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एसबीआई की नई उड़ान

देश का सब से बड़ा बैंक भारतीय स्टेट बैंक दुनिया के प्रमुख 50 बैंकों में शामिल होने जा रहा है. केंद्रीय मंत्रिमंडल के बैंकों में सुधार करने के सरकार के एजेंडे को आगे बढ़ाते हुए एसबीआई के 5 सहयोगी बैंकों के उस में विलय करने के निर्णय के बाद एसबीआई की दुनिया के प्रमुख बैंक में शुमार होने की राह आसान हो रही है. सरकार ने स्टेट बैंक औफ बीकानेर ऐंड जयपुर, स्टेट बैंक औफ हैदराबाद, स्टेट बैंक औफ मैसूर, स्टेट बैंक औफ त्रावणकोर तथा स्टेट बैंक औफ पटियाला का विलय एसबीआई में कर दिया है. इस दिशा में प्रक्रिया चल रही है और अगले वर्ष मार्च तक यह प्रक्रिया पूरी हो जाएगी. इस प्रक्रिया के पूरा होने के बाद एसबीआई की कुल परिसंपत्ति 37 लाख करोड़ रुपए हो जाएगी जिस की बदौलत वह दुनिया के

50 प्रमुख बैंकों की श्रेणी में आ जाएगा. इस श्रेणी में दुनिया का सब से बड़ा बैंक चीन का औद्योगिक और वाणिज्य बैंक है. इस की कुल परिसंपत्ति 238 लाख करोड़ रुपए है. एसबीआई इस सूची में किस स्तर पर होगा, इस का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि कौमनवैल्थ बैंक औफ आस्ट्रेलिया अपनी 44 लाख करोड़ रुपए की परिसंपत्ति के साथ सूची में 40वें स्थान पर है.

अब तक के आकलन के अनुसार, एसबीआई 45वें स्थान पर हो सकता है. बैंक की परिसंपत्ति से ज्यादा महत्त्वपूर्ण यह है कि इस विलय से एक ही शहर में एसबीआई और उस के सहयोगी बैंकों के बीच की प्रतिस्पर्धा खत्म हो जाएगी और अनावश्यकरूप से बैंक की विभाजित पूंजी एकल स्वरूप में आ जाएगी. बड़ा फायदा यह भी है कि एसबीआई दुनिया के प्रमुख बैंकों में शुमार हो जाएगा. इस से दुनिया में भारत की साख बढ़ेगी और कारोबारियों के लिए कारोबार करना आसान होगा. सरकार का बैंकिंग क्षेत्र में सुधार के लिए यह पहला कदम है. मोदी सरकार ने सत्ता में आते ही इस क्षेत्र में सुधार की जरूरत पर बल दिया था और अब इस काम को तेजी से किए जाने की आवश्यकता है. महिला बैंक का भी विलय किया जाना है.

राजन और ब्रिटेन के कारण शेयर बाजार में भूचाल

शेयर बाजार में इस बार कई कारणों से झटकेदरझटके आते रहे हैं जिस के कारण बौंबे स्टौक एक्सचेंज यानी बीएसई का सूचकांक तेजी से ढहता रहा. पहले रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन के दूसरी पारी से बाहर होने की घोषणा का बाजार पर नकारात्मक रुख दिखा.

उन्होंने स्पष्ट किया कि कार्यकाल पूरा होने के बाद वे पद छोड़ देंगे. इस से बाजार ढह गए लेकिन इसी बीच, देश के सब से बड़े स्टेट बैंक औफ इंडिया यानी एसबीआई के साथ उस के 5 सहयोगी बैंकों के विलय की खबर से सूचकांक फिर मजबूती पकड़ने लगा तो तभी ब्रिटेन के यूरोपीय संघ से बाहर होने के समर्थन में जनमत संग्रह का परिणाम सामने आ गया. इस के कारण न सिर्फ बीएसई सूचकांक धराशाई हुआ बल्कि दुनियाभर के शेयर बाजारों में भूचाल आ गया. चारों तरफ शेयर बाजारों में महामारी जैसी स्थिति बन गई.

इस महामारी को तब और झटका लगा जब ईयू के कुछ अन्य मुल्कों से भी ब्रिटेन की तरह जनमत संग्रह की अनुगूंज सुनाई देने लगी. संघ ने स्पष्ट कर दिया है कि ब्रिटेन के मामले में अब कोई विचार नहीं किया जाएगा और उसे जल्द से जल्द अलग होने की प्रक्रिया पूरी करनी होगी. हालांकि इस प्रक्रिया को पूरा होने में 2 वर्षों  का वक्त लग सकता है.

