बीसीसीआई अध्यक्ष जगमोहन डालमिया के निधन के बाद रिक्त हुए अध्यक्ष पद के लिए पूर्व क्रिकेटरों के बजाय उद्योगपतियों व राजनेताओं के नाम ज्यादा उछाले गए. इस देश की यही विडंबना है कि सब से अधिक पैसे वाली संस्था मानी जाने वाली बीसीसीआई के अहम पदों पर पूर्व खिलाडि़यों को बैठना चाहिए लेकिन उन पर हमेशा से उद्योगपति और राजनेता कुंडली मार कर बैठे रहते हैं. जगमोहन डालमिया भी उद्योगपति थे. एन श्रीनिवासन व्यवसायी हैं जबकि अरुण जेटली, अनुराग ठाकुर, शरद पवार और राजीव शुक्ला सभी नेता हैं.
एक तरफ शरद पवार, अरुण जेटली और अनुराग ठाकुर तो दूसरी तरफ एन श्रीनिवासन का गुट काम करता है. लिखे जाने तक इन सभी गुटों का समर्थन हासिल कर चुके शशांक मनोहर सफल रहे हैं. अनुराग ठाकुर और शरद पवार गुट के साथ आने से एन श्रीनिवासन को एहसास हो गया कि बीसीसीआई में उन का दबदबा कायम नहीं रहने वाला है. वैसे विदर्भ के 57 वर्षीय वकील मनोहर शशांक 2008 से 2011 तक बीसीसीआई के मुखिया रह चुके हैं और उन की छवि साफसुथरी रही है. वे खेलों में भ्रष्टाचार के मामले में आवाज उठाने वालों में से माने जाते हैं. सवाल यह नहीं है कि अध्यक्ष मनोहर शशांक बनें या शरद पवार या एन श्रीनिवासन, सवाल यह है कि इतनी बड़ी खेल संस्था का मुखिया कोई क्रिकेटर क्यों न बने जिसे खेल का अनुभव हो, खेल की बारीकियों को समझता हो और खेल को आगे बढ़ाने में काम करे. लेकिन इन धुरंधरों के आगे पूर्व क्रिकेटर या तो कोच बना दिए जाते हैं या फिर चयन समिति में रहते हैं या फिर कमैंट्री करते हैं.
जो निर्णय उन्हें लेना चाहिए वह निर्णय बीसीसीआई की कुरसी पर कुंडली मार कर बैठे पदाधिकारी लेते हैं जिन्हें खेल से नहीं, पैसों से मतलब होता है. अच्छा होता कि किसी पूर्व खिलाड़ी को अध्यक्ष बनाया जाता ताकि भारतीय क्रिकेट को नई चमक और दिशा मिलती. लेकिन सिर्फ गुटबाजी के चलते ऐसा संभव नहीं हो पाता है. जाहिर है, इस गुटबाजी के चलते खेल अपनी गरिमा खोने लगता है.