पर्यटन की दृष्टि से हालिया दशकों में भले ही संसार के अन्य महानगरों ने पर्यटनों का ध्यान खींचना आरंभ कर दिया है, फिर भी संसार के महानतम नगर के तौर पर लंदन, आज भी उन की पहली पसंद बना हुआ है. लंबे समय तक यह नगर एक ऐसे देश की राजधानी था जिस की तूती सारे संसार में बोलती थी और जिस के साम्राज्य में सूरज कभी नहीं डूबता था. कालांतर में इस का रुतबा, गौरव एवं प्रभाव बरकरार है. लोग देखना चाहते हैं कि आखिर कैसा है वह शहर जो विश्व पटल पर कभी एक ‘नर्व सैंटर’ के रूप में माना जाता था. यह शहर अपनी ऐतिहसिकता,  व्यावसायिक उपक्रमों, महान संस्थान, वैज्ञानिक प्रगति एवं प्रसिद्ध शिक्षण संस्थानों के लिए आज भी जाना जाता है. हम में से ज्यादातर के अंतर्मन में यह लालसा रहती है कि काश, कभी लंदन घूमने का अवसर मिलता.

मेरे लिए आखिरकार वह घड़ी आ गई. दिल्ली के इंदिरा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे से कतर एअरवेज के विमान से हम लोगों का ग्रुप लंदन के लिए रवाना होने वाला था. कड़ी सुरक्षा व्यवस्था के बाद हम लोगों को अपनीअपनी सीट के टिकट मिले. करीब 12.30 बजे हम लोग कतर की राजधानी दोहा इंटरनैशनल एअरपोर्ट पहुंचे. कतर मध्यपूर्व में एक अत्यंत छोटा, किंतु तेल समृद्ध देश है. दोहा में कुछ आराम करने के बाद हमें लंदन जाने वाला दूसरा जहाज पकड़ना था. विशाल वेटिंगहौल में खानेपीने के अलावा फैशनेबल चीजों की बड़ीबड़ी दुकानें भी थीं. कुछ लोगों ने थोड़ीबहुत शौपिंग भी की. इसी अंतराल में  यात्रियों का सामान दूसरे जहाज में ट्रांसफर किया जा रहा था. दूसरा जहाज पहले वाले से कुछ बड़ा था. इस में अपनी सीटों पर बैठने के बाद दिन का भोजन सर्व किया गया.

शाम के 6.30 बजे होंगे, जब हम लोगों का विमान लंदन के हीथ्रो हवाई अड्डे पर उतरा. वहां अभी शाम ही थी, भारत में उस समय रात के 12 बज रहे थे. इंगलैंड का समय भारतीय समय से साढ़े 5 घंटे पीछे है.

हवाई अड्डे के इमीग्रेशन काउंटर पर बेहिसाब भीड़ थी. लोगों की लाइन में करीब 10-12 घुमाव थे. चैकिंग जबरदस्त थी. हालांकि चैकिंग के लिए 10-12 काउंटर थे परंतु शायद ही किसी काउंटर पर अंगरेज क्लर्क था. हमें आश्चर्य हुआ कि इतने महत्त्वपूर्ण स्थान पर इतने कम यहां के निवासी. क्या कारण होगा  लाइन से नजात पातेपाते करीब साढ़े 8 बजे गए. बाहर निकले तो देखा सूरज की काफी रोशनी अभी बची हुई थी. सूर्यास्त साढ़े 9 बजे हुआ. वैसे तो 10 बजे रात तक भी आदमी आराम से इस रोशनी में बैठ कर आंगन में अखबार पढ़ सकता है. कुछ अजीब सा लगा हमें. इंगलैंड को छोड़ कर यूरोप के अन्य देशों का मानक समय भारत से मात्र साढ़े 3 घंटे पीछे है.

लंदन आई

साइकिल के विशाल पहिए की तरह निर्मित इस विशाल झूले का निर्माण वर्ष 1999 में हुआ. टेम्स नदी के किनारे बने इस झूले के ऊपरी सिरे की ऊंचाई 443 फुट है. इस के किनारेकिनारे थोड़ीथोड़ी दूरी पर 32 केबिन लटकाए गए हैं. एक केबिन में 25 लोग बैठ सकते हैं, जिस का अर्थ यह हुआ कि एकसाथ इस झूले पर 800 लोग बैठ सकते हैं. झूले के घूमने की गति जानबूझ कर कम रखी गई है, 25 सैंटीमीटर प्रति सैकंड. इस के 2 फायदे हैं-एक तो बूढ़े, बच्चे एवं स्त्रियां बिना किसी दिक्कत के इस चलते झूले में बैठ सकते हैं,दूसरे धीरेधीरे चलते झूले से महानगर का आराम से नजारा लिया जा सकता है.

