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किराए की कोख पर कानून

किराए की कोख पर जो कानून सरकार बनाने जा रही है वह एकदम अव्यावहारिक है. कानून का मसौदा नौकरशाहों की देन है जो हर समय यथास्थिति बनाए रखने वाला चश्मा पहनते हैं. वे जो भी कानून बनाते हैं उस का उद्देश्य जनता के अधिकार छीनना होता है और अफसरशाही के अधिकार बढ़ाना होता है. यह प्रस्तावित कानून भी कुछ ऐसा ही है. किराए की कोख के बारे में हम अपने धर्मग्रंथ कितना ही खंगाल लें, वहां इस का जिक्र नहीं मिलेगा. टैस्टट्यूब बेबी का जन्म आधुनिक चिकित्सा अनुसंधान की देन है. दुनिया के देशों के कानूनों और समाजों को बदलती तकनीक को खुले हाथों स्वीकारना चाहिए, न कि उस के विकास में अड़चनें डालनी चाहिए. यह सच है कि 20वीं सदी से पहले की मान्यताएं इन नई खोजों और तकनीकों के कारण अब खतरे में हैं.

कहने को यह किराए की कोख का कानून उन गरीब औरतों को सुरक्षा देने के लिए है जिन्हें 2-4 लाख रुपए दे कर, बाहर डिश में तैयार किया गया भू्रण, औरत के गर्भ में इंजैक्शन के जरिए प्रतिरोपित किया जाता है. इस में औरत को कोई शारीरिक हानि होती हो, ऐसा मामला सामने नहीं आया है. उस के गर्भ में एक ऐसा शिशु पलने लगता है जिस में उस के जैविक गुण नहीं होते. इस में आपत्ति क्यों हो? यह किराए की कोख कौन लेगा? वही न, जिस के अपना बच्चा नहीं हो सकता. हो सकता है अकेले युवक या औरत भी इस सुविधा के तहत किसी स्पर्म या एग डोनर के साथ अपने अंश को डिश में फर्टिलाइज करा कर बच्चा पाने की कोशिश करें. उस में भी कोई खराबी नहीं. वैसे भी हर साल लाखों बच्चे अविवाहितों के होते हैं जो गर्भपात के सहारे गिरा दिए जाते हैं. विवाह के बिना गर्भ ठहरना हमेशा से होता रहा है. पहले गर्भपात कराना आसान नहीं था, आज डाक्टर के यहां नजलेजुकाम के इलाज की तरह यह सेवा भी उपलब्ध है.

किराए की कोख का संभावित कानून व्यावहारिकता को पूरी तरह समाप्त करता है. क्या उसी तरह से जैसे देह व्यापार पूरी तरह समाप्त हो चुका है? इस कानून के अनुसार, किराए की कोख किसी संबंधी की ही हो सकती है. यानी कि बच्चा हो गया तो उसे 9 माह पेट में रखने वाली औरत उस के आसपास जीवनभर मंडराती रहेगी. यह बच्चे और उस के जैविक मातापिता पर किस तरह का मनोवैज्ञानिक व सामाजिक दबाव डालेगा, उस से उन अफसरों को कोई मतलब नहीं जिन्होंने इस कानून का मसौदा तैयार किया है. यह कानून डाक्टरों पर बहुत से नियंत्रण डालेगा. वहीं, किराए की कोख लेने वाले की शर्तों में यह शामिल है कि विवाह के 5 वर्षों बाद ही किराए की कोख के लिए किसी नजदीकी रिश्तेदार को ढूंढ़ा जा सकता है. आज के युग में जब रिश्तेदार किसी को 4 दिन घर में रखने को तैयार नहीं होते, कोई औरत पराए बच्चे को 9 माह गर्भ में रखने को तैयार होगी, यह असंभव सा है. कानून अपनेआप में एकदम अव्यावहारिक है. यह एक आधुनिक चिकित्सा सुविधा को ग्रंथों व पुरातनवादी सोच की दलदल में डुबो देने वाला है.

होना तो यह चाहिए कि किराए की कोख देने वाले के अधिकार सीमित हों और किराए पर कोख लेने वाले दंपती पर पहले ही दिन से उस औरत का बोझ और होने वाले बच्चे के विरासत के हक तय होने चाहिए ताकि अगर बच्चा कहीं अपंग हो तो किराए पर लेने वाला दंपती भाग न सके. यह तभी संभव है जब पूरी व्यवस्था कानूनी हो, समाज को स्वीकार्य हो और मैडिकल जगत उसे व्यावहारिक मानता हो. असल में यह तो मैडिकल काउंसिल की गाइडलाइनों से होना चाहिए और सरकार को केवल गार्जियनशिप ऐंड एडौप्शन ऐक्ट में परिवर्तन कर के होने वाले बच्चे को डिश से ही हक देने चाहिए थे. सरोगेट मदर होना एक तरह की आयागीरी या नैनी बनना है. जब आया महीनों शिशुओं को छाती से लगा कर पाल सकती है तो उसे गर्भ में भी रख सकती है. यह बेटा मेरा है, ये मेरी कोख से पैदा हुआ है, अब ये सार्थक शब्द नहीं हैं.

जीवन की मुसकान

हम लोग माउंट आबू घूमने गए थे. वहां एक अच्छे होटल में ठहरे थे. गरमी में माउंट आबू हिल स्टेशन जनजीवन एवं सौंदर्य से भरपूर होता है. होटल में अचानक मेरी तबीयत खराब हो गई. डाक्टर ने केवल मूंग की दाल व पतली रोटी खाने को कहा. हम परेशान थे कि इतने बड़े होटल में यह खाना कैसे मिलेगा. हमारी परेशानी देख कर होटल का केयरटेकर, जो हमारे कमरे में सभी सामान इत्यादि पहुंचाता था, बोला, ‘‘साहब, आप परेशान न हों. मेरा खाना घर से आता है. अब से मूंगदाल और रोटी आएगी. जो आप खाएंगे वही मैं भी खा लूंगा.’’ उस ने निस्वार्थ भाव से हमें 5 दिन खिलाया. चलते समय हम उसे खाने के अतिरिक्त पैसे देने लगे तो वह हाथ जोड़ कर बोला, ‘‘साहब, क्यों शर्मिंदा करते हैं. वह घर का खाना था जो हमारे अपनों ने खाया. हमें तो प्रसन्नता है. आप मेरी इस प्रसन्नता को कम न कीजिए.’’ उस ने हमें निरुत्तर कर दिया.

डा. मनोरमा अग्रवाल, बांदा (उ.प्र.)

*

मेरा बेटा आरंभ से ही बहुत ही जिज्ञासु व तेज प्रवृत्ति का था. जब देखो तब पढ़ाई करता रहता. मुझे कभी भी मौका नहीं मिला कि उस से पढ़ने के लिए या फिर अधिक अंक लाने के लिए कहूं. कम अंक आने से वह खुद ही इतना दुखी होता कि घर के सारे सदस्य चुप्पी साध कर बैठ जाते. पहली कक्षा से ले कर स्नातक तक उस ने प्रथम स्थान ही प्राप्त किया. शिक्षक बनने की इच्छा देख मैं ने उसे बीएड करा दिया.

संयोग से उसी वर्ष बिहार में 1 लाख से भी अधिक शिक्षकों की नियुक्ति हेतु शिक्षक योग्यता परीक्षा हुई जिस में मेरे बेटे ने भाग लिया. परिणाम घोषित हुआ तो उस में सारे अनट्रेंड लोगों की नियुक्ति हो गई. बेटे का उस में नाम न देख हम लोगों का जो हाल हुआ, सो हुआ, हम ने अपने बेटे को तसल्ली देने में कोई कसर नहीं छोड़ी. पर महल्ले वालों का क्या, उन लोगों को तो मौका मिलना चाहिए. बस, कह दिया कि आप के बेटे की ट्रेनिंग बेकार हो गई. उसे शिक्षक की नौकरी नहीं मिलेगी. एक तरफ मेरा दुखी परिवार और एक तरफ मेरा सुयोग्य बेटा. मैं ने भी गुस्से में कह दिया, ‘‘सरकार ने ट्रेनिंग की अनिवार्यता हटाई है, मान्यता नहीं.’’ मैं ने बेटे के आत्मविश्वास को जगाए रखने की पूरी कोशिश की कि एक दिन अचानक मेरे बेटे को केंद्रीय विद्यालय संगठन का नियुक्तिपत्र मिला. उस दिन मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा. मैं ने पूरे गांव वालों के साथ अपनी खुशियां बांटी.

अशोक कुमार महतो, सुंदरगढ़ (ओडिशा)

तू मायके चली जाएगी…

सुबह से बधाइयों का तांता लगा हुआ था. पड़ोस के दीपक व महेश ने तो मौर्निंग वाक पर ही मुझे बधाई दे दी थी. हम ने भी हंस कर उन की बधाइयों को स्वीकार किया था और साथ ही उन की आंखों में अपने प्रति कुछ जलन भी महसूस की थी. फिर तो जिसे पता चलता गया, वह आ कर बधाई देता गया. जो लोग आ न सके, उन्होंने फोन पर ही बधाई दे डाली. हम भी विनम्रता की मूर्ति बने सब से बधाइयां लिए जा रहे थे. तो आइए आप को भी मिल रही इन बधाइयों का कारण बता दें. दरअसल, कल शाम ही हमारी श्रीमतीजी हम से लड़झगड़ कर मायके चली गई थीं. हमारी 35 साल की शादी के इतिहास में यह पहली बार हुआ था कि वे हम से खफा हो मायके गईं. हां, यह बात और थी कि मुझे कई बार अपने ही घर से गृहनिकाला अवश्य दिया जा चुका था. खैर, इतनी बड़ी जीत की खुशी हम से अकेले बरदाश्त नहीं हो रही थी, तो रात को खानेपीने के दौर में ये बात महल्ले के ही राजीव के सामने हमारे मुंह से निकल गई. तभी से अब तक बधाइयों का अनवरत दौर चालू था.

पिछली रात उन बांहों की कैद से आजाद हम बड़ी मस्त नींद सोए थे. यह बात और है कि सुबह उठने के बाद हमें उन के हाथों से बनी चाय का लुत्फ न मिल पाया. पर जल्द ही अपनी भावनाओं पर काबू पाते हुए हम ने अपने मर्दाना हाथों से एक कड़क चाय बनाई, जो इत्तफाक से कुछ ज्यादा ही कड़क हो गई, बिलकुल हमारी बेगम साहिबा के मिजाज की तरह.

चाय पीतेपीते ही खयाल आया कि आखिर फेसबुक के मित्रों ने हमारा क्या बिगाड़ा है? उन से भी तो हमें यह खुशखबरी बांटनी चाहिए. हम ने कहीं सुन रखा था कि खुशियां बांटने से बढ़ती हैं तो अपनी खुशी बढ़ाने की गरज से हम ने यों ही चाय पीते हुए अपनी एक सैल्फी ले कर फेसबुक पर अपनी नई पोस्ट डाल दी. फिर तो साहब देखने वाला माहौल बन गया. लाइक पर लाइक, कमैंट्स पर कमैंट्स आते रहे. आज तक हमारी किसी भी पोस्ट पर इतने लाइक्स या कमैंट्स नहीं आए थे. हम खुशी से फूले न समा रहे थे. सुबह के 10 बज रहे थे. कामवाली बाई अपना काम खत्म कर के जा चुकी थी. अब जोरों से लगती भूख ने हमें घर से बाहर निकलने पर मजबूर कर दिया, क्योंकि हमें खाना बनाने का हुनर तो कुदरत ने बख्शा ही नहीं था. यही वह एक कमी थी जिस का फायदा हर झगड़े में हमारी श्रीमतीजी उठाती थीं. हम ने भी तय कर लिया था, बाहर खा लेंगे, पर अब इस लड़ाई में घुटने नहीं टेकेंगे. घर से बाहर निकलते ही हमारा सामना प्रेमा से हो गया, जो इत्तफाक से बाहर अपने प्यासे पौधों को पानी पिला रही थीं. हमें देख कर वे कुछ इस अदा से मुसकराईं कि हमें पतझड़ के मौसम में बसंत बहार नजर आने लगी. प्रेमा अभी कुछ महीनों पहले ही हमारे महल्ले में आई हैं.

उन के बारे में ज्यादा कोई नहीं जानता. बस, इतना ही मालूम था, 2 शादीशुदा बेटे विदेश में रहते हैं, और वे यहां अकेली. उम्र 55 से ऊपर, पर अभी भी बला की खूबसूरत नजर आती थीं. महल्ले के सभी यारों ने कभी न कभी उन की तारीफ में कुछ नगमे अवश्य सुनाए थे. खुद हम भी कहां कम थे, 62 की उम्र में भी दिल जवां था हमारा. उन की एक नजर हम पर भी कभी पड़े, इस हेतु हम ने बड़े जतन किए थे, पर आज श्रीमतीजी के हमारे साथ न होने से शायद हमारा समय चमक गया था. आज उन की इस मुसकान पर हम ठिठक कर रह गए…

नमस्ते मिहिर साहब, कहां जा रहे हैं? उन के पूछने पर जैसे हमारी तंद्रा टूटी.

