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वीर सिंह जूदेव महल: स्थापत्य कला की कलाकृति

मध्य प्रदेश का सब से छोटा जनपद है दतिया. यह झांसीग्वालियर राष्ट्रीय मार्ग पर झांसी से 28 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है. दतिया में एक सातमंजिला महल है जिसे ‘पुराना महल’ के नाम से जाना जाता है. इस महल को ओरछा के विख्यात बुंदेला राजा वीर सिंह जू देव बुंदेला ने आज से लगभग 4सौ वर्ष पूर्व बनवाया था. इस महल के दरवाजों पर न  तो पट हैं, न पानी व प्रकाश  की कोई व्यवस्था. कहते हैं, निर्माण के बाद इस में राजपरिवार का या अन्य कोई भी व्यक्ति नहीं रह सका. पुराने महल के संबंध में आज भी अनेक किंवदंतियां प्रचलित हैं. एक किंवदंती के अनुसार, इस महल में भूमि के नीचे 7 मंजिलें हैं. पूरा महल 9 खंडों का है. 7 खंड भूमि के ऊपर और 2 खंड भूमि के नीचे हैं.

महल के भूतल से नीचे की मंजिलों में जाने के लिए सीढि़यां बनी हैं. किंतु नीचे जाने का रास्ता अब बंद कर दिया गया है. जब खुला था, तब भी किसी ने नीचे जाने का साहस नहीं किया. वीर सिंह विख्यात बुंदेला नरेश मधुकर शाह के चौथे पुत्र थे. 1592 में मधुकर शाह की मृत्यु के बाद उन के सब से बडे़ बेटे रामशाह ने मुगलों से संधि कर ओरछा राजगद्दी प्राप्त की थी और वीर सिंह ने दतिया के निकट बड़ौनी की छोटी सी जागीर. वीर सिंह बड़ा महत्त्वाकांक्षी था. वह बड़ौनी की छोटी सी जागीर से संतुष्ट नहीं था. उस ने सेना एकत्र की और अपनी बहादुरी और चतुराई से एक बड़े साम्राज्य का स्वामी बन बैठा. मुगल सम्राट ने उसे परास्त करने के अनेक प्रयास किए, किंतु हमेशा असफल रहे. महाराजा वीर सिंह अकबर का शत्रु था, किंतु उस के बेटे सलीम का अच्छा मित्र था. अकबर और सलीम के मतभेद बढ़ने के साथ ही महाराजा वीर सिंह और सलीम की मित्रता भी बढ़ी.

सलीम बादशाह अकबर के सेनापति अबुलफजल का कट्टर विरोधी था तथा उस की हत्या करा देना चाहता था. यह कार्य महाराजा वीर सिंह ने किया. अबुलफजल दक्षिण के विजय अभियान के बाद अपनी विशाल सेना के साथ लौट रहा था. उस ने रास्ते में नरवर के पास पड़ाव डाला. वीर सिंह ने अबुलफजल पर आक्रमण कर दिया. अबुलफजल की हत्या कर उस का सिर शहजादे सलीम के पास भेज दिया. इस से सलीम और वीर सिंह के संबंध और भी प्रगाढ़ हो गए. अबुलफजल की हत्या से अकबर बौखला उठा. उस ने वीर सिंह को परास्त करने के लिए एक विशाल सेना भेजी. सेना ने वीर सिंह को बुरी तरह हराया. किंतु वीर सिंह ने साहस नहीं छोड़ा व कुछ ही समय में उन सभी स्थानों पर पुन: कब्जा कर लिया.

इसी बीच शहजादा सलीम दतिया आया. उस ने वीर सिंह से भेंट की. 1605 में अकबर की मृत्यु के पश्चात सलीम जहांगीर के नाम से दिल्ली का बादशाह बना तो उस ने वीर सिंह से मित्रता निभाई और मुगल दरबार में उसे तीन हजारी मनसब प्रदान किया. वीर सिंह जू देव महल का निर्माण महाराजा वीर सिंह तथा शहजादे सलीम की मित्रता की एक यादगार के रूप में किया गया. यही कारण था कि इस महल के निर्माण के लिए दतिया के पश्चिमी भाग के उसी टीले को चुना गया, जहां कभी दोनों मित्र एकदूसरे से बुंदेलखंड की धरती पर पहली बार मिले थे. इस महल के निर्माण के बाद दतिया में अनेक इमारतों का निर्माण हुआ. अत: आगे चल कर यह पुराने महल के नाम से प्रसिद्ध हुआ. दतिया का पुराना महल मध्यकाल की स्थापत्य कला का उत्कृष्ट नमूना है. यह बुंदेलखंड मध्य प्रदेश का ही नहीं बल्कि पूरे भारत का गौरव है. एक इतिहासकार ने तो इसे मध्यकाल की सर्वोत्तम इमारत कहा है.

इस के निर्माण में लगभग 9 वर्ष का समय लगा तथा 33 लाख रुपए खर्च किए गए. इस महल का एक भाग अपूर्ण है, जिस से महसूस होता है कि महाराजा वीर सिंह ने इस का निर्माण अपने अंतिम समय में कराया था. फलत: उन की मृत्यु के बाद यह महल पूरा नहीं हो सका. इस महल का निर्माण आसपास के पत्थरों और चूने से कराया गया था. यह एक आश्चर्य का विषय है कि इस महल में कहीं भी लकड़ी या लोहे का प्रयोग नहीं किया गया है. स्वस्तिक के आकार के इस सतखंडे महल में प्रत्येक खंड पर 4 चौक हैं तथा बीच में एक मंडप. महल की सभी छतों पर चित्रकला तथा पत्थर पर उकेरी गई कलाकृतियां मनमोहक हैं. महल का पूर्वी भाग सर्वाधिक भव्य तथा आकर्षक है. महल का प्रवेशद्वार भी इसी भाग में स्थित है. महल का पश्चिमी भाग महल का पिछला भाग कहा जा सकता है. इस भाग में लगी पत्थर की जालियों की नक्काशी अत्यंत आकर्षक है.

इस महल की एक विशेषता यह है कि यह चारों तरफ से एकजैसा है. इस में एक मंजिल से दूसरी मंजिल पर जाने के लिए अनेक रास्ते हैं. अत: पर्यटक अकसर यहां रास्ता भटक जाते हैं. वर्तमान में वीर सिंह जू देव महल को पुरातत्त्व विभाग का संरक्षण प्राप्त है. इस विभाग द्वारा इस के कुछ स्थानों की मरम्मत भी कराई गई है. 1925 में ऊपरी मंजिल का एक भाग बिजली गिरने से क्षतिग्रस्त हो गया था जिसे ठीक करा दिया गया है परंतु पत्थर को तराश कर लगाए गए शहतीरों में वह सफाई नहीं आ पाई है जो मूल शहतीरों में थी. महल की वास्तविकता जो भी हो, किंतु यह सत्य है कि यह महल मध्यकाल की स्थापत्य कला का अद्भुत नमूना है. इसे भारत की श्रेष्ठ इमारतों में गिना जाता है.

