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एंग्री इंडियन गौडेसेस

हिंदी फिल्मों में पुरुष किरदारों को ले कर तो खूब सारी फिल्में बनी हैं जहां इन के बनतेबिगड़ते रिश्ते दिखाए जाते हैं. लेकिन अलगअलग सोच रखने वाली भारतीय महिलाओं की नजदीकी मित्रता दर्शाती फिल्म ‘एंग्री इंडियन गौडेसेस’ अपनी तरह की अलहदा फिल्म है. हाल ही में टोरंटो इंटरनैशनल फिल्म फैस्टिवल में प्रदर्शित हुई इस फिल्म ने फर्स्ट रनर अप का स्थान हासिल किया. इस फैस्टिवल में ‘एंग्री इंडियन गौडेसेस’ को ‘ग्रोल्स्क पील चौइस’ अवार्ड से नवाजा गया. फिल्म की स्टार कास्ट में सारा जेन, तनिष्ठा चटर्जी, अनुष्का मनचंदा, संध्या मृदुल, अमृत मघेरा, पवलीन गुजराल और राजश्री देशपांडे जैसे बहुमुखी कलाकार शामिल हैं. फिल्म का निर्देशन पैन नलीन ने किया है.

गौरव की यारी रोड

लघु फिल्म ‘यारी रोड’ इन दिनों खासी चर्चा में है. यह फिल्म क्वींसलैंड के इंडियन इंटरनैशनल फिल्म फैस्टिवल में बैस्ट शौर्ट फिल्म का खिताब जीत चुकी है और जल्द ही एशियन अमेरिकन फिल्म फैस्टिवल में भी दिखाई जाएगी. फिल्म में गौरव द्विवेदी, जतिन गोस्वामी और सम्राट चक्रवर्ती ने मुख्य भूमिका निभाई है. प्रतिभाशाली अभिनेता गौरव द्विवेदी को जब भी मौका मिला, उन्होंने खुद को सर्वश्रेष्ठ साबित किया है. फिर चाहे वह सीरियल ‘गोरा’ हो, फिल्म ‘इनकार’ हो या फिर फिल्म ‘मांझी द माउंटेन मैन.’ बहरहाल, हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में शौर्ट फिल्मों का चलन बढ़ा है. अनुराग कश्यप और सुजोय घोष सरीखे निर्देशक भी इस में हाथ आजमा रहे हैं. इन फिल्मों की कामयाबी कुछ हद तक देश व दुनिया के उन फिल्म समारोहों पर भी निर्भर है जो ऐसी फिल्मों को प्रोत्साहित करते हैं.

औनलाइन ठगी और अभिनेता

फिल्म अभिनेता और उन से जुड़े ब्रैंड कई बार भ्रामक सामग्री व झूठे वादों के चलते विवादों में आ चुके हैं. जैसे मैगी के प्रचार को ले कर अमिताभ बच्चन समेत कई कलाकारों के खिलाफ शिकायतें दर्ज हुईं. हाल में एक औनलाइन शौपिंग पोर्टल, जो ग्राहकों को कथित तौर पर ठग रहा है, के प्रचारक अभिनेता रणबीर कपूर भी विवादों के घेरे में आ गए हैं. हालांकि सफाई में वे कह रहे हैं कि अब उस पोर्टल से उन का कोई वास्ता नहीं है लेकिन विज्ञापनों के चलते उस पोर्टल ने काफी कमाई की है और इस आधार पर उन की भी जिम्मेदारी बनती है. उन के अलावा औनलाइन शौपिंग साइट को प्रमोट करने के लिए फरहान अख्तर और रणबीर के खिलाफ आईपीसी के तहत आपराधिक विश्वास हनन को ले कर एक प्राथमिकी दर्ज कराई गई है. अगर ये अभिनेता सिर्फ पैसों के लिए किसी भी ब्रैंड का प्रचार करने के बजाय उस की विश्वसनीयता भी देखें तो बेहतर हो.

लघु और मझोले उद्योगों को भ्रष्टाचार से बचाना

लघु एवं मझोले उद्योगों को ‘मेक इन इंडिया’ कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए प्रमुखता दी जा रही है. इस के लिए अगले 5 वर्ष में सरकार की, इस उद्योग को मजबूत बनाने के लिए करीब डेढ़ करोड़ युवाओं को प्रशिक्षित करने की योजना है. देश को कुटीर उद्योगों के जरिए आत्मनिर्भर बनाने की सरकार की यह महत्त्वपूर्ण पहल है. उस का मानना है कि सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी में इस की हिस्सेदारी 37.5 फीसदी है जबकि इस का निर्यात का हिस्सा 40 फीसदी है. इस के लिए सरकार ने अपनी ऋण नीति में बदलाव भी किया है ताकि इन उद्योगों को बढ़ावा देने में किसी तरह की आर्थिक दिक्कत पैदा न हो. इस क्षेत्र में कुशल श्रमिकों को रोजगार मिले, इस के लिए डिजिटल रोजगार एक्सचेंज बनाया गया है. मुद्रा बैंक स्थापित कर के इस क्षेत्र में निवेश को बढ़ावा देने का काम किया गया है.