भारतीय अर्थव्यवस्था: साथ सबका पर विकास किसका?

अच्छे देशों की सूची हाल ही में मीडिया में सामने आई. स्वीडन 163 देशों की सूची में अव्वल रहा. अगर टौप 10 अच्छे देशों की बात की जाए तो इस सूची में दूसरा स्थान डेनमार्क का रहा. इस के बाद नीदरलैंड, ब्रिटेन, जरमनी, फिनलैंड, कनाडा, फ्रांस, औस्ट्रिया और न्यूजीलैंड के नाम हैं. यह सूची जैसे ही सामने आई, देश के नामीगिरामी अर्थशास्त्रियों से ले कर सरकारी महकमे के मंत्रीसंत्री तक भारत का नाम ढूंढ़ने में जुट गए. पता चला सूची में बहुत नीचे भारत का स्थान 70वां दिखाया गया है. सूची को विश्व बैंक और राष्ट्रसंघ के 35 विभिन्न पैमानों के आधार पर तैयार किया गया है.

मोदी सरकार कितना ही दावा करे कि हमारा देश बदल रहा है और आगे बढ़ रहा है. विश्व के अच्छे देशों के सूचकांक ने मोदी सरकार के दावे पर सवालिया निशान लगा ही दिया है. ‘सब का साथ सब का विकास’ का जहां तक समृद्धि और समानता का सवाल है, उस में भारत का स्थान 163 देशों में 124वां है. आजकल आर्थिक मामले में बारबार चीन से भारत की तुलना हो रही है. समग्ररूप से अच्छे देशों के सूचकांक में भारत का स्थान चीन से नीचे ही है. लेकिन जहां तक भुखमरी का सवाल है, तो 2014-2015 वित्त वर्ष में राष्ट्रसंघ की सालाना रिपोर्ट कहती है कि चीन और भारत में भुखमरी बड़ी समस्या है. लेकिन भारत की समस्या चीन की तुलना में जरा बड़ी ही है.

विश्व में सब से अधिक आबादी वाले चीन में जहां 13.38 करोड़ लोग भुखमरी के शिकार हैं, वहीं विश्व की दूसरी सब से घनी आबादी वाले भारत में 19.46 करोड़ लोगों को न्यूनतम भोजन नसीब नहीं होता. इसे और भी खुलासा कर के कहा जाए तो विश्व के 97.5 करोड़ भुखमरी में जीने वाली आबादी की एकचौथाई भारतीय आबादी है. अच्छे देशों की सूची वाले सूचकांक में समानता और विकास के लिहाज से भारत का स्थान 124वां है. तो यह है मोदी के विकास का कड़वा सच.

मोदी सरकार ने अपनी पहली सालगिरह पर नारा दिया – ‘साल एक, शुरुआत अनेक.’ फिर नारा दिया, ‘सब का साथ, सब का विकास’ और ‘मोदी सरकार, विकास लगातार’. उद्योगपतियों को मोदी सरकार का साथ है, विकास जो कुछ भी हो रहा है वह कारोबारियों का ही हो रहा है. अब यह बात किसी से छिपी नहीं रह गई है. कांगे्रस के जमाने में ये मसले थोड़ेबहुत दबेछिपे थे. अब यह बात ‘सीक्रेट’ नहीं रही और सचाई खुल्लमखुल्ला सब के सामने आ गई है.

घाटे में बैंकिंग सैक्टर

बैंकिंग सैक्टर की दुर्दशा इस का प्रत्यक्ष प्रमाण है. मोदी राज के 2 सालों में सब से ज्यादा नुकसान बैंकिंग सैक्टर का हुआ है. आज यह बात साबित हो चुकी है. उद्योगपतियों की बदौलत सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक जबरदस्त घाटे में चल रहे हैं और बंद होने या विलय होने के कगार पर हैं. निजी बैंक की भी स्थिति बहुत अच्छी नहीं है. वहीं, भारी कर्ज लेने के साथ देश की आम जनता को चूना लगा कर एक के बाद एक उद्योगपति अपनेआप को दिवालिया घोषित करने में फख्र महसूस कर रहे हैं. विजय माल्या के बाद देश में यह एक नया ट्रैंड चालू हो गया है. नामीगिरामी उद्योगपति इस होड़ में उतर चुके हैं.

