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टाइम मैनेजमेंट से करें अकेलेपन का मुकाबला

45 साल के राधेश्याम मां, पत्नी और 12 साल की बेटी के साथ आराम से जीवन गुजरबसर कर रहे थे. उन की 65 साल की मां भी थी. किसी तरह की कोई दिक्कत न थी. उन का अपना छोटा सा कपड़े बेचने का काम था. उस से परिवार के गुजरबसर लायक कमाई हो रही थी. इस बीच एक दिन दुर्घटना में उन की पत्नी की मृत्यु हो गई. इस की कल्पना किसी ने नहीं की होगी. कुछ माह तो गुजर गए.

इस के बाद राधेश्याम ने दुकान के साथ ही साथ अपने घर और बेटी को खुद संभालना शुरू किया. पहले यह काम पत्नी कर लेती थी. पत्नी के पास अपनी स्कूटी थी. कई बार अगर राधेश्याम को जरूरी काम होता था तो पत्नी दुकान भी संभाल लेती थी. दुकान पर काम करने वाले 3 नौकर थे. राधेश्याम शहर के साप्ताहिक बाजारों में ठेले पर दुकान लगाने के लिए 2 नौकर भेजता था. एक नौकर के साथ वह अपनी दुकान संभाल लेता था.

पत्नी के बाद उस ने अपनी दुकान पर एक नौकर की संख्या बढ़ा दी. दुकान पर सीसीटीवी कैमरा लगवा दिया. दुकान से वह कुछ समय निकालने लगा. इस समय को उस ने अपने घर और बेटी को देना शुरू किया. मां की मदद करने लगा. जो राधेश्याम घर का एक भी काम नहीं करता था, केवल दुकान देखता था, आज घर में सफाई और रखरखाव तक करने लगा था. मां उसे मना भी करती, फिर भी वह काम करता. पहले वह खुद अपने कपड़े और सामान बिखेर दिया करता था.
दुकान के कागजात इधरउधर रखता था. इस के बाद जरूरत पड़ने पर पत्नी से मांगता था और चीखपुकार मचाता था. बेटी को कहना पड़ता था कि बाजार, पार्क और सिनेमा दिखा दो. वह बहाना बना देता था. अब वह बिना कहे मां और बेटी को ले जाता था. पत्नी की स्कूटी का हमेशा खयाल रखता था. उस को कभीकभी चला भी लेता था. बेटी के साथ उस का स्वभाव एकदम बदल गया था. गुस्सा खत्म हो गया था. घर में उस ने मदद के लिए 2 नौकर रख लिए. घर को देख कोई नहीं कह सकता था कि इस घर में मालकिन नहीं है. खुद भी पूरी तरह से फिट और स्मार्ट दिखता था.

जिंदगी के 2 पहिए होते हैं पतिपत्नी

32 साल के किशोर की शादी स्वाति के साथ हुई थी. उन के 5 साल का बेटा था. किशोर और स्वाति ने प्रेमविवाह किया था. वह गांव से दूर शहर में रहता था. कुछ दिनों से स्वाति झगड़ा करने लगी थी. कई बार उस ने पुलिस से किशोर की झूठी शिकायत भी की थी. पुलिस ने एक बार उस को 24 घंटे के लिए थाने में बिठा कर रखा था. जब किशोर ने लिखित में माफी मांगी तो पुलिस ने छोड़ दिया. इस तरह के झगड़े के बीच एक दिन स्वाति ने कहा कि वह तलाक लेना चाहती है. किशोर भी रोजरोज के झगड़े से तंग आ गया था. उस ने तलाक की सहमति दे दी.

