भारत के मैदानी भागों की रबी की फसल जौ के गुणों की वजह से इसे खास भोजन माना जाता है. भोजन में जौ के लगातार इस्तेमाल से खून में कोलेस्ट्राल की मात्रा कम होती है, जिस से दिल का दौरा मानसिक तनाव, हृदय रोग और मधुमेह में काफी हद तक फायदा होता है. जौ का महत्त्व इस में मौजूद घुलनशील रेशों की वजह से है, जोकि इन बीमारियों को रोकने में खास योगदान देते हैं. जौ की फसल बोआई से कटाई तक तमाम कीटों व रोगों का शिकार होती रहती है, जिस से फसल की पैदावार में कमी आ जाती है.
हानि पहुंचाने वाले कीट
कर्तन कीट (एग्राटिस एप्सिलान) : इस कीट के प्रौढ़ गहरेभूरे रंग के 25 मिलीमीटर आकार के होते हैं. मादा कीट अपने अंडे जमीन में देती है. अंडों से गिडारें निकल कर जमीन पर पड़ी पत्तियों पर रहती हैं. ये गिडारें पौधों की जड़ों को जमीन की सतह से काट देती हैं, जिस से पौधे सूख जाते हैं. दिन के समय में गिडारें जमीन की दरारों व पत्तियों में छिप जाती हैं और रात में दरारों से निकल कर फसल को हानि पहुंचाती हैं.
रोकथाम
* खेतों के पास प्रकाशप्रपंच 20 फेरोमान ट्रैप प्रति हेक्टेयर की दर से लगा कर प्रौढ़ कीटों को आकर्षित कर के नष्ट किया जा सकता है.
* शाम के समय खेतों के बीचबीच में घासफूस के छोटेछोटे ढेर लगा देने चाहिए. रात में जब सूंडि़यां खाने के लिए निकलती हैं, तो बाद में इन्हीं में छिपती हैं, जिन्हें घास हटा कर आसानी से नष्ट किया जा सकता है.
* प्रकोप बढ़ने पर इंडोसल्फान 35 ईसी (1.50-2.00 मिलीलीटर प्रति लीटर) या क्लोरोपायरीफास 20 ईसी 1 लीटर प्रति हेक्टेयर या नीम का तेल 3 फीसदी की दर से छिड़कें.
गुजिया कीट : इस कीट के प्रौढ़ भूरे रंग के होते हैं, जिन की लंबाई 4 से 5 मिलीमीटर और चौड़ाई 2 मिलीमीटर होती है. मादा कीट जमीन में अंडे देती है. गिडार व प्यूपा अवस्थाएं जमीन में ही बीतती हैं. गुजिया कीट का हमला असिंचित इलाकों में ज्यादा होता है. इस कीट के प्रौढ़ व सूड़ी छोटे पौधों को जमीन की सतह से काट कर नष्ट करते हैं, जिस से पौधे सूख जाते हैं. 3-4 हफ्ते के बाद पौधे इस कीट से क्षतिग्रस्त नहीं होते हैं. ज्यादा प्रकोप होने पर कभीकभी फसल की दोबारा बोआई भी करनी पड़ती है.
रोकथाम
* खेतों के पास प्रकाशप्रपंच 20 फेरोमोन ट्रैप प्रति हेक्टेयर की दर से लगा कर प्रौढ़ कीटों को आकर्षित कर के नष्ट किया जा सकता है.
* खेतों के बीचबीच में घासफूस के छोटेछोटे ढेर शाम के समय लगा देने चाहिए. रात में जब सूंडि़यां खाने के चक्कर में निकलेंगी, तो बाद में इन्हीं में छिपेंगी. इस सूंडि़यों को घास हटा कर आसानी से नष्ट किया जा सकता है.
