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अलग अलग देश, अजब गजब कानून

अमेरिका के कैलीफोर्निया राज्य के हाईवे पर 1 हजार फुट के दायरे में महिलाओं के ऐसे वस्त्र जो ब्रैस्ट को दिखाते प्रतीत हों, बेचना कानूनन अपराध है. वहां एक और अजीबोगरीब कानून है कि कोई भी पुरुष महिलाओं के कपड़े पहन कर बाहर नहीं निकल सकता. अगर किसी कारणवश उसे ऐसा करना भी हो तो इस की पुलिस से लिखित में अनुमति लेनी पड़ेगी वरना जेल जाना तय समझिए.

है न हास्यास्पद कानून? कुछकुछ हमारी खाप पंचायतों की तरह, जहां आएदिन ऐसे तुगलकी फरमान जारी होते रहते हैं. अब तो यकीन ही नहीं होता कि हम 21वीं सदी में जी रहे हैं.

भारतीय समाज में खुलापन चाहे वह पहनावे को ले कर हो या फिर सैक्स संबंधों को ले कर, हमेशा चर्चा का विषय रहा है. भारतीय आमतौर पर यह मानते हैं कि विदेशों की तुलना में हमारी संस्कृति परंपराओं के बोझ तले दबी हुई है. मगर ऐसा नहीं है. यूरोप, अमेरिका और अरब के कई देशों में ऐसे कानून हैं, जिन के बारे में जान कर आप भी हैरान रह जाएंगे.

अगर आप इन देशों की आबोहवा से रूबरू होना चाहते हैं, तो जरा वहां के कानूनों व अपराधों की जानकारी जरूर ले लें वरना कहीं ऐसा न हो कि आप वहां मस्ती करने जाएं और रंग में भंग पड़ जाए यानी आप को जेल की हवा खानी पड़ जाए.

अमेरिका के अलगअलग राज्यों में कानून कई दशक पुराने हैं और कुछ तो 100-200 साल पुराने और उन्हें न के बराबर लागू किया जाता है. कानून की किताबों में ये जमे हुए हैं पर समाज बढ़ गया है. फिर भी कभीकभार धौंस जमाने के लिए इन का इस्तेमाल कर लिया जाता है.

जानिए कुछ ऐसे ही रोचक कानूनों व अपराधों के बारे में:

वादे हैं वादों का क्या

किसी लड़की से सैक्स संबंध बना लेने के बाद अगर शादी नहीं की तो जेल जाना तय समझिए. साउथ कैरोलिना का कानून इस के लिए सख्ती से पेश आता है. यहां फैसला भी जल्दी सुनाया जाता है.

हमारे देश में इस तरह के अपराधों में पीडि़ता को ही जलालत सहनी पड़ती है. कोर्टकचहरियों के चक्कर लगातेलगाते चप्पलें घिस जाती हैं, क्योंकि न्याय मिलने में सालों लग जाते हैं. तब तक पीडि़ता पलपल अपनों के तंज सहती है. कुछ तो तंग आ कर आत्महत्या तक कर लेती हैं.

यहां मोशन और इमोशंस काबू में ही रखें

अगर आप को ओरेगन में राह चलते 1 अथवा 2 नंबर जाने की जल्दी है तो जरा ध्यान से. सार्वजनिक शौचालयों के किसी एक टौयलेट में एकसाथ 2 लोग गए तो खैर नहीं. यहां आप को मोशन पर काबू रखना होगा और इमोशंस पर भी.

मजे में सजा नहीं

सैक्स संबंध के दौरान ओरल सैक्स अथवा यौन उत्तेजना के लिए अंग में गहराई तक उंगलियों का प्रवेश कैंसास में कुछ हद तक ही करने की इजाजत है. अगर सैक्स पार्टनर को यह जरा सा भी यौन उत्पीड़न की तरह लगा और इस की शिकायत उस ने पुलिस में कर दी तो जेल जाना तय.

जुर्माना भी सजा भी

मिसीसिपी में ग्रुप सैक्स अपराध है. साथ ही अगर कोई जोड़ी सार्वजनिक जगह पर यौन प्रदर्शन में लिप्त पाई गई तो 500 डौलर जुर्माना या फिर 6 महीने जेल की सजा हो सकती है.

बार मालिक सावधान

ओकलाहोमा में बार चला रहे बार मालिकों को सख्त हिदायत है कि वे अपने बारों में सैक्स गतिविधियों को कतई न चलने दें. यहां के बारों में कपल्स द्वारा यौन गतिविधियों पर रोक है. बार में अगर कोई जोड़ी सैक्स क्रिया, हस्तमैथुन, मुखमैथुन आदि में लिप्त पाई गई तो उन पर तो कार्यवाही होगी ही, बार के मालिक को भी कानूनन सजा मिल सकती है.

सावधानी हटी दुर्घटना घटी

मिशिगन की सड़कों पर महिलाओं के छोटे, झीने परिधान जिन के अंदर से अंडरगारमैंट्स दिखते हों, पहनने पर पाबंदी है. यहां महिलाएं ऐसे कपड़े भी नहीं पहन सकती हैं जिन में उठनेबैठने, चलनेफिरने के दौरान नितंब दिखते हों. इस का उल्लंघन करने पर क्लास बी ओफैंस के तहत कानूनी कार्यवाही हो सकती है.

सही भी है, क्योंकि यातायात के नियमों का पालन करना भी जरूरी है. इधरउधर ध्यान भटका नहीं कि दुर्घटना घटी.

यहां खुले में लिंजरी टांगना मना है

न्यू हैंपशायर के एअरपोर्ट पर कपड़े टांगने की जगह पर लिंजरी तो भूल कर भी न टांगें वरना आप का कानून के शिकंजे में आना तय है. आप पर भारी जुर्माना भी लगाया जा सकता है. लिंजरी उस स्थिति में टांगी जा सकती है जब उस पर कोई झीना कपड़ा डाला गया हो.

वैसे हमारे यहां घर की छतों पर निकल जाइए. नजारा खुदबखुद दिख जाएगा. हमारे यहां तो पड़ोसियों को पड़ोसिनों के खूबसूरत अंडरगारमैंट्स के कलर व ब्रैंड तक की भी जानकारी होती है.

क्योंकि जमाना खराब है

न्यू मैक्सिको के एक अजबगजब कानून के बारे में आप भी जान कर चकरा जाएंगे. यहां महिलाएं ऐसे वस्त्र नहीं पहन सकतीं, जिन में स्तनाग्र दिखते हों.

गए काम से

वाशिंगटन में रहते हुए किसी अनजान को कार की चाबी देने से पहले सोचिएगा जरूर, क्योंकि आप ने जानेअनजाने किसी सैक्स वर्कर को कार की चाबी दे दी तो गए काम से. रास्ता चलते सैक्स वर्कर पकड़ी गई तो पुलिस साइरन बजाते हुए आप के घर तक दाखिल हो जाएगी. जुर्माना तो लगेगा ही, कार भी जब्त हो सकती है.

हमारे यहां तो रईसों के बिगड़ैलों को सड़कों पर सरपट कार दौड़ाते आम देखा जा सकता है. आप भले ही फुटपाथ पर चल रहे हों, फिर भी सुरक्षित नहीं हो सकते. कानून भी इन का कुछ नहीं बिगाड़ता. अभी तक सलमान खान का कुछ बिगड़ा क्या?

