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नंदिता बक्शी बनीं ‘बैंक ऑफ द वेस्ट’ की सीईओ

भारतीय मूल की अमेरिकी नागरिक नंदिता बक्शी को बैंक ऑफ द वेस्ट की अध्यक्ष और प्रमुख कार्यपालक अधिकारी के रूप में नियुक्त किया गया है. यह बैंक फ्रांसीसी बैंकिंग के क्षेत्र के दिग्गज बीएनपी परीबस की इकाई है. बैंक ऑफ द वेस्ट की अगली अध्यक्ष और मुख्य कार्यपालक अधिकारी के रूप में बक्शी (57) माइकल शेफर्ड की जगह लेंगी. वह एक अप्रैल से बतौर सीईओ काम शुरू कर सकती हैं. अध्यक्ष पद का प्रभार वह एक जून से संभालेंगी.

नंदिता ने कलकत्ता विश्वविद्यालय से इतिहास में स्नातक की डिग्री और जाधवपुर विश्वविद्यालय में अंतरराष्ट्रीय संबंध एवं कार्यों में परा-स्नातक की डिग्री ली है. न्यू इंग्लैंड न्यूज की ओर से उन्हें वर्ष 2002 में वूमन ऑफ द ईयर की उपाधि से नवाजा जा चुका है. नंदिता कंज्यूमर बैंकर्स असोसिएशन के बोर्ड में भी हैं.

नंदिता ने एक बयान में कहा, मैं अमेरिका के सबसे प्रतिष्ठित बैंकों में से एक बैंक ऑफ द वेस्ट से जुड़ने को लेकर बेहद उत्साहित हूं. बैंक ऑफ द वेस्ट की अमेरिकी बाजार में बेहतरीन स्थिति है और उपभोक्ता सेवा पर इतना अधिक ध्यान देने वाले इस प्रमुख संगठन के नेतृत्व की बात से मैं रोमांचित हूं.

अब एक फोन कॉल पर कैंसिल करा सकेंगे ट्रेन टिकट

रेलवे काउंटर से ली गई रिजर्वेशन टिकट को कैंसिल करना आसान हो गया है. अब आप सिर्फ एक फोन कॉल करके टिकट कैंसिल करवा सकते हैं. आपको उसी वक्त टिकट काउंटर जाने की जरूरत नहीं होगी. अप्रैल मध्य से रेलवे इस सुविधा की शुरुआत कर सकता है. इस सुविधा का फायदा उठाने के लिए आपको रेलवे इंक्वायरी नंबर 139 पर फोन करना होगा, जिसके बाद आप घर बैठे बिना इंटरनेट के टिकट कैंसिल करवा सकते हैं.

ऐसे करवाएं टिकट कैंसिल

रेलवे के एक वरिष्ठ अधिकारी के मुताबिक रेलवे टिकट कैंसिल कराने के लिए पैसेंजर को रेलवे इंक्वायरी नंबर 139 डायल कर कन्फर्म टिकट की डिटेल जानकारी देनी होगी.  फोन करने के बाद एक पासवर्ड (ओटीपी) मिलेगा. पैसेंजर को उसी दिन काउंटर पर जाना पड़ेगा और अपना पासवर्ड बताना होगा. इसके बाद उसे टिकट का किराया वापस मिलेगा.

फोन पर टिकट कैंसिल कराने से ये होगा फायदा

किराया वापसी के नियमों में बदलाव के बाद पैसेंजर्स को रिजर्व टिकट को तय वक्त में कैंसिल कराने में कठिनाई हो रही थी, जिसके कारण उन्हें किराया वापस नहीं मिल पा रहा था. नए नियमों के मुताबिक, जरूरतमंद पैसेंजर्स को कन्फर्म टिकट पाने में मदद के लिए रेलवे ने टिकट रद्द कराने की राशि को दोगुना कर दिया था. दूसरी ओर दलालों और टिकट के ब्लैक मार्केटिंग करने वालों लोगों से उपभोक्ता को बचाया जा सकेगा.  तय वक्त पर काउंटर जाकर टिकट न कैंसिल करा पाने वालों को मिलेगी मदद. टिकट कैंसिल कराने के लिए फॉर्म नहीं भरना पड़ेगा. हालांकि, काउंटर पर जाना पड़ेगा लेकिन प्रॉसेस इजी हो जाएगी.

अब मैं सैक्स सिंबल नहीं रहा: जौन अब्राहम

जौन अब्राहम ने साल 2003 में अपने कैरियर की शुरुआत फिल्म ‘जिस्म’ से की थी और उन की इमेज एक सैक्स सिंबल की बन कर रह गई थी. फिल्म ‘दोस्ताना’ में उन्होंने एक मजाकिया किरदार निभाया था. ‘गरम मसाला’, ‘देशी बौयज’ जैसी हलकीफुलकी फिल्में भी वे करते रहे, पर अचानक साल 2012 में उन्होंने स्पर्म डोनेट पर बनी फिल्म ‘विकी डोनर’ पेश की, जिस में नए हीरो आयुष्मान खुराना को लिया गया था. इस फिल्म को जबरदस्त कामयाबी मिली थी.  

इस के बाद जौन अब्राहम ने श्रीलंका के जाफना इलाके में 80 के दशक में हुई सिविल वार पर एक राजनीतिक ऐक्शन फिल्म ‘मद्रास कैफे’ बनाई, जिस में उन्होंने रौ एजेंट का दमदार किरदार निभाया था. पेश हैं, जौन अब्राहम के साथ हुई लंबी बातचीत के खास अंश:

एक कलाकार के तौर पर आज आप खुद को कहां पाते हैं?

मुझे लगता है कि मैं आज की तारीख में खुद के बल पर खड़ा हो सकता हूं, इसलिए मैं खुश हूं. पर अभी भी मुझे बहुत आगे जाना है. बहुतकुछ नया करना है. अपने अंदर के कलाकार को और अच्छा बनाना है.

आप के कैरियर की शुरुआत फिल्म ‘जिस्म’ से सैक्स सिंबल के रूप में हुई थी, फिर आप ने कौमेडी, ऐक्शन और गंभीर फिल्में भी कीं. क्या यह बदलाव आसान था?

यह सच है कि मैं फिल्मों में सैक्स सिंबल के रूप में आया था. आज भी ज्यादातर लोग मुझे सैक्स सिंबल के रूप में ही देखते हैं. लेकिन दर्शकों ने मुझे फिल्म ‘जिस्म’ के बाद ‘दोस्ताना’, ‘धूम’, ‘न्यूयौर्क’, ‘नौ दो ग्यारह’, ‘शूट आउट एट वडाला’ जैसी फिल्मों में भी पसंद किया. जब मैं ने फिल्म ‘मद्रास कैफे’ बनाई, तो बौलीवुड के फिल्मकारों की नजर मुझ पर गई और उन्हें मेरे टैलैंट पर भरोसा हुआ.

