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जिंदगी के लिए जहर बनते कीटनाशक

तमाम फसलों की खेती के दौरान कीटनाशकों का इस्तेमाल करना किसानों की मजबूरी होती है. अपनी कीमती फसलों को घातक कीड़ों से बचाने की खातिर न चाहते हुए भी किसानों को कीटनाशकों का सहारा लेना पड़ता?है. मगर ये कीटनाशक किस कदर खतरनाक होते हैं, इस का अंदाजा हर किसी को नहीं होता. अमेरिका के नामी पत्रकार बेरी एस्टाब्रूक की एक रिपोर्ट ने दुनिया में तहलका मचा दिया था. उस रिपोर्ट के मुताबिक मां के खून से आए कीटनाशक थोड़ी सी मात्रा में भी बच्चे में तमाम कमियां पैदा कर सकते हैं.

रिपोर्ट में अमेरिका के फ्लोरिडा के इम्मोकाली इलाके की घटना का जिक्र किया गया?है. वहां बड़े रकबे में टमाटर की खेती की जाती है. वहां टावर केबिंस नाम की खेतिहर मजदूरों की 30 मकानों की एक छोटी सी बस्ती है. लकड़ी से बने उन मकानों में ज्यादातर मैक्सिको से घुसपैठ कर के आने वाले मजदूरों के परिवार रहते हैं. ये परिवार अवैध तरीके से आने की वजह से गुलामों जैसी जिंदगी गुजारते हैं. करीब ढाई साल पहले का वाकया है यह. क्रिसमस से पहले डेढ़ महीने के दौरान उस बस्ती की 3 मजदूर महिलाओं ने बच्चों को जन्म दिया?था. पहली महिला ने एक लड़के को पैदा किया, मगर उस के दोनों हाथ व दोनों पैर गायब थे. इस हालत को टट्रोमेलिया कहते हैं.

इस के 6 हफ्ते बाद पड़ोस के मकान में रहने वाली दूसरी महिला का बच्चा पैदा हुआ. उस बच्चे को पिअरी रोबिन सिंड्रोम नाम की पैदायशी शिकायत थी. उस का नीचे वाला जबड़ा छोटा और अविकसित था. इस के अलावा उस की जीभ काफी पीछे की ओर थी. जीभ इस कदर पीछे थी कि उसे सांस लेना भी दूभर था. उस का ऊपर वाला तालू बीच से फटा हुआ था. फिर 2 दिनों बाद बस्ती की तीसरी महिला की बच्ची पैदा हुई बच्ची की नाक व एक कान नदारद थे. गुर्दा भी केवल 1 था और गुदा द्वारा भी बंद था. उस का तालू फटा हुआ था और बाहरी जननांग गायब था. वह बच्ची सिर्फ 3 दिनों तक ही जी सकी.

एक ही जगह रहने और साथसाथ काम करने वाली 3 औरतों द्वारा विकलांग बच्चों को जन्म देना वाकई हैरानी वाली बात थी. बच्चों के जन्म के समय में भी खास अंतर नहीं था. माहिर डाक्टरों को भी इस सवाल ने सोचने पर मजबूर कर दिया कि आखिर माजरा क्या है? इतना तो तय था कि गर्भस्थ शिशुओं के अंग बनते वक्त ही कोई खलल पड़ा होगा. डाक्टरों द्वारा तीनों औरतों के आखिरी मासिक के मुताबिक गर्भधारण के महीने परखे गए. ये वही महीने थे, जब?टमाटरों के खेतों में कीटनाशकों का भरपूर छिड़काव किया जाता है. ये महिलाएं उन्हीं खेतों में काम करती थीं.

आमतौर पर कीटनाशकों के छिड़काव के बाद एक तय समय तक खेत में और उस के नजदीक जाने पर भी पाबंदी होती है. अगर ऐसा किया जाता तो वे तीनों मांएं महफूज रहतीं. मगर महिलाओं के मुताबिक उन के मालिकों ने नियम की परवाह न करते हुए उन से उस दौरान भी खेतों में काम करवाया. और उन्हीं कीटनाशकों के जहरीले असर ने महिलाओं के बच्चों का पेट में ही सत्यानाश कर दिया.

इस घटना से जाहिर है कि कीटनाशकों का इस्तेमाल किस कदर जानलेवा हो सकता है. अमेरिका जैसे विकसित देश में जब ऐसी घटनाएं हो सकती?हैं, तो भारत जैसे देश की बिसात ही क्या?है?

आजकल जैविक कीटनाशकों पर जोर दिया जा रहा?है और आने वाले वक्त के लिए इसे अच्छी बात कहा जा सकता?है. इस मामले में वैज्ञानिकों और माहिरों को पूरा जोर लगाना होगा, ताकि रासायनिक कीटनाशकों का नामोनिशान मिट सके और इन के बगैर खेती का काम चल सके.

बेर के पेड़ों की काटछांट और हिफाजत

पश्चिमी राजस्थान की आबोहवा व जमीन बेर की पैदावार के लिए बहुत अच्छी मानी जाती है, इसीलिए इस क्षेत्र में बेर की खेती टिकाऊ साबित हो रही है. गरमी व कम पानी में बेर की पैदावार अच्छी होती है. लेकिन बेर के पेड़ों में सही कटिंग व पौध संरक्षण न करने पर फलों की पैदावार व उस की क्वालिटी पर बुरा असर पड़ता है, जिस से किसानों को बहुत नुकसान सहना पड़ता है. अगर सही समय पर फल वाले पेड़ों में काटछांट व फसल की देखभाल पर ध्यान दिया जाए तो कीट व बीमारियों से होने वाले नुकसान से बचा जा सकता है.

बेर के पेड़ों में काटछांट : बेर के पेड़ों में हर साल काटछांट करना बहुत जरूरी है. इस काम को हर साल मई के महीने में किया जाना चाहिए. अप्रैल में फलों की तोड़ाई के साथ ही बेर का पौधा गरमी के मौसम में ज्यादा तापमान, नमी की कमी व लू से बचे रहने के लिए सोने वाली स्थिति में चला जाता है. इस दौरान इस में काटछांट करने से पेड़ों को काटछांट का एहसास नहीं हो पाता है. जून में मानसून के साथ ही पेड़ों में नया फुटाव शुरू हो जाता है.

बेर में काटछांट करते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि जो शाखाएं पिछले साल निकली थीं, उन के ऊपर का लगभग आधे से तीनचौथाई हिस्सा काट देना चाहिए. 5 से 6 सालों में जब पेड़ ज्यादा घना होने लगे तो गहरी काटछांट करनी चाहिए.

काटछांट करने के 7 से 10 दिनों बाद बेर में गहरी गुड़ाई कर के जरूरत के हिसाब से खाद व उर्वरक मिला देना चाहिए. जून में बारिश नहीं होने की स्थिति में 1 बार सिंचाई कर देनी चाहिए, जिस से नई कोपलें गरमी से झुलसेंगी नहीं व अधिक संख्या में फूल व फल लगेंगे.

जानकारी की कमी की वजह से कुछ किसान बेर में सही समय पर काटछांट नहीं करते हैं, जिस से फलों के उत्पादन व क्वालिटी पर असर पड़ता है.

बेर में काटछांट नहीं करने से नई शाखाएं कम निकलती हैं, जिस से फूल व फल बहुत कम होते हैं. समय से पहले (अप्रैल महीने में) काटछांट करने से पौधों की नींद की

स्थिति जल्दी खत्म हो जाती है व नई शाखाएं जल्दी निकल कर ज्यादा गरमी के कारण

झुलस जाती हैं, जिस से उत्पादन पर गलत असर पड़ता है.

ज्यादा देरी से (जुलाई महीने में) काटछांट करने से पेड़ की नींद खत्म हो जाती है, जिस से काटछांट वाली जगहों से पौधे का कोशारस निकल जाता है और नई शाखाएं बहुत कम  निकलती हैं. नतीजतन फूल और फल बहुत कम होते हैं. इसीलिए ज्यादा उत्पादन प्राप्त करने के लिए 15-30 मई के बीच बेर में काटछांट कर देनी चाहिए. यह भी ध्यान रखना चाहिए कि काटछांट बहुत कम या बहुत ज्यादा नहीं हो.

देखभाल : बेर की फसल को कीटों व बीमारियों से बहुत नुकसान होता है. कभीकभी कीटों व बीमारियों से बेर की पूरी फसल खराब हो जाती है, जिस से किसान को भारी नुकसान झेलना पड़ता है. इस में लगने वाले कीड़े व बीमारियां इस तरह से हैं:

कीट

छाल भक्षक कीट : ये कीट फल वाले पेड़ों की छाल को खाते हैं, जिस से पेड़ों का रस बहाव कम हो जाता है, उन की टहनियां सूखने लगती हैं या कमजोर हो जाती हैं, जो हलकी हवा या फलभार के झुकाव के कारण टूट जाती हैं और पैदावार में कमी हो जाती है. ये कीट छिपने के लिए टहनी के अंदर सुरंग बना लेते हैं. ये कीट दिन के समय सुरंग के अंदर छिपे रहते हैं और  रात के समय फल वाले पेड़ों की छाल खाते हैं.

रोकथाम : इस कीट की रोकथाम के लिए समयसमय पर क्यूनालफास 25 ईसी 2 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी में मिला कर छिड़काव करें. बेर की कटाईछंटाई के बाद नई पत्तियां निकलने तक दवा का छिड़काव करते रहना चाहिए.

* सुरंग साफ कर के पिचकारी की मदद से 5 मिलीलीटर कैरोसिन उस में डालें या छेद में क्लोराफार्म में डूबी रुई डाल कर गीली चिकनी मिट्टी से छेद को बंद कर दें, ताकि कीट सुरंग के अंदर ही मर जाएं.

* कीट लगी टहनियों को काट कर इकट्ठा कर के अलग किसी स्थान पर जला दें, ताकि कीट अंदर ही जल कर मर जाएं.

चैफर बीटल : यह भी बेर के पेड़ों को नुकसान पहुंचाने वाला कीट है, जिस का असर बरसात के समय ज्यादा हो जाता है. यह कीट बेर की कोमल पत्तियों को खाता है, जिस से पेड़ों की बढ़वार और पैदावार पर असर पड़ता है.

रोकथाम : इस कीट से बचाव के लिए पेड़ के तने के आसपास की जमीन की समयसमय पर जुताई करनी चाहिए, जिस से इस कीट की लटें व कोश मर जाएं.

* चैफर बीटल के प्रौढ़ कीट इकट्ठा करने के लिए प्रकाशपाश व फिरोमोनफास पाश का इस्तेमाल करना चाहिए.

* पेड़ों को बचाने के लिए बरसात के शुरू में मोनोक्रोटोफास 36 एसएल 1 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करें. कार्बेरिल 50 डब्ल्यूपी 4 ग्राम प्रति लीटर पानी के घोल के छिड़काव से यह कीड़ा मर जाता है.

फलमक्खी : इस कीट के मैगट ही नुकसान पहुंचाते हैं, जिस का एक सिरा पतला व दूसरा सिरा चौड़ा होता है. जब फल मटर के आकर के हो जाते हैं, तो मादा मक्खी अपने अंडरोपक के द्वारा फलों में छेद कर के अंडे देती है. अंडे फूटने के बाद मैगट निकलते हैं, जो फल के अंदर का गूदा खा कर फल में छेद कर देते हैं. खाया गया भाग पतला हो जाता है व फल गिर भी जाते हैं. मैगट एक फल से दूसरे फल में घुस जाते हैं और पैदावार में कमी आ जाती है.

रोकथाम : गरमी में मिट्टी पलटने वाले हल से गहरी जुताई करें ताकि कृमिकोश बाहर आ जाएं, जो धूप या चिडि़यों के द्वारा नष्ट हो जाएंगे, जिस से फल मक्खी नहीं पनप पाएगी.

* कीट लगे फलों को जमा कर के मिट्टी के तेल में डुबो दें जिस से मैगट नष्ट हो जाएंगे.