चुंबन बस 5 मिनट

विशेषज्ञों का मानना है कि होंठों के चुंबन से असंख्य ऐसे बैक्टीरिया का एकदूसरे के शरीर में प्रवेश होता है, जो शरीर को नुकसान नहीं फायदा पहुंचाते हैं. अगर आप भी इस फायदे का लाभ उठाना चाहते हैं तो जरा संभल कर, क्योंकि लोवा देश का कानून इस की इजाजत तय सीमा तक ही देता है. वहां सार्वजनिक जगहों पर आप अपने मन को काबू में रखें. अगर मन ज्यादा ही हिचकोले खा रहा हो तो बस 5 मिनट तक ही चुंबन का आनंद उठा सकते हैं. 5 मिनट से ज्यादा समय हो गया तो पुलिस वाला आ धमकेगा. अब यह न पूछें कि चुंबन लेते वक्त कोई पुलिस वाला वहां स्टौपवाच और डंडा ले कर खड़ा रहेगा क्या?

लालच बुरी बला है

टैक्सास में एक बड़ा ही अजीबोगरीब कानून है. वहां अननैचुरल सैक्स संतुष्टि के लिए 5 डिल्डो (रबड़ के बने मुलायम लिंग) रखने की छूट है. अगर उन की संख्या 6 हो गई तो खैर नहीं. अब 1 हो या 5, संख्या बताना भी साहस का ही काम होगा.

होटल जा रहे हैं क्या

अगर नौर्थ कैरोलिना में होटल में समय बिताने जा रहे हैं, तो जरा ध्यान से. यहां के होटलों में विवाहपूर्व किसी महिला के साथ रंगरलियां मनाते पकड़े गए तो आप की खैर नहीं. हां, विवाहित जोड़ों पर कानून का डंडा नहीं चलता पर आफत उन का भी पीछा नहीं छोड़ेगी. पुलिस को शक होने पर आप को साबित करना पड़ेगा कि साथ की महिला आप की पत्नी ही है.

बेशर्मी दिन में नहीं

उत्तरी अमेरिका के डकोटा राज्य में स्थित रैड रिवर (लाल नदी) में नहाने को ले कर अजीबोगरीब नियम हैं. इस नदी में सुबह 8 बजे से ले कर रात के 8 बजे तक नंगे नहाते पकड़े गए तो कानूनी डंडा पड़ना तय समझिए. अगर आप न्यूड बाथ के शौकीन हैं और वह भी नदी के बहते पानी में तो इस नदी में रात के 8 बजे से सुबह के 8 बजे तक इस का आनंद उठा सकते हैं.

न्यूड बाथ के शौकीन यहां रात के अंधेरे में जम कर नहाते हैं. मगर, आप जरा बच कर ही नहाएं, क्योंकि रात के समय में कहीं पानी का कोई जंतु आप के शरीर के किसी नाजुक अंग को अपना खाना समझ कर उस पर हमला न कर दे.

गंदी गंदी गंदी बात

न्यूयौर्क, इंडियाना, फ्लोरिडा व अरकांसस में अपने जज्बातों को काबू में रखना होगा. यहां खुलेआम यौन व्यवहार पर जेल की हवा खानी पड़ सकती है. अगर अरकांसस में भूल से भी किसी महिला को इशारा करते, पुचकारते जैसी भावभंगिमाएं करते पकड़ा गया तो 30 दिनों की जेल तय समझिए.

पहचान कौन…? आइडेंटिटी थीफ…!

वर्चुअल दुनिया में आइडेंटिटी की चोरी की वारदातें दुनिया भर में आम हैं. जहाँ साइबर शातिर आपकी बैंकिंग ट्रांजेक्शन, मेल, पासवर्ड आदि जानकारियाँ हैक करके डिजिटल आइडेंटिटी ले उड़ते हैं. हालांकि वर्चुअल दुनिया में इस आइडेंटिटी थेफ़्ट पर लगाम कसने के लिए कई एंटीवायरस, सॉफ्टवेयर, एप्प्लिकेशन आदि हैं लेकिन जब असल ज़िन्दगी में पहचान की चोरियां होने लगें तो क्या हो. दक्षिण भारत की दो प्रमुख वारदातों में आइडेंटिटी थेफ़्ट के चौकाने वाले 2 अलग और दिलचस्प मामले सामने आये हैं.

तमिलनाडु की एक महिला पार्वती पहचान चुराकार 23 साल तक नौकरी करती रही और किसी को भनक भी नहीं लगी. दरअसल पार्वती ने अपने ही नाम वाली दूसरी महिला का फायदा उठाते हुए बड़े शातिर अंदाज में पिता का नाम, जन्म तिथि और शैक्षणिक योग्यताओं जैसी रेकॉर्ड में हेरफेर कर नगरपालिका में उसकी नौकरी हड़प ली. 23 साल तक वह किसी और की पहचान चुराकर आराम से वेतन उठाती रही.

7 अप्रैल को मद्रास उच्च न्यायालय ने पार्वती की नौकरी खत्म करने का आदेश दिया. साथ ही पार्वती के खिलाफ कार्रवाई करने में विफल होने के लिए विभाग के संबंधित अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई की भी अनुशंसा की. दरअसल 1990 में पोल्लाची नगरपालिका के एंप्लॉयमेंट एक्सचेंज रेकॉर्ड में असली पार्वती चयन हुआ लेकिन जब वह नौकरी के लिए गयी तो पता चला कि किसी और पार्वती को जॉब मिल गयी है. असली पार्वती ने इस बाबत सम्बंधित विभाग में आपत्ति दर्ज की लेकिन उसकी नहीं सुनी गयी. बाद में असली पार्वती ने उच्च न्यायालय में इस बारे में याचिका दायर की. अब 23 साल बाद पहचान चोरी के मामले कें न्याय देते हुए अदालत ने धोखाधड़ी द्वारा नौकरी कब्जाने के लिए फर्जी पार्वती पर 10,000 का जुर्माना लगाया है. हालाँकि इतने सालों बाद मिला न्याय पार्वती की पहचान वापस तो ला सकता है लेकिन उसके करियर को दोबारा स्थापित नहीं कर सकता.

इस से उलट बेंगलुरु में आइडेंटिटी की चोरी के एक मामले में 4 अप्रैल को दो बहनों ने अपनी हमशक्ली का फायदा उठाते हुए एसएसएलसी बोर्ड परीक्षा में फर्जीवाड़ा करने की कोशिश की. हुआ यों कि बिल्कुल अपनी बहन अनुसुइया जैसी दिखने वाली उसकी 35 साल की जुड़वा बासवालिंगम्मा एसएसएलसी के गणित के पेपर को हल कर रही थी. जबकि वह पहले ही एसएसएलसी बोर्ड परीक्षा क्लियर कर चुकी थी. चूंकि दोनों हमशक्ल थी इसलिए एक बहन ने दूसरी बहन  को पास करने के लिए पहचान चोरी कर सबको धोखे में रखा और एग्जाम हाल पहुँच गयी. आइडेंटिटी थेफ़्ट का यह मामल तब पकड़ में आया जब पड़ोसी ने फोन पर उनका भांडा फोड़ा. ऐडमिशन टिकट पर मौजूद फोटो से लड़की के चेहरे मैच किया गया लेकिन फर्क करना मुश्किल था.

आइडेंटिटी थेफ़्ट के दोनों मामलों का मिजाज अलग हैं लेकिन दोनों की मामलों सरीखे न जाने कितने फर्जीवाड़े पहचान चोरी कर अंजाम दिए जाते हैं, और कई बार असलीनकली के इस खेल में नकली बाजी मार ले जाता है.

बड़ी उम्र में विवाह जरूरी या मजबूरी

तथाकथित सभ्य समाज में भी विवाह जैसे बेहद निजी मामले में लोगों की राय बिन बुलाए मेहमान की तरह तुरंत आ टपकती है. उस पर भी बात यदि बड़ी आयु में हो रहे विवाह की हो तो सभी की नजरें उस व्यक्तिविशेष पर यों उठ जाती हैं जैसे उस ने इस उम्र में शादी कर के कोई बड़ा गुनाह कर दिया हो. अपराधी न होते हुए भी उसे लोगों की घूरती निगाहों और व्यंग्य बाणों का सामना करना पड़ता है.

