पेशंट को काफी इंजेक्शन्स लगते हैं. इसके क्या साइड इफेक्ट होते हैं और यह कितने वक्त तक बने रहते हैं?

किसी भी तरह के रसायन का प्रयोग शरीर पर होता है तो कुछ साइड इफेक्ट तो होते ही हैं. आईवीएफ ट्रीटमेंट के बाद भी ऐसा होता है. मगर यह कोई गम्भीर समस्या नहीं है. आमतौर पर औरतों का वजन बढ़ना, बे्रस्ट का साइज बढ़ना, चिड़चिड़ाहट, थकान, एक्ने या पति के साथ शारीरिक सम्बन्ध बनाने में दिलचस्पी न होना जैसी समस्याएं होती हैं, मगर यह थोड़े वक्त का ही असर है. कभी-कभी ऐसा होता है कि गर्भाशय में बहुत ज्यादा अंडे बनने से पेट में पानी भर जाता है. इस तरह का साइड इफेक्ट खत्म होने में थोड़ा वक्त लगता है और इसका ट्रीटमेंट करना पड़ता है. आजकल हॉरमोंस के लिए जो इंजेक्शन यूज हो रहे हैं, वह नेचुरल बॉडी हॉरमोंस से बहुत ज्यादा मिलते-जुलते हैं, जिससे साइड इफेक्ट की समस्या अब काफी कम हो गयी है.

आईवीएफ ट्रीटमेंट अभी भी आम जनता के लिए काफी मंहगा है, जिसके चलते कई दम्पत्ति माता-पिता बनने की खुशी से वंचित रह जाते हैं. क्या आपके ‘द नर्चर आईवीएफ क्लिनिक’ में आर्थिक रूप से कमजोर दम्पत्तियों के लिए कुछ विशेष छूट है?

हमारे सेंटर की पौलिसी है कि हम ‘नो प्रोफिट-नो लौस’ के सिद्धान्त पर चलते हैं. कई फार्मास्यूटिकल कम्पनियां हमारे उद्देश्यों को पूरा करने में हमारी मदद भी करती हैं. हम आर्म्ड फोर्सेस, पैरा मिलिटरी फोर्सेस या एलाइड सर्विस के लोगों को काफी छूट देते हैं. जो पेशंट आर्थिक रूप से कमजोर हैं हमारी कोशिश होती है कि कम से कम खर्च में हम उनको मां-बाप बनने की खुशी दे सकें.

आईवीएफ की सफलता की दर कितनी है?

आईवीएफ की सक्सेस रेट पर अलग-अलग डौक्टर्स की राय अलग-अलग है. मैं मानती हूं कि आईवीएफ चालीस प्रतिशत तक सफल रहता है. साठ फीसदी महिलाओं को पहली बार में गर्भ नहीं ठहरता है और उन्हें दो या तीन बार इस प्रौसेस से गुजरना पड़ता है. इसके कई कारण है. इसमें अगर महिला की उम्र बहुत ज्यादा है, उसका वजन बहुत ज्यादा है, गर्भाशय में प्रौब्लम है, अंडों की क्वालिटी खराब है, मेंटल स्थिति कमजोर है या वह कई बार आईवीएफ ट्रीटमेंट से गुजर चुकी है तो पहली बार में आईवीएफ सफल होना मुश्किल होता है.

जिस तरह से देश में आईवीएफ सेंटर्स गली-मोहल्लों में खुल रहे हैं, उनकी विश्वसनीयता कितनी है?

किसी भी चीज की सफलता निर्भर करती है कि आप कितना डिलिवर कर रहे हैं. आपका आउटपुट कितना है. अगर छोटे आईवीएफ सेंटर में भी अत्याधुनिक मशीनों पर काम हो रहा है तो उसकी सफलता निश्चित है. देखना पड़ता है कि वहां डॉक्टर कितना समझदार है, उसकी क्वालिफिकेशन क्या है, उसकी सफलताएं क्या हैं, वह अपने पेशंट्स के प्रति कितना डेडिकेटेड है, उसकी लैब कैसी है, एम्ब्रियोलोजिस्ट कैसा है. एक छोटी सी जगह में भी एक अच्छी साफ-सुथरी, अत्याधुनिक यंत्रों से सुसज्जित लैब रख कर हम वही  रिजल्ट प्राप्त कर सकते हैं जैसे बड़े क्लीनिक में मिलते हैं. मेरा कहने का आशय है कि जगह महत्वपूर्ण नहीं है, सुविधाएं महत्वपूर्ण हैं. जिनकी छानबीन कर लेनी चाहिए.

संक्षिप्त परिचय

‘द नर्चर आईवीएफ क्लिनिक’ की निदेशक डा. अर्चना धवन बजाज डा. अर्चना धवन बजाज बांझपन उपचार और आईवीएफ के क्षेत्र में एक जाना-माना नाम हैं. चिकित्सा के क्षेत्र में एमबीबीएस, डीजीओ, डीएनबी और एमएनएएस की डिग्रियां हासिल करने के बाद उन्होंने यूके स्थित नाटिंघम विश्वविद्यालय से मेडिकल रिप्रोडक्टिव टेक्नोलौजी में मास्टर्स डिग्री प्राप्त की है. वे हैचिंग, वीर्य भू्रण के संरक्षण, ओवरियन कौर्टिकल पैच, क्लीवेज स्टेज भ्रूण पर ब्लास्टमोर बायोप्सी और ब्लास्टक्रिस्ट की अग्रणी विशेषज्ञ हैं. दिल्ली में नर्चर आईवी क्लिनिक की निदेशक के तौर पर काम करते हुए डा. बजाज ने स्त्रीरोग विशेषज्ञ, एक परामर्शदाता, प्रसूति विशेषज्ञ और फर्टिलिटी एंड आईवीएफ विशेषज्ञ के तौर पर विशेष ख्याति पायी हैं.