* बेर के बगीचे के आसपास की जंगली झाडि़यों को हटा दें व कीट से प्रभावित फलों को नष्ट कर दें.

* जब फल मटर के आकार के हों उसी समय डाईमिथोएट 30 ईसी या मिथाइल डेमेटोन 25 ईसी या क्यूनालफास 25 ईसी 2 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करें. 15 दिनों बाद छिड़काव दोहराएं.

बीमारियां

छाछ्या रोग : यह एक भयंकर रोग है, जिस में फलों, पत्तियों व तनों पर सफेद चूर्ण जैसी परत दिखाई देती है. फल पीले पड़ कर सिकुड़ जाते हैं व गिर जाते हैं. इस का असर जाड़े के दिनों में बादल होने पर ज्यादा होता है. इस रोग से बचाने के लिए डाइनोकेप 48 ईसी 1 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करना चाहिए. पहला छिड़काव फूल आने से पहले और दूसरा व तीसरा छिड़काव फल बनने के बाद 15 दिनों के अंतराल पर करें. घुलनशील सल्फर के छिड़काव से भी छाछ्या रोग से पेड़ों को बचाया जा सकता है.

जड़ गलन : यह रोग पौधे की शुरुआती अवस्था में जब पौधे छोटे होते हैं, उस समय लगता है. इस से पौधे की जड़ें सड़ जाती हैं या जमीन के पास से तने कमजोर हो कर पौधे सूख जाते हैं.

रोकथाम : नर्सरी के लिए जगह का चुनाव ऊंची जगह पर करें, जहां से पानी का निकास आसानी से हो जाए. जड़ में भुरभुरी मिट्टी का इस्तेमाल करना चाहिए.

* बीजों को बोने पहले मिट्टी को केप्टान 2 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल कर उपचारित करें, ताकि मिट्टी के कवक खत्म हो जाएं.

* बीजों को थायरम या केप्टान 2 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित कर के बोआई करनी चाहिए.

* पौधे जब छोटे हों तो उन पर रिडोमिल 2 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करना चाहिए.

पत्ती धब्बा रोग : यह भी फफूंदी से लगने वाला रोग है, जो नवंबर से दिसंबर के महीने में फैलता है. इस रोग से पत्तियों के ऊपर सफेद रंग के धब्बे दिखाई देते हैं. बाद में ये धब्बे आकार में बढ़ कर पूरी पत्ती पर फैल जाते हैं. पत्तियां पीली पड़ कर सूख कर गिर जाती हैं.

 बेर के पौधों को इस रोग बचाने के लिए जब सफेद धब्बे दिखाई दें, तो उसी समय मैंकोजेब 3 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करें. दूसरा छिड़काव 15 दिनों बाद करना चाहिए.

फलों व फूलों का झड़ना : बेर में फूल व फल झड़ने की समस्या भी काफी ज्यादा पाई जाती है. इस की खास वजह बागों की ठीक से देखभाल नहीं करना है. अकसर किसान पेड़ों की कटाईछंटाई, जल्दी या देरी से करते हैं. फूल आने के समय सिंचाई करते हैं, जिस से फूल परागण से पहले ही सूख जाते हैं या छोटेछोटे फल गिर जाते हैं, जिस से बेर की पैदावार पर असर पड़ता है.

इस की रोकथाम के लिए बागों की सही देखभाल के साथसाथ सही समय पर मई महीने के आखिर में काटछांट करनी चाहिए. फल लगने के बाद हलकी सिंचाई करनी चाहिए. ज्यादा गरमी बढ़ने पर बगीचों में फव्वारा चलाना चाहिए. खाद व उर्वरक के साथसाथ कीटों व रोगों का भी खास ध्यान रखना चाहिए.

फूल लगने के 15 दिनों पहले, फूल के समय व मटर के आकार के फल के होने के समय प्लेनोफिक्स (1 मिलीलीटर दवा को 3 लीटर पानी में घोल कर) का छिड़काव भी करना चाहिए.

इस प्रकार से किसान सही समय पर पेड़ों की काटछांट व फसल सुरक्षा पर ध्यान दे कर, कीटनाशक व फफूंदीनाशक दवाएं उचित समय पर बगीचे में छिड़क कर बेर में होने वाले नुकसान से बच सकते हैं और ज्यादा फायदा कमा सकते हैं.

बेर की अच्छी पैदावार के लिए निम्नलिखित सालाना कार्यक्रम अपनाएं :

जनवरी : इन दिनों पेड़ों में लगे फल बढ़ रहे होते हैं, इसलिए सिंचाई पर ध्यान देना चाहिए. यदि फल मक्खियों का प्रकोप हो गया हो तो मिथाइल डिमेटोन 25 ईसी 1 मिलीलीटर मात्रा 1 लीटर पानी में मिला कर छिड़काव करना चाहिए. बेर के जंगली पेड़ों को बढि़या किस्मों की चोटी लगाने के लिए इसी महीने में काट लेना चाहिए.

फरवरी : अगेती किस्मों के फल पकने लग जाते हैं. इसलिए फलों को सही तरह से तोड़ना चाहिए. पछेती किस्मों में फलमक्खी की रोकथाम करनी चाहिए. चूर्णी फफूंदी का प्रकोप दिखाई देने पर सल्फर पाउडर 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से भुरकाव करना चाहिए.

मार्च : इन दिनों फल पूरी तरह से पक चुके होते हैं. उन्हें पेड़ों से तोड़ कर बाजार में बेचने के लिए ले जाना चाहिए. मौसम के बाद काम में लाने के लिए फलों को सुखा कर रखा जा सकता है या उन से कैंडी तैयार की जा सकती है. उत्तरी भारत में दिसंबर में काटे गए जंगली बेर के पेड़ों में इस महीने में मनमुताबिक किस्म की कलियां लगा देनी चाहिए.

अप्रैल : यदि बेर नाशक भृंग ने हमला कर दिया हो तो उस की रोकथाम करनी चाहिए. बेर के पौधे उगाने के लिए स्वस्थ जंगली बेरों से जमा किए गए बीजों को जहां पेड़ कली लगा कर उगाने हों वहीं पर बो देना चाहिए.

मई : इस महीने बेर के पेड़ अपनी पत्तियां गिराते हैं और आराम करते हैं. जिन की चोटी को जनवारी में काट दिया गया था, उन पर कलिकायन कर देना चाहिए. इस महीने में पौधों में काटछांट कर देनी चाहिए.

जून : हर पेड़ में 4-5 टोकरी यानी 40 किलोग्राम गोबर की खाद, 2 किलोग्राम नीम की खली और 2 किलोग्राम एनपीके उर्वरक देना चाहिए और जरूरी निराईगुड़ाई कर देनी चाहिए. इस के बाद हलकी सिंचाई कर देनी चाहिए. पत्तियों व अन्य सूखे भागों को इकट्ठा कर के बाग की सफाई करनी चाहिए. बाग में गहरी जुताई कर के सौर उपचार करना चाहिए. कटाईछंटाई करने के बाद कटे भागों व तने पर बोर्डो पेस्ट का लेप भी करना चाहिए.

जुलाई : थैलियों में उगाए गए पौधों को खेत में सही अंतर पर लगा देना चाहिए. बाद में वहीं पर उन में कलियां लगाई जाती हैं. बीज बो कर उगाए गए पौधों पर कलिकायन भी इसी महीने में कर देना चाहिए. जरूरत के मुताबिक डाईमिथोएट 30 ईसी कीटनाशी का छिड़काव कर देना चाहिए.

अगस्त : थैलियों में उगाए गए बेर के पौधों को खेतों में लगाने का काम चलता रहता है. इस महीने भी कलिकायन कर सकते हैं. बागों में प्लेनोफिक्स का छिड़काव कर देना चाहिए.

सितंबर : पेड़ों के आसपास की जमीन की जुताई कर देनी चाहिए. बाग में साफसफाई करते रहना चाहिए. यदि छाछ्या रोग का प्रकोप हो तो तुरंत इलाज करना चाहिए.

अक्तूबर : फलों का लगना शुरू हो जाता है, इसलिए बागों का पूरा खयाल रखें. पानी की निकासी का पूरा ध्यान रखना चाहिए. इस महीने मोनोक्रोटोफास व प्लेनोफिक्स का घोल बना कर छिड़काव करना चाहिए.

नवंबर : इन दिनों में मध्य भारत में बेर पकने लगते हैं. उन्हें पक्षियों से बचाना चाहिए. यदि फलमक्खी ने आक्रमण कर दिया हो, तो उस की रोकथाम के लिए पिछले महीने में किए छिड़काव को दोहराना चाहिए.

दिसंबर : उत्तरी भारत में जिन जंगली बेर के पेड़ों में बढि़या किस्म की कली लगा कर तैयार करनी होती है, उन का तने से ऊपर का भाग इस महीने में काट देना चाहिए. पेड़ों की सिंचाई करनी चाहिए, क्योंकि इन दिनों फल विकास की अवस्था में रहते हैं.

फल झड़ाव हो तो प्लेनोफिक्स का छिड़काव करना चाहिए. फलों की गुणवत्ता में सुधार के लिए एनपीके पालिफिड (50 ग्राम प्रति 15 लीटर पानी) का घोल  बना कर छिड़काव करना चाहिए. इस महीने

कीटनाशी व फफूंदनाशी (रिडोमिल) का घोल तैयार कर के जरूरत के अनुसार छिड़काव करना चाहिए.

किसान औषधीय पौधे लगा कर ज्यादा कमाएं

फसलों के साथ लगाए हुए पेड़ बहुत फायदेमंद होते हैं, क्योंकि पेड़ों के बड़े हो जाने पर उन से मोटी रकम मिलती है. इसलिए बहुत से किसान खेती से ज्यादा कमाई करने के लिए अकसर अपने खेतों की मेंड़ों पर शीशम, साल, सागौन या पापुलर आदि के पेड़ लगाते हैं. बदलते दौर में किसान खेती के साथ औषधीय पौधे लगा कर अच्छी कमाई कर सकते हैं. यह बात अलग है कि ज्यादातर किसान इन के बारे में नहीं जानते. औषधीय पौधों के बीज, पौध, रोपण सामग्री व तकनीकी जानकारी भी हर किसी को आसानी से नहीं मिलती. इसलिए ज्यादातर किसान औषधीय पौधे नहीं लगाते.

माहिरों की खोजबीन के मुताबिक पहचाने गए औषधीय पौधों का कुनबा बहुत बड़ा है. इस पर 3 नई किताबें भारत सरकार की चिकित्सा अनुंसधान परिषद ने पिछले दिनों छापी हैं. इन में शामिल औषधीय पौधों व किस्मों की गिनती 1100 से ऊपर है, लेकिन फिलहाल इन में से सिर्फ 35 औषधीय पौधों की क्वालिटी के लिए ही मानक तयशुदा हैं.

ऐसा करें किसान

अशोक, अश्वगंधा, अर्जुन, अतीस, बायबिड़ंग, बेल, ब्राह्मी, चंदन, चिरायता, गिलोय, गूगल, इसबगोल, जटा मांसी, कालमेघ, कुटकी, शतावर, शंखपुष्पी, सफेदमूसली, दालचीनी, हरड़, बहेड़ा, आंवला, सौंफ व सनाय वगैरह की मांग आमतौर पर ज्यादा रहती है. औषधीय पौधों से मिली कई चीजें हमारे देश से दूसरे मुल्कों को भेजी जाती हैं, लेकिन इस में ज्यादातर  हिस्सा रसायनों के बगैर उगाए गए औषधीय पौधों से मिली आरगैनिक सामग्री का रहता है.

मेरठ के किसान महेंद्र सिंह ने बताया कि ज्यादातर किसान अपनी जरूरतें पूरी करने के लिए पैसा आने के इंताजर में रहते हैं, जबकि औषधीय पौधों से पैसा काफी देर से मिलता है, लेकिन तुलसी की फसल सब से जल्दी सिर्फ 3 महीने में पक कर तैयार हो जाती है. लिहाजा किसान हिचक छोड़ कर इस काम की शुरुआत कर सकते हैं.