समाज में इस तरह के विवाह को रंगीलेपन की श्रेणी में ही रखा जाता है. उस व्यक्ति के चरित्र पर हर तरफ से उंगलियां उठने लगती हैं. सभी ऐसा जताते हैं जैसे बड़ी उम्र में उस के विवाह कर लेने से विवाह की पवित्रता के भंग हो जाने का पूरापूरा खतरा है. बड़ी उम्र में हुए इस विवाह के कारण लोगों का विवाह के इस बंधन से भरोसा ही उठ जाएगा. क्या बड़ी उम्र में की गई यह शादी टिक पाएगी या इस उम्र में शादी कर के उन्हें क्या हासिल होगा जैसे प्रश्नों की झड़ी सी लग जाती है, जिन के उत्तर में व्यक्ति घबरा जाता है. समाज के ठेकेदार कहे जाने वालों की यह सोच उन की संकीर्ण मानसिकता को दर्शाती है. उन के हिसाब से उम्र के इस आखिरी पड़ाव को बिताने का रामभजन ही सर्वोत्तम तरीका है. क्या जरूरत है कि शादी की ही जाए?

क्या है वास्तविकता

मगर वास्तविकता कुछ और है. जीवन की अनुभवजनित सचाई यही कहती है कि बढ़ती उम्र के इस दौर में इनसान का अकेलापन भी बढ़ता जाता है. विशेषकर उन हालात में जब कोई बुजुर्ग अपने जीवनसाथी को खो चुका हो या उस से अलग हो चुका हो. कुछ शारीरिक थकान और कुछ मानसिक तौर पर असुरक्षा का भाव इनसान को अंदर ही अंदर भयभीत कर देता है. उम्र के इस पड़ाव पर व्यक्ति को एक साथी की जरूरत होती है, जो उसे मानसिक व भावनात्मक संबल दे सके, उस के दुखदर्द या मनोदशा को समझ सके और यह काम एक जीवनसाथी ही कर सकता है.

यह वह समय होता है जब बुजुर्गों के पास अनुभवों का भंडार होता है और सुनने वाले सिर्फ गिनती के. अत: एक बार युवावस्था तो अकेले बिताई जा सकती है, परंतु बड़ी उम्र के इस दौर में व्यक्ति को एक अदद साथी की जरूरत होती ही है, जो न सिर्फ न्यायसंगत है, बल्कि सुरक्षित भी. तो क्या गलत है अगर कोई बुजुर्ग अकेले होने पर किसी का दामन थाम उस के साथ जिंदगी बिताना चाहे. क्या बड़ी उम्र में वह अपनी खुशी के लिए अपनी जिंदगी के फैसले नहीं कर सकता?

जैसेतैसे क्यों जीना

वृद्धावस्था उम्र का वह दौर होता है जब व्यक्ति अपने सभी कर्तव्यों से निवृत्त हो चुका होता है. जैसे बच्चों को पढ़ालिखा, योग्य बना कर उन की शादीब्याह कर चुका होता है. बच्चे भी शादीब्याह कर अपनीअपनी जिंदगी में व्यस्त हो जाते हैं. उन की प्राथमिकताएं भी बदल जाती हैं. वे चाह कर भी अपने बुजुर्गों के साथ अधिक समय नहीं बिता पाते. तो ऐसे में क्या उन को अपनी बढ़ती उम्र के चलते जिंदगी को बोझ समझ कर जैसेतैसे जीते रहना चाहिए, या उन्हें जिंदगी के एक नए दौर की शुरुआत करनी चाहिए? इस उम्र में शादी करने का फैसला एक अहम फैसला होता है, जिस का तहेदिल से स्वागत होना चाहिए.

यहां पर फिल्म इंडस्ट्री के जानेमाने कलाकार और फिल्म मेकर करीब बेदी द्वारा 70 साल की उम्र में 42 साल की परवीन दुसांज से की गई शादी इस का बेहतरीन उदाहरण है. यह कबीर बेदी की चौथी शादी है. उन की पिछली तीनों शादियां क्यों सफल नहीं हो पाईं या उन के टूटने के क्या कारण थे, उन का नितांत व्यक्तिगत मसला है. उन रिश्तों की हकीकत कुछ भी हो, उन पर सवाल उठाना बेमानी होगा, उन के निजी मामलों में दखल होगा. लोगों द्वारा ये कयास जरूर लगाए जा रहे होंगे कि क्या यह शादी सफल होगी या फिर पिछली तीनों शादियों की तरह यह भी बिखर जाएगी?

इस बारे में रोचिका अपनी बेबाक राय देते हुए कहती हैं कि कबीर बेदी की 3 शादियां नहीं टिकीं तो चौथी शादी के टिकने में भी बड़ा संशय है. आकांक्षा का भी यही कहना है कि क्या गारंटी है कि कबीर की चौथी शादी टिकेगी ही? ऐसे में यहां एक प्रश्न उठाना चाहूंगी कि माना कि करीब बेदी की चौथी शादी के टिकने की संभावना बहुत कम है, पर जिन नवविवाहित जोड़ों की शादी महीने भर में ही तलाक के कगार पर आ खड़ी होती है. क्या उन की शादी के टिकने की गारंटी आप ले सकते हैं? यदि नहीं तो बड़ी उम्र की शादी पर इतना बवाल क्यों? किशोर कुमार की 4 शादियों के बाद भी उन की लोकप्रियता में कहीं कोई कमी नहीं हुई. आज भी उन को एक महान गायक और कलाकार के रूप में जाना जाता है.

राय जुदाजुदा

समझ व अनुभव में काफी बड़ी सुधा का कहना है कि अगर किशोर कुमार 4 विवाह कर के भी लोगों में लोकप्रिय हैं, तो इसलिए कि आम जनता उन के कार्यक्षेत्र से प्रभावित है, उन की पर्सनल लाइफ से उसे कुछ लेनादेना नहीं है. लोग किशोर कुमार की आवाज के दीवाने हैं. तो यहां पर सुधा ने अनजाने में खुद ही मेरी बात का समर्थन कर दिया, जिसे मैं पहले ही उदाहरणस्वरूप पेश कर चुकी थी. हां, सुधा  की इस बात से अवश्य सहमत हुआ जा सकता कि है शादी के नाम पर इस संस्था का दुरुपयोग नहीं किया जाना चाहिए. फिल्म जगत में किया जाने वाला कोई भी कार्य हमारे समाज खासकर युवाओं पर गहरा असर डालने वाला होता है. फिल्म इंडस्ट्री के कलाकारों- दिलीप कुमार व अमिताभ बच्चन के आर्दश जीवन का नमूना भी पेश है.

पूनम अहमद इस बात से पूरा इत्तफाक रखते हुए कहती हैं कि हर किसी के हालात अलग होते हैं. यह जरूरी नहीं है कि अगर कुछ लोगों की शादी एक आर्दश बनी हो तो सभी उसी नक्शेकदम पर चल पाएं. पूनम ने एक और तर्क दिया कि वे दोनों जब तक लिव इन में रहे कोई नहीं बोला, लेकिन जैसे ही रिश्ते को नाम दिया तो हंगामा क्यों बरपा? यहां यह बात माने नहीं रखती कि किस कारण से व्यक्तिविशेष की शादी टूटी है, बल्कि बात यहां प्रौढ़ावस्था में अपनेपन व सहारे की जरूरत की है, जिसे चाहना हर व्यक्ति का मौलिक अधिकार भी है क्योंकि इस उम्र में इनसान के लिए सिर्फ भावनाओं की अहमियत होती है न कि दैहिक सुख की. बड़ी आयु की शादी की सार्थकता और प्राथमिकता इसी में समाई है.