यहां समस्या फंसी कि 5 साल का बेटा कहां रहेगा? स्वाति ने कहा, बेटा वह नहीं रखेगी क्योंकि उस के पास कोई कमाई का जरिया नहीं है. वह किशोर से कोई गुजारा भत्ता नहीं लेना चाहती. किशोर ने बेटे को अपने पास रख लिया. किशोर ने घर में एक आदमी और एक औरत नौकर रखा. जब औफिस जाता था, बेटे को डे-केयर स्कूल में छोड़ देता था. जिस दिन बेटे की स्कूल से छुट्टी होती थी, वह औफिस के काम को ‘वर्क फ्रौम होम’ करता था. वह अपने साथ बेटे को भी घर के कामकाज व गार्डन को संभालने में लगा लेता था. अकसर बापबेटे साथ होते थे. किशोर का मानना था कि पतिपत्नी एक गाड़ी के दो पहिए जैसे होते हैं. एक पहिया खराब हो जाए तो दूसरे पहिए को जीवन और परिवार की गाड़ी अपने बल पर खींचनी चाहिए.

अकेलेपन में ‘टाइम मैनेजमेंट’ करें

आज के दौर में कम उम्र के पतिपत्नी भी अकेलेपन का शिकार हो रहे हैं. ऐेसे में पति किस तरह से खुद का अकेलापन दूर करे और अपनी लाइफ स्टाइल भी कैसे बनाए, यह समझने की जरूरत है. यह अकेलापन 2 कारणों से हो रहा है, एक में जीवनसाथी की असमय मृत्यु हो जाती है, दूसरे में शादी के बाद तलाक के कारण अकेलापन होता है. यह बात सही है कि पत्नी के बिना अकेलापन बहुत महसूस होता है. ऐसे में अगर बेचारा बन कर रहेंगे तो जीवन और कठिन हो जाएगा. तो पहले यह सोच लें कि आप को ‘बेचारा’ बन कर नहीं रहना है. ऐसा न लगे कि पत्नी नहीं है तो ‘देवदास’ की तरह से उदास रहने लगे हैं.
अपने समय का मैनेजमेंट करें. पत्नी रहती है तो आदमी बिंदास जीवन जीता है. उसे घरपरिवार की चिंता नहीं रहती. कैसी भी पत्नी हो, ज्यादातर पति का साथ देती हैं. ऐसे में पत्नी की कमी रहती है. उस कमी को पूरा करने के लिए घर की देखभाल खुद करें. जरूरत हो तो घरेलू नौकर रख लें. कोशिश करें कि महिला नौकर कम रखें. अगर रखें तो उन के काम वाली जगहों पर सीसीटीवी लगा कर रखें. अपना रहनसहन और खानापीना ठीक से करें. अपनी पर्सनल केयर खुद करें. मन को खुश रखने वाले काम करें.

औफिस और बिजनैस से समय निकाल कर ऐक्सरसाइज करें. मनपंसद खाएं और जरूरत हो तो बना कर खाएं. खाली समय में दोस्तों के साथ बैठें. अगर संयुक्त परिवार है या परिवार में मां या बहन हैं तो भी उन पर बहुत निर्भर न रहें. अगर घर भी नहीं है तो भाई और भाभी के साथ रहने की जगह पर बहनबहनोई के साथ रहना ज्यादा अच्छा होगा. बहन को भाई बोझ नहीं लगता पर कई बार भाभी को देवर बोझ लगने लगता है.
अगर अकेले हैं, अपना घर नहीं है, सक्षम हैं, तो अपार्टमेंट में अपना फ्लैट ले लें. अगर खरीदने के पैसे नहीं हैं तो किराए पर ले लें. अपार्टमेंट में रहना सुरक्षित और आरामदायक होता है. बहुत सारे काम मेंटिनैंस के हिस्से आ जाते हैं. घूमनेटहलने की जगहें ज्यादा होती है. जिम और पूल भी होते हैं. कई बार यहां रिटायरमैंट के बाद भी रहने वाले मिल जाते हैं जिस से एक ग्रुप भी मिल जाता है.