काटन कैंडी सब को लुभाए

तमाम मेलों से ले कर मौल्स तक में बुढि़या के बाल यानी काटन कैंडी का स्वाद सभी को लुभाता है. छोटे बच्चे तो इस के खास दीवाने होते ही हैं, पर बड़े लोग भी इस का स्वाद लेने में पीछे नहीं रहते हैं. लोग 10 रुपए से ले कर 30 रुपए तक की अलगअलग आकार वाली काटन कैंडी खरीदते हैं. मेलों और मौल्स में काटन कैंडी की मशीन लगा कर इसे बनाया जाता है. घरों में मशीन लगा कर काटन कैंडी की छोटीछोटी चिडि़या बनाई जाती हैं. इन को गांवगांव गलीगली बांस के डंडों में टांग कर बेचा जाता है. यह चीनी से बनती है, इसलिए कुछ जगहों पर इसे चीनी की चिडि़या भी कहा जाता है. आमतौर पर बच्चे छोटीछोटी चिडि़या के आकार वाली काटन कैंडी को खूब पसंद करते हैं. काटन कैंडी रुई जैसी होती है. इसे रंगबिरंगी बनाने के लिए खाने वाले अलगअलग रंगों का इस्तेमाल किया जाता है. ज्यादातर लोग पिंक कलर की काटन कैंडी पसंद करते हैं, लिहाजा पिंक कलर की काटन कैंडी ज्यादा बनती है. रुई जैसी मुलायम होने के कारण ही इसे काटन कैंडी कहा जाता है. बच्चे इसे बुढि़या के बाल के नाम से जानतेपहचानते हैं.

काटन कैंडी मशीन

काटन कैंडी बनाने में सब से जरूरी काटन कैंडी मशीन होती है. यह बिजली से चलती है. इस के चारों तरफ लोहे की चादर लगी होती है. मशीन के बीच में ग्राइंडर लगा होता है. इस के चारों ओर बहुत ही छोटेछोटे छेदों वाली स्टील की चादर लगी होती है. ग्राइंडर के बीच में जब खाने के रंग मिली चीनी डाली जाती है, तो ग्राइंडर में चीनी आटे जैसी महीन पिस जाती है. यह खास किस्म का ग्राइंडर होता है, जो तेजी से गरम हो जाता है. ग्राइंडर के गरम होने से चीनी पिघल जाती है. पिघलने के बाद चीनी छोटेछोटे छेदों से हो कर रुई के आकार में बाहर निकलने लगती है. मशीन में चीनी डालने वाला कारीगर लकड़ी के एक टुकडे़ में इस रुई जैसी चीनी को फंसा कर कैंडी जैसा आकार देता है.

2 किलोग्राम चीनी से बड़े आकार की (20 रुपए प्रति कैंडी की दर से बिकने वाली) 10 कैंडी बन जाती हैं. गांवों में बेचने के लिए छोटे आकार की काटन कैंडी बनाई जाती हैं. इन को लुभावना बनाने के लिए हाथ से चिडि़या या फूल का आकार दिया जाता है. अच्छे किस्म की काटन कैंडी बनाने के लिए 80 रुपए में कैंडी शुगर का 1 पैकेट आता है. इस में अलग से रंग नहीं मिलाना पड़ता है. साधारण चीनी के मुकाबले इस से बनी काटन कैंडी सेहत के लिए ज्यादा मुफीद होती है. यह साधारण चीनी के मुकाबले ज्यादा मुलायम और स्वाद वाली होती है. इस में डाला गया रंग भी अच्छी किस्म का होता है.

बढ़ रहा आकर्षण

मेला छोटा हो या बड़ा, बिना काटन कैंडी के वह पूरा नहीं होता है. मेले ही नहीं अब तो मौल्स में भी काटन कैंडी की तमाम दुकानें लगने लगी हैं. शादी जैसे तमाम मौकों पर भी काटन कैंडी बेचने वाले को बुलाया जाता है. बच्चे ही नहीं बड़े भी अब इसे खाने से खुद को रोक नहीं पाते हैं. अगलअलग आकार की होने के कारण काटन कैंडी बच्चों को खूब लुभाती है. मेलों में बच्चे इसे बुढि़या के बाल और चीनी की चिडि़या के नाम से जानते थे. मौल्स में आ कर यह काटन कैंडी के नाम से मशहूर हो गई है. कम लागत में काटन कैंडी बनाने के रोजगार को चलाया जा सकता है. इसे बनाने के लिए बहुत कारीगरी सीखने की जरूरत भी नहीं होती है. बच्चों को पसंद होने के कारण इसे बेचना आसान होता है. बहुत गरमी और बरसात में इस का धंधा कम हो जाता है. जाड़ों की कुनकुनी धूप में बच्चों को काटन कैंडी खूब पसंद आती है. इसे बेचने का धंधा अच्छा है. गांवों और आसपास के बाजारों में इसे खूब खरीदाबेचा जाता है. ज्यादा फायदे के चक्कर में कुछ लोग खराब किस्म के रंग इस्तेमाल करते हैं. इस से बच्चों का स्वास्थ्य खराब हो सकता है. बुढि़या के बाल पसंद करने वाली स्वाति अवस्थी कहती हैं, ‘अब शादी की पार्टी में भी काटन कैंडी रखी जाने लगी है. यह बच्चों को अपनी ओर आकर्षित करती है. अब महिलाएं भी इसे पसंद करने लगी हैं. यह एक तरह की मजेदार मिठाई हो गई है. बड़ेबड़े शहरों के मौल्स में यह धड़ल्ले से बिकने लगी है.’