बढ़ती उम्र में भी व्यक्ति अपने जीवन से प्यार करे और उसे जिंदादिली से जीए. एकदूसरे का सच्चा साथी, हमदर्द बन कर एकदूसरे का सहारा बने. इस से अधिक खुशी की बात और क्या हो सकती है और धीरेधीरे ही सही समाज भी बदलाव को स्वीकार अवश्य करेगा.

वीर सिंह जूदेव महल: स्थापत्य कला की कलाकृति

मध्य प्रदेश का सब से छोटा जनपद है दतिया. यह झांसीग्वालियर राष्ट्रीय मार्ग पर झांसी से 28 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है. दतिया में एक सातमंजिला महल है जिसे ‘पुराना महल’ के नाम से जाना जाता है. इस महल को ओरछा के विख्यात बुंदेला राजा वीर सिंह जू देव बुंदेला ने आज से लगभग 4सौ वर्ष पूर्व बनवाया था. इस महल के दरवाजों पर न  तो पट हैं, न पानी व प्रकाश  की कोई व्यवस्था. कहते हैं, निर्माण के बाद इस में राजपरिवार का या अन्य कोई भी व्यक्ति नहीं रह सका. पुराने महल के संबंध में आज भी अनेक किंवदंतियां प्रचलित हैं. एक किंवदंती के अनुसार, इस महल में भूमि के नीचे 7 मंजिलें हैं. पूरा महल 9 खंडों का है. 7 खंड भूमि के ऊपर और 2 खंड भूमि के नीचे हैं.

महल के भूतल से नीचे की मंजिलों में जाने के लिए सीढि़यां बनी हैं. किंतु नीचे जाने का रास्ता अब बंद कर दिया गया है. जब खुला था, तब भी किसी ने नीचे जाने का साहस नहीं किया. वीर सिंह विख्यात बुंदेला नरेश मधुकर शाह के चौथे पुत्र थे. 1592 में मधुकर शाह की मृत्यु के बाद उन के सब से बडे़ बेटे रामशाह ने मुगलों से संधि कर ओरछा राजगद्दी प्राप्त की थी और वीर सिंह ने दतिया के निकट बड़ौनी की छोटी सी जागीर. वीर सिंह बड़ा महत्त्वाकांक्षी था. वह बड़ौनी की छोटी सी जागीर से संतुष्ट नहीं था. उस ने सेना एकत्र की और अपनी बहादुरी और चतुराई से एक बड़े साम्राज्य का स्वामी बन बैठा. मुगल सम्राट ने उसे परास्त करने के अनेक प्रयास किए, किंतु हमेशा असफल रहे. महाराजा वीर सिंह अकबर का शत्रु था, किंतु उस के बेटे सलीम का अच्छा मित्र था. अकबर और सलीम के मतभेद बढ़ने के साथ ही महाराजा वीर सिंह और सलीम की मित्रता भी बढ़ी.

सलीम बादशाह अकबर के सेनापति अबुलफजल का कट्टर विरोधी था तथा उस की हत्या करा देना चाहता था. यह कार्य महाराजा वीर सिंह ने किया. अबुलफजल दक्षिण के विजय अभियान के बाद अपनी विशाल सेना के साथ लौट रहा था. उस ने रास्ते में नरवर के पास पड़ाव डाला. वीर सिंह ने अबुलफजल पर आक्रमण कर दिया. अबुलफजल की हत्या कर उस का सिर शहजादे सलीम के पास भेज दिया. इस से सलीम और वीर सिंह के संबंध और भी प्रगाढ़ हो गए. अबुलफजल की हत्या से अकबर बौखला उठा. उस ने वीर सिंह को परास्त करने के लिए एक विशाल सेना भेजी. सेना ने वीर सिंह को बुरी तरह हराया. किंतु वीर सिंह ने साहस नहीं छोड़ा व कुछ ही समय में उन सभी स्थानों पर पुन: कब्जा कर लिया.

इसी बीच शहजादा सलीम दतिया आया. उस ने वीर सिंह से भेंट की. 1605 में अकबर की मृत्यु के पश्चात सलीम जहांगीर के नाम से दिल्ली का बादशाह बना तो उस ने वीर सिंह से मित्रता निभाई और मुगल दरबार में उसे तीन हजारी मनसब प्रदान किया. वीर सिंह जू देव महल का निर्माण महाराजा वीर सिंह तथा शहजादे सलीम की मित्रता की एक यादगार के रूप में किया गया. यही कारण था कि इस महल के निर्माण के लिए दतिया के पश्चिमी भाग के उसी टीले को चुना गया, जहां कभी दोनों मित्र एकदूसरे से बुंदेलखंड की धरती पर पहली बार मिले थे. इस महल के निर्माण के बाद दतिया में अनेक इमारतों का निर्माण हुआ. अत: आगे चल कर यह पुराने महल के नाम से प्रसिद्ध हुआ. दतिया का पुराना महल मध्यकाल की स्थापत्य कला का उत्कृष्ट नमूना है. यह बुंदेलखंड मध्य प्रदेश का ही नहीं बल्कि पूरे भारत का गौरव है. एक इतिहासकार ने तो इसे मध्यकाल की सर्वोत्तम इमारत कहा है.

इस के निर्माण में लगभग 9 वर्ष का समय लगा तथा 33 लाख रुपए खर्च किए गए. इस महल का एक भाग अपूर्ण है, जिस से महसूस होता है कि महाराजा वीर सिंह ने इस का निर्माण अपने अंतिम समय में कराया था. फलत: उन की मृत्यु के बाद यह महल पूरा नहीं हो सका. इस महल का निर्माण आसपास के पत्थरों और चूने से कराया गया था. यह एक आश्चर्य का विषय है कि इस महल में कहीं भी लकड़ी या लोहे का प्रयोग नहीं किया गया है. स्वस्तिक के आकार के इस सतखंडे महल में प्रत्येक खंड पर 4 चौक हैं तथा बीच में एक मंडप. महल की सभी छतों पर चित्रकला तथा पत्थर पर उकेरी गई कलाकृतियां मनमोहक हैं. महल का पूर्वी भाग सर्वाधिक भव्य तथा आकर्षक है. महल का प्रवेशद्वार भी इसी भाग में स्थित है. महल का पश्चिमी भाग महल का पिछला भाग कहा जा सकता है. इस भाग में लगी पत्थर की जालियों की नक्काशी अत्यंत आकर्षक है.

इस महल की एक विशेषता यह है कि यह चारों तरफ से एकजैसा है. इस में एक मंजिल से दूसरी मंजिल पर जाने के लिए अनेक रास्ते हैं. अत: पर्यटक अकसर यहां रास्ता भटक जाते हैं. वर्तमान में वीर सिंह जू देव महल को पुरातत्त्व विभाग का संरक्षण प्राप्त है. इस विभाग द्वारा इस के कुछ स्थानों की मरम्मत भी कराई गई है. 1925 में ऊपरी मंजिल का एक भाग बिजली गिरने से क्षतिग्रस्त हो गया था जिसे ठीक करा दिया गया है परंतु पत्थर को तराश कर लगाए गए शहतीरों में वह सफाई नहीं आ पाई है जो मूल शहतीरों में थी. महल की वास्तविकता जो भी हो, किंतु यह सत्य है कि यह महल मध्यकाल की स्थापत्य कला का अद्भुत नमूना है. इसे भारत की श्रेष्ठ इमारतों में गिना जाता है.

