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जूट की थैलियों में पैकेज वाला खाद्यान्न

सरकार पर्यावरण के अनुकूल माने जाने वाले जूट और इस से बनने वाले उत्पादों को बढ़ावा देने के लिए खाद्य सामग्री की पैकेजिंग के लिए जूट से बने थैलों के इस्तेमाल को अनिवार्य कर रही है. इस क्रम में आर्थिक मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति ने खाद्य सामग्री की पैकेजिंग में जूट की थैलियों का इस्तेमाल अनिवार्य कर दिया है. इस फैसले के अनुसार, खाद्य सामग्री बनाने वाली कंपनियां अपने उत्पाद का 90 फीसदी पैकेजिंग अनिवार्य रूप से जूट की थैलियों में करेंगी. इसी तरह से चीनी मिलों को 20 फीसदी उत्पादन में जरूरी तौर पर जूट का इस्तेमाल करना होगा. खाद्यान्न पैकेजिंग में 10 प्रतिशत की छूट का प्रावधान जूट की उपलब्धता की कमी को ध्यान में रखते हुए किया गया है.

प्लास्टिक थैलियों की पैकेजिंग से पर्यावरण को होने वाले नुकसान को कम करने की दिशा में इसे क्रांतिकारी कदम माना जा रहा है. प्लास्टिक की थैलियां कूड़े का पहाड़ खड़ा कर रही हैं और वे नष्ट नहीं होतीं जबकि  जूट से बना सामान कूड़ेदान में पहुंचते ही नष्ट हो जाता है.

दुनिया को कूड़ाघर बनाने की चीन की नीति

चीन विकास के नाम पर दुनिया को तबाह करने वाली नीति पर चल रहा है. वह अपने विकास की ऐसी योजना पर काम कर रहा है जिस के कारण पूरी दुनिया कूड़े के ढेर में तबदील हो जाएगी लेकिन वह समृद्धि की राह पर तेजी से बढ़ेगा. चीन सरकार ने हाल ही में अपने इस्पात और रासायनिक पदार्थों के आयात व निर्यात को बढ़ावा देने के लिए करों में कटौती की है. इस से स्टील के सामान का उस का निर्यात बढ़ेगा. यूरोप, अमेरिका तथा भारत के साथ ही दुनिया के लगभग सभी मुल्कों में उस के सस्ते और कम टिकाऊ सामान की भारी मांग है. कर में छूट की नीति से उस का जल्दी खराब होने वाला माल पूरी दुनिया में तेजी से फैलेगा जो दुनिया को कूड़ादान बनाना शुरू कर देगा.

चीन की कंपनियों ने नवंबर तक लगातार 45वें माह अपने सामान की कीमतें घटाई हैं. नवंबर में उस ने करीब 5 लाख टन एल्युमिनियम और इस्पात से निर्मित सामान का निर्यात किया है जिस से उस के निर्यात में 15 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है. एल्युमिनियम और स्टील का निर्यात रिकौर्ड स्तर की तरफ बढ़ रहा है. यह ठीक है कि चीन में निर्मित सामान भारत के साथ अन्य देशों में खूब बिक रहा है लेकिन सस्ती दरों पर बिकने वाला उस का सामान टिकाऊ बिलकुल नहीं है इसलिए वह लोकप्रिय नहीं है. लेकिन चीन को गुणवत्ता तथा लोकप्रियता से कोई सरोकार नहीं है, उसे तो बाजार से पैसा लूटना है. विदेशी मुद्रा कमानी है. इस नीति से वह पैसा तो बना रहा है लेकिन दुनिया की बरबादी का कारण भी बन रहा है.

जीवन की मुसकान

मेरे भाई की पोस्टिंग सीआरपीएफ में श्रीनगर में थी. वहां उस ने अपने साथी को कुछ रुपए उधार दिए थे. दोनों ने बातोंबातों में आपस में बताया कि मेरी बहन भिलाई में रहती है और उस के साथी ने बताया कि वहीं उस के मामा रहते हैं. बाद में भाई की कंपनी (बटालियन) का ट्रांसफर दिल्ली हो गया और साथी का रायपुर. आपस में संपर्क टूट गया था. एक दिन उस का वह साथी मेरे घर भिलाई आया और पूरे पैसे वापस कर दिए. मैं आश्चर्यमिश्रित खुशी से भर गई. हम सोचते थे कि वे पैसे अब मिलने वाले नहीं हैं और कहां वह महाशय हमें खोज कर दे कर गए.

इस घटना से हम को यह सबक मिला कि दुनिया में अभी भी अच्छे लोग हैं, इंसानियत जिंदा है और उसी के दम पर दुनिया कायम है.

पूनम यादव, दुर्ग (छ. ग.)

*

मैं बीएड की पढ़ाई कर रही थी. घर से कालेज काफी दूर था. एक दिन मैं कालेज से घर जा रही थी. पता नहीं कैसे मेरा दुपट्टा रिकशे के पहिए में लिपटता जा रहा था. जब तक मैं कुछ समझती और रिकशे वाले को बताती, तब तक दुपट्टा मेरे गले में फांसी की तरह फंस गया था. मेरी आवाज निकल नहीं पा रही थी. तभी एकाएक सामने से चिल्लाते हुए कपड़े की दुकान के मालिक दौड़ते हुए आए और रिकशे को रोका और मुझे संभाल कर दुकान पर ले गए. पानी पिला कर आश्वस्त किया और तब जाने दिया.

उस दिन लगा कि आज भी लोगों में अच्छाई बाकी है.

रुचि गुप्ता, झांसी (उ.प्र.)

*

मेरी एक सहेली की बेटी नेहा की शादी एक संपन्न परिवार में हुई थी. मैं भी उस की शादी में शामिल होने जयपुर गई थी. बेटी की खुशी को देख कर सभी लोग बहुत खुश थे. एक दिन मुझे पता चला कि नेहा की शादी को 1 साल भी पूरा नहीं हुआ था कि ऐक्सिडैंट में उस के पति की मृत्यु हो गई.

मुझे पता चला तो मैं अपनी सहेली से मिलने गई. नेहा के विषय में पूछने पर उस ने बताया कि नेहा का कुछ दिन पहले उस की ससुराल वालों ने दूसरा विवाह कर दिया है. हम लोग तो यह सोचसोच कर परेशान थे कि बेटी के आगे के जीवन के बारे में क्या निर्णय लें. लेकिन उन की इस परेशानी को नेहा की सास ने उसे अपनी बेटी मान कर दूसरा विवाह करने की बात कह कर दूर कर दिया.

नेहा अपनी नई जिंदगी में अपनी सास के समझदारी भरे निर्णय के कारण खुश है. यह सुन कर लगा कि समाज में अभी भी अच्छे लोग हैं जिन के कारण ही जीवनरूपी इस गुलशन में बहारें आती रहती हैं.     

अनु जैन, तिमारपुर (दिल्ली)

तुम भी महक जाओगे

मैं मोहब्बत भरा गीत हूं

मुझ को गाओ, महक जाओगे

पंख पंछी गगन नाप कर

चोंच भरभर चहक जाओगे

खुशियों की सांकलें बज उठीं

झोलियां खोल दौड़ो

सभी दुख सकुचाए से हैं खड़े

दिल में जगह दो अभी

पैर के नीचे हो जो धरा

आसमां तक महक जाओगे

दूर रहना बहुत मुझ से तुम

पास आना बहुत सोच कर

मैं तरल हूं बहुत ही सरल

उग्र ज्वाला भरी देह

झेल पाए न मुझ को अगर

बिन मौसम दहक जाओगे.