देश को खा रहा पान मसाला

दिल्ली सरकार ने उन अभिनेताओं की पत्नियों को पत्र लिखे हैं जो पान मसाले का प्रचार करते हैं. इन में शाहरुख खान, अजय देवगन, अरबाज खान, गोविंदा, सैफ अली खान आदि शामिल हैं. इन सितारों के विज्ञापन टैलीविजन पर इस शान से पान मसाले के गुणगान करते नजर आते हैं मानो इसे खाने वाले दुनिया फतह कर सकते हैं. इन विज्ञापनों पर बहुत मोटा पैसा खर्च होता है और इन की प्रोडक्शन क्वालिटी बहुत ही अच्छी होती है, क्योंकि हर तरह के दुर्गुण से भरे पान मसाले को बेचने योग्य बनाना आसान नहीं है. तरकीब यह है कि पात्र को सफल, अति सफल या सफलतम दिखाओ और कह दो कि वह तो पान मसाला भी खाता है. अरबों रुपयों के नशीले पान मसालों के विज्ञापन पत्रपत्रिकाओं, बोर्डों, सिनेमा स्क्रीनों, दुकानों पर भरे पड़े हैं, क्योंकि विज्ञापनों से मोटा पैसा मिलता है कुछ को छोड़ कर (जिन में दिल्ली प्रैस शामिल है) बाकी सब इस सिन इनकम को छोड़ने को तैयार नहीं हैं. सितारे भी क्यों छोड़ें और उन की पत्नियों से भी कोई उम्मीद करना बेकार है, क्योंकि आते पैसे को कोई मना नहीं करता.

वैसे भी औरतें समाज की कुछ ज्यादा ही हितकारी होती हैं, यह भी भ्रांति है. समाज में फैले भेदभाव, अंधविश्वास, डोमैस्टिक वायलैंस, दहेज, कन्या भू्रण हत्या के लिए तो औरतें जिम्मेदार हैं ही, अब तो नशे की वकालत करती भी नजर आ रही हैं. शराब कंपनियों ने लगता है शूटिंग सैटों पर ट्रक भरभर कर शराब भेजनी शुरू कर दी है कि हर दूसरी फिल्म में औरतें खुल कर शराब पीती नजर आती हैं. इन में न केवल अविवाहित युवा औरतें हैं, बल्कि कहानी में बच्चों की मांएं भी शामिल होने लगी हैं. सिनेमा को नशे से कोई एतराज नहीं है. ऐसी हालत में दिल्ली सरकार ने स्टार पत्नियों को पत्र लिख कर सरकारी कागज और डाक खर्च बेकार ही किया है. अब पहले की तरह औरतों का नशा करना छिनालपन की निशानी नहीं रहा है, बल्कि नशा न करना अब दकियानूसी और बेवकूफीपन की निशानी है.

यह सच है कि आज प्रदूषण से इतनी मौतें शायद नहीं हो रही हैं जितनी स्वयं अपनाए गए नशे से हो रही हैं. इस में रिसीविंग ऐंड पर औरतें ही होती हैं, क्योंकि बीमारी चाहे पति की हो या खुद औरत की, काम का बोझ औरत का ही बढ़ता है. दिल्ली सरकार ने अच्छा काम किया पर अफसोस यह है कि अच्छे काम करने वाले को यहां सिरफिरा कहा जाता है, क्योंकि लकीर के फकीर नेताओं, संतों, महंतों, पूजापाठियों, दान पर मौज उड़ाने वालों की ही चलती है.

वजन घटाने से ज्यादा मुश्किल उसे मैंटेन करना: परिणीति

फिल्म ‘लेडीज वर्सेज रिकी बहल’ से फिल्म इंडस्ट्री में कदम रखने वाली परिणीति चोपड़ा ने हर फिल्म में अलगअलग भूमिका निभाई. उन की कुछ फिल्में चलीं तो कुछ नहीं, लेकिन उन्होंने अपना आत्मविश्वास हमेशा बनाए रखा. पहली फिल्म की सफलता के बाद परिणीति ने कई हिट फिल्में दीं, जिन में ‘इश्कजादे’, ‘शुद्ध देसी रोमांस’, ‘हंसी तो फंसी’ फिल्में शामिल हैं. परिणीति ने कई ब्रैंड भी ऐंडोर्स किए हैं. हाल ही में ‘न्यू व्हिस्पर अल्ट्रा’ के प्रमोशन पर वे अलग अंदाज में दिखीं. उन का ‘स्लिमट्रिम लुक’ सभी को हैरान कर गया.

इस मौके पर उन से हुई गुफ्तगू के कुछ अहम अंश इस तरह हैं:

क्या आप अल्ट्रागर्ल हैं.

मैं वाकई अल्ट्रागर्ल हूं. मल्टीटास्क करती हूं. सुपर टेलैंटेड भी हूं. यह ब्रैंड ऐंडोर्समैंट मुझ पर अब फिट बैठता है, क्योंकि हर लड़की महीने में 30 दिन काम करती है. वैसे में महीने के उन 5 दिनों (मासिकधर्म) में परेशान रहती हूं. इस कैंपेन से जुड़ कर मैं बताना चाहती हूं कि मासिकधर्म नैचुरल है. यह कोई समस्या नहीं, पर सोसायटी प्रैशर डालती है कि इस समय यह न करो, वह न करो. मैं तो उन 5 दिनों में शूटिंग भी करती हूं. कई टैबूज इस के साथ जुड़े हैं, जिन्हें मैं हटाना चाहती हूं. बचपन में जब कई बार मेरी दादी मुझे कुछ करने से मना करती थीं, तो मैं गुस्सा हो जाती थी. मैं चाहती हूं कि हर कोई इस बारे में खुल कर बात करे. भाई, पति, पिता आदि किसी के भी साथ बात करने में किसी भी लड़की को कोई संकोच नहीं होना चाहिए. अच्छे ब्रैंड का सैनिटरी पैड प्रयोग करने से कोई परेशानी नहीं होती है.

स्लिमट्रिम होने की प्रेरणा किस से मिली.इस के लिए क्याक्या वर्कआउट करती हैं.

इस के लिए किसी प्रेरणा की जरूरत नहीं. ऐक्ट्रैस बनने से पहले ही वजन कम करना चाहती थी, पर आलसी होने की वजह से कुछ करती नहीं थी. हमेशा लगता था कि जरूरत नहीं, छोड़ो. फिर काम में लग जाती. इस तरह समय बीतता गया.अब जब थोड़ा समय मिला तो लगा कि मैं अब कुछ कर सकती हूं. मैं ने किया और परिणाम सामने है. अब मैं बहुत खुश हूं. अपने हिसाब से कुछ भी पहन सकती हूं. स्क्रीन पर जैसा दिखना चाहूं दिख सकती हूं. बहुत सारी चीजें अब मैं कर सकती हूं. स् लिमट्रिम होने में मुझे करीब 1 साल लगा. मैं मार्शल आर्ट करती हूं, डाइट का खयाल रखती हूं, गहरी नींद सोती हूं, कलरीपायतू करती हूं.

वजन कम होने के बाद उसे मैंटेन रखने के लिए क्या करती हैं.

वजन मैंटेन करना, वजन कम करने से ज्यादा मुश्किल है. मैं नियमित व्यायाम करती हूं, संतुलित भोजन लेती हूं. मुझे खाने का शौक हमेशा रहा है. मैं आधी रात को भी उठ कर पिज्जा खाती थी, पर अब ऐसा नहीं करती. मेरा कोई जिम ट्रेनर नहीं है. एक लड़की थी जो कलरीपायतू करवाती थी. मैं उस की क्लासेज लेती थी.