काटन कैंडी सब को लुभाए

तमाम मेलों से ले कर मौल्स तक में बुढि़या के बाल यानी काटन कैंडी का स्वाद सभी को लुभाता है. छोटे बच्चे तो इस के खास दीवाने होते ही हैं, पर बड़े लोग भी इस का स्वाद लेने में पीछे नहीं रहते हैं. लोग 10 रुपए से ले कर 30 रुपए तक की अलगअलग आकार वाली काटन कैंडी खरीदते हैं. मेलों और मौल्स में काटन कैंडी की मशीन लगा कर इसे बनाया जाता है. घरों में मशीन लगा कर काटन कैंडी की छोटीछोटी चिडि़या बनाई जाती हैं. इन को गांवगांव गलीगली बांस के डंडों में टांग कर बेचा जाता है. यह चीनी से बनती है, इसलिए कुछ जगहों पर इसे चीनी की चिडि़या भी कहा जाता है. आमतौर पर बच्चे छोटीछोटी चिडि़या के आकार वाली काटन कैंडी को खूब पसंद करते हैं. काटन कैंडी रुई जैसी होती है. इसे रंगबिरंगी बनाने के लिए खाने वाले अलगअलग रंगों का इस्तेमाल किया जाता है. ज्यादातर लोग पिंक कलर की काटन कैंडी पसंद करते हैं, लिहाजा पिंक कलर की काटन कैंडी ज्यादा बनती है. रुई जैसी मुलायम होने के कारण ही इसे काटन कैंडी कहा जाता है. बच्चे इसे बुढि़या के बाल के नाम से जानतेपहचानते हैं.

काटन कैंडी मशीन

काटन कैंडी बनाने में सब से जरूरी काटन कैंडी मशीन होती है. यह बिजली से चलती है. इस के चारों तरफ लोहे की चादर लगी होती है. मशीन के बीच में ग्राइंडर लगा होता है. इस के चारों ओर बहुत ही छोटेछोटे छेदों वाली स्टील की चादर लगी होती है. ग्राइंडर के बीच में जब खाने के रंग मिली चीनी डाली जाती है, तो ग्राइंडर में चीनी आटे जैसी महीन पिस जाती है. यह खास किस्म का ग्राइंडर होता है, जो तेजी से गरम हो जाता है. ग्राइंडर के गरम होने से चीनी पिघल जाती है. पिघलने के बाद चीनी छोटेछोटे छेदों से हो कर रुई के आकार में बाहर निकलने लगती है. मशीन में चीनी डालने वाला कारीगर लकड़ी के एक टुकडे़ में इस रुई जैसी चीनी को फंसा कर कैंडी जैसा आकार देता है.

2 किलोग्राम चीनी से बड़े आकार की (20 रुपए प्रति कैंडी की दर से बिकने वाली) 10 कैंडी बन जाती हैं. गांवों में बेचने के लिए छोटे आकार की काटन कैंडी बनाई जाती हैं. इन को लुभावना बनाने के लिए हाथ से चिडि़या या फूल का आकार दिया जाता है. अच्छे किस्म की काटन कैंडी बनाने के लिए 80 रुपए में कैंडी शुगर का 1 पैकेट आता है. इस में अलग से रंग नहीं मिलाना पड़ता है. साधारण चीनी के मुकाबले इस से बनी काटन कैंडी सेहत के लिए ज्यादा मुफीद होती है. यह साधारण चीनी के मुकाबले ज्यादा मुलायम और स्वाद वाली होती है. इस में डाला गया रंग भी अच्छी किस्म का होता है.

बढ़ रहा आकर्षण

मेला छोटा हो या बड़ा, बिना काटन कैंडी के वह पूरा नहीं होता है. मेले ही नहीं अब तो मौल्स में भी काटन कैंडी की तमाम दुकानें लगने लगी हैं. शादी जैसे तमाम मौकों पर भी काटन कैंडी बेचने वाले को बुलाया जाता है. बच्चे ही नहीं बड़े भी अब इसे खाने से खुद को रोक नहीं पाते हैं. अगलअलग आकार की होने के कारण काटन कैंडी बच्चों को खूब लुभाती है. मेलों में बच्चे इसे बुढि़या के बाल और चीनी की चिडि़या के नाम से जानते थे. मौल्स में आ कर यह काटन कैंडी के नाम से मशहूर हो गई है. कम लागत में काटन कैंडी बनाने के रोजगार को चलाया जा सकता है. इसे बनाने के लिए बहुत कारीगरी सीखने की जरूरत भी नहीं होती है. बच्चों को पसंद होने के कारण इसे बेचना आसान होता है. बहुत गरमी और बरसात में इस का धंधा कम हो जाता है. जाड़ों की कुनकुनी धूप में बच्चों को काटन कैंडी खूब पसंद आती है. इसे बेचने का धंधा अच्छा है. गांवों और आसपास के बाजारों में इसे खूब खरीदाबेचा जाता है. ज्यादा फायदे के चक्कर में कुछ लोग खराब किस्म के रंग इस्तेमाल करते हैं. इस से बच्चों का स्वास्थ्य खराब हो सकता है. बुढि़या के बाल पसंद करने वाली स्वाति अवस्थी कहती हैं, ‘अब शादी की पार्टी में भी काटन कैंडी रखी जाने लगी है. यह बच्चों को अपनी ओर आकर्षित करती है. अब महिलाएं भी इसे पसंद करने लगी हैं. यह एक तरह की मजेदार मिठाई हो गई है. बड़ेबड़े शहरों के मौल्स में यह धड़ल्ले से बिकने लगी है.’

देश को खा रहा पान मसाला

दिल्ली सरकार ने उन अभिनेताओं की पत्नियों को पत्र लिखे हैं जो पान मसाले का प्रचार करते हैं. इन में शाहरुख खान, अजय देवगन, अरबाज खान, गोविंदा, सैफ अली खान आदि शामिल हैं. इन सितारों के विज्ञापन टैलीविजन पर इस शान से पान मसाले के गुणगान करते नजर आते हैं मानो इसे खाने वाले दुनिया फतह कर सकते हैं. इन विज्ञापनों पर बहुत मोटा पैसा खर्च होता है और इन की प्रोडक्शन क्वालिटी बहुत ही अच्छी होती है, क्योंकि हर तरह के दुर्गुण से भरे पान मसाले को बेचने योग्य बनाना आसान नहीं है. तरकीब यह है कि पात्र को सफल, अति सफल या सफलतम दिखाओ और कह दो कि वह तो पान मसाला भी खाता है. अरबों रुपयों के नशीले पान मसालों के विज्ञापन पत्रपत्रिकाओं, बोर्डों, सिनेमा स्क्रीनों, दुकानों पर भरे पड़े हैं, क्योंकि विज्ञापनों से मोटा पैसा मिलता है कुछ को छोड़ कर (जिन में दिल्ली प्रैस शामिल है) बाकी सब इस सिन इनकम को छोड़ने को तैयार नहीं हैं. सितारे भी क्यों छोड़ें और उन की पत्नियों से भी कोई उम्मीद करना बेकार है, क्योंकि आते पैसे को कोई मना नहीं करता.

वैसे भी औरतें समाज की कुछ ज्यादा ही हितकारी होती हैं, यह भी भ्रांति है. समाज में फैले भेदभाव, अंधविश्वास, डोमैस्टिक वायलैंस, दहेज, कन्या भू्रण हत्या के लिए तो औरतें जिम्मेदार हैं ही, अब तो नशे की वकालत करती भी नजर आ रही हैं. शराब कंपनियों ने लगता है शूटिंग सैटों पर ट्रक भरभर कर शराब भेजनी शुरू कर दी है कि हर दूसरी फिल्म में औरतें खुल कर शराब पीती नजर आती हैं. इन में न केवल अविवाहित युवा औरतें हैं, बल्कि कहानी में बच्चों की मांएं भी शामिल होने लगी हैं. सिनेमा को नशे से कोई एतराज नहीं है. ऐसी हालत में दिल्ली सरकार ने स्टार पत्नियों को पत्र लिख कर सरकारी कागज और डाक खर्च बेकार ही किया है. अब पहले की तरह औरतों का नशा करना छिनालपन की निशानी नहीं रहा है, बल्कि नशा न करना अब दकियानूसी और बेवकूफीपन की निशानी है.