जी, बस कुछ नहीं, श्रीमतीजी घर पर नहीं हैं, तो बे्रकफास्ट करने किसी रेस्तरां…

‘‘आइए चाय पी लीजिए, मैं कुछ गरमगरम बना देती हूं,’’ मेरी बात को बीच में ही उन्होंने काटते हुए कहा. एक भिखारी को अचानक ही रुपयों से भरा सूटकेस मिल जाए, हमारी हालत भी कुछ ऐसी ही हो रही थी. हम ने एक बार भी मना किए बगैर उन के इस नेह निमंत्रण को स्वीकार कर लिया. चायनाश्ते के दौरान जब कभी हमारी निगाह मिलती, दिल की धड़कनें बढ़ती हुई प्रतीत होतीं. चाय के साथ गरमगरम पकौडि़यों संग उन की मीठीमीठी बातें. अच्छा हुआ हमें डाइबिटीज नहीं थी, वरना शुगर लैवल बढ़ते देर न लगती. इस दौरान उन्होंने अपनी मेड सर्वैंट से हमारी फोटो भी क्लिक करवाई, इस समय को यादगार बनाने के लिए.

हमारी खुशी का ठिकाना न था. घर आ कर हमें अपना खाली मकान भी गुलजार लगने लगा. श्रीमतीजी के मायके जाने की असल खुशी तो हमें आज हो रही थी. कुछ आराम करने के बाद हम ने अपना फेसबुक खोला, तो उस में प्रेमा की फ्रैंड रिक्वैस्ट देख कर हम फूले न समाए. उन के हमारी फ्रैंड लिस्ट में जुड़ने से जाने कितनों के दिल टूटने वाले थे.

खैर, शाम को जब पार्क में घूमते समय हम ने यह बात अपने दोस्तों को बताई, तो आश्चर्य से भरे उन के चेहरे उस वक्त देखने काबिल थे. कइयों ने उसी समय हम से अपनी पत्नी से लड़नेझगड़ने के नुस्खे उन्हें भी सिखा देने की रिक्वैस्ट की. हम महल्ले के हीरो बन चुके थे. रात का खाना प्रकाश के घर से आ चुका था. खाना खा कर बिस्तर पर लेटते ही हमें नींद ने आ घेरा, रातभर सपनों में भी हम प्रेमा के संग प्रेमालाप में व्यस्त रहे. अगली सुबह फ्रैश हो कर चाय पीतेपीते हम ने पूरे दिन का प्रोग्राम बनाया, जिस में प्रेमा के साथ शाम को घूमने का प्रोग्राम भी शामिल था. यह सोच कर कि मौर्निंग वाक पर जाते समय ही प्रेमा को निमंत्रण दे देना चाहिए, हम ने तैयार हो कर दरवाजे की तरफ पहला कदम बढ़ाया ही था कि दरवाजे की घंटी बज उठी. इतनी सुबह कौन होगा? हम ने दरवाजा खोला. दरवाजा खोलते ही हम गश खा कर गिरतेगिरते बचे, सामने हमारी श्रीमतीजी अपना सूटकेस लिए खड़ी थीं. हम ने कुछ हकलाते हुए कहा, ‘‘तुम इस वक्त यहां?’’

‘‘क्यों अपने ही घर आने के लिए हमें वक्त देखना पड़ेगा क्या?’’ श्रीमतीजी ने अपनी जलती हुई निगाहों से मुझे घूरते हुए कहा.

‘‘नहींनहीं, यह बात नहीं है, तुम कुछ गुस्से में गई थीं न, इसलिए…’’ हम ने उन्हें याद दिलाना चाहा.

‘‘सुना है, आसपड़ोसी तुम्हारा बहुत खयाल रख रहे हैं,’’ श्रीमतीजी के तेवर हमें ठीक नहीं लग रहे थे.

‘‘चलो, अच्छा हुआ, तुम आ गईं. तुम्हारे बिना यह घर हमें काटने को दौड़ रहा था,’’ हम ने मुसकराना चाहा.

‘‘तभी तो दूसरों के घर अपना गम भुलाने गए थे तुम, है न?’’ श्रीमतीजी प्रश्न पर प्रश्न किए जा रही थीं.

‘‘मैं तुम्हारे लिए मस्त चाय बनाता हूं,’’ कहते हुए हम वहां से खिसक लिए. चाय पीते वक्त भी श्रीमतीजी की तीखी निगाहें हम पर ही टिकी थीं. कुछ देर बाद वे उठ कर घर के कामों पर नजर दौड़ाने लगीं. और हम अपनी अक्ल के घोड़े दौड़ाने लगे इस बात पर कि आखिर श्रीमतीजी इतनी जल्दी वापस क्यों आ गईं? हमारा पूर्व निर्धारित पूरा प्रोग्राम चौपट हो चुका था. फिर भी हमें तसल्ली थी कि कम से कम उन्हें हमारी कारगुजारियों के बारे में पता तो नहीं चला. अब हम ने मोबाइल पर अपने फेसबुक की अपडेट्स लेनी चाही, तो ये देख कर चौंक गए कि प्रेमाजी ने कल सुबह के नाश्ते की तसवीर फेसबुक पर डाल कर मुझे टैग किया हुआ था, यह लिख कर कि ‘हसीं सुबह की चाय का लुत्फ एक नए दोस्त के साथ’ और श्रीमतीजी ने न केवल उसे लाइक किया था, बल्कि कमैंट भी लिखा था. अब हमें उन के तुरंत लौट आने और उन की तीखी निगाहों का कारण समझ में आ गया. इस बात के लिए उन्हें क्या सफाई देंगे, इस बात पर सोच ही रहे थे कि दरवाजे पर फिर से दस्तक हुई. श्रीमतीजी ने दरवाजा खोला, तो सामने प्रेमा हमारी ही उम्र के एक अनजान व्यक्ति के साथ नजर आईं.

‘‘हाय स्वीटी,’’ उन्होंने मुसकरा कर मेरी श्रीमतीजी को गले से लगाते हुए कहा.

‘‘आओ प्रेमा, आओ,’’ श्रीमतीजी उन्हें अंदर लाते हुए बोलीं.

नमस्ते जीजाजी, प्रेमा ने मेरी ओर मधुर मुसकान बिखेरते हुए कहा.

‘जीजाजी, यह शब्द हम पर हथौड़े की भांति पड़ा. मगर फिर भी हम अपनेआप को संभालने में कामयाब रहे. तभी श्रीमतीजी ने प्रेमा के साथ आए आगंतुक का परिचय कराते हुए कहा, ‘ये हैं डा. अनिवनाश जैन, प्रेमा के पति.’

‘‘जी हां, और पिछले कुछ महीनों से मुझ से झगड़ कर अपने मायके यानी मेरे सासससुर के पास रह रहे थे. और आज आप के कारण ही हम दोबारा एक हो

पाए हैं. आप का बहुतबहुत धन्यवाद, जीजाजी,’’ कह कर प्रेमा ने दोनों हाथ जोड़ दिए.

‘‘हां मिहिर, प्रेमा मेरी कालेज की सहेली है. कुछ महीनों पहले जब यहां शिफ्ट हुई, तब एक बार अचानक ही हमारी मुलाकात हो गई और बातोंबातों में उस ने बताया कि अविनाश से किसी बात को ले कर उस की काफी कहासुनी हो गई है, और इसीलिए वह अकेली रह रही है. और तभी हमारे दिमाग में यह प्लान आया और मैं जानबूझ कर तुम से लड़ कर मायके चली गई क्योंकि मुझे मालूम था कि मेरे सामने तो तुम इस के पास जाने से रहे,’’ कह कर श्रीमतीजी बेसाख्ता हंस पड़ीं. उन के साथ प्रेमा और अविनाश भी मुसकराने लगे.

ओह, तो इस का मतलब है हमें मुरगा बनाया गया. अब शुरू से आखिर तक की सारी कहानी हमारी समझ में आ चुकी थी. श्रीमतीजी का यों लड़ कर मायके जाना, प्रेमा का प्यार जताना, हमारी फोटो फेसबुक पर डालना ताकि उसे देख अविनाश वापस आ जाए. मतलब जिसे हम अपनी जीत समझ रहे थे. वह मात्र एक भ्रम था. ‘‘लेकिन अगर अविनाश अभी वापस नहीं आते?’’

हमारे इस प्रश्न पर श्रीमतीजी मुसकुराते हुए बोलीं, ‘‘तो यह नाटक कुछ दिनों और चलता. मैं मायके से अभी वापस नहीं आती.’’

अब हमारे पास सिवा मुसकराने के और कोई चारा नहीं था. मन ही मन इस बात की तसल्ली थी कि प्रेमा के संग प्यार की पींगें न सही, साली के रूप में आधी घरवाली मिलने का संतोष तो है.

ऐसा भी होता है

हम चंडीगढ़ में रहते थे. हम रात को 9 बजे के आसपास अपने घर के सामने वाली सड़क पर टहलने के लिए निकला करते थे. एक दिन मैं और मेरे पति सड़क पर टहल रहे थे तो देखा सामने से एक युवक अपनी बाइक घसीटता हुआ आ रहा था. हमारे पास आ कर युवक रुक गया और कहने लगा कि मेरी बाइक में पैट्रोल खत्म हो गया है और मैं अपना पर्स घर में भूल आया हूं. क्या आप मेरी कुछ मदद कर सकते हैं? उस की आवाज में मजबूरी साफ झलक रही थी. मेरे पति ने जेब से पर्स निकाल कर उसे 100 रुपए का नोट थमा दिया. धन्यवाद देते हुए उस युवक ने हमारा पता पूछा ताकि वह अगले दिन पैसे लौटा सके. परंतु हम ने मना कर दिया कि कोई बात नहीं और हम आगे चल पड़े. वहां से पैट्रोल पंप काफी दूर था और मैं सोच रही थी कि बेचारे को कितना पैदल चलना पड़ेगा बाइक को घसीटते हुए. तभी बाइक स्टार्ट होने की आवाज सुन कर हम ने मुड़ कर देखा तो वह युवक बाइक पर बैठ कर हमारी आंखों के सामने से नौदोग्यारह हो गया.

मेरे पति कहने लगे, ‘‘अच्छा हुआ 100 रुपए की ही चपत लगी. मैं तो 200 रुपए देने की सोच रहा था.’’ मैं सोचने लगी कि शायद इसी तरह कई लोगों को बेवकूफ बना कर उस युवक ने कितने रुपए ठग लिए होंगे.   

स्नेह मोहन, गुड़गांव (हरि.)

*

एक वीकेंड पर मेरे बच्चों ने बाहर डिनर करने की फरमाइश की, तो पति ने कहा, ‘‘मेरा तो डिनर बाहर ही है, एक कुलीग प्रमोशन की पार्टी दे रहा है. अभी मैसेज आया है.’’ सुन कर बच्चों का मुंह उतर गया पर कोई कुछ नहीं बोला. पति बाहर चले गए तो बेटी ने कहा, ‘‘चलो मम्मी, हम दोनों ही चलते हैं.’’ मैं ने हां में सिर हिला दिया. बेटा भी दोस्तों के साथ बाहर चला गया था. हम कुछ दूर स्थित एक मौल में जा कर एक रेस्तरां में बैठ कर खाने का और्डर दे ही रहे थे कि पति भी अपने ग्रुप के साथ वहीं पधारे. हम सब चौंक कर हंस पड़े. फिर थोड़ी हायहैलो के बाद उन का ग्रुप कुछ दूरी पर बैठ गया. अपनी जगह से बैठेबैठे ही हम ने देखा कि हमारा बेटा भी अपने दोस्तों के साथ वहीं आ रहा था पर जिस तेजी से उस की नजर हम तीनों पर पड़ी, उसी तेजी से वह सब लड़कों के साथ बाहर निकल गया. एक ही मौल में, एक ही रेस्तरां में, एकदूसरे को बिना बताए, इस अप्रत्याशित मिलन पर हम चारों आज भी हंसते हैं.

पूनम अहमद, मुंबई (महा.)

लालू बने महागठबंधन के फायर ब्रिगेड

बिहार में महाठबंधन में शामिल दलों के बीच जुबानी लठ्ठ चलने से भड़की सियासी आग को ठंडा करने की कोशिश करते हुए राजद सुप्रीमो अपने मसखरी के पुराने रंग में दिखे. उन्होंने महागठबंधन और नितीश के खिलाफ मोर्चा खोलने वाले अपने नेताओं को नसीहत देते हुए कहा कि वह अपनी जुबान पर काबू रखें. उन्होंने सीरियस लहजे में कहा कि नितीश कुमार महागठबंधन के नेता हैं और उसके बाद चुटकी लेते हुए कहा कि वह महागठबंधन में दमकल के फायर ब्रिगेड है. महागठबंधन में आग लगाने की साजिश पर वह तुरंत ही पानी डाल कर मामले को ठंडा कर देंगे.

राजद के बाहुबली नेता शहाबुद्दीन के 11 साल बाद जमानत पर रिहा होने के मामले पर राजद और जदयू के बीच जुबानी जंग चल रही है. इस जंग के सेनापति राजद के थिंक टैंक माने जाने वाले रघुवंश प्रसाद सिंह ने संभाल रखा है. रघुवंश की बयानबाजी के खिलापफ पहले जदयू ने मोर्चा खोला और उसके बाद उसमें कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष और बिहार के शिक्षा मंत्री अशोक चौधरी भी कूद पड़े. चौधरी ने कह डाला कि अगर राजद को महागठबंधन में कोई दिक्कत हो रही है तो वह उससे नाता तोड़ सकता है. सरकार में रह कर सरकार के मुखिया के खिलाफ बयानबाजी करना ठीक नहीं है.