इस के अलावा अश्वगंधा, आंवला, ब्राह्मी, चिरायता, गुडुची, कालमेघ, मकोय, पाषणभेद, सनाय, मेहंदी व बच आदि 1 साल में तैयार हो जाते हैं. लिहाजा किसान अपनी पसंद व कूवत के मुताबिक पेड़ चुन सकते हैं. देसी, यूनानी व होम्योपैथिक वगैरह दवाएं औषधीय पौधों से मिली चीजों से बनती हैं. लिहाजा बहुत सी दवाओं के लिए कच्चे माल की भारी मांग रहती है. नतीजतन औषधीय पौधे बहुत तेजी के साथ घट रहे हैं, जबकि औषधीय पौधों की खेती उतनी तेजी से नहीं बढ़ रही, जितनी कि जरूरत है. इस के मद्देनजर सरकार औषधीय पौधे उगाने को बढ़ावा दे रही है, ताकि देसी दवाएं बनाने वाली कंपनियों को उम्दा क्वालिटी का कच्चा माल व किसानों, बागबानों को उन की मेहनत का वाजिब मुनाफा मिल सके.

आयूष उत्पादों के मामले में भारत की हिस्सेदारी सिर्फ 10 फीसदी है, जबकि बढ़त की गुंजाइश हमारे देश में अभी भी बहुत है. औषधीय पौधों को बचाने व बढ़ाने के लिए साल 2000 से केंद्र सरकार का स्वास्थ्य महकमा राष्ट्रीय औषध पौध बोर्ड (एनएमपीबी) के जरीए कई स्कीमें चला रहा है. इस के अलावा 11वीं पांच साला योजना में 630 करोड़ रुपए की लागत से औषधीय पौधों पर 1 राष्ट्रीय मिशन भी नेशनल बोर्ड के तहत चल रहा है.

साथ ही साथ देश भर में 35 राज्य स्तर के बोर्ड भी चल रहे हैं. मिशन की स्कीमों में औषधीय पौधे उगाने पर 75  फीसदी व प्रोसेसिंग पर 50 लाख रुपए तक माली मदद दी जाती है, लेकिन इस का प्रचारप्रसार नहीं के बराबर है. यदि सरकारें ध्यान दें तो औषधीय पौधों से किसानों की माली हालत जल्दी व ज्यादा सुधर सकती है.

अपने देश में औषधीय पौधों पर चल रही सरकारी स्कीमों की कमी नहीं है. मसलन राज्य बागबानी मिशन के जरीए चल रही केंद्र पुरोनिधानित स्कीम में भी औषधीय पौधे उगाने को बढ़ावा दिया जाता है, लेकिन ज्यादातर किसान इतना भी नहीं जानते कि दूसरी फसलों के मुकाबले औषधीय पौधों की खेती ज्यादा फायदेमंद है.

इस के लिए जरूरी है कि किसान औषधीय पौधे उगाने से ले कर उन के तैयार होने तक की पूरी तकनीक ठीक से जानते हों. हालांकि यह काम कोई मुश्किल या नामुमकिन नहीं है. लखनऊ की सरकारी संस्था सीमैप से ट्रेनिंग ले कर किसान औषधीय पौधे उगाना सीख सकते हैं व उन से हासिल सामग्री बेच कर अपनी आमदनी बढ़ा सकते हैं.

चलन पुराना

देसी, यूनानी, सिद्ध व होम्योपैथिक दवाएं बनाने में जड़ीबूटियों का इस्तेमाल सदियों से किया जाता रहा है. औषधीय पौधों से हासिल फल, फूल, बीज, छाल, तना, पत्ती व जड़ के हिस्से जड़ीबूटियां हैं. हमारे देश में 3 हजार से ज्यादा छोटीबड़ी कंपनियां देसी दवाएं बनाती हैं. अगर जानकारी हो तो औषधीय पौधों के उत्पाद बिकने में दिक्कत नहीं होती. फिर भी बेहतर होगा कि पहले ही किसी दवा कंपनी या खरीदार से बात कर ली जाए. हरिद्वार की पतंजलि फार्मेसी रोज सैकड़ों टन ग्वारपाठा व आंवला वगैरह कई चीजें खरीदती है.

दिल्ली जैसे बड़े शहरों में भी औषधीय उत्पादों के बाजार हैं. यह बात अलग है कि आम किसानों को यह जानकारी नहीं है कि औषधीय पौधों के उत्पाद कहां, कब, कैसे व कितनी कीमत में बिकते हैं. लिहाजा किसान पूरी जानकारी के बाद

ही औषधीय पौधे लगाएं, ताकि उन्हें बाद में उपज बेचने के लिए परेशान न होना पड़े. इस के लिए जागरूकता जरूरी है.

उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड जैसे राज्यों में सहकारिता महकमे के रजिस्ट्रारों ने किसानों की मदद व सहूलियत के लिए जड़ीबूटी संग्रह व बिक्री के सहकारी संगठन भी बना रखे हैं. इस के अलावा औषधीय एवं सगंध पौधा उत्पाद संघ नाम की संस्था बी 83, अशोकपुरा, हजपुरा डेली रोड, पटना, बिहार में भी चल रही है. साथ ही देसी दवा बनाने में काम आने वाले कच्चे माल के अनेक खरीदारों के पते इंटरनेट पर भी मौजूद हैं.

खोजबीन

दिल्ली में भारत सरकार की एक मशहूर संस्था है वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद, जिसे सीएसआईआर भी कहा जाता है. इस संस्था के तहत उत्तर प्रदेश के लखनऊ शहर में केंद्रीय औषधीय एवं सगंध पौधा संस्थान काम कर रहा है, जिसे सीमैप भी कहते हैं.

इस संस्थान ने औषधीय पौधों की खेती को बढ़ावा देने का काफी काम किया है.

सीमैप ने औषधीय पौधों की उम्दा किस्में मुहैया कराने, प्रसंस्करण करने, किफायती उपकरण निकालने, ट्रेनिंग व सलाहमशविरा देने से ले कर बाजार उपलब्ध कराने तक हर पहलू पर काम किया है. लिहाजा किसान इस संस्था से मदद ले सकते हैं. सीमैप औषधीय पौधों की जानकारी देने के लिए किसान मेले एवं प्रदर्शनी लगाती है, ताकि किसान सीधे वैज्ञानिकों से मिल कर सवाल पूछ सकें.

इस के अलावा सीमैप संस्था फार्म बुलेटिन, प्रोसेसिंग पर पुस्तिका व बाजार के लिए मार्केटिंग डायरेक्टरी वगैरह मुहैया कराती है. किसान डायरेक्टरी में खरीदारों के पते देख सकते हैं. इस के अलावा किसानों की सहूलियत के लिए सीमैप की बुकलेट ओस ज्ञान्या में भी 70 खरीदारों के पते छापे गए हैं.

उत्तर प्रदेश के जंगल महकमे की नर्सरी में भी लगभग 85 किस्मों के औषधीय पौधे किसानों को वाजिब कीमत पर मुहैया कराए जाते हैं. किसान अकेले या मिल कर स्वयं सहायता समूह, सहकारी समिति या उत्पादक कंपनी आदि बना कर औषधीय खेती व उस की उपज बेचने का काम कर सकते हैं. जरूरत पहल करने की है.

औषधीय पौधों की किस्म, रोपण तकनीक, औजार, मशीनों व प्रोसेसिंग आदि के बारे में अधिक जानकारी के लिए किसान व उद्यमी सीमैप के नीचे दिए पते पर संपर्क कर सकते हैं:

निदेशक, केंद्रीय औषधीय एवं सगंध पौधा संस्थान, सीमैप, कुकरैल, लखनऊ : 226015, फोन 0522-2359623.

सरकारी स्कीमों में छूट, सहूलियत व माली इमदाद आदि के लिए निम्न पते पर संपर्क कर सकते हैं:

मुख्य कार्यकारी, राष्ट्रीय औषध पौधा बोर्ड, आयूष भवन, तीसरा तल, बी ब्लाक, जीपीओ कांप्लैक्स, आईएनए, नई दिल्ली 110023. फोन : 011-24651825

वेबसाइट :  222.ठ्ठद्वश्चड्ढ.ठ्ठद्बष्.द्बठ्ठ

ई मेल : द्बठ्ठद्घश-ठ्ठद्वश्चड्ढञ्चठ्ठद्बष्.द्बठ्ठ      

खास औषधीय पौधे

अश्वगंधा, गिलोय, रुद्राक्ष, काला सिरस, अशोक, भूमि आंवला, चिरायता, पंगारा, हारसिंगार, मुलैहटी, गूलर, वन तुलसी, सफेद तुलसी, रामा तुलसी, सदाबहार, तुन, पीला वासा, पोई, कचनार, पत्थर चूर, पलाश, कट करंज, प्रियंगू, मद, भांग, देवकिली, अजवायन, कसामर्द, सफेद मूसली, काली मूसली, कालमेघ, इसबगोल, घृतकुमारी, सनाय, बच, भृंगराज, आंवला, तगर, जंगली अरंड, सेहुंड, दूधी, कैंथा, बरगद, बबूल, बेच, चंदन, सप्तपर्णी, अंबाहलदी, पीली हलदी, हरी चाय, तेजपात, लघुपाठा, हाड़जोड़, नीबू, भाट, अपराजिता, कुंदरू, लसोड़ा, वरुन, सुदर्शन, जमालघोटा, पीपल, गुड़मार, गुड़हल, रतनजोत, आम, नीम, जामुन, इमली, बकैन, मौलश्री, जल ब्राह्मी, शहतूत, लाल कनेर, सर्पगंधा, सेमल, सागौन, सतावर, कदंब, ईश्वरमूल, दमनक, कटहल, काली मकोय, मोथा, शीशम, काला धतूरा, कनक धतूरा, गेंठी, जापानी पोदीना, वाराहीकंद, अनंतमूल, कुचैला, नागेश्वर, गोखरू व कैंच. कुछ बड़े खरीदारों के पते

* मै. पतंजलि फार्मेसी, हरिद्वार, उत्तराखंड.

*      मै. डाबर इंडिया लि., 8/3 आसफअली रोड, नई दिल्ली-110001. फोन : 011-23253488.

* मै. बैद्यनाथ आर्युवेद भवन, प्रा. लि. लादीनगर, पटना. फोन : 0612-2353143.

*     मै. हिमालय ड्रग कंपनी, मकाली, बेंगलूरू, फोन : 080-23714444.

* मै. झंडू इमामी लि., तीसरा तल, गोल्डन चैंबर, नया लिंक रोड, अंधेरी पश्चिम, मुंबई,

     फोन : 022-26709000.

* मै. मेहता फार्मास्यूटिकल, छीहरता, जीटी रोड, अमृतसर, पंजाब.

टमाटर उत्पादन तकनीक

टमाटर एक खास सब्जी है. सब्जी के अलावा टमाटर से कई उत्पाद जैसे चटनी, सूप, कैचअप व सौस बनाए जाते हैं.

जमीन व जलवायु : टमाटर अधिक कार्बनिक पदार्थ वाली बलुई दोमट मिट्टी में आसानी से उगाया जा सकता?है. हलकी अम्लीय मिट्टी जिस का पीएच मान 6.0 से 7.0 तक हो, टमाटर के लिए अच्छी रहती है. टमाटर गरम मौसम की फसल है, इसलिए उन इलाकों में अच्छी पनपती है, जहां पाला नहीं पड़ता?है. ज्यादा गरमी (42 डिगरी से ज्यादा) में फूल व बिना पके फल झड़ जाते हैं.