गंगा और पोंगापंथ की सफाई मुहिम

‘कौन कहता है कि आसमान में सूराख नहीं हो सकता, एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो…’ एक कविता की इन लाइनों को गुड्डू बाबा बिहार की राजधानी पटना में यथार्थ पर उतार रहे हैं. वे पूजापाठ वाले बाबा नहीं हैं, बल्कि उन की सफेद दाढ़ी और बालों की वजह से उन का घरेलू नाम गुड्डू ही गुड्डू बाबा के तौर पर मशहूर हो गया है. उन के नाम के साथ भले ही बाबा जुड़ा हुआ है लेकिन वे असल में ढोंगी बाबाओं की पोलपट्टी खोलने में लगे हुए हैं. वे गंगा नदी के साथसाथ उस से जुड़े पोंगापंथ की गंदगी को साफ करने और आबोहवा को बचाने की मुहिम में पिछले 17 सालों से दिनरात लगे हुए हैं.

सफेद झक बाल और दाढ़ी के साथ सफेद लिबास में उन की शख्सीयत को देख कर ही अंदाजा लग जाता है कि वे कुछ अलग ही किस्म के इंसान हैं और उन का काम भी औरों से अलग है. उन का असली नाम तो विकास चंद्र है लेकिन वे गुड्डू बाबा के नाम से मशहूर हैं. वे पूजापाठ के लिए बनी मूर्तियों समेत लावारिस लाशों को गंगा में बहाने के विरोध में पिछले 17 सालों से लड़ाई लड़ रहे हैं.

‘गंगा बचाओ अभियान’ संस्था बना कर वे साल 1998 से गंगा को पाखंड और आडंबरों से बचाने की मुहिम चला रहे हैं. वे बताते हैं कि 31 मई, 1999 का दिन था, वे गंगा में नाव में घूम रहे थे. अचानक ही पटना मैडिकल कालेज ऐंड हौस्पिटल के पिछले हिस्से में कुत्तों के भौंकने की आवाजें सुनाई पड़ीं. उन्होंने वहां पहुंच कर देखा तो हौस्पिटल के पोस्टमौर्टम रूम के पीछे कटीफटी लावारिस लाशें रखी हुई हैं और कुछ लोग उन लाशों को उठा कर गंगा नदी में फेंक रहे हैं. उसी दिन से उन्होंने गंगा को बचाने की लड़ाई शुरू करने की ठान ली.

52 साल के विकास चंद्र कहते हैं कि वे गंगा नदी की आरती नहीं करते, बल्कि मूर्तियों, लाशों और शहर के गंदे पानी को उस में बहाने से रोकने के लिए लोगों को जागरूक करने में लगे हुए हैं. उन की मुहिम की वजह से पटना हाईकोर्ट ने उन्हें ‘पब्लिक स्प्रिटेड सिटीजन’ और ‘ह्विसिलब्लोअर’ का खिताब दिया है. रिलायंस इंडस्ट्रीज उन्हें ‘रीयल हीरो’ की उपाधि दे कर सम्मानित कर चुकी है. विकास कहते हैं कि सम्मान और पैसा उन के लिए कोई माने नहीं रखता, उन का मकसद तभी पूरा होगा जब हर कोई गंगा की अहमियत को समझेगा और उस में गंदगी, कचरा और लाशें नहीं फेंकेगा. हर साल गंगा में करीब 70 हजार लावारिस लाशें बहा दी जाती हैं. जबकि सरकार की तरफ से लावारिस लाशों को जलाने या दफनाने के लिए अलगअलग राज्यों में 300 से 1 हजार रुपए तक प्रति लाश मिलते हैं.

उन्हें इस बात की सब से ज्यादा तकलीफ है कि गंगा में गंदगी की सब से बड़ी वजह पाखंड और पोंगापंथ है. गंभीर बीमारियों से मरने वालों और नवजात बच्चों की लाशों को गंगा में बहा देने का रिवाज है. धर्म के ठेकेदारों के बनाए इन वाहियात नियमकायदों ने गंगा को सब से ज्यादा गंदा किया है. इस के अलावा बिहार में हर साल देवीदेवताओं की करीब 1 लाख मूर्तियां गंगा में फेंकी जाती हैं. पूजापाठ के बाद पूजा के सामानों, फूलों और मालाओं को गंगा में फेंका जाता है. इंसानों की लावारिस लाशों और मरे हुए जानवरों को गंगा में बहाने पर तो लंबी लड़ाई के बाद अदालत ने रोक लगा दी है लेकिन मूर्तियों और पूजापाठ के सामानों को गंगा में फेंकने पर रोक लगाने के लिए लंबी लड़ाई लड़ने की दरकार है. वे गुस्से में कहते हैं, ‘‘पोंगापंथ के धंधेबाजों ने गंगा को डस्टबिन बना कर रख दिया है.’’ पिछले 25 सालों के दौरान गंगा की सफाई पर 20 हजार करोड़ रुपए बहा दिए गए लेकिन गंगा मैली की मैली है.

गंगा के किनारे विकास चंद्र के साथ घूमने पर गंगा को साफ रखने की उन की दीवानगी से रूबरू हुआ जा सकता है. रोज नदी के किनारे पड़ी लावारिस लाशों को जमा कर वे जला देते हैं और जहांतहां बिखरे पूजापाठ के सामानों को उठा कर एक जगह जमा करते हैं और मिट्टी में दबा देते हैं.
यह सच है कि गंगा की आरती पर हजारोंलाखों रुपए और समय बरबाद किया जाता है पर आरती करने वालों को गंगा की गंदगी नहीं दिखाई देती है.

पटना शहर के 29 नालों से रोज 500 एमएलडी गंदा पानी गंगा में बहाया जाता है. असल में तो पाखंडी तबका नाले की ही आरती उतार रहा है. आरती करने वालों की आंखों पर पोंगापंथ की पट्टी बंधी होती है, उन्हें कुछ दिखाई ही नहीं देता है.

गैर मोटर वाहनों से ही लौटेगा सड़कों पर लोकतंत्र

दिल्ली की दिन पर दिन होती जहरीली हवा अकेला कारण नहीं है जिस से झुंझला कर सुप्रीम कोर्ट ने और इस से पहले हाईकोर्ट ने दिल्ली में बढ़ते प्रदूषण पर रोक लगाने के लिए कुछ बेहद जरूरी व कड़े कदम उठाने के निर्देश दिए. इस से पहले भी इसी साल चैत के महीने में कश्मीर में बाढ़ का कहर खौफनाक रहा था. इस से लाखों लोग अपना घरबार छोड़ कर अन्य सुरक्षित जगहों पर जाने को

मजबूर हुए थे. सैकड़ोें लोगों की इस से मौत हुई थी. भूस्खलन और बर्फीले तूफान से भी लोगों ने अपने को अपने ही घर में असुरक्षित महसूस किया था. पिछले अप्रैलमई में उत्तर प्रदेश व देश के कुछ अन्य राज्यों में असमय बारिश से चैती फसलें नष्ट हुई थीं जिस से हताशनिराश किसान आत्महत्या पर उतारू हो गए थे. पिछले कुछ दशकों से पूरी दुनिया में जलवायु परिवर्तन के चलते बाढ़, सूखा, महामारी, अकाल का प्रकोप तबाही मचा रहा है.

इस जलवायु परिवर्तन में जिन कारकों को कुसूरवार माना जा रहा है उन में से एक बड़ा कारक है दुनियाभर में बढ़ती मोटर वाहनों की तादाद. वाहनों से निकलने वाला धुआं अनेक बीमारियों का सबब बन रहा है. शहरी क्षेत्रों में तो यह जानलेवा साबित हो रहा है. देश की राजधानी के बारे में हालफिलहाल जो वायु प्रदूषण के कुछ अध्ययन सामने आए हैं उन से पता चलता है कि यहां सीएनजी से वाहनों के चलाए जाने के फलस्वरूप जो पर्यावरण, प्रदूषण में तात्कालिक सुधार दिखा था, अब उस का असर खत्म हो चुका है. बढ़ती मोटरगाडि़यों के चलते दिल्ली की आबोहवा फिर से इतनी दूषित हो चुकी है कि यह फेफड़े में पहुंच कर श्वास संबंधी अनेक बीमारियां पैदा कर रही है. अब तो डाक्टर ऐसे गंभीर रोगियों को दिल्ली छोड़ कर अन्यत्र रहने की सलाह दे रहे हैं.