इस के बाद तो कलाकार के तौर पर आप की जिम्मेदारी बढ़ गई होगी?

मुझे लगता है कि मेरी जिम्मेदारी बढ़नी चाहिए, पर कुछ मीडिया वाले ऐसे भी होते हैं, जो आप की वह जिम्मेदारी समझते नहीं हैं. यह अफसोस की बात है कि मुझे हर फिल्म के साथ अपनी काबिलीयत को साबित करना पड़ता है.

इतने साल फिल्मों में काम करने के बाद भी आप को साबित करने की जरूरत क्यों पड़ती है?

शायद इस की वजह यह है कि मैं ने मौडलिंग से फिल्मों में कदम रखा. और बौलीवुड में ऐसा माना जाता है कि एक अच्छा मौडल कभी अच्छा ऐक्टर नहीं हो सकता. फिल्म ‘मद्रास कैफे’ के बाद मैं कह सकता हूं कि मुझ पर से यह तमगा हट गया है.

फिल्म प्रोडक्शन के क्षेत्र में उतरने की क्या वजह रही?

मैं जिस तरह की फिल्मों को देखना पसंद करता हूं, उसी तरह की फिल्मों को बनाने और उन में कुछ अलग रूप में नजर आने के लिए ही  फिल्म बनाने लगा हूं.

विकी डोनर’ और ‘मद्रास कैफे’ जैसी बेहतरीन फिल्में बनाने के बाद कोरियन फिल्म ‘द मैन फ्रौम नो व्हेअर’ को हिंदी में ‘रौकी हैंडसम’ के नाम से रीमेक करने की बात कैसे दिमाग में आई?

यह बहुत अच्छी फिल्म है. एक कलाकार के तौर पर मुझे बहुत मजा आया. इस फिल्म में जबरदस्त ऐक्शन है. ऐक्शन के पीछे जो इमोशन होता है, उस का चित्रण बहुत जरूरी होता है. वह सब इस फिल्म में है. इस फिल्म में जो इमोशन हैं, वे हर इनसान की आंखों से आंसू ला देंगे.  मैं ने इस में ड्रग माफिया के खिलाफ जंग छेड़ने वाले नौजवान का किरदार निभाया है. इस फिल्म में मेरे तीन लुक हैं.

आप फुटबाल के खेल को ले कर भी कोई फिल्म बनाने वाले थे?

जी हां, इस फिल्म का नाम है ‘1911.’ यह फिल्म कोलकाता की मशहूर मोहन बागान टीम की ऐतिहासिक विजय पर आधारित है. इस फिल्म के डायरैक्टर सुजीत सरकार और लेखक सौमिक सेन हैं. साल 1911 में मोहन बागान ने इंगलैंड की मशहूर यौर्कशौयर टीम को हरा कर एक नए इतिहास को रचा था. उसी कहानी को इस फिल्म में पेश किया गया है.उस दौरान भारतीय टीम ने नंगे पैर धोती पहन कर फुटबाल खेली थी, जबकि ब्रिटिश टीम ने हाफ पैंट व जूते पहन रखे थे.

इन दिनों औरतों के साथ जोरजुल्म की वारदातें बड़ी तेजी से बढ़ी हैं. इस पर आप क्या कहेंगे?

इस तरह की वारदातें चिंता की बात हैं. कल तक मुंबई को बहुत महफूज समझा जाता था, पर अब यहां भी औरतों के खिलाफ ऐसी वारदातें तेजी से बढ़ी हैं. आज जरूरत इस बात की है कि हर मांबाप अपने बेटे को समझाए कि उन्हें किस तरह से लड़कियों व औरतों की इज्जत करनी चाहिए और हमेशा उन की हिफाजत करनी चाहिए.

जरूरत है कि औरतों के प्रति अपराध करने वाले अपराधियों को सख्त से सख्त सजा दी जाए. ऐसे मसलों पर हमारे देश के नेताओं को बहुत सोचसमझ कर बयानबाजी करनी चाहिए.

क्या कभी आप ने खुद औरतों की हिफाजत की कोई मुहिम लड़ी है?

कई बार हम चाह कर भी ऐसा नहीं कर पाते हैं. मुझे अच्छी तरह से याद है, जब मैं कालेज में पढ़ता था और लोकल ट्रेन से सफर करता था. तब मैं ने देखा था कि रेलवे प्लेटफार्म पर एक लड़का जबरन एक लड़की को धक्का दे कर चला गया. मैं ने दौड़ कर उस लड़के को पकड़ा. मैं उसे पुलिस को देना चाहता था, पर लड़की के कहने पर उसे छोड़ना पड़ा, क्योंकि लड़की खुद उस लड़के पर कोई भी आरोप लगाने के लिए तैयार नहीं थी. पर अब जिस तरह से समाज में बदलाव आ रहा है, वह सुखद है. अब हर औरत अपने हक को जानने व समझने लगी है. अब वह जोरजुल्म के खिलाफ आवाज उठाना भी जानती है.

मोबाइल स्टोर संभालते रोबोट

आप अगर यह सुनें कि ‘नो वैकेंसी फौर ह्यूमन’ और ‘लौट्स औफ वैकेंसी फौर रोबोट्स’ तो सुन कर थोड़ी हैरानी होगी. लेकिन अब आप को हैरान होने की बिलकुल जरूरत नहीं है, क्योंकि जिस चीज की हम कल्पना करते थे आज वह हकीकत में बदल गई है. जापान में एक सौफ्टबैंक मोबाइल कंपनी ने एक ऐसा अनूठा फोन स्टोर खोला है जहां सिर्फ रोबोट ही सारा काम संभालते हैं. इस के लिए कंपनी ने 10 रोबोट्स की नियुक्ति के साथ ही सारे कर्मचारियों की छुट्टी कर दी है.

स्टोर में रोबोट्स सिर्फ निगरानी का काम ही नहीं संभालते बल्कि वे ग्राहकों की मोबाइल दिखाने से ले कर बेचने तक का काम भी करते हैं. भला ऐसे में किस का मन नहीं करेगा ऐसी दुकान से मोबाइल खरीदने का. ग्राहक तो हैरान तब और रह जाते हैं जब वे कुछ बोलते भी नहीं लेकिन रोबोट उन के चेहरे के हावभाव देख कर समझ जाते हैं कि उन के मन में किस बात को ले कर दुविधा चल रही है ऐसे में वे चेहरा पढ़ कर सुझाव देना शुरू कर देते हैं. दुनिया का पहला ऐसा मोबाइल स्टोर जहां रोबोट संभालते हैं स्टोर, आकर्षण का केंद्र होने के साथसाथ स्टोर की बिक्री बढ़ाने में भी सहायक है, तो हुआ न कमाल का मोबाइल स्टोर.

