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जेएनयू: नई सोच, नए विचार और नई क्रांति

एक जमाने में दिल्ली का जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय दुनियाभर में नई सोच और नए विचारों के लिए जाना जाता था. इस यूनिवर्सिटी ने राजनीति में भी अपनी छाप छोड़ी, कई धुरंधर राजनीतिबाजों ने यहीं से अपने जीवन की शुरुआत की, लेकिन आज धर्म के तथाकथित धंधेबाजों ने अपना धंधा चमकाने के लिए इन संस्थानों को ही अपना निशाना बनाया है. दिल्ली स्थित जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय यानी जेएनयू पूरी दुनिया में छात्रों के नए विचार वाले विश्वविद्यालय के रूप में जाना जाता है. यहां के पढ़े तमाम छात्र राजनीति, समाजसेवा, नौकरशाही और न्यायपालिका में अपनी छाप छोड़ने में सफल रहे हैं. दूसरे विश्वविद्यालयों की तरह यहां किसी तरह का जातीय भेदभाव नहीं किया जाता.

देश ही नहीं विदेशों तक के छात्र भी यहां पढ़ने आते हैं. यहां के छात्र उन मुद्दों पर भी आपस में खुल कर बात करते हैं जो बाकी समाज में अछूत विषय समझे जाते हैं. छात्रों के लिए यहां आ कर पढ़ाई करना किसी सपने जैसा होता है. यह केंद्रीय विश्वविद्यालय है. उच्चस्तर की शिक्षा और शोध कार्य में यह विश्वविद्यालय भारत के सब से अच्छे विश्वविद्यालयों में आता है. 1969 में इस विश्वविद्यालय की स्थापना हुई. करीब 550 शिक्षकों वाले इस विश्वविद्यालय में लगभग 6 हजार विद्यार्थी पढ़ते हैं. जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्रगतिशील परंपरा और शैक्षिक माहौल को बनाए रखने में यहां के छात्रसंघ को बड़ा महत्त्वपूर्ण माना जाता है. यहां के छात्रसंघ के पूर्व पदाधिकारी ने भारतीय राजनीति पर भी अपनी छाप छोड़ी है. इस में प्रकाश करात, सीताराम येचुरी, डी पी त्रिपाठी, आनंद कुमार व चंद्रशेखर प्रसाद प्रमुख रहे हैं.

जेएनयू छात्रसंघ की राजनीति में वामपंथी छात्र संगठनों, औल इंडिया स्टूडैंट्स एसोसिएशन (आइसा) व स्टूडैं्स फैडरेशन औफ इंडिया (एसएफआई) का बोलबाला रहा है. वैचारिक विवादों के साथ जेएनयू का पुराना नाता रहा है. वामपंथी विचारधारा का विरोध करने वाले हमेशा ही यहां की कटु आलोचना करते रहे हैं. वहां छात्रों पर ही नहीं शिक्षकों पर भी नक्सलवादी हिंसा का समर्थन करने और भारतविरोधी गतिविधियों में संलिप्त रहने के आरोप लगते रहे हैं.

कट्टरपंथियों द्वारा रैगिंग

9 फरवरी, 2016 को जेएनयू छात्रों के एक समूह द्वारा 2001 में भारतीय संसद पर हमले के दोषी अफजल गुरु की फांसी की तीसरी वर्षगांठ पर एक कार्यक्रम का आयोजन किया गया. इस कार्यक्रम का नाम कश्मीरी कवि आगा शाहिद अली के काव्य संग्रह ‘बिना डाकघर वाला देश’ पर रखा गया था. यह कविता जम्मूकश्मीर के हिंसक दौर के बारे में लिखी गई थी. इस कार्यक्रम के प्रचार के लिए आयोजक छात्रों ने विश्वविद्यालय में पोस्टर लगाए. इस में लिखा था, ‘9 फरवरी मंगलवार को साबरमती ढाबे में पुरातनवादी विचारधारा के विरुद्ध अफजल गुरु और मकबूल भट्ट की न्यायिक हत्या के विरुद्ध, कश्मीरी लोगों के आत्मनिर्णय के लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए संघर्ष के समर्थन में कवियों, कलाकारों, गायकों, लेखकों, विद्यार्थियों, बुद्धिजीवियों और सांस्कृतिक कार्यकर्ताओं के साथ सांस्कृतिक संध्या, कला और फोटो प्रदर्शनी’ में आप आमंत्रित हैं.’

जेएनयू छात्रसंघ के संयुक्त सचिव सौरभ कुमार शर्मा अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद एबीवीपी के सदस्य हैं. यह संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ यानी आरएसएस का छात्र संगठन है और भारतीय जनता पार्टी से जुड़ा है. सौरभ कुमार शर्मा ने विश्वविद्यालय के उपकुलाधिपति जगदीश कुमार को पत्र लिख कर इस कार्यक्रम को निरस्त करने की मांग की. इस के बाद विश्वविद्यालय प्रशासन ने कार्यक्रम की अनुमति देने से मना कर दिया. इस के बाद कार्यक्रम आयोजकों ने विरोध मार्च की जगह सांस्कृतिक कार्यक्रम करने का फैसला किया. इसी दौरान वहां विवादास्पद नारेबाजी होने लगी. इस बात से गुस्साए छात्र अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की अगुआई में विश्वविद्यालय प्रशासन से मिलने और नारेबाजी कर राष्ट्रविरोधी नारे लगाने वालों के निष्कासन की मांग करने लगे. मीडिया के एक हिस्से ने राष्ट्रविरोधी नारेबाजी को सनसनीखेज बना कर अपनी टीआरपी बढ़ाने की जुगत की, इसे देख कर देश की जनता में एक तीखी प्रतिक्रिया होने लगी. लोगों की इस प्रतिक्रिया को देखते हुए भारतीय जनता पार्टी को अपने हित में राष्ट्रवाद का नया मुद्दा मिलता दिखा. पहले गृहमंत्री राजनाथ सिंह, इस के बाद मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी ने पूरे मसले को राष्ट्रवाद और राष्ट्र विरोध से जोड़ कर परिभाषित किया. इस प्रकरण में जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार का बयान आया कि हम लोकतंत्र के लिए, अपने संविधान के लिए और सभी को समान राष्ट्र के लिए लड़ेंगे. अफजल गुरु के नाम पर एबीवीपी सभी मुद्दों से ध्यान हटा कर केंद्र सरकार की नाकामी को छिपाना चाहती है.

भाजपा राष्ट्रवाद के मुद्दे को उछाल कर चुनावी लाभ लेने की फिराक में जुट गई. भाजपा सांसद महेश गिरी की शिकायत पर 12 फरवरी को दिल्ली पुलिस ने जेएनयू छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार को गिरफ्तार कर लिया. आईपीसी की धारा 124ए के तहत उस पर देशद्रोह का आरोप लगाया गया. 15 फरवरी को जब कन्हैया कुमार को हिरासत में लेने के बाद कोर्ट में पेश किया गया तो वहां कट्टरपंथियों द्वारा उस को पीटा गया. इस घटना की पूरे देश में तीखी आलोचना हुई. सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली पुलिस को फटकार लगाते हुए शांतिपूर्ण तरीके से सुनवाई सुनिश्चित कराने का आदेश दिया. 17 फरवरी को जब कन्हैया को ले कर पुलिस सुप्रीम कोर्ट पहुंची तो विरोध करने वाले वकीलों ने उस पर पथराव शुरू कर दिया.

इस की सूचना पर सुप्रीम कोर्ट ने 5 वरिष्ठ वकीलों की टीम को तुरंत पटियाला हाउस भेज दिया. कपिल सिब्बल और इंदिरा जयसिंह की अगुआई में जब वकीलों की टीम पटियाला हाउस पहुंची तो राष्ट्रवाद की तरफदारी करने वाले कट्टरपंथियों ने इन पर पाकिस्तानी एजेंट कह कर पथराव किया. दिल्ली पुलिस पूरी तरह इन के दवाब में दिखी. किसी तरह कन्हैया को तिहाड़ जेल पहुंचाया गया. तिहाड़ की जेल नंबर 3 में कन्हैया के पहुंचने के बाद भी यह मसला खत्म नहीं हुआ. देशभर में इस घटना के समर्थन और विरोध में आवाजें उठने लगीं. जिस तरह से केंद्र सरकार पूरे मामले में खामोश रही, उस से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की छवि खराब हुई. यह बात साफ हो चुकी थी कि कचहरी में दंगा करने वालों के संबंध भाजपा नेताओं से हैं. केंद्र सरकार और गृह मंत्रालय की खामियां खुल कर सामने आईं.

वजह बना हैदराबाद

आंध्र प्रदेश की राजधानी हैदराबाद के केंद्रीय विश्वविद्यालय में रोहित वेमुला की आत्महत्या के बाद केंद्र सरकार पर आरोप लगे थे. वहां भी इस के पीछे कट्टरपंथी विचारधारा का हाथ था, जिस का पूरे देश में विरोध शुरू हो गया. सरकार पर यह आरोप भी लगा कि वह अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद को आगे लाने के लिए दूसरे छात्र संगठनों पर दबाव बना कर उन की आवाज दबाने का प्रयास कर रही है. दरअसल, हैदराबाद से ले कर दिल्ली तक फसाद की जड़ विचारों की लड़ाई रही है. भाजपा ने इस को राजनीतिक लाभ के लिए प्रयोग किया. हैदराबाद कांड पूरी तरह से छात्र राजनीति के टकराव और दबाव का परिणाम था. देशद्रोह का जो आरोप दिल्ली में कन्हैया पर लगा उस को ले कर भी कई मत हैं. जानकार इस को देशद्रोह की परिधि में नहीं मानते. भाजपा का विरोध करने वाले खुल कर आरोप लगाते हैं कि पार्टी सभी विश्वविद्यालयों का भगवाकरण करना चाहती है.

भाजपा के इस कदम का विरोध अब देश के तमाम विश्वविद्यालयों में होने लगा. पिछले साल मई में आईआईटी मद्रास में अंबेडकर पेरियार स्टडी सर्किल को संस्थान ने बैन किया. इस में केंद्र सरकार के दखल को देखा गया. एक माह बाद जून 2015 में पुणे में एफटीआईआई छात्रों ने संस्थान के अध्यक्ष पद पर भाजपा सदस्य गजेंद्र सिंह चौहान की नियुक्ति को ले कर विरोध शुरू किया. इस वजह से 139 दिन लंबी हड़ताल चली. हैदराबाद में रोहित की मौत के बाद छात्रों की लड़ाई और तेज हो कर पूरे देश में फैल गई. इन छात्रों के निशाने पर एबीवीपी और मानव संसाधन विकास मंत्रालय आ गया. लखनऊ में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी राव अंबेडकर विश्वविद्यालय गए तो मोदी गो बैक के नारे लगे. जेएनयू के साथसाथ वाराणसी में भी मोदी का विरोध हुआ.

