डिटैक्टिव ब्योमकेश बख्शी

जिस तरह उड़द की दाल को धीमी आंच पर 2-3 घंटे तक पकाया जाता है, तब कहीं जा कर वह स्वादिष्ठ बनती है, ठीक वैसी ही फिल्म है ‘डिटैक्टिव ब्योमकेश बख्शी’, जिसे निर्देशक ने धीरेधीरे डैवलप किया है, इसीलिए क्लाइमैक्स में जा कर ही फिल्म का टेस्ट पता चल पाता है. हालांकि इस चक्कर में फिल्म की गति काफी धीमी हो जाती है. डार्क शेड होने की वजह से आंखों पर जोर भी ज्यादा पड़ता है और इस डिटैक्टिव को समझने में दिमाग पर जोर लगाना पड़ता है, फिर भी यह फिल्म एकदम अलग है. इस का टेस्ट हर कोई नहीं उठा पाएगा. जासूसी की कहानियों और कौमिक्स में रुचि रखने वालों को यह कुछ रुचिकर लग सकती है. ‘डिटैक्टिव ब्योमकेश बख्शी’ में न तो रोमांस है न ही डांस और न ही कोई चटपटापन. फिर भी डिटैक्टिव ब्योमकेश द्वारा मर्डर मिस्ट्री सुलझाने की जद्दोजहद देख कर लगा कि इस किरदार को जीवंत कर देने वाला कलाकार सुशांत सिंह राजपूत टीवी पर दिखने में जितना रोमांटिक व रंगीन नजर आता था, अब ब्योमकेश की भूमिका में उतना ही गंभीर व मुश्किल किरदार नजर आया है. उस ने शरलौक होम्स के किरदार को देसी अंदाज में निभाया है.

‘डिटैक्टिव ब्योमकेश बख्शी’ शरदेंदु बंदोपाध्याय के उपन्यास पर आधारित है. शरदेंदु बंदोपाध्याय ने अपने उपन्यास में ब्योमकेश को 25-26 साल का नौजवान बताया है, जो 1943 में कलकत्ता यूनिवर्सिटी से बाहर निकला है. वह हर वक्त डिटैक्टिव बनने के बारे में सोचता रहता है. उस की अपनी एक अलग स्टाइल है. वह खूबसूरत है. इस फिल्म के निर्देशक दिबाकर बनर्जी ने यही सारी खूबियां अपनी फिल्म के नायक सुशांत सिंह राजपूत में दिखाई हैं.

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