विकास या छलावा

इस साल मोदी सरकार ने अपनी दूसरी सालगिरह बड़े धूमधाम से मनाई और इस के तुरंत बाद सरकार ने अपनी पीठ थपथपाते हुए यह ऐलान किया कि वित्तवर्ष 2015-16 में देश की आर्थिक वृद्धि का प्रतिशत 7.6 था, लेकिन 2016-17 वित्तवर्ष की पहली तिमाही में आर्थिक वृद्धि की दर 7.9 प्रतिशत हो गई. मोदी सरकार के प्रचारकों ने यह जताने में जरा भी कोताही नहीं की कि पिछले वित्तवर्ष की पहली तिमाही में चीन जैसे विश्व की वृहत्तम अर्थव्यवस्था की आर्थिक वृद्धि की दर 6.7 प्रतिशत थी. लब्बोलुआब यह कि भारत ने चीनी अर्थव्यवस्था को पीछे छोड़ दिया और हमारा देश विश्व की एक बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की दिशा में लगातार आगे बढ़ रहा है. हालांकि इस सिक्के का एक दूसरा पहलू भी है और वह एक अलग ही तथ्य पेश करता है. दरअसल, वित्त मंत्रालय की ओर से जीडीपी यानी सकल घरेलू उत्पाद का जो ब्योरा पेश किया गया है उस से यह साफ हो जाता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था की जो मौजूदा स्थिति है वह विनिवेश के लिए किसी भी देश का विज्ञापन नहीं हो सकती. अर्थशास्त्र के जानकार बताते हैं कि जिस आर्थिक वृद्धि का ढिंढोरा पीटा जा रहा है, वह छलावा है. इस की सचाई निवेशविनिवेश नहीं, बल्कि इस आर्थिक वृद्धि का मौलिक संचालक गैरसरकारी व्यय है.

वित्तवर्ष 2014-15 में गैरसरकारी व्यय के कारण जीडीपी की वृद्धि दर 57.6 प्रतिशत से बढ़ कर 59.5 प्रतिशत हो गई थी. कोटक महिंद्रा बैंक की प्रमुख अर्थशास्त्री उपासना भारद्वाज ने अपने एक बयान में कहा कि देश की बड़ी कंपनियों द्वारा नए निवेश के बजाय ऊंची दर पर डिविडैंट दिए जाने से गैरसरकारी व्यय में ऐसी वृद्धि देखने को मिल रही है. इसी की वजह से ग्रौस फिक्स्ड कैपिटल फौरमेशन (जीएफसीएफ) यानी सकल स्थायी पूंजी निर्माण पिछले साल की तुलना में 7.9 प्रतिशत से नीचे जा कर 3.3 प्रतिशत हो गया. वहीं, 2014-15 वित्तवर्ष में जीडीपी 30.8 प्रतिशत से घट कर स्थायी पूंजी निर्माण जीडीपी का 29.3 प्रतिशत हो गया.

अर्थशास्त्र के जानकार सोमेन राय का कहना है कि देश में ऐसी कंपनियों की तादाद दिनोंदिन बढ़ रही है जिन के सिर पर कर्ज के भारीभरकम पहाड़ हैं और वे अपनी उत्पादन क्षमता का भी इस्तेमाल नहीं कर पा रही हैं. इस का समानुपातिक प्रभाव सीधे देश के बैंकिंग क्षेत्र पर पड़ा है. देश के विभिन्न बैंकों द्वारा दिए गए कर्ज का लगभग 11 प्रतिशत स्ट्रैस्ड एसेट्स में तबदील हो गया है, क्योंकि इस की वापसी की संभावना लगभग नहीं के बराबर है. जाहिर है अर्थव्यवस्था के लिए यह एक चिंता का विषय है. बैंकिंग क्षेत्र के इस संकट से उबरने में देश को सालों लग जाएंगे.

अनिश्चितता का माहौल

अर्थशास्त्री सोमेन राय कहते हैं कि नए गैरसरकारी विनिवेश का सवाल है तो इस मामले में आजकल पूरे देश में आत्मविश्वास की कमी के कारण अनिश्चितता का माहौल है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और वित्त मंत्री अरुण जेटली को इस

स्थिति को बड़ी गंभीरता से लेना होगा. क्योंकि इस पूरी स्थिति का दूरगामी प्रभाव यह है कि देश की अर्थव्यवस्था की मजबूती का दावा करने वाली बहुत सारी परियोजनाएं अधर में लटक गई हैं. वहीं, निर्यात उद्योग का ग्राफ पिछले 17 महीनों से लगातार नीचे की ओर लुढ़क रहा है.

इन सब का प्रत्यक्ष व परोक्ष प्रभाव यह है कि देश में बेरोजगारी बढ़ रही है. नए रोजगार की संभावना देश में लगभग नहीं के बराबर है. जबकि हमारे देश में हर साल पढ़ेलिखे नए बेरोजगारों की संख्या लाखों में बढ़ जाती है. लेबर ब्यूरो का आंकड़ा कहता है कि 2015 में नए रोजगार की संख्या घट कर महज एक लाख रह गई है और यह पिछले 6 सालों में सब से कम है.