फिटनैस के लिए महिलाओं को क्या संदेश देना चाहती हैं

आजकल ज्यादातर महिलाएं कम उम्र में ही ओवरवेट हो जाती हैं. अत: मेरा उन से कहना है कि हमेशा फिटनैस के लिए अपनेआप को मोटिवेट करें. यही वह समय है जब आप फिटनैस पर ध्यान दे सकती हैं, क्योंकि एक उम्र के बाद हारमोनल बदलाव या अन्य वजहों से वजन बढ़ता है, तो उसे घटाना काफी मुश्किल होता है. हमेशा आत्मविश्वास बनाए रखें, खुश रहने की कोशिश करें.

आप के जीवन का बैस्ट कौंप्लिमैंट क्या है

वैसे तो कई हैं, पर जब पहली फिल्म की रिलीज के बाद करण जौहर ने मैसेज कर मेरे अभिनय की तारीफ की थी, तो वह मेरे लिए बहुत बड़ा कौंप्लिमैंट था.

खुश रहने का मंत्र क्या है

खुश रहना बहुत जरूरी है. उदासी तो लाइफ में आती ही रहती है. हमेशा वह काम करें जिसे करने पर आप को खुशी मिले. उन लोगों से मिलें, बातचीत करें, जो आप को खुशी दें.

शहर और गांव के बीच पनपता नया किसान

शहरीकरण का असर गांवों और शहरों दोनों पर पड़ रहा है. खेती की जमीन धीरेधीरे खत्म होती जा रही है. शहरों के करीब ऐसी कालोनियां तेजी से बढ़ रही हैं, जिन को न गांवों में गिना जा सकता है और न शहरों में. शहरों का गंदा पानी यहां जमा होता है, जिस से कई तरह की बीमारियां शहरों तक पहुंचने लगती हैं. शहरों और गांवों के बीच बनी इस तरह की कालोनियों की समस्या खेती की जमीन भी है. तमाम किसानों की जमीनों पर कालोनियां बन गईं, इस के बाद भी इन जगहों पर खेती के लिए कुछ न कुछ खाली जमीन भी पड़ी मिलती है. जरूरत इस बात की आ गई है कि इस जमीन पर खेती को बढ़ावा दिया जाए, जिस से शहरों और गांवों के बीच बसी कालोनियों में खाली पड़ी जमीनों का सही इस्तेमाल किया जा सके.

दक्षिण भारत के बेंगलूरू और चेन्नई जैसे शहरों के आसपास इस तरह के प्रयोग हो रहे हैं. ऐसी जमीनों पर किसान अब रोजगार करने लगे हैं. इस तरह के किसान फूल, फल और सब्जी की खेती कर के शहरों में बेच रहे हैं. इस से इन कालोनियों में जलभराव की परेशानी दूर हो गई और यहां रहने वाले किसानों को रोजगार भी मिलने लगा. उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले में इस तरह का प्रयोग शुरू किया गया. इस से गोरखपुर शहर के पास जलभराव की परेशानी दूर हो गई. यहां के किसानों ने अपना समूह बना कर खेती से होने वाली पैदावार मंडी में बेचनी शुरू कर दी है. इस से किसानों को मंडी से ज्यादा पैसा मिलने लगा है.

गांवों को शहर बनाना होगा

गोरखपुर एनवायरमेंटल एक्शन ग्रुप, राष्ट्रीय नगर कार्य संस्थान, भारत सरकार और रूफा संस्थान, नीदरलैंड ने आपस में मिल कर पेरी अरबन एग्रीकल्चर एंड इकोसिस्टम विषय पर एक 2 दिन की कार्यशाला का आयोजन किया. मुख्य मेहमान के रूप में मशहूर कृषि वैज्ञानिक प्रो. एमएस स्वामीनाथन ने कहा कि स्पेशल एग्रीकल्चर जोन की तरह ही पेरी अरबन एग्रीकल्चर को योजनाबद्ध तरीके से बढ़ाने की जरूरत है.  आने वाले समय में गांवों से शहरों की तरफ रोजगार के लिए आने वाले लोगों के लिए यह सुविधाजनक रहेगा कि पेरी अरबन एरिया को साफसुथरा बनाया जाए, जिस से उन को अच्छी सुविधाएं दी जा सकेंगी. पेरी अरबन एरिया के बनने से बाढ़ और पानी के जमाव की परेशानी से निबटा जा सकेगा. शहरों के पास पड़ी जमीन का खेती के लिए इस्तेमाल कर के रोजगार को बढ़ाया जा सकता है. केरल सहित दक्षिण भारत के कुछ राज्यों में पेरी अरबन एरिया में कृषि को ले कर बहुत काम हुआ है.

बढ़ेगा रोजगार

कृषि एवं उद्यान आयुक्त डा. एसके मल्होत्रा ने कहा कि खेती के मामले में भारत ने बहुत तरक्की की है. पिछले साल सब से ज्यादा पैदावार की गई. इस के बाद भी दाल, तेल और सब्जी के दामों में तेजी आई, जिस का कारण जनसंख्या का बढ़ना है. गांवों से शहरों की तरफ आने वाले लोगों की तादात बढ़ती जा रही है. 2020 तक यह संख्या 60 फीसदी होने की आशा है.भारत सरकार ने इन चुनौतियों को समझते हुए कृषि पैदावार के साथसाथ खाने में फायदेमंद तत्त्वों को बढ़ाने के लिए कई योजनाएं शुरू की हैं. पेरी अरबन एरिया का भी इस्तेमाल करने की नीति तैयार की गई है. पेरी अरबन एरिया में कृषि को बढ़ावा देने  के लिए 500 वर्ग फुट से ले कर 5 हजार वर्ग फुट से अधिक के पौलीहाउस बना कर खेती की जा सकती है.

समस्या बनता शहरी प्रदूषण

अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरणविद एवं गोरखपुर एनवायमेंटल एक्शन ग्रुप के अध्यक्ष डा. शीराज वजीह ने कहा कि संसार में शहरीकरण तेजी से बढ़ रहा है. जहां 20वीं शताब्दी के शुरू में विश्व के शहरी इलाकों में आबादी 15 फीसदी थी, वहीं 2007 में विश्व की शहरी आबादी ग्रामीण क्षेत्रों से भी ज्यादा हो गई. अनुमान है कि 2050 तक विश्व की तीनचौथाई जनसंख्या शहरी इलाकों में होगी. शहरी इलाका खेती के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है और एक अनुमान के अनुसार विश्व की तकरीबन 80 करोड़ आबादी ऐसी खेती के साथ जुड़ी हुई है.

