देशद्रोह के आरोप लगाना भाजपा सरकार ने अब फैशन बना लिया है पर कन्हैया कुमार पर लगाए गए आरोप में ही यह फैशन इतना कमजोर निकला कि उच्च न्यायालय को तथ्यों व तर्कों की जगह गानों, भावनाओं, मैडिकल उदाहरणों का सहारा लेना पड़ा ताकि कन्हैया को जमानत पर छोड़ने पर कुछ तो कहा जाए. किसी को देशद्रोही कहना बहुत आसान है पर इसे साबित करना बहुत कठिन होता है. ऐसा अब्दुल करीम टुंडा के मामले में स्पष्ट हुआ भी है. 1997 में दिल्ली में बम धमाकों के मामले में गिरफ्तार हुए अब्दुल करीम टुंडा पर 4 मामले चल रहे थे. भारत सरकार ने उस का नाम पाकिस्तान सरकार को भी दिया था. मुकदमों में साक्ष्य के अभाव में उसे रिहा कर दिया गया.

देशद्रोह जैसे आरोप लगाने आसान हैं पर उन्हें साबित करना बहुत कठिन होता है. दुनियाभर में जिन पर शक होता है उन्हें सरकारें जेलों में बंद कर के दूसरों को डराती हैं, बस, और अपनी खीझ को शांत करती हैं. अमेरिका में इसी तरह के सैकड़ों अपराधी बंद हैं. चीन में तो इन की गिनती भी नहीं की जाती क्योंकि वहां तो किसी को भी इस तरह के आरोप में बंद किया जा सकता है. यूरोप के देश थोड़े उदार हैं पर तानाशाह देशों में जेलों में बंद करना और जेलों के अंदर इन्हें तंग करना आम बात है.

देशद्रोह है क्या  राज कर रहे लोगों के खिलाफ आवाज उठाना तो देशद्रोह नहीं है. उन्हें हटाना तो देश के नागरिकों के मौलिक अधिकारों में शामिल है, चाहे कोई संवैधानिक प्रावधान हो या न हो. हां, उस के लिए वे न सेना खड़ी कर सकते हैं, न किसी के जानमाल की हानि कर सकते हैं. देशभक्ति तो धर्मभक्ति है नहीं, चाहे सरकारें इन दोनों को बराबर मानती हों क्योंकि धर्म और सरकारें चाहती यही हैं कि कोई भी उन की पोलपट्टी न खोले, उन की परंपरा को न तोड़े. मध्ययुगों में राज्य के खिलाफ द्रोह से ज्यादा धर्म के खिलाफ द्रोह को भयंकर माना जाता था और बिना दलील, बिना वकील केवल पोप, मौलवी या पुजारी के आदेश पर किसी को भी जलाया तक जा सकता था. आज भी भारत, चीन जैसे देशों में देशद्रोह को किसी पर लागू किया जा रहा है, ऐसा अब्दुल करीम टुंडा को कानूनन रिहा किए जाने से साफ है.

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