करियर और लव लाइफ को बैलेंस करने में हो रही है परेशानी, तो अपनाएं ये 5 टिप्स

Tips to Balance Career and Love : अपने पार्टनर के साथ एक मजबूत और सुखी रिश्ता बनाना साथ ही अपने करियर को भी महत्व देना काफी मुश्किल होता है. खासतौर पर जब आप दोनों ही कामकाजी हैं. व्यस्त दिनचर्या,  बड़े लक्ष्य, अनगिनत प्रोजेक्ट्स और बहुत कुछ इन सभी के कारण आपका सम्बंध प्रभावित होने लगता है जिसके कारण आपके रिश्ते में तनाव बन सकता है. जब आप अपने करियर को काफी अहमियत देते हैं तो एक स्वस्थ रिश्ते को बनाएं रखने के लिए आपको अलग से प्रयास करने होते हैं. पूरे दिन काम करने के बाद अपने साथी के साथ आराम करने और बात करने के लिए समय निकालना भी जरुरी है. अगर आप भी अपने कैरियर और प्यार के बीच संतुलन बनाना चाहते हैं तो ये टिप्स काम आ सकते हैं.

  1. छोटी-छोटी चीजें एक साथ करें

ऐसा जरुरी नहीं है कि आप अपने साथी के साथ समय बिताने के लिए लंच प्लान करें या फिल्म देखने ही जाएं. आप अपने साथी के साथ अपना सारा समय व्यतीत नहीं कर पा रहे हैं तो इसका मतलब ये नहीं है कि आप जिस समय में उनके साथ है वो बिल्कुल परियों की कहानी जैसा हो. छोटी चीजें भी आपको खुशी दे सकती है. जब आपके पास ऑफिस के ढेर सारे काम होंगे तो आप कुछ विशेष योजना बना पाएं ये थोड़ा मुश्किल है. इसलिए जरुरी है कि जब भी आप साथ में हैं तो हर मिनट को महसूस करें. एक साथ भोजन करें, घर की सफाई करते वक्त या खाना बनाते वक्त आप एक-दूसरे को समय दें. ये छोटी चीजें आपको बेफिजूल लग सकती हैं लेकिन जब आपके पास समय कम हो तो है तो यह अपने साथी से जुड़ने का यह अच्छा तरीका है.

  1. बिना शर्त के सपोर्ट करें

अपने ऑफिस में पूरे दिन काम करने के बाद अपने पति या पत्नी के करियर में रुचि दिखाना मुश्किल हो सकता है लेकिन यह जरुरी है कि आप अपने साथी के करियर से संबंधित बातचीत करें. इस बातचीत के जरिए आप उन्हें बता पाएंगे कि आप उनके काम और करियर को सपोर्ट करते हैं. उन्हें बताएं कि आप उनके लिए हमेशा मौजूद हैं और बिना शर्त उनके काम को अपना समर्थन देते हैं. अगर आप ऐसा नहीं करते हैं तो आपके साथी के मन में असंतोष की स्थिति पैदा हो सकती है. जिससे आपके रिश्ते और करियर के बीच संतुलन बनाना मुश्किल हो जाएगा.

  1. हद से ज्यादा उम्मीदें ना करें

जब आप दोनों कामकाजी है तो आप समझ सकते हैं कि ऑफिस के बाद सम्बंध को संभालना कितना मुश्किल है. इसलिए जरुरी है कि आप अपने साथी से अधिक उम्मीदें ना बांधे क्योंकि समय के अभाव में अगर वो पूरा नहीं कर पाएंगे तो आपको बुरा लगेगा और आपका दिल टूट जाएगा. आपके लिए बेहतर होगा ऐसा सोचना बंद करें कि आपका साथी आपके लिए कोई डेट, होलीडे या पार्टी प्लान करें. अगर वो ऐसा नहीं करेगा तो आपको दुख और निराशा होगी. ये सब मैनेज करने के लिए आपके साथी को समय की जरुरत होगी और वो उनके पास नहीं है. ऐसा नहीं है कि आप उम्मीदें ही ना करें. सोचने की बजाय उनसे बात कर लें कि आप क्या चाहते हैं.

  1. कोई भी फैसला लेने से पहले साथी को बताएं

अगर आप कोई भी फैसला लेते हैं तो इसके लिए दो स्टेप जरुरी है. पहला आप इसके बारे में सोचे और फिर अपने साथी से बात करें. अब आप जीवन में स्वतंत्र रूप फैसले नहीं ले सकते हैं चाहे फिर आप कितने भी बुद्धिमान क्यों ना हों. आपका हर एक व्यक्तिगत फैसला आपके साथी पर भी असर डालेगा. आपको जानने की जरुरत है कि आपका कोई भी फैसले के बारे में आपका पार्टनर क्या सोचता है. जैसे आप जॉब छोड़ने या बदलने की सोच रहे हैं तो इसके बारे में अपने साथी से बात कर लें. हो सकता ऐसे में आपको शहर बदलना पड़े या नई जगह जाना पड़े तो इसका प्रभाव आपके साथी पर भी होगा.

5. जिम्मेदारियां बांट लें

एक रिश्ते में सामंजस्य बिठाना बहुत जरुरी है. अगर आपको रिश्ते में समझौते करने पड़ रहे हैं तो ध्यान रखें कि मिलकर समझौते करें. काम के साथ अपने रिश्ते की जिम्मेदारियों को समझें. खासकर तब जब आप शादीशुदा हैं, एक साथ रहते हैं, आपके बच्चे हैं. ऑफिस जाने के साथ खाना पकाना, बच्चों को स्कूल ले जाना लेकर आना, घर के कामकाज आदि जिम्मेदारियां एक ही व्यक्ति पर ना डालें. आपके रिश्ते में कोई भी एक व्यक्ति सभी समझौते करने के लिए तैयार नहीं होगा. इसलिए सही ढंग से फैसला लें. अधिक कुशलता से काम करें और सबसे महत्वपूर्ण हैं कि हमेशा एक साथ काम करें.

एक साथी की तलाश : आखिर मधुप और बिरुवा का रिश्ता था क्या ? – भाग 5

‘‘आप…’’ वह प्रत्यक्ष बोली.

‘‘हां श्यामला, मैं… इतने वर्षों बाद,’’ उसे देख कर वे एकाएक कातर हो गए थे, ‘‘तुम्हें लेने आया हूं,’’ वे बिना किसी भूमिका के बोले, ‘‘वापस चलो, मुझ से जो गलती हुई है उस के लिए मुझे क्षमा कर दो. मैं समझ नहीं पाया तुम्हें, तुम्हारी परेशानियों को, तुम्हारे अंतर्द्वंद्व को.’’