उन्नत किस्में : पूसा रूबी, पूसा उपहार, पूसा संकर 1, पूसा संकर 2, पूसा संकर 4, पूसा रोहिणी, पूसा 120, पूसा शीतल, अविनाश 2, अर्का सौरभ, हाईब्रिड लाल, हाईब्रिड ब्रैवो व हाइब्रिड क्रिस आदि. बीज की मात्रा : उन्नत किस्मों के 350 से 400 ग्राम बीज प्रति हेक्टेयर. संकर किस्मों के 200 से 250 ग्राम बीज प्रति हेक्टेयर.

पौधशाला : टमाटर के पौधे तैयार करने के लिए 60 से 90 सेंटीमीटर चौड़ी व 16 सेंटीमीटर ऊंची उठी हुई क्यारियां बनानी चाहिए. भरपूर मात्रा में सड़ी हुई गोबर की खाद या वर्मी कंपोस्ट मिला कर 5 सेंटीमीटर की दूरी पर लाइनें बना कर बीजों की बोआई करनी चाहिए. बीज आधा सेंटीमीटर से ज्यादा गहरे नहीं डालने चाहिए. जब पौधे 15 सेंटीमीटर ऊंचे हो जाएं (28 दिन) तो रोपाई के लिए तैयार हो जाते हैं.

रोपाई?: टमाटर की अच्छी उपज लेने के लिए 80 सेंटीमीटर चौड़ी उठी हुई क्यारी बना कर क्यारी के दोनों छोरों पर 45 से 60 सेंटीमीटर की दूरी पर पौधे लगाने

चाहिए. पानी देने के लिए 2 क्यारियों के बीच 45 से 60 सेंटीमीटर चौड़ी नाली बनानी चाहिए.

खाद व उर्वरक : गोबर की खाद 25 से 30 टन प्रति हेक्टेयर, अमोनियम सल्फेट 300 से 400 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर, सुपर फास्फेट 360 से 400 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर, पोटेशियम सल्फेट 60 से 100 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर, सूक्ष्म तत्त्व मिश्रण 3 से 5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर.

पूरी मात्रा में गोबर की खाद व आधी मात्रा में अमोनियम सल्फेट, सुपर फास्फेट व पोटेशियम सल्फेट को अच्छी तरह मिला कर के पौधों की रोपाई से पहले बनाई गई नालियों में बराबर मात्रा में डाल कर 10 से 15 सेंटीमीटर गहराई तक अच्छी तरह मिलाना चाहिए. उर्वरकों की बाकी मात्रा फूल निकलने से पहले नाली में डाल कर जड़ों पर मिट्टी चढ़ानी चाहिए.

सिंचाई : टमाटर में हलकी व नियमित सिंचाई की जरूरत होती है, इसलिए बूंददार सिंचाई के तरीके को अपनाने से उपज ज्यादा मिलती है व पानी की भी बचत होती है. खुली सिंचाई हमेशा नाली में ही करनी चाहिए.

निराईगुड़ाई : खरपतवारों को खत्म करने के लिए लगातार निराई व गुड़ाई करना जरूरी होता है. सहारा लगाना : लगातार बढ़ने वाली किस्मों से ज्यादा उत्पादन लेने के लिए पौधे को तार के सहारे ऊपर चढ़ाना जरूरी होता है.

सहारा लगाने से उत्पादन का खर्च बढ़ जाता है, लेकिन पौधे की बढ़वार अच्छी होती है. फल बड़े आकार के व ज्यादा लगते हैं. फलस्वरूप प्रति हेक्टेयर उपज ज्यादा मिलती है.

कीटों व रोगों की रोकथाम

फल छेदक : इस कीट के लार्वे अंदर से फलों को खाते रहते हैं, जिस से फल सड़ जाते हैं. रोकथाम के लिए कीट लगे फलों को

जमीन में गाड़ देना चाहिए व मेलाथियान (0.05 फीसदी) का छिड़काव 10 से 12 दिनों के अंतर पर 3 बार करना चाहिए.

जैसिड व सफेद मक्खी : ये पत्तियों का रस चूस कर नुकसान पहुंचाते हैं. रोकथाम के लिए मेटासिस्टाक्स या रोगोर (0.05 फीसदी) का छिड़काव करना चाहिए.

आर्द्र गलन : पौधों के तने जमीन की सतह से सड़ जाते हैं. रोकथाम के लिए बीजों को थीरम, केप्टान या बाविस्टीन की 2 ग्राम मात्रा से प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें, नालियों में ट्राईगोड्रमा गोबर की खाद के साथ मिला कर दें.

पत्तियों का विषाणु रोग : इस के असर से पत्तियां छोटी हो कर मुड़ जाती हैं, जिस से पौधों की बढ़वार रुक जाती है. रोकथाम के लिए पौधें एंटी वायरस जाली से ढक कर तैयार करने चाहिए.

समयसमय पर कीटनाशी दवा का छिड़काव करना चाहिए. कीट लगे पौधों को नष्ट कर के नीम कीटनाशी दवा का छिड़काव करना चाहिए.

फलों की तोड़ाई व उपज : फलों को बाहर भेजने के लिए पीले होने पर व आसपास के बाजार में भेजने के लिए लाल होने पर तोड़ना चाहिए. उन्नत किस्मों की उपज 300 से 400 क्विंटल प्रति हेक्टेयर व संकर किस्मों की 600 से 700 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक हो जाती है.   खूबसूरत, सख्त और चटक लाल रंग के टमाटर को आननफानन में खाना तो आसान है, मगर उस का उत्पादन उतना आसान नहीं है. टमाटर की खेती के लिए लगन व मेहनत जरूरी है.             

टमाटर उत्पादक शंकर

भाई को बनाना चाहता है सौफ्टवेयर इंजीनियर

शंकर सिरोही जिले के आदिवासी गांव मुंगथला का रहने वाला एक गरीब किसान है. शुरुआत में पानी की कमी व छोटी जोत के कारण शंकर के परिवार का गुजरबसर भी बहुत मुश्किल से हो रहा?था. उसी दौरान शंकर बड़े किसानों से जमीन भाड़े पर ले कर टमाटर की खेती करने लगा. इस के बाद उस ने कृषि विशेषज्ञों की सलाह व अच्छे टमाटर उत्पादकों की राय ले कर टमाटर की खेती शुरू की और कुछ ही समय में वह टमाटर उत्पादन का अग्रणी किसान बन गया.

आज शंकर टमाटर उत्पादन की उन्नत तकनीक के जरीए भरपूर मात्रा में टमाटरों का उत्पादन कर रहा है और आसपास की बड़ी मंडियों में टमाटर की सप्लाई कर के अच्छा मुनाफा कमा रहा?है. टमाटर की खेती से शंकर के परिवार के सभी सदस्यों को रोजगार मिला है और आसपास के किसानों को?भी?छोटा रोजगार प्राप्त हुआ?है. होने वाली आमदनी से शंकर अपने छोटे भाई को सौफ्टवेयर इंजीनियर की शिक्षा दिलवा रहा है. आज वह अपने परिवार का पूरा खर्च आसानी से उठा रहा है. उस के दोनों बच्चे अच्छे स्कूल में पढ़ रहे हैं. आज शंकर द्वारा अपनाए खेती के नए तरीकों के कारण वह और उस के घर वाले खुशहाल जीवन बिता रहे हैं.

फसल  बोआई का समय पौध रोपाई     फलन

खरीफ जुलाईअगस्त    अगस्तसितंबर   अक्तूबरदिसंबर

रबी    नवंबरदिसंबर    जनवरीफरवरी   मार्च मई

शादी के 2-3 साल तक हम बच्चा नहीं चाहते. इस के लिए क्या मुझे कोई गर्भनिरोधक गोली लेनी चाहिए.

सवाल

मैं 20 वर्षीय युवती हूं और 2 महीने बाद मेरी शादी होने वाली है. शादी के 2-3 साल तक हम बच्चा नहीं चाहते. इस के लिए क्या मुझे कोई गर्भनिरोधक गोली लेनी चाहिए. मैं ने कहीं पढ़ा है कि ‘बी गैप’ गोली लेने के बाद 6 महीने तक गर्भ ठहरने का खतरा नहीं रहता. मैं जानना चाहती हूं कि क्या यह गोली सुरक्षित है और क्या मुझे इस का सेवन करने से पहले किसी लेडी डाक्टर से परामर्श लेना चाहिए?

जवाब

आप की उम्र अभी कम है, इसलिए आप का यह निर्णय कि कुछ सालों तक परिवार नियोजन का पालन किया जाए, बिलकुल सही है. आप किसी स्त्रीरोग विशेषज्ञा से परामर्श लें. वे आप को बता देंगी कि आप को कौन सा गर्भनिरोधक उपाय अपनाना चाहिए.

 

अगर आप भी इस समस्या पर अपने सुझाव देना चाहते हैं, तो नीचे दिए गए कमेंट बॉक्स में जाकर कमेंट करें और अपनी राय हमारे पाठकों तक पहुंचाएं.

ट्रैक्टर की सही देखभाल

खासीयतों से भरपूर ट्रैक्टर खेती के लिए बहुत जरूरी है. कृषि में काम आने वाले तमाम यंत्रों को ट्रैक्टर के साथ जोड़ कर चलाया जाता?है. ट्रैक्टर के अगले व पिछले हिस्से में लगने वाले तमाम कृषि यंत्रों से जुताई, बोआई, मड़ाई, फसल की रोपाई फसल कटाई के साथ ही फसल की ढुलाई व सिंचाई का काम भी लिया जाता?है.

खेती में इस्तेमाल किए जाने वाले यंत्रों की उपयोगिता के अनुसार कई मौडलों के?ट्रैक्टरों का इस्तेमाल किया जाता?है, जिन की ताकत हौर्सपावर से आंकी जाती?है. खेती के लिए कल्टीवेटर, हैरो, रोटावेटर, रोटरी, ट्रिलर, प्लाऊ, सहित अनेक यंत्रों को काम के अनुसार ट्रैक्टर से जोड़ कर इस्तेमाल किया जाता है. इस के अलावा फसल के बोआई, मड़ाई, रोपाई व सिंचाई के लिए भी कई तरह के यंत्र इस्तेमाल में लाए जाते?हैं.

चूंकि ट्रैक्टर का इस्तेमाल हमेशा मिट्टी व पानी में किया जाता?है और इस में ज्यादातर पुर्जे घूमने वाले होते?हैं, इसलिए इन के कलपुर्जो व इस से चलने वाले यंत्रों की साफसफाई पर ध्यान देने से यंत्रों की उम्र बढ़ जाती?है. ट्रैक्टर का इस्तेमाल करने वाले किसानों को चाहिए कि वे अपने?ट्रैक्टर की देखभाल करते रहें, इस के लिए उन्हें निम्नलिखित सावधानियों की जरूरत पड़ेगी :

सर्विस : ट्रैक्टर द्वारा लिए जाने वाले कृषि कार्यों में किसी तरह की समस्या न आए इस के लिए यह जरूरी हो जाता?है कि ट्रैक्टर की समयसमय पर सर्विस कराई जाती रहे. एसपीआटोमोबाइल्स बस्ती के मालिक अखिलेश दूबे का कहना?है कि ट्रैक्टर से लंबे समय तक काम लेने के लिए हमें इंजन आयल की जांच करते रहना चाहिए और इंजन को?ठंडा करने के लिए उपयोग में लाए जाने वाले कूलैंट के स्तर की भी जांच करते रहना चाहिए. अगर किसान को लगता है कि कूलैंट की मात्रा कम तो उस मात्रा को समय से पूरा करते रहें. इस के अलावा आगे की एक्सेल व पिछली बैरिंग पर ग्रीस लगा कर चिकना करते रहना जरूरी?है, जिस से ट्रैक्टर में किसी तरह की समस्या न आए.