किसानों की सुध नहीं

किसानों की बात की जाए, तो मोदी सरकार को किसानों से कोई सरोकार नहीं है, यह साफ नजर आने लगा है. बाकी जगह की बात जाने भी दें तो केंद्र और महाराष्ट्र दोनों में भाजपा की सरकारें हैं. महाराष्ट्र में तकरीबन हर रोज किसान आत्महत्या कर रहे हैं. इस साल के शुरुआती 45 दिनों में अकेले मराठवाड़ा में 93 किसानों ने आत्महत्या कर ली. पिछले साल 2015 में यहां 569 किसानों ने आत्महत्या की. वहीं अगर पूरे देश की बात करें तो राष्ट्रीय नमूना सर्वे का आंकड़ा बताता है कि देश में कृषि पर निर्भर परिवार के 52 प्रतिशत कर्ज के बोझ तले हैं. और कर्ज भी कितना? 80 हजार रुपए से ले कर 5 लाख रुपए तक का. कर्ज न चुका पाने की स्थिति में देश के किसान आत्महत्या करने को मजबूर हैं. वहीं, देश के बड़ेबड़े उद्योगपतियों का लाखोंकरोड़ों रुपए का कर्ज बकाया है और वे अपनेआप को दिवालिया घोषित कर के बच कर निकल रहे हैं.

सामान्य किसानों से ले कर गन्ना किसान, कपास किसान, आलू किसान, प्याज किसान सब खून के आंसू रो रहे हैं. फसल कम हो तो किसान मारा जाता है, फसल ज्यादा हो जाए तो भी किसान ही मारा जाता है. बीज से ले कर खाद की सब्सिडी दिनोंदिन कम होती जाती है, जाहिर है इन की कीमत बढ़ रही है. यहां तक कि अंतर्राष्ट्रीय बाजार में लगातार भाव गिरने के बाद भी भारत में पैट्रोलडीजल और रसोई गैस की कीमतें लगातार बढ़ रही हैं. देश के एक बड़े हिस्से में सालों से सूखा पड़ा हुआ है. बिजलीपानी की सुविधा सरकार दे नहीं सकती. डीजल के भरोसे सिंचाई महंगी है. इस पर भी किसान से जो बन पड़ता है, करता है और कर्ज में डूब कर मर जाता है.

किसानों को सरकार की ओर से दिए जाने वाले समर्थन मूल्य में वृद्धि नहीं की जा रही है. केंद्र सरकार ही नहीं, राज्य सरकारें भी समर्थन मूल्य बढ़ाने में आनाकानी करती हैं. कृषि उत्पाद के वितरण का पुख्ता इंतजाम तक सरकार नहींकर पाई है. जबकि मोदी ने किसानों के हितों को ले कर बड़ेबड़े वादे किए थे. घोषणापत्र में भाजपा ने कहा था कि उस की सरकार बनी तो वह किसानों को उन की फसल की लागत का 50 प्रतिशत लाभ दिलाएगी. सरकार की कृषि योजना कोई करामात नहीं दिखा पाई है. ऐसी विषम परिस्थिति के बीच एक हैरान करने वाली खबर भी है और वह यह कि न्यू वर्ल्ड वैल्थ रिपोर्ट की मानें तो भारत का नाम अति धनवान 10 देशों की सूची में शुमार हो चुका है और इस सूची में भारत का स्थान 7वां है जबकि हकीकत यह है कि औसत भारतीय बहुत गरीब है. आजादी के बाद से ही देश गरीबी के खिलाफ लड़ाई लड़ रहा है. गरीबी से आज तक देश को आजादी नहीं मिल पाई है.

भले ही अति धनवान देशों की सूची में भारत ने अपना नाम लिखवा लिया है, लेकिन देश का मध्यवर्ग अब निम्नमध्यवर्ग में तबदील हो गया है और निम्न वर्ग गरीबी रेखा के नीचे पहुंच गया है. देश की संपत्ति कुछ गिनेचुने उद्योगपतियों के हाथों में सिमट गई है. यही है मोदी सरकार की ‘नई सोच नई उम्मीद’. आंकड़ों की बाजीगरी के बल पर सरकार विकास की मरीचिका का भ्रम फैला रही है. जमीनी सचाई इस के उलट है और देश की आम जनता उस को भोगने को मजबूर है.

