किसकिस को प्यार करूं ?
कपिल शर्मा का कौमेडी शो टीवी पर काफी पौपुलर रहा है. यह फिल्म भी उस के कौमेडी शो जैसी ही है. निर्देशक जोड़ी अब्बास मस्तान ने कपिल शर्मा की लोकप्रियता को भुनाने की कोशिश की है. फिल्म में पूरा फोकस कपिल शर्मा पर ही रखा गया है, हर फ्रेम में वह मौजूद नजर आता है. मगर उस ने ऐसी ऐक्टिंग तो नहीं की है जिसे देख कर दर्शक हंसहंस कर लोटपोट हों, हां, मंदमंद मुसकराया जा सकता है. दरअसल, इस फिल्म की पटकथा काफी कमजोर है. कहानी 90 के दशक जैसी है. कहानी में जिस तरह की सिचुएशन क्रिएट की गई हैं, सब की सब बचकानी लगती हैं. निर्देशकों ने फिल्म बनाने से पहले या तो होमवर्क नहीं किया या फिर उन्होंने दर्शकों को बेवकूफ समझा है. उन्होंने कपिल शर्मा को उन की स्टाइल से बिलकुल भी बाहर नहीं आने दिया है. इसीलिए फिल्म में कुछ नयापन नजर नहीं आता.
कहानी मुंबई में रहने वाले अलगअलग नामों से रहने वाले एक नौजवान कुमार (कपिल शर्मा) की है, जिस की 3-3 बीवियां हैं. ये तीनों शादियां उसे मजबूरी में करनी पड़ती हैं. ये शादियां उस के लिए हादसा हैं. पहली शादी उसे जूही (मंजरी फड़नीस) से इसलिए करनी पड़ी क्योंकि उस का अस्पताल में मरता हुआ पिता अपनी बेटी का हाथ उस के हाथों में दे जाता है. दूसरी शादी उसे सिमरन (सिमरन कौर) से करनी पड़ी. वह धोखे से दूल्हा बना दिया गया. तीसरी शादी उसे अंजलि (साई लोकुर) से इसलिए करनी पड़ी क्योंकि उस के डौन भाई की इच्छा थी. कुमार इन तीनों बीवियों के साथ एक ही बिल्डिंग में अलगअलग नामों से रहता है. जूही के लिए वह शिव है, सिमरन के लिए राम तो अंजलि के लिए कृष्ण. कहानी में ट्विस्ट तब आता है जब उस की पूर्व प्रेमिका दीपिका (एली एवराम) उस से शादी करना चाहती है. कुमार अपने इस पहले प्यार को खोना नहीं चाहता और दीपिका से शादी करना चाहता है. शादी की तैयारियां हो चुकी होती हैं. तभी कुमार के मातापिता, जो 15 साल से अलगअलग रह रहे थे, उस के घर आ धमकते हैं. कुमार अपने पिता (शरत सक्सेना) को अंजलि के घर ठहराता है और मां (सुप्रिया पाठक) को जूही के घर में ठहराता है. एक दिन जूही और अंजलि मांबाबूजी को प्यार भरी बातें करते देख हैरान रह जाती हैं. तभी दीपिका से शादी का दिन आ जाता है. विवाह स्थल पर कुमार की तीनों बीवियों व उस के मातापिता को इकट्ठा होना पड़ता है. अंजलि का डौन भाई भी वहां आ जाता है. कुमार की असलियत सब को पता चल जाती है. वह सब को अपनी शादियों के हादसों के बारे में बताता है. अब चारों बीवियां एकसाथ रहने लगती हैं. मध्यांतर से पहले इस फिल्म की कहानी एक ही ट्रैक पर चलती है लेकिन मध्यांतर के बाद फिल्म में रोचकता कम होने लगती है. फिल्म की पटकथा इतनी ज्यादा लचर है कि हजम नहीं हो पाती. क्लाइमैक्स में भी ऐसा कुछ नहीं है जो हजम हो सके. फिल्म में 2-3 सीन ही दर्शकों को हंसाने में सफल रहे हैं, मसलन, मौल वाला सीन, बालकनी से अंडरवियर गिराने वाला सीन और जन्मदिन वाला सीन. कपिल शर्मा के अभिनय में कुछ भी नयापन नहीं है. चारों महिला किरदारों ने बस काम भर चला लिया है. फिल्म के गाने रफ्तार में रुकावट पैदा करते हैं. छायांकन अच्छा है.
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कट्टीबट्टी ?