ठीक ऐसी परिस्थितियों में गैर मोटर वाहनों की उपस्थिति उम्मीद की किरण दिखती है. पदयात्रा, साइकिल, साइकिल रिकशा, साइकिल रिकशा ट्रौली, हाथ ठेला, रेहड़ी, पशु व पशुचालित वाहनों की मदद से हम अपने यात्रियों और सामानों की आवाजाही को न केवल सुनिश्चित कर सकते हैं बल्कि शहर व देहात के पर्यावरण को बहुत हद तक संतुलित कर सकते हैं. भारत के संदर्भ में तो इन का और भी खास महत्त्व है. न केवल पर्यावरण की दृष्टि से, बल्कि अन्यान्य पहलुओं की दृष्टि से भी गैर मोटर वाहनों की अहमियत है. हमारे देश में आमजन की बहुतायत है और ज्यादातर आबादी की आर्थिक स्थिति इतनी खराब है कि यह सस्ती से सस्ती सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था का उपयोग करने में भी सक्षम नहीं है.

रोजगार की भूमिका

एक तो भारी बेरोजगारी है और जिन के पास रोजगार है उन की आमदनी इतनी कम है कि वह नून, तेल, लकड़ी में ही खर्च हो जाती है. ऐसे लोगों की गतिशीलता के साधन पदयात्रा और साइकिल ही हैं. गैर मोटर वाहनों के चालक कौन हैं? ये गरीब लोग हैं. ये इन के लिए न केवल परिवहन के साधन हैं, बल्कि रोजीरोटी के भी साधन हैं.

रिकशा चालक, ठेला चालक, कुली, तांगारेहड़ी चालक, ऊंटगाड़ी, भैंसागाड़ी व बैलगाड़ी चालक सभी ऐसे लोग हैं जो गांव से आ कर रोजीरोजगार के लिए इन वाहनों को चला रहे हैं. छोटीबड़ी फैक्टरियों की बंदी के बाद इस व्यवसाय में बहुतों को रोजगार मिल रहा है. कुछ लोग चालक बन कर, कुछ लोग मालिक बन कर तो कुछ लोग मिस्त्री बन कर अपनी जीविका चला रहे हैं. कुछ लोग इन गैर मोटर वाहनों के सहारे अपना व्यवसाय चला रहे हैं. फेरी, रेहड़ी या साइकिल  के जरिए घूमघूम कर सामानों की बिक्री का मामला हो या हाटबाजार में खड़े हो कर सामान बेचने का, गैर मोटर वाहन से इन्हें भारी सुविधा होती है.

ज्यादा यात्राएं छोटी दूरी की होती हैं. इन्हें पदयात्रा या साइकिल से पूरा किया जा सकता है. तांगा और साइकिल रिकशे सस्ते व आसानी से उपलब्ध वाहन हो सकते हैं यदि नगर पालिकाएं इन्हें परिचालन की सुविधा उपलब्ध कराएं. हमारे शहरों की सड़कें जाम इसलिए हैं कि गैर मोटर वाहनों को सड़क से बाहर करने की नीति पर अमल हो रहा है.

अभी कुछ ही वर्ष पहले दिल्ली से तांगे बाहर किए गए हैं. साइकिल रिकशे अपने वजूद के लिए लगातार संघर्ष कर रहे हैं. मोटरकारों और अन्य मोटर वाहनों के प्रति इस तरह का रवैया अपनाया जा रहा है कि लोग दसपांच मिनट की दूरी तय करने के लिए भी इन का उपयोग कर रहे हैं, बाकी समय ये वाहन सड़क और फुटपाथ पर या कालोनी की गलियों में खड़े रहते हैं.

इस से आवागमन में सब को असुविधा होती है. यहां तक कि सैकड़ों किलोमीटर प्रति घंटा की रफ्तार से चलने के लिए बनाई गई मोटरगाडि़यां यों रेंगती हुई चलने को बाध्य होती हैं कि पैदल यात्री इन से आगे निकल जाते हैं. व्यस्त समय में महानगरों में कारों और मोटरसाइकिलों के पहिए भी जाम में फंसने पर यों ही रुके रहते हैं जैसे अन्य वाहनों के पहिए. यदि पदयात्रा, साइकिल और सार्वजनिक परिवहन (जिन में बस, आटो रिकशे और साइकिल रिकशे भी शामिल हैं) के अनुकूल सड़कों को बनाया जाए और अनावश्यक निजी मोटर वाहनों को हतोत्साहित किया जाए तो हमारा शहरी जीवन ज्यादा सुकूनभरा हो सकता है.

हमारा समाज बाजारवादी नीतियों का यों शिकार है कि लोग बैंक से ऋण ले कर मोटर वाहन खरीद रहे हैं. किस्त दर किस्त बैंक ऋण चुकाते हुए लोग अपने जरूरी खर्चों में भी कटौती कर रहे हैं. लोग मोटर वाहन इसलिए नहीं खरीद रहे हैं कि उन्हें इन की जरूरत है, बल्कि वे इसलिए खरीद रहे हैं कि इन से उन के रुतबे में इजाफा होता है. यह संसाधनों की बरबादी नहीं तो और क्या है? हमारा समाज यों झूठी शानोशौकत का शिकार हो कर कर्जखोरी की गिरफ्त में आ रहा है.

गैर मोटर वाहन हमारी जिंदगी को ज्यादा खुशहाल बनाते हैं. पदयात्री हों या साइकिल चालक या अन्य कोई गैर मोटर चालक, खुले वातावरण में होते हैं और इस तरह अन्य लोग इन के करीब होते हैं कि हमेशा संवाद की गुंजाइश रहती है. पैदल यात्री और साइकिल चालक सफर के दरम्यान भी एकदूसरे से बातचीत करते रहते हैं. ये सब आसपास की चीजों पर निगाह डालते चलते हैं. मोटर वाहन इस बात की इजाजत नहीं देते. उस की तेज गति उस के चालक और सवार को सड़क के अन्य प्रयोगकर्ताओं से संपर्क बने रहने में बाधक होती है. इस अलगाव का मन पर इस तरह प्रभाव होता है कि इस वाहन का चालक अपने को विशिष्ट मानने लगता है. यह समाजीकरण की राह में रोड़ा है.

यही कारण है कि जैसेजैसे सड़क पर मोटरगाडि़यां बढ़ रही हैं, सड़क पर मारपीट की घटनाएं भी बढ़ रही हैं. ये झगड़ेफसाद इस कदर हिंसक होते जा रहे हैं कि जानलेवा हमले में बदल रहे हैं. एकदूसरे से आगे निकलने की होड़ में वाहन एकदूसरे से टकराते हैं और छोटीबड़ी दुर्घटनाएं अंजाम पाती हैं. इन में अपंग होने से ले कर मृत्यु तक होना साधारण बात है.

सड़क दुर्घटनाएं बीमारी की एक नई किस्म का रूप अख्तियार कर चुकी हैं. दुनियाभर में हर साल जितने लोग युद्ध में मारे जा रहे हैं उस से कहीं ज्यादा सड़क दुर्घटनाओं में. इन दुर्घटनाओं में गैर मोटर वाहनों के प्रयोगकर्ता मोटर वाहनों की चपेट में आ कर मरते हैं. शायद ही कहीं ऐसा देखासुना गया हो कि किसी गैर मोटर वाहन से टकराने से किसी की मृत्यु हुई या कोई गंभीर रूप से घायल हुआ हो.