* गुजिया कीट का हमला बढ़ने पर इंडोसल्फान 35 ईसी (1.50-2.0 मिलीलीटर प्रति लीटर) या क्लोरोपायरीफास 20 ईसी 1 लीटर प्रति हेक्टेयर या नीम का तेल 3 फीसदी की दर से छिड़कें.
दीमक (ओडोंटोटर्मिस ओबेसेस) : दीमक से असिंचित इलाकों में जौ की फसल को ज्यादा नुकसान होता है. दीमक करीब 6 मिलीमीटर लंबी व मटमैलेसफेद रंग की होती है. दीमक फसल की छोटी अवस्था से फसल पकने तक नुकसान पहुंचाती है. यह खेत की सतह से कुछ नीचे पौधे को काट कर नष्ट करती है, जिस से पूरा पौधा सूख जाता है. अधिक प्रकोप होने पर कभीकभी फसल की दोबारा बोआई करनी पड़ती है.
रोकथाम
* प्रभावित खेत में समयसमय पर सिंचाई करते रहें.
* खेत में हमेशा गोबर की अच्छी तरह सड़ी हुई खाद डालें.
* 1 किलोग्राम बिवेरिया व 1 किलोग्राम मेटारिजयम को करीब 25 किलोग्राम गोबर की सड़ी हुई खाद में अच्छी तरह मिला कर छाया में 10 दिनों के लिए छोड़ दें, इस के बाद प्रभावित खेत में प्रति एकड़ की दर से बोआई से पहले इस्तेमाल करें.
* सिंचाई के समय इंजन से निकले हुए तेल की 2-3 लीटर मात्रा का इस्तेमाल करें.
* प्रकोप अधिक होने पर क्लोरोपाइरीफास 20 ईसी की 3-4 लीटर मात्रा को रेत में मिला कर प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करें.
* बीजों को बोआई से पहले इमिडाक्लोप्रिड 70 डब्ल्यूएस 0.1 फीसदी से उपचारित करें.
गेहूं तनामक्खी (एथरिगोना सोकटा) : इस कीट के प्रौढ़ छोटे हैं. मादा कीट अंडे जमीन के पास तनों पर व कभीकभी पत्तियों की निचली सतह पर देती है. अंडों से 2 से 3 दिनों में सूंड़ी निकल आती है. सूंड़ी पत्तियों के निचले भाग के तने में घुस कर पौधे के अंदर के हिस्से को खा कर नुकसान पहुंचाती है.
रोकथाम
* खेत में फसलचक्र अपनाएं और फसलचक्र में चना, अलसी या गोभीवर्गीय फसल लगाएं और एक ही खेत में लगातार जौ की फसल न बोएं.
* खेत में पानी की भरपूर मात्रा होने पर इस कीट का प्रकोप कम होता है.
* जौ की फसल 15 नवंबर के बाद बोएं.
* कीटनाशी रसायन मोनोक्रोटोफास 36 फीसदी एसएल की 650 मिलीलीटर या साइपरमेथ्रिन 25 फीसदी की 350 मिलीलीटर मात्रा से प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें.
* कार्बारिल 10 फीसदी डीपी 25 किलोग्राम का प्रति हेक्टेयर की दर से बुरकाव करें.
गुलाबी तनाभेदक कीट : इस कीट की गिडारें तने में घुस कर सभी अंदरूनी हिस्सों को खाती रहती हैं, जिस से पौधे का मुख्य तना सूख जाता है, जिसे डेडहर्ट कहते हैं. मादा पतंगी पत्तियों की निचली सतह व तने पर अंडे देती है. अंडे छोटे, गोल व सफेद रंग के होते हैं, जो बाद में गुलाबी रंग के हो जाते हैं. पूरी वयस्क गिडार गुलाबी रंग की व लगभग 1.4 सेंटीमीटर लंबी होती है, प्यूपा तने के अंदर ही रहता है. पूरा जीवनचक्र 6 से 7 हफ्ते में पूरा हो जाता है.