जो लोग कंगना राणावत की ‘क्वीन’ और ‘तनु वेड्स मनु रिटर्न्स’ फिल्में देख कर उस की तारीफ कर रहे थे, उन्हें यह फिल्म देख कर निराशा ही होगी. कंगना राणावत ने इस फिल्म में शुरू के आधे घंटे तक तो रोमांटिक कौमेडी की है लेकिन उस के बाद फिल्म ‘सैड’ हो जाती है. फिल्म खत्म होतेहोते दुखांत हो जाती है. नायक इमरान खान को भी फ्रस्ट्रेटेड दिखाया गया है. वह वन साइडेड लव के सिंड्रोम से पीडि़त है और पायल के प्यार में पागल है. फिल्म में सब्जैक्ट नायकनायिका का लिव इन रिलेशन है. दोनों में कभी कट्टी यानी ब्रेकअप हो जाता है तो कभी बट्टी यानी फिर से मिलन होता है. निर्देशक निखिल आडवाणी ने इन दोनों किरदारों को सिरफिरा सा दिखाया है. पायल (कंगना राणावत) और माधव उर्फ मैडी (इमरान खान) कालेज में साथसाथ पढ़ते हैं. दोनों एकदूसरे से प्यार करते हैं और लिव इन रिलेशन में रहने लगते हैं. फिर शुरू होती है छोटीछोटी बातों पर खटपट. पायल माधव को छोड़ कर चली जाती है. माधव तनाव में फिनाइल पी लेता है, मगर बच जाता है. वह रहरह कर पायल को याद करता है.
उधर पायल दिल्ली में एक एनजीओ चला रही है. मैडी को पता चलता है कि पायल की शादी रिक्की से होने वाली है. वह उसे ढूंढ़ता हुआ दिल्ली आता है और शादी रोकने की कोशिश करता है परंतु पायल एक थप्पड़ मार कर उसे जवाब दे देती है. मैडी वापस लौट जाता है. तभी उसे अपनी बहन के बैग से एक कंगन मिलता है जो मैडी के पिता ने पायल को दिया था. उसे समझते देर नहीं लगती कि उस के दोस्त उस से कुछ छिपा रहे हैं, उसे पता चलता है कि पायल को कैंसर है, वह मरने वाली है. वह फिर से पायल से मिलता है और उस के साथ रहने लगता है. पायल की हालत खराब होने लगती है. वह मैडी की बाहों में दम तोड़ देती है. इस फिल्म में निर्देशक ने फ्लैशबैक का सहारा कुछ ज्यादा लिया है. फ्लैशबैक के सीन बारबार आते हैं और झुंझलाहट पैदा करते हैं. निर्देशक निखिल आडवाणी ने पुराने व घिसेपिटे फार्मूले को ही आजमाया है. फिल्म की पटकथा कमजोर है. युवाओं को ध्यान में रख कर बनाई गई इस फिल्म से युवा रिलेट नहीं कर पाते. फिल्म का क्लाइमैक्स इमोशनल है. लेकिन नायिका का मर जाना दर्शकों को नहीं सुहाता. देवदास, पारो और चंद्रमुखी के रोल को परफौर्म करते हुए नायकनायिका पर हंसी तो आती है, साथ ही खीझ भी होती है. फिल्म की रफ्तार भी बहुत सुस्त है. फिल्म का निर्देशन कमजोर है. एक गीत ‘लिप टू लिप दे किसियां’ अच्छा बन पड़ा है. छायांकन अच्छा है.
*मेरठिया गैंगस्टर्स
कुछ साल पहले आई अनुराग कश्यप की फिल्म ‘गैंग्स औफ वासेपुर’ और उस की सीक्वल फिल्म छोटे शहरों के गैंग्स पर बनी थी. उस फिल्म की पटकथा जीशान कादरी ने लिखी थी. उसी ने इस फिल्म की कहानी और संवाद लिखे हैं. जहां ‘गैंग्स औफ वासेपुर’ में काफी खूनखराबा था, वहीं इस फिल्म में शिक्षित युवा पीढ़ी को रातोंरात अमीर बनने के लिए अपराध की दुनिया में आते दिखाया गया है.अकसर बेरोजगारी से त्रस्त हो कर युवा अपराध करने लगते हैं. इस फिल्म के 6 नौजवान कम पढ़ेलिखे हैं, इसीलिए कुछ लोग नौकरी का लालच दे कर उन्हें ठग लेते हैं. उन ठगों को रिश्वत देने के लिए मजबूरन उन्हें लूटपाट का रास्ता अख्तियार करना पड़ता है. जब उन्हें पता चलता है कि वे ठगे गए हैं तो वे खुल कर अपहरण का धंधा करने लगते हैं और मोटी फिरौती लेते हैं. इन युवकों को पकड़ने के लिए इंस्पैक्टर आर के सिंह (मुकुल देव) की ड्यूटी लगाई जाती है. इंस्पैक्टर आर के सिंह इन सभी को धर दबोचता है. सभी को जेल हो जाती है.