रिश्ते को शालीन गुडबाय

तलाक किसी का भी हो, आम इनसान का या किसी सैलिब्रिटी का, दुखदाई ही होता है और इस का सब से बुरा असर बच्चों पर पड़ता है. वैसे भी जिस पर बीतती है, वही जानता है पर ‘जो अफसाना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन उसे एक खूबसूरत मोड़ दे कर छोड़ना ही अच्छा है’ की तर्ज पर क्यों न किसी रिश्ते को जबरदस्ती ढोने के बजाय शालीनता से छोड़ दिया जाए. आम लोग फिल्मी सितारों की ऊपरी चकाचौंध, उन की फिगर, उन की ऐक्टिंग से प्रभावित हो कर उन्हें एक अलग ही दुनिया के लोग मानने लगते हैं. मगर अचानक उन के निजी जीवन से संबंधित कुछ कटु सत्य सामने आते ही हम उन के सब से बड़े आलोचक बन जाते हैं. हम यह भूल जाते हैं कि वे हमारी तरह साधारण इनसान नहीं हैं. निजी जीवन की बातें सार्वजनिक  होने पर कैरियर और निजी जीवन में तालमेल बैठाए रखना आसान नहीं होता है.

इन दिनों फिल्मी सितारों के टूटते रिश्तों की लिस्ट लंबी होती जा रही है, पर इन्होंने अलग होने के कारणों पर चर्चा न करते हुए टूटते रिश्ते की भी गरिमा बनाए रखी. आइए एक नजर डालते हैं ऐसे ही कुछ सितारों के दुखद पर शालीन संबंधविच्छेद पर:

फरहान अख्तर और अधुना भबानी

स्टाइलिश, क्रिएटिव और अतिप्रतिभावान यह जोड़ा जहां भी जाता लोग प्रशंसा भरी नजरों से देखते. साल 2000 में दोनों ने विवाह किया था. इन के अलग होने की घोषणा से सब हैरान रह गए. इन्होंने अलग होने पर भी यही कहा कि इन की दोनों बेटियां शक्या (16) और अकीरा (9) हमेशा उन की प्राथमिकता रहेंगी और वे हमेशा व्यावसायिक रूप से एकदूसरे के साथ काम करते रहेंगे.

रितिक और सुजैन खान

ये दोनों विवाह के 13 साल बाद अलग हो गए. दोनों बचपन के दोस्त थे. जब वे साथ नहीं हैं तो भी मातापिता की जिम्मेदारी बखूबी निभा रहे हैं. दोनों का कहना है कि अलग होने के बावजूद साथ काम करते रहेंगे. दोनों कोशिश कर रहे हैं कि उन के दोनों बेटे रेहान (9) और रेदान (7) सामान्य जीवन बिताएं. रितिक आज भी अपना संडे बच्चों के साथ बिताते हैं. सुजैन ने एक वार्त्तालाप में यह कहा कि बच्चों के मामले में उन का रितिक से रिश्ता बहुत अच्छा है. वे अच्छे मातापिता हैं और बच्चे उन की प्राथमिकता हैं.रणवीर शौरी और कोंकणा सेन शर्मा कला और फिल्मों के शौकीन ये दोनों आदर्श पतिपत्नी थे. फिर शादी के 5 साल बाद ही दोनों ने 2015 में सोशल मीडिया पर अपने संबंधविच्छेद की घोषणा कर दी. दोनों ने कहा कि वे दोस्त रहेंगे और अपने बेटे हारुन की जिम्मेदारी मिल कर उठाएंगे.

जैनिफर विंगेट और करण सिंह ग्रोवर

करण ने अपनी पहली पत्नी श्रद्धा निगम से विवाह के 3 साल बाद 2013 में जैनिफर से विवाह किया. यह भी नहीं चला. करण ने भी 2014 में सोशल मीडिया पर कहा कि वे अलग हो गए हैं. कारण बहुत पर्सनल हैं. जैनिफर ने भी हाल ही में पोस्ट किया कि वे करण को आगे बढ़ता देख कर खुश हैं और उन्हें और उन की पार्टनर को भविष्य के लिए शुभकामनाएं देती हैं.

कल्कि और अनुराग कश्यप

2011 में जैसे शांति से इन का विवाह हुआ था वैसे ही 2015 में इन का तलाक भी हो गया. वे विवाह से पहले 2 साल तक लिव इन में भी थे. आज जहां अनुराग कल्कि के थिएटर की प्रशंसा करते हैं, वहीं कल्कि भी अनुराग की सफलता सैलिब्रेट करती हैं. तलाक के बाद कल्कि ने कहा भी था कि वे दोनों एकदूसरे को प्यार करते हैं. हम आज भी दोस्त हैं और चैट करते हैं, मिलते हैं. अनुराग अच्छे दिल का इनसान है.

रघुराम और सुगंधा गर्ग

‘रोडीज’ से फेमस रघुराम और उन की अभिनेत्री पत्नी सुगंधा ने हाल ही में अलग होने का फैसला किया. उन का वैवाहिक जीवन 10 साल चला. वे आज भी मिलते हैं और दोनों के बीच कोई मनमुटाव नहीं है. वे अच्छे दोस्त हैं और दोस्त बने रहेंगे. शालीनता से अलग होना ठीक ही तो है कि जब कहीं एकदूसरे से आमनासामना हो, तो कम से कम दिलों में शर्मिंदगी तो न हो. पतिपत्नी न सही, अगर दोस्त बन कर ही रह सकें तो क्या बुरा है?

गौरव अरोड़ा को नही है सेक्सी सीन से परहेज

मध्य प्रदेश में एक छोटा कस्बा है मुंगावली, जहां न तो कोई स्कूल है और न ही कोई सिनेमा घर. इसी कस्बे के एक किसान परिवार के बेटे गौरव इन दिनों भट्ट कैंप की विक्रम भट्ट निर्देशित अति सेक्सी व इरोटिक फिल्म ‘‘लव गेम्स’’ में अभिनय करके शोहरत बटोर रहे हैं. महेश भट्ट तो ‘‘लव गेम्स’’ को ‘थ्रीसम’ फिल्म मानते हैं. इस फिल्म में गौरव अरोड़ा ने सैम नामक ऐसे बिगड़ैल युवक का किरदार निभाया है, जो कि बहुत ही अमीर खानदान का बेटा है. उसके पास धन की कमी नहीं है. जो हमेशा ड्रग्स और सेक्स में ही डूबा रहता है. इतना ही नहीं एक तरफ उसे प्यार से जीतने के लिए प्रयासरत तारा अलीशा बेरी है, तो दूसरी तरफ अति माडर्न व सेक्सी औरत रोमाना सिकंद यानी कि अभिनत्री पत्रलेखा हैं, जो कि उसे सेक्स में ही डुबाए रखना चाहती है. यानी कि फिल्म ‘‘लव गेम्स’’ में सेक्सी सीन की भरमार है.

