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मोदी, कश्मीर, पाकिस्तान

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का पाक अधिकृत कश्मीर पर दावा करना और पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रांत में आजादी की मांग करने वालों को समर्थन देने का ऐलान करना भारतीय वोटरों को भरमाने के अलावा कुछ नहीं है. पाक अधिकृत कश्मीर को हम अपने मानचित्रों में चाहे जितना दर्शा लें, यह सच है कि एक लंबी, भीषण आणविक लड़ाई के बिना इस मामले का फैसला होना असंभव है. इसी तरह नवाज शरीफ  अगर चाहें कि जम्मू और कश्मीर घाटी कभी पाकिस्तान का हिस्सा बनेंगे तो यह 100-200 साल नहीं हो सकता.

यह सही है कि भारतीय नेताओं के लिए घाटी के मुसलिम कश्मीरियों को संभालना मुश्किल हो रहा है पर फिर भी आशा नहीं छोड़ी जा सकती कि कश्मीरी युवा बड़े, संभले हुए, कानून व्यवस्था वाले भारत का हिस्सा बनना पसंद करेंगे न कि खुद बिखराव के कगार पर बैठे, भ्रष्टाचार में गले तक डूबे, कट्टर, चीन की गोद में पल रहे पाकिस्तान के साथ जाने के.

वर्तमान जद्दोजेहद में बंदूकों का इस्तेमाल न होना और केवल पथराव से विरोध दर्शाना बताता है कि कश्मीरी पढ़ालिखा युवा अब शांति की, लेकिन इज्जतवाली, जिंदगी चाहता है जो उसे वर्तमान राज्य सरकार व केंद्रीय सरकार से मिलती नहीं दिख रही.

कश्मीरी युवा दुनिया के दूसरे युवाओं की तरह अब अपनी जगह खुद बनाना चाहता है. उसे न इसलाम से मतलब है, न शरीयत से, न जमीन के इतिहास से. कश्मीरियों को ही क्यों कहें, भारत का हर युवा चाहता तो यही है कि उसे यूरोप, अमेरिका, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड में जगह मिल जाए. उस के लिए भारत का इतिहास, भारत की राजनीति बेमतलब की है. वह अपना भविष्य बनाना चाहता है और उसे विश्वास है कि भारत में उस का भविष्य नहीं बनेगा.

भारत के ही नहीं, सीरिया, लेबनान, इराक, लीबिया के मुसलिम युवा वहां के गृहयुद्धों से तंग आ कर पड़ोसी मुसलिम देशों में नहीं जा रहे बल्कि वे समुद्र को पार कर, सैकड़ों मील पैदल चल कर, रास्ते में मिलने वाली भीख के बल पर यूरोप के रास्ते अमेरिका पहुंचना चाहते हैं. कश्मीरी और बलूची युवा उन से अलग नहीं हैं.

ऐसे में पाकिस्तान से पाक अधिकृत कश्मीर की मांग करना एक सपना देखना है, जैसा रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन देखते रहते हैं कि किसी दिन वे फिर सोवियत यूनियन जैसा साम्राज्य खड़ा कर लेंगे.

कश्मीरी युवाओं को देश में नौकरियों के अवसर देना सब से कारगर उपाय है इस समस्या को सुलझाने का. कश्मीर की जनसंख्या बढ़ रही है और घाटी में इतने संसाधन नहीं कि वह युवाओं का बोझ सह सके. कश्मीरियों के प्रति यदि विषवमन बंद हो, उन्हें देशभर में उसी तरह नौकरियां मिलें जैसे केरलियों या बिहारियों को मिली हैं तो यह समस्या अपना दम तोड़ देगी. अफसोस यह है कि हमारा समाज धर्म, जाति, उपजाति, भाषा में इतना जकड़ा है कि कुछ खास को आसानी से अपनाता नहीं है. कश्मीरी अनजाने नहीं, वे अपने ही हैं, भारतीय हैं. कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है तो कश्मीरी भी.

सोने में बदल सकता योगेश्वर का ब्रॉन्ज

ओलंपिक स्वर्ण जीतने का योगेश्वर दत्त का सपना पूरा होता दिख रहा है. भले ही रियो में वह पटखनी खा गए हों, लेकिन किस्मत के दांव पेंच से लंदन में जीता गया उनका पदक रजत के बाद अब सोने में तब्दील हो सकता है. 2012 के लंदन ओलंपिक के 60 किलो वर्ग में उपविजेता के बाद अब विजेता पहलवान भी डोप टेस्ट में पॉजीटिव पाया गया है. इस वजह से योगेश्वर को विजेता घोषित किया जा सकता है.

कुछ दिन पहले ही रूसी पहलवान बेसिक कुदुखोव का सैंपल पॉजीटिव पाया जाने के बाद योगेश्वर दत्त के कांस्य पदक को रजत में तब्दील किया जाने वाला था. कुदुखोव की 2013 में एक कार दुर्घटना में मौत हो गई थी. अब 2012 के स्वर्ण पदक विजेता अजरबैजान के टोगरुल एस्गारोव का सैंपल भी पॉजीटिव पाया गया है.

सूत्रों के अनुसार हालांकि विश्व डोपिंग रोधी एजेंसी ‘वाडा’ ने अभी तक आधिकारिक तौर पर यूनाइटेड वल्र्ड रेसलिंग (यूडब्ल्यूडब्ल्यू) को इसकी जानकारी नहीं दी है. भारतीय कुश्ती संघ के अधिकारियों का कहना है कि फिलहाल उन्हें इस तरह की कोई जानकारी नहीं है.

अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक समिति (आईओसी) ने बीजिंग-2008 और लंदन-2012 के विजेताओं के सैंपल को रखा हुआ था, जिनकी उच्च तकनीक के जरिए दोबारा जांच की जा रही है.

योगेश्वर के सैंपल की भी होगी जांच

हालांकि पदक मिलने से पहले योगेश्वर दत्त के सैंपल को भी फिर से जांचा जाएगा. इसके बाद ही उनके पदक को स्वर्ण में बदला जा सकेगा.

रजत मिलने पर जताई थी हैरानी

कुछ ही दिन पहले जब योगेश्वर दत्त के कांस्य पदक को रजत में तब्दील किया गया था, तो उन्होंने हैरानी जताते हुए कहा था कि उन्हें समझ नहीं आ रहा है कि वह रियो की हार पर दुखी हों या लंदन की जीत का जश्न मनाऊं.

पदक लेने से कर दिया था इनकार

एक अच्छे खिलाड़ी के साथ-साथ बेहतर इंसान होने का परिचय देते हुए योगेश्वर ने ट्वीट किया था, ‘बेसिक कुदुखोव एक शानदार पहलवान थे. उनकी मृत्यु के बाद डोप टेस्ट में फेल हो जाना दुखद है. मैं खिलाड़ी के रूप में उनका सम्मान करता हूं. अगर हो सके तो यह पदक उन्हीं के पास रहने दें. उनके परिवार के लिए भी सम्मानपूर्ण होगा. मेरे लिए मानवीय संवेदना सर्वोपरि है.’

लंदन में रेपचेज में जीता था कांस्य

हरियाणा के इस पहलवान ने लंदन में प्यूर्टो रिको के फ्रैंकलिन गोमेज, ईरान के मौसूद इस्माइलपुर और उत्तर कोरिया के रि जोंग म्योंग को हराया था.

रियो में पहले ही दौर में बाहर

रियो ओलंपिक में पूरे देश को योगेश्वर से स्वर्ण पदक की उम्मीदें थीं, लेकिन वह पहले ही दौर में मंगोलिया के पहलवान गैंजोरिजिन से हारकर बाहर हो गए थे.

पीपीपी परियोजनाओं के फायदे की नई नीति

सरकार ढांचागत विकास को गति देने के लिए सरकारी-निजी भागीदारी (पीपीपी) आधार पर विकास को और अधिक गति देने के लिए निजी क्षेत्र के निवेशकों को नियमों में ढील दे रही है. पीपीपी आधार पर चल रही परियोजनाओं में निजी क्षेत्र के निवेशकों को आकर्षित करने के लिए उन्हें सभी क्षेत्रों में, घाटे की स्थिति में परियोजना से हटने की छूट देने का फैसला लिया गया है. निवेशकों को अब तक सिर्फ सड़क परिवहन क्षेत्र की परियोजनाओं में ही इस तरह की सुविधा उपलब्ध थी. अब सरकार ने सभी मंत्रालयों की परियोजनाओं में यह सुविधा शुरू करने का निर्णय लिया है ताकि निजी क्षेत्र के निवेशक ढांचागत विकास की परियोजनाओं में शामिल होने के लिए उत्साहित रहें.