भाजपा की कट्टरवादी नीतियों ने कांग्रेस को अपनी जड़ें मजबूत करने का मौका दे दिया. हैदराबाद और जेएनयू प्रकरण पर लोकसभा में जवाब देते हुए मानव संसाधन विकास मंत्री स्म़ृति ईरानी ने जिस तरह से पूरे मामले को धर्म का रंग देने की कोशिश की उस से साफ जाहिर हो गया कि केंद्र सरकार धर्म और राष्ट्रवाद को एकसाथ मिला कर देश के सामने रखना चाहती है. स्मृति ईरानी ने मूल बातों का जवाब देने की जगह पर महिषासुर और दुर्गा पर बहस को केंद्रित करने का प्रयास किया. 2 मार्च को जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार को अंतरिम जमानत पर रिहा कर दिया गया. कोर्ट के सामने जिस तरह के सुबूत हैं, उस से यह बात साफतौर पर समझ में आती है कि सरकार के पास कोई ठोस सुबूत नहीं हैं. कट्टरपंथियों के दबाव में सरकार ने इन छात्रों की रैगिंग सी की है, जिस से नए विचारों, नई सोच और नई क्रांति वाले युवाओं को पुरानी कट्टरवादी, दकियानूसी सोच से जोड़ा जा सके. सरकार बहस और विचारों की आजादी को कुचलने का पूरा प्रयास कर रही है.

औफिस छेड़छाड़ से बचाएं ये उपाय

अगर छेड़छाड़ सड़क पर हो तो आप रास्ता बदल सकती हैं, पर यदि औफिस में हो तो आप को सामना करना ही पड़ेगा. ऐसे में महिलाएं क्या करें ताकि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे  कुछ मजेदार सुझाव पेश हैं… अगर कोई अचानक पीछे से चुन्नी पकड़ ले, तो कहिएगा कि अरे अशोकजी आप  मैं तो डर ही गई थी कि घास चरतेचरते गधे यहां औफिस में कहां से आ गए. थोड़ी नाटकीयता से घबरा कर बोलें. सहयोगी साथियों के हंसने से वह बड़ी बेइज्जती महसूस करेगा. फिर सब के साथ आप भी मजा लें. जरूरत से ज्यादा तारीफ करने वाले को मुसकरा कर कहें कि इतनी तारीफ कर ही रहे हैं तो सर मेरा भी फर्ज बनता है कि आप को बता दूं कि अगले महीने मेरा बर्थडे है. 5-10 हजार का गिफ्ट तो जरूर लाएंगे न, बेचारा घबरा जाएगा. खिसियाया सा बोलेगा कि हांहां, क्यों नहीं मैडम.

फ्लर्ट करने वाले को मुसकराते हुए कहें कि मिस्टर आप का छेड़ने का अंदाज तो बहुत ही निराला है. जरूर भाभी को ऐसे ही पटाया होगा. बेचारा यह सुनते ही झेंप जाएगा और फिर कभी कुछ न बोलेगा.

‘मिस इस सैक्सी सूट में क्या जंच रहीं हैं’, कोई यह कहे तो जवाब में कहें कि अरे मैं तो भूल ही गई थी. जंच रही हो से याद आया कि बड़े सर ने आप को वह कल वाली फाइल की जांच के लिए बुलाया है. बड़े गुस्से में लग रहे थे. क्या कर दिया आप ने… जल्दी जाइए… उस का मुंह खुला का खुला रह जाएगा.

अगर कोई हाथ पकड़ ले तो गा उठें कि भैया मेरे राखी के बंधन को निभाना… नेग दोगे या मैं दूं… मोटी हैं कलाइयां पहनाऊं तुझे लोहे वाली चूडि़यां और फिर हंस पड़ें.

कोई पास सटने की कोशिश करे तो कहें कि छि: यह कैसी बदबू सी आ रही है आप से… भाभीजी कैसे बरदाश्त करती होंगी… इतना कमाने का क्या फायदा जो एक अच्छा डियोड्रैंट भी खरीद न सकें. फिर कनखियों से उस के चेहरे पर नजर डालें. वह खिसियाया सा बगलें झांकने लगेगा.

कोई रास्ता रोके तो कहें, ‘जवाहर जरा यह फाइल ऊपर पहुंचा दो.’ जबरदस्ती किसी चपरासी को जोर से पुकारें. रास्ता रोकने वाला पलट कर देखने लगेगा. इस दौरान आप को वहां से निकलने का मौका मिल जाएगा.

कुछ जूडोकराटे के पैंतरे भी सीख लें. क्या पता कब हाथपैर चलाने पड़ जाएं. ऐसे में सामने वाला ‘नौ दो ग्यारह’ होने में ही भलाई समझेगा.

यहां बताए गए तरीकों को आजमाने के बावजूद भी  मामला ज्यादा गंभीर हो जाए तो 1091 नंबर तो है ही आप के पास.

 

प्ले स्कूलों से सावधान

महानगरों में बच्चों के लिए क्रैच, प्रीस्कूल, प्ले स्कूल, किंडरगार्टन जैसे नामों से संचालित होने वाली संस्थाएं बदलते सामाजिक परिवेश की जरूरत बन गई हैं. कामकाजी मातापिता औफिस आवर्स में बच्चों को उचित देखभाल के लिए ऐसी संस्थाओं में छोड़ देते हैं. बढ़ती आधुनिक जरूरतों, खत्म होते पड़ोस और संयुक्त परिवारों की टूटती परंपरा में उन्हें यही विकल्प बेहतर नजर आता है. बच्चों को लाडदुलार, स्नेह, व्यवहार व बातचीत की शिक्षा पैसे के बदले छोटे बच्चों को पालनाघर देने को तैयार हो जाते हैं. मातापिता बेफिक्र भी हो जाते हैं कि उन के बच्चे अच्छे माहौल में पलबढ़ कर जिंदगी का बुनियादी सबक ले कर भविष्य की तरफ बढ़ रहे हैं.

सतर्क रहें अभिभावक

संचालकों की मुंहमांगी फीस चुका कर इस बेफिक्री में और भी इजाफा हो जाता है. लेकिन क्या हकीकत में इसे बेफिक्री ही मान लिया जाए  ऐसा करने वाले अभिभावक कई बार सावधानी और सतर्कता बरतने वाली बुनियादी चूक कर जाते हैं. उन की चूक न सिर्फ उन्हें, बल्कि उन के बच्चे के कोमल मन पर भी भारी पड़ती है.

दिल्ली से सटे उत्तर प्रदेश के गाजियाबाद जनपद में रहने वाले एक दंपती को भी यही बेफिक्री थी, लेकिन उन के साथ जो हुआ उस पर वे आज तक पछता रहे हैं. प्रीति व अजय (बदले नाम) दोनों ही नोएडा की एक प्राइवेट कंपनी में काम करते थे. उन की 4 साल की एक बेटी थी. प्राथमिक परवरिश के बाद उन्होंने बेटी को प्ले स्कूल भेजने का फैसला किया. उन्होंने एक बड़ी सोसाइटी में चल रहे किड्स स्कूल क्रैच में बच्ची को भेजने का फैसला किया. उन्होंने जा कर बातचीत की, तो पता चला कि महीने में 4 हजार के बदले स्कूल के संचालक बच्चे की देखभाल करते हैं. बच्चों को घर जैसा माहौल, खानापीना, स्नेह देना यानी उन का हर तरह से खयाल रखा जाता था. मातापिता के आने तक बच्चे के प्रति हर तरह की जिम्मेदारी संचालकों की होती. इस दंपती को यह बहुत अच्छा विकल्प लगा. बेटी को सुबह वहां छोड़ कर वे आराम से नौकरी पर जा सकते थे. इस से बेटी को भी किसी तरह की परेशानी का सामना नहीं करना पड़ता. अत: उन्होंने बेटी को वहां छोड़ना शुरू कर दिया. चंद महीने बाद प्रीति को बेटी की तबीयत बिगड़ती महसूस हुई. अब वह प्ले स्कूल जाने के नाम से ही रोने लगती थी. एक दिन तबीयत ज्यादा बिगड़ी, तो उन्होंने गौर किया. बेटी के शरीर पर कुछ गंदे निशान थे. उन्होंने इस बारे में प्यार से बेटी से पूछा, तो उस ने रोते हुए बताया कि यह सब उस के साथ स्कूल के दादू करते हैं. प्रीति हैरान रह गईं. उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था कि उन की बेटी के साथ इस तरह की गंदी हरकत की जा रही थी और वे अनजान थीं. पति कंपनी के टूअर पर विदेश गए हुए थे. प्रीति ने उन के आने पर हकीकत बताई, तो 12 जनवरी, 2016 को स्कूल संचालकों के खिलाफ उन्होंने थाना विजय नगर में एफआईआर दर्ज कराई.

पुलिस ने दुष्कर्म, अप्राकृतिक यौन शोषण व बच्चों को यौन शोषण से बचाने के लिए बनाए गए कानून के तहत काररवाई की. मैडिकल रिपोर्ट में भी इस की पुष्टि हुई. मामला संगीन था, लिहाजा पुलिस ने आरोपी अधेड़ उम्र के अरुण सिन्हा नामक व्यक्ति को गिरफ्तार कर लिया. दरअसल, आरोपी की पुत्रवधू प्ले स्कूल चला रही थी, जिस में वह भी सहयोग करता था. बहू जब किसी काम से बाहर जाती थी, तो वह बच्चों के साथ गंदी हरकतें करता था. बाद में उस ने प्रीति की बेटी को अपनी गंदी हरकतों का नियमित जरीया बना लिया था. किसी ने शायद ही सोचा होगा कि नामी सोसाइटी में इस तरह की घिनौनी सोच वाला शख्स शराफत का चोला ओढ़े रह रहा है. यह सचाई प्रीति और अजय के लिए किसी सदमे की तरह थी.

अब प्रीति और अजय भी पछता रहे हैं. उन के जैसे हजारों मातापिता हैं, जो ऐसा करते हैं. महानगरों में उच्च व मध्यवर्गीय मातापिता जरूरतवश औफिस आवर्स तक बच्चों को प्रीस्कूल में भेजते हैं. बड़ी कीमत चुका कर वे मान लेते हैं कि उन के बच्चे भावनात्मक, मानसिक व शैक्षिक रूप से तैयार हो कर भविष्य के लिए आगे बढ़ रहे हैं.

सोचसमझ कर चुनें प्ले स्कूल

क्या बच्चों की सुरक्षा और विकास के मामले में मातापिता अपनी सोच पर वाकई खरे उतर रहे हैं  यह सोचनीय है. अनजाने में ही सही सावधानी बरतने के अभाव में मातापिता बच्चों के दुश्मन बन जाते हैं. ऐसी नर्सरी संस्थाएं जरूरत तो हैं, लेकिन उन के चुनाव में सतर्कता जरूर बरतनी चाहिए.

हरियाणा के एक प्ले स्कूल में ढाई साल की बच्ची के साथ इस कदर मारपीट की गई कि उस का सिर ही फूट गया. बच्ची को अस्पताल में दाखिल कराना पड़ा. उस के परिजनों ने स्कूल संचालिका के खिलाफ मुकदमा दर्ज करा दिया.

चाइल्ड प्ले स्कूलो में कई बार वह सब होता है, जो प्रत्यक्ष में दिखाई नहीं पड़ता. ऐसे भी मामले सामने आते हैं जब बच्चों को शांत रखने और उन्हें सुलाने के लिए जूस में नशीला पदार्थ तक दिया जाता है.

मातापिता को यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि बच्चे कच्चे घड़े की तरह होते हैं. उन्हें जैसा रूप दिया जाएगा वैसे ही वे हो जाएंगे. यदि उन के साथ प्रीस्कूल में अच्छा व्यवहार नहीं किया जाता है, तो उन में भावनात्मक व मानसिक विकृतियां आने की संभावना बढ़ जाती है. अत: अभिभावकों को छोटे बच्चे की देखभाल के दावे करने वाली संस्थाओं का चुनाव सोचसमझ कर ही करना चाहिए. यह तय करना जरूरी है कि जहां बच्चों को छोड़ना चाहते हैं वह क्या बच्चों के लिए हर तरह से सुविधाजनक और सुरक्षित है             

इन बातों का रखें खयाल

– पता करें कि संस्था के खिलाफ पहले शिकायतें तो नहीं हैं.