कुंबले के जिम्मे टीम इंडिया

फिरकी के जादूगर कहे जाने वाले पूर्व क्रिकेटर अनिल कुंबले को बीसीसीआई ने एक साल के लिए मुख्य कोच के रूप में टीम इंडिया का जिम्मा सौंपा है. कुंबले को ऐसे समय पर कोच बनाया गया है जब टीम इंडिया को कुछ दिनों पश्चात वैस्टइंडीज के दौरे पर जाना है. जहां मेजबान देश के साथ 4 टैस्ट मैच खेलने हैं. उस के बाद घरेलू मैदानों में टीम इंडिया इंगलैंड, आस्ट्रेलिया, बंगलादेश व न्यूजीलैंड के साथ कुल  13 टैस्ट मैच और 8 एकदिवसीय मैच खेलेगी. इसी बीच टीम इंडिया को ट्वैंटीट्वैंटी मैच भी खेलने हैं.

इस का मतलब साफ है कि अनिल कुंबले के लिए कम चुनौती नहीं है. टीम इंडिया वैसे भी विदेशी पिच पर ढेर हो जाती है. अनिल कुंबले के लिए सब से बड़ी चुनौती तो विदेशी धरती ही है क्योंकि चाहे बल्लेबाजी हो या गेंदबाजी, विदेशी धरती पर टीम इंडिया की हवा निकल जाती है.

चूंकि कुंबले स्वयं गेंदबाज रहे हैं इसलिए गेंदबाजी पर उन्हें विशेष ध्यान देना होगा. अगर टैस्ट मैचों में वैस्टइंडीज के सामने टीम इंडिया अच्छा परफौर्म नहीं कर पाई तो सारा ठीकरा अनिल कुंबले पर फूटने वाला है और अगर टीम इंडिया जीत कर लौटती है तो कम से कम कुंबले से कुढ़ने वाले खिलाडि़यों की बोलती तो बंद हो ही जाएगी. रही बात घरेलू मैदानों की, तो टीम इंडिया यहां तो शेर है पर आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड व इंगलैंड जैसी मजबूत टीम को कम आंकना महंगा पड़ सकता है. हालांकि इस मामले में कुंबले माहिर हैं. कुंबले को प्रशासन का अनुभव भी है. फिर भी शांत रहने वाले कुंबले को आक्रामक बनना होगा, तभी वे इन चुनौतियों का सामना कर पाएंगे.      

मेसी के संन्यास के माने

देश हो या विदेश हर व्यक्ति जो फुटबौल मैच देखता है वह मेसी का दीवाना है. लेकिन विश्व फुटबौल के सब से चमकते सितारे अर्जेंटीना के 29 वर्षीय लियोनेल मेसी ने कोपा अमेरिका कप के फाइनल में चिली के हाथों हार के बाद अंतर्राष्ट्रीय फुटबौल को अलविदा कह दिया. इस फैसले से फुटबौल प्रेमियों को धक्का तो लगा ही है, साथ ही दुनियाभर के स्पौंसर्स भी सकते में हैं क्योंकि स्पौंसर्स के चहेते मेसी जैसे खिलाड़ी जब इस तरह के फैसले लेते हैं तो कोई न कोई बड़ी वजह होती है पर अब उन स्पौंसरों का क्या होगा जो मेसी के नाम पर अरबों का कारोबार करते हैं. वर्ष 2018 में रूस में होने वाले विश्वकप में मेसी की गैरमौजूदगी से आयोजकों और प्रायोजकों के सामने सवाल उठ खड़े हुए हैं.

पर एक बात तो तय है कि मेसी हमेशा से खेल जगत में आने वाली पीढि़यों के लिए प्रेरक रहे हैं और रहेंगे. इस की एक बड़ी वजह है उन का कारनामा, उन के पैरों का जादू, मैदान में उन की फुरती, उन का कद. अर्जेंटीना के लिए मेसी ने सब से अधिक 55 गोल किए हैं. वे कई बार दुनिया के बेहतरीन खिलाड़ी का खिताब जीत चुके हैं पर बार्सिलोना को यूरोप की नंबर वन टीम बनाने वाले मेसी को यह दुख हमेशा सालता रहेगा कि वे अपने देश के लिए विश्व कप नहीं ला पाए.

मेसी ने कहा कि मेरे लिए राष्ट्रीय टीम का सफर पूरा हो गया. मैं जो कर सकता हूं वह मैं ने किया पर 4 बार फाइनल में पहुंचने के बाद भी हम चैंपियन नहीं बन पाए. मेसी ने ऐसा फैसला तब लिया जब वे अपने कैरियर की बुलंदियों पर थे. उन्हें शायद यह एहसास था कि अब वे अपनी टीम को चैंपियन नहीं बना सकते.