अखिलेश दूबे के मुताबिक ट्रैक्टर की सर्विस के लिए जिस कंपनी का ट्रैक्टर इस्तेमाल कर रहे?हैं, उस कंपनी के सर्विस सेंटर पर ही सर्विसिंग करानी चाहिए, क्योंकि वहां एक्सपर्ट मैकेनिकों द्वारा ट्रैक्टर की पूरी तरह से जांचपड़ताल के बाद ही सर्विसिंग की जाती?है. वे ट्रैक्टर के हाइड्रोलिक सिस्टम की जांच, बैटरी की जांच, टायरों में हवा के स्तर की जांच क्लच व ब्रेक पैडल की जांच करने के साथ ही?ढीले नटबोल्ट्स को कस कर ट्रैक्टर की कमियों को दूर कर देते?हैं. किसी भी ट्रैक्टर के लिए यह जरूरी हो जाता?है कि इंजन आयल और फिल्टर को बदला जाए. इस के अलावा एयर क्लीनिक की सर्विस करने के साथ ही इंजन आयल व अन्य जरूरी चीजों को सही किया जाता है.

अगर किसान को ट्रैक्टर से खेती करते समय किसी तरह की संचालन समस्या का सामना करना पड़ता?है, तो उस में लापरवाही न बरत कर तुरंत ही ठीक किए जाने का प्रयास करना चाहिए, ताकि इंजन या ट्रैक्टर के किसी कलपुर्जे को कोई नुकसान न पहुंचे.

ईंधन बचाव के अपनाएं तरीके : खेती के कामों में ट्रैक्टर का इस्तेमाल  करते समय सही रखरखाव व दिशानिर्देशों को अपना कर 25 फीसदी तक डीजल की बचत कर सकते?हैं. इस के लिए सब से पहले हम को यह देख लेना चाहिए कि ट्रैक्टर की फ्यूल टंकी, फ्यूल पंप व फ्यूल इंजेक्टर से किसी तरह का रिसाव न हो रहा हो, क्योंकि प्रति सेंकेंड 1 बूंद रिसाव से साल भर में तकरीबन 2000 लीटर डीजल की बरबादी होती है.

एसपी आटोमोबाइल व जानडियर ट्रैक्टर के सर्विस सेंटर से जुड़े सुनील सिंह का कहना?है कि जब भी आप किसी जगह पर रूकें तो इंजन को बंद कर देना चाहिए,?क्योंकि ट्रैक्टर को चालू हालत में रखने में प्रति घंटे 1 लीटर से अधिक का नुकसान होता है. इस के अलावा डीजल की बचत के लिए ट्रैक्टर को हमेशा सही गियर में ही चलाना चाहिए. अगर ट्रैक्टर से अधिक धुंआ निकल रहा है, तो यह समझ लेना चाहिए कि?ट्रैक्टर ओवरलोडिंग का शिकार?है इसलिए यह ध्यान रखना चाहिए कि ट्रैक्टर की कूवत से ज्यादा बड़े साइज वाले कृषि यंत्रों का इस्तेमाल न किया जाए. इस के बावजूद ट्रैक्टर से लगातार धुंआ निकल रहा है, तो ट्रैक्टर के सर्विस सेंटर से?ट्रैक्टर के नोजल्स व इंजेक्शन पंप की जांच करानी चािहए.

सुनील सिंह के मुताबिक ट्रैक्टर में हमेशा अच्छे एयर फिल्टर का इस्तेमाल करना चाहिए,?क्योंकि ट्रैक्टर में आने वाले धूल व मिट्टी के कण ट्रैक्टर के इंजन को नुकसान पहुंचा सकते हैं, जिस से ट्रैक्टर के पिस्टन, रिंग्स और सिलेंडर बोर्स जल्दी खराब होते?हैं. ट्रैक्टर में हमेशा अच्छी क्वालिटी वाले डीजल का इस्तेमाल करना चाहिए, क्योंकि गंदे डीजल से डीजल की खपत ज्यादा होती है.

जानडियर ट्रैक्टर से जुड़े सर्विस मैन बैजनाथ का कहना?है कि हमें ट्रैक्टर के इस्तेमाल के समय ईंधन की बचत पर हमेशा सतर्क रहना चाहिए. इस के लिए यह ध्यान देना चाहिए कि?टायरों में जरूरत से?ज्यादा दबाव न हो या टायर घिसे हुए न हों,?क्योंकि इस से पहिए फिसलने लगते हैं और ईंधन की ज्यादा बरबादी होती?है. साथ ही अगर हम ट्रैक्टर के साथ धुलाई के लिए ट्रौली का इस्तेमाल कर रहे हैं, तो यह ध्यान देना चाहिए कि वह कभी भी ओवरलोड न हो. इस के अलावा क्लच पैडल, फ्री न होने के कारण भी स्लिप होता है, जिस से यह समय से पहले खराब हो जाता?है और ईंधन की बरबादी होती है. इन बातों पर ध्यान दे कर हम अपने?ट्रैक्टर पर होने वाले ईंधन खर्च में कमी ला सकते?हैं.

अच्छी ड्राइविंग की डालें आदत : ट्रैक्टर को लंबे समय तक किसी खराबी से बचाने के लिए अच्छे ड्राइवर की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है, क्योंकि अच्छी ड्राइविंग भी ट्रैक्टर के कलपूर्जे व इंजन को खराब होने से बचाती?है. इसलिए जब भी ट्रैक्टर की ड्राइविंग कर रहे हों तो यह ध्यान दें कि ट्रैक्टर हमेशा न्यूट्रल गियर में हो तभी चालू करें. इस के पहले यह तय कर लें कि ट्रैक्टर के साथ जुड़े उपकरणों के आसपास कोई भी व्यक्ति मौजूद नहीं?है. ट्रैक्टर को चालू हालत में?छोड़ कर कभी भी ड्राइविंग सीट नहीं छोड़नी चाहिए.?ट्रैक्टर को कभी लहराते हुए नहीं चलाना चाहिए क्योंकि इस से दुर्घटना हो सकती है.

मैकेनिक विजय मिश्र का कहना?है कि हमें ट्रैक्टर के साथ जोड़ कर खेती के काम में लाए जाने वाले उपकरणों का रखरखाव भी सही तरीके से करना चाहिए,?क्योंकि ट्रैक्टर के साथ जुड़ कर चलने वाले कृषि यंत्र में खराबी भी ट्रैक्टर के ऊपर बुरा प्रभाव डालती है. हम ट्रैक्टर से जुड़ी छोटीछोटी सावधानियों को अपना कर न केवल ट्रैक्टर की सुरक्षा कर सकते?हैं, बल्कि उस पर आने वाले खर्च से भी बच सकते हैं. ट्रैक्टर के रखरखाव के बारे में ज्यादा जानकारी के लिए जानडियर ट्रैक्टर व एसपी आटोमोबाइल्स बस्ती से जुड़े सुनील सिंह, बैजनाथ, विजय मिश्र के मोबाइल नंबरों 9413628656, 9415858818, 9839520955 पर संपर्क कर सकते हैं.

टमाटर की फसल का कीड़ों से बचाव

भारत में टमाटर  की फसल को साल भर उगाया जा सकता है. यह सब्जी की महत्त्वपूर्ण फसल है. इस के बिनरा सब्जी अधूरी मानी जाती है. इस में विटामिन बी व सी की मात्रा ज्यादा होती है. टमाटर का इस्तेमाल सब्जियों के साथ पका कर किया जाता है. इस के अलावा सूप, सौस, चटनी, अचार बनाने व सलाद में किया जाता है. टमाटर की फसल से किसानों को अच्छी आमदनी हो जाती है. टमाटर में फलभेदक, तंबाकू की सूंड़ी, सफेद मक्खी, पर्ण सुरंगक कीड़ा, चेंपा माहू वगैरह कीड़े लग जाते हैं.

फलभेदक कीड़ा : यह पीलेभूरे रंग का होता है. अगले पंखों पर भूरे रंग की कई धारियां होती हैं व इन पर सेम के आकार के काले धब्बे पाए जाते हैं, जबकि निचले पंखों का रंग सफेद होता है, जिन की शिराएं काली दिखाई देती हैं और बाहरी किनारों पर चौड़ा धब्बा होता है. इस कीट की मादा पत्तियों की निचली सतह पर हलकेपीले रंग के खरबूजे की तरह धारियों वाले अंडे देती है. 1 मादा अपने जीवनकाल में लगभग 500 से 1000 तक अंडे देती है. ये अंडे 3 से 10 दिनों के अंदर फूट जाते हैं.

नुकसान की पहचान : सूंडि़यां पत्तियों, मुलायम तनों व फूलों को खाती हैं. ये बाद में कच्चे व पके टमाटर के फलों में छेद कर के उन के अंदर का गूदा खा जाती हैं. ऐसे टमाटर खाने लायक नहीं रहते हैं. कीड़े के मलमूत्र के कारण उस में सड़न शुरू हो जाती है, जिस से फलों की कीड़ों से लड़ने की ताकत कम हो जाती है. ऐसे फलों का भाव कम हो जाता है. इस कीड़े के लगने से करीब 50 फीसदी फसल खराब हो जाती है.

रोकथाम : जाल फसल के लिए टमाटर रोपाई से 10 दिन पहले गेंदा की एक लाइन टमाटर की हर 14 लाइन के बाद लगानी चाहिए. खेत में 20 फेरोमोन जाल प्रति हेक्टेयर की दर से लगाएं.

खेत में पक्षियों के बैठने के लिए 10 स्टैंड प्रति हेक्टेयर के अनुसार लगाएं. कीड़े के लगते ही अंड परजीवी ट्राइकोग्रामा ब्रेसीलिएंसिस (ट्राइकोकार्ड) के 10,0000 अंडे प्रति हेक्टेयर हर हफ्ते की दर से 5-6 बार छोड़ने चाहिए.

सूंड़ी की पहली अवस्था दिखाई देते ही 250 एलई का एचएएनपीवी को एक किलोग्राम गुड़ व 0.1 फीसदी टीपोल के घोल का प्रति हेक्टेयर की दर से 10-12 दिनों के अंतर पर छिड़काव करें. इस के अलावा 1 किलोग्राम बीटी प्रति हेक्टेयर इस्तेमाल करें व उस के बाद 5 फीसदी एनएसकेई का छिड़काव करें. प्रकोप बढ़ने पर क्विनालफास 25 ईसी या क्लोरोपाइरीफास 20 ईसी का 2 मिलीमीटर प्रति लीटर या इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एसएल का 1 मिलीमीटर प्रति लीटर की दर से छिड़काव करें.

स्पाइनोसैड 45 एससी, इंडोक्साकार्ब व थायोमेंक्जाम 70 डब्ल्यूएससी की 1 मिलीमीटर प्रति लीटर की दर से इस्तेमाल करें.

तंबाकू की सूंड़ी : इस के पतंगे भूरे रंग के होते हैं व ऊपरी पंख कत्थई रंग का होता है, जिस पर सफेद लहरदार धारियां पाई जाती हैं. इस के पिछले पंख सफेद रंग के होते हैं. मादा पत्तियों की निचली सतह पर लगभग 250 से 300 अंडे झुंड में देती है, जो भूरे रंग के रोएं से ढके रहते हैं. ये रोएं मादा के पेट से गिर जाते हैं. इन अंडों से 3 से 5 दिनों में पीलापन लिए हुए गहरे हरे रंग की सूंडि़यां निकलती हैं.

नुकसान की पहचान : ये सूंडि़यां नुकसानदायक होती हैं. शुरू में सूंडि़यां झुंड बना कर पत्तियों को खाती हैं, जो अपने काटने व चबाने वाले मुखांगों से पौधों की पत्तियों को काट कर नुकसान पहुंचाती हैं. इस के अलावा इस कीड़े की सूंडि़यां पौधे की शिराओं, बीच की शिरा और डंठल व पौधे की कोमल टहनियों को भी खा जाती हैं. कभीकभी ये रात के समय बहुत ज्यादा नुकसान पहुंचाती हैं. इस की सूंडि़यां पत्तियों को खा जाती हैं, जिस से पौधे ठूंठ रह जाते हैं. टमाटर के अलावा इस का प्रकोप फूलगोभी, तंबाकू, टमाटर व चना वगैरह पर पाया जाता है.