चौधरी के इस नसीहत की खिल्ली उड़ाते हुए रघुवंश प्रसाद सिंह कहते हैं कि उन्हें महागठबंधन के धर्म का पाठ पढ़ाने वाले लोगों को पहले अपने गिरेबान में झांकना चाहिए. अशोक चैधरी शिक्षा मंत्री हैं और पहले वह अपने विभाग को दुरूस्त करें. बिहार में शिक्षा की हालत बद से बदतर होती जा रही है.

गौरतलब है कि जेल से बाहर आते ही शहाबुद्दीन ने यह कह कर बिहार की राजनीति को गरमा दिया था कि लालू ही उनके नेता है और नितीश तो परिस्थितिव मुख्यमंत्री बन गए हैं. रघुवंश ने शहाबुद्दीन के हां में हां मिलाते हुए लालू को अपना नेता बता डाला तो जदयू के तेवर तल्ख हो गए. जदयू के 2 मंत्रियों विजेंद्र प्रसाद और ललन सिंह ने बकायदा प्रेस कॉन्फ्रेंस कर रघुवंश के खिलाफ आग उगल डाला.

इस उठापटक के बीच 7 दिनों बाद दिल्ली से पटना पहुंचे लालू यादव को कहना पड़ा कि महागठबंधन मे सब कुछ नार्मल है और उन्होंने अपने और नितीश की भूमिका को भी साफ कर दिया. उन्होंने कहा कि महागठबंधन और सरकार के नेता नितीश हैं और वह महागठबंधन के दमकल हैं. लालू ने बयानबाजी करने वाले नेताओं को सलाह दी कि वे अपनी जीभ पर कंट्रोल रखें. महागठबंधन के बारे में बोल कर अपनी भड़ास निकालना बंद करें. किसी भी समस्या को बातचीत से दूर किया जा सकता है, न कि विवाद से. रघुवंश प्रसाद के बारे में पूछे गए सवाल के जवाब में लालू ने हंसते हुए कहा कि रघुवंश बाबू हमेशा पिच पर खड़े रहते हैं. बॉल मिलते ही वह बैट घुमाने लगते हैं. उन्हें कई बार समझाया है कि चुट्टी, चिकोटी नहीं काटें, पर वह सुनते ही नहीं हैं.

महांगठबंधन में लगे आग को बुझाने के चक्कर में लालू ने अपनी ही पार्टी का पलीता सुलगा दिया है. लालू के इस नसीहत के बाद राजद के उपाध्यक्ष रघुवंश प्रसाद भी तैश में आ गए हैं. उन्होंने कहा कि मुझे गाली देने के लिए नितीश कुमार ने 2-2 मंत्रियों को लगा रखा है, वह लालू जी को नजर नहीं आ रहा है. मंत्रियों ने महागठबंधन के मामले पर प्रेस कॉन्फ्रेंस करके महागठबंधन के धर्म को तोड़ा है. इसके बाद वह लालू को चुनौती देने के मूड में कहते हैं कि वह बोलना नहीं छोड़ेंगे. अगर वह चुप रहेंगे तो लोकतंत्र नहीं बचेगा.

जदयू और कांग्रेस के नेताओं पर हमला बोलते हुए रघुवंश कहते हैं कि उन पर लगाम लगाने वाले खुद ही बेलगाम हैं. महागठबंधन में शामिल दलों के नेताओं को चुप रहने की चेतावनी देते हुए लालू ने यह फरमान जारी कर दिया है कि महागठबंधन में शामिल तीनों दलों के स्टेट प्रेसिडेंट ही अब महागठबंधन के मसले पर बयान देंगे. सुन रहे हैं न रघुवंश बाबू? अब आप कैसे बचाएगें लोकतंत्र?

पितरों का श्राद्ध: पंडितों के पाखंड का गोरखधंधा

सैकड़ों सालों की गुलामी के जबड़े से निकलने के बाद भी हिंदू समाज न तो अंधविश्वास की दलदल से बाहर निकल पाया है और न ही इस ने अपने चारों तरफ फैले पाखंडों के तानेबाने को तोड़ने का प्रयास ही किया है. दूरदराज के इलाकों में रहने वाले पिछड़े समाज को तो छोडि़ए जहां अंधविश्वास पनपने की वजह अशिक्षा माना जाता है, अत्याधुनिक शहरों के उच्च शिक्षित लोग भी अंधविश्वासों के भंवर में भटक रहे हैं. अंधविश्वास के जाल में अनपढ़ लोग उलझ कर रह जाएं, यह बात तो गले उतरती है लेकिन अच्छेखासे पढ़ेलिखे, समझदार लोग भी अंधविश्वास को गले लगा लें तो हैरानी होती है. पितरों को मनाने के नाम पर समाज में पंडितों के पाखंडों का गोरखधंधा धड़ल्ले से चल रहा है. इसे देख कर यह यकीन ही नहीं होता कि हम आईटी व वाईफाई की क्रांति के दौर में जिंदगी जी रहे हैं. यों तो भारत में रह रहे लोगों का हर महीना, हर घड़ी, हर दिन ही अंधविश्वासों व कुरीतियों को निभाने में गुजरता है, लेकिन अश्विन पूर्णिमा से अश्विन अमावस्या तक के 15 दिन मरे हुए पूर्वजों को फिर से जिंदा अनुभूत करने के दिन होते हैं. इस पखवाड़े में हिंदू अपने मृत मातापिता, दादादादी आदि की स्मृति में ब्राह्मणों को भोजन करा कर दानदक्षिणा आदि देते हैं.

इस कुरीति को गांवदेहात के छोटे परिवारों से ले कर शहरों के रईस परिवारों में भी बखूबी निभाया जाता है. इस कुरीति को निभाने से भले ही पितरों का भला हो या न हो, ब्राह्मणों का भला जरूर होता है. महंगाई के इस दौर में मुफ्त के इस भोजन व साथ में मिलने वाले कपड़ों की जोड़ी को ब्राह्मण छोड़ना नहीं चाहते. इतना ही नहीं, आजकल के मौडर्न ब्राह्मण तो खाने के बाद टिफिन तक पैक करा कर घर ले जाते हैं, ताकि उन के समूचे परिवार को दोजून का बढि़या भोजन मिल जाए, भले ही मृतक की आत्मा तृप्त हो, न हो. यह जान कर भी हैरानी होगी कि साल के साढ़े 11 महीने पितर भूखे सोए रहते हैं, अश्विन में वे जाग कर भूख महसूस करते हैं. तभी तो केवल 15 दिनों में ब्राह्मणों के जरिए उन्हें भोजन ट्रांसफर कराया जाता है. किसी अब्राह्मण द्वारा उन्हें तृप्ति नहीं हो सकती. साथ ही, पितरों तक यदि ऐसा गरिष्ठ भोजन पहुंच सकता है तो उन के शौचमूत्र आदि की क्या व्यवस्था है?

यह सोचना तो और भी ज्यादा हास्यास्पद है कि ब्राह्मण के पेट में डाला गया भोजन पितरों तक पहुंच जाएगा या उन की भूख शांत हो जाएगी. सभी जानते हैं कि पितरों के शरीर जला दिए जाते हैं और हिंदू धर्म की तथाकथित मान्यताओं के अनुसार आत्मा भूखप्यास आदि बंधनों से मुक्त है, फिर इस लोक में ब्राह्मणों को खिलाया गया भोजन पितरों की आत्मा तक, जो न मालूम किस लोक, किस योनि और किस स्थिति में है, कैसे पहुंच जाएगा? गहराई से सोचने पर कई सवाल सामने आते हैं. ये दिन क्यों माने जाते हैं श्राद्ध के लिए और अश्विन मास के 15 दिनों को ही पितृपक्ष घोषित कर के श्राद्धकर्म के लिए क्यों निश्चित किया गया? दरअसल, खेतीप्रधान इस देश में सदियों से ही यह महीना खरीफ की फसल की कटाई व रबी की फसल की बुआई के मध्य का समय रहा है. प्राचीन समय में ब्राह्मणों ने यह सोच कर कि बरसात समाप्त हो जाने व खरीफ की फसल कट जाने से गांव में घीदूध की बहुतायत होगी और किसानों के पास दानदक्षिणा देने के लिए काफी सारा धान व पैसा होगा, सो, इन 15 दिनों को पितृपक्ष घोषित कर के श्राद्धकर्म के लिए निश्चित कर दिया.

भले ही लोग जिंदगी में तो बूढ़ेलाचार मातापिता की सेवा नहीं करते लेकिन अपने पितरों के प्रति श्रद्धाभावना रखते हैं. यह ऐसा भावनात्मक विषय है जो पूरे तौर पर संतानों व उन के पितरों से संबंध रखता है. इस में तीसरे शख्स की जरूरत नहीं है. लेकिन ब्राह्मण व पुरोहित भला अपना प्रभुत्व कैसे छोड़ सकते थे. उन्होंने ऐसे श्लोक, सूत्र व वाक्य रचे कि जिन से उन का अटूट सिक्का जमा रहे.  मृतकों के श्राद्ध की प्रथा आरंभ करने में ब्राह्मणों ने यही चतुराई की है. अपने स्वजन, संबंधियों से हर किसी को प्रेम होता है. स्वजन या संबंधी यदि मर जाता है तो उन के प्रति अपनेपन की भावना ज्यादा पनपती है. धर्म के धंधेबाजों ने मनुष्य की स्वाभाविक भावनाओं का लाभ उठाना शुरू किया तो स्वजन के प्रति अपनेपन की भावना पर भी उन की नजर गई और इस के लिए मृत स्वजनों को तथाकथित तथा स्वादिष्ठ भोजन व सुखसुविधा पहुंचाने के नाम पर श्राद्धकर्म का विधिविधान व पाखंड रच डाला.

श्राद्ध की आड़ में ब्राह्मणों ने अपनी पेटपूजा का कैसा बढि़या ढंग निकाला है, उन के द्वारा रचित कपोलकल्पित स्मृतियों को पढ़ने से यह पता चलता है. मनुस्मृति में साफ लिखा है कि यजमान को पितरों का श्राद्ध करना चाहिए और पितरों के नाम पर ब्राह्मणों को दूध, मावा, फल, कंदमूल आदि देना चाहिए. और हां, श्राद्ध की संपत्ति के फल के अधिकारी केवल ब्रह्मण ही हो सकते हैं, क्षत्रिय, शूद्र आदि नहीं.

मनुस्मृति के 228वें श्लोक में कहा गया है कि पिता के श्राद्ध में 3 व पितामहमातामही यानी दादादादी के श्राद्ध में अनेक ब्राह्मणों को भोजन कराएं. भोजन कराने से पहले यजमान ब्राह्मणों के पैर धोएं, आसन पर बिठा कर माला पहनाएं और दीपक व धूप से उन का सत्कार करें. उस के बाद 5 प्रकार का भोजन परोसें और ब्राह्मणों के खाने के बाद जो भोजन बचे, उसे दास आदि वर्ग को खाने के लिए दे दें.

पाखंडियों के वैज्ञानिक आधार

बहुत से लोग यह जान गए कि श्राद्धकर्म से महज ब्राह्मणों को ही लाभ मिलता है. इस समझ के कारण लोगों की पितरों के प्रति श्रद्धा में कमी होने लगी. यह बात धर्म के धंधेबाजों को अखरने लगी. इस पर उन्होंने श्राद्धकर्म को तरहतरह से आवश्यक व उचित बताना शुरू कर दिया. इस सिलसिले में इस का वैज्ञानिक आधार भी ढूंढ़ने की कोशिशें की जाने लगीं. बहुत से पाखंडी लोग श्राद्ध को विज्ञानसम्मत प्रक्रिया बताने लगे.

जयपुर में चांदपोल हनुमान मंदिर के पुजारी व पंडित कैलाश आचार्य बताते हैं कि मरने के बाद व्यक्ति की आत्मा पितृलोक में चली जाती है. पितृलोक को चंद्रमा पर बताते हुए उन्होंने कहा कि मर जाने पर 3 गति वाला स्थूल शरीर तो यहीं पर रह जाता है, लेकिन सूक्ष्म देह जिस में 5 ज्ञानेंद्रियां, 5 प्राण, मन व बुद्धि के ये

17 तत्त्व हैं, उन में मन प्रधान है जो चंद्रमा का अंश है, चंद्रलोक में ही पहुंचता है. वहीं पितरों का निवास पितृलोक है.

अब इन पंडित महाशय को कौन समझाए कि दिखाई देने वाले शरीर का ऐसा कोई सूक्ष्म अस्तित्व भी है जो दिखाई नहीं देता, लेकिन कहीं भी आजा सकता है. फिल्मों, धारावाहिकों व रहस्यरोमांच वाले उपन्यासों में तो इस तरह का विवरण हो सकता है लेकिन हकीकत में ये सब ढकोसलेबाजी है.

थोड़ी देर के लिए मान भी लें कि ऐसा कोई सूक्ष्म शरीर होता है जो मरने के बाद शरीर से निकल जाता है, पर सवाल है कि वह चंद्रमा पर ही क्यों जाता है. पंडितजी के मुताबिक, मन चंद्रमा का अंश है, इसलिए चंद्रमा पर ही जाता है. सूक्ष्म शरीर मन का कहना मान कर चंद्रमा पर मन की शक्ति से ही स्थूल शरीर को भी चंद्रमा पर क्यों नहीं पहुंचाया जाता?

गौरतलब है कि पृथ्वी के बाद मनुष्य ने किसी दूसरे ग्रह अथवा उपग्रह के बारे में सब से अधिक जाना है, तो वह चंद्रमा है. चंद्रमा की कोई भी जगह अपरिचित नहीं रह गई है. वहां जीवन का परलौकिक अस्तित्व तो क्या, देहलौकिक सूक्ष्म अस्तित्व भी नहीं मिला है.