सड़क परिवहन क्षेत्र में सरकार ने पिछले वर्ष ही निवेशकों को यह सुविधा दी थी और इस का परिणाम यह हुआ कि सड़क परियोजनाओं में पीपीपी आधार पर काम करने वाले निवेशक तेजी से आ रहे हैं. सरकार का कहना है कि विकास परियोजनाओं से जुड़े निजी क्षेत्र के निवेशकों को कीमतें बढ़ने से परियोजनाओं को जारी रखने में कई बार भारी वित्तीय नुकसान होता था और कंपनियां बंद हो जाती थीं. इस से परियोजना तो लटक ही जाती थी, साथ ही कई लोग बेरोजगार भी हो जाते थे. इस नुकसान के आकलन के मद्देनजर सरकार का यह निर्णय सही प्रतीत होता है.

यह अलग बात है कि भारतीय अर्थव्यवस्था पर नजर रखने वाले केंद्र सीएमआईईओ की एक रिपोर्ट के अनुसार इस समय देश में करीब सवा 11 लाख करोड़ रुपए की परियोजनाएं लंबित हैं. इन में 75 प्रतिशत परियोजनाएं निजी क्षेत्र की हैं. सीएमआईईओ का यह आंकड़ा गत 30 जून को मिली रिपोर्ट के आधार पर है. पीपीपी मोड की परियोजनाओं को दी जाने वाली इस छूट से उम्मीद है कि देश में ढांचागत विकास को गति मिलेगी और निवेशक उत्साहित रहेंगे.

पूरी तरह से निराश करती है ‘अकीरा’

‘‘अकीरा’’ खत्म होते होते दिमाग में पहला सवाल उठता है कि क्या इस फिल्म के निर्देशक ए मुरूगादास ही हैं, जो हिंदी में ‘‘गजनी’’ और ‘‘होलीडे ए सोल्जर नेवर आफ ड्यूटी’’ जैसी फिल्में निर्देशित कर चुके हैं? कहानी, निर्देशन, अभिनय व संगीत को लेकर भी यह फिल्म निराश ही करती है. फिल्म पूरी तरह से मुंबईया मसालों से भरपूर है. नयापन कुछ भी नहीं है. फिल्म की हीरो सोनाक्षी सिन्हा हैं, मगर उनमें हीरो जैसा अदम्य जोश या साहस कहीं नजर नही आता.

फिल्म की कहानी के केंद्र में जोधपुर में अपने पूरे परिवार के साथ रहने वाली अकीरा शर्मा (सोनाक्षी सिन्हा) हैं, जिसके माता पिता ने उसे बचपन में ही आत्मरक्षा के लिए जूड़ो कराटे व बाक्सिंग की ट्रेनिंग दिलायी है. पर कम उम्र में ही एक साथ चार पांच लड़कों की पिटाई कर देने की आदत के चलते अकीरा पर तेजाब फेंकने आए युवक पर ही तेजाब गिर जाता है. पर अदालत अकीरा को दोषी मानकर बाल सुधार गृह में भेज देती है. सुधार गृह से निकलने के बाद अकीरा पढ़ाई करना चाहती है, पर उसके माता पिता की मौत हो जाने के कारण उसे मुंबई अपने भाई के पास जाना पड़ता है. अकीरा का भाई मुंबई के एक कालेज में अकीरा का एडमीशन करवा देता है.

यहां मुंबई में ए सी पी गोविंद राणे (अनुराग कश्यप) की एक विवादास्पद सीडी लीक हो जाती है. और हालात ऐसे बन जाते हैं कि इसमें अकीरा फंस जाती है. अब पुलिस उसका एनकाउंटर करना चाहती है. अकीरा एनकाउंटर से बच जाती है, पर उसे पागल घोषित कर एक मनोचिकित्सक अस्पताल में भर्ती करा दिया जाता है. जहां उसे बिजली के झटके दिए जाते हैं. अब अकीरा को क्रूर पुलिस वालों से निपटना है.

इंटरवल के बाद फिल्म के लेखक, पटकथा लेखक और निर्देशक सभी भूल गए हैं कि वह फिल्म को किस दिशा में ले जाना चाहते हैं. बेचारा दर्शक सोचता है कि फिल्म कब खत्म होगी? लेखक ने फिल्म के अंदर पात्र काफी जोड़ दिए, पर इन पात्रों को कहानी के साथ ठीक से नहीं जोड़ पाया. फिल्म के संवाद भी घटिया हैं. फिल्म का क्लायमेक्स तो बहुत घटिया है. फिल्म का गीत संगीत भी आकर्षित नहीं करता.

जहां तक फिल्म में अभिनय का सवाल है, तो फिल्म देखते समय दिमाग में बार बार एक ही सवाल गूंज रहा था कि क्या फिल्म ‘‘लुटेरा’’ में पाखी राय चौधरी का किरदार निभाने वाली अदाकारा सोनाक्षी सिन्हा ही अकीरा शर्मा हैं. शायद यह उनके करियर का सबसे घटिया अभिनय है. या यूं कहें कि सोनाक्षी सिन्हा ने इस फिल्म में बेमन से काम किया है, तो शायद ज्यादा सटीक बैठेगा. यदि सोनाक्षी सिन्हा ने पूरी लगन से यह फिल्म की है तो सवाल उठता है कि क्या अभिनय के स्तर पर वह चुक गयीं? बतौर अभिनेता अनुराग कश्यप भी कुछ खास नहीं कर पाए. फिल्मकार ने कोंकण सेन शर्मा की प्रतिभा को जाया किया है.

फिल्म के अंदर ग्लैमर, रोमांस, हास्य यानी कि दर्शक को आकर्षित करने वाले सारे तत्व गायब हैं. एक्शन की भरमार है. मगर एक्शन दृष्यों में सोनाक्षी सिन्हा सुस्त व दबी हुई नजर आती हैं.

दो घंटे 19 मिनट की अवधि वाली ए आर मुरूगादास द्वारा निर्मित व निर्देशित फिल्म ‘‘अकीरा’’ के संगीतकार विशाल शेखर व कलाकार हैं-सोनाक्षी सिन्हा, अनुराग कश्यप, कोंकणा सेन शर्मा, अमित साध, अतुल कुलकर्णी.

जीएसटी पर शेयर बाजार की सधी प्रतिक्रिया

वस्तु एवं सेवाकर (जीएसटी) विधेयक के संसद में पारित होने के बाद बौंबे स्टौक एक्सचेंज यानी बीएसई की प्रतिक्रिया सधी हुई रही. ‘एक देश एक कर’ व्यवस्था को ले कर जीएसटी पर सरकार की तरफ से जो माहौल तैयार किया गया, निवेशक उस से प्रभावित नहीं हुए और उन्होंने बाजार में सधे हुए अंदाज में कारोबार किया. इस का मतलब यह हुआ कि जीएसटी को निवेशक अर्थव्यवस्था में सुधार के लिए गंभीर व्यवस्था मानते हैं और इस पर उन्होंने सामान्य रुख इख्तियार करना उचित नहीं समझा. इसी बीच, बैंक औफ इंगलैंड ने ब्याज दरों में कटौती और अर्थव्यवस्था में सुधार के लिए अप्रत्याशित उपाय किए जिस के कारण यूरोपीय और एशियाई बाजारों में जम कर उबाल आया. इस का असर बीएसई पर भी देखने को मिला और सूचकांक फिर 28,000 के मनोवैज्ञानिक स्तर को पार कर गया. इस बीच, सरकार ने अगले 5 सालों के लिए 4 प्रतिशत मूल्यवृद्धि का लक्ष्य निर्धारित करने के वास्ते एक अधिसूचना जारी की है. इसी के आधार पर नई ब्याज दर निर्धारण करने वाला पैनल मौद्रिक नीति संबंधी फैसले लेगा.