सरकार का मानना है कि लघु और मझोले उद्योगों को बढ़ावा देने से अर्थव्यवस्था को मजबूती प्रदान की जा सकती है. चीन इस का उदाहरण है. उस ने इसी प्रक्रिया को अपनाते हुए दुनिया के विभिन्न देशों में अपनी मौजूदगी दर्ज कराई है और भारत जैसे कई देशों के कुटीर उद्योगों के समक्ष संकट खड़ा किया है. यहां यह देखना जरूरी है कि चीन जिस शिद्दत के साथ अपने लघु उद्योग पर ध्यान दे रहा है, भारत के लिए उस स्तर पर काम करना थोड़ा कठिन है क्योंकि हमारे यहां भ्रष्टाचार जैसा खतरनाक वायरस मौजूद है. हर लेनदेन में भ्रष्टाचार सब से बड़ा बाधक है. निर्माण कार्यों में रिश्वत का प्रतिशत तय है और यदि उस का भुगतान नहीं होता है तो ठेकेदार को दरदर की ठोकरें खानी पड़ सकती हैं. ठेकेदारों का साफ कहना है कि उन्हें कुल भुगतान का 30 से 40 फीसदी चढ़ावा अवैधरूप से संबद्ध विभाग के सरकारी कर्मचारियों को निश्चित रूप से देना पड़ता है. ऐसे में इन से काम को ले कर ईमानदारी की उम्मीद कैसे की जा सकती है. इसी तरह से लघु और मझोले उद्योगों को बढ़ावा देते समय भ्रष्टाचार को रोकने का उपाय नहीं किया जाता तो इस योजना की सफलता की उम्मीद करना बेमानी होगी.

फिल्म समीक्षा

किसकिस को प्यार करूं ?

कपिल शर्मा का कौमेडी शो टीवी पर काफी पौपुलर रहा है. यह फिल्म भी उस के कौमेडी शो जैसी ही है. निर्देशक जोड़ी अब्बास मस्तान ने कपिल शर्मा की लोकप्रियता को भुनाने की कोशिश की है. फिल्म में पूरा फोकस कपिल शर्मा पर ही रखा गया है, हर फ्रेम में वह मौजूद नजर आता है. मगर उस ने ऐसी ऐक्टिंग तो नहीं की है जिसे देख कर दर्शक हंसहंस कर लोटपोट हों, हां, मंदमंद मुसकराया जा सकता है. दरअसल, इस फिल्म की पटकथा काफी कमजोर है. कहानी 90 के दशक जैसी है. कहानी में जिस तरह की सिचुएशन क्रिएट की गई हैं, सब की सब बचकानी लगती हैं. निर्देशकों ने फिल्म बनाने से पहले या तो होमवर्क नहीं किया या फिर उन्होंने दर्शकों को बेवकूफ समझा है. उन्होंने कपिल शर्मा को उन की स्टाइल से बिलकुल भी बाहर नहीं आने दिया है. इसीलिए फिल्म में कुछ नयापन नजर नहीं आता.