वर्ष 2014 के बाद अर्जेंटीना को तीसरी बार फाइनल मुकाबले में हार का सामना करना पड़ा. वर्ष 2014 में विश्व कप फाइनल में जरमनी ने अर्जेंटीना को 1-0 से पराजित किया. वर्ष 2015 और 2016 में मेसी के रहते हुए अर्जेंटीना को हार का मुंह देखना पड़ा. शानदार कैरियर और 5 बार विश्व के सर्वश्रेष्ठ फुटबौलर का खिताब जीतने के बावजूद मेसी को कई बार आलोचनाओं का शिकार होना पड़ा. मेसी को हमेशा डिएगो माराडोना की याद दिलाई जाती थी क्योंकि डिएगो माराडोना ने 1986 का विश्व कप अपने दम पर जिताया था. मेसी के संन्यास के पीछे चाहे जो भी कारण रहा हो लेकिन इस महान फुटबौलर से युवा खिलाडि़यों को सीखने की जरूरत है क्योंकि खेल के मैदान में जीत बड़ी बात है लेकिन न जीतने पर अपने को जिम्मेदार मानना उस से भी बड़ी बात है.

ओलंपिक टीम में शामिल बार्सिलाना स्टार नेमार

5 से 21 अगस्त के बीच होने वाले रियो ओलंपिक के लिए बार्सिलोना के स्टार खिलाड़ी नेमार और पेरिस सेंट जर्मेन के डिफेंडर मारकिन्होस को ब्राजील की फुटबॉल टीम में शामिल किया गया है.

नेमार के साथ बार्सिलोना के लिए खेलने वाले राफिन्हा, लाजियो के मिडफील्डर फेलिपे एंडरसन और गैब्रियल बारबोसा को भी टीम में मौका दिया गया है.

ब्राजील की टीम इस प्रकार है

गोलकीपर: फर्नांडो प्रास, यूलसन

डिफेंडर: मारकिन्होस, रौड्रिगो कायो, लुआन, विलियन, डगलस सांतोस, जेका

मिडफील्डर: वालास, रौद्रिगो डोराडो, थियागो एम, राफिन्हा, रेनाटो आगस्टो, फेलिपे एंडरसन

स्ट्राइकर: नेमार, गैब्रिसल, गैब्रियल जीसस, लुआन

नाच और नचा भी रहे हैं इरफान खान

टैलीविजन से कैरियर की शुरुआत करने वाले अभिनेता इरफान खान ने फिल्म ‘सलाम बौंबे’ में एक छोटी सी भूमिका से अपना फिल्मी सफर शुरू किया था. इस के बाद उन्होंने कई फिल्मों में छोटेबड़े किरदारों को निभाया पर असली पहचान उन्हें ‘मकबूल’, ‘रोग’, ‘लाइफ इन ए मैट्रो’, ‘स्लमडौग मिलेनियर’, ‘पान सिंह तोमर’, ‘लंच बौक्स’ आदि फिल्मों से मिली. फिल्म ‘पान सिंह तोमर’ के लिए उन्हें पद्मश्री सम्मान मिल चुका है. दर्शक ऐसा मानते हैं कि वे अपनी आंखों से ही पूरा अभिनय कर देते हैं. यही वजह है कि लीक से हट कर भी उन की फिल्में सफल होती हैं और दर्शकों को रियलिस्टिक फिल्म देखने को मिलती है.

इरफान खान जयपुर के मुसलिम परिवार से हैं. जब वे एमए की पढ़ाई कर रहे थे तब उन्हें नैशनल स्कूल औफ ड्रामा में स्कौलरशिप मिल चुकी थी. जयपुर से दिल्ली पहुंच कर उन्होंने अभिनय की बारीकियां तो सीखीं, पर फिल्मों में काम मिलना आसान नहीं था. वे मुंबई आए और टीवी का दामन पकड़ा और फिर आगे बढ़े. संघर्ष से वे घबराए नहीं, क्योंकि हीरो बनना उन का लक्ष्य था. उन की इस कामयाबी में वे अपने परिवार का हाथ मानते हैं जिस में वे अपनी पत्नी सुतपा सिकदर को अहम बताते हैं. सुतपा भी एनएसडी की पढ़ी हुई हैं. दोनों वहीं मिले थे. इरफान के 2 बच्चे बाबिल और अयान हैं. इन दिनों इरफान अपनी अगली फिल्म ‘मदारी’ को ले कर चर्चा में हैं. जिस की ‘वन लाइन’ स्टोरी सुतपा की ही है, जिसे बाद में निर्देशक निशिकांत कामत ने डैवलप किया. यह एक थ्रिलर फिल्म है. उन से बात करना रोचक था. पेश हैं अंश:

मदारी फिल्म में आप किसे नचा रहे हैं?