रोकथाम
* फसल को जमीन से मिला कर काटना चाहिए, जिस से कम से कम ठूंठ बचें और कीट ठूंठों के अंदर न रह पाएं.
* फसल की कटाई के बाद खेत की गहरी जुताई करें व इस के बाद उस में पानी भर दें ताकि तनाछेदक की सभी बची सूंडि़यां मर जाएं व अगली फसल को नुकसान न पहुंचा पाएं.
* खेत में 20 फेरोमोन ट्रैप प्रति हेक्टेयर के हिसाब से लगाएं ताकि तनाछेदक के प्रौढ़ नर ट्रैपर में इकट्ठे हो कर मरते रहें.
* तमाम विधियां अपनाने के बाद भी यदि तनाछेदक कीट का प्रकोप खत्म न हो, तो कारटाप हाइड्रोक्लोराइड 4 जी की 18 किलोग्राम मात्रा प्रति हेक्टेयर के हिसाब से सूखे रेत या राख में मिला कर खेत में बिखेरें.
माहू कीट : जौ की फसल पर माहू कीट का प्रकोप जनवरी के दूसरे हफ्ते तक होता है. माहू छोटा कोमल शरीर वाला व हरे मटमैले भूरे रंग का कीट है, जिस के झुंड पत्तियों, फूलों, डंठलों व पौधे के अन्य कोमल भागों पर चिपके रहते हैं. ये रस चूस कर पौधों को नुकसान पहुंचाते हैं.
रोकथाम
* माहू का प्रकोप होने पर पीले चिपचिपे ट्रेप का प्रयोग करें, ताकि माहू ट्रेप पर चिपक कर मर जाएं.
* परभक्षी काक्सीनेलिड्स या सिरफिड या क्राइसोपरला कार्निया का संरक्षण कर 50,000-1,00,000 अंडे या सूंडि़यां प्रति हेक्टेयर की दर से छोड़ें.
* नीम का अर्क 5 फीसदी या 1.25 लीटर नीम का तेल 100 लीटर पानी में मिला कर छिड़कें.
* बीटी का 1 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें.
* इंडोपथोरा व वर्टिसिलयम लेकानाई इंटोमोपथोजनिक फंजाई (रोगकारक कवक) का छिड़काव करें.
* जरूरत होने पर मैलाथियान 50 ईसी या डाइमेथोएट 30 ईसी या मेटासिस्टाक्स 25 ईसी की 1.25-2.0 मिलीलीटर मात्रा का प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करना चाहिए.
सैनिक कीट (माइथिमना सपरेटा) : सैनिक कीट का प्रकोप फसल पर कभीकभी होता है. इस से फसल को बहुत नुकसान होता है. इस का प्रकोप फसल पकने के कुछ समय पहले होता है. इस कीट की गिडारें पत्तियों को खाती हैं. ये दिन में मिट्टी के ढेलों व दरारों में रहती हैं और रात को झुंड में निकल कर तनों व बालियों को काट कर तबाह कर देती हैं.
रोकथाम
* खेत में खड़े पुरानी फसल के अवशेषों को जला कर नष्ट कर देना चाहिए.
* खेत के आसपास खड़े खरपतवारों को उखाड़ कर नष्ट कर देना चाहिए.
* कीटनाशी रसायन डायक्लोरवास 76 फीसदी 500 मिलीलीटर या क्विनालफास 25 ईसी 1 लीटर या कार्बारिल 50 फीसदी डब्ल्यूपी की 3 किलोग्राम मात्रा को 700 लीटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें.
जौ की बीमारियां
जौ का गेरुई या रतुआ रोग : यह 2 प्रकार का होता है, पीला गेरुई रोग व काला गेरुई रोग.
इस रोग के लक्षण जनवरीफरवरी के दौरान ज्यादा दिखाई देते हैं. पत्तियों पर पीले व भूरे रंग का चूर्ण भर जाता है, जो हवा में फट कर फैल जाता है और दूसरे पौधों में भी रोग फैल जाता है.