यह सच है कि आज प्रदूषण से इतनी मौतें शायद नहीं हो रही हैं जितनी स्वयं अपनाए गए नशे से हो रही हैं. इस में रिसीविंग ऐंड पर औरतें ही होती हैं, क्योंकि बीमारी चाहे पति की हो या खुद औरत की, काम का बोझ औरत का ही बढ़ता है. दिल्ली सरकार ने अच्छा काम किया पर अफसोस यह है कि अच्छे काम करने वाले को यहां सिरफिरा कहा जाता है, क्योंकि लकीर के फकीर नेताओं, संतों, महंतों, पूजापाठियों, दान पर मौज उड़ाने वालों की ही चलती है.

वजन घटाने से ज्यादा मुश्किल उसे मैंटेन करना: परिणीति

फिल्म ‘लेडीज वर्सेज रिकी बहल’ से फिल्म इंडस्ट्री में कदम रखने वाली परिणीति चोपड़ा ने हर फिल्म में अलगअलग भूमिका निभाई. उन की कुछ फिल्में चलीं तो कुछ नहीं, लेकिन उन्होंने अपना आत्मविश्वास हमेशा बनाए रखा. पहली फिल्म की सफलता के बाद परिणीति ने कई हिट फिल्में दीं, जिन में ‘इश्कजादे’, ‘शुद्ध देसी रोमांस’, ‘हंसी तो फंसी’ फिल्में शामिल हैं. परिणीति ने कई ब्रैंड भी ऐंडोर्स किए हैं. हाल ही में ‘न्यू व्हिस्पर अल्ट्रा’ के प्रमोशन पर वे अलग अंदाज में दिखीं. उन का ‘स्लिमट्रिम लुक’ सभी को हैरान कर गया.

इस मौके पर उन से हुई गुफ्तगू के कुछ अहम अंश इस तरह हैं:

क्या आप अल्ट्रागर्ल हैं.

मैं वाकई अल्ट्रागर्ल हूं. मल्टीटास्क करती हूं. सुपर टेलैंटेड भी हूं. यह ब्रैंड ऐंडोर्समैंट मुझ पर अब फिट बैठता है, क्योंकि हर लड़की महीने में 30 दिन काम करती है. वैसे में महीने के उन 5 दिनों (मासिकधर्म) में परेशान रहती हूं. इस कैंपेन से जुड़ कर मैं बताना चाहती हूं कि मासिकधर्म नैचुरल है. यह कोई समस्या नहीं, पर सोसायटी प्रैशर डालती है कि इस समय यह न करो, वह न करो. मैं तो उन 5 दिनों में शूटिंग भी करती हूं. कई टैबूज इस के साथ जुड़े हैं, जिन्हें मैं हटाना चाहती हूं. बचपन में जब कई बार मेरी दादी मुझे कुछ करने से मना करती थीं, तो मैं गुस्सा हो जाती थी. मैं चाहती हूं कि हर कोई इस बारे में खुल कर बात करे. भाई, पति, पिता आदि किसी के भी साथ बात करने में किसी भी लड़की को कोई संकोच नहीं होना चाहिए. अच्छे ब्रैंड का सैनिटरी पैड प्रयोग करने से कोई परेशानी नहीं होती है.

स्लिमट्रिम होने की प्रेरणा किस से मिली.इस के लिए क्याक्या वर्कआउट करती हैं.

इस के लिए किसी प्रेरणा की जरूरत नहीं. ऐक्ट्रैस बनने से पहले ही वजन कम करना चाहती थी, पर आलसी होने की वजह से कुछ करती नहीं थी. हमेशा लगता था कि जरूरत नहीं, छोड़ो. फिर काम में लग जाती. इस तरह समय बीतता गया.अब जब थोड़ा समय मिला तो लगा कि मैं अब कुछ कर सकती हूं. मैं ने किया और परिणाम सामने है. अब मैं बहुत खुश हूं. अपने हिसाब से कुछ भी पहन सकती हूं. स्क्रीन पर जैसा दिखना चाहूं दिख सकती हूं. बहुत सारी चीजें अब मैं कर सकती हूं. स् लिमट्रिम होने में मुझे करीब 1 साल लगा. मैं मार्शल आर्ट करती हूं, डाइट का खयाल रखती हूं, गहरी नींद सोती हूं, कलरीपायतू करती हूं.

वजन कम होने के बाद उसे मैंटेन रखने के लिए क्या करती हैं.

वजन मैंटेन करना, वजन कम करने से ज्यादा मुश्किल है. मैं नियमित व्यायाम करती हूं, संतुलित भोजन लेती हूं. मुझे खाने का शौक हमेशा रहा है. मैं आधी रात को भी उठ कर पिज्जा खाती थी, पर अब ऐसा नहीं करती. मेरा कोई जिम ट्रेनर नहीं है. एक लड़की थी जो कलरीपायतू करवाती थी. मैं उस की क्लासेज लेती थी.

फिटनैस के लिए महिलाओं को क्या संदेश देना चाहती हैं

आजकल ज्यादातर महिलाएं कम उम्र में ही ओवरवेट हो जाती हैं. अत: मेरा उन से कहना है कि हमेशा फिटनैस के लिए अपनेआप को मोटिवेट करें. यही वह समय है जब आप फिटनैस पर ध्यान दे सकती हैं, क्योंकि एक उम्र के बाद हारमोनल बदलाव या अन्य वजहों से वजन बढ़ता है, तो उसे घटाना काफी मुश्किल होता है. हमेशा आत्मविश्वास बनाए रखें, खुश रहने की कोशिश करें.

आप के जीवन का बैस्ट कौंप्लिमैंट क्या है

वैसे तो कई हैं, पर जब पहली फिल्म की रिलीज के बाद करण जौहर ने मैसेज कर मेरे अभिनय की तारीफ की थी, तो वह मेरे लिए बहुत बड़ा कौंप्लिमैंट था.

खुश रहने का मंत्र क्या है

खुश रहना बहुत जरूरी है. उदासी तो लाइफ में आती ही रहती है. हमेशा वह काम करें जिसे करने पर आप को खुशी मिले. उन लोगों से मिलें, बातचीत करें, जो आप को खुशी दें.

शहर और गांव के बीच पनपता नया किसान

शहरीकरण का असर गांवों और शहरों दोनों पर पड़ रहा है. खेती की जमीन धीरेधीरे खत्म होती जा रही है. शहरों के करीब ऐसी कालोनियां तेजी से बढ़ रही हैं, जिन को न गांवों में गिना जा सकता है और न शहरों में. शहरों का गंदा पानी यहां जमा होता है, जिस से कई तरह की बीमारियां शहरों तक पहुंचने लगती हैं. शहरों और गांवों के बीच बनी इस तरह की कालोनियों की समस्या खेती की जमीन भी है. तमाम किसानों की जमीनों पर कालोनियां बन गईं, इस के बाद भी इन जगहों पर खेती के लिए कुछ न कुछ खाली जमीन भी पड़ी मिलती है. जरूरत इस बात की आ गई है कि इस जमीन पर खेती को बढ़ावा दिया जाए, जिस से शहरों और गांवों के बीच बसी कालोनियों में खाली पड़ी जमीनों का सही इस्तेमाल किया जा सके.