कहानी मुंबई में रहने वाले अलगअलग नामों से रहने वाले एक नौजवान कुमार (कपिल शर्मा) की है, जिस की 3-3 बीवियां हैं. ये तीनों शादियां उसे मजबूरी में करनी पड़ती हैं. ये शादियां उस के लिए हादसा हैं. पहली शादी उसे जूही (मंजरी फड़नीस) से इसलिए करनी पड़ी क्योंकि उस का अस्पताल में मरता हुआ पिता अपनी बेटी का हाथ उस के हाथों में दे जाता है. दूसरी शादी उसे सिमरन (सिमरन कौर) से करनी पड़ी. वह धोखे से दूल्हा बना दिया गया. तीसरी शादी उसे अंजलि (साई लोकुर) से इसलिए करनी पड़ी क्योंकि उस के डौन भाई की इच्छा थी. कुमार इन तीनों बीवियों के साथ एक ही बिल्डिंग में अलगअलग नामों से रहता है. जूही के लिए वह शिव है, सिमरन के लिए राम तो अंजलि के लिए कृष्ण. कहानी में ट्विस्ट तब आता है जब उस की पूर्व प्रेमिका दीपिका (एली एवराम) उस से शादी करना चाहती है. कुमार अपने इस पहले प्यार को खोना नहीं चाहता और दीपिका से शादी करना चाहता है. शादी की तैयारियां हो चुकी होती हैं. तभी कुमार के मातापिता, जो 15 साल से अलगअलग रह रहे थे, उस के घर आ धमकते हैं. कुमार अपने पिता (शरत सक्सेना) को अंजलि के घर ठहराता है और मां (सुप्रिया पाठक) को जूही के घर में ठहराता है. एक दिन जूही और अंजलि मांबाबूजी को प्यार भरी बातें करते देख हैरान रह जाती हैं. तभी दीपिका से शादी का दिन आ जाता है. विवाह स्थल पर कुमार की तीनों बीवियों व उस के मातापिता को इकट्ठा होना पड़ता है. अंजलि का डौन भाई भी वहां आ जाता है. कुमार की असलियत सब को पता चल जाती है. वह सब को अपनी शादियों के हादसों के बारे में बताता है. अब चारों बीवियां एकसाथ रहने लगती हैं. मध्यांतर से पहले इस फिल्म की कहानी एक ही ट्रैक पर चलती है लेकिन मध्यांतर के बाद फिल्म में रोचकता कम होने लगती है. फिल्म की पटकथा इतनी ज्यादा लचर है कि हजम नहीं हो पाती. क्लाइमैक्स में भी ऐसा कुछ नहीं है जो हजम हो सके. फिल्म में 2-3 सीन ही दर्शकों को हंसाने में सफल रहे हैं, मसलन, मौल वाला सीन, बालकनी से अंडरवियर गिराने वाला सीन और जन्मदिन वाला सीन. कपिल शर्मा के अभिनय में कुछ भी नयापन नहीं है. चारों महिला किरदारों ने बस काम भर चला लिया है. फिल्म के गाने रफ्तार में रुकावट पैदा करते हैं. छायांकन अच्छा है.

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कट्टीबट्टी ?

जो लोग कंगना राणावत की ‘क्वीन’ और ‘तनु वेड्स मनु रिटर्न्स’ फिल्में देख कर उस की तारीफ कर रहे थे, उन्हें यह फिल्म देख कर निराशा ही होगी. कंगना राणावत ने इस फिल्म में शुरू के आधे घंटे तक तो रोमांटिक कौमेडी की है लेकिन उस के बाद फिल्म ‘सैड’ हो जाती है. फिल्म खत्म होतेहोते दुखांत हो जाती है. नायक इमरान खान को भी फ्रस्ट्रेटेड दिखाया गया है. वह वन साइडेड लव के सिंड्रोम से पीडि़त है और पायल के प्यार में पागल है. फिल्म में सब्जैक्ट नायकनायिका का लिव इन रिलेशन है. दोनों में कभी कट्टी यानी ब्रेकअप हो जाता है तो कभी बट्टी यानी फिर से मिलन होता है. निर्देशक निखिल आडवाणी ने इन दोनों किरदारों को सिरफिरा सा दिखाया है. पायल (कंगना राणावत) और माधव उर्फ मैडी (इमरान खान) कालेज में साथसाथ पढ़ते हैं. दोनों एकदूसरे से प्यार करते हैं और लिव इन रिलेशन में रहने लगते हैं. फिर शुरू होती है छोटीछोटी बातों पर खटपट. पायल माधव को छोड़ कर चली जाती है. माधव तनाव में फिनाइल पी लेता है, मगर बच जाता है. वह रहरह कर पायल को याद करता है.

उधर पायल दिल्ली में एक एनजीओ चला रही है. मैडी को पता चलता है कि पायल की शादी रिक्की से होने वाली है. वह उसे ढूंढ़ता हुआ दिल्ली आता है और शादी रोकने की कोशिश करता है परंतु पायल एक थप्पड़ मार कर उसे जवाब दे देती है. मैडी वापस लौट जाता है. तभी उसे अपनी बहन के बैग से एक कंगन मिलता है जो मैडी के पिता ने पायल को दिया था. उसे समझते देर नहीं लगती कि उस के दोस्त उस से कुछ छिपा रहे हैं, उसे पता चलता है कि पायल को कैंसर है, वह मरने वाली है. वह फिर से पायल से मिलता है और उस के साथ रहने लगता है. पायल की हालत खराब होने लगती है. वह मैडी की बाहों में दम तोड़ देती है. इस फिल्म में निर्देशक ने फ्लैशबैक का सहारा कुछ ज्यादा लिया है. फ्लैशबैक के सीन बारबार आते हैं और झुंझलाहट पैदा करते हैं. निर्देशक निखिल आडवाणी ने पुराने व घिसेपिटे फार्मूले को ही आजमाया है. फिल्म की पटकथा कमजोर है. युवाओं को ध्यान में रख कर बनाई गई इस फिल्म से युवा रिलेट नहीं कर पाते. फिल्म का क्लाइमैक्स इमोशनल है. लेकिन नायिका का मर जाना दर्शकों को नहीं सुहाता. देवदास, पारो और चंद्रमुखी के रोल को परफौर्म करते हुए नायकनायिका पर हंसी तो आती है, साथ ही खीझ भी होती है. फिल्म की रफ्तार भी बहुत सुस्त है. फिल्म का निर्देशन कमजोर है. एक गीत ‘लिप टू लिप दे किसियां’ अच्छा बन पड़ा है. छायांकन अच्छा है.