औनलाइन कारोबार में डगमगाता रोजगार

देश की एक चर्चित औनलाइन शौपिंग कंपनी फ्लिपकार्ट ने पिछले दिनों 300 से 600 कर्मचारियों की छंटनी करने के संकेत दिए हैं. करीब 30 हजार कर्मचारियों वाली इस ई-कौमर्स कंपनी में छंटनी की यह प्रक्रिया आश्चर्यजनक मानी जा सकती है. इस जैसी कंपनियों के कारोबार के बल पर देश की अर्थव्यवस्था में नई जान फूंकने का सपना सरकार भी देखती रही है. पिछले 4-5 वर्षों में देश में जिस बाजार की सब से ज्यादा चर्चा रही है वह ई-कौमर्स से जुड़ा ऐसा बाजार है जिस ने आम लोगों को घर बैठे खरीदारी की सहूलियत दी. हजारों बेरोजगार युवाओं को डिलीवरीमैन से ले कर आईटी इंजीनियर और मैनेजर जैसे शानदार रोजगार भी दिए. इसी बाजार के दम पर आईआईटी और आईआईएम जैसे संस्थानों के कैंपस प्लेसमैंट में ई-कौमर्स कंपनियां पहले दिन ही टेलैंट अपने यहां खींच कर ले जा रही थीं. लेकिन इधर इन्हीं कंपनियों और आईआईटी व आईआईएम जैसे संस्थानों के बीच नौकरियों को ले कर जो खींचतान हुई है, उस ने रोजगार के इस चमकदार विकल्प की कलई खोल कर रख दी है. 

नौकरी दे कर किया बेरोजगार

शरुआत पिछले साल ही हो गई थी. वर्ष 2015 में पुणे की एक स्टार्टअप औनलाइन कंपनी टाइनीआउल ने ऐलान किया था कि वह पुणे, गुड़गांव, हैदराबाद और चेन्नई में अपने सौ से ज्यादा कर्मचारियों की छंटनी कर रही है. यही ट्रैंड वर्ष 2016 में भी जारी रहा. इस साल औनलाइन शौपिंग कराने वाली कुछ ई-कौमर्स व आईटी कंपनियों ने इस मामले में एकतरफा कार्यवाहियां कीं. लगभग हर तरह के इलैक्ट्रौनिक सामान बेचने वाली कंपनी फ्लिपकार्ट, हैल्थकेयर स्टार्टअप पोर्टिया और ग्रौसरी पोर्टल पेपरटेप के अलावा एलऐंडटी इन्फोटैक जैसी कई कंपनियों ने नामी संस्थानों से डिगरी हासिल कर चुके युवाओं को कैंपस प्लेसमैंट के जरिए चुना था और जिन्हें बाकायदा औफर लैटर दिए थे, उन्हें इन कंपनियों ने टरकाना शुरू कर दिया. कुछ कंपनियों में तो प्लेसमैंट के 2 साल बाद भी नौजवान सिर्फ कागज पर नौकरी में थे, हकीकत में वे बेरोजगार ही थे क्योंकि कंपनी में उन की नियुक्ति या तैनाती की तारीख आगे खिसकती जा रही थी.

क्या है खतरा

यह सवाल बेहद महत्त्वपूर्ण है कि जो ई-कौमर्स कंपनियां ग्राहकों को घरबैठे शौपिंग ही नहीं करा रही हैं, बल्कि नजदीकी दुकानों के मुकाबले लगभग हर सामान भारी छूट पर दिलाती रही हैं, अचानक ऐसा कौन सा संकट आ गया  जो उन्होंने छूटों (डिस्काउंट) पर लगाम कसने के अलावा आईआईटी व आईआईएम जैसे संस्थानों से लिए गए युवाओं की नौकरी पर कैंची चलानी शुरू कर दी है. असल में, बाजार के विशेषज्ञ पिछले साल से ही इस संकट की ओर इशारा करने लगे थे. उन्होंने चेताया था कि औनलाइन शौपिंग का कारोबार बुलबुले की मानिंद जल्द ही फूटने वाला है क्योंकि इन में पैसा लगाने वाले निवेशक अपनी पूंजी वापस मांगना शुरू कर सकते हैं, जिस से ये सारी दिक्कतें पैदा होने लगेंगी.

बिड़ला समूह के चेयरमैन कुमार मंगलम बिड़ला ने कहा था, ‘‘औनलाइन शौपिंग डिस्काउंट देने वाले जिस बिजनैस मौडल पर खड़ा हुआ है, वह ज्यादा दिन तक चल नहीं सकता. इस की वजह यह है कि जिन निवेशकों की पूंजी की बदौलत ये शौपिंग वैबसाइटें भारी छूट पर सामान बेच रही हैं, वे जल्द ही अपनी पूंजी पर रिटर्न मांगना शुरू कर सकते हैं. अगर ऐसा हुआ तो ऐसी ही बुरी खबरें औनलाइन शौपिंग की वैबसाइट चलाने वालों और इन के जरिए नौकरी या कामधंधा पाने वालों को मिलेंगी. मौजूदा माहौल को देखते हुए कहा जा सकता है कि वे आशंकाएं एक झटके की तरह हमारे सामने आ खड़ी हुई हैं.

दिनोंदिन बढ़ रहा घाटा

2014-15 में अमेजौन, फ्लिपकार्ट और स्नैपडील जैसी शीर्ष 3 औनलाइन शौपिंग कंपनियों का सम्मिलित घाटा 5,052 करोड़ रुपए था. पता चला था कि इन कंपनियों को यह घाटा अपने ग्राहकों को भारीभरकम छूट पर सामान बेचने और सामान वापसी के दौरान लाने व ले जाने के खर्च को वहन करने के कारण हुआ.  फ्लिपकार्ट की सहयोगी इकाई मिंत्रा के हाथों बिकने से पहले कपड़ों और लाइफस्टाइल वस्तुओं की खरीदारी कराने वाली एक औनलाइन शौपिंग कंपनी जबौंग से जुड़े कारोबारी आंकड़ों से पता चला था कि 2013 के मुकाबले इस औनलाइन रिटेलर की बिक्री 2014 में दोगुना हो कर करीब 811 करोड़ रुपए सालाना तक पहुंच गई. पर विडंबना यह है कि इसी के साथ समान अवधि में उस का घाटा बढ़ कर 5 गुना हो गया है. बेचे जाने वाले सामानों पर दी गई छूटों के कारण यह घाटा 32 करोड़ से बढ़ कर 160 करोड़ हुआ जिसे काफी चिंताजनक माना गया. खुद फ्लिपकार्ट भी इस से बरी नहीं है. यह कंपनी कहने को तो ज्यादा बिक्री वाले सीजन में हर महीने 40 से 50 लाख डौलर के सामानों की बिक्री (डिस्काउंट और प्रमोशनल स्कीमों समेत) करती है लेकिन इन छूटों के कारण इसे भारीभरकम घाटा होता है. घाटा उठा कर सामान बेचने की नीति लंबे अरसे तक नहीं चलाई जा सकती.

ग्राहकों की बदलती आदतें

ई-कौमर्स कंपनियों के सामने एक खतरा और है. यह संकट ग्राहकों की आदतों में होने वाले बदलाव से जुड़ा है. कुछ रिसर्च कंपनियों व संगठनों जैसे बेंगलुरु स्थित नैशनल इंस्टिट्यूट फौर मैंटल हैल्थ ऐंड न्यूरोसाइंसैज और केपीएमजी आदि ने जो अध्ययन किए हैं, उन में औनलाइन शौपर्स (खरीदारों) की आदतों में बदलाव की बात कही गई है. अध्ययन में पाया गया है कि वर्ष 2012 में 3 महीने की अवधि के भीतर एक बार औनलाइन शौपिंग करने वालों की तादाद कुल औनलाइन खरीदारों का 70.90 फीसदी थी, जो वर्ष 2014 में बढ़ कर 94 फीसदी हो गई. इस खरीदारी का एक अहम पहलू यह भी रहा कि ज्यादातर ग्राहकों ने ऐसे सामान खरीद लिए जिन की उन्हें कतई जरूरत नहीं थी. उन्होंने ऐसा सिर्फ इसलिए किया क्योंकि उन्हें वे सामान दिए जा रहे डिस्काउंट के कारण बाजार के मुकाबले काफी सस्ते लग रहे थे. इस से कंपनियां तो अपना सामान बेचने में सफल रहीं, पर खरीदे गए ऐसे फालतू सामान धीरेधीरे ग्राहकों को बोझ प्रतीत होने लगे हैं और वे इन कंपनियों द्वारा वापसी की मुफ्त सुविधा का इस्तेमाल करने लगे हैं. यह बदलाव इन कंपनियों पर भारी पड़ रहा है. इसलिए वे सामान वापसी की नीति में परिवर्तन करने लगी हैं. सामान वापसी के लिए वे कुछ शर्तें लगा रही हैं, लगातार सामान लौटाने वालों पर नजर रख कर वे उन्हें सामान बेचने से परहेज बरतने लगी हैं.