मदारी में नाच भी रहे हैं, नचा भी रहे हैं कि कैसे हम अपने जीवन में कुछ परिस्थितियों के आने पर नाचते रहते हैं और नचाते रहते हैं. कई बार बड़े लैवल पर नाचते हैं, कई बार पूरा देश नाचता है. इस फिल्म में ऐसा ही कुछ हुआ है, यह एक रियल स्टोरी है.

मेरी पत्नी ने जब इस कौंसैप्ट को सुनाया तो मुझे यह पसंद आया. मैं ने सोचा कि कौर्पोरेट को जा कर सुनाते हैं, लेकिन फिर सोचा कि उन्हें पसंद आए या न आए. ऐसे में मैं ने फिल्म को खुद बनाने का निर्णय लिया व अब मैं फिल्म का निर्माता व ऐक्टर दोनों हूं. निशिकांत ने कहानी को अच्छी तरह से डैवलप किया है. वे बहुत अच्छे निर्देशक हैं.

यह फिल्म आप की पत्नी का एक कौंसैप्ट है, साथ ही वे राइटर भी हैं, आप ने डैवलप करने की जिम्मेदारी उन्हें क्यों नहीं दी?

उन्होंने काफी डैवलप किया है पर उन के और मेरे विचार अलग हैं. आज तक ऐसा नहीं हुआ है कि उन की कहानी पर मैं ने काम किया हो. मेरी इच्छा है कि आगे चल कर मैं उन की लिखी कहानी पर काम करूं, पर इस में उन का सहयोग ही काफी है.

क्या रियल लाइफ में आप को कभी किसी ने नचाया है?

वह तो हमेशा ही होता रहता है. घर पर मेरी पत्नी ही नचाने की कोशिश करती है. मुझे लगता है कि अगर मैं ने कुछ गलत नहीं किया है तो किसी के आगे झुक नहीं सकता और यही मुझ में कमी है. जीवन में सौरी को लाना जरूरी होता है, इस से रिश्ता बना रहता है. सुतपा में यह गुण है.

इस फिल्म का कठिन पार्ट क्या था?

यह फिल्म अपनेआप में कठिन है. रोज लगता था कि इस फिल्म को हम ठीक से कर पाएंगे या नहीं. रोज सुबह मेरी और निशिकांत की यही बातें हुआ करती थीं. इस का खाका अलग है साथ ही साथ, नई चीज जितना उत्साह काम में लाती है उतना ही रिस्क या डर भी लाती है कि फिल्म सब को पसंद आएगी या नहीं. लेकिन जब काम करना शुरू किया तो धीरेधीरे सब ठीक होता गया.

रियल लाइफ स्टोरी बनाते समय किस बात का ध्यान रखते हैं?

रियल लाइफ पर फिल्में बड़े पैमाने पर बनाई जाती हैं. ऐसे में ध्यान देना पड़ता है कि कहानी ठीक से कही जाए, लोग उस से जुड़ सकें, आप का मैसेज लोग समझ पाएं. चुनौती बहुत होती है. जो फिल्म लार्जर दैन लाइफ बना रहे हैं, देखना पड़ता है कि हीरो की मूवमैंट सही हो.

आप रोमांटिक फिल्म कब कर रहे हैं?

आगे वही करने वाला हूं. वह भी सुतपा की फिल्म होगी. अभिनेत्री कौन होगी, अभी निश्चय नहीं किया है. मेरे लिए यह देखना बहुत जरूरी होता है कि हीरोइन कौन होगी.

पिता होने के नाते बच्चों को कितनी आजादी देते हैं?

बच्चों को आजादी है लेकिन पूरा दिन कंप्यूटर और गेम खेलो, यह आजादी नहीं है. उन पर नजर रखनी पड़ती है. मेरा व्यवहार ऐसा रहता है कि मैं उन का दोस्त हूं. वे मीडिया के प्रति सैंसेटिव होते हैं, इस का खयाल रखना पड़ता है. आप जो कहें, उसे आप को खुद भी अपनाना पड़ता है. मैं उन को अधिक समय नहीं दे पाता पर कोशिश रहती है कि उन के साथ कुछ समय बिताऊं.

हौलीवुड के अनुभव के बारे में क्या बताना चाहेंगे?

हौलीवुड ने मुझे काफी शेप दिया है. उस ने मुझे जो अनुभव कराया है, एक कलाकार के रूप में वह अमेजिंग है. उसी वजह से वहां और यहां मेरा बैलेंस बना हुआ है.