अपने किरदार की चर्चा करते हुए गौरव अरोड़ा कहते हैं-‘‘सैम का किरदार है. बहुत ही ज्यादा बिगड़ा हुआ लड़का है. उसे कभी कुछ करने की जरुरत नही पड़ी. उसे जब जो चाहिए मिल जाता है. उसके पास इतना पैसा है कि सेक्स हो या ड्रग्स, सब कुछ उसके पास खुद ही पहुंच जाता है. उसे किसी बात का अहसास ही नहीं होता. इसलिए कभी कभी दर्द का अहसास करने के लिए वह खुद को ही काट लेता है. कई बार उसे यही समझ में नही आता कि वह जिंदा है या नहीं.’’

इस तरह की सेक्सी फिल्म से अपने करियर की शुरूआत करने को जायज ठहराते हुए गौरव अरोडा कहते हैं-‘‘यह सिर्फ सेक्स फिल्म नही है. यह फिल्म प्यार की बात करती है. लड़का कहां फंसा हुआ है और उसे प्यार में क्यों यकीन नही है, यह सब दिखाने के लिए कुछ चीजें दिखानी जरुरी थी. देखिए, मुंगावली के लोग गर्वांन्वित महसूस कर रहे हैं कि उनके यहां सिनेमाघर न होते हुए भी मैं फिल्मों का हिस्सा बन गया हूं. दो दिन पहले ही पापा से बात हो रही थी. वह खुश थे. उन्होने बताया कि अब लोग उन्हें ‘गौरव का पापा’ कह कर बुलाते हैं.’’

कलाकार ही लोगों को एक दूसरे के करीब लाते हैं: फरजाद

लगभग पचास साल बाद 2013 में ‘‘आस्कर अवार्ड’’ में पाकिस्तान का प्रतिनिधित्व करने वाली फिल्म ‘‘जिंदा भाग’’ के निर्देशक फरजाद इस बात से गौरवान्वित हैं कि उन्हे पुनीत गोयंका और शैलजा केजरीवाल की टीम ने ‘‘जील फार युनीटी’’ के लिए पाकिस्तानी फिल्मकार के रूप में फिल्म बनाने के लिए चुना. ‘‘जील फार यूनीटी’’ का मकसद भारत व पाकिस्तान के बीच शांति, अमन, चैन का सौहाद्रपूर्ण वातावरण पैदा  करना है. ‘‘जील फार यूनीटी’’ के तहत 15 मार्च को वाघा बार्डर, सरहद रेस्टारेंट और अमृतसर में आयोजित समारोहों में शिरकत करने के लिए दूसरे पांच पाकिस्तानी फिल्मकारों के साथ मीनू फरजाद की जोड़ी के फरजाद को पहली बार वाघा बार्डर के रास्ते भारत आने का मौका मिला. मीनू फरजाद ने संयुक्त रूप से ‘‘जील फार यूनीटी’’ के तहत 6 पाकिस्तानी फिल्मकारों द्वारा बनायी गयी फिल्मों में से एक फिल्म ‘‘जीवन हाथी’’ का निर्देशन किया है. जबकि फिल्म के निर्माता मीनू गौड़ के पति मजहर जैदी हैं.

यूं तो ‘‘आस्कर’’ अवार्ड के बाद भारत के गोवा, कलकत्ता, केरला व धर्मशाला के इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में ‘‘जिंदा भाग’’ न सिर्फ प्रदर्शित की गयी थी, बल्कि सराही भी गयी थी. पर तब फिल्म के साथ इसके निर्माता मजहर जैदी ही आए थे. भारत के कई फिल्म फेस्टिवल में जिस तरह से फिल्म ‘‘जिंदा भाग’’ सराही गयी थी, उसी वजह से शैलजा केजरीवाल ने ‘जील फार यूनीटी’’ के लिए फिल्म बनाने के लिए मजहर जैदी से संपर्क किया था. मजहर जैदी ने मीनू गौड़ व फरजाद से बात कर इस पहल से जुड़ने के लिए हामी भर दी थी.

अमृतसर में अटारी रेलवे स्टेशन से करीब पांच सौ मीटर दूर सरहद रेस्टारेंट में जब फरजाद से हमारी बात हुई तो उन्होने अपने दिल का गुबार निकालते हुए इस बात पर दुःख व्यक्त किया कि भारतीय दर्शक पाकिसतानी फिल्में नहीं देखता, जबकि भारतीय दर्शक पाकिस्तानी टीवी सीरियलों को काफी पसंद करता है. अपने इसी गम को व्यक्त करते हुए फरजाद ने कहा-‘‘अब पाकिस्तान में भी सिनेमा बढ़ रहा है. नए नए मल्टीप्लैक्स बनाए जा रहे हैं. फिल्म का बजट भी बढ़ रहा है. भारतीय फिल्मों की ही वजह से पाकिस्तानी थिएटर की स्थिति में सुधार हुआ है. भारतीय फिल्में पाकिस्तान में रिलीज होती हैं और अच्छा बिजनेस करती हैं. 2005 में मुर्शरफ सरकार ने पाकिस्तान में भारतीय फिल्मों के प्रदर्शन का रास्ता साफ किया था. तब से पाकिस्तानी सिनेमा में भी बदलाव आना शुरू हुआ. अब पाकिस्तानी थिएटर मालिक चाहते हैं कि उनके थिएटर में भारतीय फिल्में प्रदर्शित हों, इससे उन्हे अच्छा बिजनेस मिलता है. लेकिन हमें भारत में सिनेमा के वितरण व प्रदर्शन की कोई जानकारी नहीं है. इस वजह से हमारी फिल्में भारत में प्रदर्शित नहीं हो पाती.

भारत में यदि हम ‘गोवा इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल’ को नजरंदाज कर दें, तो भारत में पाकिस्तानी सिनेमा दिखाने की कोई जगह या सुविधा नहीं है. मजेदार बात यह है कि भारत में पाकिस्तानी टीवी सीरियल काफी बड़ी मात्रा में  देखे जाते हैं, तो फिर पाकिस्तानी फिल्मों से दुराव की बात मेरी समझ से परे है. ‘बजरंगी भाईजान’ और ‘बाजीराव मस्तानी’ फिल्मों ने पाकिस्तान में बहुत अच्छी कमाई की. पाकिस्तान में तमाम भारतीय कलाकार काफी लोकप्रिय हैं. पाकिस्तान में 1990 में फिल्में बनना लगभग बंद हो गयी थी. पर अब एक बार फिर से पाकिस्तान में फिल्में बनने लगी हैं.’’