पशु और पशु आधारित वाहनों को सड़क पर चलने का अधिकार होने से जैव विविधता के लिए भी अनुकूल वातावरण बनता है. हम इन की सुरक्षा कर के अलग अभयारण्य बनाने की जरूरत से भी बच सकते हैं. गैर मोटर वाहनों के बजाय मोटर वाहनों, खासकर निजी मोटर वाहनों, को तरजीह देने से सड़कों को नैटवर्क बड़ा करने और उन को चौड़ा करने का भी दबाव बना हुआ है. इस प्रक्रिया में जिन सड़कों पर पहले से वृक्ष हैं उन्हें भी काटना और हटाना पड़ रहा है. चौराहों पर फ्लाईओवर और अंडरपास बनाने से भी जाम की समस्या से नजात नहीं मिल रही है.

इस तरह, एक तरफ हम प्रकृति से लगातार दूर होते जा रहे हैं, पंछियों की चहचहाहट से वंचित हो रहे हैं तो दूसरी ओर हमारे शहर कंक्रीटों का टीला बनते जा रहे हैं. बढ़ती मोटर गाडि़यों की वजह से फ्लाईओवर और अंडरपास में भी जाम लगा रहता है, इस से इन के निर्माण के तर्क को बट्टा लग रहा है. साथ ही सड़क निर्माण की प्रक्रिया पर भी सवाल उठने लगे हैं.

हमारे शहर तभी खुशहाल हो सकते हैं जब इस शहर में रहने वाले सभी लोगों को सड़क पर समान नागरिक की हैसियत हासिल हो. लोगों को अमीरगरीब के रूप में देखने के बजाय वाहन के प्रयोगकर्ता के तौर पर देखने की जरूरत है. यह श्रेणीकरण भी वाहनों की सुरक्षा के लिए होना चाहिए, उन के बीच भेदभाव के लिए नहीं. दुनिया के बहुतेरे देश सड़क पर लोकतंत्र की इस भावना का आदर करते हैं. एक ही आदमी विभिन्न समयों में विभिन्न तरह का यात्री होता है- कभी पदयात्री, कभी साइकिल चालक तो कभी कार चालक या कार यात्री. वह कभी बस से सफर करता है, कभी रेल से तो कभी मैट्रो से. जब वाहन बेचने वालों की सुविधा के बजाय वाहन में सफर करने वालों की समान हैसियत की सुविधा के अनुसार सड़कें होंगी तो उन का स्वरूप अपनेआप लोकतांत्रिक हो जाएगा.

बैलगाडि़यां, ऊंटगाडि़यां, हाथ ठेले, रिकशा ट्रौलियां इत्यादि ऐसे वाहन हैं जो सामानों की आवाजाही में मददगार हैं. संपूर्ण परिवहन नीति का खाका बनाते समय इन के उपयोग के बारे में गहराई से विचार करना चाहिए. हम ईंधन के मामले में आत्मनिर्भर नहीं हैं. हमें बड़ी मात्रा में पैट्रोलियम पदार्थों का आयात करना पड़ता है. इस मदद में बहुत सारा पैसा खर्च करना पड़ता है. गैर मोटर वाहनों का कुशलतापूर्वक उपयोग हमें परिवहन के मामले में भी आत्मनिर्भर बनाएगा और ईंधन की बचत करने में भी सहायक होगा. इन वाहनों के संदेश सुनो तो बड़े काम के हैं, और इन्हें अनदेखा करो तो ये बीते युग के वाहन हैं. सब से पुराना वाहन पैर है– क्या इसे आप काट कर अलग कर देंगे? नहीं न, सोचिए, गहराई से सोचिए और गैर मोटर वाहनों पर पुनर्विचार कीजिए.

भारतीय जनता पार्टी: चुनौतियों का चक्रव्यूह

राजनीति के रंगमंच पर भाजपा का परदा उठ रहा है. केंद्र में भाजपा की सरकार को 2 साल होने वाले हैं. तमाम चुनावी वादे नेपथ्य में चले गए हैं. भाजपा की कमियां खुल कर सामने आने लगी हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा चौतरफा चुनौतियों से घिरे नजर आने लगे हैं. भाजपा की पहली चुनावी चुनौती है जिस में उसे चुनाव दर चुनाव मात मिल रही है. उस की दूसरी चुनौती पार्टी के अंदर से उठने वाली आवाजें हैं जो मोदी के करीबी लोगों को कठघरे में  खड़ी कर रही हैं. तीसरी चुनौती बेलगाम महंगाई व जनता की अन्य परेशानियां हैं. मोदी खुद की चमक खोते नजर आ रहे हैं. मोदी के अंधभक्त समर्थक जिस तरह से गांधी परिवार पर हमला कर रहे हैं उस से लोगों में कांग्रेस के प्रति संवेदना बढ़ने लगी है. राममंदिर पर संघ परिवार का बढ़ता दबाव चौथी चुनौती के रूप में सामने है. इस का संतुलन बनाने के लिए मोदी पाकिस्तान के साथ संबंधों को सुधारने की पहल करते नजर आ रहे हैं. संघ परिवार ने मोदी को 2 साल की छूट दी, अब वह देने के मूड में नहीं है. ताजा मामला डीडीसीए में भ्रष्टाचार को ले कर  है जिस में केंद्रीय मंत्री अरुण जेटली के घिरने से मोदी और भाजपा चुनौतियों के चक्रव्यूह में फंस गए हैं.

आप बनाम जेटली की लड़ाई में जेटली का पलड़ा तब भारी पड़ता दिखा जब सतर्कता विभाग के प्रधान सचिव चेतन सांघी की अगुआई में 3 सदस्यीय समिति ने विस्तार से दी अपनी रिपोर्ट में अरुण जेटली का नाम नहीं लिया. सतर्कता विभाग के नाम लेने पर भाजपा के एम जे अकबर ने कहा कि जिस फाइल को ले कर आप के नेता हंगामा कर रहे थे उस में जेटली का नाम तक नहीं है. हां, सतर्कता समिति ने डीडीसीए पर लगे आरोपों को देखते हुए सिफारिश कर दी कि डीडीसीए पर लगे आरोपों को देखते हुए बीसीसीआई को इसे तुरंत निलंबित कर देना चाहिए. वित्त मंत्री अरुण जेटली पूरे प्रकरण पर अपनी प्रतिक्रिया देते कहते हैं, ‘‘मैं ने डीडीसीए से एक पैसे का फायदा नहीं लिया. अध्यक्ष के तौर पर पूरे कार्यकाल में अपना वाजिब खर्च भी डीडीसीए से नहीं मांगा.’’ अरुण जेटली को दी गई राहत असल में छलावा है. जांच रिपोर्ट ने पाया है कि पैसे की गड़बड़ है पर यह नहीं ढूंढ़ा कि किस ने की. अत: अरुण जेटली इस रिपोर्ट का केवल प्रचारात्मक लाभ उठा सकते हैं.

चुनावी हार की चुनौती

लोकसभा चुनावों में लंबी छलांग लगाने वाली भाजपा को लोकसभा चुनाव के बाद एक के बाद एक कई चुनावी हार का सामना करना पड़ा. इस से भाजपा के डरे हुए केंद्र्रीय नेतृत्व में पहले जैसा आत्मबल नजर नहीं आता है. भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह का रणनीतिक कौशल गायब है. केवल बिहार चुनाव ही नहीं, अलगअलग राज्यों के छोटेछोटे चुनावों में भी भाजपा की हार ने पार्टी नेताओं के आत्मबल को तोड़ना शुरू कर दिया है. दिल्ली में एकतरफा हार के बाद मध्य प्रदेश की रतलाम संसदीय सीट और गुजरात के स्थानीय निकाय चुनाव में भी भाजपा की पोल खुल चुकी है. 2019 के लोकसभा चुनाव के पहले उत्तर प्रदेश सहित कई जगहों पर विधानसभा के चुनाव होने हैं. अगर इन प्रदेशों में भाजपा को सफलता नहीं मिली तो 2019 में भाजपा की वापसी कठिन हो जाएगी. 2019 में केंद्र में दोबारा वापसी के नजरिए से उत्तर प्रदेश भाजपा के लिए सब से उम्मीदों वाला प्रदेश है.