कम नहीं हैं स्टार्टअप की चुनौतियां

सरकार मानती है कि भारतीय अर्थव्यवस्था को आगे ले जाने में स्टार्टअप कंपनियां अहम भूमिका निभा रही हैं. मौजूदा दौर में सरकार कई योजनाओं के तहत स्टार्टअप्स को प्रोत्साहित भी कर रही है. कई विशेषज्ञों का मानना है कि यह समय स्टार्टअप कंपनियों के लिए सर्वश्रेष्ठ है और भारत दुनिया में इस के लिए सर्वोत्तम जगह भी है. स्टार्टअप कंपनियों की मौजूदगी बढ़ने से बाजार में एक और बदलाव दिखाई दे रहा है. अब बिजनैस परंपरागत कंपनियों के बजाय स्टार्टअप कंपनियों की ओर जाता दिख रहा है. यह भी साबित हुआ है कि हमारे युवाओं में उद्यमशीलता की काफी गुंजाइश है और वे कोई जोखिम लेने में चूक नहीं रहे हैं. इन वजहों से हमारा देश दुनिया में सब से युवा स्टार्टअप मुल्क बन गया है.

आंकड़ों के मुताबिक, देश में 72 फीसदी स्टार्टअप कंपनियों के संस्थापक 35 साल से कम उम्र के हैं. यही नहीं, अब ज्यादातर युवा अपना स्टार्टअप शुरू करने को एक रुतबे की बात मानते हैं. नैसकौम 2014 की रिपोर्ट के अनुसार, देश में 3,100 स्टार्टअप थे जिन की संख्या 2020 तक बढ़ कर 11,500 होने का अनुमान है. टैक्सी बुकिंग, भोजन का और्डर, औनलाइन शौपिंग, फ्लाइट, होटल आदि की बुकिंग से ले कर कई ऐसे काम हैं जिन में पहले कई झंझट थे, पर स्टार्टअप कंपनियों ने ई-कौमर्स का सहारा ले कर ये सारे काम इतने आसान कर दिए हैं कि अब वे चुटकी बजाते हो जाते हैं. यही नहीं, अब कई बड़ी स्थापित पुरानी कंपनियों में भी स्टार्टअप कंपनियों को ले कर दिलचस्पी जग रही है और वे इस में या तो निवेश कर रही हैं या फिर अपना कामकाज इन्हें सौंप रही हैं.

ई-कारोबार की रणनीति

बीते 2-3 वर्षों में यह बात लगभग हर व्यक्ति ने नोटिस की है कि बाजार की कमान रिटेल व्यापार के हाथों से फिसल कर औनलाइन कारोबारियों के हाथों में पहुंच गई है. कपड़ों और इलैक्ट्रौनिक्स उत्पादों से ले कर गमलों और फूलफल के बीज तक औनलाइन कंपनियों की वैबसाइट पर उपलब्ध हैं और वह भी कम कीमत पर अमेजौन. वैबसाइट पर तो करीब 4 करोड़ विभिन्न उत्पादों की मौजूदगी का दावा किया जाता है. कपड़ों, जूतों से ले कर मोबाइल आदि की इतनी वैराइटियां इन की वैबसाइटों पर दिखती है, जितनी किसी शोरूम में दिखना मुमकिन नहीं. यही नहीं, कंज्यूमर आइटम्स से ले कर महंगे इलेक्ट्रौनिक्स सामानों पर भारीभरकम छूट भी मिलती है. इस के अलावा ये औनलाइन कंपनियां लगभग हर हफ्तेदोहफ्ते में किसी मेगासेल का ऐलान भी करती रहती हैं. इन्हीं औफर्स के बल पर ये कंपनियां कुछ ही घंटों में 6 अरब रुपए की बिक्री का रिकौर्ड तक बना चुकी हैं. मोबाइल इंटरनैट ने इन कंपनियों का कारोबार देश के ऐसेऐसे इलाकों में पहुंचा दिया है जहां बड़े स्टोर खोलना नुकसान की बात माना जाता है, लेकिन अब वहां के लोगों की भी इन की बदौलत शहरों में पसंद की जाने और बिकने वाली हर चीज तक पहुंच बन गई है.

पेटीएम के अलावा अब इन औनलाइन कंपनियों के अपने पेमैंट गेटवे भी हैं, जिन के जरिए ग्राहक आसानी से किसी भी चीज का भुगतान इंटरनैट से कर देता है. पर खरीदारी की जो सब से बड़ी सुविधा इन कंपनियों ने दी है, वह है कैश औन डिलीवरी की सुविधा. यानी सामान जब हाथ में आ जाए, तब उस का भुगतान करें. हालांकि मोबाइल की जगह पत्थर का टुकड़ा निकलने जैसी कुछेक घटनाएं इस मामले में हुई हैं, लेकिन इन कंपनियों ने ऐसे मामलों में ग्राहकों को संतुष्ट कर के बाजार में अपनी पैठ बनाई है. यही नहीं, नौकरी की भागमभाग और बदलती जीवनशैली ने भी इन कंपनियों का कामकाज बढ़ाया है. पहले जहां लोगों को 6-8 घंटे ही नौकरी में देने पड़ते थे, अब कई नौकरियों में अपेक्षा की जाती है कि कर्मचारी 10 से 12 घंटे काम करें और घर जा कर भी कंपनी के काम से जुड़े रहें. ऐसे में लोगों को बाजार जा कर घंटों तक सामान उलटनेपलटने व खरीदारी करने का मौका नहीं मिल पाता है. इसी तरह सड़कों और बाजारों में बढ़ते ट्रैफिक व सड़कों पर जबतब लगने वाले जाम के कारण भी लोगों को घर बैठे खरीदारी करना ज्यादा सुविधाजनक लगता है. ई-कौमर्स कंपनियों ने ऐसे कंज्यूमर्स की जरूरतों को समझा है जो आज तक औफलाइन मार्केट नहीं समझ पाए.

इस में शक नहीं है कि कोई सामान जिस कीमत पर औनलाइन कंपनियां बेच पाती हैं, उस कीमत पर वही सामान देना औफलाइन बाजार में किसी दुकानदार के लिए संभव नहीं होता. क्योंकि उसे दुकान के किराए के अलावा कर्मचारियों के वेतन, बिजली का खर्च, सामान मंगाने की लागत आदि तमाम खर्च भी वहन करने पड़ते हैं. यहीं नहीं, औफलाइन बाजार में सामान बनाने वाले मैन्युफैक्चरर के अलावा नैशनल और लोकल डिस्ट्रीब्यूटर, डीलर और रिटेलर जैसी 4-5 कडि़यां होती हैं, जो औनलाइन शौपिंग में लगभग नदारद रहती हैं. यानी औफलाइन बाजार में इन सभी का कमीशन भी उत्पाद की कीमत में शामिल होता है, जबकि औनलाइन खरीदारी में ये कमीशन नहीं के बराबर होते हैं. इस का फायदा ये कंपनियां ग्राहकों को छूट के रूप में देती हैं. लेकिन त्योहारी सीजन पर जिस तरह से ग्राहकों को हथियाने के लिए ये कंपनियां कोई सामान लागत मूल्य से कम पर बेचती हैं, वह रणनीति हमेशा नहीं चल सकती. जैसेजैसे इन कंपनियों में विदेशी निवेश के स्रोत कम होंगे, कम कीमत पर सामान बेचना इन के लिए भी मुश्किल होता जाएगा.