पाकिस्तानी और भारतीय फिल्मों के फर्क पर रोशनी डालते हुए फरजाद ने कहा-‘‘हमारे यहां फिल्मों का बजट पांच करोड़ से 25 करोड़ के बीच ही होता है. जबकि भारतीय फिल्मों का बजट सौ करोड़ से 350 करोड़ का होता है. भारतीय फिल्मों में बजट के अनुसार कलाकार लिए जाते हैं और कलाकारों के नाम के अनुरूप ही फिल्में बिजनेस करती हैं. पाकिस्तान में ऐसा नहीं है. पाकिस्तान में किसी भी कलाकार को लेकर फिल्म बनायी जा सकती है. हमारे यहां टीवी पर काम कर रहे कलाकार काफी लोकप्रिय हैं. अब फवाद खान और अली जफर ने पाकिस्तानी टीवी सीरियलों में अभिनय करना बंद कर दिया है.’’

‘‘जील फार यूनीटी’’से जुड़ने की चर्चा चलने पर फरजाद ने कहा-‘‘फिल्म के निर्माता मजहर जैदी को जी टीवी व जील की तरफ से इस पहल के साथ जुड़ने का आफर मिला, जिसे उन्होने स्वीकार कर लिया. वास्तव में हम सभी को यह पहल बहुत अच्छी लगी. दो देशों के बीच भाषा, संस्कृति, फिल्मों का आदान प्रदान होते रहना चाहिए. मेरी राय में ‘‘जीवन हाथी’’ के बाद ज्यादा पाकिस्तानी फिल्में भारतीय दर्शकों तक पहुंच सकेंगी.’’

जब हमने उनका ध्यान इस बात की ओर दिलाया कि भारत व पाकिस्तान के बीच कई विवादास्पद मुद्दे चर्चा में बने रहते हैं. तो फरजाद ने कहा-‘‘मुद्दे आते जाते रहेंगे. लेकिन पड़ोसी हमेशा पड़ोसी रहेंगे. कटु सत्य है कि सबसे पहले हर तरह की यातना से कलाकार को ही गुजरना पड़ता है, पर कलाकार ही लोगों को एक दूसरे के करीब लाते हैं.’’

‘‘जील फार यूनीटी’के लिए बनयी गयी फिल्म ‘‘जीवन हाथी’’ की चर्चा चलने पर फनरजाद ने कहा-‘इसमें हमने समाचार चैनल के टीआरपी का जो मसला है, उसे रेखांकित किया है. हमारी फिल्म एक ब्लैक कामेडी है. यह फिल्म मीडिया पर व्यंग करती है. जिसमें मीडिया टीआरपी रेटिंग की दौड़ में जो अमानवीय रूख अख्तियार कर लेती है, उसका जिक्र है. जो शो कर रहे होते है, उन एंकरों और जो लोग शो में आते हैं, वह कैसे मैन्यूप्यूलेशन करते हैं, उसका चित्रण है. फिल्म दोनो को साथ साथ लेकर चलती है. हमारी फिल्म एक डायमेशनल फिल्म नहीं है. फिल्म में हमने इन्हे ब्लैक एंड व्हाइट नहीं दिखाया है. बल्कि बहुत ही इंसानी तौर पर ही इन सभी का चित्रण किया है. यह सभी अच्छे लोग हैं, मगर इन सभी लोगों के अपने जो डायमेंशंस है, जो मजबूरियां हैं. जो मानवीय पहलू हैं, उनका चित्रण है. उनको लेकर हम चले हैं.’’

वह आगे कहते हैं-‘‘फिल्म में हमारे देशस की मशहूर अदाकारा हीना दिलपजीर ने निभाया है. वह गेम शो की होस्ट यानी कि संचालक हैं. मेरी सह निर्देशक हैं मीनू गौड़. हम दोनो ने एक साथ इससे पहले ‘जिंदा भाग’ बनायी थी. अब हमारी यह दूसरी फिल्म है. इसके अलावा फिल्म ‘जीवन हाथी’ में नसिरूद्दीन शाह चैनल के मालिक बने हैं. उनका किरदार बहुत ही ज्यादा एक्जरेटेड है. उसकी अपनी रूचि या उसके अपने क्या इंटरेस्ट हैं, वह नजर आएगा. यह बहुत मुश्किल किरदार निभाया है.’’

पाकिस्तान में सिनेमा पर कई तरह की सरकारी बंदिशों के सवाल पर फरजाद ने कहा कि हर देश में कलाकार को बंदिशों का सामना करना पड़ता है. उन्होंने  कहा-‘‘ऐसा नही है. अब पाकिस्तान में भी अलग अलग विषयों पर फिल्में बन रही हैं. अब नारी स्वतंत्रता को लेकर भी फिल्में बन रही है. कलाकार को किसी न किसी सूरत में भारत हो या पाकिस्तान हो, बंदिश का सामना करना ही पड़ता है. यह कहना गलत होगा कि किस देश में कम या ज्यादा बंदिशें हैं. केबल और डीवीडी पर तथा इंटरनेट की वजह से भी लोग हर तरह की फिल्में व फिल्मों में हर तरह के सीन देख ही लेते हैं.’’

(शांतिस्वरूप त्रिपाठी, सरहद रेस्टारेंट, अटारी, अमृतसर से लौटकर)

आखिर क्यों नसिरूद्दीन शाह ने मुफ्त में की ‘द ब्लू बेरी हंट’

बौलीवुड में ऐसा बहुत कम होता है,जब कोई कलाकार किसी फिल्म में मुफ्त में काम कर ले. कई बार दिग्गज फिल्मकारों की पुल्मों में कुछ कलाकारो ने गेस्ट अपियरेंस में भले ही मुफ्त में काम किया हो. मगर किसी नए फिल्मकार के साथ नसिरूद्दीन शाह मुफ्त में यानी कि बिना पारिश्रमिक राशि लिए काम करेंगे, ऐसा लोग सोच भी नहीं सकते. लेकिन यह कटु सत्य है कि फिल्मकार अनूप कूरियन की फिल्म ‘‘ द ब्लू बेरी हंट’’ में नसिरूद्दीन शाह ने मुफ्त में अभिनय किया है. इस फिल्म में उनकी भूमिका छोटी नहीं है, बल्कि वह इस फिल्म के हीरो हैं.