ऐसी खेती में सब्जी, फल, पशुपालन, वन जैसे काम प्रमुख हैं. तेजी से बढ़ते शहर ऐसे कुदरती साधनों के सामने चुनौती बन रहे हैं और वर्तमान में मौजूद खेती की जमीन व हरित क्षेत्र घट रहे हैं, जो शहर के श्वसन तंत्र की भूमिका के साथ ही खाद्य उत्पादन व आजीविका उपलब्ध कराने में भी सहायक होते हैं. डा. शीराज वजीह ने कहा कि बिना योजना वाले शहरी इलाकों में तरक्की के कारण गोरखपुर जैसे महानगरों में बाढ़ व उपनगरीय क्षेत्र में जल भराव क्षेत्र बढ़ा है. उपनगरीय क्षेत्र का तकरीबन 25 फीसदी भाग हर साल बाढ़ व पानी से भरा रहता है, जिस में एक ही फसल का उत्पादन होता है.

खेती में लागत मूल्य ज्यादा और पैदावार कम होने के कारण खेती नुकसानदायक व्यवसाय हो गया है. महानगरीय नालों के बहाव के कारण भूमि प्रदूषित हुई है और मिट्टी की उर्वरकता कम हुई है. साथ ही साथ जमीनी पानी की गंदगी के कारण साफ पीने वाले पानी की कमी हुई है.पेरी अरबन क्षेत्रों में कृषिगत कार्यप्रणाली द्वारा खेती के प्रति किसानों का रुझान पैदा कर उन की खेती लायक जमीन को बनाए रखा जा सकता है, जिस से बढ़ते हुए शहरीकरण के दबाव के कारण उन किसानों की जमीन को शहरों में तब्दील होने से ब चाया जा सके और साथसाथ शहर व उपनगरीय क्षेत्रों में पानी जमाव के जोखिम को कम किया जा सके.

फल, फूल और सब्जी का सहारा

गोरखपुर में कृषिगत कार्यप्रणाली के जरीए पेरी अरबन के 8 गांवों में इन प्रयासों में तेजी लाई गई है. जलवायु परिवर्तन अनुकूलित कृषि को बढ़ावा देने के लिए किसानों के खेतों में कई तरह के प्रयोग किए गए हैं, जैसे ढैंचे की खेती के साथ बेल वाली फसलों को उगाना (क्लाइंबर फार्मिंग), उच्च लो टनल पाली हाउस द्वारा नर्सरी लगाना, जल जमाव वाले क्षेत्रों में मचान खेती को बढ़ावा देना, जल जमाव वाले क्षेत्रों में थर्मोकोल बाक्स द्वारा खेती करना और जूट के बोरे द्वारा खेती के कामों को करना.भारत में भी शहरीकरण तेजी से हो रहा है. भारत सरकार ने स्मार्ट सिटी, अमृत सिटी जैसी कई योजनाओं द्वारा शहरों में सुधार के लिए कई जरूरी फैसले लिए हैं. इस दिशा में नगरीय इलाकों (पेरी अरबन) पर भी ध्यान दिया जाना जरूरी है.

नगरीय इलाकों में खेती शहर के कमजोर वर्ग की आबादी के लिए बड़ा सहारा होती है. साथ ही इलाके के कुदरती साधन नगरों को जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निबटने में मदद करते हैं. बाढ़, जल जमाव, तापमान की बढ़ोत्तरी, सूखा, पानी की कमी जैसे हालात से नगरों को बचाने में इन की खास भूमिका होती है. नगरीय विकास के साथ ही इन नगरीय इलाकों में खेती को बनाए रखने के लिए जरूरी नीतियों, खाद्य उत्पादन व पोषण सुरक्षा को मजबूत करने जैसी बातों पर इस कार्यशाला में बातचीत की गई. आईसेट नेपाल संस्था के अध्यक्ष डा. अजय दीक्षित ने कहा कि पेरी अरबन एग्रीकल्चर शहर के कमजोर वर्ग की आबादी के लिए बड़ा सहारा होती है. हांगकांग के सीनियर इंजीनियर ई. अनिल कुमार ने कहा कि शहर का इलाका खेती के लिए बहुत जरूरी होता है और एक अनुमान के अनुसार विश्व की तकरीबन 80 करोड़ आबादी ऐसी कृषि के साथ जुड़ी हुई है. ऐसी खेती के कामों में सब्जी, फल, पशुपालन व वन जैसे काम खास हैं.

गोरखपुर की महिला किसान चंदा देवी ने बताया कि हम लोग शहर के किनारे बसे हुए हैं. यहां हम लोग सालों से सब्जी की खेती कर रहे हैं. हम लोगों की सब से बड़ी समस्या यह है कि शहर का सारा गंदा पानी हमारे खेतों में आता है, जिस से खेती में दिक्कत आती है. दूसरी तरफ खेतों के चारों तरफ मकान बनते जा रहे हैं, जिस से बड़ेबड़े बिल्डरों का जमीन बेचने का दबाव भी बराबर बना रहता है. गोरखपुर के किसान रामराज यादव ने कहा कि हम लोगों की रोजीरोटी सब्जी की खेती है. सब्जी को हम लोग शहर में बेच कर अपनी जिंदगी गुजारते हैं. लेकिन खेती में हम लोगों को सरकारी योजनाओं का फायदा नहीं मिल पाता, क्योंकि हम लोग न तो शहर की सुविधाएं पाते हैं, न ही हमें गांवों की योजनाओं का फायदा मिलता है.

कीमतें बढ़ने से किसानों में जोश

दवाओं की दुनिया में सफेद मूसली की बेहद ज्यादा अहमियत है. इस की खेती करना किसानों के लिए फायदे का सौदा साबित होता है. मगर पिछले दिनों इस के दाम गिरने से किसान घबरा गए थे. अब एक बार फिर से हालात बदल रहे हैं. आयुर्वेदिक दवाओं में खासतौर से इस्तेमाल होने वाली सफेद मूसली की कीमतों में 3 साल बाद सुधार होने से राजस्थान में इस की खेती करने वाले किसानों ने फिर से इस जड़ीबूटी की खेती करना शुरू कर दिया है. राज्य के राजसमंद, उदयपुर, चित्तौड़गढ़ व बारां जिलों में कुछ किसान सफेद मूसली की खेती करते हैं. इस की सब से ज्यादा खेती राजसमंद जिले की भीम व देवगढ़ तहसीलों में अरावली की पहाडि़यों पर बसे छोटेछोटे गांवों में की जाती है. यहां कम से कम 50 से 60 किसान सफेद मूसली की खेती करते हैं. यहां होने वाली यह जड़ीबूटी अच्छी मानी जाती है.