सच बात तो यह है कि श्राद्धकर्म की व्यवस्था ब्राह्मणों ने लोगों को बेवकूफ बना कर उन की कमाई से मौजमजे उड़ाने के लिए की है. श्राद्धकर्म की तरह ही और भी अनेक परंपराएं हैं जो ब्राह्मणों ने लोगों को मूर्ख बनाने के लिए प्रचलित करवाईं.

पितृपक्ष के 15 दिनों में एकएक ब्राह्मण एकएक दिन में 15 से 20 घरों में भोजन करता है. जिन घरों में उन्हें आमंत्रित किया जाता है उन घरों में आजकल तो ये ब्राह्मण हाथ झूठा कर भोजन के पैसे ले कर चलते बनते हैं.

श्राद्धकर्म का कोई आधार है तो वह है विशुद्ध रूप से ब्राह्मणों के लिए बिना कुछ किएधरे अपनी चालाक बुद्धि व समझ से पैसे ऐंठ लेने का सिद्धांत. इसीलिए ब्राह्मण पितरों के नाम पर पूर्वजों के प्रति श्रद्धा की दुहाई दे कर इसे हर तरह से प्रचलित करने का औचित्य बताते रहते हैं.      

इसी लोक के लोगों की भूख मिटा रहे हैं पिंड

10 साल की गीता बिहार के गया जिले में फल्गू नदी के किनारे पिंडदानियों द्वारा दान किए गए पिंडों को चुन रही है. अपने छोटेछोटे हाथों से पिंडों को उठाती है और मुंह से फूंक मार कर उस में लगे बालू के कणों को निकालने की कोशिश करती है. उस के बाद उसे सहेज कर टोकरी में रख लेती है. उस के पास में ही 48 साल की सुखिया देवी भी पिंडों को बड़े ही जतन से उठाती है और उसे टोकरी में डाल रही है. गीता और सुखिया की तरह दर्जनों औरतें और बच्चे पिंडों को चुन कर, उन्हें साफ कर टोकरियों में जमा कर रख रहे हैं. सुखिया बताती है कि पिंडदान करने के बाद जब लोग चले जाते हैं और जिन पिंडों को गाय, कुत्ते और कौए छोड़ देते हैं उन्हें वह जमा कर रखती है और उन से अपने व परिवार के पेट की आग को ठंडा करती है. 15 दिनों तक चलने वाले पिंडदान कार्यक्रम के बाद उस के जैसे कई परिवार इतने सारे पिंड जमा कर लेते हैं कि एकडेढ़ महीने तक के भोजन का जुगाड़ हो जाता है.

32 साल की रिंकी कुमारी बताती है कि पिंडों को जमा कर, धूप में सुखा लिया जाता है. जब पिंड अच्छी तरह से सूख जाते हैं तो उन्हें पीस कर खाने में इस्तेमाल किया जाता है. गौरतलब है कि गया जिले में पितृपक्ष के दौरान लाखों लोग अपने पुरखों की आत्मा की शांति के लिए पिंडदान करने आते हैं. चावल, तिल, दूध, जौ का आटा आदि से बने पिंड को दान करते हैं. पिंडदान के बाद लोग यह समझ लेते हैं कि उन के द्वारा दान किए गए पिंड से पुरखों की आत्मा को शांति मिल गई और उन्हें मोक्ष मिल गया. पोंगापंथियों का मानना है कि लोगों के द्वारा दान किए गए पिंडों को गाय, कुत्ते और कौए खा लें तो वह सीधे उन के पुरखों के पेट में चला जाता है और उन की आत्मा तृप्त हो जाती है, पर हकीकत में लाखों पिंडदानियों द्वारा दान किए ज्यादातर पिंड कई जीवित आत्माओं की पेट की आग बुझाने का काम कर रहे हैं. दान किए गए, कई अनाज से बने पिंडों से परलोक में बैठे लोग नहीं, बल्कि इसी लोक के गरीब और भूखे अपनी भूख मिटा रहे हैं.

हर साल भादो महीने की पूर्णमासी से ले कर अमावस्या तक 15 दिनों तक बिहार के गया जिले में फल्गू नदी के किनारे पितृपक्ष मेला का आयोजन किया जाता है. उस दौरान देश और विदेशों के लाखों लोग अपने पूर्वजों की आत्मा की शांति और उन्हें मोक्ष दिलाने के लिए आते हैं. इन 15 दिनों में पोंगापंथियों, पंडितों और ठगों की चांदी रहती है.

पिंडदान कराने के साथ ही हवन, तपर्ण, ब्राह्मण भोजन और दानदक्षिणा का जाल बुना जाता है. पंडितों की ठगी और सीनाजोरी का आलम यह है कि पंडित वै-नाथ झा छाती ठोंक कर कहते हैं कि कितना भी पिंडदान, तपर्ण, हवन कर लिया जाए, अगर ब्राह्मण को बढि़या भोजन और दक्षिणा नहीं मिली तो सब बेकार हो जाता है. ब्राह्मण जब तक पूरी तरह से संतुष्ट नहीं होगा तब तक पूर्वजों को मोक्ष मिल ही नहीं सकता है. दरअसल पंडितों की इस हनक की वजह से हर कोई अपनी औकात से बढ़ कर पंडितों को दान और दक्षिणा देता है.                                    

— बीरेंद्र बरियार 

मदर टेरेसा का चमत्कार! अंधविश्वास फैला रहा है वैटिकन

कैथलिक चर्चों के मुख्यालय वैटिकन सिटी ने मदर टेरेसा के तथाकथित चमत्कार को मान्यता दे दी है. पिछले दिनों क्रिसमस से पहले वैटिकन सिटी की ओर से इसके प्रवक्ता फ्रायर ब्रायन ने पोप फ्रांसिस का एक बयान जारी करते हुए कहा था कि मदर टेरेसा ‘संतहुड’ की तमाम शर्तों पर खरी उतर चुकी है. मदर टेरेसा को संत होने की मान्यता दिए जाने की तैयारी कोई 10-12 साल पहले शुरू हो गयी थी और अब इस पर मुहर लगा दी है वैटिकन सिटी ने. मदर टेरेसा ‘संत मदर टेरेसा’ के रूप में जानी जाने लगी है.

इसके बाद क्रिसमस से ठीक पहले वैटिकन सिटी द्वारा मदर के चमत्कार को मान्यता दे दिए जाने के बाद बंगाल समेत पूरे देश में ईसाइयों के बीच खुशियों की लहर दौड़ गयी. इसे पहले जब वैटिकन ने मदर को संत की उपाधि दिए जाने की घोषणा की थी, तब मध्य कोलकाता के मिशनरी औफ चैरिटी के जोड़ा गिरजा में मदर हाउस में मदर की समाधिस्थल पर ‘थैंक्स गिविंग प्रेयर’ का आयोजन किया. अब जब मदर को संत की उपाधि दे दी गयी है तब कोलकाता आर्चविशप टौमस डिसूजा ने कहा कि क्रिसमस के मौके पर ईश्वर का यह सबसे बड़ा उपहार है. देश भर ईसाई समाज के लिए यह बड़े गर्व क बात है.

लेकिन इस रंग में भंग कर दिया है कोलकाता स्थित भारतीय युक्तिवादी (तर्कशील) समिति ने. संत की उपाधि दिए जाने की घोषणा के साथ ही समिति के कार्यकर्ताअओं ने बड़ी संख्या में सड़क पर उतर कर मिशनरी ऑफ चैरिटी और वैटिकन सिटी पर अंधविश्वास फैलाने का आरोप लगाया. गौरतलब है कि मदर टेरेसा के तथाकथित चमत्कार को लेकर अंधविश्वास फैलाने के लिए युक्तिवादी समिति सीधे तौर दिवंगत सिस्टर निर्मला को कठघरे में खड़ा करता आ रहा है. इसीलिए मिशनरी औफ चैरिटी के सामने और कोलकाता में महत्वपूर्ण जगहों पर विरोध-प्रदर्शन करता रहा है. समिति की ओर से पुलिस में मिशनरी औफ चैरिटी के खिलाफ अंधविश्वास फैलाने के खिलाफ एफआईआर तक दर्ज कराया गया है. इतना ही नहीं, मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से मिल कर समिति जल्द ही राज्य सरकार से मिशनरी औफ चैरिट के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की मांग करता रहा है.  

दरअसल, समिति किसी भी तरह के चमत्कार का विरोध करती रही है, फिर वह चाहे किसी भी धर्म से जुड़ा हुआ ही क्यों न हो. तस्वीर में ईसा मसीह के पैरों से खून का बहने का मामला हो या गणेश के दूध पीने का- समिति ने न केवल विरोध किया है, बल्कि ऐसी घटनाओं के पीछे मानव कारीस्तानी हो या भौतिक विज्ञान का सिद्धांत- उसे उजागर किया है. समिति सिरे से चकत्कार को नकारते हुए विज्ञान आंदोलन चलाती रही है. समिति की ओर से प्रवीर घोष का कहना है कि मदर खुद किस चकत्कार पर विश्वास नहीं किया करती थीं. उनकी सेवा भावना को जरूर सलाम किया जा सकता है. पर चमत्कार मानने को समिति कतई तैयार नहीं. मदर में ऐसा कोई चमत्कार होता तो अपनी बीमार के लिए वे किसी डॉक्टर से इलाज नहीं करातीं.

प्रवीर घोष का कहना है कि जिस मोनिका बेसरा के मामले को मदर का पहला चकत्कार बताया जा रहा है, उसका बाकायदा अस्पताल में इलाज हुआ है. मदर की मृत्यु के लगभग एक साल बाद मोनिका बेसरा को पेट में भयानक दर्द के साथ अस्पताल में भर्ती कराया गया और फिर वहां उसका इलाज शुरू हुआ. गौरतलब है कि कोलकाता से 460 किमी की दूरी पर धनग्राम नामक एक गांव में सिकू मूर्मू और उसकी पत्नी मोनिका बेसरा का आदिवासी ईसाई परिवार गरीबी के दिन गुजारता है. इस बीच 5 सितंबर 1998 को मदर के देहांत की पहली बरसी के दिन मोनिका के पेट में दर्द की शिकायत हुई. जांच से पता चला कि उसके पेट में ट्यूमर है.

संत घोषणा की प्रक्रिया

बहरहाल, संत घोषणा की एक प्रक्रिया हुआ करती है. कैथलिकों में जीवित रहते किसीको संत नहीं माना जाता है. मृत्यु के पांच साल के बाद चरणबद्ध नियम से संत बनाए जाने की प्रक्रिया शुरू होती है. कैथलिकों का एक धार्मिक कानून है कैनॉन लॉ, जिसके तहत उम्मीदवार की मृत्यु के पांच साल के बाद उन्हें संत घोषित किए जाने की प्रक्रिया का पहला चरण शुरू होता है और उसे ‘ब्लेस्ड’ यानि ईश्वर के आशीर्वाद से धन्य माना जाता है. दूसरे चरण में स्थानीय आर्चविशपों का एक दल संत कहलानेवाले उम्मीदवार के जीवन के विभिन्न पहलुओं पर बारीकी से अध्ययन करके अपनी रिपोर्ट पोप को भेजता है. तीसरे चरण में वैटिकन सिटी का प्रमुख पोप इस रिपोर्ट को कार्डिनलों के समूह के एक पैनल को विचारार्थ भेजता है. कार्डिनलों का पैनल अगर इस रिपोर्ट से संतुष्ट होता है तो मृत उम्मीदवार के नाम के पहले ‘वेनरबल’ यानि  ‘सर्वेंट औफ गॉड’ की उपाधि जुड़ जाती है. इसका अगला चरण है बीटिफिकेशन का, जिसे स्वर्गीय महिमा प्रदान करने से जोड़ कर देखा जाता है. इसके लिए जरूरी शर्त है चमत्कार यानि अलौकिक क्षमता का प्रमाण.

कम से कम दो चमत्कार! संत की मान्यता के लिए चमत्कार के इस शर्त के कारण संत का सम्मान दुर्लभ हो जाता है. कहते हैं कभी-कभी संत की मान्यता मिलने में सौ साल से भी अधिक समय लग जाता है. लेकिन इस मामले में मदर टेरेसा खुशनसीब (!) हैं, क्योंकि उनकी मृत्यु 1997 हुई थी. इस लिहाज से 1997-2015 तक का समय बहुत कम है. मदर टेरेसा की मृत्यु के लगभग दो दशक के बाद वैटिकन उन्हें संत की मान्यता दे रहा है.

मदर टेरेसा के दो चमत्कार

वैटिकन सिटी का दावा है कि संत कहलाने की चमत्कार की शर्त पर मदर टेरेसा खरी उतर चुकी है. मदर का पहला चमत्कार है मोनिका बेसरा का.  मिशनरी औफ चैरिटी ने दावा किया कि 1998 में मदर टेरेसा के लॉकेट के चमत्कार से पश्चिम बंगाल में उत्तर दिनाजपुर की संथाल महिला मोनिका बेसरा के पेट का ट्यूमर ठीक हो गया था. इसके बाद दूसरा चमत्कार हुआ ब्राजील में. दावा किया कि 2008 में ब्राजील में एक युवक वर्षों से मिस्तष्क की एक जटिल बीमारी से ग्रस्त था. युवक की पत्नी ने मदर टेरेसा के नाम पर प्रार्थना की और उसके बाद आर्श्चयजनक तौर पर मरणासन्न युवक अचानक स्वस्थ होने लगा. बताया जाता है कि इस दावे के मद्देनजर वैटिकन सिटी में पोप फ्रांसिस की अगुवाई में यह विचार करने के लिए विशेषज्ञ कार्डिनलों और विशपों की एक बैठक यह विचार करने के लिए हुई कि इसे मदर के चमत्कार के रूप में मान्यता दी जानी चाहिए या नहीं. बैठक में ‘कंग्रीगेशन फौर दी कौजेज औफ सेंट्स’ सिद्धांत के तहत ब्राजील के युवक के साथ हुए चमत्कार मानते हुए कार्डिनलों ने पोप को अपनी रिपोर्ट भेज दी. इसी रिपोर्ट के आधार पर पोप ने मदर के चमत्कार को मान्यता दे दी.