वास्तव में मारिजुआना की फसल के इर्द गिर्द बुनी गई कहानी वाली फिल्म ‘‘ द ब्लू बेरी हंट’’ में नसिरूद्दीन शाह ने वैरागी बन चुके एक कर्नल की भूमिका निभायी है, जो कि केरला के वागामोन में अति उंचाई पर स्थिति अपने हरे भरे सुनसान स्टेट में जर्मन शेफर्ड कुत्ते के साथ रहते हैं. ‘इश्किया’ फेम अभिनेता नसिरूद्दीन शाह ने इससे पहले किसी भी रोमांचक फिल्म में इस तरह का चरित्र नहीं निभाया है. कर्नल किस तरह अपने स्टेट में मारिजुआना की ‘ब्लूबेरी स्कंक’’ की दुर्लभ और बेशकीमती फसल उगाने के लिए तैयार हो जाते हैं. फसल पूरी तरह से तैयार हो जाती है. अब उसे काटकर बेचने का दिन आ गया है. अब कर्नल अरबपति बनने वाले है. मगर रातों रात सब कुछ ऐसा बिगड़ता है कि कर्नल की सारी उम्मीदों पर पानी फिर जाता है.

निर्माता, निर्देशक व लेखक अनूप कूरियन की ‘‘ द ब्लू बेरी हंट’’ दूसरी फिल्म है. इससे पहले वह अतुल कुलकर्णी को हीरो लेकर 2005 में फिल्म ‘‘मानसरोवर’’ लेकर आए थे, तब ‘‘मानसरोवर’’ ने राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शोहरत के झंडे गाड़ दिए थे. उस वक्त हर किसी को अहसास हुआ था कि बालीवुड को अब अनूप कूरियन नामक एक नया अति प्रतिभाशाली व नई सोच वाला फिल्मकार मिल गया है. मगर अफसोस ‘‘मानसरोवर’’ को तारीफें बहुत मिली, मगर बाक्स आफिस पर इस फिल्म ने कुछ खास कमायी नहीं की. जिसके चलते अनूप कूरियन को नई फिल्म बनाने से पहले धन जुटाने के लिए कनाडा जाकर केक बेचने का काम करना पड़ा. फिर कुछ समय उन्होंने अमरीका में साफ्टवेअर इंजीनियर के रूप में काम किया. लगभग पांच साल के कठोर श्रम के बाद उन्होने फिल्म बनाने के लिए धन जमा कर लिया. तब वह पुनः भारत लौटे. इस बार उन्होने अति नशीले पदार्थ ‘मारिजुआना’ को केंद्रित कर एक रोमांचक कथा लिखी. जिसे सुनकर नसिरूद्दीन शाह ने मुफ्त में अभिनय करने के लिए हामी भर दी.

जी हां! इस कहानी व अपने किरदार को सुनने के बाद नसिरूद्दीन शाह को जब पता चला कि लेखक, निर्देशक व निर्माता अनूप कूरियन इस फिल्म को पैसे की कमी के चलते लघु फिल्म के रूप में पटकथा में कांट छांट कर बनाना चाहते है, तो नसिरूद्दीन शाह ने निर्देशक अनूप कूरियन से कहा कि वह फिल्म को उसी तरह से बनाए, जिस तरह से उन्होने सोचा है और वह इसके लिए एक भी पैसा पारिश्रमिक राशि के तौर नहीं लेंगे.

इस बात को स्वीकार करते हुए अनूप कूरियन कहते हैं-‘‘पटकथा तैयार करने के बाद मुझे लगा कि मेरी फिल्म में नसिरूद्दीन शाह ही मुख्य भूमिका निभा सकते हैं. पर उनसे कैसे संपर्क किया जाए. यह दुविधा थी. इसके अलावा मेरे मन में शक था कि यदि नसिरूद्दीन शाह ने ज्यादा फीस मांग दी तो? पर मैं नसिरूद्दीन शाह से मिला. उन्होने पूरी कहानी व अपना किरदार सुना. उसके बाद नसिरूद्दीन शाह ने खुद कहा कि वह इस फिल्म से जुड़ना चाहते हैं तथा इसके लिए वह कोई फीस नहीं लेंगे. नसिरूद्दीन ने मेरी फिल्म में मुफ्त में अभिनय किया है. उनकी वजह से ही मैं एक घंटे और पचपन मिनट की अवधि वाली फिल्म बना सका. फिल्म का निर्माण करने के बाद इसके वितरण व थिएटरों में रिलीज को लेकर मुझे एक अलग तरह की लड़ाई लड़नी पड़ी. बहुत मुश्किलों के बाद अब मेरी फिल्म 8 अप्रैल को रिलीज होगी. यह इसलिए भी संभव हो पाया है, क्योंकि अब दर्शक अपरंपरागत फिल्में देखना पसंद करता है. मैं उम्मीद करता हूं कि मैं अपनी फिल्म जिन दर्शकों तक पहुंचाना चाहता हूं, वहां तक पहुंच सकेगी. हमारी फिल्म में नसिरूद्दीन शाह के अलावा विपिन शर्मा और आहाना कुमरा ने भी अभिनय किया है.’’

नसिरूद्दीन शाह की ही चर्चा करते हुए अनूप कूरियन आगे कहते हैं-‘‘हमारी फिल्म ‘‘ब्लू बेरी हंट’’ में नसिरूद्दीन शाह ने अपनी अब तक की सर्वाधिक बेहतरीन परफार्मेंस दी है. वह एक अविश्वसनीय अभिनेता हैं. यह फिल्म उनके बेहतर अभिनय के लिए हमेशा याद की जाएगी. वह पहली बार इस फिल्म में बंदूक के साथ नजर आएंगे. वह जबरदस्त एक्शन करते हुए दिखाई देंगे. इस असामान्य चरित्र में नसिरूद्दीन शाह को परदे पर देखना भी दर्शकों के लिए अनोखा अनुभव होगा.’’

फ्लाइट में संगीत पर एतराज क्यों

हवाई उड़ान में अगर कोई गायक साथ मिल जाए और साथ चल रहे यात्रियों के अनुरोध पर गाने गा दे तो उस पर तालियां बजनी ही चाहिए पर जैट एयरवेज ने अपने कर्मियों के खिलाफ कार्यवाही की है कि उन्होंने सोनू निगम को उद्घोषणा सिस्टम से गाना क्यों गाने दिया? सरकारी संस्था डीजीसीए जो हवाई जहाजों को नियंत्रित करती है, को बड़ी आपत्ति है. यह आपत्ति बेमतलब की है. हर हवाईजहाज का सिस्टम सौफ्ट म्यूजिक देने के लिए वैसे ही इस्तेमाल होता है और अगर उस में गायक ने छरहरी एयरहोस्टेस के बच्चों वाले निर्देश देने की जगह प्रेम गीत गा दिए तो क्या हर्ज है. हवाईजहाज की सुरक्षा पर तो इस से कोई आंच नहीं आती, क्योंकि अगर कैप्टन को कुछ कहना है तो वह सिस्टम को ओवरराइड कर सकता है.