नेपाल में दोबारा ‘प्रचंड’

नेपाल की संसद ने 3 अगस्त को माओवादी सुप्रीमो पुष्प कमल दहल ‘प्रचंड’ को दूसरी बार नेपाल का प्रधानमंत्री चुन लिया. नेपाल के 39वें प्रधानमंत्री बने कम्युनिस्ट पार्टी औफ नेपाल माओवादी के अध्यक्ष ‘प्रचंड’ के सामने बड़ी चुनौतियां भारत से रिश्ते को सुधारना, पिछले साल के विनाशकारी भूकंप के झटके से देश को उबारना, चीन के साथ संतुलित रिश्ता बनाना और मधेशियों को उन का हक दिलाना हैं. इन सारी चुनौतियों के बीच सब से बड़ी चुनौती नया संविधान लागू होने के बाद नेपाल में राजनीतिक स्थिरता कायम करने के साथ अपनी तानाशाह वाली इमेज को तोड़ना भी है. वे चाहें तो ऐसा कर सकते हैं क्योंकि उन्हें नेपाल के सब से बड़े सियासी दल नेपाली कांगे्रस के साथ मधेशी दलों का भी समर्थन हासिल है. मधेशी दल सरकार में शामिल नहीं हैं. 595 सदस्यीय नेपाली संविधान सभा में ‘प्रचंड’ के पक्ष में 363 वोट पड़े, जबकि विरोध में 210. 22 सदस्यों ने मतदान में भाग नहीं लिया.

गौरतलब है कि सीपीएन-माओवादी ने पिछले 24 जुलाई को के पी शर्मा ओली की सरकार से समर्थन वापस ले लिया था. ओली कुल 287 दिनों तक प्रधानमंत्री रहे. ओली ने अपनी सरकार गिराने के लिए ‘प्रचंड’ और प्रमुख विपक्षी दल नेपाली कांगे्रस पर जम कर निशाना साधा. उन्होंने कहा कि ‘प्रचंड’ की पार्टी का उन की सरकार से अचानक समर्थन वापस लेना और अविश्वास प्रस्ताव लाना उन की मंशा को साफ कर देता है. वे नेपाल में किसी भी हालत में स्थिरता नहीं लाने देना चाहते हैं.

राजनीतिक अस्थिरता दूर करेंगे

प्रधानमंत्री बनने के बाद ‘प्रचंड’ ने दावा किया है कि वे नेपाल की सियासी अस्थिरता को खत्म करेंगे और नेपाल को विकास की पटरी पर लाएंगे. ‘प्रचंड’ के नाम से मशहूर कम्युनिस्ट पार्टी औफ नेपाल माओवादी के सुप्रीमो पुष्प कमल दहल ‘प्रचंड’ ने 2 अगस्त को आधिकारिक रूप से देश के प्रधानमंत्री पद की दावेदारी पेश की थी. नेपाली कांगे्रस ने उन्हें समर्थन देने का ऐलान किया था. नेपाली कांगे्रस के अध्यक्ष शेरबहादुर देउवा ने ही ‘प्रचंड’ के नाम को प्रधानमंत्री के तौर पर प्रस्तावित किया था. मधेशी दल ‘प्रचंड’ सरकार को फिलहाल बाहर से समर्थन दे रहे हैं और संवैधानिक संशोधनों के जरिए उन की मांगें पूरी होने के बाद ही वे सरकार में शामिल होने पर विचार करेंगे. सद्भावना पार्टी के महासचिव मनीष ने बताया कि सीपीएन-माओवादी, युनाइटेड डैमोक्रेटिक मधेशी फ्रंट और नेपाली कांगे्रस ने इस बात पर सहमति जताई है कि ‘प्रचंड’ की अगुआई वाली नई सरकार राजनीतिक तालमेल के आधार पर संसद में संवैधानिक संशोधन विधेयक पेश करेगी ताकि मधेशियों की समस्याओं को दूर किया जा सके.

मधेशियों को भरोसा

मधेशियों की मांगों को पूरा करना और उन्हें शांत रखना ‘प्रचंड’ के लिए बहुत बड़ी चुनौती है. मधेशी दलों का समर्थन हासिल करने के लिए ‘प्रचंड’ ने बाकायदा एक समझौतापत्र पर हस्ताक्षर किया है. नया संविधान लागू होने के बाद से मधेशी लगातार यह आरोप लगा रहे हैं कि संविधान में उन के साथ भेदभाव किया गया है. मधेशी प्रांतों का नए सिरे से सीमांकन करने और मधेशी आंदोलन के दौरान मधेशियों पर दर्ज किए गए मुकदमों को वापस लेने का भरोसा मिलने के बाद ही मधेशी पार्टियां सरकार को समर्थन देने के लिए तैयार हुई हैं.

माओवादियों की सियासत

साल 2008 में नेपाल के करिश्माई नेता बन कर उभरे ‘प्रचंड’ ने बहुत जल्द ही अपनी सियासी साख और जनता पर पकड़ खो दी थी. अपने तानाशाही रवैए की वजह से ही ‘प्रचंड’ और माओवादी जनता की उम्मीदों पर खरे नहीं उतर सके थे. साल 2006 में जब नेपाल में शांति बहाली की प्रक्रिया शुरू हुई तो उस समय ‘प्रचंड’ नेपाल की राजनीति की धुरी बन चुके थे. 1996 से 2006 तक नेपाल को गृहयुद्ध में झोंकने के बाद 2008 में हुए आम चुनाव के बाद वे नेपाल के प्रधानमंत्री बने. उस के बाद ही सोच और छवि पर चढ़ी कलई धीरेधीरे उतरने लगी. अपने बेतुके फैसलों की वजह से वे प्रधानमंत्री की कुरसी पर एक साल भी नहीं टिक सके. 18 अगस्त, 2008 से ले कर 25 मई, 2009 तक वे प्रधानमंत्री रहे और उस के बाद से अब तक नेपाल सियासी उठापटक के दौर से ही गुजर रहा है. ‘प्रचंड’ की सियासत इतनी कमजोर पड़ गई थी कि साल 2013 में हुए नेपाल संविधान सभा के चुनाव में काठमांडू निर्वाचन क्षेत्र 10 से उन्हें करारी हार का मुंह देखना पड़ा था. वे नेपाली कांगे्रस के उम्मीदवार के सी राजन से 7 हजार से ज्यादा वोट से हारे थे. राजन को कुल 20 हजार 392 वोट मिले जबकि ‘प्रचंड’ को 12 हजार 852 वोट ही मिले थे, जबकि साल 2008 में हुए संविधान सभा के पहले चुनाव में इसी सीट से ‘प्रचंड’ को भारी जीत मिली थी और उन्हें 23 हजार 277 वोट हासिल हुए थे. इस हार के बाद ‘प्रचंड’ को दोबारा तगड़ा झटका तब लगा जब काठमांडू निर्वाचन क्षेत्र एक से उन की बेटी रेनू दहल नेपाली कांगे्रस के महासचिव प्रकाश सिंह मान से बड़े अंतर से हार गई थी.

नवंबर 2013 के आम चुनाव में 601 सदस्य वाले नेपाली संविधान सभा के चुनाव में 194 सीट जीत कर नेपाली कांग्रेस सब से बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी थी. 173 सीट पा कर कम्युनिस्ट पार्टी और नेपाल (यूनीफाइड मार्क्सिस्ट ऐंड लेनिनिस्ट) यानी सीपीएन (यूएमएल) दूसरे नंबर पर रही और 80 सीट जीत कर कम्युनिस्ट पार्टी औफ नेपाल (माओवादी) तीसरे नंबर पर रही.

भारतनेपाल संधि

‘प्रचंड’ के प्रधानमंत्री बनने के बाद भारत और नेपाल की 66 साल पुरानी संधि पर एकबार फिर से काले बादल मंडराने लगे हैं.