‘लंदन आई’ या लंदन की आंख कहने का अर्थ यह है कि इस पर चढ़ कर आदमी 40 किलोमीटर तक की दूरी के दृश्य देख सकता है. मेरे विचार से इस झूले के टेम्स नदी के किनारे बनाने के पीछे शायद यह भाव रहा होगा कि न केवल दर्शक इस उठतेगिरते झूले से पार्लियामैंट हाउस, उस में लगी घड़ी ‘बिग बेन’ का नजारा विभिन्न एंगल से ले सकेंगे, बल्कि आसपास के महत्त्वपूर्ण भवनों के साथसाथ नीचे टेम्स नदी में चलती हुई नावों को भी देख सकेंगे. सच पूछिए तो इस तरह के झूले अपने यहां के मेलों में भी लगाए जाते हैं, हां, वे भले ही इतने ऊंचे नहीं होते.

लंदन आई के बारे में एक बात मार्के की यह है कि यद्यपि इस में 32 ही केबिन हैं, पर अंतिम केबिन का नंबर है 33. अंधविश्वास के कारण चूंकि 13 नंबर को अपशकुन वाला माना जाता है इसलिए उस में 13 नंबर का केबिन नहीं है. इतने प्रबुद्ध देश में इस प्रकार की बातों में विश्वास करना बड़ा अजीब लगा.

बकिंघम पैलेस

यह विशाल भवन यहां के राज परिवार का निवास स्थान है. चारों ओर चारदीवारी से घिरा यह भवन पाश्चात्य स्थापत्य का नायाब नमूना है. मुख्यद्वार पर लगी लोहे की जाली का ऊपरी हिस्सा सुनहरे रंग से रंगा हुआ है, जो इस की भव्यता में चारचांद लगाता है. हम लोगों को मुख्यद्वार पर होने वाले ‘चेंज औफ गार्ड्स’ का दृश्य भी देखने का मौका मिला. वास्तव में यह एक औपचारिक परंपरा है जब सुरक्षा प्रहरी का एक जत्था अपनी ड्यूटी खत्म कर दूसरे जत्थे को चार्ज सौंपता है. आर्मी यूनिफौर्म में सुंदर व मजबूत घोड़ों पर, कड़क मार्च करते हुए सिपाहियों को देखने के लिए दर्शक घंटों इंतजार करते हैं. जैसे ही यह कार्यवाही शुरू होती है, सैकड़ों कैमरों में यह दृश्य कैद किया जाता है. हम ने भी किया. इस प्रक्रिया के दौरान एक अजीब सन्नाटा छाया रहता है.

अल्बर्ट मैमोरियल

प्रिंस अल्बर्ट महारानी विक्टोरिया के पिता थे. उन की मृत्यु कम उम्र में हो गई थी. उन्हीं की स्मृति में इस स्मारक का निर्माण करवाया गया था. खुले स्थान में बने स्मारक में प्रिंस अल्बर्ट की प्रतिमा एक ऊंचे सिंहासन पर आसीन है. काले पत्थर की इस प्रतिमा को सुनहरे रंग से सजाया गया है. महारानी ने अपने पति की याद में अन्य संस्थानों का भी निर्माण करवाया जिन में प्रसिद्ध है अल्बर्ट हौल, जहां विश्व के नामीगिरामी कलाकार अपना कार्यक्रम प्रस्तुत करते हैं. प्रसिद्ध गायिका लता मंगेशकर ने भी यहां अपना कार्यक्रम पेश किया था.

मैडम तुसाद

यह एक म्यूजियम है जो संसारभर के नामीगिरामी व्यक्तियों की मोम की मूर्तियों के लिए मशहूर है. राजनीति, धर्म, समाजसेवा, साहित्य, कला, फिल्म तथा खेलकूद की दुनिया में चर्चित व्यक्तित्वों से आप का यहां साक्षात्कार होता है. यहां चर्चित विदेशी चेहरों में राष्ट्रपति बराक ओबामा, केनेडी, चर्चिल, माग्रेट थैचर, आइंस्टाइन, नामी पेंटर पिकासो, मर्लिन मुनरो, टैनिस खिलाड़ी रोजर फेडरर और हौरर फिल्मों के डायरैक्टर अल्फे्रड हिचकौक की मूर्तियां हैं. भारतीय हस्तियों में महात्मा गांधी, पंडित जवाहरलाल नेहरू, मदर टेरेसा, अमिताभ बच्चन, सलमान खान, शाहरुख खान, रितिक रोशन, ऐश्वर्या राय, माधुरी दीक्षित, करीना कपूर एवं महान क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर की मूर्तियां मौजूद हैं.