श्यामला अपलक उन्हें निहारती रह गई. शब्द मानो चुक गए थे. बहुतकुछ कहना चाहती थी. पर समझ नहीं पा रही थी कि कहां से शुरू करे. किसी तरह खुद को संयत किया. थोड़ी देर बाद बोली, ‘‘इतने वर्षों बाद गलती महसूस हुई आप को जब खुद को जरूरत हुई पत्नी की. लेकिन जब तक पत्नी को जरूरत थी? आखिर मैं सही थी न, कि आप ने हमेशा खुद से प्यार किया. लेकिन मेरे अंदर अब आप के लिए कुछ नहीं बचा, अब मेरे दिल को किसी साथी की तलाश नहीं है.

‘‘जिन भावनाओं को, जिन संवेदनाओं को जीने की इतनी जद्दोजेहद थी मेरे अंदर, वह सब तो कब की मर चुकी है. फिर अब क्यों आऊं आप के बाकी के जीवन जीने का साधन बन कर? मुझे अब आप की जरूरत नहीं है. मैं अब नहीं आऊंगी.’’

‘‘नहीं श्यामला,’’ मधुप ने आगे बढ़ कर श्यामला की दोनों हथेलियां अपने हाथों में थाम लीं, ‘‘ऐसा मत कहो, साथी की तलाश कभी खत्म नहीं होती. हर उम्र, हर मोड़ पर साथी के लिए तनमन तरसता है, पशुपक्षी भी अपने लिए साथी ढूंढ़ते हैं. यही प्रकृति का नियम है. मुझ से गलती हुई है. इस के लिए मैं तुम से तहेदिल से क्षमा मांग रहा हूं. इस बार तुम नहीं, मैं आऊंगा तुम्हारे पास. इस बार तुम मेरे सांचे में नहीं, बल्कि मैं तुम्हारे सांचे में ढलूंगा, संवेदनाएं और भावनाएं कभी मरती नहीं हैं श्यामला, बल्कि हमारी गलतियों व उपेक्षाओं से सुप्तावस्था में चली जाती हैं, उन्हें तो बस जगाने की जरूरत है. अपने हृदय से पूछो, क्या तुम सचमुच मेरा साथ नहीं चाहतीं, सचमुच चाहती हो कि मैं चला जाऊं…’’

श्यामला चुपचाप डबडबाई आंखों से उन्हें देखती रह गई. कितने बदल गए थे मधुप. समय ने, अकेलेपन ने उन्हें उन की गलतियों का एहसास करा दिया था. पतिपत्नी में से अगर एक अपनी मरजी से जीता है तो दूसरा दूसरे की मरजी से मरता है.

‘‘बोलो श्यामला,’’ मधुप ने श्यामला को कंधों से पकड़ कर धीरे से हिलाया, ‘‘मैं अब तुम्हारे पास आ गया हूं और अब लौट कर नहीं जाऊंगा,’’ मधुप पूरे विश्वास व अधिकार से बोले.

लेकिन श्यामला ने धीरे से उन के हाथ कंधों से अलग कर दिए. ‘‘अब मुझ से न आया जाएगा मधुप. मेरे जीवन की धारा अब एक अलग मोड़ मुड़ चुकी है, कितनी बार जीवन में टूटूं, बिखरूं और फिर जुड़ूं, मुझ में अब ताकत नहीं बची. मैं ने अपने जीवन को एक अलग सांचे

में ढाल लिया है जिस में अब आप के लिए कोई जगह नहीं. मैं अब नहीं आ पाऊंगी. मुझे माफ कर दो,’’ कह कर श्यामला दूसरे कमरे में चली गई. स्पष्ट संकेत था उन के लिए कि वे अब जा सकते हैं. मधुप भौचक्के खड़े, पलभर में हुए अपनी उम्मीदों के टुकड़ों को बिखरते महसूस करते रहे. फिर अपना बैग उठा कर बाहर निकल गए वापस जाने के लिए. बेटे के आने का भी इंतजार नहीं किया उन्होंने.

जयपुर से वापसी का सफर बेहद बोझिल था. सबकुछ तो उन्होंने पहले ही खो दिया था. एक उम्मीद बची थी, आज वे उसे भी खो कर आ गए थे. घर पहुंचे तो उन्हें अकेले व हताश देख कर बिरुवा सबकुछ समझ गया. कुछ न पूछा. चुपचाप से हाथ से बैग ले कर अंदर रख आया और किचन में चाय बनाने चला गया.

उधर श्यामला खिड़की के परदे के पीछे से थके कदमों से जाते मधुप को  देखती रही थी, जब तक वे आंखों से ओझल नहीं हो गए थे. दिल कर रहा था दौड़ कर मधुप को रोक ले लेकिन कदम न बढ़ पा रहे थे. जो गुजर चुका था, वह सबकुछ याद आ रहा था.

मधुप चले गए, लेकिन श्यामला के दिल का नासूर फिर से बहने लगा. रात देर तक बिस्तर पर करवट बदलते हुए सोचती रही कि जिंदगी मधुप के साथ अगर बोझिलभरी थी तो उन के बिना भी क्या है. क्या एक दिन भी ऐसा गुजरा जब उस ने मधुप को याद न किया हो. उस के मधुप से अलग होने के निर्णय का दर्द बच्चों ने भी भुगता था. बच्चों ने भी तब कितना चाहा था कि वे दोनों साथ रहें. अपने विवाह के बाद ही बच्चे चुप हुए थे. पर पता नहीं कैसी जिद भर गई थी उस के खुद के अंदर. और मधुप ने भी कभी आगे बढ़ कर अपनी गलती मानने की कोशिश नहीं की. उन दोनों का सारा जीवन यों वीरान सा गुजर गया. जो मधुप आज महसूस कर रहे हैं, काश, यही बात तब समझ पाते तो उन की जिंदगी की कहानी कुछ और ही होती.

लेकिन अब जो तार टूट चुके हैं, क्या फिर से जुड़ सकते हैं और जुड़ कर क्या उतने मजबूत हो सकते हैं. एक कोशिश मधुप ने की, एक कदम उन्होंने बढ़ाया तो क्या एक कोशिश उसे भी करनी चाहिए, एक कदम उसे भी बढ़ाना चाहिए. कहीं आज निर्णय लेने में उस से कोई गलती तो नहीं हो गई. इसी ऊहापोह में करवटें बदलते सुबह हो गई.

पूरी रात वह सोचती रही थी, फिर अनायास ही अपना बैग तैयार करने लगी. उस को तैयारी करते देख बेटेबहू आश्चर्यचकित थे पर उन्होंने कुछ न पूछना ही उचित समझा. मन ही मन सब समझ रहे थे. खुशी का अनुभव कर रहे थे. श्यामला जब जाने को हुई तो बेटे ने साथ में जाने की पेशकश की. पर श्यामला ने मना कर दिया.