उत्तर प्रदेश के पंचायत चुनावों में भाजपा को अपेक्षित सफलता नहीं मिली. इसलिए भाजपा उत्तर प्रदेश को ले कर भी चिंता में है. भाजपा के लिए इस प्रदेश का बड़ा महत्त्व है. यहां देश की सब से अधिक लोकसभा सीटें हैं. ऊपरी तौर पर भाजपा के सभी नेता यह मानते हैं कि भाजपा के लिए प्रदेश में कोई चुनौती नहीं है. विधानसभा चुनाव में उन की पार्टी जीतेगी. सवालों के तर्क को कसौटी पर कसते जब सवाल होता है तो भाजपा नेताओं का आत्मबल कमजोर दिखने लगता है. 

दबी जबान में भाजपा नेता स्वीकार करते हैं कि केंद्र सरकार की योजनाओं का सही परिणाम सामने न आने से जनता में पार्टी के प्रति पहले जैसा उत्साह नहीं रह गया है. बिहार में जदयू की वापसी ने उत्तर प्रदेश की अखिलेश सरकार में यह आत्मबल पैदा कर दिया है कि उस की वापसी हो सकती है. बिहार चुनावों के बाद अखिलेश सरकार ने अपने प्रचारप्रसार और कामकाज में उम्मीद से बेहतर काम करना शुरू कर दिया है.

राममंदिर का राग

केंद्र सरकार कह रही है कि अयोध्या के राममंदिर विवाद प्रकरण में वह कोर्ट के फैसले का इंतजार करेगी. भाजपा से जुडे़ संघ परिवार के दूसरे संगठन राममंदिर का राग छेड़ने में जुट गए हैं. विश्व हिंदू परिषद नेता अशोक सिंघल की मृत्यु के बाद दूसरे नेताओं में इस बात की होड़ लग गई कि अशोक सिंघल की जगह कौन लेगा? अशोक सिंघल जैसा कद हासिल करने के लिए संघ से जुडे़ तमाम नेता राममंदिर के राग को छेड़ने लगे हैं. संघ प्रमुख के राममंदिर पर दिए गए बयान के बाद अयोध्या में पत्थरों के पहुंचने की खबर को देखते हुए उत्तर प्रदेश की सरकार सचेत हो गई है. मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने उच्च स्तरीय मीटिंग में इस बात की सचाई को परखा. उत्तर प्रदेश सरकार के अफसर भी मानते हैं कि भाजपा और उस से जुडे़ दूसरे संगठन राममंदिर के राग को 2017 विधानसभा चुनाव के समय तेज कर सकते हैं.

भाजपा अपने नेताओं द्वारा यह संदेश देने की कोशिश करेगी कि राममंदिर को ले कर पार्टी गंभीर है. साल 2016 उत्तर प्रदेश और भाजपा दोनों के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है. 2017 के विधानसभा चुनाव के पहले तैयारी के लिए यही सब से अहम समय होगा. भाजपा के पास बताने के लिए ऐसा कुछ खास नहीं है जिसे ले कर वह विधानसभा चुनाव में जा सके. ऐसे में वोट का धार्मिक धु्रवीकरण ही उस को लाभ पहुंचा सकता है. विधानसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश में त्रिकोणीय संघर्ष है. महंगाई नियंत्रण के मुद्दे पर भाजपा की केंद्र सरकार पूरी तरह से फेल हो चुकी है. ऐसे में उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव कठिन साबित होंगे.

संघ और मोदी के रिश्ते

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और नरेंद्र मोदी के रिश्ते उतारचढ़ाव भरे हैं. नरेंद्र मोदी संघ के सच्चे स्वयंसेवक रहे हैं. कम उम्र में ही उन का संघ में प्रवेश हुआ. मोदी के जीवन पर संघ और उस की नीतियों का गहरा प्रभाव है. ऐसे में मोदी और संघ को अलगअलग कर के देखना उचित नहीं होगा. अगर नरेंद्र मोदी के कामकाज को देखें तो एक तरफ यह लगता है कि वे संघ के दबाव वाले प्रधानमंत्री के रूप में काम करेंगे. गुजरात में मुख्यमंत्री रहते हुए मोदी और संघ के रिश्तों को देखें तो साफ लगता है कि मोदी संघ के दबाव में काम नहीं करेंगे. गुजरात में 2002 के दंगों के आरोपों को पीछे छोड़ते मोदी ने अपनी छवि एक विकासपरक नेता की बनाई. इस दौरान संघ और विश्व हिंदू परिषद के नेताओं तक को दरकिनार कर दिया था. नरेंद्र मोदी ने जब राष्ट्रीय स्तर पर अगुआई करने की योजना तैयार की उस समय वे फिर से संघ के साथ आए. ऐसे में संघ ने 2014 के लोकसभा चुनावों में नरेंद्र मोदी को आगे कर के अपना पूरा दमखम पार्टी की जीत में लगा दिया.

दरअसल, संघ के पास 2014 का लोकसभा चुनाव जीतने का एक सुनहरा मौका था. कांग्रेस सरकार का सहयोग कर रहे दलों के मंत्रियों के घोटाले और महंगाई को ले कर जनता में गुस्सा था. संघ को पता था कि जनता का यह गुस्सा भाजपा के हित में है. अगर भाजपा यह मौका चूक जाती तो आने वाले कई साल तक उसे वापसी करने का मौका नहीं मिलता. भाजपा की जीत और नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने में संघ की अपनी प्रमुख भूमिका थी, जिस को देखने से यह पता चलता है कि मोदी और संघ के रिश्ते बहुत अच्छे हैं. कई बडे़ जानकार भी मानते हैं कि मोदी और संघ एक पार्टनरशिप डीड की तरह से काम कर रहे हैं, जिस से दोनों के ही हित पूरे होते रहें. मोदी के प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए 2 साल की गतिविधि को देखें तो इस पार्टनरशिप डीड का पता चल जाता है.

मोदी के प्रधानमंत्री बनते ही संघ के संकेत पर कई सांसदों व मंत्रियों ने संघ के मुद्दों को हवा देने का काम किया. इस में धारा 370 से ले कर हिंदुत्व तक सभीकुछ शामिल था. जिस तरह से इन मुद्दों पर मोदी ने खामोशी ओढ़ी उस से लग गया कि मोदी संघ के दबाव में हैं. मोदी ने संस्कृति और शिक्षा जैसे संघ के प्रिय विषय उस के लिए छोड़ दिए.

प्रधानमंत्री के कामकाज पर संघ का असर न दिखे, इस के लिए भाजपा ने कश्मीर में सरकार बनाने के लिए मुफ्ती मोहम्मद सईद की पीपुल्स डैमोक्रेटिक पार्टी से हाथ मिलाया. पाकिस्तान को ले कर संघ की विचारधारा से अलग रिश्ते बनाने की कोशिश की. एक तरह से देखें तो प्रधानमंत्री पद के पहले 2 साल मोदी ने संस्कृति और शिक्षा जैसे मसले संघ पर छोड़ दिए और विकासवादी एजेंडे पर अपनी सोच से चलना शुरू कर दिया. सरकार चलाने के साथ ही मोदी ने पार्टी चलाने का भी अधिकार अपने पास रखा. संघ की विचारधारा के लोगों को संस्कृति और शिक्षा जैसे महकमों की डोर सौंप कर बाकी काम मोदी ने अपने पास रखा. बिहार चुनाव की हार के बाद संघ और मोदी को अपनी पार्टनरशिप डीड पर फिर से सोचना है. चुनावी हार और जनता की नाराजगी के बीच मोदी कितनी मजबूती से अपनी बात रख पाएंगे, यह देखने वाली बात होगी. संघ शिक्षा और संस्कृति के अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने का काम करेगा, उस का मकसद हिंदुत्व और राममंदिर का निर्माण होगा.