किस्सा चमत्कार का

जहां तक मोनिका का सवाल है तो वह मदर टेरेसा की हमेशा से भक्त रही है. एक दिन दर्द से काहिल मदर का लौकेट हाथ में लेकर बैठी थी. तभी इतेफाक से पेट का दर्द कम हो गया. इस बात का जिक्र उसने अपने जाननेवालों से किया. और यह बात जाने कैसे पहले गांव में फैल गयी और फिर मिशनरी तक पहुंच गयी. मिशनरी औफ चैरिटी ने इसे मदर के चमत्कार से जोड़ कर खूब प्रचार किया कि मोनिका के पेट में पलता ट्यूमर ठीक हो गया. इसके लिए एक  डॉक्टर डॉ. आर एन भट्टाचार्य का भी हवाला दिया गया, जिन्होंने इस आशय का एक ‍सर्टिफिकेट दे दिया कि मोनिका बेसरा के पेट में एक ट्यूमर था, जो लाइलाज कैंसर में तब्दील हो रहा था. लेकिन इसके बाद यह डॉक्टर जाने कहां गायब हो गया. यहां ‍तक कि बीटिफिकेशन कार्यक्रम में मोनिका बेसरा मौजूद थी, लेकिन जिस डॉ. आर एन भट्टाचार्य प्रमाणपत्र के आधार पर बीटिफिकेशन का आयोजन हो रहा था, वही डॉक्टर कहीं नहीं मोजूद दिखा था.

बहरहाल, कैनॉन लॉ के तहत स्थानीय विशप की रिपोर्ट जरूरी थी. इसके लिए दक्षिण 24 परगना जिला के कैथोलिक डायसेस औफ बारूईपुर के विशप सलवाडोर लोबो की अगुवाई में एक जांच समिति बनायी गयी. दावा किया गया कि 5 सितंबर 1998 को मदर पहली बरसी के दिन एक ज्योति मदर की तस्वीर से निकली और मोनिका के पेट पर गिरी और ट्यूमर ठीक हो गया. जांच समिति की इस रिपोर्ट को मिशनरी औफ चैरिटी की सिस्टर निर्मला ने वैटिकन सिटी पहुंचा दिया. बहरहाल, मिशनरी की ओर से अगस्त 2001 में तथाकथित इस चमत्कार का किस्सा संत बनने की शर्त के पहले चरण की खानापूर्ति के रूप में सलवाडोर समिति की रिपोर्ट को वैटिकन तक पहुंचा दिया गया. इसके बाद वैटिकन ने 1998 में मदर के चमत्कार को मान्यता दे दी और इसी रिपोर्ट के आधार पर 2003 में मदर को बिटफिकेशन यानि ‘ब्लेस्ड’ की उपाधि दी गयी.

मजेदार बात यह है कि मोनिका बेसरा का पति सिकू मूर्मू का खुद मानना है कि इसमें चमत्कार जैसा कुछ नहीं है. डॉक्टर के इलाज से ही मोनिका ठीक हुई है. लेकिन उस दौरान मिशनरी के प्रचार के बाद आए दिन घंटे दो-घंटे में मीडिया के पत्रकार और कैमरों का तांता लगने लगा था. सिकू का परिवार मीडिया के लगातार हमले से आजीज आकर एक दिन चमत्कार की बात को उसने स्वीकार कर लिया कि एक रात उसकी पत्नी ने मदर का लौकेट जब अपने पेट में लगाया तो उसे दर्द में थोड़ी कमी महसूस हुई थी. लेकिन बाद में दर्द कम-ज्यादा रहने लगा. इलाज के लिए उसे बालूरघाट जिला अस्पताल ले जाया गया, जहां उसका महीनों-महीने इलाज हुआ. समिति का कहना है कि सिकू-मोनिका की गरीबी और उनके अनपढ़ होने का लाभ उठाकर चमत्कार के किस्से का ‘मिशनरी’ का प्रचार किया.

युक्तिवादी समिति के सर्वेसर्वा प्रवीर घोष ने बालूरघाट जिला अस्पताल के तत्कालीन सुपर डॉ. मंजुल मुर्शेद के हवाले से कहते हैं कि मिशनरी औफ चैरिटी और वैटिकन सिटी के प्रतिनिधिमंडल की तरफ से भी डॉ. मुर्शेद पर दवाब बनाया गया था कि वे भी इलाज के बजाए चमत्कार की ही बात करें. इस बात का खुलासा डॉ. मुर्शेद ने कोलकाता के एक टीवी चैनल में भी किया है. बहरहाल, मोनिका के मेडिकल रिपोर्ट प्रेसक्रिप्शन, ‍विशेषज्ञ डॉक्टर द्वारा लिखे गए नोट इस बात का सबूत है कि मोनिका इलाज से स्वस्थ हुई है; न कि चमत्कार से. प्रबीर घोष कहते हैं कि मदर टेरेसा ने गरीबों के लिए बहुत कुछ किया है, इसके लिए उन्हें संत घोषित किया जाए तो इससे कोई आपत्ति नहीं है. लेकिन वे मदर के किसी चमत्कार को नहीं मानेंगे.

वहीं मोनिका का इलाज कर रहे थे – डॉ. तरुण कुमार विश्वास और डॉ. रंजन मुस्तफी. डॉ. तरूण कुमार विश्वास का कहना है कि जब मोनिका इलाज के लिए आयी थी तब उसके पेट में गांठ जैसा पाया गया, जो कि पूरी तरह से ट्यूमर नहीं था. दरअसल, वह टीवी से पीडि़त थी. इसीके साइड एफेक्ट स्वरूप पेट में गांठ बन गयी थी. नौ महीने लगातार पांच तरह की दवाओं का कोर्स करने के बाद वह स्वस्थ्य हुई. टीवी ठीक हुआ तो गांठ भी ठीक हो गया. इसमें चमत्कार जैसा कुछ नहीं है.

कैनॉन लॉ की धज्जियां

मदर टेरेसा के मामले में कैनॉन लॉ की धज्जियां उड़ायी गयी और यह काम खुद पूर्व पोप द्वितीय जॉन पॉल ने किया है. युक्तिवादी समिति का मानना है कि 19 अक्टूबर 2003 को पोप जॉन पॉल के अभिषेक का 25 साल पूरा हुआ था. इस दिन को यादगार बनाने के लिए ही पोप ने मदर टेरेसा को संत घोषित के एक चरण के रूप में चुना और मदर को ब्लेस्ड की उपाधि दी गयी. इसमें पोप की सहायक बनी मिशनरी औफ चैरिटी की तत्कालीन सुपिरियर जनरल (स्व.) सिस्टर निर्मला. पांच साल के बजाए मदर की मृत्यु के महज दो साल के बाद ही यह प्रक्रिया शुरू हो गयी.

युक्तिवादी समिति का दावा है कि चूंकि वैटिकन का प्रतिनिधिमंडल उस अस्पताल में भी गया था, जहां मोनिका का इलाज चल रहा था. इसीलिए प्रवीर घोष का दावा है कि मोनिका का ट्यूमर लाइलाज कैंसर नहीं था, इसकी जानकारी पोप को थी. मदर टेरेसा को संत घोषणा करने के पीछे प्रबीर घोष को एक बड़ा षडयंत्र भी नजर आता है. यह षडयंत्र किसी धर्म विशेष को दुनिया पर राज कराने के मकसद से रचा गया है. वहीं हिंदू सनातन धर्म और इस्लाम के कट्टरवादी पैरोकार भी यही चाहते रहे हैं.

बहरहाल, अपनी बात को पुख्ता करने के लिहाज से प्रबीर घोष पोप के एक बयान का हवाला देते हैं, जिसमें पोप जॉन पॉल ने कहा था – पहली सहस्राब्दी में क्रूस ने यूरोप को जीता, दूसरी में अमेरिका और अफ्रीका को. तीसरी सहस्राब्दी में एशिया को जीतेंगे. मदर टेरेसा को संत घोषित करना इसी रणनीति का हिस्सा है. ठक उसी तरह जिस तरह भारत के विशाल बाजार को देखते हुए सौंदर्य प्रतियोगिता में भारतीय युवती को विश्वसुंदरी बनाया जाना या बहुराष्ट्रीय कोल्ड ड्रिंक्स कंपनी से लेकर ऑटोमोबाइल इंडस्ट्री द्वारा भारतीय क्रिकेटरों और बौलीवुड अभिनेताओं को अपना मॉडल बनाया जाना. इसी तर्ज पर क्रिश्चियनिटी के बाजार में मदर टेरेसा को भी मॉडल की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है. फर्क यह है कि मदर का इस्तेमाल उनकी मृत्यु के बाद हो रहा है. 

ये महल्ले ही वृद्धाश्रम हैं

दक्षिण कोलकाता का रासबिहारी एवेन्यू और इस से लगा हुआ प्रतापादित्य रोड, श्यामाप्रसाद मुखर्जी रोड. आम शहरों की तरह पौ फटते ही पक्षियों की चहक आसमान में नया सूरज उगने का मानो ऐलान कर रही हो. पूरब के आसमान में सूरज उगने के साथ ही शहर के गलीमहल्ले के एक छोर से दूसरे छोर तक जिंदगी नए सिरे से शुरू होने लगती है. कुछ लोग सुबह की सैर पर जाते या लौटते नजर आ रहे थे. उपरोक्त विवरण कोलकाता के लगभग तमाम महल्लों की सुबह का चिरपरिचित नजारा है. यहां की चायदुकानों से उठता धुंआ– कहते हैं बंगाल के लोगों की जिंदगी चाय, चीनी और चाकरी के बगैर सोची ही नहीं जा सकती. सुबहसवेरे सैर से या सागभाजी की खरीदारी कर के लौटते हुए इन चाय की दुकानों में इक्कादुक्का लोग चाय की चुस्की लगाते और राजनीति पर हलकीफुलकी बहस करते देखे जा सकते हैं. इस पूरे इलाके में पूरे देश की तरह ही एक मिलीजुली संस्कृति का नजारा देखने को मिलता है. सुबहसुबह तमाम महल्लों में विभिन्न प्रादेशिक भाषाओं में गीतसंगीत सुनाई देना आम बात है. दिन चढ़ने के साथ घरों के झरोखों से तरहतरह के खाने की खुशबुएं आती हैं. बरामदे में रंगबिरंगे कपड़े सूखते नजर आने लगते हैं. फेरीवाले अपनी हांक लगाते हुए गुजर जाते हैं. निजी कारों से ले कर रिक्शाआटो की दौड़ बदस्तूर शुरू हो जाती है. ऊपर से देखा जाए तो इन सड़कों में बसने वाले महल्लों में सबकुछ सामान्य लगता है. पर इन महल्लों की यह पूरी सचाई नहीं है. इन महल्लों के कुछ घरों में भीतर रहने वाले लोगों के दिलों में एक अजीब सन्नाटा पसरा हुआ है. बड़े ही एकाकीपन में जिंदगियां यहां गुजरबसर करती हैं.

बड़ी सड़क के आसपास के लेन और बाईलेन में हाल के कुछ वर्षों में बहुत सारी नई बहुमंजिली इमारतें खड़ी हो गईं हैं. इन आधुनिक बहुमंजिली इमारतों के बीच वर्षों से कुछ पुराने मकान भी सिर उठाए अपना अस्तित्व बचाने की जद्दोजेहद में किसी तरह खड़े हैं, बीते समय और आने वाले कल के बीच पुल की तरह. पर इन के साथ एक कड़वी सचाई भी जुड़ी हुई है और वह यह कि हर नए आगाज के साथ कुछ पुराना भी जुड़ा हुआ होता है और आमतौर पर पुराना उपेक्षा का शिकार होता है. परिवार में बुजुर्गों की भी स्थिति बहुतकुछ ऐसी ही है. इन महल्लों की खास बात यह है कि यहां बहुत सारे ऐसे परिवार हैं जहां नई पीढ़ी नौकरीचाकरी की गरज से विदेशों में या फिर दूसरे राज्यों में जा कर बस गई है. इन परिवारों के बुजुर्ग उन के लौटने के इंतजार में किसी तरह समय गुजार रहे हैं. यह कड़वी सचाई अकेले प्रतापादित्य रोड की नहीं है. आसपास के रासबिहारी एवेन्यू, श्यामाप्रसाद मुखर्जी रोड, श्रीमोहन लेन, रानी भवानी रोड, भवानंद रोड समेत और भी ऐसे कई महल्ले हैं जहां पहली और दूसरी पीढ़ी के बुजुर्ग अपनों के लौटने की राह ताकते हुए जी रहे हैं. सौल्टलेक के कई सैक्टर और ब्लौक भी इसी गिनती में आते हैं. वैसे, अगर इस विषय पर कोई संस्था सर्वे कराए तो संभवतया स्थिति कहीं बेहतर तरीके से साफ होगी.

