हमारी अधूरी कहानी
सभी धर्मों में औरत को निकृष्ट माना गया है. हिंदू धर्म में तो औरत को पाप की गठरी, नरक का द्वार तक कहा गया है. गोस्वामी तुलसीदास ने औरतों को गंवार, पशुतुल्य बताया है यथा ‘ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी ये सब ताड़न के अधिकारी.’ अर्थात औरतों की पशुओं के समान पिटाई की जानी चाहिए. यह परंपरा अनादिकाल से चलती आई है. तथाकथित भगवान राम ने अपनी पत्नी सीता को दासी से कम नहीं समझा और उसे अपनी प्रौपर्टी की तरह माना. रावण के यहां रहने पर राम ने सीता को घर से निकाल दिया, बाद में उस की अग्निपरीक्षा ली. आज भी स्त्रियों की दशा वैसी ही है जैसी पुरातनकाल में थी. लड़कियों को शादी करने के लिए दहेज देना पड़ता है. वे मरते दम तक पुरुषों की सेवा करती रहती हैं, मानो वे दासी हों, गुलाम हों. पुरुष स्त्रियों पर अपना हक जताते हैं. वे उन्हें अपनी प्रौपर्टी, जागीर समझते हैं. यहां तक कि कई समुदायों में पुरुष अपना नाम पत्नी के हाथ पर गुदवाते हैं. एक औरत के पास अपने नाम का क्या होता है? यहां तक कि उसे शादी के बाद अपने नाम के आगे पति का नाम जोड़ना होता है. मांग में पति के नाम का सिंदूर भरना होता है. गले में पति के नाम का मंगलसूत्र पहनना उस के लिए जरूरी हो जाता है. जब वह प्रैग्नैंट हो जाती है तो उस की कोख में जो बच्चा होता है उस पर उस के पति का ठप्पा लग जाता है. पति चाहे पत्नी को कितना भी मारेपीटे, फिर भी वह उस की लंबी उम्र के लिए करवाचौथ का व्रत रखती है. पूरी उम्र स्त्रियां इन मुर्दा परंपराओं और रीतिरिवाजों में जीती रहती हैं. मरते दम तक उन के जिस्म पर मर्दों का राज चलता रहता है.
निर्देशक मोहित सूरी ने अपनी फिल्म ‘हमारी अधूरी कहानी’ के क्लाइमैक्स में एक पत्नी को उस पति के नाम का मंगलसूत्र पहने उस की जिंदगी की भीख मांगते दिखाया है जो उसे मारतापीटता था, उसे अपनी प्रौपर्टी समझता था. निर्देशक ने अपनी इस फिल्म में औरत की अस्मिता पर कई सवाल उठाए हैं लेकिन आखिर में वह भी लकीर का फकीर बन कर प्रेम के त्रिकोण में उलझ कर रह गया है और अपनी इस अधूरी कहानी को पूरी नहीं कर सका है. फिल्म की कहानी शुरू होती है नायिका विद्या बालन की अस्थियों से. उस का बेटा अपने अर्धविक्षिप्त पिता हरि (राजकुमार राव) को कहीं से ढूंढ़ कर लाता है. परंतु रात में वह अपनी पत्नी की अस्थियां ले कर भाग जाता है और बेटे के हाथ लगती है एक डायरी. यहीं से कहानी फ्लैशबैक में चली जाती है.
हरि की शादी वसुधा (विद्या बालन) से होती है. उन का एक बेटा होता है. अचानक हरि कहीं चला जाता है. वसुधा एक होटल में काम करने लगती है. एक दिन वसुधा को पुलिस से पता चलता है कि उस का पति आतंकवादी है. उसे घर से गए कई साल बीत चुके हैं. वसुधा उस की आस छोड़ चुकी है. एक दिन होटल का मालिक आरव (इमरान हाशमी) उसे दुबई के एक होटल में नौकरी औफर करता है. वसुधा दुबई चली जाती है. आरव वसुधा से प्यार करने लगता है और उसे शादी के लिए प्रपोज करता है. तभी अचानक हरि वापस लौट आता है. 5 साल बाद पति को वापस आया देख वसुधा खुद को संभाल नहीं पाती. हरि वसुधा को बताता है कि वह बेकुसूर है. वसुधा हरि को अपने और आरव के प्यार के बारे में सच बता देती है. हरि यह सच बरदाश्त नहीं कर पाता और खुद को पुलिस के हवाले कर अपना जुर्म कुबूल कर लेता है. लेकिन वसुधा आरव से अपने पति की जान की भीख मांगती है और उसे छुड़ाने की रिक्वैस्ट करती है. आरव मुकदमा लड़ कर हरि को बचा लेता है. इस चक्कर में उस की जान चली जाती है. आरव को ढूंढ़ते हुए आई वसुधा की भी उसी जगह पर मौत हो जाती है. हरि मानसिक रूप से पागल हो जाता है.