रोकथाम : सूंड़ी के गुच्छों को हाथ से पत्ती समेत तोड़ कर खत्म कर देना चाहिए.

खेत में 20 फेरोमोन ट्रैप प्रति हेक्टेयर की दर से लगाएं.

खेत में चारों ओर अरंडी की फसल की बोआई करें.

ट्राइकोग्रामा कीलोनिस 1.5 लाख प्रति हेक्टेयर या किलोनिस ब्लैकबर्नी या टेलिनोमस रिमस के 1,00,000 अंडे प्रति हेक्टेयर 1 हफ्ते के अंतर पर छोड़ें.

पूर्ण विकसित सूंडि़यों पर टेकेनिड मक्खी, स्टरनिया एक्वालिस व चिवंथेमियो, परजीवी का इस्तेमाल करें.

एजेंटेलिस प्रोडीनी इस की सूंडि़यों का परजीवी है.

5 किलोग्राम धान का भूसा, 1 किलोग्राम शीरा, 0.5 किलोग्राम कार्बरिल को मिला कर पतंगों को आकर्षित करें.

एसएलएनपीवी 250 एलई का प्रति हेक्टेयर की दर से 8-10 दिनों के अंतर पर छिड़काव करें.

1 किलोग्राम बीटी का प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें.

फसल में जहर चारा 12.5 किलोग्राम राईसबीन, 1.25 किलोग्राम जगेरी, कार्बेरिल 50 फीसदी डब्ल्यूपी 1.25 किलोग्राम 7.5 लीटर पानी के घोल का शाम के समय छिड़काव करें जिस से जमीन से सूंड़ी निकल कर जहर चारा खा कर मर जाएंगी.

सूंडि़यों के नियंत्रण के लिए इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एसएल एसिटामिप्रिड क्लोरोपायरीड या थायोमेक्जाम की 1.0 मिलीमीटर मात्रा प्रति लीटर की दर से प्रयोग करें.

पत्ती का फुदका : इस कीड़े का रंग हरा भूरा स्लेटी हरा होता है. यह हलकी सी आहट से उड़ जाता है. इस कीड़े की मादा सुबह या रात को पत्तियों की नसों में 15-25 अंडे देती है. ये अंडे 4 से 11 दिनों में फूट जाते हैं और इन से छोटेछोटे फुदके निकलते हैं.

नुकसान की पहचान : फुदके के जवान व निम्फ दोनों ही पत्तियों का रस चूसते हैं और पौधों को काफी नुकसान पहुंचाते हैं, जिस से पौधों की पत्तियां पीली पड़ जाती हैं. बाद में भूरी हो कर सूख जाती हैं. कुछ समय बाद पौधे भी सूख जाते हैं. यह नुकसान कीट की जहरीली लार के कारण होता है.

रोकथाम : जरूरी मात्रा में खादों का इस्तेमाल करना चाहिए.

कीड़ों का प्रकोप होने पर यूरिया का इस्तेमाल रोक देना चाहिए.

फसल के ऊपर मिथाइल डिमेटोन 25 ईसी या डाईमेथोएट 30 ईसी का 600 मिलीलीटर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें.

इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एसएलसी की 1.0 मिलीलीटर मात्रा का प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें.

सफेद मक्खी : इस कीड़े के निम्फ जूं की तरह मूलायम, पीले, धुंधले व सफेद होते हैं. निम्फ व जवान दोनों ही पत्ती की निचली सतह पर बैठना पसंद करते हैं. ये कीड़े पूरे साल फसल को नुकसान पहुंचाते हैं. लेकिन सर्दियों में इन का प्रकोप ज्यादा रहता है. इन के शरीर पर सफेद मोम जैसी परत पाई जाती है. मादा मक्खी पत्तियों की निचली सतह पर 100 से 150 तक अंडे देती है. निम्फ अवस्था 81 दिनों में पूरी हो जाती है.

नुकसान की पहचान : इस का प्रकोप पूरे साल फसल के समय में बना रहता है, साथ ही दूसरी फसलों पर पूरे साल इस का प्रकोप पाया जाता है. निम्फ व जवान पत्तियों की निचली सतह पर झुंड में पाए जाते हैं, जो पत्तियों की कोशिकाओं से रस चूसते हैं, जिस से पौधे की बढ़वार रुक जाती है. इस के अलावा ये वायरस से पैदा होने वाला रोग फैलाते हैं, जिस से पत्तियां कमजोर हो जाती हैं और हरियाली खत्म होने के कारण गिर जाती हैं.

रोकथाम : फसल देर से न बोएं व सही फसलचक्र अपनाएं. 1 साल में 1 ही बार कपास की फसल बोएं.

परपोषी फसलें जैसे टमाटर व अरंडी बीच में लगाएं.

पीले चिपचिपे 12 ट्रैप प्रति हेक्टेयर के हिसाब से इस्तेमाल करें.

काइसोपरला कार्निया के 50, 000 से 10,0000 अंडे प्रति हेक्टेयर की दर से छोड़ें.

कीड़े लगे पौधों पर नीम का तेल 5 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करें या मछली रोसिन सोप का 25 मिलीग्राम प्रति लीटर की दर से पानी में घोल बना कर छिड़काव करना चाहिए.

कीट की संख्या ऊपर जाते ही मेटासिस्टाक्स 25 ईसी या डाइमिथोएट 30 ईसी 1 मिलीमीटर प्रति लीटर पानी का छिड़काव करें.

इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एसएल या थायोमेक्जाम 25 ईसी 1 मिलीमीटर प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करें.

माहू या चेपा : इस कीट को आलू का माहू भी कहते हैं. यह गहरे हरे काले रंग का होता है. माहू के निम्फ छोटे व काले होते हैं व झुंड में पाए जाते हैं. वयस्क अवस्था 2 प्रकार की होती है, पंखदार व पंखहीन. इन का आकार लगभग 2 मिलीमीटर होता है. इन के पेट पर 2 मधुनलिकाएं होती हैं, जिन्हें कूणिकाएं कहते हैं. निम्फ की अवस्था 7 से 9 दिनों तक रहती?है. हरापन लिए वयस्क 2-3 हफ्ते तक जिंदा रहते हैं व प्रतिदिन 8 से 22 बच्चे पैदा करते हैं. इस का प्रकोप दिसंबर से मार्च तक ज्यादा होता है.

नुकसान की पहचान : इस के निम्फ व वयस्क पत्ती, पुष्प डंठल व

पुष्प वृंत से रस चूसते हैं, जिस से पत्तियां किनारों से मुड़ जाती हैं व कीड़े की पंखदार जाति टमाटर में वायरस से पैदा होने वाला रोग भी फैलाती है. ये चिपचिपा मधुरस अपने शरीर के बाहर निकालते हैं, जिस से पत्तियों के ऊपर काली फफूंद देखी जा सकती है, जिस से

पौधों की प्रकाश संश्लेषण क्रिया पर बुरा असर पड़ता है.

रोकथाम : माहू का प्रकोप होने पर पीले चिपचिपे जाल को इस्तेमाल करें जिस से माहू ट्रैप पर चिपक कर मर जाएं.

परभक्षी काक्सीनेलिड्स या सिरफिड या क्राइसोपरला कार्निया का प्रयोग कर 50,000 से 10,0000 अंडे या सूंड़ी प्रति हेक्टेयर की दर से छोड़ें.

नीम का अर्क 5 फीसदी या 1.25 लीटर नीम का तेल 100 लीटर पानी में मिला कर छिड़कें.

बीटी का 1 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए.

आवश्यकता होने पर इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एसएल या डाइमिथोएट 30 ईसी या मिथाइल डेमीटान 25 ईसी 1 लीटर का प्रति हेक्टेयर छिड़काव करना चाहिए.

पत्ती का सुरंग कीड़ा : इस कीड़े के मैगट ही मुख्य रूप से नुकसान पहुंचाते हैं. वयस्क मादा पत्तियों में छेद कर के अंडे देती है, जिन से 2-3 दिनों बाद मैगट निकल कर पत्तियों में सफेद टेढ़ीमेढ़ी सुरंगें बना कर पत्तियों के हरे भागों को खा कर नष्ट कर देते हैं.

पुराने पत्तों में सफेद लंबी गोलाकार सुरंगें देखी जा सकती हैं, जबकि नए पत्तों में ये सुरंगें छोटी व पतली होती हैं. इस के प्यूपा भूरेपीले रंग के होते हैं. इस के प्रकोप से पत्तियां मुरझा कर सूख जाती हैं.

रोकथाम : इस से बचाव के लिए

4 फीसदी नीम गिरी चूर्ण का पानी में घोल बना कर छिड़काव करें. इस के अलावा निंबीसिडीन 1 से 2 लीटर प्रति हेक्टेयर या लहसुन

7 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर या कानफिडेर

0.3 मिलीमीटर या इंडोसल्फान 2 मिलीमीटर का प्रति लीटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करने से भी इस से बचाव हो जाता है.

इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एसएल स्पाइनोसेड 45 एससी या थायोमेथ्योम्जाम 70 डब्ल्यूएस की 1 मिलीलीटर मात्रा प्रति लीटर की दर से प्रयोग करें.

जड़गांठ नेमाटोड : वयस्क मादा नाशपाती के आकार की गोल होती है. इस का अगला भाग पतला और अलग सा मालूम होता है. एक मादा लगभग 250 से 300 अंडे देती है. अंडों के अंदर ही डिंभक पहली अवस्था पार करते हैं. इन से जो द्वितीय अवस्था के डिंभक बनते हैं, वे मिट्टी के कणों बीच रेंगते रहते हैं और जड़ों  से चिपक जाते हैं.

परपोषी के अंदर डिंभक में 3 निर्मोचन और होते हैं. नेमाटोड की शोषण क्रिया से पौधे के नए उत्तकों में तेजी से विभाजन होता है, उन की कोशिकाओं का आकार बढ़ जाता है और इस प्रकार ग्रंथियों का जन्म होता है. इन्हीं ग्रंथियों के अंदर नेमाटोड एक फसल से दूसरी फसल तक जीवित रह कर हमला करता है.

नुकसान की पहचान : इस नेमाटोड के असर से जड़गांठ रोग पैदा होता है. इस के लगने से पौधे मरते नहीं बल्कि गांठों पर कई रोग पैदा करने वाले और मृतजीवी कवकों व जीवाणुओं के आक्रमण से संपूर्ण जड़ सड़ जाती है. पौधों में गलने के लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं, जिस से पौधे की बढ़वार रुक जाती है, पत्तियां छोटी व पीली पड़ जाती हैं. फल बहुत कम लगते हैं और कभीकभी पौधे सूख भी जाते हैं.

रोकथाम : परपोषी फसलों को लगातार एक ही खेत में उगाने से नेमाटोड की संख्या बढ़ती है, इसलिए सही फसलचक्र अपना कर इस का प्रकोप कम किया जा सकता है.

गरमियों में खेत की 2-3 बार गहरी जुताई कर के मिट्टी को अच्छी तरह सूखने से डिंभक मर जाते हैं.

नेमाटोड का अधिक प्रकोप होने पर नेमाटोडनाशी का प्रयोग करना चाहिए. इस के लिए डीडी 300 लीटर, निमेगान 18 लीटर या फ्यूराडान 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से फसल रोपने के 3 हफ्ते पहले जमीन पर डालना चाहिए.

प्रतिरोधी प्रजातियों का इस्तेमाल करना चाहिए.

मिट्टी में कार्बनिक पदार्थों के मिलने से भी इस नेमाटोड की रोकथाम में काफी मदद मिलती है. लकड़ी का बुरादा, नीम या अरंडी की खली 25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की दर से फसल लगाने से 3 हफ्ते पहले खेत में मिलाने पर जड़गांठ की संख्या में काफी कमी देखी जा सकती है.