नया साल पुरानी चुनौतियां

नए साल में भाजपा की केंद्र सरकार को पुरानी चुनौतियों से रूबरू होना पडे़गा. जिस तरह से वह कांग्रेस के कार्यकाल में संसद नहीं चलने देती थी उसी तरह से अब कांग्रेस किसी न किसी मुद्दे पर भाजपा को घेर कर संसद का सत्र नहीं चलने दे रही है. भाजपा के लिए जीएसटी बिल पारित कराना बड़ी चुनौती है. इसी तरह से भूमि अधिग्रहण बिल भी संसद में समिति के पास पड़ा है. छत्तीसगढ़, राजस्थान और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्रियों के बाद केंद्र में वित्त मंत्री के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप से भाजपा को निबटना होगा. साथ ही, यह खयाल भी रखना होगा कि नए मसले सामने न आएं. महंगाई को कम करना, देश में विकास को गति देना और कालेधन का मसला भी भाजपा की लोकप्रियता को तय करेगा. चुनाव जीतहार में अहम रोल होगा. देश में असंवेदनशीलता जैसा मुद्दा दोबारा न उठे, इस का प्रयास करना होगा.

सरकार बीच में न आए

पार्किंग की समस्या सारे देश में गंभीर होती जा रही है. पहले खाते पीते घरों में एक कार होती थी, अब खातेपीते घर वे हैं, जिन में हर सदस्य के लिए एक कार है और सदस्यों में 2 साल के बच्चे भी शामिल हैं. घरों में तो पार्किंग की सुविधा दशकों पहले हुआ करती थी, अब तो सड़कों पर भी नहीं है और देश को मंदिर बनाने से फुरसत हो तो पार्किंग बनाए न.

घर बनाते हुए पार्किंग की सुविधाएं जुटाना एक आफत और खर्चीला काम है पर अब जरूरी हो गया है. मगर हमारे नीतिनिर्धारक भूसे में कुत्तों की तरह बैठे रहते हैं और न करते हैं न करने देते हैं. अगर घरों में 2 मंजिला तहखाने और ऊपर 2 मंजिलों में पार्किंग के लिए अनुमति दे दी जाए तो बहुत लोग पार्किंग तैयार करना शुरू कर देंगे.

किराए पर देने की इजाजत हो तो वे बाहरी लोगों को भी दे देंगे बशर्ते कि कौरपोरेशन और पुलिस वाले हिस्सा मांगने न आ जाएं.

उसी तरह मौल्स, स्टोरों, सिनेमाघरों, अस्पतालों को भरपूर पार्किंग की जगह बनाने की छूट दे दी जाए तो समस्या का हल निकल सकता है. आखिर लोगों ने कच्ची झोंपडि़यों की जगह सीमेंट के पक्के मकान बनाने की आदत भी तो डाली ही है. पेड़ के नीचे बैठ कर बतियाने की जगह लोगों ने पक्के कौफी कैफे डे, फूड कोर्ट व क्लब बनाए ही हैं. जरूरत हो तो सब कुछ संभव हो सकता है पर सरकार जहां बीच में हो तो समझ लो कुछ भी नहीं हो सकता.

यह न भूलें कि गृहिणियों को पार्किंग की सुविधाअसुविधा का सामना ज्यादा करना पड़ता है. दफ्तरों में तो इस काम के लिए आदमी रख दिए जाते हैं पर गृहिणियों के लिए पड़ोसिन से इस बारे में विवाद के लिए खड़ा हो जाना पड़ जाता है.

उन्हें बच्चों की सुरक्षा भी देखनी है, अपनी भी, गाड़ी की भी और घर की भी. लगता ही नहीं कि हमारी सरकारें और कौरपोरेशनें इस ओर ध्यान दे रही हैं.

पार्किंग बनाने की अनुमति लेने जाओ तो सरकार नियमों, सावधानियों का मोटा पुलिंदा पकड़ा देगी. टैक्स बढ़ा देगी. बाजारों में व्यावसायिक पार्किंग स्थल बनाओ तो सर्विस टैक्स, बिक्री कर थोप देगी और साथ में इंस्पैक्टरों की फौज. तब कारमालिकों की सेवा से ज्यादा इंस्पैक्टरों की सेवा जरूरी हो जाती है.

दिल्ली में कौरपोरेशन ने कुछ मौलों को पार्किंग का किराया लेने से मना किया है, क्योंकि उन के नक्शे में पार्किंग लिखी थी और वह किराए पर दी जाएगी, ऐसा कहीं नहीं लिखा था. यह बेवकूफी वाला फरमान है. मौल को पैसा नहीं मिलेगा तो व्यापारी वहां सामान भर देगा. हमारा व्यापारी इतना उदार नहीं कि बिना पैसे वह गाड़ी खड़ी करने की जगह दे देगा जिसे बनाने में उस ने क्व3,000 से 4,000 प्रति वर्गफुट खर्च किए हों.

जरूरत यह है कि लोगों को अपने काम करने दो. सरकार किसी तरह के बिखराव और परेशानी को दूर करने में असमर्थ रही है. लोगों को अपनी जमीन पर अपनी मरजी से मकान बनाने दो, फिर चाहे वे 2 मंजिला हों या 20 मंजिला. मकानों का मनचाहा इस्तेमाल करने दो. यह देश वैसे ही न नियम मानता है न पड़ोसी की सुविधाएं. फिर सरकार क्यों बीच में आए? 

वैडिंग औनली इन साउथ दिल्ली, पर आखिर क्यों

‘‘उद्योगपति वैश्य परिवार से संबंध रखने वाले 25 वर्षीय एमबीए स्मार्ट लड़के के लिए सुयोग्य कन्या चाहिए. लड़के के पिता का साउथ दिल्ली की पौश कालोनी में घर है.’’

‘‘खत्री सिख परिवार की 23 वर्षीय गोरी, सुंदर, फैशन डिजाइनर कन्या के लिए व्यापारी/पेशेवर वर की तलाश है. परिवार की साउथ दिल्ली में कोठी है.’’

इन दोनों विज्ञापनों के कंटैंट में साउथ दिल्ली वाले कोण के रूप में ही समानता देखी. अगर आप वैवाहिक विज्ञापनों के ताजा कंटैंट का अध्ययन करेंगे तो पाएंगे कि दिल्ली के साउथ दिल्ली वाले हिस्से के बाशिंदों ने अपने को बाकी दिल्ली से अलग कर लिया है. वे जब अपनी या अपने किसी करीबी की शादी की बात करते हैं, तो साउथ दिल्ली के भीतर ही रहना चाहते हैं. वे दिल्ली के बाकी हिस्सों से बचते हैं. औनली साउथ दिल्ली के विचार को ले कर प्रतिबद्ध साउथ दिल्ली वाले जाति, मजहब की दीवारों को भी गिरा चुके हैं. वे एक हैं और एक तरह से सोच रहे हैं. उन का नारा है, औनली साउथ दिल्ली.

बैंड, बाजा, बरात का सीजन लौट आया है. शादियों के कार्ड मिलने शुरू हो गए हैं. जाहिर है आप के घर में भी इस मुद्दे पर विवाद शुरू हो गया होगा कि आप को किस शादी को अटैंड करना है और किसे छोड़ना है. बहरहाल, साउथ दिल्ली वालों ने अपने लिए कुछ अलिखित नियम बना लिए हैं. वे शादी को ले कर इन नियमों का बड़ी शिद्दत से पालन भी करने लगे हैं. साउथ दिल्ली वालों की ख्वाहिश रहती है, अपने लाड़ले या लाडली के लिए साउथ दिल्ली की काल्पनिक दीवारों के भीतर ही आइडियल मैच तलाश करना. यह हम नहीं कह रहे, ये बता रहे हैं अखबारों में छपने वाले वैवाहिक विज्ञापन. और तो और उन की तसदीक कर रहे हैं मैरिज ब्यूरो से जुड़े लोग.