पश्चिम बंगाल की जानीमानी गायिका बनश्री सेनगुप्ता ने दक्षिण कोलकाता के इन महल्लों को वर्षों से बहुत करीब से देखा है. उन के शब्दों में, इन दिनों वृहद कोलकाता और इस के आसपास के उपनगरों में बहुत सारे महल्ले वृद्धाश्रम में तबदील होते जा रहे हैं. इन महल्लों की नई पीढ़ी या तो विदेश में या दूसरे किसी राज्य में प्रवासी जीवन जी रही है. पहली व दूसरी पीढ़ी के परिवार से बुजुर्गों के दुखतकलीफ में नई पीढ़ी वाले अनुपस्थित ही रहते हैं. 1-2 साल में एक बार अपना चेहरा दिखा दिया तो बुजुर्ग सदस्यों के लिए वही बहुत होता है. इसी इंतजार में बुजुर्ग कुछ और समय निकालते रहते हैं.

बनश्री सेनगुप्ता खुद भी अकेली हैं. पति को गुजरे वर्षों हो गए हैं. वे बुजुर्गों के एकाकीपन, नई पीढ़ी की सोच और उस के ख्वाबों, उस की मजबूरी के साथ उसे बखूबी समझती हैं. वे कहती हैं कि यह आधुनिक जीवनशैली का तकाजा है. नई पीढ़ी के अपने ख्वाब हैं, उस का अपना कैरियर है, तमाम सुखसुविधाओं से लैस और खुशहाल घरपरिवार का सपना है. लेकिन विडंबना यह है कि खुशहाल घरपरिवार की इन की तसवीर के फे्रम में बुजुर्ग उस तरह से शामिल नहीं हैं जिस तरह बुजुर्गों के दिलोजान का ये हिस्सा बने होते हैं.

वे कहती हैं कि मेरे पति को गुजरे काफी दिन हो गए. जब वे गुजरे तब हमारी बिल्डिंग के लोगों और पड़ोसियों ने आगे बढ़ कर बहुतकुछ किया. उन लोगों ने जो कुछ किया उसे भुला नहीं पाऊंगी. पति के गुजरने के बाद से मैं अकेली हूं. एक बार बीमार पड़ी तब पड़ोसियों ने नर्सिंगहोम में भरती कराया था. लेकिन अब पहले जैसे दिन नहीं रहे. सामाजिक स्तर में आई गिरावट और रिश्तों में आए ठंडेपन को देख भविष्य को ले कर मन में आशंकाएं उठती हैं. अब बुजुर्गों की सुध लेने वाला कोई नहीं है. दरअसल, आज विकास का एक अहम पहलू है आधुनिकता. आज आधुनिकता को जीवनशैली से जोड़ कर देखने का चलन है. और इस तथाकथित आधुनिक जीवनशैली में सुखसुविधाओं व सहूलियतों को ही प्राथमिकता हासिल है. इसी विकास की ही देन मैडिकल साइंस है जिस की बदौलत इंसान का जीवन कुछ लंबा खिंच गया है. आज जीवन 70-80 साल तक निकल जाता है. एक हद तक इस का खमियाजा परिवार में बुजुर्ग भुगत रहे हैं. परिवार में उन की अहमियत कम होती जा रही है.

इस तरह की जीवनशैली का जितना अधिक चलन बढ़ रहा है, पारिवारिक बंधन उतने ही शिथिल होते जा रहे हैं. इस से पहले भी संयुक्त परिवार टूटने के एक सामाजिक आघात से हम गुजर चुके हैं. आज भरापूरा संयुक्त परिवार लुप्तप्राय है. आज के तथाकथित शहरी विकास में मातापिता के साथ बच्चों का जीवनभर का साथ आधुनिक सभ्यता की चकाचौंध में बेमानी हो चला है. बच्चों को पालने में मातापिता पूरा जीवन लगा देते हैं और जब वे जीवन के अंतिम पड़ाव में पहुंच जाते हैं तब उन की देखभाल करने या घड़ी दोघड़ी उन के साथ बैठ कर बतियाने वाला कोई नहीं होता.

मन का मेल हो न पाया

काननबाला दक्षिण कोलकाता के लेक रोड निवासी हैं. कुछ समय पहले काननबाला के पति प्रशांत दास उन का साथ छोड़ गए. एक बेटा है, इंजीनियर है जो जरमनी में रहता है. पिता के गुजरने के 2 साल बाद बेटे में अचानक बड़ा बदलाव आते देख काननबाला हैरान रह गईं. उत्तराधिकारी होने का दावा, पिता की संपत्ति में बराबरी का हक जैसी आएदिन बेटे की मांगों को देखते हुए काननबाला का मन बेटे से फटने लगा. पिता की जब मृत्यु हुई और जब उसे खबर दी गई तब उस ने आने में असमर्थता जताई. तब काननबाला ने अपने पति का अंतिम संस्कार खुद किया. इस के बाद तो सामयिक दूरियां खाई में तबदील होने लगीं.

बेटे से संपर्क लगभग टूट ही गया था. फिर एक दिन अचानक इंजीनियर बेटा कोलकाता आया. अपने परिवार के साथ आस्ट्रेलिया घूमने जाने के लिए उस ने बीमार मां से पैसे मांगे. काननबाला ने पति के गुजरने के बाद अपने नाम का कोलकाता का मकान बेच कर पूरी रकम पहले ही बेटे को दे दी थी और फिर नदिया जिले के एक कसबे में पति के पैतृक घर में काननबाला अकेली रहने लगीं. अब अकसर बीमार रहने लगी थीं, इसीलिए और पैसे देने से काननबाला ने मना कर दिया. यह बात बेटे को नागवार गुजरी और वह जरमनी वापस लौट गया. इस बीच कई साल गुजर गए. काननबाला गंभीर रूप से बीमार पड़ीं. रिश्तेदारों से कहलवा कर काननबाला ने जरमनी में बेटे को आखिरी बार देखने के लिए खबर भी की. पर 7-8 बार फोन किए जाने के बाद भी बेटा मां से अंतिम मुलाकात के लिए तैयार नहीं हुआ. आखिरकार मां अंतिम बार बेटे को देखे बिना ही इस दुनिया से विदा हो गई.

अकेलेपन की मजबूरी

राजारहाट में मानसी बसु रहती हैं. इस बुजुर्ग महिला के परिवारों में बेटाबहू और पोता हैं. पर बहू के पास भी अपनी सास के लिए समय नहीं. सुबह की व्यस्तता के बाद वह टीवी के सासबहू सीरियल में मशगूल हो जाती है. बेटा है तो चश्मे की दुकान में नौकरी करता है. घर के बुजुर्गों के पास आ कर बैठने का समय किस के पास है? मानसी 75 साल पार कर चुकी हैं. बुढ़ापे की बीमारियों ने उन्हें काहिल कर दिया है. उन्हें टीवी की दुनिया से लेनादेना नहीं. वे बरामदे में आ कर बैठ जाती हैं. यहां से मन उचट जाता है तो कभीकभार पड़ोस में बैठ जाती हैं. बस, यही है उन की जिंदगी. आखिर वे करें तो क्या करें. उन की इच्छा होती है कि बेटे से बातचीत करें, पोते से बात करें पर किसी के पास वक्त ही नहीं. उन की आंखें बहुत कुछ कहना चाह रही थीं पर कह नहीं पाईं. कोलकाता के सौल्टलेक के रहने वाले हैं वंशीबदन धर. पिछले साल पत्नी गुजर गई. आज एकाकी जीवन गुजार रहे हैं. इन की एकमात्र ब्याहता बेटी मुंबई में घरपरिवार और नौकरी की चक्की में बुरी तरह जुती हुई है. कभीकभार ही पिता की सुध ले पाती है. जवांई कभीकभार एकमुश्त पैसे भेज देता है. ऐसे में वंशीबदन बहुत अकेला महसूस करते हैं. इसीलिए छिटपुट सामाजिक कार्यों में अपना दिल लगाते हैं. 2014 में राज्य सरकार के हिडको विभाग ने डिग्निटी फाउंडेशन के साथ मिल कर सीनियर सिटीजन मेले का आयोजन किया था. मेले में बुजुर्गों को अपने जीवन की दूसरी पारी में भी आत्मनिर्भर रहने के लिए प्रेरित किया गया था. मेले में वंशीबदन ने भाग लिया. मेले ने उन्हें प्रभावित किया. यहां वर्कशौप में उन्होंने हस्तकला का प्रशिक्षण लिया. अब वे मिट्टी के खिलौने बनाते हैं और बाजार में सप्लाई करते हैं.

उन का कहना है कि अकेले वही एकाकी जीवन नहीं गुजार रहे हैं. सौल्टलेक के दूसरे सैक्टर और ब्लौक में बहुत सारे ऐसे घर हैं जहां परिवार के बुजुर्ग अलगथलग या अकेले पड़ गए हैं. परिवार में उन की सुध लेने वाला कोई नही. हालांकि इस के लिए वे बच्चों को कुसूरवार भी नहीं ठहराते हैं. उन का कहना है कि समय का तकाजा ऐसा ही है. महंगाई इतनी बढ़ चुकी है कि बच्चे करें तो क्या करें. बेहतर जीवन के लिए बच्चों को हाथपैर मारना होता है. अपने शहर में काम नहीं है तो दूसरे गांवशहर उन्हें जाना ही पड़ता है. वंशीबदन को तसल्ली इस बात की है कि वे जीवन की दूसरी पारी में भी सक्रिय हैं.

रोजीरोटी की मजबूरी

शीला घोष, उम्र 87, हर रोज बिना नागा हुगली जिले के बाली से कोलकाता पापड़, चिप्स और बडि़यां बेचने के लिए आती हैं. इन की झुकी हुई कमर, गीता के कर्मयोगी दर्शन इन के भीतर आत्मनिर्भर होने का जज्बा पैदा करता है. मध्य कोलकाता के एक्साइड मोड़ से ले कर रवींद्र सदन तक इन्हें कहीं भी देखा जा सकता है. इलाके में ये शीला मौसी के नाम से जानी जाती हैं.

बीते जमाने में बांकुडा के विष्णुपुर में जमींदार परिवार की पैदाइश हैं शीला मौसी. पिता पेशे से डाक्टर थे. महज 14 साल की उम्र में बाली स्टेशनमास्टर से ब्याह हुआ. 15 साल की उम्र में बेटे की मां बन गईं. फिर बेटी भी हुई. बड़ा हो कर बेटा रेलवे में क्लर्क हो गया. पति पहले ही गुजर चुके थे. 2010 में फेफड़े के कैंसर से इन के एकमात्र बेटे की भी मृत्यु हो गई. बेटी भी किशोर उम्र तक पहुंचनेपहुंचते गुजर गई.

आज परिवार में बेटे की बहू और पोता है. बहू गुरदे की बीमारी से पीडि़त है. बेटे की मौत के बाद इन की जिंदगी में सबकुछ बदल गया. ममता बनर्जी के रेलमंत्री रहते हुए बारबार लिखने पर पोते को रेलवे में पिता के बदले नौकरी मिली थी. लेकिन उस पद के लायक शैक्षणिक योग्यता न होने के कारण कोर्ट के निर्देश पर नौकरी से इस्तीफा देना पड़ा. सासबहू पेट पालने के लिए मोमबत्ती बना कर बेचा करती थीं. चूंकि लागत की तुलना में आय कम थी, इसीलिए यह बंद कर पापड़, बडि़यां और चिप्स बेचती हैं. पद्मा की उम्र 80 पार है लेकिन मुसकराते हुए जीवन चलाने का जुगाड़ करने से कभी गुरेज नहीं किया. ये कोलकाता के उपनगर बागुईहाटी में हर रोज कंधे में अगरबत्ती का बैग झुलाती चली आती हैं और अगरबत्ती बेचती हैं. इन की उम्र का लिहाज करते हुए अकसर लोग आर्थिक मदद करने के लिए आगे भी आते हैं. लेकिन ये कभी किसी से दूसरी कोई मदद नहीं लेतीं. हां, पैसों की मदद के बदले कम से कम अगरबत्ती का एक पैकेट खरीद लेने का अनुरोध जरूर करती हैं. जिस की कीमत महज 10 रुपए होती है. बहुत ही कम उम्र में पद्मा के बेटे की मृत्यु हो गई. 2 पोते सरकारी स्कूल में पढ़ते हैं. पोते और पुत्रवधु को ले कर 4 लोगों के परिवार में यही एक कमाने वाली हैं. चाहे धूप हो, बारिश हो, घर से इन्हें निकलना ही है. दिनभर इलाके में घूमघूम कर अगरबत्ती बेचने के बाद रात की लोकल ट्रेन से सांतरागाछी पहुंचती हैं, जहां परिवार के 3 लोग इन का इंतजार करते रहते हैं. इन का यह अदम्य साहस ही है कि दूसरी पारी में भी जीवनरूपी युद्ध से हार नहीं माननी है इन्हें. भीख नहीं, दयाकरुणा नहीं, पद्मा का मानना है कि जब तक हाथपांव चलेंगे तब तक संघर्ष कर सम्मानपूर्वक जीवन जिएंगे.