फिल्म की यह कहानी बहुत धीमी है. कहानी में कोई नई बात नजर नहीं आती. फिल्म का निर्देशन भी औसत ही है. विद्या बालन ने अपने दर्द को दिखाने की काफी कोशिश की है लेकिन वह अपने रोल में सही ढंग से उतर नहीं पाई है. दर्शक भी उस से जुड़ नहीं पाए हैं. जब दर्शक उस से और इमरान हाशमी से जुड़ने की कोशिश करते हैं तो अचानक से राजकुमार राव की एंट्री हो जाती है. इमरान हाशमी कई जगह जमा है. राजकुमार राव का काम पहले जैसा ही है. वैसे उसे परदे पर देखने में मजा आता है. फिल्म के संवाद अच्छे हैं. दुबई की लोकेशनें अच्छी बन पड़ी हैं, खासकर दुबई के एक बगीचे की सुंदरता मन को मोह लेने वाली है. फिल्म का गीतसंगीत औसत ही है.
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एबीसीडी-2
पिछले काफी अरसे से टीवी पर डांस रिऐलिटी शोज प्रसारित हो रहे हैं. इन शोज में कुछ में तो खुद रैमो डिसूजा जज बने हैं. यह फिल्म भी डांस रिऐलिटी शो जैसी है. पूरी फिल्म में डांस ही डांस है. डांस इतने ज्यादा हैं और फिल्म की लंबाई इतनी ज्यादा है कि क्लाइमैक्स आतेआते बोरियत होने लगती है. फिल्म के निर्देशक रैमो डिसूजा को यह बात ध्यान में रखनी चाहिए थी कि फिल्म ऐसी होनी चाहिए जिस में कुछ कहानी हो, इमोशंस हों और दर्शक फिल्म से खुद को जोड़ सकें. लेकिन वे इस मामले में चूक गए हैं.
‘एबीसीडी-2’ (एनीबडी कैन डांस-2) रैमो डिसूजा द्वारा निर्देशित पिछली फिल्म ‘एबीसीडी’ की सीक्वल है. निर्देशक ने इस फिल्म को काफी चमकधमक वाला बनाया है. फिल्म में पिछली फिल्म के मुकाबले पैसा भी खूब बहाया गया है. इतने सारे कलाकारों को लास वेगास ले जा कर फिल्म को 3डी इफैक्ट में शूट किया गया है, फिर भी फिल्म सब के मतलब की नहीं बन सकी है. युवाओं, खासकर डांस पसंद करने वालों को यह फिल्म भा सकती है. फिल्म की कहानी खुद रैमो डिसूजा ने लिखी है. कहानी मुंबई के उपनगर नालासोपरा के युवकों पर आधारित सच्ची घटना पर है. गरीब घर के कुछ युवक अपनी लगन व मेहनत के बल पर अमेरिका तक कैसे पहुंचे, कहानी में यही दिखाया गया है.
मुंबई के एक कसबे में सुरेश (वरुण धवन) और उस के कुछ दोस्तों का डांस ग्रुप है. उस ग्रुप में विनी (श्रद्धा कपूर) भी है. यह ग्रुप एक डांस प्रतियोगिता ‘हम किसी से कम नहीं’ में हिस्सा लेता है. प्रतियोगिता में खुद रैमो डिसूजा जज हैं. जजमैंट के वक्त सुरेश और उस के ग्रुप पर डांस स्टेप्स चोरी कर परफौर्म करने का आरोप लगता है. इस से ग्रुप के सभी सदस्यों की काफी बदनामी होती है. बदनामी के इस दाग को मिटाने के लिए सुरेश और उस के साथी वर्ल्ड हिपहौप डांस प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए लास वेगास जाने का प्लान बनाते हैं. एक दिन विष्णु की नजर डांस गुरु विष्णु (प्रभुदेवा) पर पड़ती है. वह विष्णु से अपना नया डांस ग्रुप बनाने में मदद मांगता है. विष्णु राजी हो जाता है. अब सुरेश और उस के साथियों को लास वेगास में होने वाली प्रतियोगिता में एंट्री मिल जाती है. मुकाबला शुरू होने से पहले विनी के पैर में चोट लग जाती है जिस से निराश हो कर विष्णु चुपचाप इंडिया लौट जाता है. लेकिन यहां आ कर उसे अपनी गलती महसूस होती है और वह वापस लास वेगास पहुंच कर टीम की हौसलाअफजाई करता है. टीम मुकाबला जीत तो नहीं पाती परंतु टीम के सदस्यों की वाहवाही सब जगह होती है. फिल्म की इस कहानी में डांस सीखने में लगने वाली जीतोड़ मेहनत और संघर्ष को उतने प्रभावशाली ढंग से नहीं दिखाया गया है जितने की जरूरत थी. किरदारों को देख कर नहीं लगता कि उन में मैच्योरिटी है. किरदार कालेज के स्टूडैंट जैसे लगते हैं जो किसी इंटरनैशनल प्रतियोगिता में नहीं, कालेज के स्टेज पर परफौर्म करते से नजर आते हैं.