*मेरठिया गैंगस्टर्स

कुछ साल पहले आई अनुराग कश्यप की फिल्म ‘गैंग्स औफ वासेपुर’ और उस की सीक्वल फिल्म छोटे शहरों के गैंग्स पर बनी थी. उस फिल्म की पटकथा जीशान कादरी ने लिखी थी. उसी ने इस फिल्म की कहानी और संवाद लिखे हैं. जहां ‘गैंग्स औफ वासेपुर’ में काफी खूनखराबा था, वहीं इस फिल्म में शिक्षित युवा पीढ़ी को रातोंरात अमीर बनने के लिए अपराध की दुनिया में आते दिखाया गया है.अकसर बेरोजगारी से त्रस्त हो कर युवा अपराध करने लगते हैं. इस फिल्म के 6 नौजवान कम पढ़ेलिखे हैं, इसीलिए कुछ लोग नौकरी का लालच दे कर उन्हें ठग लेते हैं. उन ठगों को रिश्वत देने के लिए मजबूरन उन्हें लूटपाट का रास्ता अख्तियार करना पड़ता है. जब उन्हें पता चलता है कि वे ठगे गए हैं तो वे खुल कर अपहरण का धंधा करने लगते हैं और मोटी फिरौती लेते हैं. इन युवकों को पकड़ने के लिए इंस्पैक्टर आर के सिंह (मुकुल देव) की ड्यूटी लगाई जाती है. इंस्पैक्टर आर के सिंह इन सभी को धर दबोचता है. सभी को जेल हो जाती है.

यह फिल्म निसंदेह ‘गैंग्स औफ वासेपुर’ जैसी तो नहीं है. निर्देशक जीशान कादरी ने किरदारों का जमावड़ा लगाया है परंतु ये किरदार कच्चे खिलाड़ी हैं. फिल्म की रफ्तार बहुत धीमी है. मध्यांतर के बाद फिल्म ढीली पड़ जाती है. फिल्म की पटकथा काफी बिखरी हुई लगती है. हां, संवाद जरूर अच्छे हैं. सभी कलाकार अपनीअपनी भूमिकाओं में फिट हैं. फिल्म में गीत रफ्तार को कम करते हैं. छायांकन अच्छा है.

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हीरो

‘हीरो’ के इस हीरो को सलमान खान ने अपनी इस फिल्म में लौंच किया है. उस ने इस फिल्म में इस हीरो से बारबार शर्ट भी उतरवाई है, जैसे वह अपनी फिल्मों में खुद उतारता आया है. लेकिन फिर भी बात नहीं बन सकी है. यह हीरो बेदम, बेअसर सा लगता है. निर्देशक ने उस की प्रतिभा बौडी दिखाने में ही जाया कर दी है. दर्शकों को 1983 में आई सुभाष घई की फिल्म ‘हीरो’ याद होगी. उस फिल्म के गाने आज भी दर्शकों की जबान पर आ जाते हैं. यह ‘हीरो’ उसी ‘हीरो’ की औफिशियल रीमेक है.