गौरतलब है कि ‘प्रचंड’ लगातार 1950 में हुई भारतनेपाल शांति और मैत्री संधि को रद्द करने की मांग कर रहे हैं. उन की राय है कि इस संधि से सिर्फ भारत को ही फायदा हो रहा है. साल 2010 के शुरू होते ही ‘प्रचंड’ ने भारत पर यह आरोप लगाना चालू किया कि उस ने नेपाल के काफी बड़े भूभाग पर अवैध कब्जा जमा रखा है. इस के अलावा सीमा के पास भारत द्वारा कई बांधों के एकतरफा निर्माण करने का भी आरोप लगाते हुए वे कहते रहे हैं कि इस से नेपाल के काफी बड़े हिस्से में बारहों महीने पानी जमा रहता है. यह इलाका भारतनेपालचीन का जंक्शन है.

चीन का पेंच

यह बात अब दबीछिपी नहीं है कि माओवादी सुप्रीमो ‘प्रचंड’ चीन के पिछलग्गू बने हुए हैं और वे भारत को नुकसान पहुंचाने का कोई न कोई नया बहाना ढूंढ़ते रहे हैं. चीन भी भारत की घेराबंदी करने के लिए नेपाल में माओवादियों को दानापानी देता रहता है और चीन का ‘नमक’ खा कर माओवादी चीन को फायदा पहुंचाने व भारत को नुकसान पहुंचाने का हथकंडा अपनाते रहते हैं. ‘प्रचंड’ के एक करीबी नेता बताते हैं कि उन के साथ सब से बड़ी दिक्कत यह है कि वे किसी स्टैंड पर ज्यादा समय तक टिके नहीं रह पाते हैं. इस का ताजा नमूना पिछले दिनों उन की पार्टी के एक सम्मेलन में भी देखने को मिला. सम्मेलन में उन्होंने यह प्रस्ताव रखा कि नेपाल के चीफ जस्टिस की अगुआई में नया चुनाव कराया जाए. चीफ जस्टिस को कार्यपालिका का प्रमुख बनाया जाना संविधान की मूल भावना के खिलाफ नहीं है. आंतरिक संविधान चीफ जस्टिस या किसी और जज को कुछ समय के लिए इस काम को सौंपने की अनुमति देता है. सम्मेलन से वापस काठमांडू लौटने के बाद ‘प्रचंड’ अपनी इस बात से मुकर गए. उन्होंने साफ कहा कि उन की पार्टी में ऐसी कोई राय नहीं बनी है.

यह धारणा भी आम है कि माओवादी चीन के इशारों पर नाचते हैं. उन्हें अपने देश की चिंता भी नहीं है. वहीं, भारत से दुश्मनी मोल ले कर नेपाल एक कदम भी नहीं चल सकता है क्योंकि भौगोलिक स्थिति ऐसी है कि भारत हो कर ही नेपाल जाया जा सकता है. भारत अगर इस पर पाबंदी लगा दे तो नेपाल की क्या हालत होगी, इस पर ‘प्रचंड’ को गंभीरता से गौर करना होगा.

भारत-नेपाल संधि का मखौल उड़ाते रहे माओवादी

नेपाल की भौगोलिक बनावट ऐसी है कि वह भारत की मदद के बगैर एक कदम भी नहीं चल सकता है. भारत और नेपाल के बीच 1,750 किलोमीटर खुली सीमा है, जो बिहार और उत्तर प्रदेश से लगी हुई है. दोनों देशों के लोग आसानी से इधरउधर आजा सकते हैं. नेपाल जाने के लिए भारत से ही हो कर जाया जा सकता है, इसलिए नेपाल की मजबूरी है कि वह भारत से बेहतर रिश्ता बना कर रखे. भारतनेपाल शांति और मैत्री समझौता साल 1950 में किया गया था. उस के बाद से नेपाल की माली हालत को बनाने और बढ़ाने में भारत का बहुत बड़ा हाथ है.

साल 1988 में जब नेपाल ने चीन से बड़े पैमाने पर हथियारों की खरीद की तो भारत ने नाराजगी जताई और उस के बाद से दोनों के बीच दूरियां बढ़ने लगीं. साल 1991 में भारत और नेपाल के बीच व्यापार और माली सहयोग को ले कर नया समझौता हुआ. इस के बाद साल 1995 में नेपाल के तब के प्रधानमंत्री मनमोहन अधिकारी ने दिल्ली यात्रा के दौरान 1950 के समझौते पर नए सिरे से विचार करने की मांग उठाई थी. साल 2008 में जब नेपाल में माओवादियों की सरकार बनी और ‘प्रचंड’ प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने 1950 के समझौते में बदलाव किए जाने की आवाज बुलंद की. ‘प्रचंड’ की सोच है कि इस 66 साल पुराने समझौते से भारत को ज्यादा और नेपाल को काफी कम फायदा हो रहा है. सरकार गंवाने के बाद भी ‘प्रचंड’ ने भारत विरोध की सियासत जारी रखी, क्योंकि इस से जहां पहाड़ी नेपालियों का उन्हें पुरजोर समर्थन मिल सकता है, वहीं चीन को भी खुश रखा जा सकता है.

मातृत्वकालीन अवकाश का अधिकार

इन दिनों लंबी मातृत्वकालीन छुट्टी की बड़ी चर्चा है. लेकिन कुछ तो ऐसी मांएं भी हैं जिन का खुद अपना बच्चा नहीं है, किसी नवजात बच्चे को गोद लिया है. वे मांएं भी लंबे समय से मातृत्वकालीन छुट्टी की मांग कर रही थीं. मातृत्व लाभ कानून 1961 में संशोधन के बाद सरकार ने एक निर्देशिका भी जारी की है कि जिस में दत्तक अवकाश दिए जाने की बात कही गई है. संशोधन के बाद सरोगेट मां यानी किराए पर कोख देने वाली मांओं के लिए भी मातृत्वकालीन अवकाश का प्रावधान किया गया था. इसी साल जनवरी में केंद्र सरकार की ओर से किसी बच्चे को गोद लेने वाली महिलाओं को भी मातृत्वकालीन अवकाश दिए जाने पर विचार की बात कही गई थी.

गौरतलब है कि गोद लेने वाली मांओं के लिए मातृत्वकालीन अवकाश का प्रावधान कुछ राज्यों को छोड़ कर व्यापक तौर पर पूरे देश में लागू नहीं है. जहां लागू है वहां सिर्फ सरकारी महिला कर्मचारियों को ही यह सुविधा मिलती है. अगर निजी कंपनियों की बात करें तो गोद लेने वाली महिलाओं के लिए ऐसा कोई प्रावधान है ही नहीं. इला भसीन (बदला हुआ नाम) एक स्कूल में टीचर हैं. कोलकाता के दक्षिणी उपनगर संतोषपुर में रहती हैं. पिछले साल सितंबर में उन्होंने एक नवजात बच्चे को गोद लिया. दरअसल, उन के महल्ले में कूड़ेदान के पास चिथड़े में लिपटा यह बच्चा उन की आया को मिला. रोज की तरह आया एक दिन सुबह जब काम के लिए निकली, तो उसे महल्ले के कूड़ेदान में बच्चे के रोने की आवाज सुनाई दी. बच्चे को घेरे हुए कौए कांवकांव कर रहे थे. बच्चे को उठा कर वह इला के यहां ले आई. इला ने बच्चे को स्थानीय अस्पताल में भरती कराया. फिर पुलिस को सूचित किया.

पुलिस ने छानबीन की, लेकिन बच्चे को कूड़ेदान के पास छोड़ जाने वाले का पता नहीं चला. अब पुलिस बच्चे को किसी अनाथाश्रम के हवाले करने का विचार कर रही थी. इस बीच, इला ने उस बच्चे को गोद लेना निश्चित कर लिया. तमाम औपचारिकताएं पूरी करने के बाद बच्चे को वह घर ले आई. अब इस नवजात बच्चे की देखभाल जरूरी थी, सो इला ने अपने स्कूल में छुट्टी की अर्जी दे दी. 135 दिन की छुट्टी मंजूर भी हो गई. छुट्टियां खत्म हो जाने के बाद इला ने जब स्कूल जौइन किया तो पता चला कि वे छुट्टियां उन की अर्जित और मैडिकल छुट्टी से दी गई थीं. साथ में यह भी कि कहा गया कि गोद लिए गए बच्चे की देखभाल के लिए अलग से छुट्टी लेने व दिए जाने का कोई प्रावधान नहीं है.