यह असल में नियमों को बिना जानेपरखे ढोने की आदत का हिस्सा है. अनुमति के बिना ऐसा क्यों किया गया? अगर अनुमति मिल जाती तो क्या हो जाता? क्या अनुमति देने वाले को मालूम होता कि जोधपुरमुंबई की फ्लाइट की उड़ान के दौरान 200 किलोमीटर बाद 32 हजार फुट की ऊंचाई पर एयर पौकेट मौजूद होगी जो सोनू निगम के गायन के दौरान झटके दिलवाएगी?

हमारे जीवन में इस तरह के नियमों को पीटने की बहुत आदत है जो आमतौर पर धर्म के दुकानदार मन में भरते हैं. यह सही है, यह गलत है, कोई तिलकधारी दाढ़ीधारी या चोलाधारी ही बताएगा मानो वही प्रकृति को चला रहा हो, वही मौसम बदल रहा हो, वही खाना पैदा कर रहा हो, वही जीवनमृत्यु ला रहा हो. शासकों ने इन पंडों, मौलवियों की दखलंदाजी के अनुसार लोगों को अपने निर्देशों में ढालना शुरू किया है ताकि जनता गुलाम बनी रहे.

युवाओं को कहर काफी सहना पड़ता है. कभी लव जेहाद पर उन को नियम दिखाए जाते हैं, कभी टीसी लेने पर, कभी आयु का नियम दिखा कर पढ़ाई रोक देते हैं तो कभी आरक्षण के नाम पर चिढ़ाने का काम कर के.

सोनू निगम जैसे गायकों का काम नियमों को तोड़ना है. कलाकार वही है जो अपनी मस्ती में रहे, कुछ नया करे. लोगों के जीवन में रंग भरे. मुंह बनाए घूमती एयरहोस्टेसों के मुकाबले चार सुंदर शब्द हर खतरे के लायक हैं, डीजीसीए और जैट एयरवेज यह अच्छी तरह समझ लें. मांग तो होनी चाहिए कि कलाकारों को यात्रा में छूट दें ताकि यात्रियों का वे मनोरंजन करते चलें.

डेढ़दो घंटे की उड़ानों में असल में बहुत बोरियत होती है और दूसरे यात्रियों की नींद में खलल न पड़ता हो तो इस तरह के मनोरंजक कार्यक्रम बुरे नहीं हैं. एयरलाइंस फैशन शो, बर्थडे पार्टियां, योगा कार्यक्रम कभीकभार कराते हैं पर बिना पूर्व सूचना के कुछ हो तो क्या खर

मिर्जा की मिजाजपुरसी

जुमे का दिन था और मैं भी मूड में था, इसलिए सोचा कि चलो, कुछ देर मिर्जा के साथ गपें लड़ाएं. हो सकता है कि लंच से पहले एक टी पार्टी भी हो जाए. मैं ने जल्दी से नहाधो कर शेरवानी पहनी, गुलाब का बढि़या इत्र लगाया, पीतल जड़ी नक्काशी वाली बेंत हाथ में ली, सुबह के 11 बजे घर से निकल कर सीधे मिर्जा के घर का रुख किया. मैं जैसे ही मिर्जा के घर के करीब पहुंचा, तभी मुझ पर अचानक जैसे तड़ाक से बिजली सी गिर गई. दिमाग बिजली की तरह कौंधा और पलभर में हजारों बुरे खयालात दिमाग के एक कोने से दूसरे कोने तक कौंध गए. देखा कि मिर्जा की बैठक का दरवाजा खुला था. बाहर धूपछांव में एक टूटे से खटोले पर कोई… शायद मिर्जा एक मैली सी चादर ओढ़े लेटे थे. गली के आसपास के दोचार बड़ेबूढ़े भी पास ही बैठे थे. यह मंजर देख कर मेरी तो जैसे रूह ही निकल गई और टांगें तो जैसे वाइब्रेशन मोड पर आ गई थीं. मेरी बेंत ने मुझ गिरते हुए को सहारा दिया.

मैं ने बड़ी मुश्किल से खुद को संभालते हुए कांपती आवाज में पूछा, ‘‘यह जनाजा किस… क्या… मिर्जा…?’’

तभी वहां बैठे एक शख्स, जिन्हें गली के लड़के ‘चचा मुकुंदा’ कहते थे और जो चारपाई के सिरहाने बैठे थे, ने अपने मुंह पर उंगली रख कर इशारे से मुझे चुप रह कर बैठने का इशारा किया. थोड़ी देर बाद वे दबी आवाज में बोले, ‘‘जनाब, आप को खबर भी है कि मिर्जा को चोट लगी है. नींद की दवा दे रखी है, ताकि दर्द का एहसास कम हो.’’ मेरे मुंह से एक हमदर्दी भरी चीख निकलने को हुई, मगर वह जैसे गले में घुट कर रह गई.

मैं ने सवाल पूछा, ‘‘क्या किसी मोटरसाइकिल वाले ने साइड मार दी?’’

‘‘नहीं…’’

‘‘तो क्या फिसल कर सीढि़यों से लुढ़क गए?’’

‘‘नहीं…’’

तभी वहां बैठे सभी लोगों के होंठों पर हलकी सी मुसकान तैर गई. यह देख कर मेरा दिमाग 360 डिगरी पर घूम गया.

‘‘तो क्या माजरा है…’’ मेरे मुंह से निकल पड़ा, ‘‘मिर्जा को चोट लगी है और आप बेशर्मों की तरह मुसकराते हो. कुछ तो शर्म करो. बेशर्मी की भी हद होती है.’’

तभी चचा मुकुंदा ने अपना हाथ मेरी गरदन पर रख कर मुझे अपनी तरफ खींचा और मेरा कान अपने मुंह के पास ले गए. मैं डर गया कि शायद कहीं मेरा कान ही न चबा डालें. फिर भी मैं ने न जाने क्यों अपना कान उन के मुंह के सामने कर दिया. चचा मुकुंदा मेरे कान में कुछ फुसफुसाए, जो बस मुझे ही सुनाई दिया.

मेरे मुंह से निकला, ‘‘क्या… ऐसा हुआ… क्यों?’’

