यह एक सच्ची घटना है जिसे पढ़ कर शायद आप की व्यर्थ की धार्मिक परंपराओं व रीतिरिवाजों के बारे में राय बदल जाए. खूबसूरत व संस्कारी निमिषा की मां का देहांत हो गया था. पिता इस हालत में नहीं थे कि बेटी की देखभाल कर पाते. ऐसे में उस के चाचाजी व चाचीजी ने उसे अपनी सगी बेटी की तरह पालपोस कर बड़ा किया और समय आने पर इंजीनियर के पद पर कार्यरत एक सुदर्शन युवक से उस की सगाई कर दी. सगाई शानदार तरीके से हुई. दहेज और वैवाहिक कार्यक्रमों की बात चली तो लड़के की मां ने कहा, ‘‘हमें दहेज नहीं चाहिए और हम कोर्ट मैरिज ही करवाएंगे. किसी भी तरह के धार्मिक रीतिरिवाजों को नहीं निभाएंगे.’’ यह बात सुन कर निमिषा के परिवार में सन्नाटा छा गया कि भला बिना रीतिरिवाजों और धार्मिक पूजापाठ के विवाह कैसे संपन्न होगा.

सभी हैरान थे कि आखिर वे पूजापाठ और ईश्वर को क्यों नहीं मानते. परिवार अच्छा होने की वजह से वे रिश्ता भी नहीं तोड़ना चाहते थे, इसलिए चाचीजी ने इस बारे में लड़के की मां से बात करना उचित समझा. उन्होंने लड़के की मां से पूछा, ‘‘आखिर ऐसी क्या बात है कि आप लोग भगवान, रीतिरिवाज व परंपराओं को नहीं मानते हैं?’’ लड़के की मां ने कहा, ‘‘दरअसल, मेरे बेटे की ईश्वर पर कोई आस्था नहीं है. जब मेरे पति यानी इस के पिता बहुत गंभीर रूप से बीमार थे तो इस ने सभी देवीदेवताओं की पूजाअर्चना, धार्मिक कर्मकांड सबकुछ किया लेकिन फिर भी अपने पिता को नहीं बचा पाया. तभी से हम ने पूजापाठ, धार्मिक रीतिरिवाजों पूजाअर्चना का पूरी तरह से त्याग कर दिया है.’’ लड़के की मां के मुंह से यह बात सुन कर निमिषा की चाची हैरान रह गईं और उन की सोच पूरी तरह बदल गई और वे लड़के की मां के कहे अनुसार कोर्ट मैरिज व रिसैप्शन के लिए तैयार हो गईं. आज निमिषा पूरी तरह सुखीसंपन्न है बावजूद इस के उस के विवाह में कोई वैवाहिक रीतिरिवाज, पूजापाठ धार्मिक कर्मकांड नहीं हुआ, जिन के बिना भारतीय समाज किसी भी विवाह को अधूरा व असफल होने की शंका करता है. इस उदाहरण के अलावा ऐसे कितने लोग हैं जो इन व्यर्थ के रीतिरिवाजों व धर्मकर्म को नहीं मानते.

भारतीय समाज में धार्मिक रीतिरिवाजों, पूजापाठ का पालन दैनिक आधार पर जीवन के सभी छोटेबड़े अवसरों पर किया जाता है और माना जाता है कि ये रीतिरिवाज और परंपराएं सदियों से चली आ रही हैं, इसलिए अनिवार्य हैं और बाध्य रस्में हैं. ये रस्में दिनचर्या में इस तरह घुलमिल गई हैं कि इन्हें बड़ी शिद्दत के साथ निभाया जाता है. इन रीतिरिवाजों के परे सोच पाना भी, जैसा कि निमिषा के होने वाले पति ने किया, संभव नहीं होता क्योंकि ये रीतिरिवाज बुरी लत की तरह लोगों की नसनस में समा चुके हैं. लेकिन आप जानते हैं कि ये धर्मकर्म, पूजापाठ, रीतिरिवाज एक आम आदमी की सोच, उस की दिनचर्या और पूरी जिंदगी पर क्या प्रभाव डालते हैं?