यह फिल्म निसंदेह ‘गैंग्स औफ वासेपुर’ जैसी तो नहीं है. निर्देशक जीशान कादरी ने किरदारों का जमावड़ा लगाया है परंतु ये किरदार कच्चे खिलाड़ी हैं. फिल्म की रफ्तार बहुत धीमी है. मध्यांतर के बाद फिल्म ढीली पड़ जाती है. फिल्म की पटकथा काफी बिखरी हुई लगती है. हां, संवाद जरूर अच्छे हैं. सभी कलाकार अपनीअपनी भूमिकाओं में फिट हैं. फिल्म में गीत रफ्तार को कम करते हैं. छायांकन अच्छा है.
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हीरो
‘हीरो’ के इस हीरो को सलमान खान ने अपनी इस फिल्म में लौंच किया है. उस ने इस फिल्म में इस हीरो से बारबार शर्ट भी उतरवाई है, जैसे वह अपनी फिल्मों में खुद उतारता आया है. लेकिन फिर भी बात नहीं बन सकी है. यह हीरो बेदम, बेअसर सा लगता है. निर्देशक ने उस की प्रतिभा बौडी दिखाने में ही जाया कर दी है. दर्शकों को 1983 में आई सुभाष घई की फिल्म ‘हीरो’ याद होगी. उस फिल्म के गाने आज भी दर्शकों की जबान पर आ जाते हैं. यह ‘हीरो’ उसी ‘हीरो’ की औफिशियल रीमेक है.
फिल्म की कहानी घिसीपिटी है. हीरो सूरज (सूरज पंचोली) एक क्रिमिनल पाशा (आदित्य पंचोली) का बेटा है और हीरोइन राधा (अथिया शेट्टी) आईजी श्रीकांत माथुर (तिग्मांशु धूलिया) की बेटी है. पाशा जेल से बाहर आने के लिए अपने बेटे से राधा का अपहरण कराता है. जंगल में रहते हुए राधा को सूरज से प्यार हो जाता है. असलियत पता चलने पर वह सूरज को सरेंडर करने को कहती है. सूरज सरेंडर करता है. उसे 2 साल की जेल हो जाती है. इधर आईजी राधा की शादी एक नौजवान रणविजय से कराने का प्लान बनाता है. जेल से बाहर आने पर सूरज एक जिम खोलता है और आईजी साहब को इंप्रैस करने की कोशिश करता है. उधर रणविजय पाशा को ब्लैकमेल कर उस से 25 करोड़ रुपए हथियाना चाहता है. वह पाशा के हाथों सूरज को मरवाने का प्लान बनाता है लेकिन आईजी को असलियत पता चल जाती है और वह रणविजय को मार कर राधा का हाथ सूरज के हाथ में दे देता है. फिल्म की यह कहानी मध्यांतर से पहले तो ठीकठाक चलती है लेकिन बाद में लुढ़कती, फिसलती हुई औंधे मुंह जा गिरती है. क्लाइमैक्स में खूब मारधाड़ है. क्लाइमैक्स में पाशा का आत्मसमर्पण करना हास्यास्पद लगता है. पटकथा भी अतार्किक ढंग से लिखी गई है. फिल्म में न तो हीरोहीरोइन का प्रेम सही ढंग से उभरता है न ही पितापुत्री के रिश्ते. फिल्म का हीरो आदित्य पंचोली का बेटा है. हीरोइन अथिया शेट्टी भी नई है. वह सुनील शेट्टी की बेटी है. उस का चेहरा भारीभारी सा लगता है. वह हीरो से बड़ी भी लगती है. एक्ंिटग के लिहाज से भी वह जीरो साबित हुई है.फिल्म का लुक अच्छा है. बर्फीले इलाकों की सुंदरता मनमोहक है. कुछेक ऐक्शन सीन भी अच्छे हैं. फोटोग्राफी भी अच्छी है. गीतसंगीत जानदार नहीं है.