दक्षिण भारत के बेंगलूरू और चेन्नई जैसे शहरों के आसपास इस तरह के प्रयोग हो रहे हैं. ऐसी जमीनों पर किसान अब रोजगार करने लगे हैं. इस तरह के किसान फूल, फल और सब्जी की खेती कर के शहरों में बेच रहे हैं. इस से इन कालोनियों में जलभराव की परेशानी दूर हो गई और यहां रहने वाले किसानों को रोजगार भी मिलने लगा. उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले में इस तरह का प्रयोग शुरू किया गया. इस से गोरखपुर शहर के पास जलभराव की परेशानी दूर हो गई. यहां के किसानों ने अपना समूह बना कर खेती से होने वाली पैदावार मंडी में बेचनी शुरू कर दी है. इस से किसानों को मंडी से ज्यादा पैसा मिलने लगा है.

गांवों को शहर बनाना होगा

गोरखपुर एनवायरमेंटल एक्शन ग्रुप, राष्ट्रीय नगर कार्य संस्थान, भारत सरकार और रूफा संस्थान, नीदरलैंड ने आपस में मिल कर पेरी अरबन एग्रीकल्चर एंड इकोसिस्टम विषय पर एक 2 दिन की कार्यशाला का आयोजन किया. मुख्य मेहमान के रूप में मशहूर कृषि वैज्ञानिक प्रो. एमएस स्वामीनाथन ने कहा कि स्पेशल एग्रीकल्चर जोन की तरह ही पेरी अरबन एग्रीकल्चर को योजनाबद्ध तरीके से बढ़ाने की जरूरत है.  आने वाले समय में गांवों से शहरों की तरफ रोजगार के लिए आने वाले लोगों के लिए यह सुविधाजनक रहेगा कि पेरी अरबन एरिया को साफसुथरा बनाया जाए, जिस से उन को अच्छी सुविधाएं दी जा सकेंगी. पेरी अरबन एरिया के बनने से बाढ़ और पानी के जमाव की परेशानी से निबटा जा सकेगा. शहरों के पास पड़ी जमीन का खेती के लिए इस्तेमाल कर के रोजगार को बढ़ाया जा सकता है. केरल सहित दक्षिण भारत के कुछ राज्यों में पेरी अरबन एरिया में कृषि को ले कर बहुत काम हुआ है.

बढ़ेगा रोजगार

कृषि एवं उद्यान आयुक्त डा. एसके मल्होत्रा ने कहा कि खेती के मामले में भारत ने बहुत तरक्की की है. पिछले साल सब से ज्यादा पैदावार की गई. इस के बाद भी दाल, तेल और सब्जी के दामों में तेजी आई, जिस का कारण जनसंख्या का बढ़ना है. गांवों से शहरों की तरफ आने वाले लोगों की तादात बढ़ती जा रही है. 2020 तक यह संख्या 60 फीसदी होने की आशा है.भारत सरकार ने इन चुनौतियों को समझते हुए कृषि पैदावार के साथसाथ खाने में फायदेमंद तत्त्वों को बढ़ाने के लिए कई योजनाएं शुरू की हैं. पेरी अरबन एरिया का भी इस्तेमाल करने की नीति तैयार की गई है. पेरी अरबन एरिया में कृषि को बढ़ावा देने  के लिए 500 वर्ग फुट से ले कर 5 हजार वर्ग फुट से अधिक के पौलीहाउस बना कर खेती की जा सकती है.

समस्या बनता शहरी प्रदूषण

अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरणविद एवं गोरखपुर एनवायमेंटल एक्शन ग्रुप के अध्यक्ष डा. शीराज वजीह ने कहा कि संसार में शहरीकरण तेजी से बढ़ रहा है. जहां 20वीं शताब्दी के शुरू में विश्व के शहरी इलाकों में आबादी 15 फीसदी थी, वहीं 2007 में विश्व की शहरी आबादी ग्रामीण क्षेत्रों से भी ज्यादा हो गई. अनुमान है कि 2050 तक विश्व की तीनचौथाई जनसंख्या शहरी इलाकों में होगी. शहरी इलाका खेती के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है और एक अनुमान के अनुसार विश्व की तकरीबन 80 करोड़ आबादी ऐसी खेती के साथ जुड़ी हुई है.

ऐसी खेती में सब्जी, फल, पशुपालन, वन जैसे काम प्रमुख हैं. तेजी से बढ़ते शहर ऐसे कुदरती साधनों के सामने चुनौती बन रहे हैं और वर्तमान में मौजूद खेती की जमीन व हरित क्षेत्र घट रहे हैं, जो शहर के श्वसन तंत्र की भूमिका के साथ ही खाद्य उत्पादन व आजीविका उपलब्ध कराने में भी सहायक होते हैं. डा. शीराज वजीह ने कहा कि बिना योजना वाले शहरी इलाकों में तरक्की के कारण गोरखपुर जैसे महानगरों में बाढ़ व उपनगरीय क्षेत्र में जल भराव क्षेत्र बढ़ा है. उपनगरीय क्षेत्र का तकरीबन 25 फीसदी भाग हर साल बाढ़ व पानी से भरा रहता है, जिस में एक ही फसल का उत्पादन होता है.

खेती में लागत मूल्य ज्यादा और पैदावार कम होने के कारण खेती नुकसानदायक व्यवसाय हो गया है. महानगरीय नालों के बहाव के कारण भूमि प्रदूषित हुई है और मिट्टी की उर्वरकता कम हुई है. साथ ही साथ जमीनी पानी की गंदगी के कारण साफ पीने वाले पानी की कमी हुई है.पेरी अरबन क्षेत्रों में कृषिगत कार्यप्रणाली द्वारा खेती के प्रति किसानों का रुझान पैदा कर उन की खेती लायक जमीन को बनाए रखा जा सकता है, जिस से बढ़ते हुए शहरीकरण के दबाव के कारण उन किसानों की जमीन को शहरों में तब्दील होने से ब चाया जा सके और साथसाथ शहर व उपनगरीय क्षेत्रों में पानी जमाव के जोखिम को कम किया जा सके.

फल, फूल और सब्जी का सहारा

गोरखपुर में कृषिगत कार्यप्रणाली के जरीए पेरी अरबन के 8 गांवों में इन प्रयासों में तेजी लाई गई है. जलवायु परिवर्तन अनुकूलित कृषि को बढ़ावा देने के लिए किसानों के खेतों में कई तरह के प्रयोग किए गए हैं, जैसे ढैंचे की खेती के साथ बेल वाली फसलों को उगाना (क्लाइंबर फार्मिंग), उच्च लो टनल पाली हाउस द्वारा नर्सरी लगाना, जल जमाव वाले क्षेत्रों में मचान खेती को बढ़ावा देना, जल जमाव वाले क्षेत्रों में थर्मोकोल बाक्स द्वारा खेती करना और जूट के बोरे द्वारा खेती के कामों को करना.भारत में भी शहरीकरण तेजी से हो रहा है. भारत सरकार ने स्मार्ट सिटी, अमृत सिटी जैसी कई योजनाओं द्वारा शहरों में सुधार के लिए कई जरूरी फैसले लिए हैं. इस दिशा में नगरीय इलाकों (पेरी अरबन) पर भी ध्यान दिया जाना जरूरी है.

नगरीय इलाकों में खेती शहर के कमजोर वर्ग की आबादी के लिए बड़ा सहारा होती है. साथ ही इलाके के कुदरती साधन नगरों को जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निबटने में मदद करते हैं. बाढ़, जल जमाव, तापमान की बढ़ोत्तरी, सूखा, पानी की कमी जैसे हालात से नगरों को बचाने में इन की खास भूमिका होती है. नगरीय विकास के साथ ही इन नगरीय इलाकों में खेती को बनाए रखने के लिए जरूरी नीतियों, खाद्य उत्पादन व पोषण सुरक्षा को मजबूत करने जैसी बातों पर इस कार्यशाला में बातचीत की गई. आईसेट नेपाल संस्था के अध्यक्ष डा. अजय दीक्षित ने कहा कि पेरी अरबन एग्रीकल्चर शहर के कमजोर वर्ग की आबादी के लिए बड़ा सहारा होती है. हांगकांग के सीनियर इंजीनियर ई. अनिल कुमार ने कहा कि शहर का इलाका खेती के लिए बहुत जरूरी होता है और एक अनुमान के अनुसार विश्व की तकरीबन 80 करोड़ आबादी ऐसी कृषि के साथ जुड़ी हुई है. ऐसी खेती के कामों में सब्जी, फल, पशुपालन व वन जैसे काम खास हैं.