वहम व डर का साया

यज्ञ, हवन, व्रत, कथा, पाठ ये सभी धार्मिक क्रियाकलाप लोगों को वहम और डर के बंधनों में जकड़ते हैं और इन के बोझ तले जीते लोग खुशहाली के बजाय दुख और डर के साए तले जीते हैं. पूजापाठ, रीतिरिवाजों, धर्मकर्म के बीज हमारे समाज में बच्चों में बचपन से ही रोप दिए जाते हैं. उसे अपनी हर इच्छापूर्ति के लिए धार्मिक कर्मकांडों पर निर्भर बना दिया जाता है. आप उक्त देवीदेवता की पूजा करो, मंत्रजाप करो तो परीक्षा में सफल होगे, इंटरव्यू में सफलता मिलेगी, रोगों से मुक्ति मिलेगी, 16 सोमवार करोगी तो अच्छा घरवर मिलेगा, करवाचौथ का व्रत करोगी तो पति दीर्घायु होगा यानी जीवन के छोटेबड़े सभी उद्देश्य धार्मिक कर्मकांडों के आधार पर व्यवस्थित होते हैं. कुल मिला कर जन्म से ले कर मृत्यु तक धार्मिक पूजापाठ, रीतिरिवाजों में जकड़ा मनुष्य इन से इतना भयभीत रहता है कि इन के बिना एक भी कदम आगे बढ़ाने से डरता है कि अगर उक्त व्रत या अनुष्ठान नहीं किया तो बुरा होगा, असफलता मिलेगी, जीवन असफल हो जाएगा. और वह बिना सोचेसमझे इन धार्मिक कर्मकांडों को अपने जीवन का अटूट हिस्सा बनाता चला जाता है. वहीं, जो रीतिरिवाजों को नहीं मानता उसे नास्तिक या अधर्मी करार दे दिया जाता है.

एक प्राइवेट कंपनी में कार्यरत 32 वर्षीय रीतू का इस बारे में कहना है, ‘‘मैं इस तरह के व्रत, पूजापाठ बिलकुल नहीं करती क्योंकि ये व्यर्थ के आडंबर न सिर्फ डराते हैं बल्कि व्यर्थ का वहम भी पैदा करते हैं और हमारा ध्यान वास्तविक समस्या से हट जाता है. एक स्टूडैंट पढ़ाईलिखाई छोड़ कर पूजापाठ, व्रत, उपवास में लग जाता है, पतिपत्नी आपसी रिश्तों में मधुरता कायम करने के लिए आपसी सामंजस्य और अपनेपन के बजाय कुंडलियों के मिलान और तंत्रमंत्र, दानधर्म का सहारा लेने लगते हैं. जब वे एक बार इन के जाल में फंस जाते हैं तो इन्हें न करने या छोड़ने से डर लगने लगता है. तब उन के पास इन में फंस कर रहने के अलावा कोई उपाय नहीं बचता. इन सब से परिणाम भी कुछ हाथ नहीं लगता. ऐेसे में इन व्यर्थ के रीतिरिवाजों में जकड़ कर जिंदगी को डर के साए में जीने से क्या फायदा?’’

टूटता आत्मविश्वास

पूजापाठ, धार्मिक अनुष्ठानों में जकड़ा मनुष्य इस कदर इन के जाल में फंस जाता है कि वह अपने जीवन के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए अपनी कोशिशें छोड़ देता है और पूरी तरह इन पर निर्भर हो जाता है फिर चाहे वह उद्देश्य उच्च शिक्षा प्राप्ति हो, बेहतर स्वास्थ्य हो, विवाह, संतानप्राप्ति या मकान निर्माण हो. वह इन सब के लिए पंडितों, धर्मगुरुओं का सहारा लेता है और पूजापाठ, तंत्रमंत्र जैसे उपाय अपनाने लगता है. और तो और, बीमार व्यक्ति की सेहत में सुधार के लिए भी डाक्टरी इलाज के बजाय झाड़फूंक व दानधर्म में अपनी अमूल्य संपत्ति झोंक देता है. इन सब के बाद भी जब कोई परिणाम उस के हाथ नहीं लगता तो वह पूरी तरह टूट जाता है और उस के पास सिवा पछताने के कुछ नहीं बचता. पाखंडी पंडों और स्वार्थी साधुओं की पेटपूजा के खर्चों में धर्मभीरु लोगों की मेहनत की गाढ़ी कमाई बरबाद हो जाती है. वे जीवनभर के लिए कर्जदार बन जाते हैं. दूसरी तरफ, सुविधाभोगी पाखंडी पंडे भोलेभाले लोगों को रीतिरिवाजों के जाल में उलझा कर अपनी जेबें भरते रहते हैं. आधुनिक समाज में जरूरत है व्यर्थ की धार्मिक कर्मकांडों और रीतिरिवाजों से मुक्ति पाने की ताकि निमिषा और उस के पति की तरह बिना डर और वहम के आत्मविश्वास के साथ जिंदगी को जिया जा सके. इस के लिए सभी को जागरूक किए जाने की जरूरत है.

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