– उन अभिभावकों से भी मिलें जिन के बच्चे संस्था में जाते हैं. ऐसे अभिभावकों के अनुभव लें.

– वहां आने वाले बच्चों के व्यवहार और भावनात्मकता को भी परखें.

– पता करें कि संस्था संचालकों का व्यवहार कैसा है.

– औफिस आवर्स के अलावा भी संस्था में जाएं. इस से हकीकत परखने का मौका मिलेगा.

– संस्था की इजाजत से बच्चों के बीच समय बिताएं और पूछें कि उन्हें कोई परेशान तो नहीं करता.

– समयसमय पर बच्चों से वहां की डेली गतिविधियों पर बात करें. बच्चा कुछ कहना चाहे, तो डांट कर उसे चुप न कराएं. देखें कि उस में अच्छी आदतों का विकास हो रहा है या नहीं.

– शिकायत मिलने पर बेहिचक संस्था के खिलाफ पुलिस में शिकायत दर्ज कर

संगमरमरी सौंदर्य ‘भेड़ाघाट’

मध्य प्रदेश के प्रमुख शहर जबलपुर का नाम सुनते ही जेहन में संगमरमर की सुंदर, श्वेत एवं धवल पत्थर की चट्टानों का मनोरम स्थल भेड़ाघाट आंखों के सामने घूम जाता है. धुआंधार, बंदरकूदनी, चौंसठ योगिनी, नर्मदा के किनारों की चट्टानें जिन के बीच बहती धारा कलकल करती, भेड़ाघाट के अन्य रमणीय स्थल हैं. जबलपुर से 26 किलोमीटर की दूरी पर स्थित भेड़ाघाट ऐतिहासिक स्थल होने के साथसाथ पर्यटन स्थल भी है.

भेड़ाघाट में ठहरने के लिए कई आधुनिक होटल, मोटल्स एवं लौजेज हैं. मध्य प्रदेश राज्य पर्यटन निगम द्वारा टूरिस्ट मोटल मार्वल रौक्स आप के इस अवसर को हर प्रकार से यादगार अवसर बनाए रखने का पूरा प्रयास करता है. अक्तूबर से जुलाई तक का समय भेड़ाघाट की यात्रा के लिए उचित है जब धुआंधार का जल तथा गिरते पानी की गहराई अपनी चरम पर होती है. जबलपुर से भेड़ाघाट जाने के लिए टैक्सी, टैंपो, बस आदि रेलवे स्टेशन व बस स्टेशन से हमेशा मिल जाते हैं जो लगभग 1 घंटे में भेड़ाघाट पहुंचा देते हैं. जबलपुर दिल्लीग्वालियर हवाईमार्ग से भी जुड़ा है.

इन्हीं खूबियों के चलते जबलपुर का भेड़ाघाट देशविदेश के पर्यटकों का मुख्य दर्शनीय स्थल बन चुका है.

दर्शनीय स्थल

मदनमहल, संग्राम सागर, पिसनहारी की मढि़या, गांधी स्मारक आदि जबलपुर के आसपास के अन्य पर्यटन स्थल हैं जो 15 से 20 किलोमीटर के अंदर ही हैं. पर्यटन विभाग द्वारा चलाई जा रही बसों से आप इन पर्यटन स्थलों को आराम से देख सकते हैं.

मैं, मेरे पति तथा पुत्र पिछले कई दिनों से भेड़ाघाट देखने का कार्यक्रम बना रहे थे. हम दिल्ली से ट्रेन द्वारा जबलपुर सवेरे ही पहुंच गए थे. वहां एक होटल में हम ने कमरा बुक करा लिया. होटल के पास ही भेड़ाघाट आनेजाने के लिए हम ने एक टैक्सी तय कर ली.

हम सुबह 10 बजे टैक्सी से भेड़ाघाट जाने के लिए रवाना हुए और 11 बजे भेड़ाघाट पहुंचे. टैक्सी पार्किंग में छोड़ कर हम पैदल चल पडे़. सामने एक छोटा सा बाजार था. बाजार से गुजरते वक्त कुछ दुकानें रास्ते में पड़ीं जहां व्हाइट मार्बल के टुकड़ों पर अनेक प्रकार की चित्रकारी दिखी. यदि आप चाहें तो अपना नाम या अपनी पसंद का कुछ भी व्हाइट मार्बल के टुकड़े पर लिखवा सकते हैं. उसे आप को हाथोंहाथ लिख कर दे दिया जाता है.

पहाड़ों के बीच बहती नर्मदा नदी यहां पर बिलकुल संकरी हो जाती है. मैदानों में बहने वाली चौड़ी नर्मदा, भेड़ाघाट तक पहुंचतेपहुंचते सिकुड़ सी जाती है. नर्मदा की यह संकरी धारा एक स्थान पर पहाड़ से लगभग सौ फुट नीचे एक झरने के रूप में गिरती है. पानी के इतनी ऊंचाई से गिरने के कारण पानी की छोटीछोटी बूंदें आप पर गिरते हुए आप को धुएं से घेर लेती हैं. पानी गहराई में गिरने के कारण आप के चारों तरफ उठता हुआ धुआं और पानी की बौछार तथा फुहार घनी हो कर एक धुएं का रूप ले लेती है और इसी कारण इस जगह को धुआंधार कहते हैं.

प्रशासन ने कुछ दिनों पहले ही धुआंधार में रोपवे की भी व्यवस्था कर दी है. नदी से काफी ऊंचे व लगभग

1 किलोमीटर लंबे रोपवे के नीचे के विहंगम दृश्य को आप अपने कैमरे में कैद कर अपनी अमिट यात्रा का एक साधन बना सकते हैं.

यादगार पल

इस मनोरम अविस्मर्णीय दृश्य को आंखों में बंद कर कुछ क्षण अपने अंदर संजो कर रखने के लिए हम पास में ही बैठ गए. नदी के बहते पानी में खेलते बच्चों का एकदूसरे पर पानी उछालउछाल कर खुश होना आप को अपना नटखट बचपन याद दिला देता है.

धुआंधार से थोड़ी ही दूरी पर चौंसठ योगिनी मंदिर है. सीढि़यों से चढ़ कर हम ने मंदिर के परिसर में प्रवेश किया. यहां पर 10वीं शताब्दी के कलचुरी वंश की पत्थरों से तराशी गई मूर्तियां हैं. अधिकांश मूर्तियां टूट चुकी हैं.

अन्य कई महत्त्वपूर्ण दर्शनीय स्थलों को देखते हुए हम भेड़ाघाट के विश्वप्रसिद्ध स्थल मार्बल रौक्स की ओर अग्रसर हुए. नर्मदा नदी के दोनों किनारों की ऊंचीऊंची संगमरमर की चट्टानों से घिरा यह एक प्रसिद्ध एवं मनमोहित करने वाला स्थल है. यहां पर देखने वाले मुख्य 3 स्थल हैं. पहली नर्मदा की बलखाती किंतु शांत धाराएं, संगमरमर की विभिन्न आकृतियों वाली रंगबिरंगी चट्टानें तथा बंदरकूदनी.

टैक्सी पार्क कर सीढि़यों से उतर कर जैसे ही हम नर्मदा के किनारे पहुंचे, कई नाव वालों ने हमें घेर लिया. मोलभाव करने के बाद एक नाव वाला हम तीनों को 500 रुपए में मार्बल रौक्स दिखाने के लिए तैयार हुआ. हमारा नाविक, जो एक गाइड का काम भी कर रहा था, हमें आसपास के दृश्यों, चट्टानों, पहाड़ों आदि के बारे में उन के ऐतिहासिक, भौगोलिक, धार्मिक एवं फिल्मजगत से संबंधित महत्त्वपूर्ण जानकारियां भी दे रहा था. नर्मदा का शांत, स्वच्छ, पारदर्शी, कांच की तरह चमकता जल आप को विस्मय में डाल देता है. धुआंधार की उछलती, उफनती नर्मदा चट्टानी बाधाओं को काटती हुई यहां आ कर शायद थक कर शांत हो जाती है. प्रकृति का कैसा विचित्र संयोग है.

प्रकृति से रूबरू

दोपहर का समय. आसमान पर चमकता सूरज एवं सूरज की धूप में चमकती गुलाबी रंग की, फिर हरे रंग की और अंत में शुद्ध सफेद रंग की मनमोहक संगमरमर की चट्टानों का पर्वत हमारी आंखों के सामने था. गाइड ने हमें आसपास की चट्टानों के विषय में तरहतरह की कहानियां सुनाईं. हर चट्टान के पीछे कोई न कोई कहानी थी. कोई मार्बल की चट्टान कार के रूप में दिख रही थी.

प्रकृति का विचित्र खेल, कला का अद्भुत उदाहरण हमारे सामने था. गाइड के अनुसार, यहां पर नर्मदा की गहराई लगभग 300 फुट है. मन सिहर उठता है इतनी गहराई को सुन कर. हम कल्पना करने लगे कि पूर्णचंद्र के दिनों में यह दृश्य एक अविस्मर्णिय याद की तरह जीवनपर्यंत एक धरोहर बन कर मस्तिष्क में रखा जा सकता है. आप का मोबाइल या आप का कैमरा आप का यहां के लिए एक अच्छा साथी है.

नाविक ने एक स्थान पर पहुंच कर नाव रोक दी जिस का नाम उस ने ‘बंदरकूदनी’ बताया. नदी के दोनों तरफ की मार्बल रौक्स पहले इतने करीब थीं कि यहां बंदर एक चट्टान से दूसरी चट्टान पर कूद कर नदी पार करते थे.

समय बीतता गया और प्राकृतिक कारणों की वजह से ये दोनों चट्टानें अब दूर हो गई हैं, इसलिए अब पहले की तरह इन पर से कूद कर बंदर नदी पार नहीं कर सकते.

भेड़ाघाट में हर साल कार्तिक महीने में एक दिन विशाल मेला लगता है. भारतीय मेलों की हर छटा, हर कला तथा हर स्वरूप आप को इस मेले में देख सकते हैं. 

पृथ्वी का सौंदर्य ‘स्विट्जरलैंड’, हर दिल अजीज

संसार के सब से सुंदर देशों में स्विट्जरलैंड की गणना होती है. यह बात अकारण नहीं है. इसे नयनाभिराम बनाने में प्रकृति का सब से बड़ा हाथ है. बर्फ से लदी ऊंचीऊंची पर्वत चोटियां, अत्यंत स्वच्छ वातावरण, शीतल पवन, शुद्ध जल एवं बहुत ही सुंदर लोग. वातावरण की शुद्धता ही शायद वह महत्त्वपूर्ण कारक है कि यहां अत्यंत सूक्ष्म यंत्र एवं दवाओं का निर्माण होता है. स्विस मेड घडि़यों को भला कौन नहीं जानता.

राइन फौल्स

जरमनी के ब्लैक फौरेस्ट इलाके से प्रस्थान करने के बाद हम इस देश की सीमा में दाखिल हुए. पहला पड़ाव था राइन फौल्स के पास. यह स्थान पर्यटकों को काफी लुभाता है. इस की गिनती पर्यटन की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण स्थलों में होती है. यहां करीब 80-90 फुट चौड़ाई वाली राइन नदी 30-40 फुट ऊंचाई से सीढ़ीनुमा चबूतरे पर हरहरा कर गिरती है. चारों तरफ जहां पानी का फेन ही फेन दिखाई पड़ता है वहीं कुछ दूर तक हवा में बादल सा भी बन जाता है. प्रपात के गिरने के स्थान से थोड़ी दूरी पर ही उद्वेलित जल शांत होने लगता है और कुछ नावें नदी की सतह पर दिखाई देने लगती हैं. कुछ ऐडवैंचर के शौकीन नाव से प्रपात का आनंद निकट से लेने के लिए उधर जाने का भरसक प्रयत्न कर रहे थे.