गोरखपुर की महिला किसान चंदा देवी ने बताया कि हम लोग शहर के किनारे बसे हुए हैं. यहां हम लोग सालों से सब्जी की खेती कर रहे हैं. हम लोगों की सब से बड़ी समस्या यह है कि शहर का सारा गंदा पानी हमारे खेतों में आता है, जिस से खेती में दिक्कत आती है. दूसरी तरफ खेतों के चारों तरफ मकान बनते जा रहे हैं, जिस से बड़ेबड़े बिल्डरों का जमीन बेचने का दबाव भी बराबर बना रहता है. गोरखपुर के किसान रामराज यादव ने कहा कि हम लोगों की रोजीरोटी सब्जी की खेती है. सब्जी को हम लोग शहर में बेच कर अपनी जिंदगी गुजारते हैं. लेकिन खेती में हम लोगों को सरकारी योजनाओं का फायदा नहीं मिल पाता, क्योंकि हम लोग न तो शहर की सुविधाएं पाते हैं, न ही हमें गांवों की योजनाओं का फायदा मिलता है.

कीमतें बढ़ने से किसानों में जोश

दवाओं की दुनिया में सफेद मूसली की बेहद ज्यादा अहमियत है. इस की खेती करना किसानों के लिए फायदे का सौदा साबित होता है. मगर पिछले दिनों इस के दाम गिरने से किसान घबरा गए थे. अब एक बार फिर से हालात बदल रहे हैं. आयुर्वेदिक दवाओं में खासतौर से इस्तेमाल होने वाली सफेद मूसली की कीमतों में 3 साल बाद सुधार होने से राजस्थान में इस की खेती करने वाले किसानों ने फिर से इस जड़ीबूटी की खेती करना शुरू कर दिया है. राज्य के राजसमंद, उदयपुर, चित्तौड़गढ़ व बारां जिलों में कुछ किसान सफेद मूसली की खेती करते हैं. इस की सब से ज्यादा खेती राजसमंद जिले की भीम व देवगढ़ तहसीलों में अरावली की पहाडि़यों पर बसे छोटेछोटे गांवों में की जाती है. यहां कम से कम 50 से 60 किसान सफेद मूसली की खेती करते हैं. यहां होने वाली यह जड़ीबूटी अच्छी मानी जाती है.

राजसमंद जिले के मूसली की खेती करने वाले किसान हजारी सिंह चौहान बताते हैं कि साल 2011 में यहां के किसानों को इस जड़ीबूटी की खेती से अच्छी आमदनी हुई थी और करीब 1200 रुपए प्रति किलोग्राम की दर से थोक व्यापारियों को किसानों ने अपनी फसल बेची थी. उन्होंने बताया कि इस के बाद इस की कीमतें गिर गईं और किसानों को 600 से 800 रुपए प्रति किलोग्राम की दर से अपनी पैदावार को बेचना पड़ा. सफेद मूसली के दाम घट कर करीब आधे हो जाने से किसानों को काफी झटका लगा था. एक किसान पूर्ण सिंह ने तो साल 2013 में करीब 1 क्विंटल सफेद मूसली का भंडारण कर के उसे अच्छे भाव के इंतजार में रोके रखा था, लेकिन आखिर में उन्हें साल 2014 में 600 रुपए प्रति किलोग्राम की दर से उसे बेचना पड़ा था.

राजस्थान, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र आदि जगहों पर सफेद मूसली की खेती करने वाले किसानों को इस फसल के दाम कम मिलने पर उन्होंने इस जड़ीबूटी की खेती करना लगभग छोड़ ही दिया था और साल 2015 में देश भर में इस का रकबा सिकुड़ कर लगभग आधा हो गया था. इस की खेती करने वाले हर किसान ने पहले की तुलना में जमीन के आधे हिस्से पर ही इस की खेती की. लेकिन साल 2015 के अक्तूबरनवंबर में इस की फसल तैयार होने पर इस के दाम ऊंचाई छूने लगे. जिन किसानों ने थोड़ा धैर्य रखा, उन्हें 1300 से 1500 रुपए प्रति किलोग्राम की दर से आमदनी हुई.

बारां जिले के किसान गणपत लाल नागर से मूसली के बारे में बात करने पर उन्होंने कहा कि इस बार इस जड़ीबूटी के भाव अच्छे मिलेंगे. मैं ने अपनी फसल देर से निकाली है और बाजार में जा कर जानकारी हासिल करने पर पता चला है कि आजकल कम से कम 1300 रुपए प्रति किलोग्राम इस की दरें चल रही हैं. वहीं हजारी सिंह चौहान ने बताया कि उन्होंने शुरुआत में पैदावार का कुछ हिस्सा 900 रुपए प्रति किलोग्राम की दर से बेचा था, लेकिन बाद में बची मूसली को उन्होंने 1400 रुपए प्रति किलोग्राम के हिसाब से बेचा. उन्होंने कहा कि यदि कोई अपनी पैदावार को रोके तो उसे 1500 रुपए प्रति किलोग्राम तक दाम मिल सकते हैं.

एक अदद मुसकान

टैक्नोलौजी के कमाल के बारे में तो आप सुन ही रहे हैं लेकिन ऐसी टैक्नोलौजी जो नन्हेमुन्हे की आंखों में रोशनी लौटा दें चमत्कार से कम नहीं होगा. अभी हाल ही में चार महीने के लियोपोल्ड विल्बर जो अमेरिका में जन्मा है के लिए टैक्नोलौजी वरदान साबित हुई. क्योंकि उसे ऐसा चश्मा मिल गया है जिस से वह देख पाएगा. उसे जन्म से ही औक्यूलोक्यूटेनियश एल्बीनिज्म बीमारी है जिस के कारण वह देख नहीं सकता. अपनी मां के चेहरे को छू कर और पापा की दाढ़ी पर हाथ लगा कर वह उन्हें पहचानता था लेकिन मन ही मन सोचता होगा कि जब मैं देख ही नहीं सकता तो मेरा इस दुनिया में आने का क्या फायदा.

अगर मैं देख पाता तो कितना अच्छा होता. उस के मन की बात और उस की पीड़ा को उस के पेरैंट्स भलीभांति समझ रहे थे तभी तो उन्होंने लौस एंजिलस स्थित बाल चिकित्सा नेत्र रोग विशेषज्ञ केनेथ से उपचार की मांग की और इन्हीं प्रयासों के चलते उन्हें यूएस की चश्मा बनाने वाली कंपनी मिराफ्लेश से ऐसा चश्मा मिल गया जिस ने नन्हेमुन्नहे की आंखों में रोशनी लौटा दी. चश्मे में नौर्मल लैंसिज का यूज किया गया है लेकिन फ्रेम रबड़ का बना होने के साथसाथ इस के किनारे शार्प नहीं हैं और इस में किसी भी तरह के स्कू्र का इस्तेमाल नहीं किया गया है. जब लियो चश्मा पहन कर अपनी मम्मी को देख कर मुसकराया तो उस की मम्मी की आंखों से आंसू न रुके और उन्होंने इस पल को कैमरे में कैद कर लिया. पापा भी खुशी के मारे रो उठे. आखिर बच्चों के चेहरे की मुसकान होती ही ऐसी है जो हर दुख को भुला देती है.

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