‘दुलहन वही जो पाठकजी दिलवाएं’ मैरिज ब्यूरो की नीलम पाठक दावा करती हैं, ‘‘मैं अपने अनुभव के आधार पर कह सकती हूं कि साउथ दिल्ली में रहने वाले पेरैंट्स जब अपने बेटे या बेटी के लिए मैच तलाशने निकलते हैं, तो वे साउथ दिल्ली से निकलने के बारे में सोचते भी नहीं. वे अपने को खास समझते हैं. जाहिर है, वे अपने वैवाहिक विज्ञापनों में भी अपने साउथ दिल्ली कनैक्शन का जिक्र करने का खयाल रखते हैं.’’

औनली साउथ दिल्ली ट्रैंड का अध्ययन करने के इरादे से हम ने राजधानी से छपने वाले एक प्रमुख अंगरेजी अखबार के बीते 4, 11, 18, 25 जनवरी, 2015 के 4 रविवारों के अंकों में छपे विज्ञापनों का गहन अध्ययन किया. जानने की चेष्टा की कि शादी की दुनिया के अंदर क्याक्या स्वादिष्ठ पक रहा है. इन अंकों में कुल 7,740 वैवाहिक विज्ञापन छपे. उन में 122 में विज्ञापनदाताओं ने अपने साउथ दिल्ली से संबंधों का साफतौर पर जिक्र किया. विज्ञापन में लिखा कि वर के पिता का साउथ दिल्ली में घर, फ्लैट, कोठी, बंगला है. मात्र 3 अलगअलग विज्ञापन छपे जिन में बताया कि उन का नोएडा या नौर्थ दिल्ली में आशियाना है.

‘लांबा फेरे मैरिज ब्यूरो’ की सलाहकार रेखा बताती हैं, ‘‘अगर साउथ दिल्ली में रहने वाला कोई शख्स बाहर निकलना भी चाहे तो उस के बच्चे उसे हतोत्साहित करते हैं. बड़ों से बढ़ कर उन के बच्चे हैं. वे तो किसी भी सूरत में साउथ दिल्ली से बाहर जाने को राजी नहीं हैं.’’

उन कारणों का खुलासा करते हुए रेखा ने बताया कि साउथ दिल्ली के यंगस्टर्स मानते हैं कि वे बाकी के मुकाबले ज्यादा ट्रैंडी और स्मार्ट हैं. उन के साथ गैरसाउथ दिल्ली वाले की पटेगी नहीं. वे मानते हैं कि साउथ दिल्ली की कायदे से सरहद पालम से शुरू होती है और वसंत विहार में खत्म हो जाती है. इस के बीच उन्हें लाइफपार्टनर मिलना चाहिए.

अपने को साउथ दिल्ली का बताने में फख्र महसूस करने वाले कुल विज्ञापनदाताओं में 54 का संबंध पंजाबी जातियों जैसे खत्री, गुरसिख, अरोड़ा, खुखरैन वगैरह से था. हिंदी और पंजाबी के लेखक और कवि प्रो. प्रताप सहगल को औनली साउथ दिल्ली ट्रैंड में पंजाबियों की बढ़ती भागीदारी से हैरानी नहीं है. वे कहते हैं, ‘‘राजधानी के पंजाबियों ने कड़ी मेहनतमशक्कत करने के बाद पैसा कमाया. वे देश के विभाजन के बाद पूरी तरह से लुटपिट कर आए थे. वे कमाने के बाद संचय में कम, खर्च करने में ज्यादा यकीन करने लगे. वे जो कुछ भी करते हैं उसे दिखाने में यकीन करने लगे इसलिए वैवाहिक विज्ञापनों में अपनी प्रौपर्टी से ले कर महंगी कार तक का जिक्र करते. मगर अब गैरपंजाबी भी उन के नक्शेकदम पर चल रहे हैं.’’

23 वैश्य, 14 ब्राह्मण, 10 कायस्थ, 7 डाक्टर (अगर उन्हें भी आप जाति ही मानें), 5 मुसलमान, 4 जाट, 3 राजपूत तथा 2 मांगलिक ने भी साउथ दिल्ली में कोठी, फ्लैट, बंगला बता कर अपना रोब गालिब कर ही दिया.

साउथ दिल्ली का क्रेज मैरिज से कहीं आगे निकल गया है. एनसीआर में सक्रिय रीयल ऐस्टेट कंपनी आईएलडी की निदेशक नुजत अलीम कहती हैं, ‘‘मैं ने महसूस किया है कि साउथ दिल्ली की सरकारी कालोनियों जैसे आर.के.पुरम, नेताजी नगर, सरोजनी नगर, आईएनए वगैरह में रहने के बाद जब लोगों को अपना सरकारी घर खाली करना पड़ता है तो उन की पहली कोशिश यही होती है कि वे किराए पर साउथ दिल्ली में ही घर लें.’’

औनली साउथ दिल्ली के सफर को आगे बढ़ाते हुए एक बड़ा गौरतलब ट्रैंड यह भी सामने आया है कि जाति से जकड़े भारतीय समाज में जाति का बंधन तब खुलने लगता है जब किसी इनसान को पुनर्विवाह करना होता है. दूसरा विवाह करने की चाहत रखने वाले करीबकरीब सभी विज्ञापनों में ‘जाति बंधन नहीं’ लिखा गया था. हालांकि इन में विज्ञापनदाताओं ने अरोड़ा, जाटव, वैश्य, सिख, ब्राह्मण जैसी अपनी जातियों का उल्लेख तो कर ही दिया था.

नीलम पाठक कहती हैं, ‘‘ऐसा नहीं है कि जो अपनी जाति का उल्लेख अपने विज्ञापनों में करते हैं, वे अपनी जाति से बाहर निकलने के लिए तैयार ही नहीं हैं. चूंकि हमारे यहां विवाह जाति बतानेजानने का रिवाज है इसलिए इस का उल्लेख हो ही जाता है. हालांकि कुछ साल पहले तक तो दूसरे विवाह के वक्त भी लोग अपनी जाति के इर्दगिर्द ही रहते थे.’’

पंडित सुरेश पांडे ने बताया कि उन के पास दूसरा विवाह करने से पहले लोग जन्मपत्री भी दिखाने के लिए नहीं आते. मतलब साफ है कि वैवाहिक जीवन की दूसरी पारी में चाहत यही रहती है कि किसी जीवनसाथी के साथ शेष जीवन जैसेतैसे बीत जाए.

रंगभेद के अभिशाप से भले ही साउथ अफ्रीका मुक्त हो गया हो पर हमारे कम से कम शादी के संसार में रंगभेद साफतौर पर अपनी जड़ें जमाए हुए है. होने वाली वधू या बहू ‘गोरी’ या ‘फेयर’ मिल जाए तो सोने में सुहागा ही माना जा रहा है. हमें वधू कौलम के 55 विज्ञापनों में पढ़ने को मिला कन्या गोरी है. उधर नईनवेली बहू चाहने वाले 16 को इंतजार है किसी गोरी कुड़ी के मिलने का.                   

 

ब्राइडल मेकअप का ये है ट्रैडिशनल अंदाज

हर लड़की का सपना होता है कि वह अपने विवाह के अवसर पर सब से खास, सब से खूबसूरत दिखे. वह चाहती है कि उस का मेकअप ग्लोइंग, नैचुरल और लौंगलास्टिंग हो.