टूरिस्टों की सुविधा हेतु वहां एक विशाल ठेला भी नजर आया जिस में हिंदुस्तानी समोसा, पावभाजी, वड़ा, चाय और कौफी मिल रहे थे. इन के अलावा कुछ यूरोपियन स्नैक्स भी उपलब्ध थे. उन के रेट्स की बात मत पूछिए. भारतीय मुद्रा के हिसाब से काफी महंगे थे. स्विट्जरलैंड के इस सुदूर कोने में इंडियन स्नैक्स बिकते देखना एक सुखद अनुभूति थी. उस से भी आश्चर्य यह देख कर हुआ कि उस अनजान स्थल पर मात्र वही एक दुकान थी जहां हलके नाश्तेपानी की व्यवस्था थी. क्या इसे मात्र संयोग कहा जाए. इस का कारण शायद यह है कि इन दिनों बड़ी संख्या में हिंदुस्तानी छुट्टियों में या वैसे भी, परिवार के साथ विदेश भ्रमण हेतु निकल रहे हैं. इस प्रकार के ठेले वाले हिंदुस्तानी लोगों की आवश्यकता के लिए बने हैं क्योंकि वे उन के स्वाद के मुताबिक चीजें उपलब्ध करा रहे हैं. इस अत्याधुनिक ठेले पर काम करने वाले भारतीय ही प्रतीत हो रहे थे.

रात होतेहोते हम स्विट्जरलैंड की राजधानी जूरिख स्थित होटल नोवोटेल पहुंचे जहां हमारे ठहरने की व्यवस्था कराई गई थी. दिनभर की बस यात्रा से थकान हो गई थी और शरीर आराम मांग रहा था. खुशी इसी बात की थी कि इस देश में हमारा 2 दिनों का प्रोग्राम था. स्विट्जरलैंड की यात्रा अधूरी ही रह जाएगी यदि माउंट टिटलिस न जाया जाए. यहां आने के लिए हमें एंगिलबर्ग नामक छोटे से कसबे में आना था, जहां के होटल आइडलवाइस में हमारे ठहरने का प्रबंध किया गया था. बताया गया कि इस जगह की पूरी आबादी लगभग 1 हजार है. पूरा कसबा, लगता है एक बड़े कटोरे में बसा है. चारों ओर ऊंचीऊंची और कहींकहीं बर्फ से लदी पहाडि़यां, घुमावदार सड़कें और साफसुथरी गलियां मन को बरबस मोह लेती थीं. ऐसा प्रतीत होता था जैसे हमारे आने के कुछ ही समय पहले सड़कों पर किसी ने अच्छी तरह झाड़ू से साफसफाई की हो. इतनी स्वच्छता का मुख्य कारण था हवा में धूल कणों का सर्वथा अभाव. न गरमी पड़ती है, न हवा गरम होती है, न धूल उड़ती है, न गंदगी फैलती है. पहाड़ की ढलानों पर बसे छोटेछोटे कोनेदार रंगीन छतों वाले मकान बड़ेबड़े खिलौनों की तरह लगते थे. उन्हीं की तरह ढलानों एवं जमीन पर विभिन्न डिजाइनों में बने बड़ेबड़े होटल, हवा में लहराते रंगीन झंडों के कारण बड़े मनभावन लग रहे थे. शायद बहुत कम आबादी होने के कारण बाजार एवं गलियां अकसर लोगों से खालीखाली दिखीं.

ऊंचाई पर बने होटल में प्रवेश करने के लिए 2-2 स्टेज की लिफ्ट लगी है. दोनों स्टेजों पर एक सुरंग से पहुंचा जाता है. ऐसा लगा कि सुरंग वाला रास्ता सर्वसाधारण के लिए न हो कर केवल होटल में ठहरने वालों के लिए ही बना है क्योंकि जहां स्थानीय निवासी ऊंचीनीची घुमावदार सड़कों से हो कर, अपने घर में जाने के आदी थे. अपने भारत देश के पहाड़ी इलाकों में रहने वाले भी इस प्रकार की जिंदगी से वाकिफ हैं. होटल के टेरेस से बड़ा दिलकश नजारा देखने को मिला. जिधर नजर घुमाइए, देखिए ऊंचे पहाड़. कुछ बर्फ की चादर ओढ़े, कुछ वैसे ही नंगे. ये पहाड़ शायद अल्पाइन रेंज का ही हिस्सा हैं. अब था कल का इंतजार. जब हम केबल कार से माउंट टिटलिस की सैर पर जाएंगे.

माउंट टिटलिस

हमारे होटल से मात्र डेढ़दो किलोमीटर पर ही वह स्थान था जहां से पहाड़ के ऊपर जाने के लिए केबल कार मिलती है. जमीन से ऊपर चोटी तक, थोड़ीथोड़ी दूर पर विशाल एवं मजबूत खंभे गड़े हैं. इन के बीच खिंचे मोटे रस्सों पर ही केबल कारें कुछकुछ समय के अंतराल पर आतीजाती रहती हैं. हरेक केबल कार में 6 आदमियों के बैठने की जगह है. एक ऊंचे प्लेटफौर्म से सभी कारें स्टार्ट होती हैं. धीरेधीरे सरकती कारों में सवारियों को लगभग दौड़ते हुए अपनी जगह लेनी होती है. वरना कारें आगे बढ़ जाएंगी. पता नहीं यहां कितनी कारें इस तरह की हैं. चाह कर भी ये नहीं गिनी जा सकतीं, क्योंकि इन की आवाजाही, अप और डाउन, दोनों लाइनों पर निरंतर लगी रहती है क्योंकि पहाड़ की चढ़ाई एकदम खड़ी है, इसलिए ये तिरछी हो कर ऊपर चढ़ती जाती हैं.

पहाड़ के अंतिम पौइंट पर जाने के लिए यात्रा 3 स्टेजों में संपन्न होती है. पहले स्टेज पर एक लंबाचौड़ा चबूतरा मिलता है. वहां किसी तकनीकी कारण से कारें एकडेढ़ मिनट के लिए रोक दी जाती हैं. जैसे ही हम दूसरे स्टेज पर आते हैं, पुरानी कार को छोड़ कर दूसरी, काफी बड़ी पिंजरानुमा कार में चढ़ जाना होता है. कम से कम 40-50 आदमी हड़बड़ा कर इस गोल पिंजरे में घुस गए. कार के केंद्र में एक गोलाकार सीट थी, जिस पर किसी प्रकार 8-10 लोग बैठ सके किसी लोकल ट्रेन की तरह. जैसे ही पिंजरे का गेट बंद हुआ, केबल कार तिरछी हो कर ऊपर की ओर चढ़ने लगी. अब वह केवल चढ़ ही नहीं रही थी, बाएं से दाएं धीरेधीरे घूम भी रही थी. संसार में यही एक केबल कार है, जो रोटेट भी होती है. कार की छत पर चारों ओर विभिन्न भाषाओं में यात्रियों का इस केबल कार में स्वागत किया गया और सेवा का अवसर प्रदान करने के लिए उन का धन्यवाद ज्ञापन भी किया गया. 2 स्थानों पर हिंदी में भी यह संदेश लिखा हुआ मिला. अनजान जगह में हिंदी का प्रयोग देख कर गौरव एवंआनंद दोनों हुआ कि हमारी हिंदी यहां भी पहुंच गई है.

थोड़ी देर बाद केबल कार आखिरी मंजिल पर पहुंची. वहां चारों ओर बर्फ ही बर्फ दिखाई पड़ती थी. कोहरे में जिस तरह का नीम अंधेरा चारों ओर छाया रहता है, कुछ वैसा ही दृश्य था वहां. कंपकंपाने वाली ठंडी हवा भी चल रही थी. बहुत लोगों ने अतिउत्साह में बर्फ की ऊंचाइयों पर चलना भी शुरू कर दिया था. कुछ लोग एकदूसरे पर बर्फ के गोले बना कर फेंक रहे थे. इसी मुद्रा में न जाने कितने कैमरे क्लिक हो रहे थे. इस अंतिम मंजिल पर सरकार की ओर से सुरक्षा की पूरी व्यवस्था थी ताकि किसी तरह का खतरा न हो. चारों ओर इस प्रकार से रेलिंग एवं जाल की व्यवस्था की गई थी कि मनोरंजन के लिए भागदौड़ के क्रम में कोई फिसल कर गिर न पड़े. खुले में बर्फ पर जाने के लिए सब को एक टैरेस से आगे जाना होता है. टैरेस की

सुंदरता बढ़ाने के लिए रंगबिरंगे दर्जनों झंडे हवा में लहराते रहते हैं. टैरेस के प्रारंभ में एक अत्यंत अनपेक्षित चीज देखने को मिली. वह थी हिंदी फिल्म ‘दिलवाले दुलहनियांले जाएंगे’ का एक 5-6 फुट का कटआउट, जिस में मशहूर अभिनेता शाहरुख खान और काजोल एक डांसिंग पोज में हमें देख रहे हैं, कुछ ऐसा ही प्रतीत हो रहा था. देख कर अचरज और खुशी दोनों हुई. कटआउट के सामने से गुजरने वाले थोड़ी देर के लिए वहां रुकते, मुसकराते हुए निहारते और आगे बढ़ जाते. देखा, कुछ जापानी पर्यटक बारीबारी से शाहरुख के गले लग कर, काजोल के गले लग कर, अपनी तसवीरें खिंचवा रहे थे.

ऐसा ही देखने को मिला था लंदन के मैडम तुसाद म्यूजियम में, जहां माधुरी दीक्षित एवं ऐश्वर्या राय के मोम के पुतलों से गले लग कर विभिन्न पोजों में फोटो खिंचाने की होड़ मची हुई थी. पहाड़ के अंतिम स्टेज पर, जिस की ऊंचाई 3020 मीटर यानी 10 हजार फुट है, यात्रियों की सुविधा की सारी व्यवस्था की गई है. खानपान के स्टौलों के अतिरिक्त शौचालय भी बने थे. पहाड़ की चोटी पर करीब 1 घंटा बिताने के बाद वापसी यात्रा प्रारंभ हुई. सब से ज्यादा अचरज इसी बात का था कि झूलती हुई रस्सियों पर एकसाथ कई रोटेटिंग कारें, जिन में प्रत्येक में 40-50 यात्री भरे होते हैं, आतीजाती रहती हैं. ये रस्सियां कैसे इतना तनावभरा वजन बरदाश्त कर लेती हैं. यह भी किसी अचरज से कम नहीं था, आखिर किस धातु की बनी हैं ये. अगर कहीं इन में एक भी टूट जाए तो क्या होगा. सोच कर ही मन अशांत हो जाता था. परंतु इन्हें ऐसी तकनीक से बनाया गया है कि किसी दुर्घटना की आशंका ही नहीं.