फिल्म की कहानी घिसीपिटी है. हीरो सूरज (सूरज पंचोली) एक क्रिमिनल पाशा (आदित्य पंचोली) का बेटा है और हीरोइन राधा (अथिया शेट्टी) आईजी श्रीकांत माथुर (तिग्मांशु धूलिया) की बेटी है. पाशा जेल से बाहर आने के लिए अपने बेटे से राधा का अपहरण कराता है. जंगल में रहते हुए राधा को सूरज से प्यार हो जाता है. असलियत पता चलने पर वह सूरज को सरेंडर करने को कहती है. सूरज सरेंडर करता है. उसे 2 साल की जेल हो जाती है. इधर आईजी राधा की शादी एक नौजवान रणविजय से कराने का प्लान बनाता है. जेल से बाहर आने पर सूरज एक जिम खोलता है और आईजी साहब को इंप्रैस करने की कोशिश करता है. उधर रणविजय पाशा को ब्लैकमेल कर उस से 25 करोड़ रुपए हथियाना चाहता है. वह पाशा के हाथों सूरज को मरवाने का प्लान बनाता है लेकिन आईजी को असलियत पता चल जाती है और वह रणविजय को मार कर राधा का हाथ सूरज के हाथ में दे देता है. फिल्म की यह कहानी मध्यांतर से पहले तो ठीकठाक चलती है लेकिन बाद में लुढ़कती, फिसलती हुई औंधे मुंह जा गिरती है. क्लाइमैक्स में खूब मारधाड़ है. क्लाइमैक्स में पाशा का आत्मसमर्पण करना हास्यास्पद लगता है. पटकथा भी अतार्किक ढंग से लिखी गई है. फिल्म में न तो हीरोहीरोइन का प्रेम सही ढंग से उभरता है न ही पितापुत्री के रिश्ते. फिल्म का हीरो आदित्य पंचोली का बेटा है. हीरोइन अथिया शेट्टी भी नई है. वह सुनील शेट्टी की बेटी है. उस का चेहरा भारीभारी सा लगता है. वह हीरो से बड़ी भी लगती है. एक्ंिटग के लिहाज से भी वह जीरो साबित हुई है.फिल्म का लुक अच्छा है. बर्फीले इलाकों की सुंदरता मनमोहक है. कुछेक ऐक्शन सीन भी अच्छे हैं. फोटोग्राफी भी अच्छी है. गीतसंगीत जानदार नहीं है.

पंकज ने जीता विश्व खिताब

बेंगलुरु के 30 वर्षीय बिलियर्ड्स खिलाड़ी पंकज आडवाणी ने एडिलेड में आईबीएसएफ विश्व बिलियर्ड्स चैंपियनशिप का खिताब जीत लिया. यह खिताब उन के कैरियर का 14वां विश्व खिताब है जो उन्होंने सिंगापुर के पीटर गिलक्रिस्ट को 1168 अंकों से हरा कर अर्जित किया.

बिलियर्ड्स भारत में कम प्रचलित है. बिलियर्ड्स या गोल्फ आदि खेलों को अमीरों का खेल माना जाता है. हालांकि अब तो महानगरों में मौल्स, बड़ेबड़े होटलों या फिर क्लबों में इस खेल के खेलने की व्यवस्था होती है पर इस के लिए खेलने वालों को फीस अदा करनी पड़ती है. पर गांवकसबों में रहने वाले शायद ही इस खेल के बारे में कुछ बता पाएं. इस खेल को खेलने के लिए बहुत लंबाचौड़ा हिसाब नहीं है, एक आयताकार टेबल पर छोटी गेंदों की एक निश्चित संख्या और एक लंबी छड़ी की जरूरत होती है जिसे क्यू कहा जाता है. इस खेल के लिए बहुत जगह की भी आवश्यकता नहीं पड़ती. लेकिन इस खेल को ऐसा हाईफाई बना दिया गया है कि गरीब या मध्यवर्ग के लोग इस खेल को खेलने के लिए सोचें भी नहीं. हालांकि अगर कोई खिलाड़ी इस खेल को खेलना चाहे और उस में अगर क्षमता हो तो कोई भी चीज आड़े नहीं आती. ऐसे कई उदाहरण हैं भी. पर इस खेल को खेलना इतना आसान भी नहीं है. इसे खेलने के लिए मानसिक रूप से चुस्तदुरुस्त रहना पड़ता है, रणनीति बनानी पड़ती है और सब से बड़ी बात, इस में धैर्य रखना होता है. पंकज ने इस खिताब से पहले मनोचिकित्सक की राय ली थी. पंकज आडवाणी जैसे अनुभवी खिलाडि़यों को युवाओं को प्रोत्साहित करने के लिए आगे आना चाहिए ताकि इस खेल को ज्यादा से ज्यादा लोकप्रिय बनाया जा सके.

यादों का चिराग

जा रहे हैं तो अपना प्यार देते जाइए

यादों का एक चिराग तो जलाते जाइए

मजाक में हुआ था, मजाक नहीं है प्यार

मजाक में इसे न यों उड़ाते जाइए

माना कि जिंदगी तुम्हारी आसां नहीं रही

अब मेरी दास्तां भी तो सुनते जाइए

छोड़ दिया है मैं ने अपना फैसला तुम पर

अपने हाथों मेरा भविष्य लिखते जाइए

जिंदगी वो नहीं जो हम तुम सोचते हैं

यहां जो हो रहा है बस देखते जाइए

ये क्या तलाशता रहता हूं मैं हरदम

मेरी जिंदगी मुझे वापस करते जाइए

जिंदगी को चार दिन की समझते ही क्यों हो

अरे प्यार में सदियां गुजारते जाइए.