निर्देशक ने कहानी को बेवजह लंबा खींचा है. उस ने कहानी में लव एंगल को नहीं रखा है. मध्यांतर के बाद फिल्म उबाऊ सी हो गई है. प्रभुदेवा क एंट्री जोरदार ढंग से की गई है. श्रद्धा कपूर के डांस भी अच्छे बन पड़े हैं. वरुण धवन की ऐक्ंिटग खास नहीं है. फिल्म का गीतसंगीत पहले जैसा नहीं है. फिल्म का क्लाइमैक्स भव्य तो है परंतु दर्शकों में उत्तेजना नहीं भर पाता. फिल्म का छायांकन अच्छा है. लास वेगास की लोकेशनें अच्छी बन पड़ी हैं.
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वाद्य
हालांकि यह फिल्म स्कूली बच्चों की जिंदगी पर है और निर्देशक ने दिखाने की कोशिश की है कि स्कूली बच्चे भले ही उद्दंड हों परंतु सामाजिक दायित्वों के प्रति जागरूक हो रहे हैं, फिर भी यह फिल्म अपना असर नहीं छोड़ पाती. फिल्म में दिया गया संदेश दर्शकों पर अपना प्रभाव नहीं छोड़ पाता. फिल्म की कहानी 5 शरारती युवाओं की है. गांव के चौधरी साहब (ओम पुरी) इन्हें एक नामी स्कूल में दाखिला दिला देते हैं. एक दिन ये पांचों अपनी एक दोस्त के घर में रुक जाते हैं. रात को 3 दोस्त घूमने के लिए बाहर निकलते हैं तो देखते हैं एक कार से कुछ लोग एक लड़की को फेंक कर भाग गए हैं. वे उस घायल लड़की को अस्पताल पहुंचाते हैं. उस लड़की के साथ बलात्कार हुआ था. एसीपी तेजवीर सिंह (जिमी शेरगिल) तहकीकात करता है. अदालत में मुकदमा शुरू होता है. सरकारी वकील बलात्कार के तीनों मुजरिमों को निर्दोष बता कर उलटे उन 3 लड़कों को बलात्कार के जुर्म में फंसा देता है जिन्होंने लड़की को बचाया था. अदालत असली अपराधियों के साथसाथ उन 3 लड़कों को भी पुलिस कस्टडी में जेल भेज देती है. एसीपी तेजवीर सिंह असली अपराधियों को ऐसी सजा देता है जिसे सुन कर जज साहब भी हैरान हो जाते हैं और एसीपी से सहमत होते हैं.
मध्यांतर से पहले यह फिल्म सिर्फ स्कूली शरारतों से भरी पड़ी है. स्कूल में पांचों छात्र लड़कियों को छेड़ते रहते हैं, उन से इश्क फरमाते हैं. और तो और, स्कूल में टीचर भी अपनी सहयोगियों से इश्क फरमाते रहते हैं. मध्यांतर के बाद फिल्म पलटी मारती है और गैंगरेप की बात करती है. इस भाग में इन पांचों लड़कों को बेहद गंभीर और जिम्मेदार दिखाया गया है. दरअसल, फिल्म की पटकथा काफी कमजोर है. निर्देशक अपनी बात सही ढंग से कह नहीं पाया है. सिर्फ जिमी शेरगिल का काम अच्छा है. संग्राम सिंह निराश करता है. पांचों युवाओं ने ऊटपटांग तरीके से अभिनय किया है. अच्छा होता निर्देशक पहले उन्हें अभिनय की एबीसीडी सिखाता. फिल्म का निर्देशन कमजोर है. संगीत में भी दम नहीं है. हां, क्लाइमैक्स में गैंगरेप के अपराधियों को सजा देने का जो तरीका अपनाया गया है, वह एकदम अलग है. फिल्म का छायांकन अच्छा है.