राजसमंद जिले के मूसली की खेती करने वाले किसान हजारी सिंह चौहान बताते हैं कि साल 2011 में यहां के किसानों को इस जड़ीबूटी की खेती से अच्छी आमदनी हुई थी और करीब 1200 रुपए प्रति किलोग्राम की दर से थोक व्यापारियों को किसानों ने अपनी फसल बेची थी. उन्होंने बताया कि इस के बाद इस की कीमतें गिर गईं और किसानों को 600 से 800 रुपए प्रति किलोग्राम की दर से अपनी पैदावार को बेचना पड़ा. सफेद मूसली के दाम घट कर करीब आधे हो जाने से किसानों को काफी झटका लगा था. एक किसान पूर्ण सिंह ने तो साल 2013 में करीब 1 क्विंटल सफेद मूसली का भंडारण कर के उसे अच्छे भाव के इंतजार में रोके रखा था, लेकिन आखिर में उन्हें साल 2014 में 600 रुपए प्रति किलोग्राम की दर से उसे बेचना पड़ा था.

राजस्थान, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र आदि जगहों पर सफेद मूसली की खेती करने वाले किसानों को इस फसल के दाम कम मिलने पर उन्होंने इस जड़ीबूटी की खेती करना लगभग छोड़ ही दिया था और साल 2015 में देश भर में इस का रकबा सिकुड़ कर लगभग आधा हो गया था. इस की खेती करने वाले हर किसान ने पहले की तुलना में जमीन के आधे हिस्से पर ही इस की खेती की. लेकिन साल 2015 के अक्तूबरनवंबर में इस की फसल तैयार होने पर इस के दाम ऊंचाई छूने लगे. जिन किसानों ने थोड़ा धैर्य रखा, उन्हें 1300 से 1500 रुपए प्रति किलोग्राम की दर से आमदनी हुई.

बारां जिले के किसान गणपत लाल नागर से मूसली के बारे में बात करने पर उन्होंने कहा कि इस बार इस जड़ीबूटी के भाव अच्छे मिलेंगे. मैं ने अपनी फसल देर से निकाली है और बाजार में जा कर जानकारी हासिल करने पर पता चला है कि आजकल कम से कम 1300 रुपए प्रति किलोग्राम इस की दरें चल रही हैं. वहीं हजारी सिंह चौहान ने बताया कि उन्होंने शुरुआत में पैदावार का कुछ हिस्सा 900 रुपए प्रति किलोग्राम की दर से बेचा था, लेकिन बाद में बची मूसली को उन्होंने 1400 रुपए प्रति किलोग्राम के हिसाब से बेचा. उन्होंने कहा कि यदि कोई अपनी पैदावार को रोके तो उसे 1500 रुपए प्रति किलोग्राम तक दाम मिल सकते हैं.

एक अदद मुसकान

टैक्नोलौजी के कमाल के बारे में तो आप सुन ही रहे हैं लेकिन ऐसी टैक्नोलौजी जो नन्हेमुन्हे की आंखों में रोशनी लौटा दें चमत्कार से कम नहीं होगा. अभी हाल ही में चार महीने के लियोपोल्ड विल्बर जो अमेरिका में जन्मा है के लिए टैक्नोलौजी वरदान साबित हुई. क्योंकि उसे ऐसा चश्मा मिल गया है जिस से वह देख पाएगा. उसे जन्म से ही औक्यूलोक्यूटेनियश एल्बीनिज्म बीमारी है जिस के कारण वह देख नहीं सकता. अपनी मां के चेहरे को छू कर और पापा की दाढ़ी पर हाथ लगा कर वह उन्हें पहचानता था लेकिन मन ही मन सोचता होगा कि जब मैं देख ही नहीं सकता तो मेरा इस दुनिया में आने का क्या फायदा.

अगर मैं देख पाता तो कितना अच्छा होता. उस के मन की बात और उस की पीड़ा को उस के पेरैंट्स भलीभांति समझ रहे थे तभी तो उन्होंने लौस एंजिलस स्थित बाल चिकित्सा नेत्र रोग विशेषज्ञ केनेथ से उपचार की मांग की और इन्हीं प्रयासों के चलते उन्हें यूएस की चश्मा बनाने वाली कंपनी मिराफ्लेश से ऐसा चश्मा मिल गया जिस ने नन्हेमुन्नहे की आंखों में रोशनी लौटा दी. चश्मे में नौर्मल लैंसिज का यूज किया गया है लेकिन फ्रेम रबड़ का बना होने के साथसाथ इस के किनारे शार्प नहीं हैं और इस में किसी भी तरह के स्कू्र का इस्तेमाल नहीं किया गया है. जब लियो चश्मा पहन कर अपनी मम्मी को देख कर मुसकराया तो उस की मम्मी की आंखों से आंसू न रुके और उन्होंने इस पल को कैमरे में कैद कर लिया. पापा भी खुशी के मारे रो उठे. आखिर बच्चों के चेहरे की मुसकान होती ही ऐसी है जो हर दुख को भुला देती है.

बड़ी विचित्र है मक्खी

मक्खी को तो अपने आसपास मंडराते आप ने देखा ही होगा. यह एक ऐसा जीव है, जिस से हर कोई नफरत करता है. पास आते ही उसे भगाने का मन करता है लेकिन मक्खी लाख भगाने के बावजूद लगातार आसपास भिनभिनाती रहती है. मक्खी ढीठ होती है. उसे कितना भी भगाओ, फिर वापस आ जाती है. मक्खी में गजब की फुरती होती है. आप उसे मारने या भगाने के लिए जैसे ही हाथ उठाएंगे, उस से पहले ही वह छूमंतर हो जाएगी और आप हाथ मलते रह जाएंगे. छोटी सी मक्खी के दरअसल कईर् जटिल और विचित्र अंग होते हैं. मक्खी का शरीर मुख्यतया 3 भागों में बंटा होता है, सिर, छाती और पेट. मक्खी की छाती से दोनों तरफ 3-3 टांगें निकली होती हैं. प्रत्येक टांग 5 हिस्सों में बंटी होती है. टांग का आखिरी हिस्सा पैर होते हैं, जिन पर नीचे की तरफ 2 पंजे होते हैं. इन पंजों के नीचे छोटीछोटी गद्दियां होती हैं जिन से हमेशा लार जैसा चिपचिपा द्रव निकलता रहता है. इस चिपचिपे द्रव के कारण मक्खी कांच जैसी सतह पर उलटी लटकी रह सकती है और आसानी से टंगीटंगी ही चल भी सकती है.