पूरी बिल्ंिडग में कई हौल हैं. कुछ में म्यूजिक एवं वीडियो कार्यक्रम चलते रहते हैं. ऐसा प्रतीत हुआ कि संसार में जितना प्रसार इस म्यूजियम के बारे में है, वैसी कोई बात नहीं है. अंदर की सारी दीवारें गहरे रंगों से रंगी होने के कारण वातावरण अत्यंत बोझिल लगता है, उस पर सैकड़ों की भीड़. कुल मिला कर दमघोंटू वातावरण हो जाता है. मैं तो घबरा सा गया और सोचने लगा कि कैसे जल्दी बाहर निकलूं. और जहां तक मूर्तियों से व्यक्तियों की समानता का प्रश्न है, उस पर सभी मूर्तियां खरी नहीं उतरतीं. गांधीजी और सचिन की मूर्तियां तो कदापि नहीं. अमिताभ भी काफी दुबलेपतले दिख रहे थे.

असल में हम लोगों के मन में विदेशी चीजों के प्रति बेमतलब का क्रेज है. अपने देश में ही कितने निष्णात कलाकार हैं, परंतु उन के प्रति हम आदर के भाव नहीं रखते. अन्ना आंदोलन के समय एक देशी कलाकार ने अन्ना की मोम की मूर्ति बना कर उस के बगल में ही अन्ना को बिठाया.  अखबार में छपे चित्र को देख कर यह कहना मुश्किल था कि असल अन्ना कौन है. लंदन की मूर्तियों को देख कर यही लगा कि प्रचार एवं विज्ञापन के जरिए व्यापारी पीतल को सोना और अल्युमिनियम को चांदी साबित कर सकता है. हम भारतीयों में आत्मविश्वास की अकसर कमी दिखाई पड़ती है. इसे जगाना होगा और अपनी प्रतिभा में विश्वास करना सीखना होगा. यह मान्यता कि विदेशी हम से हर दृष्टि से बेहतर हैं, आत्मघाती प्रवृत्ति को जन्म देती है. इन स्थानों का भ्रमण करने के बाद लंदन ब्रिज, पार्लियामैंट हाउस, बिग बेन, ट्रफैल्गर स्क्वायर, हाइड पार्क वगैरह देखे. बरसों से चित्रों के द्वारा देखे गए पार्लियामैंट हाउस एवं बिग बेन की जो चमकती छवियां मानस पटल पर अंकित थीं, वैसे कुछ निकट से देखने पर नहीं लगा. चित्र अकसर हमें कल्पनालोक में ले जाते हैं और सचाई से भ्रमित करते हैं. इन भवनों को देखने से ऐसा लगा जैसे लंबे समय से इन पर रंगरोगन नहीं किया गया हो. पर ऐसा लगने का शायद यह भी कारण रहा हो कि उस दौरान मौसम साफ नहीं था.

ट्रफैल्गर रक्वायर

शहर के बीच में ही खुले मैदान में निर्मित यह भव्य मीनार 51 फुट ऊंची है. इस मीनार का निर्माण 1805 में नैल्सन द्वारा बैटल औफ ट्रफैल्गर में विजय प्राप्त करने की स्मृति में करवाया गया था. स्मारक के आसपास के क्षेत्र में मीटिंग्स और सभाएं होती रहती हैं, इस वजह से यहां बराबर चहलपहल बनी रहती है. देररात होटल पहुंच कर भोजनोपरांत हम लोग सो गए. प्रोग्राम के अनुसार सुबह कुछ अन्य स्थानों का बस द्वारा भ्रमण करने के बाद, इंगलैंड एवं फ्रांस के  बीच अवस्थित इंग्लिश चैनल पार कर पेरिस जाना था. उत्कंठा यह देखने को थी कि किस प्रकार बस के द्वारा ही पानी के नीचे बनी सुरंग से एक देश से दूसरे में जाया जाता है.हमारी बस एक रेलवे टर्मिनल के पास आई. वहां थोड़ी देर बाद सिग्नल मिलने पर पास ही लगी मालगाड़ी के एक खुले प्लेटफौर्म पर चढ़ गई. कुछ ही मिनटों में बस को चारों ओर से लोहे की चादर वाली दीवार से ढक दिया गया. दीवार अंदर से खुबसू रत रंगों से रंगी गईं थी. उस में प्रकाश की अच्छी व्यवस्था के  साथसाथ थोड़ीथोड़ी दूर पर खिड़कियां भी बनी हुई थीं, जिन से आप बाहर का नजारा कुछ देर तक ले सकते हैं. गाड़ी के सुरंग में घुसने के बाद कुछ भी नहीं दिखाई देता.

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