उधर, उस दिन जब दोपहर को सोए हुए मधुप की शाम को नींद खुली तो वह शाम और दूसरी शाम की तरह ही थी, पर पता नहीं मधुप आज अपने अंदर हलकी सी तरंग क्यों महसूस कर रहे थे. तभी बिरुवा चाय बना कर ले आया. उन्होंने चाय का पहला घूंट भरा ही था कि डोरबेल बज उठी.

‘‘देखना बिरुवा, कौन आया है?’’

‘‘अखबार वाला होगा, पैसे लेने आया होगा. शाम को वही आता है,’’ कह कर बिरुवा बाहर चला गया. लेकिन पलभर में ही खुशी से उमंगता हाथ में बैग उठाए अंदर आ गया. मधुप आश्चर्य से उसे देखने लगे, ‘‘कौन है बिरुवा, कौन आया है और यह बैग किस का है?’’

‘‘बाहर जा कर देखिए साहब, समझ लीजिए पूरे संसार की खुशियां चल कर आ गई हैं आज दरवाजे पर,’’ कह कर बिरुवा घर में कहीं गुम हो गया. वे जल्दी से बाहर गए, देखा, दरवाजे पर श्यामला खड़ी थी. वे आश्चर्यचकित, किंकर्तव्यविमूढ़ से उसे देखते रह गए.

‘‘श्यामला तुम.’’ उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था.

‘‘हां मैं,’’ वह मुसकराते हुए बोली, ‘‘अंदर आने के लिए नहीं कहोगे?’’

‘‘श्यामला,’’ खुशी के अतिरेक में उन्होंने आगे बढ़ कर श्यामला को गले लगा लिया, ‘‘मुझे माफ कर दो.’’

‘‘बस, अब कुछ मत कहो. आप भी मुझे माफ कर दो. जो कुछ हुआ वह सब भूल कर आई हूं.’’

दोनों थोड़ी देर एकदूसरे को गले लगाए ऐसे ही खड़े रहे. तभी पीछे कुछ आवाज सुन कर दोनों अलग हुए, मुड़ कर देखा तो बिरुवा फूलों के हार लिए खड़ा था. मधुप और श्यामला दोनों हंस पड़े.

‘‘आज तो बहुत खुशी का दिन है, साहब.’’

‘‘हां बिरुवा, क्यों नहीं. आज मैं तुम्हें किसी बात के लिए नहीं रोकूंगा,’’ कह कर मधुप श्यामला की बगल में खड़े हो गए और बिरुवा ने उन दोनों को एकएक हार थमा दिया. दोनों आज खुशी का हर पल जीना चाहते थे. बहुत वक्त गंवा चुके थे, पर अब नहीं. बस अब और नहीं.

मन के दीये : राधिका की उदासी का क्या कारण था ?

राधिका बैड के सामने खुलने वाली खिड़की से दिखाई देने वाले उस बंद गेट को मायूसी से देख रही थीं जहां से उन के बेटे उन्हें यहां परायों की भीड़ में शामिल करवा गए थे. उन का चुप रहना, खाने की प्लेट को बिन छुए सरका देना, बैड पर पड़ेपड़े कमरे की छत को देखते रहना जैसे यहां रहने वालों के लिए खास माने नहीं रखता था. 5 दिन से राधिका ऐसी ही गुमसुम थीं, कभी उठ कर बस नहाधो लेतीं, कभी चुपचाप खड़ी बाहर देखती रहतीं. किसी ने उन से बात करने की कोशिश की भी तो उन्होंने मुंह फेर लिया था. किसी ने उन्हें आग्रहपूर्वक कुछ खिलाने की कोशिश की भी तो यह सबकुछ राधिका को सहज नहीं कर पाया था. छठे दिन वे चुपचाप लेटी छत निहार रही थीं कि जैसे कमरे के शांत वातावरण में उत्साहित स्वर गूंज उठा, ‘‘राधिका, तुम्हें रंगोली बनानी आती है? कुछ ही दिनों बाद दीवाली है, सारा काम पड़ा है.’’

राधिका चुप रहीं.

नंदिनी हंसीं, ‘‘गूंगी हो क्या?’’

राधिका करवट बदल कर लेट गईं. उन का जरा भी मन नहीं हुआ जवाब देने का. फिर नंदिनी उन्हें कंधे से सीधा करती हुई बोलीं, ‘‘अरे सौरी, मैं ने अपना परिचय तो दिया ही नहीं. मैं नंदिनी, तुम्हारी रूममेट, यह दूसरा बैड मेरा ही है.’’ राधिका ने अब भी कुछ न कहा तो नंदिनी उन्हें ध्यान से देखते हुए अपना बैड और सामान ठीक करने लगीं. सुबह हुई, राधिका ने नंदिनी पर जैसे ही नजर डाली, नंदिनी ने कहा, ‘‘गुडमौर्निंग राधिका, आंखों से लग रहा है रात को सोईं नहीं ठीक से.’’ राधिका ने जवाब तो नहीं दिया, आंखें भरती चली गईं, बस जैसे खुद से मन ही मन बात की, कैसे आए नींद, जीवन भर पति और दोनों बेटों के आगेपीछे घूमती रही, पति अचानक साइलैंट हार्टअटैक में चले गए तो दोनों बेटों की गृहस्थी के कामों में लगा दिया खुद को, पोतेपोतियों, भरेपूरे परिवार की मालकिन आज मैं यहां पड़ी हूं, इन परायों के बीच, इस वृद्धाश्रम में. क्या गलती की मैं ने, विदेश जाते हुए दोनों ने घर बेच कर मुझे यहां छोड़ दिया, वीजा की समस्या का यही हल ढूंढ़ा उन्होंने, नहीं, वीजा का बहाना था. एक बार भी नहीं सोचा मैं कैसे रहूंगी परायों के बीच.