कोई मिलने न आया

रासबिहारी रोड में रहने वाला पौलिटैक्निक छात्र संचयन घोष है. संचयन ने अपनी ही सोसायटी में रहने वाले एक ईसाई दंपती जेनी डिसूजा और रौबर्ट डिसूजा नाम के एक बुजुर्ग दंपती के एकाकीपन को करीब से देखा है. वह बताता है कि सोसाइटी के इस बुजुर्ग दंपती की एक बेटी और एक बेटा है. बेटी शादीशुदा और विदेशी एयरलाइंस में नौकरीशुदा है. बेटा विदेश में एक मल्टीनैशनल कंपनी में नौकरी करते हुए वहीं बस चुका है. घर पर ये बुजुर्ग अकेले हैं. 1-2 साल में बेटा या बेटी मुलाकात के लिए कभी चले आए तो ठीक, वरना डिसूजा दंपती को एकदूसरे का ही सहारा होता है.

जहां तक उन की निजी जरूरत के खर्च का सवाल है तो पैंशन से प्राप्त रकम से वह जरूरत पूरी हो जाती है. लेकिन खानेपीने के अलावा जीवन की और भी कई जरूरतें हैं, इन्हें कौन पूरा करे? संचयन बताता है कि अचानक एक दिन लिफ्ट के सामने लगे नोटिस से पता चला कि जेनी आंटी गुजर गईं.

पता यह भी चला कि 15 दिनों तक अस्पताल में मौत से लड़ती रहीं और आखिरकार उन्होंने हार मान ली. पर सोसाइटी में किसी को उन की बीमारी की खबर नहीं हुई. रिश्तेदारों में से न उन्हें अस्पताल में कोई देखने गया और न ही उन की मृत्यु के बाद कोई शोक जताने आया. रौबर्ट डिसूजा 15 दिनों तक अस्पताल में पत्नी जेनी के सिरहाने बैठे रहे. आज वे निपट अकेले हैं. अब तो वे किसी से बात तक नहीं करते. वरना पहले तो हर मिलने वाले का हालचाल ले ही लिया करते थे.

बस, केवल मौत की कामना

उत्तर कोलकाता के एक पुराने महल्ले में लक्ष्मी रहती हैं. गनीमत है कि उन का अपना मकान है. पति शेयरब्रोकर थे. शेयर कारोबार की नब्ज खूब पहचानते थे. अच्छाखासा पैसा कमाया था उन्होंने. उन की अपनी कोई औलाद नहीं थी, इसीलिए अपनी बहन की एक बेटी को उन्होंने गोद ले लिया था. पढ़ालिखा कर ब्याह कर दिया. ब्याह के बाद पर्वत्योहार में ही उन की बिटिया का मायके आना होता था. तब नवासेनवासी से घर गुलजार हो जाता था. उन्होंने अपने नवासे और नवासी का ब्याह भी करवाया. अब सब अपनेअपने घरपरिवार में खुश हैं. इस बीच एक दिन पति गुजर गए. तब 80 साल की लक्ष्मी टूट सी गईं. उन्हें लगा अब जीवन जी कर क्या करेंगी और एक दिन उन्होंने अपने जेवर से ले कर मकान तक बेटी के नाम लिख दिया. इस के बाद तो उन का रहासहा परिवार भी टूट गया. अब कोई इन की सुध तक नहीं लेता. अकसर बीमार रहती हैं. घर पर दूसरा कोई नहीं. मकान की निचली मंजिल में उन का एक किराएदार रहता है. कभीकभार बुलाने पर आ जाता है उन की देखभाल और वक्तजरूरत मदद भी कर दिया करता है. किराएदार दिनेश सिंह बताता है कि स्थिति इतनी भयावह है कि पिछली दीवाली की रात लक्ष्मी बाथरूम में पांव फिसलने से गिर गई थीं. रातभर बाथरूम में कराहती रहीं, मदद के लिए हमें पुकारती रहीं. लेकिन पटाखों की आवाज में न मैं कुछ सुन पाया और न ही किसी ने उन की कराह सुनी. सुबह जब वह उन्हें दीवाली की मिठाई देने गया तो उन के कराहने की आवाज सुन कर किसी तरह दरवाजा तोड़ कर घर में गया और बाथरूम से उठा कर अस्पताल पहुंचाया. जांच में पाया गया कि उन के कमर की हड्डी टूट गई है. औपरेशन कर कमर में प्लेट लगाने को कहा डाक्टर ने.

दिनेश बताता है कि वह एक लिफ्ट मैकेनिक है. उस की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं है कि वह अपनी मकान मालकिन के इलाज का खर्च उठा सके. इसीलिए फौरीतौर पर उस से जो कुछ बन पड़ा उस ने किया. इस के बाद उन की बेटी को खबर की. तब पता चला कि वे दिल्ली में अपने बेटे के यहां हैं. किसी तरह लक्ष्मी ने अपने हाथ की चूडि़यां उतार कर, बेच कर पैसों का इंतजाम करने के लिए कहा. तब जा कर औपरेशन हुआ.

घर तो वे लौट आईं, लेकिन इस बीच कमर में लगी प्लेट में 2-2 बार संक्रमण हो चुका है. वे चलनेफिरने से लगभग लाचार हैं. अकेली रहती हैं. सुबह 8 बजे एक आया आती है. घर की साफसफाई करने और दो वक्त का उन के लिए खाना बना कर उन के सिरहाने रख चली जाती है. साल में कभीकभार जब कोई रिश्तेदार उन से मिलने चला जाता है तो उन का हाथ पकड़ कर वे जारजार रोती हैं और कहती हैं कि न तो मर पा रही हूं और न ही जी पा रही हूं.

एक नहीं, बल्कि कई लक्ष्मी इसी तरह बिस्तर पर पड़े मौत की कामना कर रही हैं जिस से लगता है नई पीढ़ी जरूरत और उम्मीद से ज्यादा संवेदनहीन और क्रूर हो गई है जिस ने अपने तात्कालिक स्वार्थ व सुख के लिए अपने जन्म और जीवनदाताओं को जीतेजी नारकीय जीवन जीने के लिए मजबूर कर दिया है. यह पीढ़ी महत्त्वाकांक्षाओं की लड़ाई संस्कारों और पारिवारिक मूल्यों को हार कर जीती है जिस में बुजुर्गों के प्रति किसी तरह के आभार का भाव नहीं है. ऐसे में इस से अपने हिस्से की जिम्मेदारियां उठाने की उम्मीद करना बेवजह मन बहलाने और झूठी तसलली देने जैसी बात होगी. दो टूक कहें तो यह एक अक्षम्य अपराध है जो आने वाले कल में उस के साथ भी होना तय है.

असंवेदनशील होते युवा

आज के बुजुर्गों को तो एक हद तक महल्लेपड़ोस और नातेरिश्तेदारों का नाम का ही सही, साथ और सहारा मिल रहा है लेकिन जब मौजूदा पीढ़ी के युवा वृद्ध होंगे तब इन की सुध लेना वाला शायद ही कोई होगा, क्योंकि आज इन्होंने अपनों को अकेलेपन के अवसाद में झोंक रखा है. कल इन के बच्चे इन से ज्यादा कू्रर व अव्यावहारिक हो सकते हैं, जो आज सीख रहे हैं कि कैरियर और पैसे के सामने तमाम रिश्तेनाते बेमानी और बौने हैं. भारतीय समाज की धुरी रही संयुक्त परिवार व्यवस्था तेजी से ध्वस्त हो रही है. अब सगी औलाद पर भी भरोसा नहीं किया जा सकता. इस समस्या से ताल्लुक रखता दूसरा चिंतनीय पहलू यह है कि इस का कोई हल या बीच का रास्ता नहीं है. अपने अभिभावकों को असहाय और अपने हाल पर छोड़ कर पलायन कर रहे युवाओं को अपना हश्र समझ नहीं आ रहा है. जिन बच्चों को बड़े नाजों और उम्मीदों से अभिभावकों ने पालापोसा था वही अब बच्चों के बिना एकाकी जीवन गुजारने को मजबूर हैं.              

जीवन की शाम और आनंदधाम

वृद्ध आमतौर पर आश्रमों के नाम से बचते और कतराते नजर आते हैं पर 78 वर्षीया प्रेमा मेहरोत्रा, जो पति के गुजरने के बाद भोपाल के वृद्धाश्रम आनंदधाम आईं, दोटूक बताती हैं, ‘‘यहां आना मेरा अपना फैसला था. मुझे किसी से कोई गिलाशिकवा नहीं. मुझे लग रहा था कि मेरी वजह से मेरे अपनों की जिंदगी में खलल पड़ रहा था, इसलिए मैं यहां चली आई. मैं नहीं चाहती कि मेरी वजह से कोई परेशान रहे और मेरे लिए कोई परेशान हो.’’ प्रेमा मानती हैं कि वक्त बहुत तेजी से बदल रहा है और अब लोगों के पास इस की कमी भी हो चली है. स्वभाव से बहुत ही नम्र और सरल लेकिन व्यावहारिक मामलों में सख्त दिखने वाली प्रेमा खुद अपनी तरफ से पहल करती हुई कहती हैं कि बुढ़ापा कोई अभिशाप नहीं है और न ही भार है, बशर्ते खुद को वक्त और दुनिया के हिसाब से बदल लिया जाए. आनंदधाम को जिंदगी की शाम गुजारने के लिए एक बेहतर जगह बताने वाली प्रेमा के पास तजरबों का खजाना है. लिहाजा, उन्हें यह कहने का पूरा हक है कि उन्होंने दुनिया देखी है. इन दिनों वे यहां आराम कर रही हैं लेकिन मेहनत वाले छोटेमोटे काम वे खुद को फिट रखने के लिए करती हैं. पैसों की उन के पास कमी नहीं लेकिन हमउम्र संगीसाथियों की कमी थी जो यहां आ कर पूरी हो गई है. आनंदधाम में उन के जैसे लगभग 30 लोग और हैं.

इन सभी की एक नियमित दिनचर्या है. खास बात यह भी है कि तमाम सुखसुविधाएं, सहूलियतें आनंदधाम में है. यहां दिनभर लोगों की आवाजाही बनी रहती है. अधिकांश लोग जिज्ञासावश इन अपरिचित बुजुर्गों से मिलने आते हैं, सुखदुख उन से साझा करते हैं, उन के साथ तीजत्योहार मनाते हैं और उन्हें पर्याप्त सम्मान और आश्रम को यथासंभव सहायता देते हैं.

अच्छा लगता है अपनापन

वृद्ध हर दौर में अपनों द्वारा ठुकराए जाते और तिरस्कृत किए जाते रहे हैं, यह एक शाश्वत सत्य है जिस पर बहस और तर्ककुतर्क की तमाम संभावनाएं हैं. लेकिन इस से कुछ हासिल होगा या कोई निष्कर्ष या हल निकलेगा, ऐसा कहने की भी कोई वजह नहीं. आनंदधाम के हर बुजुर्ग की अपनी अलग कहानी है जिसे साझा करने से वे हिचकिचाते नहीं. लेकिन ऐसा भी नहीं कि वे अपनी कहानी सुनाने को उत्सुक रहते हों. इन बुजुर्गों का मकसद एक बेहतर वक्त गुजारना है, इसलिए वे अतीत की चर्चा प्रसंगवश ही करते हैं. यह बात यहां आनेवालों को आंदोलित कर देती है कि ये बुजुर्ग भले ही शारीरिक तौर पर थकेहारे और अशक्त से हों लेकिन इन में गजब की मानसिक व व्यावहारिक ऊर्जा है. इन की बातों में निराशा या अवसाद नहीं दिखाई देता. 70 वर्षीय अंबालाल चौहान महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले से आए हैं. उन के मुंह से यह सुन कर मन कसैला हो उठता है कि अभावों के चलते वे अपने बेटों के पास नहीं रहते. एक भरेपूरे परिवार का मुखिया जिस के 3 बेटेबहुएं और नातीपोते हों, सब को छोड़ कर क्यों वृद्धाश्रम आया. यह सवाल अपनेआप में करुणादायक है लेकिन अंबालाल की बातों और विचारों में न कोई पूर्वाग्रह है, न शिकायत है और न ही निराशा है. वे कहते हैं, ‘‘यहां आ कर सुकून मिल रहा है. जिंदगी के माने नए सिरे से समझ में आ रहे हैं और एक मकसद मिल गया है कि अब निश्चिंतता से रहना है. जिंदगी कम बची है, इसे जिंदादिली से जीना है.’’

ऐसा नहीं कि अंबालाल को अपने परिजनों से कोई सरोकार या मोह नहीं पर वे शायद उसे त्यागने की कोशिश में लगे हैं. दिनभर आनंदधाम के बड़े परिसर में वे इधर से उधर घूमते हैं और जब थक जाते हैं तो पत्रपत्रिकाएं पढ़ने बैठ जाते हैं. सुबह व शाम का वक्त साथियों से बतियाते कब कट जाता है, उन्हें पता ही नहीं चलता.

पढ़ने का जनून

आनंदधाम के एक वरिष्ठ सदस्य हैं तमिलनाडु के दिलीप दास. वे जिंदगी के 75 साल पूरे कर चुके हैं. आप इन के कमरे में जाएंगे तो हैरान रह जाएंगे. उन की पलंग के आसपास तरहतरह की किताबें बिखरी पड़ी हैं. रोजमर्राई सामान के अलावा जरूरत की दवाएं और चूर्ण सभी बुजुर्गों के कमरों में हैं लेकिन दिलीप दास के सिरहाने के पास किताबों के ढेर हैं. रहस्यों में उन की गहरी दिलचस्पी और दखल है. दिलीप दास उन लोगों से परहेज करते हैं जो किसी सनसनीखेज या दयाभरी कहानी की तलाश में यहां आते हैं. अगर उन से कोई इस आशय की बातचीत शुरू करता है तो वे पूछने वाले को बातोंबातों में किताबों पर ले आते हैं. अपने बारे में कुछ बताइए, जैसा कोई सवाल आप करेंगे तो जवाब में वे निश्चिंत ही यह कहेंगे कि कई दिनों से एक लेखक के नारायणस्वामी की लिखी किताब ‘लघु योगा वशिष्ठ’ ढूंढ़ रहा हूं जो थियोसोफिकल पब्लिशिंग हाउस, मद्रास की है. क्या आप किसी भी कीमत पर यह पुस्तक मुझे उपलब्ध करा सकते हैं?