मैं ने पूरे जोश के साथ मिर्जा के कफन… माफ कीजिए चादर को मुंह से पैर तक खींच कर साइड में डाल दिया और मिजाजपुरसी की रस्म अदा करते हुए हमदर्दी के तौर पर उन्हें हिलाया. मैं ने देखा कि मिर्जा के दाहिने हाथ पर किसी ने बांस की खपच्चियां रख कर पट्टी लपेटी हुई थी. उन की बाईं आंख सूज कर काली पड़ गई थी और भौंह के ऊपर माथे को ढके हुए सिर के चारों तरफ पट्टी लिपटी थी, जिस पर लाल दवा के निशान थे, जो सूख कर काले पड़ने लगे थे. मिर्जा ने अपनी दाईं आंख धीरे से खोली और एक बेबसी वाला गुस्सा मेरी तरफ बम की तरह फेंका. मैं ने हमदर्दी दिखाते हुए मिर्जा के सिर के नीचे अपना एक हाथ रखा और दूसरा हाथ उन की कमर के नीचे रख कर सहारा दिया और उन का सिर

अपनी गोद में रख कर उन से पूछा, ‘‘यह सब क्या…’’

मिर्जा का गला रुंध गया और वे कुछ न बोल सके. तब मौके की नजाकत को भांपते हुए मैं ने ही पूछा, ‘‘यार मिर्जा, यह बेलन की बात तो अकसर तुम्हारे साथ होती ही रहती थी, पर ये प्लेटेंगिलास, चम्मच के चौकेछक्के कब से? अगर कहीं तुम्हारी आंख फूट जाती तो…?’’

मिर्जा, जो अब तक कुछ सामान्य हो चुके थे, बोले, ‘‘मैं खाना खा रहा था. गले में निवाला फंस गया था. पानी मांगा था, तभी बेगम ने गुस्से में खाली गिलास मेरे ऊपर फेंका और बोलीं, ‘ले, पी पानी.’ ‘‘गिलास से तो मैं ने अपनेआप को साइड में झुक कर बचा लिया, लेकिन निशाना खाली जाने से बेगम तिलमिला गईं और फिर एकदम से एक प्लेट अर्जुन के तीर की तरह फेंकी, जो मेरी आंख पर लग जाती, तो आंख ही फूट गई होती.

‘‘इतने पर भी जब वे नहीं रुकीं, तो जो हाथ में आया फेंक कर मारती गईं. उन के इन तीरों की बौछार से बचने के लिए मैं हड़बड़ा कर बाहर की तरफ भागा कि तभी न जाने कमबख्त कौन से साहबजादे ने केला खाया होगा और छिलका दरवाजे में डाल दिया. मेरा पैर उस पर पड़ा और धड़ाम से जमीन पर. अब कुहनी का फ्रैक्चर न जाने कब ठीक होगा.’’ मैं ने मिर्जा को हिम्मत दी और नकली हंसी हंसते हुए कहा, ‘‘बस… इतना ही. अरे यार मिर्जा, तुम तो खुशकिस्मत हो, जो बीवी से पिटे… मुबारक हो…’’

तभी मिर्जा के चेहरे पर ऐसे भाव आए, जैसे वे मुझे कच्चा ही चबा जाएंगे, पर बेबस थे. वे धीरे से बोले, ‘‘ठीक है… तुम भी उड़ा लो मजाक… जिस दिन पिटोगे, तब सब पता चल जाएगा.’’

मैं ने कहा, ‘‘यार मिर्जा, तुम जो गरीबी का रोना रोते हो, वह अब दूर होने वाली है. तुम बड़े आदमी बनने वाले हो. इतने बड़े कि… जैसे…’’ तभी मिर्जा बोल पड़े, ‘‘क्या मैं अमेरिका का राष्ट्रपति बन रहा हूं? क्यों तू मेरे जख्मों पर नमक छिड़क रहा है? एक तू ही तो था, जिस से मैं मन की बात कर लेता था. और अब तू भी… ठीक है, उड़ा ले मेरी हंसी… जिस दिन भाभी की मार पड़ेगी, तब पता चलेगा.’’

मैं ने मिर्जा से ऐसे दिखावटी हमदर्दी जताई, जैसे मैं उन पर दुनिया का सब से बड़ा एहसान कर रहा हूं. मिर्जा से मुखातिब होते हुए मैं ने कहा, ‘‘नहीं यार मिर्जा, ऐसी बात भूल कर भी अपने दिमाग में मत लाना. मैं तुम्हारा सच्चा हमदर्द हूं. कभी शक की गुंजाइश मत रखना. ‘‘देखो मिर्जा, ध्यान से सुनो. वे हैं न हमारे… अरे, वे ही जनाब अमेरिका के बिल क्लिंटन साहब. क्या वे बड़े आदमी नहीं बने, वे भी ऐसे देश के जो पूरी दुनिया को तिगनी का नाच नचाता है…

‘‘तो…’’ मिर्जा बीच में ही बोल पड़े, ‘‘मेरा मिस्टर बिल से क्या ताल्लुक?’’

मैं ने मिर्जा को टोका, ‘‘यार, यही तो कमी है तुम्हारी सोच में? अबे, वे भी अपनी बीवी से पिट कर ही इतने बड़े आदमी बने हैं. उन पर बीवी की मिसाइलों जैसे गिलासप्लेट, चम्मच से अनेक बार हमले हुए हैं. ‘‘जैसे सोना तप कर और पिट कर कुछ बनता है, ऐसे ही हमारे चचा क्लिंटन साहब भी अपनी बीवी के मिसाइलोंबमों से पिट कर अमेरिका के राष्ट्रपति बने… ‘‘यह तो भला हो उन की सहायक का, जिस ने दुनिया के सभी मर्दों को बड़ा बनने का राज दुनिया के सामने खोल दिया, वरना…’’

यह सुनते ही मिर्जा कुछ देर के लिए शांत हुए और एक लंबी उबासी ली, जैसे सचमुच ही अमेरिका के राष्ट्रपति बनने जा रहे हों. अब तक उन की नींद की गोली का असर शायद खत्म हो चुका था, तभी वे और भड़क उठे और बोले, ‘‘क्या बकवास करते हो… वह अमेरिका है और यह हिंदुस्तान… यहां ऐसा कभी नहीं हो सकता.’’

मैं ने मिर्जा को फिर झूठी तसल्ली देने की कोशिश की और कहा, ‘‘यार, चचा क्लिंटन की बात छोड़ो. अगर तुम गलीमहल्ले के नेता भी बन गए, तो भी तुम गुजरबसर लायक अमीर तो बन ही सकते हो.’’ शायद यह बात मिर्जा को जंच गई थी. उन्होंने राहत की लंबी सांस ली और फिर करवट बदल कर खर्राटे लेने शुरू कर दिए, जैसे अमीरी के ख्वाबों की दुनिया में पहुंच गए हों. दोपहर के साढ़े 12 बज चुके थे. मैं ने मिर्जा का सिर धीरे से तकिए पर रखा और कहीं दोपहर का खाना खाने के लिए रैस्टोरैंट ढूंढ़ने लगा. मिर्जा के यहां तो लंच की उम्मीद ही नहीं थी.

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