संतान का मोह भी कैसा मोह है जिस के सामने सभी मोह हथियार डाल देते हैं परंतु यही संतान कैसे इतनी निर्मोही हो जाती है कि अपने मातापिता का मोह भी उसे बंधन जान पड़ता है और वह इस स्नेह और ममता के बंधन से मुक्त हो जाना चाहती है. पिछली दीवाली पर चारों पोतेपोतियों के साथ कितना अच्छा लगा था. कहां विलुप्त हो गए वे क्षण. किस जादूगर ने अपनी छड़ी घुमा कर समेट लिए. सब मेरे साथ ही रहने आ गए थे. वह तो बाद में पता चला कि मकान बेच कर साथ रहने का जो सपना मुझे दिखाया था उस में सिर्फ उन का स्वार्थ और छल था. राधिका बेजान बुत बन कर पड़ी बस, यही सोचे जा रही थीं कि जब बेटे छोटे थे तब उन्हें मातापिता की जरूरत थी. तब हम उन पर स्नेह और ममता लुटाते रहे और उम्र के इस पड़ाव पर जब मुझे उन की जरूरत है तो वे इतने स्वार्थी हो गए कि उन के बुढ़ापे को बोझ समझ कर अकेले ही उसे ढोने के लिए छोड़ दिया, अपनी मां को अकेले, बेसहारा छोड़ देने में उन्हें जरा भी हिचकिचाहट नहीं हुई? उन के दिल पर पड़े फफोले अचानक फूट पड़े, वे जोरजोर से रोने लगीं. नंदिनी ने उन्हें सहारा दे कर बिठाया, उन्हें गले से लगा कर चुप करवाया, फिर बहुत ही स्नेह से कहा, ‘‘चुप हो जाओ, राधिका, तुम फ्रैश हो जाओ, मैं तुम्हारे लिए चाय यहीं लाती हूं, लेकिन बस आज, कल से वहीं सब के साथ पीनी है.’’

राधिका ने पहली बार आंसुओं से भरी आंखें उठा कर नंदिनी को देखा, उस से उम्र में बड़ी ही थीं वे, शांत चेहरा, कोमल स्नेहिल स्पर्श, वे अचानक छोटी बच्ची की तरह नंदिनी से लिपट गईं और कई दिनों से उन के दुखी मन का विलाप नंदिनी के स्नेहिल आगोश में सिमटता चला गया. उसी शाम को राधिका आश्रम की एक बेंच पर चुपचाप बैठी दूर से ही नंदिनी और बाकी रहने वालों को अंत्याक्षरी खेलते देख रही थीं. नंदिनी के स्वर में स्नेहभरा आदेश था जिसे वे चाह कर भी नकार नहीं पाई थीं और अब सब को हंसतेमुसकराते देख रही थीं और सोच रही थीं कि अपने घर व बच्चों से दूर ये लोग इतना खुश किस बात पर हो रहे हैं, क्या बच्चों की याद इन्हें नहीं आती? पुरुषस्त्रियां सब दिल खोल कर गा रहे थे. अब तक राधिका को पता चल गया था, नंदिनी को सब यहां दीदी ही कहते हैं, वे ही यहां उम्र में सब से बड़ी थीं और हैरत की बात यह थी कि वे ही सब से चुस्त और खुशमिजाज थीं. फिर नंदिनी उठ कर राधिका के पास ही बैठ गईं, पूछा, ‘‘राधिका, क्या सोच रही हो?’’

‘‘यही कि मैं ने क्या गलती की जो मेरे बेटे मुझे यहां छोड़ गए. मैं ने अपने पति का बनाया हुआ इतना सुंदर घर अपने बेटों के कहने पर बेच दिया.’’ ‘‘हां, यही गलती तो की तुम ने. मेरे पति ने अपनी बीमारी के अंतिम दिनों में बैंक में घर गिरवी रख दिया था, इस बात पर दोनों बेटे नाराज भी हुए पर बैंक ही हर महीने अच्छा पैसा देता है मुझे. जब मन होता है घर भी चली जाती हूं, उस घर में मैं ने भी सारी उम्र बिताई है. वहां रहने में अलग ही खुशी मिलती है मुझे पर अकेलापन तो वहां भी है. जब तुम आईं, मैं वहीं गई हुई थी. दीवाली पर वहां की भी थोड़ी सफाई करवा लेती हूं.’’ नंदिनी इधरउधर घूम कर सब के साथ मिल कर दीवाली की साफसफाई करवाने लगीं. मुंबई के ठाणे में ‘यऊर हिल’ के पास यह ‘स्नेह कुटीर’ बनी थी. हर तरफ हरियाली ही हरियाली थी. शहर के शोरशराबे से दूर शांत जगह ऐसा लगता था मानो कोई हिल स्टेशन है, फिर राधिका को यह भी पता चला कि यह ‘स्नेह कुटीर’ नंदिनी ने ही बनवाई है. वे मुंबई यूनिवर्सिटी में ही प्रोफैसर रही हैं, खुश रहती हैं, सब को खुश रहना ही सिखाती हैं.शाम को टहलते हुए नंदिनी ने कहा, ‘‘राधिका, तुम से पूछा था मैं ने, रंगोली बनानी आती है क्या?’’

‘‘मेरा त्योहार मनाने का कोई दिल नहीं है, बच्चों से दूर वृद्धाश्रम में कैसा त्योहार?’’

‘‘मेरी ‘स्नेह कुटीर’ को वृद्धाश्रम क्यों कह रही हो? यहां सब को एकदूसरे का स्नेह मिलता है, खूब महफिलें जमती हैं, यहां बस स्नेह ही लेना है, स्नेह ही बांटना है,’’ कहतेकहते नंदिनी राधिका का हाथ पकड़ कर उसे हौल में ले आईं, वहां भी कोई कह रहा था :‘‘हमेशा बच्चों की हर फरमाइश पूरी की और यही कहते रहे कि सब तुम्हारा ही है.’’

एक स्त्री ने हंसते हुए छेड़ा, ‘‘बस, उन्होंने सब ले लिया.’’ पहले बोलने वाले पुरुष को भी हंसी आ गई थी. राधिका चुपचाप बातें सुन रही थीं. नंदिनी ने उन्हें वहीं एक कुरसी पर बिठा दिया, फिर कहने लगीं, ‘‘यहां अपनी उम्र के लोगों से बात कर के एक अजीब सा सुकून मिलता है. एक जैसी समस्याएं, एक जैसी खुशियां, सबकुछ शेयर करना बहुत अच्छा लगता है. ऐसा लगता है हम अकेले नहीं हैं, हम एकदूसरे के दर्द को आसानी से समझ सकते हैं. सामने वाले के पास हमारी बात को सुनने का समय है, वह हमें गंभीरता से ले रहा है, यह एहसास ही इस उम्र में खासा सुकून देने वाला है,’’ कह कर नंदिनी ने राधिका का कंधा थपथपाया.