लूजर्न लेक

पहाड़ से उतरने के बाद लूजर्न लेक में नौकाविहार करने को लूजर्न आए. यह लंबीचौड़ी झील बहुत खूबसूरत है. किनारे पर बहुत सी सफेद बतखें जल में तरहतरह के करतब कर रही थीं. नौकाविहार के लिए टूरिस्टों की भीड़ लगी थी. जैसे ही 1-2 मंजिला जहाज जेट्टी से स्टार्ट करता, पीछे लगे दूसरे जहाज में लोग बैठना शुरू कर देते थे. पर हमारे जहाज के छूटने में 40-50 मिनटों की देर थी क्योंकि सभी के छूटनेपहुंचने का टाइम फिक्स्ड था. इसी बीच, जेट्टी के नजदीक, सड़क किनारे लगी एक बैंच पर बैठ कर मैं शहर के चौक का नजारा लेने लगा. देखा कि यहां 3 तरह की ट्रामें चलती हैं. एक तो कोलकाता की तरह, जिस में लोहे के पहिए लगे हैं और ऊपर बिजली से पावर मिल रहा है. दूसरा, जिसे पावर तो उपर से मिल रहा है पर टायर वाले पहिए लगे हैं. तीसरी तरह की वह, जिस में डीजल इंजन लगे थे. किसी ट्राम में 3-4 से ज्यादा बोगियां नहीं थीं. शहरी यातायात की समस्या के हल करने की दिशा में यह एक रोचक प्रयोग लगा. इसी प्रकार का आंशिक प्रयोग जरमनी के कोलोन शहर में देखने को मिला था पर वहां सिर्फ टायर से चलने वाली रेलगाडि़यां ही थीं.

इसी बीच, दूसरा जहाज तैयार हो गया था. कुछ यात्रियों के साथ मैं ऊपर वाले डैक पर बैठ गया. वहां से चारों तरफ का अच्छा नजारा देखने को मिलता है. वैसे निचले डैक का अपना ही मजा है. वहां से पानी की ऊपरनीचे होती लहरों को आदमी पास से देख सकता है. इस लंबीचौड़ी झील का पानी काफी साफ एवं ठंडा होने के साथ आसमानी नीला भी है. जल विहार के बाद थकेमांदे शाम को होटल लौटे क्योंकि अगले ही दिन आस्ट्रिया के लिए प्रस्थान करने का कार्यक्रम था.  

बर्फ के नीचे मेहमाननवाजी

माउंट टिटलिस की सुंदरता से अगर पर्यटक ज्यादा ही प्रभावित हो गए हों तो यहां रात में भी रुक सकते हैं. पर्यटकों के लिए इसी बर्फीली पहाड़ी पर इग्लू बनाए गए हैं जिस में स्पा से ले कर, मल्टीकुजीन डिशेज, हौट वाटर बाथ से ले कर सारी लक्जरी सुविधाएं उपलब्ध हैं. इन इग्लू में अंदर डबल बैडरूम से ले कर आधुनिक वाशरूम उपलब्ध हैं. रात्रि को यहां कैंपफावर भी आयोजित किया जाता है जहां मनोरंजन के सभी साधन उपलब्ध रहते हैं

लंदन के वे दो दिन

पर्यटन की दृष्टि से हालिया दशकों में भले ही संसार के अन्य महानगरों ने पर्यटनों का ध्यान खींचना आरंभ कर दिया है, फिर भी संसार के महानतम नगर के तौर पर लंदन, आज भी उन की पहली पसंद बना हुआ है. लंबे समय तक यह नगर एक ऐसे देश की राजधानी था जिस की तूती सारे संसार में बोलती थी और जिस के साम्राज्य में सूरज कभी नहीं डूबता था. कालांतर में इस का रुतबा, गौरव एवं प्रभाव बरकरार है. लोग देखना चाहते हैं कि आखिर कैसा है वह शहर जो विश्व पटल पर कभी एक ‘नर्व सैंटर’ के रूप में माना जाता था. यह शहर अपनी ऐतिहसिकता,  व्यावसायिक उपक्रमों, महान संस्थान, वैज्ञानिक प्रगति एवं प्रसिद्ध शिक्षण संस्थानों के लिए आज भी जाना जाता है. हम में से ज्यादातर के अंतर्मन में यह लालसा रहती है कि काश, कभी लंदन घूमने का अवसर मिलता.

मेरे लिए आखिरकार वह घड़ी आ गई. दिल्ली के इंदिरा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे से कतर एअरवेज के विमान से हम लोगों का ग्रुप लंदन के लिए रवाना होने वाला था. कड़ी सुरक्षा व्यवस्था के बाद हम लोगों को अपनीअपनी सीट के टिकट मिले. करीब 12.30 बजे हम लोग कतर की राजधानी दोहा इंटरनैशनल एअरपोर्ट पहुंचे. कतर मध्यपूर्व में एक अत्यंत छोटा, किंतु तेल समृद्ध देश है. दोहा में कुछ आराम करने के बाद हमें लंदन जाने वाला दूसरा जहाज पकड़ना था. विशाल वेटिंगहौल में खानेपीने के अलावा फैशनेबल चीजों की बड़ीबड़ी दुकानें भी थीं. कुछ लोगों ने थोड़ीबहुत शौपिंग भी की. इसी अंतराल में  यात्रियों का सामान दूसरे जहाज में ट्रांसफर किया जा रहा था. दूसरा जहाज पहले वाले से कुछ बड़ा था. इस में अपनी सीटों पर बैठने के बाद दिन का भोजन सर्व किया गया.

शाम के 6.30 बजे होंगे, जब हम लोगों का विमान लंदन के हीथ्रो हवाई अड्डे पर उतरा. वहां अभी शाम ही थी, भारत में उस समय रात के 12 बज रहे थे. इंगलैंड का समय भारतीय समय से साढ़े 5 घंटे पीछे है.

हवाई अड्डे के इमीग्रेशन काउंटर पर बेहिसाब भीड़ थी. लोगों की लाइन में करीब 10-12 घुमाव थे. चैकिंग जबरदस्त थी. हालांकि चैकिंग के लिए 10-12 काउंटर थे परंतु शायद ही किसी काउंटर पर अंगरेज क्लर्क था. हमें आश्चर्य हुआ कि इतने महत्त्वपूर्ण स्थान पर इतने कम यहां के निवासी. क्या कारण होगा  लाइन से नजात पातेपाते करीब साढ़े 8 बजे गए. बाहर निकले तो देखा सूरज की काफी रोशनी अभी बची हुई थी. सूर्यास्त साढ़े 9 बजे हुआ. वैसे तो 10 बजे रात तक भी आदमी आराम से इस रोशनी में बैठ कर आंगन में अखबार पढ़ सकता है. कुछ अजीब सा लगा हमें. इंगलैंड को छोड़ कर यूरोप के अन्य देशों का मानक समय भारत से मात्र साढ़े 3 घंटे पीछे है.

लंदन आई

साइकिल के विशाल पहिए की तरह निर्मित इस विशाल झूले का निर्माण वर्ष 1999 में हुआ. टेम्स नदी के किनारे बने इस झूले के ऊपरी सिरे की ऊंचाई 443 फुट है. इस के किनारेकिनारे थोड़ीथोड़ी दूरी पर 32 केबिन लटकाए गए हैं. एक केबिन में 25 लोग बैठ सकते हैं, जिस का अर्थ यह हुआ कि एकसाथ इस झूले पर 800 लोग बैठ सकते हैं. झूले के घूमने की गति जानबूझ कर कम रखी गई है, 25 सैंटीमीटर प्रति सैकंड. इस के 2 फायदे हैं-एक तो बूढ़े, बच्चे एवं स्त्रियां बिना किसी दिक्कत के इस चलते झूले में बैठ सकते हैं,दूसरे धीरेधीरे चलते झूले से महानगर का आराम से नजारा लिया जा सकता है.

‘लंदन आई’ या लंदन की आंख कहने का अर्थ यह है कि इस पर चढ़ कर आदमी 40 किलोमीटर तक की दूरी के दृश्य देख सकता है. मेरे विचार से इस झूले के टेम्स नदी के किनारे बनाने के पीछे शायद यह भाव रहा होगा कि न केवल दर्शक इस उठतेगिरते झूले से पार्लियामैंट हाउस, उस में लगी घड़ी ‘बिग बेन’ का नजारा विभिन्न एंगल से ले सकेंगे, बल्कि आसपास के महत्त्वपूर्ण भवनों के साथसाथ नीचे टेम्स नदी में चलती हुई नावों को भी देख सकेंगे. सच पूछिए तो इस तरह के झूले अपने यहां के मेलों में भी लगाए जाते हैं, हां, वे भले ही इतने ऊंचे नहीं होते.

लंदन आई के बारे में एक बात मार्के की यह है कि यद्यपि इस में 32 ही केबिन हैं, पर अंतिम केबिन का नंबर है 33. अंधविश्वास के कारण चूंकि 13 नंबर को अपशकुन वाला माना जाता है इसलिए उस में 13 नंबर का केबिन नहीं है. इतने प्रबुद्ध देश में इस प्रकार की बातों में विश्वास करना बड़ा अजीब लगा.

बकिंघम पैलेस

यह विशाल भवन यहां के राज परिवार का निवास स्थान है. चारों ओर चारदीवारी से घिरा यह भवन पाश्चात्य स्थापत्य का नायाब नमूना है. मुख्यद्वार पर लगी लोहे की जाली का ऊपरी हिस्सा सुनहरे रंग से रंगा हुआ है, जो इस की भव्यता में चारचांद लगाता है. हम लोगों को मुख्यद्वार पर होने वाले ‘चेंज औफ गार्ड्स’ का दृश्य भी देखने का मौका मिला. वास्तव में यह एक औपचारिक परंपरा है जब सुरक्षा प्रहरी का एक जत्था अपनी ड्यूटी खत्म कर दूसरे जत्थे को चार्ज सौंपता है. आर्मी यूनिफौर्म में सुंदर व मजबूत घोड़ों पर, कड़क मार्च करते हुए सिपाहियों को देखने के लिए दर्शक घंटों इंतजार करते हैं. जैसे ही यह कार्यवाही शुरू होती है, सैकड़ों कैमरों में यह दृश्य कैद किया जाता है. हम ने भी किया. इस प्रक्रिया के दौरान एक अजीब सन्नाटा छाया रहता है.

अल्बर्ट मैमोरियल

प्रिंस अल्बर्ट महारानी विक्टोरिया के पिता थे. उन की मृत्यु कम उम्र में हो गई थी. उन्हीं की स्मृति में इस स्मारक का निर्माण करवाया गया था. खुले स्थान में बने स्मारक में प्रिंस अल्बर्ट की प्रतिमा एक ऊंचे सिंहासन पर आसीन है. काले पत्थर की इस प्रतिमा को सुनहरे रंग से सजाया गया है. महारानी ने अपने पति की याद में अन्य संस्थानों का भी निर्माण करवाया जिन में प्रसिद्ध है अल्बर्ट हौल, जहां विश्व के नामीगिरामी कलाकार अपना कार्यक्रम प्रस्तुत करते हैं. प्रसिद्ध गायिका लता मंगेशकर ने भी यहां अपना कार्यक्रम पेश किया था.