मक्खी उलटीसीधी, आड़ीतिरछी भी उड़ लेती है. वह हवा के वेग और दिशा के बारे में अत्यधिक सतर्क रहती है. उस के सिर पर 2 ऐंटेना होते हैं जो उसे हवा की स्थिति से अवगत कराते हैं. इन से संकेत मिलते ही वह अनुकूल दिशा की ओर अपना रुख कर लेती है ताकि विपरीत परिस्थितियों का सामना करने से बचा जा सके. मक्खी में सूंघने की क्षमता भी जबरदस्त होती है. कोई चीज बनी नहीं कि वह हाजिर, मानो उस वस्तु के बनने का ही इंतजार कर रही थी. आप सोचते होंगे कि उस की नाक तो है नहीं, फिर उसे गंध का एहसास कैसे होता है  उस के ऐंटेना ही नाक का कम करते हैं. ऐंटेना से गंध पा कर वह अपने भोजन की तलाश में चल देती है.

 मक्खी में एक और विचित्र बात होती है, उस की देखने की शक्ति. उस की आंखें सिर पर 2 बड़ीबड़ी आकृतियों के रूप में दिखती हैं. इन में से हर आंख हजारों छोटेछोटे लैंसों से मिल कर बनी होती है और प्रत्येक लैंस सामने दिखाई देने वाली वस्तु का अलगअलग थोड़ा सा चित्र ग्रहण करता है, सभी लैंसों के अलगअलग मिले दृश्यों को मिला कर ही मक्खी पूरा दृश्य देख पाती है. मक्खी में सिर्फ 2 आंखें ही नहीं होतीं. सूक्ष्मदर्शी से देखा जाए तो उस के सिर पर सीधे ऊपर की तरफ देखने वाले 3 साधारण नेत्र भी दिखाई देते हैं. मक्खी का शरीर अत्यधिक लोचदार होता है. शायद इस की वजह काइटिन और प्रोटीन तत्त्व हैं, जिन से उस का शरीर बना होता है. मक्खी एक घंटे में 6 हजार बार अपने पंख फड़फड़ाती है.

मक्खी को जहां एक ओर मीठे और स्वादिष्ठ व्यंजन पसंद हैं, वहीं उसे गंदगी से भी कोई परहेज नहीं है. जीवित जीव हों या मरे हुए, वह उन के जिस्म पर बैठ कर समानरूप से आनंदित होती है. उसे परहेज है तो साफसुथरी जगह से. साफसुथरा वातावरण उसे रास नहीं आता. मक्खी अन्य उड़ने वाले कीटपंतगों की तुलना में बहुत धीमे उड़ती है. उस के उड़ने की अधिकतम गति 7-8 किलोमीटर प्रति घंटा होती है, लेकिन आमतौर पर उसे अधिक लंबी दूरी की यात्रा करने की जरूरत नहीं होती. मक्खी किसी भी वस्तु को चटखारे ले कर खाती है. प्रकृति ने उस के पैरों में स्वाद कलिकाएं प्रदान की हैं. किसी भी वस्तु पर बैठते ही उसे यह पता चल जाता है कि वह खट्टीमीठी, बासीताजी या जीवितमृत है  वस्तु के तरल, ठोस या लिसलिसे होने का पता भी स्वाद कलिकाएं लगा लेती हैं. मक्खी के दांत नहीं होते. इसलिए वह अपना भोजन चबाती नहीं, केवल चूसती है. चूसने का काम ‘रोस्ट्रम’ करता है. यह ऐंटेना के नीचे की ओर ट्यूब के आकार का होता है. मक्खी विशिष्ट तरीके से भोजन ग्रहण करती है. वह भोजन को सीधे मुंह में नहीं भरती. भोजन करने से पूर्व अपने शरीर से लार और पाचक रस उस पर टपकाती है. लार और पाचक रस मिल कर भोजन को घोल देते हैं. जब भोजन घुल जाता है तो वह उसे चूस लेती है.

मक्खी हर समय अपनी टांगें आपस में रगड़ती रहती है. इस प्रकार वह अपने शरीर को साफ करने का प्रयास करती है. मच्छर की भांति मक्खी काट नहीं सकती, मुंह से तो कदापि नहीं. मक्खी अपने अंडे देने के लिए गंदी जगह तलाशती है. कूड़ेकचरे के ढेर उस के रहने के स्थल हैं और वहीं वह अपने अंडे भी देती है. एक बार में मक्खी सौ अंडे देती है, यह अपने जीवन में 10 बार अंडे देती है. अंडे से लारवा बनने में आधे दिन से एक दिन तक का समय लगता है. कुछ दिन में ये लारवा ‘प्यूपा’ बन जाते हैं, जिन में से मक्खी बन कर निकलती है.  मक्खी अपनेआप में निर्दोष होती है. उस के शरीर में कोई रोगाणु नहीं पनपता. वह तो केवल इधरउधर के रोगाणुओं की संवाहक मात्र होती है. उदाहरण के लिए, किसी गंदगी से उठ कर जब वह किसी खाद्य सामग्री पर बैठती है तो गंदगी में व्याप्त रोगाणु स्वच्छ खाद्य सामग्री को भी दूषित कर देते हैं. मक्खी दिखने में छोटी भले ही हो, पर वह बड़ी खतरनाक होती है. वह कई जानलेवा बीमारियां फैलाती है. टाइफाइड, तपेदिक, हैजा, दस्त जैसे घातक रोगों के रोगाणु मक्खी ही अपने साथ लाती है.

मक्खी से बचने का एकमात्र उपाय घर और भीतर दोनों जगह साफसफाई रखना है. घर की खिड़कियों और रोशनदानों में बारीक जाली लगवानी चाहिए ताकि मक्खी घर में प्रवेश न कर सके. मक्खी से पेय पदार्थों और खाद्य सामग्रियों को बचाना नितांत आवश्यक है. दूध को जाली से ढक कर रखें. खाद्य सामग्री को भी कपड़े से ढक कर रखें ताकि मक्खियां रोगाणु न फैला सकें. जिन ठेलों पर कटे फल, चाटपकौड़ी या अन्य खानेपीने का सामान खुला बिकता हो, वहां से कोई चीज न खरीदें. मनुष्य मक्खियों से काफी परेशान है. मक्खियों को दूर रखने के लिए उस ने कुछ साधन, उपकरण और रसायन आदि भी बनाए हैं. ‘प्लाई पेपर’ में मक्खियां आ कर चिपक जाती हैं, फिर उड़ नहीं पातीं. कुछ ट्यूबलाइटें भी बाजार में मिलती हैं, जिन की विशिष्ट किरणों के कारण मक्खियां वहां नहीं फटकतीं. वैसे फिनाइल डाल कर घर में पोंछा लगाने से भी काफी हद तक मक्खियों से बचा जा सकता है.