राधिका ने उन्हें देखा, आंखों की आंखों से बात हुई मानो मौन ही मुखर हो कर भावनाओं को बांच रहा हो. इतने में सामने बैठे एक शख्स ने कहा, ‘‘और बेटों के साथ रहने से रहने के अलावा कौन सा संरक्षण मिल रहा था मुझे. अवांछित सा इधरउधर घूमता रहता था. और अगर वे अच्छे भी होते तो क्या हो जाता, मेरे पास रातदिन तो न बैठे रहते न. उन की भी पत्नी है, बच्चे हैं, वहां भी अकेले ही खाता था. यहां तो सब के साथ हंसतेबोलते खाता हूं,’’ फिर उन्होंने राधिका से पूछा, ‘‘राधिकाजी, आप को किस चीज का शौक रहा है?’’राधिका को अभी तक किसी का नाम नहीं पता था, उसे कोई रुचि ही नहीं थी इन लोगों में, इतना ही कहा, ‘‘मैं ने हमेशा पति और बच्चों की पसंद के अलावा कभी कुछ सोचा ही नहीं.’’ नंदिनी ने स्नेहभरी फटकार लगाई, ‘‘महेशजी तुम्हारा शौक पूछ रहे हैं, कुछ न कुछ तो अपने लिए अच्छा ही लगता रहा होगा.’’

‘‘बस मुझे हमेशा परिवार के लिए कुछ न कुछ किचन में बनाना पसंद रहा है, सो कुकिंग ही शौक कह सकती हूं अपना.’’ एक महिला जोर से हंसी, ‘‘वाह, शुक्र है, खाना बनाने का शौकीन कोई तो आया, नहीं तो यहां सब को खाने का ही शौक है, किचन में हमारे श्याम काका और उन की पत्नी सरला काकी को जरा नईनई रेसिपी बता देना, कुछ अलग स्वाद होगा फिर और मजा आएगा.’’ राधिका ने ठंडी गहरी सांस लेते हुए कहा, ‘‘नहीं, अब मेरा कुछ भी करने का मन नहीं है.’’ नंदिनी ने बात बदल दी, ‘‘ठीक है, चलो अब बताओ, बाजार से क्याक्या मंगवाऊं, अंजू आज फ्री है. वह शाम को लिस्ट लेने आएगी या अजय भी आ सकता है.’’ इतने में नंदिनी का मोबाइल बजा. वह बात करती हुई हौल से बाहर चली गई. राधिका ने पूछा, ‘‘अजय, अंजू कौन हैं?’’

‘‘इन का छोटा बेटा, बड़ा बेटा तो विदेश में है, अंजू इन की बेटी है.’’ राधिका को जैसे करंट लगा, ‘‘इन के बच्चे? और ये यहां रहती हैं?’’ ‘‘हां, उन्हें हम सब के साथ अच्छा लगता है, कभीकभी अपने घर भी जाती हैं, तुम आईं तो गई हुई थीं न, नहीं तो तुम्हें इतने दिन रोने थोड़े ही देतीं, यहां हर नए आने वाले का बैड उन के रूम में ही लगता है, इन्हें आता है हम जैसों को तसल्ली दे कर खुश रखना, रिटायरमैंट के बाद इन का काम है, अपने बच्चों से उपेक्षित, उदास, अकेले इंसान को फिर जीवन नए सिरे से जीना,’’ इतने में नंदिनी अंदर आ गईं तो बात वहीं रुक गई. अजय आया और आ कर जिस तरह सब से मिला, राधिका हैरान रह गईं, नंदिनी कह रही थीं, ‘‘अजय, यह रही लिस्ट, कल तक सामान पहुंचा देना और हां, मैं इस बार दीवाली पर यहीं रहूंगी.’’ ‘‘नहीं मां, दीवाली पर तो आप को हमारे पास आना ही है.’’ ‘‘नहीं, अजय, इस बार नहीं,’’ कह कर नंदिनी ने राधिका को देखा, वे कुछ हैरान सी थीं.

अजय लिस्ट ले कर चला गया. अजय अपने साथ गरमगरम कचौरी और जलेबी लाया था. श्याम काका ने नाश्ता प्लेटों में ला कर रखा, सब शुरू हो गए, किसी ने किसी को खाने के लिए नहीं कहा, सब वाहवाह करते हुए खाते रहे. उन 15 लोगों के चेहरों पर छाई शांति देख कर राधिका को अपने अंदर अचानक कुछ पिघलता सा महसूस हुआ, उन्होंने अपने बहते आंसू खुद ही पोंछ लिए थे. बेहद शांत आवाज में वे बोलीं, ‘‘दीदी, रंगोली कहांकहां बनानी है?’’ नंदिनी ने मुसकराते हुए पूछा, ‘‘तुम्हें आती है बनानी? कब से पूछ रही हूं, यहां किसी को नहीं आती, देखने का शौक सब को है. दीवाली वाले दिन मेरे एनजीओ के साथी भी आ रहे हैं यहां.’’ ‘‘रंग हैं? कुछ सामान चाहिए, और किचन में कुछ स्पैशल बनाऊंगी दीवाली वाले दिन, जो आप सब को पसंद हो, बता दें.’’ नंदिनी ने राधिका को गले लगा लिया, बोलीं, ‘‘अभी अजय का फोन मिला कर देती हूं, उसी को बता दो क्याक्या चाहिए.’’ राधिका ने पहली बार अपने आसपास के लोगों के स्वभाव, व्यवहार पर ध्यान दिया. सोच रही थीं, ये सब भी तो उसी के जैसे हैं, ये भी तो जीना सीख ही गए न. मैं भी सीख ही जाऊंगी, निर्मोही बेटों के बिना अकेले. पर अकेली कहां हूं, इतने तो साथी हैं यहां.

पिछली दीवाली पर उन अपनों के लिए क्याक्या बनाती रही जो गैर हो गए, इस बार उन गैरों के लिए बनाऊंगी जो अब हमेशा अपने रहेंगे. इन परायों को अपना मानने के अलावा रास्ता भी क्या है. फिर क्यों न खुशी से ही इस परिवार का हिस्सा बन जाऊं. बहुत दिनों बाद राधिका को अपने मन पर छाया अंधेरा दूर होता सा लगा, दीवाली से पहले ही मन के दीये जो जल उठे थे.