निंबोली से रोजगार

हरेभरे नीम के पेड़ गांवदेहात से ले कर शहरों के गलीमहल्ले और बड़ी सड़क के किनारे से ले कर हर जगह देखने को मिल जाते?हैं. शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो जो नीम के पेड़ के बारे में न जानता हो. नीम के पेड़ की हर चीज फायदेमंद होती?है, चाहे वह पत्ती हो, छाल हो या फल निंबोली. नीम की इसी निंबोली को रोजगार का जरीया बनाया गुजरी, मध्य प्रदेश के किसान अभिषेक गर्ग ने. उन्होंने हजारों आदिवासियों को रोजगार भी दिया. गुजरी में उन्होंने नीम का तेल निकालने और खली पाउडर बनाने का प्लांट भी लगाया. ये दोनों ही उत्पाद जैविक खेती में कीटनाशक और पोषक तत्त्वों के रूप में काम आ रहे?हैं.

अभिषेक गर्ग ने बताया, ‘‘जब मैं ने इस काम की शुरुआत की थी, तो उस समय पूरी दुनिया की नजर भारत के नीम, बासमती चावल व हलदी पर लगी हुई?थी. हमारे क्षेत्र को निमाड़ क्षेत्र कहा जाता?है. निमाड़ का मतलब होता?है नीम की आड़. उस समय कृषि विशेषज्ञ डा. गुरपाल सिंह जरयाल ने मेरा ध्यान नीम की ओर दिलाया. जो निंबोली उस समय पानी में ऐसे ही बही जा रही थी, उसी निंबोली को इकट्ठा करने के लिए मैं ने अपने आसपास के क्षेत्रों के लोगों को जोड़ना शुरू किया. गांवों में जा कर लोगों से मिल कर उन्हें निंबोली इकट्ठा करने के लिए जागरूक किया, जिस का मुझे अच्छा परिणाम मिला.

‘‘आज मैं इन्हीं लोगों के जरीए गांवों से हर साल औसतन 1 हजार टन निंबोली इकट्ठा करता हूं. इस से आदिवासियों को तो काम मिला ही, स्थानीय लोगों को रोजगार भी मिला,

‘‘कृषि विशेषज्ञ डा. गुरपाल सिंह जरियाल और कृषक राम पाटीवार की मदद से साल 2010 में गुजरी गांव में ही निंबोली से तेल बनाने का प्लांट लगाया. आज हमें हर साल 1 हजार टन निंबोली मिल रही?है. इस से 10 हजार लीटर तेल तैयार हो रहा है और 5 हजार किलोग्राम खली पाउडर तैयार हो रहा?है.’’

कैसे बनाते हैं तेल

अभिषेक गर्ग बताते?हैं कि आदिवासियों से खरीद कर पकी निंबोली को पहले अच्छी तरह सुखाया जाता?है, ताकि उस में से पानी निकल सके. बाद में उस का छिलका और डंठल अलग किए जाते?हैं, फिर बीज को मशीन में डाला जाता है. तेल निकलने के बाद बची खली को सुखा कर उस का पाउडर तैयार किया जाता?है.

खली पाउडर का इस्तेमाल

रासायनिक उर्वरकों से खराब होती जा रही खेती की जमीन को बचाने के लिए आजकल जैविक खेती का प्रचलन तेजी से बढ़ता जा रहा है. जैविक खेती में ही निंबोली का तेल और खली दोनों का बहुतायत से इस्तेमाल हो रहा है. निंबोली का तेल कीटनाशक का काम भी करता?है और खली में खेती की जमीन के लिए जरूरी 16 पोषक तत्त्वों से ज्यादा तत्त्व होते?हैं. खली का पाउडर बना कर खेत में बिखेरा जाता है. 1 हेक्टेयर जमीन में 5 क्विंटल नीम खली पाउडर का इस्तेमाल होता है और कीटनाशक के तौर पर 3 लीटर नीम तेल में काम हो जाता है.

उपज व उत्पादन

आमतौर पर नीम का पेड़ 5-6 साल का होने के बाद ही फल देता है. औसतन एक पेड़ से 30-50 किलोग्राम निंबोली और 350 किलोग्राम पत्तियां हर साल मिल जाती?हैं. नीम का एक पेड़ तकरीबन 100 सालों तक फल देता है.

30 किलोग्राम निंबोली से 6 किलोग्राम नीम का तेल और 24 किलोग्राम खली आसानी से मिल जाती है. तेल निकालने के बाद बची खली बहुत ही असरदार कीटनाशक व खाद का काम करती?है.

कैसे करें इकट्ठा

जब निंबोली जम कर पीली होने लगे तो समझ जाना चाहिए कि अब आप इन्हें इकट्ठा कर सकते?हैं. निंबोली चूकि एकसाथ न पक कर धीरेधीरे महीनों तक पकती रहती है और पक कर अपनेआप गिरती रहती?है, इसलिए पेड़ के नीचे झाड़ू लगा कर साफसफाई रखें, जिस से निंबोली इकट्ठा करते समय जगह साफसुथरी हो. पेड़ की टहनियों को हिला कर भी निंबोली इकट्ठी की जा सकती?हैं. बांस आदि के डंडे से टहनियों को हिलाया जा सकता?है. निंबोली को 2-3 दिनों तक खुली हवा में छोड़ देना चाहिए, जिस से उन का गूदा मुलायम हो जाए.

अभिषेक गर्ग ने आगे बताया, ‘‘मैं तो मूल रूप से किसान हूं. मैं यह चाहता था कि बेकार जाने वाली निंबोली का इस्तेमाल कैसे हो और इस से लोगों को रोजगार भी मिले. मुझे इस काम में सफलता मिली और अब तो देशभर के कई लोग मुझ से इस काम की जानकारी लेने के लिए संपर्क भी कर रहे?हैं.

‘‘आज हम ने ‘श्री राम एग्रो प्रोडक्ट’ के नाम से नीम की इकाई भी लगा रखी है, जिस में नीम से बनने वाले जैविक और प्राकृतिक कृषि उत्पादों को बनाया जा रहा है.’’ निंबोली के बारे में ज्यादा जानकारी के लिए आप अभिषेक गर्ग से उन के मोबाइल नंबर 09993441010 पर संपर्क कर सकते हैं.

देशी नस्ल की गायों का बढ़ेगा वजूद

भारत दूध के उत्पादन के मामले में हमेशा आगे रहा है, मगर उस की देशी गायों को मामलू ही माना जाता रहा है. जर्सी जैसी विदेशी गायों की बहुत ज्यादा दूध देने की कूवत के मुकाबले भारतीय गायें कहीं नहीं टिक पाती थीं, मगर अब हालात बदल रहे हैं. ग्लोबल वार्मिंग के खतरे ने दुनिया को हिला कर रख दिया है और तमाम मामले गड़बड़ा गए हैं. रोजाना इस्तेमाल किया जाने वाला दूध भी एक खास मुद्दा है. माहिरों का मानना है कि जलवायु में होने वाले बदलाव से दूध के उत्पादन में भारी कमी आएगी. वैज्ञानिकों का कहना है  दूध के उत्पादन में कमी होने के खतरे से गायों की देशी नस्लें ही बचा पाएंगी.

करनाल के ‘राष्ट्रीय डेरी अनुसंधान संस्थान’ (एनडीआरआई) में अब तक हुए कई शोधों के बाद यह नतीजा सामने आया है. पिछले 5 सालों से ‘नेशनल इनोवेशंस इन क्लाइमेट रेसीलिएंट एग्रीकल्चर’ (एनआईसीआरए) प्रोजेक्ट के तहत चल रहे शोध का नतीजा भी यही है कि ग्लोबल वार्मिंग के खतरे से देशी नस्ल की गायें ही बचा सकती हैं. शोध से यह बात सामने आई है कि विदेशी और संकर नस्ल के दुधारू पशुओं की तुलना में देशी गायों में ज्यादा तापमान झेलने की कूवत होती है, लिहाजा जलवायु में होने वाले बदलावों से वे कम प्रभावित होती हैं. दरअसल देशी गायों की खाल यानी चमड़ी गरमी सोखने में मददगार होती है. देशी गायों में कुछ ऐसे जीन भी पाए गए हैं, जो गरमी सहने की कूवत में इजाफा करते हैं.

एनडीआरआई के वैज्ञानिकों का कहना है कि गरमी और सर्दी में अधिकतम और न्यूनतम तापमान में जरा से फर्क का असर पशुओं के दूध देने की कूवत पर पड़ता है. तमाम खोजों से मालूम हुआ है कि गरमी में 40 डिगरी से ज्यादा और सर्दी में 20 डिगरी से कम तापमान होने पर दूध के उत्पादन में 30 फीसदी तक की कमी आ जाती है.

खोजों के मुताबिक तापमान ज्यादा होने से संकर नस्ल की गायों के दूध में 15-20 फीसदी तक की कमी हो सकती है, मगर देशी नस्ल की गायों पर ज्यादा तापमान का खास असर नहीं पड़ता है. यह खोज भारतीय यानी देशी नस्ल की गायों के लिहाज से अच्छी कही जा सकती है. देशी गायों को पालने वाले इस बात पर खुश हो सकते हैं. वैज्ञानिकों के मुताबिक तापमान में होने वाला इजाफा यदि लंबे अरसे तक कायम रहता है, तो पशुओं के दूध देने की कूवत के साथसाथ ??उन की प्रजनन कूवत पर भी खराब असर पड़ता है. एनडीआरआई के निदेशक डा. एके श्रीवास्तव के मुताबिक भारत में कुल दूध उत्पादन का 51 फीसदी भैंसों से, 20 फीसदी देशी नस्ल की गायों से और 25 फीसदी विदेशी नस्ल की गायों से मिलता है. लेकिन जलवायु में होने वाले बदलाव से इन आंकड़ों पर काफी फर्क पड़ेगा. यह बात दूध के कारोबारियों से ले कर वैज्ञानिकों तक के लिए चिंता का विषय है.

बरेली के ‘पशु चिकित्सा अनुसंधान संस्थान’ (आईवीआरआई) के प्रधान वैज्ञानिक डा. ज्ञानेंद्र गौड़ का कहना है कि तापमान में इजाफा होने पर संकर नस्ल के पशु बहुत ज्यादा बीमार पड़ते हैं. बीमारी की वजह से वे चारा खाना काफी कम कर देते हैं, नतीजतन उन का शरीर काफी कमजोर हो जाता है. शरीर की कमजोरी की वजह से उन का दूध भी बहुत घट जाता है. डा. ज्ञानेंद्र गौड़ ने आगे बताया कि तापमान में होने वाले इजाफे से देशी नस्ल के पशुओं पर ज्यादा असर नहीं पड़ता. वे तापमान बढ़ने पर आमतौर पर बीमार नहीं पड़ते हैं, लिहाजा उन के दूध देने की कूवत पर भी कोई खास फर्क नहीं पड़ता है. बरेली के ‘पशु चिकित्सा अनुसंधान संस्थान’ में फिलहाल 250 दूध देने वाले पशु मौजूद हैं, जो करीब 2700 लीटर दूध देते हैं. मगर तापमान में इजाफा होने से यह मात्रा घट कर 2200 लीटर तक पहुंच गई है. अपने पशुओं के दूध के आधार पर ही वैज्ञानिक नतीजे निकाल पाते हैं.

एक ही गोत्र में प्रजनन ठीक नहीं

वैज्ञानिकों ने शोधों से यह नतीजा निकाला है कि गायों की नस्लों के लिहाज से एक ही गोत्र में प्रजनन कराना ठीक नहीं है. उन का कहना है कि समगोत्र प्रजनन से पशु वंशानुगत रूप से अप्रभावी हो जाते हैं.