मैडम तुसाद

यह एक म्यूजियम है जो संसारभर के नामीगिरामी व्यक्तियों की मोम की मूर्तियों के लिए मशहूर है. राजनीति, धर्म, समाजसेवा, साहित्य, कला, फिल्म तथा खेलकूद की दुनिया में चर्चित व्यक्तित्वों से आप का यहां साक्षात्कार होता है. यहां चर्चित विदेशी चेहरों में राष्ट्रपति बराक ओबामा, केनेडी, चर्चिल, माग्रेट थैचर, आइंस्टाइन, नामी पेंटर पिकासो, मर्लिन मुनरो, टैनिस खिलाड़ी रोजर फेडरर और हौरर फिल्मों के डायरैक्टर अल्फे्रड हिचकौक की मूर्तियां हैं. भारतीय हस्तियों में महात्मा गांधी, पंडित जवाहरलाल नेहरू, मदर टेरेसा, अमिताभ बच्चन, सलमान खान, शाहरुख खान, रितिक रोशन, ऐश्वर्या राय, माधुरी दीक्षित, करीना कपूर एवं महान क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर की मूर्तियां मौजूद हैं.

पूरी बिल्ंिडग में कई हौल हैं. कुछ में म्यूजिक एवं वीडियो कार्यक्रम चलते रहते हैं. ऐसा प्रतीत हुआ कि संसार में जितना प्रसार इस म्यूजियम के बारे में है, वैसी कोई बात नहीं है. अंदर की सारी दीवारें गहरे रंगों से रंगी होने के कारण वातावरण अत्यंत बोझिल लगता है, उस पर सैकड़ों की भीड़. कुल मिला कर दमघोंटू वातावरण हो जाता है. मैं तो घबरा सा गया और सोचने लगा कि कैसे जल्दी बाहर निकलूं. और जहां तक मूर्तियों से व्यक्तियों की समानता का प्रश्न है, उस पर सभी मूर्तियां खरी नहीं उतरतीं. गांधीजी और सचिन की मूर्तियां तो कदापि नहीं. अमिताभ भी काफी दुबलेपतले दिख रहे थे.

असल में हम लोगों के मन में विदेशी चीजों के प्रति बेमतलब का क्रेज है. अपने देश में ही कितने निष्णात कलाकार हैं, परंतु उन के प्रति हम आदर के भाव नहीं रखते. अन्ना आंदोलन के समय एक देशी कलाकार ने अन्ना की मोम की मूर्ति बना कर उस के बगल में ही अन्ना को बिठाया.  अखबार में छपे चित्र को देख कर यह कहना मुश्किल था कि असल अन्ना कौन है. लंदन की मूर्तियों को देख कर यही लगा कि प्रचार एवं विज्ञापन के जरिए व्यापारी पीतल को सोना और अल्युमिनियम को चांदी साबित कर सकता है. हम भारतीयों में आत्मविश्वास की अकसर कमी दिखाई पड़ती है. इसे जगाना होगा और अपनी प्रतिभा में विश्वास करना सीखना होगा. यह मान्यता कि विदेशी हम से हर दृष्टि से बेहतर हैं, आत्मघाती प्रवृत्ति को जन्म देती है. इन स्थानों का भ्रमण करने के बाद लंदन ब्रिज, पार्लियामैंट हाउस, बिग बेन, ट्रफैल्गर स्क्वायर, हाइड पार्क वगैरह देखे. बरसों से चित्रों के द्वारा देखे गए पार्लियामैंट हाउस एवं बिग बेन की जो चमकती छवियां मानस पटल पर अंकित थीं, वैसे कुछ निकट से देखने पर नहीं लगा. चित्र अकसर हमें कल्पनालोक में ले जाते हैं और सचाई से भ्रमित करते हैं. इन भवनों को देखने से ऐसा लगा जैसे लंबे समय से इन पर रंगरोगन नहीं किया गया हो. पर ऐसा लगने का शायद यह भी कारण रहा हो कि उस दौरान मौसम साफ नहीं था.

ट्रफैल्गर रक्वायर

शहर के बीच में ही खुले मैदान में निर्मित यह भव्य मीनार 51 फुट ऊंची है. इस मीनार का निर्माण 1805 में नैल्सन द्वारा बैटल औफ ट्रफैल्गर में विजय प्राप्त करने की स्मृति में करवाया गया था. स्मारक के आसपास के क्षेत्र में मीटिंग्स और सभाएं होती रहती हैं, इस वजह से यहां बराबर चहलपहल बनी रहती है. देररात होटल पहुंच कर भोजनोपरांत हम लोग सो गए. प्रोग्राम के अनुसार सुबह कुछ अन्य स्थानों का बस द्वारा भ्रमण करने के बाद, इंगलैंड एवं फ्रांस के  बीच अवस्थित इंग्लिश चैनल पार कर पेरिस जाना था. उत्कंठा यह देखने को थी कि किस प्रकार बस के द्वारा ही पानी के नीचे बनी सुरंग से एक देश से दूसरे में जाया जाता है.हमारी बस एक रेलवे टर्मिनल के पास आई. वहां थोड़ी देर बाद सिग्नल मिलने पर पास ही लगी मालगाड़ी के एक खुले प्लेटफौर्म पर चढ़ गई. कुछ ही मिनटों में बस को चारों ओर से लोहे की चादर वाली दीवार से ढक दिया गया. दीवार अंदर से खुबसू रत रंगों से रंगी गईं थी. उस में प्रकाश की अच्छी व्यवस्था के  साथसाथ थोड़ीथोड़ी दूर पर खिड़कियां भी बनी हुई थीं, जिन से आप बाहर का नजारा कुछ देर तक ले सकते हैं. गाड़ी के सुरंग में घुसने के बाद कुछ भी नहीं दिखाई देता.

सच कहने की हिम्मत

कालेज की वार्षिक परीक्षा शुरू हो गई थी. गणित का प्रश्नपत्र प्रिंसिपल विश्वनाथजी ने खुद तैयार किया था. परीक्षा में गणित का एक प्रश्न देख कर छात्रों का सिर चकरा गया. प्रश्न कठिन था और छात्रों की समझ में नहीं आ रहा था कि उस प्रश्न को हल कैसे किया जाए दरअसल, प्रिंसिपल सर ने जानबूझ कर प्रश्नपत्र में एक कठिन प्रश्न रख दिया था.

परीक्षा समाप्त होने के बाद कौपियां जांचने का काम शुरू हुआ. गणित की कौपियां प्रिंसिपल सर खुद जांचने लगे. उन्हें हैरानी हुई कि एक भी छात्र ने उन के दिए उस कठिन प्रश्न को छुआ तक नहीं था. उन्होंने अपने कक्ष में गणित के टीचर्स को बुलाया और प्रश्नपत्र दिखाते हुए फटकारने लगे, ‘‘आप लोग कक्षा में क्या पढ़ाते हैं  इस एक प्रश्न को तो किसी छात्र ने छुआ तक नहीं है. यह प्रश्न इतना कठिन भी नहीं था कि छात्र इसे छूने की हिम्मत ही नहीं करते. जाहिर है कि इस तरह के सवाल हल करना आप लोगों ने छात्रों को सिखाया ही नहीं. कक्षा में यदि पढ़ाया ही नहीं जाएगा तो बेचारे छात्र परीक्षा में ऐसा प्रश्न पूछे जाने पर उस का उत्तर कैसे दे पाएंगे ’’ उन के स्वर में रोष मिश्रित निराशा थी. सारे टीचर्स सांस रोक कर प्रिंसिपल सर की फटकार सुनते रहे लेकिन किसी ने भी जवाब देने की हिम्मत न की. सभी टीचर्स के सिर झुके हुए थे.

अचानक एक कोने से एक स्वर उभरा, ‘‘मैं कुछ कहना चाहता हूं सर,’’ युवा टीचर रमेश खड़े हुए और विनम्रता से बोले.

‘‘क्या कहना चाहते हैं, कहिए,’’ प्रिंसिपल सर उन की तरफ देखते हुए बोले.

‘‘सर, छात्र इस कठिन सवाल को हल कैसे करते ’’ रमेश स्पष्ट शब्दों में बोले, ‘‘यह प्रश्न ही गलत है.’’

रमेश की बात सुन कर कक्षा में उपस्थित सारे प्राध्यापक सकते में आ गए. उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था कि प्रिंसिपल सर के सामने एक टीचर उन की गलती बताने का साहस कर सकता है. हालांकि सारे टीचर्स यह बात अच्छी तरह जान गए थे कि प्रिंसिपल सर ने एक प्रश्न गलत चुना है लेकिन सच कहने की हिम्मत किसी में नहीं थी. प्रिंसिपल विश्वनाथ तनिक रोष भरे स्वर में बोले, ‘‘कौन कहता है कि मेरे द्वारा चुना गया प्रश्न गलत था ’’

‘‘मैं कहता हूं सर कि प्रश्न गलत था,’’ रमेश ने विनम्रता से कहा.

उन की बात सुन कर प्रिंसिपल सर चुप हो गए और कुछ सोचने लगे. फिर उन्होंने उस प्रश्न को गौर से देखा. वास्तव में वह प्रश्न ही गलत था, जिसे वह भूल से कठिन समझ रहे थे. प्रिंसिपल सर को अपनी गलती का एहसास हो गया था. वे बोले, ‘‘मुझे क्षमा करें. मैं यह भूल गया था कि प्रश्न भी गलत हो सकता है,’’ फिर थोड़ी देर सोचने के बाद वे बोले, ‘‘मुझे खुशी है, साथ ही गर्व भी कि हमारे कालेज में रमेशजी जैसे गुणी व बुद्धिमान टीचर्स भी हैं. लेकिन इस बात का दुख भी है कि अन्य सभी ने जानते हुए भी मुझे मेरी गलती बताने की हिम्मत नहीं की. चुपचाप निर्दोष होते हुए भी मेरी फटकार सुनते रहे. यह अच्छी बात नहीं है.

‘‘अगर रमेश ने मुझे सचाई बताने की कोशिश न की होती तो मैं यही सोचता कि आप लोग कक्षा में पढ़ाते ही नहीं हैं. देखिए, भूल किसी से भी हो सकती है. अगर बड़े से कोई गलती हो जाए और उस का पता छोटों को चल जाए, तो बेझिझक बड़े को उस की गलती बता देनी चाहिए. यह सोच कर चुप नहीं रह जाना चाहिए कि बड़े की गलती कैसे बताएं ’’

‘‘हमें क्षमा करें महोदय,’’ सभी टीचर्स एकसाथ बोले. साथ ही रमेश की प्रशंसा करने लगे.

कहर

अजीत की रेलगाड़ी 8 घंटे लेट थी. क्या करे  टिकटघर से टिकट लेते वक्त रेलगाड़ी को महज एक घंटा लेट बताया गया था. अब एक के बाद एक हो रही एनाउंसमैंट से रेलगाड़ी 8 घंटे लेट थी. टिकट वापस करने पर 10 फीसदी किराया कट जाता. बस स्टैंड जाने पर 50 रुपए खर्च होते, साथ ही समय ज्यादा लगता. टी स्टौल पर चाय की चुसकी लेता अजीत अभी सोच ही रहा था कि वह क्या करे, तभी उस का मोबाइल फोन घरघराया.

फोन अजीत की पत्नी का था, ‘तुम बस से चले आओ.’

‘‘देखता हूं,’’ अजीत बोला.

चाय के पैसे चुका कर अजीत जैसे ही मुड़ा, तभी उस से एक शख्स टकराया. दोनों एकदूसरे को देख कर चौंके. वह अजीत के स्कूल का सहपाठी कुलदीप था.

‘‘अरे अजीत,’’ इतना कह कर कुलदीप ने उसे गले लगा लिया और पूछा, ‘‘कहां जा रहा है ’’

‘‘अपने शहर और कहां… रेलगाड़ी 8 घंटे लेट है,’’ अजीत ने कहा.

‘‘मेरे होते क्या दिक्कत है,’’ कुलदीप बोला.

‘‘मगर तू तो मालगाड़ी का ड्राइवर है,’’ अजीत ने कहा.