एक गृहिणी की आउटिंग : शोभा जी के विचार से लोग क्यों परेशान हो रहे थे ?

“थक गई मैं घर के काम करते-करते. वही एक जैसी दिनचर्या सुबह से शाम, शाम से सुबह.” “घर का सारा टेंशन लेते-लेते मैं परेशान हो चुकी हूँ, अब मुझे भी चेंज चाहिए कुछ.”

शोभा जी अक्सर ये बातें किसी न किसी से कहती रहती थीं. एक बार अपनी बोरियत भरी दिनचर्या से अलग, शोभा जी ने अपनी दोनों बेटियों के साथ इतवार को फ़िल्म देखने और घूमने का प्लान किया. शोभा जी ने तय किया इस आउटिंग में वो बिना कुछ चिंता किये सिर्फ़ और सिर्फ़ आनन्द उठाएँगी. मध्यमवर्गीय गृहिणियों को ऐसे इतवार कम ही नसीब होते हैं, जिसमें वो घरवालों पर नहीं बल्कि अपने ऊपर समय और पैसे दोनों ख़र्च करें, इसीलिए इस इतवार को लेकर शोभा जी का उत्साहित होना लाज़िमी था. ये उत्साह का ही कमाल था कि इस इतवार की सुबह, हर इतवार की तुलना में ज़्यादा जल्दी हो गई थी.

उनको जल्दी करते-करते भी, सिर्फ़ नाश्ता करके तैयार होने में ही साढ़े बारह बज गए. शो डेढ़ बजे का था, वहाँ पहुँचने और टिकट लेने के लिए भी समय चाहिए था. ठीक समय वहाँ पहुँचने के लिए बस की जगह ऑटो ही एक विकल्प दिख रहा था. और यहीं से शोभा जी के मन में ‘चाहत और ज़रूरत’ के बीच में संघर्ष शुरू हो गया. अभी तो आउटिंग की शुरुआत ही थी, तो ‘चाहत’ की विजय हुई.

ऑटो का मीटर बिल्कुल पढ़ी लिखी गृहिणियों की डिग्री की तरह, जिससे कोई काम नहीं लेना चाहता पर हाँ जिनका होना भी ज़रूरी होता है, एक कोने में लटका था. इसीलिए किराये का भाव-ताव तय करके सब ऑटो में बैठ गए.

शोभा जी वहाँ पहुँचकर, जल्दी से टिकट काउन्टर में जाकर लाइन में लग गयीं. जैसे ही उनका नम्बर आया तो उन्होंने अन्दर बैठे व्यक्ति को झट से तीन उँगली दिखाते हुए कहा- “तीन टिकट” कि बाहर के शोरगुल से भाई तुम सुन न पाओ तो उँगलियों को तो गिन ही सकते हो. अन्दर बैठे व्यक्ति ने भी बिना गर्दन ऊपर किये, नीचे पड़े काँच में उन उँगलियों की छाया देखकर उतनी ही तीव्रता से जवाब दिया-“बारह सौ”.

शायद शोभा जी को अपने कानों पर विश्वास नहीं होता यदि वो साथ में, उस व्यक्ति के होंठों को बारह सौ बोलने वाली मुद्रा में हिलते हुए नहीं देखतीं. फिर भी मन की तसल्ली के लिए एक बार और पूछ लिया- “कितने”? इस बार अन्दर बैठे व्यक्ति ने सच में उनकी आवाज़ नहीं सुनी पर चेहरे के भाव पढ़ गया. अब उसने ज़ोर से कहा- “बारह सौ”. शोभा जी की अन्य भावनाओं की तरह, उनकी आउटिंग की इच्छा भी मोर की तरह निकली जो दिखने में तो सुन्दर थी पर ज़्यादा ऊपर उड़ नहीं सकी, और धप्प करके ज़मीन पर आ गई. पर फिर एक बार दिल कड़ा करके उन्होंने अपने परों में हवा भरी और उड़ीं, मतलब बारह सौ उस व्यक्ति के हाथ में थमा दिये. हाथ में टिकट लेकर वो थिएटर की तरफ़ बढ़ गईं.

दस मिनट पहले दरवाज़ा खुला तो हॉल में अन्दर जाने वालों में शोभा जी बेटियों के साथ सबसे आगे थीं. अपनी-अपनी सीट ढूँढकर सब यथास्थान बैठ गए. विभिन्न विज्ञापनों का अम्बार झेलने के बाद, मुकेश और सुनीता के कैंसर के क़िस्से सुनकर साथ ही उनके वीभत्स चेहरे देखकर तो शोभा जी का पारा इतना ऊपर चढ़ गया कि यदि ग़लती से उन्हें अभी कोई खैनी, गुटखा या सिगरेट पीते दिख जाता तो दो चार थप्पड़ उन्हें वहीं जड़ देतीं और कहतीं कि सालों मज़े तुम करो और हम अपने पैसे लगाकर यहाँ तुम्हारा कटा-फटा लटका थोबड़ा देखें. पर शुक्र है वहाँ धूम्रपान की अनुमति नहीं थी.

लगभग आधे मिनट की शान्ति के बाद सभी खड़े हो गए. जो कान सिर्फ़ घरवालों की फ़रमाइशें सुनते थे वो राष्ट्रगान सुन रहे थे. साल में दो या तीन बार ही एक गृहिणी के हिस्से में अपने देश के प्रति प्रेम दिखाने का अवसर प्राप्त होता है और जिस प्रेम को जताने के अवसर कम प्राप्त होते हैं उसे जब अवसर मिले तो वो हमेशा आँखों से ही फूटता है. शोभा जी के रोम-रोम में देशप्रेम और आखों में आँसू साफ़ झलक रहे थे. राष्ट्रगान ख़त्म होने के बाद किसी ने “भारत माता की..” के नारे लगाने शुरू कर दिए पर “..जय” बोलने वालों में शोभा जी की आवाज़ सबसे बुलन्द थी.