पढ़ने के इस जनून ने उन्हें खास बना दिया है. आनंदधाम के एक और बुजुर्ग सदस्य नागपुर के मणि अय्यर बताते हैं कि दिलीप दास किताबों के दीवाने हैं. आमतौर पर यहां आने वाले लोग बुजुर्गों के लिए खानेपीने का सामान, कपड़े और दूसरा जरूरी सामान तो लाते हैं पर पुस्तकें कोई नहीं लाता जिस की बुजुर्गों को सख्त जरूरत होती है.

ये तो पढ़ाते हैं

आनंदधाम आ कर सुखद अनूभूति होने की कई वजहे हैं. यहां आ कर यह धारणा महज धारणा ही रह जाती है कि वृद्धाश्रमों में कराहते बूढ़े ही होंगे जो अपनों, गैरों और जमाने को कोसते रहते हैं. एक और बुजुर्ग कभी पेशे से शिक्षक रहे करन सिंह परिहार शाम के वक्त गरीब बच्चों को ट्यूशन पढ़ाते हैं. वे गणित के अच्छे जानकार हैं. मेरी पढ़ाई और शैक्षणिक अनुभवों का पूरा फायदा बच्चों को मिल रहा है. करन सिंह बताते हैं कि गणित हमेशा से ही कठिन विषय रहा है पर इस में एक दफा दिलचस्पी पैदा हो जाए तो बेहद सरल लगने लगता है. यही हाल जिंदगी का है. इसे आप कठिन समझेंगे तो यह वाकई कठिन हो जाएगी लेकिन सही फार्मूलों का इस्तेमाल करेंगे तो जिंदगी के सवालों को हल कर पाएंगे. करन सिंह की यह दार्शनिक सी बात सुन लगता नहीं कि वे कभी एक भयावह ऐक्सिडैंट से गुजरे हैं और निजी जिंदगी के कड़वे तजरबे भी उन के खाते में हैं. लेकिन उन के लिए भी गुजरे कल के कोई माने नहीं. आनंदधाम के कर्ताधर्ता जरूरतमंद गरीब बच्चों को उन के पास ट्यूशन पढ़ाने के लिए भेजते हैं. इसी में उन्हें अपनी और जिंदगी की सार्थकता लगती है. मूलतया धार जिले के रहने वाले करन सिंह बताते हैं कि बुढ़ापे में खुद को असुरक्षित महसूस करना एक स्वाभाविक बात है. अब परिवारों की संरचना बदल रही है. वृद्धों का पहले सा मानसम्मान और पूछपरख नहीं रह गई है. इस की वजहें भी हैं. परिवार जिस तेजी से एकल हो रहे हैं उस का खमियाजा वृद्धों को ही नहीं, बल्कि बच्चों को भी भुगतना पड़ रहा है. हम किसी एक पीढ़ी को ही दोष नहीं दे सकते. हां, इतना जरूर है कि जरूरतें इतनी न बढ़ाई जाएं कि उन्हें पूरा करतेकरते जिंदगी दुश्वार और अपने पराए लगने लगें.

सेवा से सुकून मिलता है

आनंदधाम की एक युवा सदस्य हैं अर्चना निकोसे. उन के हिस्से में बुजुर्गों की सेवा का काम आया है. सुबह 11 से ले कर शाम 6 बजे तक अर्चना इन बुजुर्गों के पास चक्कर लगाते रहती हैं. हालांकि कभीकभी उन्हें खीझ भी होती है लेकिन आखिरकार सुकून ही मिलता है. अर्चना बताती हैं, ‘‘सेवा करना अपनेआप में चुनौतीपूर्ण काम है, खासतौर से बुजर्गों की, जो खास आदतों के गुलाम होते हैं. लेकिन आनंदधाम के बुजुर्गों का प्यार व स्नेह मुझे मिलता है तो मैं सारी थकान और तनाव भूल जाती हूं.’’ आनंदधाम कार्यालय के प्रभारी राम धाड़कर बताते हैं कि बुजुर्ग हमारी धरोहर हैं. हम इन की नहीं, ये हमारी जरूरत हैं, यह सोच लिया जाए तो फिर कोई समस्या नहीं रह जाती.

–भारत भूषण श्रीवास्तव

बुजुर्गों के प्रति संवेदनशील रहें

— रमेश कुमार माहेश्वरी, अध्यक्ष, आनंदधाम, भोपाल

सेवा भारती द्वारा संचालित आनंदधाम के अध्यक्ष रमेश कुमार माहेश्वरी से जब आनंदधाम में जिंदगी की शाम गुजार रहे बुजुर्गों के बारे में चर्चा की गई तो उन्होंने घरपरिवार से तिरस्कृत मांबाप के लिए आसरा बनते जा रहे वृद्धाश्रमों पर चिंता जाहिर की. भारतीय संस्कृति की मजबूत नींव संयुक्त परिवार की कल्पना को गएकल की बात मानते वे कहते हैं कि जो मातापिता जीवन की सारी पूंजी और खुशियां बच्चों की परवरिश व उन का भविष्य संवारने में लगा देते हैं उन के प्रति संतानों का अपनी जिम्मेदारी से भागना अच्छा संकेत तो कतई नहीं. रमेश माहेश्वरी आधुनिकता के दौर को गलत नहीं ठहराते लेकिन वे कहते हैं कि इस की शर्त अगर बुजुर्गों को वृद्धाश्रमों में भेजना है तो इस से सहमत नहीं हुआ जा सकता.

सेवा भारती का संकल्प दोहराते हुए वे बताते हैं कि हमारी कोशिश निराश्रित वरिष्ठजनों की निस्वार्थ सेवा करना है और हर मुमकिन कोशिश यह है कि हम उन्हें घर जैसा माहौल दे पाएं. बुजुर्गों के मनोरंजन के लिए और बेहतर तरीके से वक्त गुजारने केलिए सेवा भारती द्वारा लगातार तरहतरह के आयोजन इसी मकसद से किए जाते हैं. बुजुर्गों के प्रति पनपती संवदेनहीनता के बारे में वे कहते हैं कि इस बारे में स्पष्ट राय कायम कर पाना मुश्किल है लेकिन यह जरूर तय है कि बुजुर्गों को उन के किए का प्रतिदान नहीं मिल रहा है. क्या वजह है कि कुछ संतानें मांबाप को घर से निकाल देने में परहेज नहीं करतीं और आनंदधाम में आने वाले ऐसे युवाओं की भी कमी नहीं जो बुजुर्गों से सहानुभूति रखते हर तरह का सहयोग करने को तत्पर रहते हैं. कुछ तो अपने नन्हे बच्चों को सिर्फ इसलिए लाते हैं कि वे देख सकें कि नानानानी, दादादादी कैसे होेते होंगे. यह युवा पीढ़ी को सोचना चाहिए कि उन पर आश्रित वृद्ध भार नहीं, बल्कि उन के प्रति उन के पास आभार व्यक्त करने का अच्छा अवसर है.

खिलाड़ियों से खेल

तेलंगाना के उपमुख्यमंत्री ने पी वी सिंधु को बेहतर कोच का आश्वासन दे कर आफत मोल ले ली. ओलिंपिक बैडमिंटन में रजत पदक पाने वाली सिंधु गोपीचंद के प्रशिक्षण में खेलती है और गोपीचंद लगातार रियो में उस के साथ, बिलकुल भावहीन पर सतर्क हो कर, स्तंभ की तरह खड़े रहे. कुछ देना है, इस तर्ज पर उपमुख्यमंत्री मोहम्मद महमूद अली बोल पड़े कि सिंधु को बेहतर सुविधाएं और बेहतर कोच दिया जाएगा. अभी एक सप्ताह हुआ भी नहीं कि नेता लोग अपरोक्ष रूप से गोपीचंद को नाकाम साबित करने में जुट गए ताकि वाहवाही वे खुद लूट सकें. यह हमारी पुरानी आदत है कि हम काम करने वाले को नकारते हैं, सिंधु को धन्यवाद देना है तो उन की बात मानो, श्रेय मत लो.

हरियाणा में एक सभा में साक्षी मलिक का स्वागत किया गया लेकिन मंच पर नेता ही बोलते रहे, मानो वे ही कांस्य पदक जीत कर लाते रहे हैं. काम करने वालों के प्रति इस प्रकार का भेदभाव आम है क्योंकि इस देश में चलती तो बोलने वालों की है, काम करने वालों की नहीं. सिंधु व साक्षी ने देश की लाज रखी है वरना 20 पदक लाने का वादा करने वालों को मुंह दिखाने की जगह न मिलती. उस पर भी वादों की बिरादरी किसी तरह इन खिलाडि़यों की प्राप्ति को अपना समझ रही है क्योंकि उन के रहनेखानेपीने, आनेजाने का खर्च तो उसी ने ही दिया है न. खेलों की राजनीति बहुत ही बुरी है और हजारों प्रतिभाएं इसीलिए हार जाती हैं. मैदान से ज्यादा एक खिलाड़ी को अपना समय दफ्तरों में भत्तों के भुगतान और टूर्नामैंटों में आनेजाने की अनुमतियों के लिए लगाना पड़ता है. खिलाडि़यों को उन की प्रतिभा के लिए यहां कोई स्थान नहीं दिया जाता. खेल हमारे समाज में भी रचेबसे हैं पर वे अभी तक दंगल, कबड्डी या पतंग जैसे ही हैं. क्रिकेट साहिबी खेल है. पी वी सिंधु और साक्षी मलिक ने देश का जो मान रखा है, वह हम थोड़े दिन याद रखेंगे, फिर उन्हें किताबों और फाइलों में दफन कर देंगे. वे अगर दरदर भटकने लगें तो कोई बड़ी बात नहीं. इतिहास तो यही कहता है.

हमारी बेडि़यां

हमारे संयुक्त परिवार में मासिकधर्म के दौरान घर की स्त्रियों को घर के किसी भी सदस्य को छूने की सख्त मनाही रहती थी. उस महिला को एक अलग कमरा दे दिया जाता था. यदि हम बच्चे भी गलती से उन्हें छू लेते तो हमारे ऊपर गंगाजल या गौमूत्र छिड़कते थे. हमें यह बताया गया था कि जिस के ऊपर छिपकली गिर जाती है उसे 5 दिन की छूत लग जाती है और हम बच्चे, जोकि 5 से 10 साल के बीच के थे, इसे सच मानते. एक दिन मैं और मेरी 7 वर्षीया बड़ी बहन पड़ोसी के घर में उछलकूद में लगे थे कि अचानक मेरे ऊपर छिपकली गिर गई. मेरी बहन दौड़ते हुए आई और बोली, ‘‘इसे मत छूना, इसे छूत लग गई है.’’ पड़ोसी के घर में सभी लड़केलड़कियां जवान थे. वे बेचारे शर्म से गड़े जा रहे थे. आखिर में उन की मां हम दोनों को घर वापस लाईं और घरवालों को हमारी करतूत भी बताई. उस दिन घर में सब को बड़ी शर्मिंदगी उठानी पड़ी.    

दीपा पांडेय, लखनऊ (उ.प्र.)

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‘‘मांजी, थोड़ी रोटी दे दो. बहुत भूख लगी है,’’ बड़ी सी बोरी में कचरा डालते हुए उस ने कहा. श्यामल वर्ण, मैलेकुचैले कपड़े, बिखरे बाल, अवस्था 11-12 वर्ष रही होगी. घरों से कचरा इकट्ठा करना उस का एकमात्र जीविका का साधन था. अकसर खाने के लिए वह कुछ मांग लेता और मेरे लिए तो ‘अन्नदान, महादान’ है, खाने को कुछ न कुछ दे देती. उस दिन किसी कारण मेरा मूड बेहद उखड़ा हुआ था. ऐसे में उस की मांग से मैं चिढ़ गई. नहीं तो मैं न कह सकी मगर रात की बची रोटियां, जो मैं जानवरों को डाला करती थी, ठंडी सब्जी के साथ उस के सामने रख दीं. वह इत्मीनान से खाने लगा. तृप्ति का वही भाव जो गरम रोटी खाते समय उस के चेहरे पर होता था. हृदय तनिक द्रवित हुआ.

मैं ने पूछा, ‘‘क्यों रे, रोज मुझ से ही रोटी मांगता है, किसी और घर की रोटी अच्छी नहीं लगती क्या?’’

वह बोला, ‘‘जहां से मिलती है, वहीं से तो मांगूंगा. बाकी लोग या तो मना कर देते हैं या सड़ागला, खराब खाना पकड़ा देते हैं. कई लोग तो गिलास में पानी तक नहीं देते कि कहीं उन का धर्म भ्रष्ट न हो जाए हमारे छूने से.’’ मैं अवाक थी उस की बात सुन कर और अपने व्यवहार पर शर्मिंदा भी. आज के तथाकथित आधुनिक समाज में अभी तक छुआछूत की विकृत मानसिकता के शिकार हैं लोग, मैं हैरान थी और क्षुब्ध भी.

दीपिका अरोड़ा, जालंधर (पंजाब)

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