दिल्ली प्रैस भवन में आयोजित फेब मीटिंग में मेकअप आर्टिस्ट गर्वित खुराना ने ब्राइडल का ट्रैडिशनल लुक का मेकअप सिखाने के साथसाथ टीका सैटिंग, हेयरस्टाइल व साड़ी ड्रैपिंग भी सिखाई. आइए, जानें ट्रैडिशनल लुक के मेकअप की तकनीक:

ट्रैडिशनल ब्राइडल लुक
मेकअप करने से पहले चेहरे की अच्छी तरह क्लींजिंग करें. उस के बाद एक अंडरबेस लगाएं ताकि मेकअप लंबे समय तक टिका रहे. गर्वित ने ट्रैडिशनल ब्राइड के मेकअप में एक तरह का पैनकेक (लस्टर पैनकेक) का प्रयोग किया. उन्होंने मेकअप की शुरुआत में प्राइमर लगाया. उस के बाद बेस लगाया. फिर टीएल पाउडर लगाया. उस के बाद पैनकेक लगाया. चेहरे के दागधब्बों को छिपाने के लिए कंसीलर का भी प्रयोग किया.

गर्वित ने बताया कि चूंकि आजकल ब्राइडल मेकअप में शिमर लुक ट्रैंड में है, इसलिए अगर कोई दुलहन चाहे तो अपने मेकअप में अपनी मेकअप आर्टिस्ट को शिमर फाउंडेशन का प्रयोग करने को भी कह सकती है. इस से पूरे चेहरे पर ग्लो आ जाता है. अगर आप शाइनिंग पाउडर लगवा रही हैं, तो लूज पाउडर का इस्तेमाल न करवाएं, क्योंकि इस से फाउंडेशन की चमक फीकी हो जाती है. फेसकटिंग व कंटूरिंग के जरीए साधारण नैननक्श को भी तीखे नैननक्श में परिवर्तित किया जा सकता है. हाईलाइटर की मदद से चेहरे के आकर्षक हिस्सों को हाईलाइट करें. ब्लशऔन दुलहन की ड्रैस से मैच करता हुआ लगाएं. ब्लशर में लाइट शेड जैसे पिंक, पीच कलर का प्रयोग करें.

आंखें: किसी भी दुलहन के मेकअप में आंखों का मेकअप खास महत्त्व रखता है. आंखों पर आईशैडो लगाने से पहले आईलिड पर आईवैक्स लगाएं. इस से आईशैडो ज्यादा देर तक टिकेगा. इसी तरह लोअर आईलिड पर आईशैडो आईसिलर के साथ लगाएं, तो वह फैलेगा नहीं. काजल पैंसिल से आंखों को हाईलाइट करें. काजल लगाने के बाद आईलाइनर लगाएं. उस के बाद मसकारा लगाएं. मसकारा भीतरी लैशेज पर हलके रंग का और बाहर की तरफ थोड़ा गहरे रंग का इस्तेमाल करें. बाहर की तरफ उसे थोड़ा उभारने की कोशिश करें और भौंहों की ओर थोड़ा कम उभारें. यदि आंखें छोटी हैं, तो उन्हें बड़ा दिखाने के लिए पलकों के बाहरी किनारों पर ऊपर की तरफ हलके रंग का पाउडर शैडो छोटे ब्लशर की मदद से लगाएं. क्रीज के पास गहरे रंग के शैडो का प्रयोग करें लेकिन नाक की तरफ आंखों के भीतरी हिस्से पर कोई रंग प्रयोग न करें वरना छोटी आंखें और छोटी दिखेंगी. किनारों पर शैडो लगाने के लिए ब्रश का प्रयोग करें.

होंठ: आजकल ग्लौसी होंठ फैशन में हैं. इस के लिए पहले होंठों को लिपलाइनर की मदद से आकार दें. फिर डै्रस से मैच करती लिपस्टिक लगाएं. लिपस्टिक ब्रश से लगाएं. इस के बाद लिपग्लौस लगाएं. ध्यान रखें कि लिपस्टिक का रंग ब्राइडल ड्रैस से 1 या 2 नंबर गहरा हो.

बिंदी: बिंदी ट्रैडिशनल ब्राइडल मेकअप का महत्त्वपूर्ण हिस्सा होती है. ब्राइडल बिंदी का चुनाव चेहरे के अनुसार करें. अगर चेहरा गोल है तो लंबी बिंदी चुनें और लंबा है तो गोल बिंदी और अगर चौकोर है तो डिजाइनर बिंदी लगाएं.

हेयरस्टाइल: दुलहन का मेकअप खास हो तो हेयरस्टाइल भी डिफरैंट व ऐलिगैंट होना चाहिए. ब्राइड को स्टाइलिश हेयरस्टाइल देने के लिए सब से पहले इयर टु इयर बालों का एक भाग बनाएं. पीछे के बालों की एक पोनी बनाएं. इयर टु इयर भाग से एक रेडियल सैक्शन लें और क्राउन ऐरिया में आर्टिफिशियल बन लगा कर पिन से सैट करें. फिर रेडियल सैक्शन के बालों की 1-1 लट ले कर बैककौंबिंग कर के स्प्रे करें. इन बालों का ऊंचा पफ बनाएं और पिन से अच्छी तरह सैट करें. दोनों साइड के बालों में भी स्प्रे कर पोनी के ऊपर ही सैट करें.

अब पोनी पर आर्टिफिशियल लंबी चोटी बनाएं. पोनी के ऊपर गोल आर्टिफिशियल बड़ा सा बन लगाएं. आर्टिफिशियल बालों से 1-1 लट ले कर बन के ऊपर पिन से सैट करें. फिर उन बालों की नौट बना कर बन पर ही बौब पिन से सैट करें. ऐसे ही एक चोटी 3 नौट जूड़े की तरफ राउंड में तो दूसरी तरफ भी वैसा ही नौट लगाएं. अब जूड़े की साइड में एक और चोटी साइड में लगाएं. आखिर में बालों को बीड्स से ऐक्सैसराइज करें. आगे फ्रंट पर भी ऐक्सैसराइज करें.

मांग टीका सैटिंग
दुलहन का शृंगार मांगटीके के बिना अधूरा लगता है. इसे दुलहन के सोलह शृंगार का महत्त्वपूर्ण हिस्सा माना जाता है. इस समय चांदबाली स्टाइल व स्टोन पैंडेंट मांगटीका चलन में है. सैंटर पार्टिंग हेयरस्टाइल व सिंपल ब्राइडल बन हेयरस्टाइल के साथ मांगटीका दुलहन की खूबसूरती को निखारता है. अगर कोई ब्राइड मुगल लुक क्रिएट करना चाहती है तो वह झूमर स्टाइल या शैंडलियर स्टाइल मांगटीका भी लगा सकती है.

मांगटीके के साथ अपडू, हेयर हाफ अप और साइड बैग जैसे हेयरस्टाइल बेहद खूबसूरत दिखते हैं. इन हेयरस्टाइल्स के साथ माथे पर चमकता मांगटीका बहुत ही आकर्षक दिखता है. गोल चेहरे वाली युवतियों को फ्रंट पफ हेयरस्टाइल के साथ मांगटीका कैरी करना चाहिए. दीपिका पादुकोन व आलिया भट्ट जैसी अभिनेत्रियां तो खुले बालों के साथ भी टीका कैरी कर रही हैं और युवतियां उन के स्टाइल को फौलो कर रही हैं. अगर दुलहन का चेहरा चौकोर है तो वह झूमर स्टाइल टीका कैरी कर सकती है.

अगर किसी का फोरहैड छोटा है तो उसे छोटे आकार का मांगटीका पहनना चाहिए. ध्यान रहे अगर मांगटीका हैवी है तो नथ हलकी कैरी करें और अगर मांगटीका हलका है तो नथ भारी पहनें. इस से लुक बैलेंस रहता है.   

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