‘‘तो क्या…  मेरे साथ इंजन में बैठ जाना. तेरे शहर से ही हो कर गुजरना है.’’

‘‘मेरे पास टिकट भी है.’’

‘‘वापस कर आ. तेरा किराया भी बचेगा.’’

अजीत टिकट खिड़की पर चला गया. कुलदीप चाय पीने लगा. 10 मिनट बाद मालगाड़ी चल पड़ी. मालगाड़ी के इंजन में बैठ कर सफर करना अजीत के लिए रोमांचक था.

कुलदीप 12वीं जमात पास कर के रेलवे में भरती हो गया था. अजीत आगे पढ़ा व अब एक दवा कंपनी में मैडिकल प्रतिनिधि था. अजीत के शहर का रेलवे स्टेशन आने वाला था. आउटर पर गाड़ी एक पल को रुकी. अजीत अपना बैग पकड़ कर रेलवे पटरी के दूसरी तरफ कूद गया. अजीत रेलवे लाइन के एक तरफ बनी पगडंडी पर आगे बढ़ा. रेलवे स्टेशन का चौराहा अभी दूर था. उस ने अपना मोबाइल फोन निकाला और पत्नी को फोन मिलाया. फोन स्विच औफ था. चौराहे पर कई आटोरिकशा खड़े थे. अजीत एक आटोरिकशा में बैठ गया. कालोनी के बाहर सन्नाटा पसरा था. अजीत ग्राउंड फ्लोर पर बने अपने फ्लैट के बाहर पहुंचा. वह घंटी बजाने को हुआ कि तभी उस के कानों में किसी अनजान मर्द की आवाज गूंजी.

अजीत ने घंटी पर से हाथ हटा लिया और दबे पैर फ्लैट के पिछवाड़े में पहुंचा. चारदीवारी ज्यादा ऊंची नहीं थी. वह दीवार फांद कर अंदर कूदा और चुपचाप बैडरूम के पिछवाड़े की खिड़की से अंदर झांका, तो हैरान रह गया.

भीतर अजीत की पत्नी उस के एक दोस्त के साथ रंगरलियां मना रही थी. अजीत कुछ देर तक भीतर का सीन देखता रहा, फिर धीरेधीरे पीछे हटता चारदीवारी के साथ पीठ लगा कर खड़ा हो गया. ऐसा तो उस ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था. अजीत स्वभाव का बड़ा सीधासादा था. उस की पत्नी सुंदर, सुघड़ और घरेलू थी. उन के 2 प्यारे बच्चे थे. अजीत के शहर से बाहर होने पर पत्नी मोबाइल फोन से उस का हालचाल पूछती थी. घर आने पर उस की सेवा में बिछ जाती थी. लेकिन अब जो सामने था, वह सब अजीत की सोच से बाहर था. अजीत का माथा गुस्से से भिनभिनाने लगा था. वह बौखलाया हुआ सा इधरउधर देखने लगा. लौन में एक खुरपा पड़ा था. वह झुका और खुरपा उठा लिया.

अजीत हाथ में खुरपा थामे आगे बढ़ा. कमरे के बंद दरवाजे को हलके से थपथपाया. सिटकिनी लगी थी. उस ने कंधे का एक तगड़ा वार किया. दरवाजा खुल कर एक तरफ हो गया. सैक्स की मस्ती में डूबे वे दोनों घबरा कर अलग हो गए. अजीत खुरपा थामे आगे बढ़ा. उस का दोस्त पलंग से कूदा और उस को परे धकेल कर बिना कपड़ों के ही बाहर दौड़ गया. डर से थरथर कांपती अजीत की पत्नी कमरे के एक कोने में सिमटती सी खड़ी हो गई और बोली, ‘‘मुझे मत मारना.’’‘‘भाग जा यहां से,’’ अजीत ने दांत भींचते हुए कहा. सलवारकमीज उठा कर पत्नी भी बाहर दौड़ गई. अजीत थोड़ी देर खड़ा इधरउधर देखता रहा, फिर वह भी बाहर लौन में आया और खुरपा एक तरफ रख दिया. उस ने अपना बैग उठाया और अंदर आ गया. अजीत के दोनों बच्चे प्रियंका और एकांश सो रहे थे. इतने मासूम बच्चों की मां पति के दोस्त के साथ रंगरलियां मना रही थी. पता नहीं, यह सिलसिला कब से चल रहा था.

इस के बाद वही हुआ, जिस का डर था. अजीत का अपनी पत्नी से तलाक हो गया. बच्चों की सरपरस्ती पत्नी को मिली. अजीत ने उसे भत्ता देना मंजूर किया और हर महीने एक तय रकम का चैक भेज देता था. एक दिन अजीत फ्लैट बेच कर दूसरे शहर में जा बसा. वह तरक्की करता हुआ मैनेजर बन गया. कंपनी के मालिक राजेंद्र की गैरहाजिरी में उन की पत्नी गीता कभीकभार दफ्तर में आ कर काम संभालती थीं. धीरेधीरे उन की अजीत से अच्छी जानपहचान हो गई. ‘‘अजीत, आप का तलाक हो गया है. आप दोबारा शादी क्यों नहीं करते ’’ एक शाम दफ्तर का काम खत्म होने पर गीता ने पूछा.

‘‘बस, दिल नहीं मानता,’’ अजीत बोला.

‘‘अकेले कब तक रहोगे ’’ गीता ने फिर पूछा.

अजीत खामोश रहा. उस के उदास चेहरे को गीता ने अपने हाथों में भरा और उस का माथा चूम लिया. अजीत हैरान सा खड़ा उन की तरफ देखने लगा. पत्नी के मुकाबले गीता भारी जिस्म की सांवले रंग की थीं. उन की आंखों में काम वासना के डोरे तैर रहे थे. गीता ने अजीत की तुलना अपने पति से की. एक तरफ 30 साला नौजवान था, दूसरी ओर 50 साल की उम्र का अधेड़. अजीत को औरत की दरकार थी और गीता को अपनी संतुष्टि के लिए नौजवान मर्द की. कुछ ही दिनों में उन के बीच के सारे फासले मिट गए. राजेंद्र कई कंपनियों के मालिक थे. काम के सिलसिले में वे ज्यादातर बाहर रहते थे. उन की गैरहाजिरी में गीता काम संभालती थीं. उन के 2 बच्चे थे, जो एक बोर्डिंग स्कूल में पढ़ते थे. हैदराबाद में एक बड़ी कंपनी की मीटिंग खत्म हुई. राजेंद्र के सचिव ने ट्रैवल एजेंट को फोन किया.

‘सौरी सर, कल सुबह से पहले किसी फ्लाइट में भी सीट नहीं है,’ ट्रैवल एजेंट ने बताया. इस पर राजेंद्र अपने होटल में चले गए.

‘घर आ रहे हो ’ गीता ने उन्हें फोन कर के पूछा.

‘‘कल सुबह आऊंगा,’’ राजेंद्र ने जवाब दिया. अभी राजेंद्र होटल के कमरे में दाखिल हुए ही थे कि ट्रैवल एजेंट का फोन आ गया.

‘सर, एक पैसेंजर ने अपनी सीट कैंसिल कराई है. आप आधा घंटे में एयरपोर्ट आ जाएं.’ राजेंद्र तुरंत एयरपोर्ट पहुंचे. 2 घंटे बाद वे अपने शहर में थे.

राजेंद्र ने मोबाइल फोन निकाला, फिर इरादा बदलते हुए सोचा कि अब आधी रात को क्यों ड्राइवर को तकलीफ दें. लिहाजा, वे टैक्सी से अपनी कोठी पहुंचे. वहां उन्हें अपने मैनेजर अजीत की कार खड़ी दिखी, तो वे चौंक गए. राजेंद्र ने इधरउधर देखा, फिर वे अपने घर के पिछवाड़े में पहुंचे. एक कार उन की कोठी के पिछवाड़े की दीवार को छूती खड़ी थी. वे उस की छत पर जा चढ़े और फिर दीवार पर चढ़ गए और लौन में कूद गए. उन के अंदर कूदते ही पालतू कुत्ता भूंका, फिर मालिक को पहचानते हुए चुप हो कर उन के कदमों में लोटने लगा.राजेंद्र ब्रीफकेस थामे दबे पैर चोरी से पिछवाड़े के कमरे का दरवाजा खोल कर अंदर दाखिल हुए. उन के कानों में ऊपर की मंजिल पर बने अपने बैडरूम से हंसनेखिलखिलाने की आवाज आई. वे दबे पैर सीढि़यां चढ़ते हुए ऊपर पहुंचे. खिड़की से अंदर झांका. बैड पर मैनेजर अजीत के साथ उन की पत्नी गीता मस्ती कर रही थीं.

अब वे क्या करें  दोनों को रंगे हाथ पकड़ें  नतीजा साफ था. शादी का टूटना. मैनेजर कहीं और नौकरी पा लेगा. पत्नी गुजारा भत्ता ले कर कहीं और जा बसेगी और उम्र के इस पड़ाव पर वे खुद क्या करेंगे दोबारा शादी करेंगे  दूसरी पत्नी भी ऐसी ही निकली तो  वे धीरेधीरे पीछे हटते गए. दूसरे कमरे में चले गए और कुरसी पर बैठ गए. उधर कमरे में जब वासना का ज्वार शांत हुआ, तो अजीत व गीता अलग हो गए.

‘‘क्या तुम्हारी बीवी ने दूसरी शादी कर ली ’’ गीता ने पूछा.

‘‘नहीं.’’

‘‘क्यों ’’

‘‘औरत बदनाम हो जाए, तो दोबारा घर बसाना मुश्किल होता है.’’

‘‘और मर्द ’’

‘‘मर्द पर बदनामी का असर नहीं पड़ता.’’

‘‘तो तुम ने दोबारा शादी क्यों नहीं की ’’

‘‘मुझे किसी भी औरत पर अब भरोसा नहीं रहा.’’ इस पर गीता एकटक उस की तरफ देखने लगीं. साथ वाले कमरे में राजेंद्र उन की बातचीत सुन रहे थे. अजीत के जवाब ने गीता का सैक्स का मजा किरकिरा कर दिया था. वह उन के साथ जिस्मानी रिश्ता तो बना सकता था, पर उन्हें वफादार साथी नहीं मान रहा था. इस बीच राजेंद्र को शरारत सूझी. उन्होंने अपना मोबाइल फोन निकाला, पत्नी का नंबर मिलाया और धीमी आवाज में कहा, ‘मैं एयरपोर्ट पर हूं. दूसरी फ्लाइट में सीट मिल गई थी. 10 मिनट में घर पहुंच जाऊंगा.’ गीता ने अजीत को बताया. वे दोनों हड़बड़ाहट में कपड़े पहनने लगे. पालतू कुत्ता अभी तक मालिक के पास बैठा था. राजेंद्र ने उस को इशारा किया और धीमे से दरवाजा खोल कर उस को बाहर निकाल दिया. अजीत सीढि़यां उतरता नीचे लौन में आया, तभी पालतू कुत्ता उस पर झपट पड़ा. बचाव के लिए गीता लपकीं, मगर तब तक कुत्ते ने अजीत को 3-4 जगह पर काट खाया था.

