सैकड़ों सालों की गुलामी के जबड़े से निकलने के बाद भी हिंदू समाज न तो अंधविश्वास की दलदल से बाहर निकल पाया है और न ही इस ने अपने चारों तरफ फैले पाखंडों के तानेबाने को तोड़ने का प्रयास ही किया है. दूरदराज के इलाकों में रहने वाले पिछड़े समाज को तो छोडि़ए जहां अंधविश्वास पनपने की वजह अशिक्षा माना जाता है, अत्याधुनिक शहरों के उच्च शिक्षित लोग भी अंधविश्वासों के भंवर में भटक रहे हैं. अंधविश्वास के जाल में अनपढ़ लोग उलझ कर रह जाएं, यह बात तो गले उतरती है लेकिन अच्छेखासे पढ़ेलिखे, समझदार लोग भी अंधविश्वास को गले लगा लें तो हैरानी होती है. पितरों को मनाने के नाम पर समाज में पंडितों के पाखंडों का गोरखधंधा धड़ल्ले से चल रहा है. इसे देख कर यह यकीन ही नहीं होता कि हम आईटी व वाईफाई की क्रांति के दौर में जिंदगी जी रहे हैं. यों तो भारत में रह रहे लोगों का हर महीना, हर घड़ी, हर दिन ही अंधविश्वासों व कुरीतियों को निभाने में गुजरता है, लेकिन अश्विन पूर्णिमा से अश्विन अमावस्या तक के 15 दिन मरे हुए पूर्वजों को फिर से जिंदा अनुभूत करने के दिन होते हैं. इस पखवाड़े में हिंदू अपने मृत मातापिता, दादादादी आदि की स्मृति में ब्राह्मणों को भोजन करा कर दानदक्षिणा आदि देते हैं.
इस कुरीति को गांवदेहात के छोटे परिवारों से ले कर शहरों के रईस परिवारों में भी बखूबी निभाया जाता है. इस कुरीति को निभाने से भले ही पितरों का भला हो या न हो, ब्राह्मणों का भला जरूर होता है. महंगाई के इस दौर में मुफ्त के इस भोजन व साथ में मिलने वाले कपड़ों की जोड़ी को ब्राह्मण छोड़ना नहीं चाहते. इतना ही नहीं, आजकल के मौडर्न ब्राह्मण तो खाने के बाद टिफिन तक पैक करा कर घर ले जाते हैं, ताकि उन के समूचे परिवार को दोजून का बढि़या भोजन मिल जाए, भले ही मृतक की आत्मा तृप्त हो, न हो. यह जान कर भी हैरानी होगी कि साल के साढ़े 11 महीने पितर भूखे सोए रहते हैं, अश्विन में वे जाग कर भूख महसूस करते हैं. तभी तो केवल 15 दिनों में ब्राह्मणों के जरिए उन्हें भोजन ट्रांसफर कराया जाता है. किसी अब्राह्मण द्वारा उन्हें तृप्ति नहीं हो सकती. साथ ही, पितरों तक यदि ऐसा गरिष्ठ भोजन पहुंच सकता है तो उन के शौचमूत्र आदि की क्या व्यवस्था है?