गोद लेने का चलन

बताया जाता है कि भारत में हर साल लगभग साढ़े 6 हजार बच्चे गोद लिए जाते हैं. जबकि अनाथ बच्चों की संख्या लगभग डेढ़ करोड़ से अधिक बताई जाती है. गोद लेने का चलन सब से ज्यादा बंगाल और महाराष्ट्र में है. लेकिन बंगाल में ज्यादातर लड़कियों को ही गोद लिया जाता है, जबकि महाराष्ट्र में लड़कों को गोद लेने का चलन अधिक है. फिर भी बच्चों को गोद लेने का चलन इन दिनों बढ़ गया है. पिछले 10 सालों में दत्तक कानून में कई सुधार किए गए हैं. लेकिन जहां तक दत्तक अवकाश का सवाल है तो इस मामले में व्यापक स्तर पर कुछ भी नहीं किया गया है. दरअसल, इस बारे में सोचने की जहमत तक नहीं उठाई गई है. व्यापक स्तर पर यह सुविधा प्राप्त करने के लिए लड़ाई अभी बाकी है. इस के लिए कोलकाता की एक स्वयंसेवी संस्था ‘आत्मजा’ लंबे समय से काम कर रही है.

इस सिलसिले में भारत सरकार की निर्देशिका का श्रेय आत्मजा को ही जाता है. संस्था की सदस्य नीलांजना गुप्ता, जिन्होंने खुद भी एक बच्चा दत्तक लिया है, ने सिलसिलेवार कई मुद्दों को उठाया. उन का कहना है कि दत्तक कानून में अभी बहुत सारे सुधारों की जरूरत है. पर विडंबना यह है कि काम बहुत धीमी गति से हो रहा है. नीलांजना गुप्ता जादवपुर विश्वविद्यालय में अंगरेजी की प्राध्यापिका भी हैं, इसीलिए जब उन्होंने एक बच्ची को गोद लिया तो उन्होंने खुद भी अवकाश की जरूरत को महसूस किया. उन का कहना है कि गोद लेने के मामले में आम लोगों में भले ही जागरूकता आई है, लेकिन सरकारें अभी भी सो रही हैं. अगर अवकाश की बात की जाए तो इस के लिए हर राज्य में कानून बनना चाहिए, क्योंकि जन्म देने वाली मां की तुलना में गोद लेने वाली मां को अवकाश की ज्यादा जरूरत है. जन्म देने वाली मां का अपने बच्चे के साथ गर्भ के 9 महीने के दौरान एक आत्मीय संबंध बन जाता है. लेकिन गोद लेने वाली मां और बच्चे के बीच ऐसा संबंध बनने में देर भी लग सकती है. साथ ही, परिवार को भी बच्चे के साथ और बच्चे को परिवार के साथ एडजस्ट करने में भी समय लगता है.

इस संबंध में कोलकाता हाईकोर्ट की वरिष्ठ अधिवक्ता अरुणा मुखर्जी बताती हैं कि 2009 में केंद्र सरकार ने एक निर्देश जारी किया था, जिस में कहा गया था कि अधिकतम 1 साल के बच्चे को गोद लेने पर मां को 180 दिनों की एडौप्टिव लीव दी जाएगी, यहां तक कि पिता को भी 15 दिनों की छुट्टी मिलेगी. अरुणा मुखर्जी कहती हैं कि यूजीसी के नियम के तहत कालेज और यूनिवर्सिटी की प्राध्यापिकाएं भी केद्र सरकार के उपरोक्त निर्देश के तहत एडौप्टिव लीव की हकदार हैं.

गौरतलब है कि मध्य प्रदेश में सरकारी कर्मचारियों को बच्चा गोद लेने पर दत्तक गृहावकाश के नाम पर 67 दिनों का अवकाश दिए जाने का नियम पहले से ही था. कुछ साल पहले इस नियमावली में संशोधन करते हुए अधिकतम 2 बच्चों के लिए दत्तक गृहावकाश की मंजूरी दी गई है. वहीं, राजस्थान ने भी केंद्र के निर्देश का पालन करते हुए गोद लेने वाली सरकारी महिला कर्मचारी को मातृत्व अवकाश दिए जाने के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी है. इस प्रस्ताव को मंजूरी देने का आधार यह है कि 1 साल से कम उम्र के बच्चे की देखभाल गोद लेने वाली महिला को उसी तरह करनी पड़ती है, जिस तरह बच्चे को जन्म देने वाली मां को करनी पड़ती है. कर्नाटक और असम में भी दत्तक अवकाश का नियम है. बेहतर हो कि इस मामले में संबंधित राज्य के नियमों की जानकारी ले ली जाए. इस मामले में एक समस्या यह है कि लंबी छुट्टी से लौटने के बाद अकसर औरतों में काम के प्रति वह उत्साह नहीं रहता जिस के लिए उन्हें जाना जाता था. दफ्तरों के उबाऊ वातावरण और बच्चे की फिक्र में वे द्वंद्व में रहती हैं. ऐसे में न बच्चे की परवरिश ढंग से हो पाती है, न काम ढंग से हो पाता है. दुनिया के उन देशों में जहां बच्चे देर से किए जा रहे हैं, मातृत्व अवकाश फिर भी चल जाता है क्योंकि 10-15 साल काम करने के बाद 6 माह की छुट्टी कोई खास नहीं होती. पर जहां नौकरी, विवाह और बच्चा 3-4 सालों में हो रहा हो, वहां काम पर लौटने वाली मां आधीअधूरी रह जाती है. कहीं ऐसा न हो कि जिस जैंडर डिस्क्रिमिनेशन से औरतें निकली हैं, वह उस अवकाश के चक्कर में फिर चकतों की तरह उभर आए.

मातृत्व अवकाश के मामले में भारत का स्थान

देश    मातृत्व अवकाश

कनाडा  50 सप्ताह

नौर्वे    44 सप्ताह

भारत   26 सप्ताह

ब्रिटेन   20 सप्ताह

स्पेन   16 सप्ताह

फ्रांस   16 सप्ताह

मैक्सिको       15 सप्ताह

दक्षिण अफ्रीका  12 सप्ताह

पाकिस्तान      12 सप्ताह

मांओं की जीत

मातृत्वकालीन अवकाश पर बरसों से चल रही लड़ाई में आखिर मांओं को जीत हासिल हो ही गई. श्रम व रोजगार मंत्रालय द्वारा प्रस्तावित 1961 में बने कानून में बदलाव को राज्यसभा ने अपनी मंजूरी दे दी है. लोकसभा में इस कानून के पास होने के बाद 18 लाख महिला कर्मचारी इस से लाभान्वित होंगी.

1    2 बच्चों वाली मांओं को 26 सप्ताह का मातृत्व अवकाश मिलेगा. तीसरे बच्चे में या अन्य मामलों में अवकाश की अवधि 12 सप्ताह रहेगी.

2    अवकाश के दौरान महिलाओं को न सिर्फ पूरा वेतन मिलेगा बल्कि 3 हजार रुपए मैटरनिटी बोनस भी मिलेगा.

3    50 से ज्यादा कर्मचारी वाले प्रतिष्ठानों में शिशु कक्ष यानी क्रैच की व्यवस्था अनिवार्य होगी.

4   नवजात बच्चों के लिए क्रैच सुविधा होगी और नवजात शिशु की मां ड्यूटी के दौरान दिन में 4 बार बच्चों से मिलने जा सकेगी. इस सुविधा से स्तनपान न करा पाने के चलते कुपोषण की समस्या का समाधान होगा. गोद लेने वाली मां को जन्म देने वाली मां की तुलना में बच्चे से आत्मीय संबंध बनाने में समय लगता है, सो उस के लिए अवकाश और भी जरूरी है.

क्या रंग लाएगा शर्मिला इरोम का संघर्ष?