ड्रीम प्रोजैक्ट क्या है?

ड्रीम प्रोजैक्ट के बारे में मैं अभी अधिक बोलना नहीं चाहता, पता चला कि किसी ने उसी पर फिल्म बना डाली. मुझे उस पर काम करना है और वह बायोपिक होगी. इस के अलावा कुछ मराठी फिल्में करना चाहता हूं.

इंडस्ट्री में क्या बदलाव आए हैं?

औडियंस अच्छे सिनेमा को पसंद करते हैं. यही वजह है कि मराठी फिल्म ‘सैराट’ जैसी रीजनल फिल्में अच्छा बिजनैस कर रही हैं. इंडस्ट्री के लिए यह चुनौती है. खराब यह हो रहा है कि एक फार्मूला फिल्म बनती है और लोग बिना सोचेसमझे उसे बनाते रहते हैं. विचार करने की जरूरत होती है, वरना फ्लौप फिल्मों की संख्या बढ़ जाती है.

निर्माता बन कर किस बात पर खास ध्यान रखते हैं?

फिल्म का ठीक से निर्माण, उस की मार्केटिंग आदि पर विशेष ध्यान देता हूं.

एक्सिडैंटल प्राइम मिनिस्टर

संजय बारू नाम के गैर पेशेवर लेखक को आप शायद भूल चले हों, जिन की लिखी किताबें ‘द एक्सिडैंटल प्राइम मिनिस्टर : द मेकिंग ऐंड अनमेकिंग औफ मनमोहन सिंह’ ने साल 2014 में सियासी गलियारों में खासा हल्ला मचाया था. इस किताब पर अब फिल्म बनाने की तैयारी है जिस में मनमोहन सिंह की भूमिका पंजाब का एक सुदर्शन युवक निभाएगा. वह कौन है, यह अभी इस फिल्म के बाकी पहलुओं की तरह सस्पैंस है फिल्म हालांकि 2017 के आखिर तक प्रदर्शित होगी लेकिन इस के कुछ हिस्से तय है कि प्रचार के लिहाज से वे वक्तवक्त पर दिखाए जाते रहेंगे.

आइफा अवार्ड और बाजीराव

आइफा अवार्ड में इस बार फिल्म ‘बाजीराव मस्तानी’ की धूम रही. ज्यादातर अवार्ड इस फिल्म के हिस्से में आए. जहां बैस्ट ऐक्टर की ट्रौफी अभिनेता रणबीर कपूर के हिस्से आई, वहीं दीपिका पादुकोण को बैस्ट ऐक्ट्रैस का खिताब ‘बाजीराव मस्तानी’ के लिए नहीं बल्कि फिल्म ‘पीकू’ के लिए दिया गया. इस साल यह अवार्ड समारोह स्पेन के मैड्रिड में आयोजित किया गया. सर्वश्रेष्ठ निर्देशक की रेस में संजय लीला भंसाली ने ‘बाजीराव मस्तानी’ को ले कर बाजी मारी. वहीं प्रियंका चोपड़ा को फिल्म ‘बाजीराव मस्तानी’ के लिए जहां बैस्ट सपोर्टिंग अभिनेत्री का अवार्ड मिला वहीं स्पैशल अवार्ड फौर वुमेन के लिए भी उन्हें ट्रौफी दी गई.

हौलीवुड का लखन

अभिनेता अनिल कपूर अपने दौर में अमिताभ बच्चन के सुपरस्टार स्टेटस को कंपीटिशन दे रहे थे. लेकिन एक समय उन का कैरियर ट्रैक से झटक गया तो खान तिकड़ी ने मोरचा संभाल लिया और फिल्म राम लखन के लखन अपना काम करते रहे. फिर अचानक उन की अंगरेजी फिल्म ‘स्लमडौग मिलेनियर’ ने उन्हें हौलीवुड की राह दिखा दी. और तब से उन पर हौलीवुड का बुखार कुछ ऐसा चढ़ा कि अंगरेजी सीरियल ‘24’ का हिंदी संस्करण बना डाला और उस का दूसरा सीजन भी जल्दी आएगा. इतना ही नहीं, उन्होंने हौलीवुड बैनर्स के साथ अंगरेजी फिल्में ‘रैड’ और ‘एवरी बडी इज फेमस’ के हिंदी संस्करण बनाने का फैसला किया है. गौरतलब है कि अनिल कपूर हौलीवुड फिल्म ‘मिशन इंपौसिबल’ में भी एक छोटा सा किरदार कर चुके हैं जबकि अमेरिकन टीवी सीरीज 24 में प्रमुख किरदार निभा रहे हैं.

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