                                    – बालकृष्ण काबरा ‘एतेश’

टिमटिमाते दीये सी आस

किसी के पागलपन की पहचान हो तुम

किसी की जिंदगी का अरमान हो तुम

मुसकराना भले ही कुछ न हो तुम्हारे लिए

किसी की जिंदगी की मुसकान हो तुम

किसी की सब से खूबसूरत रचना हो तुम

किसी की प्रथम और अंतिम अर्चना हो तुम

खुद को भले ही तुम कभी

समझ न सकी हो

पर किसी के लिए अधूरा

अनसुना एक सपना हो तुम

बर्फ से जल उठे जो

किसी की वो प्यास हो तुम

वर्षों की तमन्ना और आस हो तुम

चलना जरा आहिस्ता

अपना वजूद समझ कर

किसी टिमटिमाते दीये की

आखिरी सांस हो तुम

जिंदगी की शुरुआत न सही

समापन तो हो तुम

किसी की मुहब्बत का

एकमात्र समर्पण हो तुम

हजारों चेहरों में खोए

इन चेहरों को गौर से देखो

किसी एक चेहरे के लिए

जीवन का दर्पण हो तुम

महक उठे मिट्टी भी

वो एक बरसात हो तुम

रोशन कर दे जर्राजर्रा

वो पूनम की रात हो तुम

मेरे लिए वजह तो कभी

कुछ थी ही नहीं मगर

जीता हूं जिसजिस के लिए

वो हर बात हो तुम

खुशनुमा सुबह हो

या उस से पहले की सहर हो तुम

वक्त हो पलभर का

या जीवन का हर प्रहर हो तुम

चांद को कह तो दूं

प्रतिमान सुंदरता का मगर

चांद की चांदनी पर

रूप का कहर हो तुम

सिर्फ एक मौसम हो

या पूरी बहार हो तुम

पहली खामोशी हो

या आखिरी पुकार हो तुम

लड़ने की आरजू हो

या मरने की हसरत हो

जीत हो किसी की

या किसी की हार हो तुम.

                        – पूनम

बीसीसीआई में गुटबाजी

बीसीसीआई अध्यक्ष जगमोहन डालमिया के निधन के बाद रिक्त हुए अध्यक्ष पद के लिए पूर्व क्रिकेटरों के बजाय उद्योगपतियों व राजनेताओं के नाम ज्यादा उछाले गए. इस देश की यही विडंबना है कि सब से अधिक पैसे वाली संस्था मानी जाने वाली बीसीसीआई के अहम पदों पर पूर्व खिलाडि़यों को बैठना चाहिए लेकिन उन पर हमेशा से उद्योगपति और राजनेता कुंडली मार कर बैठे रहते हैं. जगमोहन डालमिया भी उद्योगपति थे. एन श्रीनिवासन व्यवसायी हैं जबकि अरुण जेटली, अनुराग ठाकुर, शरद पवार और राजीव शुक्ला सभी नेता हैं.

एक तरफ शरद पवार, अरुण जेटली और अनुराग ठाकुर तो दूसरी तरफ एन श्रीनिवासन का गुट काम करता है. लिखे जाने तक इन सभी गुटों का समर्थन हासिल कर चुके शशांक मनोहर सफल रहे हैं. अनुराग ठाकुर और शरद पवार गुट के साथ आने से एन श्रीनिवासन को एहसास हो गया कि बीसीसीआई में उन का दबदबा कायम नहीं रहने वाला है. वैसे विदर्भ के 57 वर्षीय वकील मनोहर शशांक 2008 से 2011 तक बीसीसीआई के मुखिया रह चुके हैं और उन की छवि साफसुथरी रही है. वे खेलों में भ्रष्टाचार के मामले में आवाज उठाने वालों में से माने जाते हैं. सवाल यह नहीं है कि अध्यक्ष मनोहर शशांक बनें या शरद पवार या एन श्रीनिवासन, सवाल यह है कि इतनी बड़ी खेल संस्था का मुखिया कोई क्रिकेटर क्यों न बने जिसे खेल का अनुभव हो, खेल की बारीकियों को समझता हो और खेल को आगे बढ़ाने में काम करे. लेकिन इन धुरंधरों के आगे पूर्व क्रिकेटर या तो कोच बना दिए जाते हैं या फिर चयन समिति में रहते हैं या फिर कमैंट्री करते हैं.