जालंधर की ‘दिव्य ज्योति जागृति संस्थान नूरमहल’ ने गायों की गायब हो रही देशी नस्लों के सुधार के लिए कामधेनु मुहिम चला रखी है. वहां साहिवाल, थारपारकर, हरियाणा, कांक्रेज व गिर नस्ल की गायों को बचाने के लिए सगोत्र आंतरिक प्रजनन से परहेज बरता जाता है. संस्थान से जुड़े स्वामी चिन्मयानंद और स्वामी विशालानंद ने गायों के मूत्र और गोबर की अहमियत बताते हुए कहा कि 1 गाय से 30 एकड़ जमीन पर खेती की जा सकती है. नूरमहल में फिलहाल 700 साहिवाल गायें मौजूद हैं. संस्थान की दिल्ली शाखा में भी 250 गायें हैं. संस्थान ने साहिवाल गाय से 25 लीटर तक दूध निकालने में कामयाबी पाई है. वैसे देशी नस्ल की गिर गाय ने कुछ साल पहले ब्राजील में 62 लीटर दूध देने का रिकार्ड कायम किया था.

यों तो आगामी 5 सालों में दूध उत्पादन में 30 लाख टन की गिरावट का अंदाजा लगाया जा रहा है, मगर देशी नस्ल की गायों की खूबी पर फख्र किया जा सकता है. भारत में भैंसों की 13 और गायों की 39 प्रजातियां मौजूद हैं. हालात के मुताबिक देशी गायों का वजूद दिनबदिन बढ़ता जाएगा. यह देशी नस्ल की गायें पालने वालों के लिए खुशी की बात है. ठ्ठ

कपास के खास रोग और उन का इलाज

भारत में कपास के 25 से भी ज्यादा रोग अलगअलग कपास उगाने वाले राज्यों में पाए जाते?हैं. इन रोगों में खास हैं छोटी अवस्था में पौधों का मरना, जड़गलन, उकठा रोग और मूलग्रंथि सूत्रकृमि रोग.

पौध का मरना : जमीन में रहने वाली फफूंदों जैसे राईजोक्टोनिया, राइजोपस, ग्लोमेरेला व जीवाणु जेनथोमोनास के प्रकोप से कपास के बीज उगते ही नहीं हैं. अगर उग भी जाते?हैं, तो जमीन के बाहर निकलने के बाद छोटी अवस्था में ही मर जाते हैं, जिस से खेतों में पौधों की संख्या घट जाती है व कपास के उत्पादन में कमी आ जाती है.

रोकथाम

* अच्छे किस्म के बीज का इस्तेमाल करना चाहिए.

* बोआई से पहले फफूंदनाशी, थिराम, विटाबेक्स, कार्बंडाजिम व एंटीबायोटिक्स स्ट्रेप्टोसाइक्लिन से बीजों का उपचार करना चाहिए.

जड़गलन : यह रोग देशी कपास का भयंकर रोग है. आमतौर पर इस बीमारी से 2-3 फीसदी नुकसान हर साल होता है. यह रोग जमीन में रहने वाली राइजोक्टोनिया सोलेनाई व राइजोक्टोनिया बटाटीकोला नामक फफूंद से होता है. रोग लगे पौधे एकदम से सूखने लगते हैं और मर जाते?हैं. बीमार पौधों को आसानी से उखाड़ा जा सकता है. जड़ सड़ने लगती है व छाल फट जाती है. बुरी तरह से रोग लगे पौधे की जड़ अंदर से भूरी व काली हो जाती है. हवा में और जमीन में ज्यादा नमी व गरमी रहने से व सिंचाई से सही नमी का वातावरण मिलने पर बीमारी का असर बढ़ता है. बीमारी आमतौर पर पहली सिंचाई के बाद पौधों की 35 से 45 दिनों की उम्र में दिखना शुरू हो जाती है.

रोकथाम

* मई के पहले पखवाड़े में बोआई से बीमारी कम होती है. ज्योंज्यों पछेती बोआई करते?हैं, बीमारी बढ़ती है.

* बीजोपचार कार्बंडाजिम 2 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से करना चाहिए.

* कपास और मोठ की मिलीजुली खेती से बीमारी का असर कम होता है.

* बीजोपचार बायोएजेंट ट्राइकोडर्मा

4 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से करने से रोग का असर कम होता?है.

* मिट्टी का उपचार जिंकसल्फेट

24 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से करने

से बीमारी में कमी आती?है.

* देसी कपास की आरजी 18 और सीए 9, 10 किस्मों में यह रोग कम लगता?है.

* ट्राइकोडर्मा विरिडी मित्र फफूंद 2.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर गोबर की खाद में मिला कर बोआई से पहले जमीन में देने से रोग में कमी आती?है.

उकठा : यह रोग भारत के मध्य पश्चिम इलाकों में पाया जाता?है. मध्य प्रदेश, कर्नाटक व दक्षिण गुजरात के काली मिट्टी वाले इलाकों में यह रोग बहुत होता है. रोग लगे पौधे छोटी अवस्था में मर जाते?हैं या छोटे रह जाते हैं. फूल छोटे लगते हैं व उन का रेशा कच्चा होता है. राजस्थान में देसी कपास में यह बीमारी श्रीगंगानगर व मेवाड़ कपास क्षेत्रों में

ज्यादा होती?है. यह रोग फ्यूजेरियम आक्सीस्योरम वाइन्फेटस नामक फफूंद से होता?है. रोगी पौधे को चीर कर देखने पर ऊतक काले दिखाई देते हैं.

रोकथाम

* जिन इलाकों में यह रोग होता है वहां गोसिपियम आरबोरियम की जगह पर गोसिपियम हिरसुटम कपास उगाएं.

* जड़ गलन की रोकथाम के लिए बीजोपचार कार्बंडाजिम से व भूमि उपचार जिंकसल्फेट से करना चाहिए. इस से यह रोग कम होता?है.

मूलग्रंथि रोग : यह रोग मिलाईरोगायनी नामक सूत्रकृमि के पौधों की जड़ों पर आक्रमण करने से पैदा होता है. इस रोग के कारण कपास की जड़ों की बढ़वार रुक जाती है व छोटीछोटी गांठें दिखाई देने लगती हैं. इस वजह से पौधा जमीन से पानी व दूसरे रासायनिक तत्त्वों का इस्तेमाल ठीक तरह से नहीं कर पाता है. पौधा छोटा रह जाता?है और पीला पड़ कर व सूख कर मर जाता है.

रोकथाम

* जिन खेतों में सूत्रकृमि का असर देखने को मिले उन में दोबारा कपास न बोएं.

* गरमी के मौसम में खेत में गहरी जुताई करें व खेतों को गहरी धूप में तपाएं, ताकि सूत्रकृमि मर जाएं.

* फसलचक्र में ज्वार, घासे, रीज्का की बोआई करें.

* बोआई से पहले रोग लगे खेतों का कार्बोफ्यूरान 3 जी से 45 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से उपचार करें.

कपास की पत्तियों पर

लगने वाले रोग

कपास की फसल में फफूंद, जीवाणु व वायरस के असर से पत्तियों पर कई बीमारियां लग जाती?हैं.

इन रोगों की वजह से पौधों की पत्तियां भोजन ठीक तरह से नहीं बना पातीं. कपास के डोडे सड़ जाते हैं, फल कम बनते?हैं व कपास के रेशे की किस्म अच्छी नहीं रहती है. पत्तियों की मुख्य बीमारियां हैं शाकाणु झुलसा, पत्तीधब्बा व लीफ कर्ल.

शाकाणु झुलसा : कपास का यह भयंकर रोग जेंथोमोनास एक्सोनोपोडिस मालवेसिएरम जीवाणु बैक्टीरिया द्वारा होता?है. यह पौधों के सब हिस्सों में लग सकता?है. इस रोग को कई नामों से जाना जाता है. रोग लगने पर बीज पत्तों पर गहरे हरे रंग के पारदर्शक धब्बे दिखाई देते?हैं.

ये शाकाणु धीरेधीरे नई पत्तियों की ओर फैलते?हैं और पौधा किशोरावस्था में ही मुरझा कर मर जाता?है. इस को सीडलिंग ब्लाइट

कहते?हैं. जब फसल करीब 6 हफ्ते की हो जाती है, तो पत्तियों पर छोटेछोटे पानी के धब्बे

बनने लगते हैं. ये धीरेधीरे बड़े हो कर कोणीय आकार लेने लगते?हैं. इसीलिए इसे कोणीय

पत्ती धब्बा रोग या एंगुलर लीफ स्पौट

कहते?हैं.

पत्तियों की नसों में भी यह रोग फैल जाता  है व उन के सहारे बढ़ता रहता?है. इसे बेनबलाइट कहते?हैं. रोग का जोर ज्यादा होने पर पत्तियां सूख कर गिरने लगती?हैं. जब रोग तने और शाखाओं पर आक्रमण करता है, तो काला कर देता?है.

रोगी भाग हवा चलने पर?टूट जाता है. डोडियों पर भी रोग का हमला हो सकता है. डोडियों पर नुकीले और तिकोने धब्बे हो जाते?हैं. धब्बों से सड़ा हुआ पानी सा निकलता?है. ज्यादा धब्बे होने पर रेशे की किस्म पर भी असर पड़ता?है.

* अमेरिकन कपास की बोआई 1 मई से 20 मई के बीच करनी चाहिए.

* कपास के बीजों को 8 से 10 घंटे तक स्ट्रेप्टोसाइक्लिन या प्लांटोमाइसीन 100 पीपीएम घोल में डुबो कर उपचारित करना चाहिए. यदि डिलिटेंड बीज है, तो उसे केवल 2 घंटे ही भिगोना चाहिए.

* फसल पर रोग के लक्षण दिखाई देते ही स्ट्रेप्टोसाइक्लिन या प्लांटोमाइसीन 50 पीपीएम और कापरआक्सीक्लोराइड 0.3 फीसदी घोल का छिड़काव करना चाहिए. इसे 15 दिनों पर दोहराना चाहिए.

पत्ती धब्बा रोग : यह रोग कपास में आल्टरनेरिया, मायरोथिसियम, सरकोस्पोरा, हेल्मिन्थोस्पोरियम नामक फफूंदों से होता?है. रोग के लक्षण पत्तों पर धब्बों के रूप में दिखाई देते?हैं. धीरेधीरे धब्बे बड़े होने से पत्ती का पूरा भाग रोग ग्रसित हो जाता?है. नतीजतन कपास की पत्तियां गिरने लगती?हैं व उपज में कमी आ जाती है.

रोकथाम : बीज को बोने से पहले बीजोपचार करना चाहिए व फसल पर रोग के लक्षण दिखाई पड़ते ही कौपरआक्सीक्लोराइड या मेंकोजेब 0.2 फीसदी घोल का छिड़काव करना चाहिए.

पत्ती मुड़न लीफ कर्ल : कपास का पत्ती मुड़न रोग सब से पहले 1993 में श्रीगंगानगर में किसानों के खेतों में देखा गया था. अब यह रोग काफी फैल गया?है. कपास का लीफ कर्ल रोग जैमिनी वायरस से होता है व सफेद मक्खी से फैलता?है.

यह रोग बीज व भूमि जनित नहीं?है. रोग के लक्षण कपास की ऊपरी कोमल पत्तियों पर दिखाई पड़ते हैं. पत्तियों की नसें मोटी हो जाती हैं, तो पत्तियां ऊपर की तरफ या नीचे की तरफ मुड़ जाती हैं. पत्तियों के नीचे मुख्य नसों पर छोटीछोटी पत्तियों के आकार दिखाई पड़ते हैं. रोगी पौधों की बढ़वार रुक जाती है, कलियां

व डोडे झड़ने लगते हैं और उपज में कमी आ जाती हैं.

रोकथाम

* रोगरोधी किस्में आरएस 875, एलआर 2013, ए 5188, शंकर जीके 151, एलएचएच 144, आरजी 8, आरजी 18 की बोआई करनी चाहिए.

* खेतों से पीलीभुटी, भिंडी, होलीहाक व जीनिया वगैरह पौधे और खरपतवार निकाल देने चाहिए.

* रोग ग्रसित पौधों में रोग के लक्षण नजर आते ही उन्हें नष्ट कर देना चाहिए.

* समय पर सिस्टेमिक कीटनाशी से वायरस फैलाने वाले कीटों को नष्ट करना चाहिए ताकि रोग आगे नहीं फैल सके.

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