जो आँखें थोड़ी ही देर पहले वीभत्स रस से सराबोर थीं, वही आँखे अब वीर रस में इतनी डूबी हुई थीं कि यदि शोभा जी को इस समय दुश्मनों के बीच खड़ा कर दिया जाता तो वो बिना किसी बन्दूक, गोली के, कलछी बेलन से ही उन्हें मार गिरातीं. देशप्रेम तो सभी में समान ही होता है चाहे सरहद पर खड़ा सिपाही हो या एक गृहिणी, बस किसी को दिखाने का अवसर मिलता है किसी को नहीं. इस समय शोभा जी वीर रस में इतनी डूबी हुईं थीं कि उनको अहसास ही नहीं हुआ कि सब लोग बैठ चुके हैं और वो ही अकेली खड़ी हैं तो बेटी ने उनको हाथ पकड़ कर बैठने को कहा.

थोड़ी ही देर में फ़िल्म शुरू हुई, शोभा जी कलाकारों की अदायगी के साथ भिन्न भिन्न भावनाओं के रोलर कोस्टर से होते हुए इन्टरवल तक पहुँचीं. चूँकि, सभी घर से सिर्फ़ नाश्ता करके निकले थे तो इंटरवल तक सबको बहुत भूख लग चुकी थी. तो  क्या-क्या खाना है, उसकी लंबी लिस्ट बेटियों ने तैयार करके शोभा जी को थमा दीं. शोभा जी एक बार फिर लाइन में खड़ीं थीं. उनके पास बेटियों द्वारा दी गयी खाने की लिस्ट लम्बी थी तो सामने खड़े लोगों की लाइन भी कम लम्बी न थी. जब शोभा जी के आगे तीन या चार लोग बचे होंगे तब शोभा जी की नज़र ऊपर लिखे मेन्यू पर पड़ी, जिसमें खाने की चीज़ों के साथ उनके दाम भी थे. उनके दिमाग़ में ज़ोरदार बिजली कौंध गयी और अगले ही पल बिना कुछ समय गँवाये वो लाइन से बाहर थीं. चार सौ के सिर्फ़ पॉपकॉर्न, समोसा पछत्तर का एक, सैंडविच सौ की एक और कोल्ड ड्रिंक डेढ़ सौ की एक. एक गृहिणी जिसने अपनी शादीशुदा ज़िन्दगी ज़्यादा रसोई में ही गुज़ारी हो उन्हें ये एक टब पॉपकार्न की क़ीमत चार सौ बता रहे थे. शोभा जी के लिए वही बात थी कि रतन टाटा को एक सुई की क़ीमत सौ रुपये बताए और उसे खरीदने को कहे.

उन्हें क़ीमत देखकर चक्कर आने लगे, मन ही मन उन्होंने मोटा मोटा हिसाब लगाया तो लिस्ट के खाने का ख़र्च, आउटिंग के ख़र्च की तय सीमा से पैर पसार कर पर्स के दूसरे पॉकेट में रखे बचत के पैसों, जो कि मुसीबत के लिए रखे थे वहाँ तक पहुँच गया था. उन्हें एक तरफ़ बेटियों का चेहरा दिख रहा था तो दूसरी तरफ़ पैसे. इस बार शोभा जी अपने मन के मोर को ज़्यादा उड़ा न पाईं और आनन्द के आकाश को नीचा करते हुए लिस्ट में से सामान आधा कर दिया. ज़ाहिर था, कम हुआ हिस्सा माँ अपने हिस्से ही लेती है. अब शोभा जी को एक बार फिर लाइन में लगना पड़ा.

सामान लेकर शोभा जी जब अन्दर पहुँची इंटरवल ख़त्म होकर फ़िल्म शुरू हो चुकी थी. कहते हैं, कि यदि फ़िल्म अच्छी होती है तो वो आपको अपने साथ समेट लेती है, लगता है मानो आप भी उसी का हिस्सा हों. और शोभा जी के साथ हुआ भी वही. बाकी की दुनिया और खाना सब भूलकर शोभा जी फ़िल्म में बहती गईं और तभी वापस आईं जब सामने ‘दी एन्ड’ लिखा हुआ देखा. और जब अपनी दुनिया में वापस आईं तो उन्हें भूख सताने लगी.

थिएटर से बाहर निकलीं तो थोड़ी ही दूरी पर उन्हें एक छोटी सी चाट भण्डार की दुकान दिखाई दी. और सामने ही अपना गोल गोल मुँह फुलाये गोलगप्पे नज़र आए. गोलगप्पे की ख़ासियत होती है कि उनसे आपको कम पैसों में ज़्यादा स्वाद मिल जाता है और ख़ुशी-ख़ुशी पानी से आपका पेट भर देते हैं . सिर्फ़ साठ रुपये में तीनों ने पेट भर गोलगप्पे खा लिए. घर वापस पहुँचने की कोई जल्दी नहीं थी तो शोभा जी ने अपनी बेटियों के साथ पूरे शहर का चक्कर लगाते हुए घूमकर जाने वाली बस पकड़ी.

बस में बैठी-बैठी शोभा जी के दिमाग़ में बहुत सारी बातें चल रही थी. कभी वो ऑटो के ज़्यादा लगे पैसों के बारे में सोचतीं तो कभी फ़िल्म के किसी सीन के बारे में सोचकर हँस पड़तीं, कभी महँगे पॉपकॉर्न के बारे में सोचतीं तो कभी महीनों या सालों बाद उमड़ी देशभक्ति के बारे में सोचकर रोमांचित हो उठतीं. उनका मन बहुत भ्रमित था क्या यही वो ‘चेंज’ है जो वो चाहतीं थीं. वो सोच रहीं थीं कि क्या सच में वो ऐसा ही दिन बिताना चाहती थीं जिसमें दिन ख़त्म होने पर उनके दिल में ख़ुशी के साथ कसक भी रह जाए.

तभी छोटी बेटी ने हाथ हिलाते हुए अपनी माँ से पूछा-“माँ अगले संडे हम कहाँ चलेंगे?”वो एक पल शोभा जी के लिए बेहद मुश्किल, ‘चाहत और ज़रूरत’ में से किसी एक को चुनने का था. शोभा जी ने भी सबकी ‘ज़रूरतों’ का ख़याल रखते हुए साथ ही अपनी ‘चाहत’ का भी तिरस्कार न करते हुए कहा- “आज के जैसे बस से पूरा शहर देखते हुए ‘बीच’ चलेंगे और ‘सनसेट’ देखेंगे.”

शोभा जी सोचने लगीं अच्छा हुआ जो प्रकृति अपना सौन्दर्य दिखाने के पैसे नहीं लेती. और प्रकृति से बेहतर ‘चेंज’ कहीं और से मिल सकता है भला!

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