जो निर्णय उन्हें लेना चाहिए वह निर्णय बीसीसीआई की कुरसी पर कुंडली मार कर बैठे पदाधिकारी लेते हैं जिन्हें खेल से नहीं, पैसों से मतलब होता है. अच्छा होता कि किसी पूर्व खिलाड़ी को अध्यक्ष बनाया जाता ताकि भारतीय क्रिकेट को नई चमक और दिशा मिलती. लेकिन सिर्फ गुटबाजी के चलते ऐसा संभव नहीं हो पाता है. जाहिर है, इस गुटबाजी के चलते खेल अपनी गरिमा खोने लगता है.

जिंदगी बनाएं यादगार

ऐसे लोग बहुत कम हैं जो अपने काम को एंजौय करते हैं. खुद को ही देखिए, सुबह से शाम तक कितना संघर्ष करते हैं, काम करने में कितनी ऊर्जा लगाते हैं तब कहीं अपने संघर्ष पर विजय प्राप्त करते हैं.जीवन में आप गिरें या उठें, इस की जिम्मेदारी आप की है. खुद अपनी अवहेलना करना, खुद को कोसना ठीक नहीं है. किसी भी असफलता के समय अपना चिंतन ही आप की सहायता कर सकता है. हम अपने जीवन के हर अनुभव का विश्लेषण करें तो यह मालूम होगा कि हम जीवन की घटनाओं के हाथों कठपुतली की तरह यहांवहां खिंचते रहते हैं. हम अपने अंदर की आवाज को न सुनते हुए, अपनी आदतों के गुलाम बनते चले जाते हैं.

जीवन को बेहतर बनाएं

हम ऐसा क्या करें कि हमारा जीवन बेहतर से बेहतर बनता जाए. इस सवाल का जवाब इतना मुश्किल भी नहीं है लेकिन जीवन के प्रति सही सोच और नजरिए के अभाव में हमारी मुश्किलें बढ़ती चली जाती हैं. इस के निम्न कारण हैं :

हमारी कथनी और करनी में फर्क होता है. हम कहते कुछ हैं और करते हैं उस के विपरीत. हर सास कहती है, वह बहू को बेटी की तरह मानती है. लेकिन उस का व्यवहार इस बात को प्रमाणित नहीं करता है. दिनरात बहू के साथ कलह और झगड़ा कर के वह अपना संबंध बिगाड़ लेती है. उसी तरह बहू कहने को तो कहती है वह सास को मां की तरह मानती है जबकि अपनी सहेलियों में सास की निंदा कर अपनी नैगेटिव सोच का प्रमाण देती है. करने और सोचने के बीच समानता होनी चाहिए.

कोई भी निराशा ऐसी नहीं है जो आप के विवेक पर हावी हो जाए, इसलिए निराशा के क्षणों में शांति और मानसिक संतुलन को बरकरार रखें.

अपने जीवन में सुधार लाना हमारी जिम्मेदारी है. जीवन के सारे रास्ते सोचने से ही पार नहीं होते हैं, रास्ते तो चल कर ही पार होते हैं. अपने प्रयास को लगातार जारी रखना पड़ता है. अगर प्रयास सुनियोजित ढंग से नहीं किए जाते हैं तो उन से अपेक्षित परिणाम भी हासिल नहीं हो पाते हैं. इसलिए जरूरी है हम प्लानिंग करें और इस प्लान को कार्यान्वित करें.

मशहूर अभिनेत्री असिन ने एक साक्षात्कार में अपने विचार कुछ इस तरह व्यक्त किए हैं, ‘‘इंसान को हमेशा याद रखना चाहिए कि जिंदगी में हर चीज के दो पहलू होते हैं. एक अच्छा और दूसरा बुरा. बुरी चीजों को याद करने से क्या फायदा. क्यों न हम उम्मीद बनाए रखें और सही रास्ते पर आगे बढ़ें. बुरी चीजें पीछे छूटती चली जाएंगी.’’

पौजिटिव नजरिया नहीं अपनाएंगे तब तक सुखी अनुभव नहीं कर पाएंगे. सो, अच्छी चीजों को याद रखें, बुरी चीजों को भूल जाएं.

खुद को बदलें

हमें करने योग्य सभी काम करने शुरू कर देने चाहिए जबकि न करने योग्य कामों को छोड़ देना चाहिए. जब तक हम अपने को बदल नहीं देते, लाख चीजें बदल दें जीवन तो जैसा था वैसा ही रह जाता है. अकसर हम ऐसे काम करने की कोशिश करते हैं जो हमारे सामर्थ्य से बाहर होते हैं, जिन्हें करना हमारे लिए किसी भी हाल में संभव नहीं होता है. फिर निराशा ही हाथ लगती है. ऐसा लक्ष्य बनाएं जो आप की मेहनत द्वारा आप को परिणाम हासिल करने में सहायक हो. हर हाल में प्रसन्न रहें, शिष्ट रहें, सौम्य रहें और मधुर रहें.