अजीत किसी तरह अपनी कार में सवार हुआ. गेट बंद कर गीता कुत्ते की तरफ लपकीं और चेन पकड़ कर उस को एक जगह बांध दिया. इस के बाद गीता अपने पति का इंतजार करने लगीं. ड्राइंगरूम में बैठेबैठे उन की आंख लग गई. मौका देखते ही राजेंद्र चुपचाप बैडरूम में जा कर सो गए. सबह जब गीता जागीं, तो उन्होंने राजेंद्र को बैडरूम में पा कर घबराते हुए पूछा, ‘‘आप कब आए ’’

‘‘3 बजे. तब तुम ड्राइंगरूम में सो रही थीं.’’

‘‘अपना डौगी अब खतरनाक हो गया है. उस को निकाल दो,’’ गीता ने बताया.

‘‘क्यों, क्या हुआ ’’

‘‘कल एक पड़ोसी पर झपट पड़ा.’’

‘‘चेन से बांध कर रखना था…’’ इतना कह कर राजेंद्र बाथरूम में चले गए. तैयार हो कर वे अपने दफ्तर पहुंचे. अब तक अजीत नहीं आया था.

‘‘कल किसी कुत्ते ने अजीत को काट खाया है,’’ असिस्टैंट मैनेजर ने राजेंद्र को बताया.

राजेंद्र के दफ्तर जाने के बाद गीता घर की सफाई करने लगीं. बैडरूम के साथ वाले कमरे में सिगरेट के जले टुकड़ों का ढेर लगा था. वे चौंकीं कि कल शाम तक तो कमरा साफसुथरा था, फिर इतनी सारी सिगरेटें किस ने पी वे सारा माजरा समझ गईं. उन्होंने एयरपोर्ट इनक्वायरी फोन किया. वहां से पता चला कि राजेंद्र तो रात को ही घर आ गए थे. वे बेचैन हो गईं. अजीत अस्पताल में था. उस के हाथपैरों पर पट्टियां बंधी थीं, तभी उस का मोबाइल फोन बजा.

‘मेरा अंदाजा है कि राजेंद्र को हमारे संबंध का पता चल चुका है. कल रात को वे 12 बजे ही घर आ गए थे,’ गीता ने बताया.

‘‘अब हम क्या करें ’’

‘खामोश रहो.’

7 दिन बाद अजीत दफ्तर आया. ‘‘आवारा कुत्ते आजकल कम होते हैं… आप पर कोई कुत्ता कैसे झपटा ’’ राजेंद्र के सवाल पर अजीत चुप रहा.

‘‘आप सिगरेट कौन सी पीते हैं ’’ अजीत ने अपना सिगरेट का पैकेट निकाल कर दिखाया. तब राजेंद्र ने अपनी मेज की दराज खोली और एक पैकेट निकाल कर सामने रखते हुए कहा, ‘‘यह पैकेट मेरी कोठी में कोई छोड़ गया था. आप का ही ब्रांड है. मेरा ब्रांड दूसरा है. आप ले लो.’’ अजीत को काटो तो खून नहीं. उस को राजेंद्र से ऐसे हमले की उम्मीद नहीं थी. वह चुपचाप अपने चैंबर में चला गया. अगले दिन उस ने इस्तीफा दे दिया. पत्नी को तलाक देने के बाद अजीत ने कभी उस के बारे में नहीं सोचा था. आज पहली बार सोच रहा था. अजीत का मालिक समझदार था. बदनामी और जगहंसाई से बचने के लिए उस ने कोई ऐसा कदम नहीं उठाया, जिस से बात और बिगड़ जाए.

देशद्रोह का थोपा जाना

देशद्रोह के आरोप लगाना भाजपा सरकार ने अब फैशन बना लिया है पर कन्हैया कुमार पर लगाए गए आरोप में ही यह फैशन इतना कमजोर निकला कि उच्च न्यायालय को तथ्यों व तर्कों की जगह गानों, भावनाओं, मैडिकल उदाहरणों का सहारा लेना पड़ा ताकि कन्हैया को जमानत पर छोड़ने पर कुछ तो कहा जाए. किसी को देशद्रोही कहना बहुत आसान है पर इसे साबित करना बहुत कठिन होता है. ऐसा अब्दुल करीम टुंडा के मामले में स्पष्ट हुआ भी है. 1997 में दिल्ली में बम धमाकों के मामले में गिरफ्तार हुए अब्दुल करीम टुंडा पर 4 मामले चल रहे थे. भारत सरकार ने उस का नाम पाकिस्तान सरकार को भी दिया था. मुकदमों में साक्ष्य के अभाव में उसे रिहा कर दिया गया.

देशद्रोह जैसे आरोप लगाने आसान हैं पर उन्हें साबित करना बहुत कठिन होता है. दुनियाभर में जिन पर शक होता है उन्हें सरकारें जेलों में बंद कर के दूसरों को डराती हैं, बस, और अपनी खीझ को शांत करती हैं. अमेरिका में इसी तरह के सैकड़ों अपराधी बंद हैं. चीन में तो इन की गिनती भी नहीं की जाती क्योंकि वहां तो किसी को भी इस तरह के आरोप में बंद किया जा सकता है. यूरोप के देश थोड़े उदार हैं पर तानाशाह देशों में जेलों में बंद करना और जेलों के अंदर इन्हें तंग करना आम बात है.

देशद्रोह है क्या  राज कर रहे लोगों के खिलाफ आवाज उठाना तो देशद्रोह नहीं है. उन्हें हटाना तो देश के नागरिकों के मौलिक अधिकारों में शामिल है, चाहे कोई संवैधानिक प्रावधान हो या न हो. हां, उस के लिए वे न सेना खड़ी कर सकते हैं, न किसी के जानमाल की हानि कर सकते हैं. देशभक्ति तो धर्मभक्ति है नहीं, चाहे सरकारें इन दोनों को बराबर मानती हों क्योंकि धर्म और सरकारें चाहती यही हैं कि कोई भी उन की पोलपट्टी न खोले, उन की परंपरा को न तोड़े. मध्ययुगों में राज्य के खिलाफ द्रोह से ज्यादा धर्म के खिलाफ द्रोह को भयंकर माना जाता था और बिना दलील, बिना वकील केवल पोप, मौलवी या पुजारी के आदेश पर किसी को भी जलाया तक जा सकता था. आज भी भारत, चीन जैसे देशों में देशद्रोह को किसी पर लागू किया जा रहा है, ऐसा अब्दुल करीम टुंडा को कानूनन रिहा किए जाने से साफ है.

आखिर सरकार क्यों असफल हुई कि टुंडा पर आरोप साबित न कर सकी. इस का अर्थ तो यही है कि आरोप सिद्ध करने लायक तथ्य थे ही नहीं, जबकि उस के खिलाफ बम बनाने, हथियार जमा करने जैसे आरोप लगाए गए थे, नारे लगाने के नहीं. अपने विरोधियों को परेशान करते समय ध्यान में रखना चाहिए कि नागरिकों के अधिकारों का हनन किया तो जा सकता है पर नागरिक अपने अधिकार ऐसे ही नहीं छोड़ते. कहीं न कहीं, कोई न कोई इतनी हिम्मत वाला होगा कि सरकार को चुनौती देने के लिए अपनी स्वतंत्रताओं को खतरे में डाल देगा. ऐसा सभी तानाशाह देख चुके हैं.

बेटियां बोझ नहीं हैं: लारा दत्ता

साल 2000 में ‘मिस यूनिवर्स’ बनने वाली खूबसूरत और सैक्सी लारा दत्ता ने फिल्म ‘अंदाज’ से अपने कैरियर की शुरुआत की थी. उन्होंने ‘मस्ती’, ‘काल’, ‘नो ऐंट्री’, ‘पार्टनर’, ‘हाउसफुल’, ‘बिल्लू’, ‘सिंह इज ब्लिंग’ जैसी कई फिल्मों में काम किया और अपनी एक अलग इमेज बनाई.

साल 2011 में लारा दत्ता की शादी लौन टैनिस खिलाड़ी महेश भूपति के साथ हुई. शादी के बाद लारा ने कुछ समय के लिए फिल्मों से ब्रेक ले लिया और एक बेटी की मां बन गईं.

पेश हैं, लारा दत्ता के साथ हुई लंबी बातचीत के खास अंश:

आप का अब तक का फिल्मी सफर कैसा रहा

मैं एक ऐसे परिवार में पैदा हुई, जहां हम 3 बहनें हैं. हम तीनों बहनों को आगे बढ़ने का मौका मिला. मम्मीपापा के सपोर्ट के बिना हम कुछ नहीं कर पातीं. हमारे जो भी सपने थे, उन्हें पूरा करने के लिए उन्होंने हमेशा आगे बढ़ कर साथ दिया. फिल्मी दुनिया का अब तक का सफर मेरे लिए काफी जोश वाला रहा है.

बेटी की देखभाल में आप के पति महेश भूपति कितना साथ देते हैं

वे एक लौन टैनिस खिलाड़ी हैं, इसलिए बहुत मसरूफ रहते हैं. लेकिन जब कभी वे साथ होते हैं, तो अपनी जिम्मेदारी पूरी तरह से निभाते हैं. जब हमारी बेटी सायरा पैदा हुई थी, तब वे ‘आस्ट्रेलियाई ओपन’ में सानिया मिर्जा के साथ खेल रहे थे. 10 दिन बाद उन्होंने पहली बार अपनी बेटी को देखा था. उन्होंने उसे गोद में उठा लिया था. उस का डायपर भी बदला था. यह देखकर मैं हैरान रह गई थी. मुझे तब भी बहुत अच्छा लगा था, जब हमारी बेटी ने उन्हें सब से अच्छा पिता कहा था.

एक औरत के लिए मां बनना कितना सुखद है

मां बनना मेरे लिए एक अच्छा तजरबा है. मेरी बेटी अब बड़ी हो रही है और समझदार भी. आजकल की मांएं अपने बच्चों की जिंदगी में काफी हद तक शामिल रहती हैं. उन के खानेपीने और सेहत पर वे खास ध्यान देती हैं.

महिला सशक्तीकरण पर आप की राय

हमारे देश में आम लोगों की यह सोच है कि वे बेटों को कैसे भी स्कूल भेजेंगे, पर बेटियों के लिए ऐसा नहीं सोचते हैं. उन्हें लगता है कि लड़कियां शादी कर के किसी और के घर चली जाएंगी, तो उन्हें क्यों पढ़ाया जाए. मेरे हिसाब से पढ़ीलिखी औरत ही पूरे परिवार को पढ़ालिखा सकती है. वह खुद भी आत्मनिर्भर बन सकती है. मैं ने देखा कि लड़कियां स्पोर्ट्स में चैंपियन हैं. वे खेल तो खेलती ही हैं, साथ ही एक अच्छी नौकरी पाने की भी इच्छा रखती हैं, ताकि परिवार को उन का सहयोग मिल सके. अगर औरत समाज को आवाज मिलेगी, तो उसे हिम्मत मिलेगी. हिम्मत होगी, तो वह आगे बढ़ेगी और अगर आगे बढ़ेगी, तो अपना हक पहचान सकेगी. हमारे देश में ऐसी औरतें भी हैं, जो पढ़ीलिखी होने पर भी अच्छी नौकरी नहीं कर पाती हैं, इसलिए पढ़ाई के साथसाथ वोकेशनल ट्रेनिंग का होना बहुत जरूरी है, ताकि वे कामधंधे के बारे में सोच सकें और अपने पैरों पर खड़ी हो सकें. मेरा यह मानना है कि बेटियां किसी पर बोझ नहीं हैं.

आप की आगे की योजनाएं

हमारी प्रोडक्शन कंपनी नई फिल्में बनाने वाली है. हाल ही में मैं ने एक कहानी खोज निकाली है, जिस पर काम चल रहा है.

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