पहले डीडीटी का छिड़काव मक्खियों का सफाया करने का कारगर उपाय था लेकिन मक्खियां भी कोई कम नहीं थीं, उन्होंने डीडीटी के विरुद्ध प्रतिरोधी क्षमता प्राप्त कर ली. परिणामस्वरूप तरहतरह के नए रसायनों का आविष्कार मक्खियों का खात्मा करने के लिए हुआ लेकिन अभी भी मक्खियों का सफाया करना इतना आसान नहीं है. 

VIDEO: नरेंद्र मोदी के साथ अपनी इस हरकत पर शर्मिंदा है ये पाक मॉडल, मांग रही है माफी

पाकिस्तान की विवादित मॉडल कंदील बलोच आए दिन अपने बयानों और कामों की वजह से सुर्खियों में छायी रहती हैं. कभी वो टीम इंडिया के उप कप्तान विराट कोहली से प्यार का इजहार करती है तो कभी पाकिस्तान क्रिकेट टीम को गालियां देती है. अब कंदील ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से माफी मांगी है. कंदील ने वीडियो शेयर करते हुए पीएम मोदी से माफी मांगी है.

कंदील बलोच ने वीडियो शेयर करते हुए कहा कि मोदी को लेकर कोई विवाद नहीं है हम उनकी दिल से रिस्पेक्ट करते हैं. कंदील ने वीडियो में कहा है कि उन्होंने मोदी को रिसर्च किया और पढ़ा तो मैं बहुत शर्मिंदा हुई और मैने एक वीडियो में पता नही क्या कह डाला. कंदील ने माफी मांगते हुए कहा है कि मैं अपनी हरकत से बहुत शर्मिंदा हूं, मैं सबसे मांफी मांगती हूं.

आपको बता दें कि इससे पहले 20 फरवरी को कंदील ने एक वीडियो पोस्ट किया था, जिसमें उसने पीएम मोदी को धमकी देते हुए कहा था कि चायवाला मोदी जी मेरे पास आपके लिए एक संदेश है. उन्होंने वीडियो में मोदी के लिए कई आपत्तिजनक बातें कही थी, लेकिन अब वो सबके लिए माफी मांग रही हैं.

ऊंची जातियों को भाजपा का बाय बाय

ऊंची जातियों की अगुवाई का दावा करने वाली भारतीय जनता पार्टी ने अब दूसरे दलों से मुकाबला करने के लिये अपने परंपरागत वोट बैंक से मुंह मोड लिया है. भाजपा की स्थापना के 36 वर्षो में 23 वर्ष ब्राहमण नेता ही उत्तर प्रदेश में पार्टी की कमान संभालते रहे है. कुछ साल ठाकुर और गुप्ता बिरादरी के नेता प्रदेश अध्यक्ष बने. पिछडे वर्ग के नेता बहुत कम समय तक प्रदेश अध्यक्ष रहे.

पार्टी ने कुर्सी से हटते ही उनको हाशिये पर डाल दिया. अब भाजपा ऊंची जातियों को बाय बाय कर पिछडों और दलितों को साधने का गणित लगाकर चुनाव जीतना चाहती है. इस क्रम में केवल उत्तर प्रदेश ही नहीं देश के दूसरे प्रदेशों में भी ऊंची जातियों को दरकिनार करते पिछडा और दलित समीकरण पर भरोसा किया है. भाजपा ने जातीय समीकरण के साथ हिन्दुत्व की पहचान को ध्यान में रखा है. जिससे वोटर खासकर ऊंचे वर्ग को खुश रखा जा सके. उत्तर प्रदेश से लेकर अरूणाचल तक भाजपा ने इस फार्मूला को अपनाया है.

भाजपा ने उत्तर प्रदेश, पंजाब, कर्नाटक, तेंलगाना और अरूणाचल प्रदेश में पार्टी के नये प्रदेश अध्यक्षों की घोषणा की, तो उसमें से एक भी ऊंची जाति का प्रदेश अध्यक्ष नहीं शामिल हो सका. इनमे एक दलित, दो ओबीसी, एक पिछडा (लिंगायतद्ध), और एक अनुसूचित जाति से है. भाजपा ने उत्तर प्रदेश में केशव प्रसाद मौर्या, पंजाब में विजय सांपला, कर्नाटक में बीएस यदुदरप्पा, तेलेगांना में के लक्ष्मण और अरूणाचल प्रदेश में तापिर गांव को पार्टी की कमान सौंप दी है.

इन नये प्रदेश अध्यक्षों में से करीब करीब सभी का राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ के साथ काम करने का लंबा अनुभव रहा है. इससे जाहिर है कि भाजपा को नागपुर एजेंडे पर ही चलना है. संघ एक तरफ आरक्षण की समीक्षा और गरीब सवर्णो को आरक्षण दिये जाने की वकालत करता नजर आता है तो दूसरी तरफ ऊंची जातियों को बाय बाय भी कर रहा है.

भाजपा के नये प्रदेश अध्यक्षों में इस बात का ख्याल रखा गया है कि उनमें हिन्दुत्व का फैक्टर जरूर दिखे. दलितों के मुकाबले पिछडे वर्ग के नेताओं में धर्मिक आस्था अधिक होती है, इनको हिन्दुत्व से जोडना सरल होता है, इसलिये संघ ने पिछडे वर्ग के उन नेताओं को महत्व देना शुरू किया है जो दलित वर्ग के ज्यादा करीब है. उत्तर प्रदेश में 40 फीसदी पिछडे वर्ग का वोट बैंक है. भाजपा की नजर में सबसे खास चुनावी लडाई उत्तर प्रदेश में है. 2019 के लोकसभा चुनाव में जीत के लिये जरूरी है कि उत्तर प्रदेश मजबूत रहे.

उत्तर प्रदेश के नये प्रदेश अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्या का संघ से पुराना नाता रहा है. पंजाब में विजय सांपला को प्रदेश की कमान दी गई. विजय सांपला केन्द्र सरकार में सामाजिक न्याय अधिकारिता मंत्री है. भाजपा उनको अपने मुख्यमंत्री के रूप में देख रही है. कर्नाटक में सत्ता खो चुकी भाजपा को केवल बीएस येदुदरप्पा ही संकटमोचन दिखे. तेलगांना में के लक्ष्मण संघ के करीबी है. कट्टरवादी नेता है. सानिया मिर्जा को पाकिस्तानी बहू कहकर विवाद को हवा दी थी. अरूणाचंल प्रदेश में तापिर गांव को प्रदेश अध्यक्ष बना कर चुनावी तैयारी शुरू कर दी है.

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