रोकथाम
* इंडोफिल 2.5 किलोग्राम या बाविस्टीन 1 किलोग्राम या वेलेटान 1 किलोग्राम या मेथमेजेव 2.5 किलोग्राम या जिनेव 2.5 किलोग्राम को 1000 लीटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए. दूसरा छिड़काव 15 दिनों बाद करना चाहिए.
* रोगरोधी किस्में उगानी चाहिए. जौ की रोगरोधी किस्में के 560 हरितमा, के 508 प्रगति, के 551 ऋतंभरा वगैरह हैं.
* फसलचक्र अपना कर भी इस रोग से बचाव किया जा सकता है. मिश्रित फसलों में गेहूं और जौ को मिला कर बोने से यह रोग कम होता है.
जौ का कंडुआ रोग : यह 2 प्रकार का होता है, आवृत कंडुआ व अनावृत कंडुआ.
इस के लक्षण बालियां निकलने के बाद दिखाई पड़ते हैं. अनावृत कंडुआ से फफूंदी के असंख्य बीजाणु हवा में फैल जाते हैं. आवृत कंडुआ आंतरिक बीजजनित होता है.
रोकथाम
* रोगी पौधे को उखाड़ कर गड्ढों में गाड़ देना चाहिए या उसे जला कर नष्ट कर देना चाहिए.
* कार्बंडाजिम या कार्बाक्सिन या वीटावैक्स की 2.5 ग्राम मात्रा से प्रति किलोग्राम की दर से बीजों को उपचारित कर के बोआई करनी चाहिए.
* रोगरोधी प्रजातियां बोनी चाहिए. कुछ रोगरोधी प्रजातियां हैं ज्योति, अंबर, विजया आजाद, के 141, के 560, के 409, जाग्रति, लखन, के 329, के 1149 छिलका रहित, के 508, के 603 वगैरह.
पत्ती का धारीदार रोग (स्ट्राइप रोग) : पौधों की पत्तियों का हरापन खत्म हो कर पीली धारियां बन जाती हैं, जो बाद में गहरे भूरे रंग में बदल जाती हैं. इसे आसानी से पहचाना जा सकता है.
रोकथाम
इस का इलाज कंडुआ रोग की तरह किया जाता है.
धब्बेदार स्पाट ब्लाच जालिकावत धब्बा रोग नेक ब्लाच : इस रोग की वजह से पत्तियों पर अंडाकार भूरे रंग के धब्बे पड़ते हैं, जिन्हें शुरू में पहचानना मुश्किल होता है. बाद में धब्बे मिल कर धारियां बन जाती हैं.
रोकथाम
* इस रोग की रोकथाम भी धारीदार रोग या कंडुआ रोग की तरह ही करनी चाहिए.
जौ का मोल्या रोग : इस रोग से पौधे कहींकहीं अलग दिखाई देते हैं. यह रोग निमेटोड से होता है. इस के असर से पौधे पीले व लालिमा लिए नजर आते हैं. जड़ों का विकास भी कम हो जाता है. जड़ें खेत में गहराई तक नहीं पहुंच पाती हैं. फसल देखने में लगता है जैसे किसी जरूरी पोषक तत्त्व की कमी हो.
रोकथाम
* इस की रोकथाम के लिए जौ गेहूं की फसल कई सालों तक नहीं उगानी चाहिए.
* अप्रैलजून के दौरान खेत की जुताई कर के खाली छोड़ देना चाहिए. फसलचक्र अपनाना चाहिए.
* खेत में फ्यूमीगेशन करना चाहिए. इस के लिए डीडीटी फ्यूमीजेट का इस्तेमाल 300 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से या निमेजान डीवीसीपी का इस्तेमाल 45 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से करना चाहिए.
– ऋषिपाल व सीएस प्रसाद