खुशी देता आप का काम

संसार से उकताने की कोई बात नहीं है. ठीक से जी लेंगे तो पार हो जाएंगे. बेमन से कुछ करेंगे तो बारबार करना पड़ेगा. आज की जिंदगी में अगर आप जागृति का स्वाद चखना चाहते हैं तो सब से पहले अपनी क्षमताओं को पहचानिए. यह जानिए कि आप जिंदगी से क्या चाहते हैं. वह क्या काम है जिसे करने में आप को सब से अधिक खुशी मिलती है और तब तक निश्ंिचत न हों जब तक आप को इस प्रश्न का उत्तर न मिल जाए. वह व्यक्ति बेईमान है जो कुछ करता नहीं है और फल की आकांक्षा रखता है. पहले यह समझ लेना जरूरी है कि अंधेरा है या नहीं. अंधेरे का मतलब है अज्ञान. अज्ञान का बोध होते ही जागरूकता की यात्रा शुरू हो जाती है. इसे अधूरा जीने के लिए कोई बाध्य नहीं कर सकता.  हम अपने लिए आसान राह चुनते हैं इसलिए अधूरा और बेमानी जीवन जीना शुरू कर देते हैं और उस में ही मजा आने लगता है. संकल्प लीजिए कि जिंदगी में वही करना है जिस के लिए आप बने हैं, वह नहीं करना है जिसे आप पर परिस्थितियों और हालात ने जबरदस्ती थोप दिया है.

सबकुछ मिल सकता है

चंचलता से सहनशक्ति कमजोर पड़ती है. चंचलता कम होगी तो जीवन में स्थिरता आएगी, दुखों में मुसकराने की ताकत आएगी. जीवन में श्रम का जितना महत्त्व है उतना ही अवकाश यानी रिलैक्सेशन का. इसलिए जरूरी है अवकाश का महत्त्व समझा जाए. केवल जीना जरूरी नहीं, बल्कि मनुष्य की तरह जीना जरूरी है. हर मनुष्य में अनंत संभावनाएं होती हैं. अगर उसे मौका मिले और वह कठिन प्रयास करे तो उन्हें उजागर कर सकता है. संसार आप को कठपुतली बनाना चाहता है, वह कभी क्रोध दिलाना चाहता है, कभी जोश में लाना चाहता है. यदि आप में स्थिरता है तो आप सब की बातें सुनेंगे और मुसकराते हुए अपने चुने हुए रास्ते पर आगे बढ़ते जाएंगे. वास्तविक हित वे होते हैं जिन से व्यक्ति बेहतर इंसान बनता है और अपने जीवन को सार्थक बना सकता है. अपने जीवन को गंभीरता से लेने के लिए सर्वप्रथम अपनी कमियों को जाना जाए. यह मुश्किल काम है. ज्यादातर लोगों को अपनी कमियां नजर नहीं आती हैं. व्यक्ति आत्ममंथन द्वारा यह जान सकता है कि उस के कर्तव्य क्या हैं, असमर्थता क्या है. जब कमियां समझ आ जाती हैं तो उन्हें दूर करने के उपाय ढूंढ़ने आसान हो जाते हैं.

हम सब ने अपने अंदर वैलकम लिखा हुआ है. किन बातों के लिए वैल्कम लिखा हुआ है, प्रसन्नता के लिए चैन के लिए, आनंद के लिए, मंगल के लिए. अगर हम नैगेटिव को वैलकम नहीं करते हैं तो यकीन मानिए नैगेटिव और प्रतिकूल परिस्थितियां हमारे जीवन पर हावी नहीं हो सकती हैं. इन सुझावों को अमल में ला कर देखें, आप की जिंदगी एक यादगार बन जाएगी.

अपनी कमियों को जानें

वास्तविक हित वे होते हैं जिन से व्यक्ति बेहतर इंसान बनता है और अपने जीवन को सार्थक बना सकता है. अपने जीवन को गंभीरता से लेने के लिए सर्वप्रथम अपनी कमियों को जाना जाए. यह मुश्किल काम है. ज्यादातर लोगों को अपनी कमियां नजर नहीं आती हैं. व्यक्ति आत्ममंथन द्वारा यह जान सकता है कि उस के कर्तव्य क्या हैं, असमर्थता क्या है. जब कमियां समझ आ जाती हैं तो उन्हें दूर करने के उपाय ढूंढ़ने आसान हो जाते हैं.

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