सुप्रीम कोर्ट ने मणिपुर में अफस्पा को ले कर जो फैसला सुनाया, उस से शर्मिला इरोम चानू की लंबी लड़ाई और उन का संघर्ष एक हद तक सफल हुआ. अफस्पा और सेना के अत्याचारों के खिलाफ पिछले 16 सालों से भूख हड़ताल पर बैठी आयरन लेडी इरोम चानू शर्मिला ने भूख हड़ताल कर के चुनाव लड़ने का फैसला लिया है. सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून 1958 (अफस्पा) के तहत सेना की मनमानी और ऐक्ट के बेजा इस्तेमाल पर कोर्ट ने नाराजगी जाहिर की. मणिपुर में सुरक्षा और चौकसी बनाए रखने के लिए सेना को अफस्पा के तहत विशेषाधिकार दिए गए हैं. लेकिन समयसमय पर राज्य में शक के आधार पर किसी को भी उठा लेना और पूछताछ के बहाने बलात्कार व बेरहमी से पिटाई को ले कर असंतोष लंबे समय से पनपता रहा है. सुप्रीम कोर्ट ने 2 दशकों में 1,528 फर्जी एनकाउंटर के मामलों की जांच के लिए स्वतंत्र समिति बनाने को भी कहा है. यह कभी बनेगी और रिपोर्ट देगी, इस का भरोसा नहीं है.

सेना की ज्यादतियों को ले कर मणिपुर मानवाधिकार संगठन और सेना के ‘व्याभिचार’ के खिलाफ सुरेश कुमार सिंह द्वारा दायर किए गए मामले की सुनवाई के दौरान सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र और राज्य सरकार के अलावा राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग से भी रिपोर्ट तलब की है. अदालत को सरकार यह भी बताए कि प्रभावित परिवार को हर्जाना दिया गया है या नहीं, दिया गया है तो कितना दिया गया है. साथ में, यह भी कि हर्जाना दिए जाने के बाद सरकार की ओर से और क्या कदम उठाए गए हैं. उधर, वादीपक्ष को सेना पर लगाए गए आरोप के तमाम सुबूतों को अदालत में पेश करने का निर्देश दिया गया है.

अफस्पा के खिलाफ विरोध प्रदर्शन अंतर्राष्ट्रीय मीडिया की सुर्खियां बनता रहा है. लगभग डेढ़ दशक से नाक में राइल्स ट्यूब लगाए शर्मिला इरोम की तसवीर से दुनिया वाकिफ है. मणिपुर की एक और तसवीर दुनिया ने देखी है, जो 12 साल पुरानी बात है. मणिपुर के विख्यात कांगला फोर्ट के सामने ‘इंडियन आर्मी रेप अस’ लिखे एक सफेद बैनर के पीछे मणिपुर की मांबहनों को बगैर कपड़े दुनिया ने देखा है. मणिपुर में अफस्पा के खिलाफ यह विरोध प्रदर्शन लंबे समय से चला आ रहा है. 1958 में उत्तरपूर्व भारत में अफस्पा लागू किया गया. मणिपुर समेत असम, त्रिपुरा, नागालैंड, मेघालय, मिजोरम, अरुणाचल प्रदेश में यह जारी किया गया था, जो आज भी जारी है.

क्या है अफस्पा कानून

यह कानून 1958 में बनाया गया था. अफस्पा कानून में सशस्त्र बल को विशेष अधिकार दिया गया है. इस कानून के प्रभाव वाले क्षेत्र में सैन्य बल किसी व्यक्ति की बिना वारंट तलाशी या फिर गिरफ्तार कर सकता है. सेना किसी के भी घर में घुस सकती है. कानून तोड़ने वालों के खिलाफ सेना फायरिंग भी कर सकती है और फायरिंग करने वाले के खिलाफ किसी भी तरह की कानूनी कार्यवाही नहीं होती. भले ही इस फायरिंग से किसी निर्दोष व्यक्ति की जान ही क्यों न चली जाए.

मणिपुर के मानवाधिकार संगठनों का कहना है कि पिछले 58 सालों में सेना के जवानों ने सुरक्षा के नाम पर केवल शक के बिना पर हजारों बेकुसूर लोगों की हत्या की है. राज्य की महिलाओं का बेरहमी से बलात्कार कर उन की हत्या कर दी गई है. अब तक बलात्कार की शिकार बहुत सारी महिलाओं ने आत्महत्या कर ली है. आत्महत्या करने वाली महिलाओं में शर्मिला की करीबी दोस्त भी हैं. पहली बार सेना पर ज्यादती का आरोप 2 नवंबर, 2000 में लगा. मणिपुर की इंफाल की घाटी में एक छोटा सा गांव है मालोम. असम राइफल्स के जवानों ने गांव के बस स्टौपेज में खड़े बेकुसूर लोगों को शक के आधार पर गोलियों से भून डाला. यह घटना मालोम गांव नरसंहार के रूप में जानी जाती है. इन 10 लोगों में 62 साल की एक महिला के साथ 18 साल का नौजवान शामिल था. 18 साल के सिनाम चंद्रमणि को 1988 में बहादुर बच्चे का राष्ट्रीय पुरस्कार हासिल था. इस घटना की खबर जब अगले दिन अखबार में प्रकाशित हुई तो पूरे मणिपुर में जैसे आग लग गई.

अगले दिन बृहस्पतिवार था. अखबार में प्रकाशित इस नरसंहार की तसवीर देख 28 साल की शर्मिला इरोम चानू का दिल दहल गया. नरसंहार के विरोध के तौर पर असम राइफल्स को वापस बुलाने और अफस्पा को हटाने की मांग को ले कर वे आमरण अनशन पर वह बैठ गईं. तब धारा 309 के तहत आत्महत्या करना एक अपराध था. हिरासत में शर्मिला की हालत बिगड़ती चली गई. तब पुलिस ने अस्पताल में भरती कराया. तब से शर्मिला की नाक में राइल्स ट्यूब लगी, जो 2014 में धारा 309 के निरस्त होने के बाद ही खुली. 10 जुलाई, 2014 को इंफाल के बामोन कंपू गांव की 32 वर्षीय थंगजाम मनोरमा को असम राइफल्स के जवानों ने पीपुल्स लिबरेशन आर्मी की सहयोगी होने के शक पर उठा लिया. अगले दिन गोलियों से छलनी उस का शव घर से 4 किलोमीटर दूरी पर मिला. पोस्टमार्टम की रिपोर्ट में उस के साथ गैंगरेप की बात कही गई थी. मनोरमा की स्कर्ट में कई लोगों के वीर्य भी पाए गए थे. बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई में जो कुछ हुआ, उस से मनोरमा की मां और उस का भाई, शर्मिला और उस का परिवार खुश हैं. दरअसल, इन सभी राज्यों में गैर हिंदू रहते हैं. ईसाई बैपिस्ट मिशनरियों के आने के पहले वे कभी बर्मी तो कभी तिब्बती राजाओं के अधीन रहते थे. वरना आमतौर पर बिलकुल स्वतंत्र कबीले में, जिन की अपनी लिखत गाथा न थी. इन का काम जंगलों से चलता था और कभीकभार असम के क्षेत्रों में लेनदेन के लिए आते थे. जिस तरह हिंदू राजा कभी दलितों, शूद्रों को अपना न बना पाए, आज के शासक भी इन्हें पुश्तैनी शत्रु ही मान रहे हैं और पूरे उत्तरपूर्व में हो रहे विद्रोह के पीछे यही वजह है.

तुम्हारे लिए

स्वप्न सौसौ सजाए तुम्हारे लिए

दीप घर में जलाए तुम्हारे लिए

गुफ्तगू फूलकलियों से की हर पहर

दो अधर खिलखिलाए तुम्हारे लिए

दर्द भी, प्रीत भी, प्यास भी, आस भी

साथ ले कर आए हैं तुम्हारे लिए

चांदतारे मुझे देख हंसते हैं अब

नाज सब के उठाए तुम्हारे लिए

आ गई मांगने की जो बारी मेरी

जिंदगी मांग लाए तुम्हारे लिए

आंसुओं से लिखी, खुशबुओं में ढली

नज्म, शायर सुनाए तुम्हारे लिए

है यही आरजू, है यही जुस्तजू

हर कोई मुसकराए तुम्हारे लिए.

       – डा. घमंडीलाल अग्रवाल

 

 

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