हौबी बना लें

अच्छी सी हौबी अकेलापन दूर करने का सब से बड़ा साधन होती है. इस में समाज की सेवा करने वाले काम भी कर सकते हैं. उस में बहुत लोगों से मिलना हो जाता है. जिस से अकेलापन दूर हो जाता है. राजनीति में भी समय लगा सकते हैं. यहां पर थोड़ा सा पावर मिलने लगता है. तो आप का समय कट सकता है. इन सब कामों के साथ अपना ध्यान जरूर रखें. आप हिट तभी होंगे जब फिट रहेंगे. अकेलेपन का शिकार हो कर बीमार होने से अच्छा है कि अपनी पंसद के काम कर के खुश रहें. दूसरों को इस बात का एहसास न होने दें कि आप अकेलेपन का शिकार हैं.
अकेलेपन को दूर करने के लिए नशे और गलत संगत में न पड़ें. कई बार इस का दुरुपयोग लोग कर लेते हैं. अगर आप के पास संपत्ति और जायदाद है तो यह परेशानी कभी भी गले पड़ सकती है. ऐसे में इस तरह के लोगों से दूर रहें. कई आपराधिक गिरोह ऐेसे हैं जो बूढ़े और अकेले रह रहे लोगों को अपने जाल में फंसाने के लिए महिलाओं, घरेलू नौकरों, आप के घर आनेजाने वाले, जैसे धोबी, माली, और दूसरे नौकर को तैयार करते हैं. इस के बाद आप को अपना शिकार बना लेते हैं.

समझदारी से रखें नौकर और रिश्तेदार

कई लोग अकेलेपन में घर के खाली पड़े कमरों में किराएदार रख लेते हैं. किराएदार रखते समय यह देखें कि वह परिवारवाला हो. अकेले आदमी या लड़की को किराए पर मत रखें. किराएदार रखने से पहले उस की छानबीन कर लें, जिस से आगे धोखा न हो सके. आप जिस को भी अपने साथ रखें, होशियारी के साथ रखें. भले ही वह नौकर, किराएदार या रिश्तेदार ही क्यों न हो? अपने घर नियमित आनेजाने वाले लोगों से भी सचेत रहें.
आज के समय में टैक्नोलौजी ने जीवन को सरल बना दिया है. होम अपलाइंसैस आप के साथी जैसा ही काम करते हैं. इन में वाशिंग मशीन, वैक्यूम क्लीनर, डिशवाशर, रोटीमेकर, इडलीमेकर, सैंडबिचमेकर, कपड़ा प्रैस करने की मशीन बहुतकुछ हैं जिन का प्रयोग आदमी भी आसनी से कर के मेहनत और समय बचा सकते हैं, स्मार्ट दिख सकते हैं, आत्मनिर्भर और स्मार्ट रह सकते हैं. अकेलेपन को दूर करने के लिए कई बार लोग दूसरी शादी करने का प्लान कर लेते हैं. यह फैसला लेते समय बहुत सावधान रहें. सही रिश्ता मिलने पर ही शादी करें.

तांत्रिकों के चक्कर में फंस कर अपनों का खून

इस 21 मई को मुजफ्फरनगर में एक दिल दहला देने वाली घटना सामने आई. अपने ऊपर आए कथित साए से छुटकारा पाने के लिए सगी चाची ने अपनी मां के साथ मिल कर एक महीने के अंदर अपने देवर के 2 बच्चों की हत्या कर दी. दोनों हत्यारिन महिलाओं ने एक तांत्रिक के कहने पर इस जघन्य हत्याकांड को अंजाम दिया था.

दरअसल 7 साल के बच्चे केशव के मर्डर केस में मृतक की चाची अंकिता और उस की मां रीना को दोषी पाया गया. चाची ने तांत्रिक के कहने पर एक नहीं बल्कि दो बच्चों की बलि देने का जुर्म कबूल किया. उस ने तांत्रिक भगत रामगोपाल व अपनी मां रीना के कहने पर घर में नीचे अकेला देख कर केशव को दूसरे कमरे में ले जा कर पुराने दुपट्टा से गला दबा कर उसे मार दिया था. इस के बाद एक कागज के टुकड़े पर लाल रंग से लिख कर छत पर डाल दिया जिस से घर वालों को लगे कि यह किसी ऊपरी साए का काम है. एक माह पहले केशव के छोटे भाई 4 वर्षीय अंकित उर्फ लक्की की भी उसी ने गला दबा कर हत्या की थी, जबकि घरवालों को लगा था कि वह बीमारी से मरा है.

जांच के दौरान पुलिस को शव के पास से तंत्रमंत्र का कुछ सामान और एक कागज में कुछ लिखा नजर आया था. पुलिस ने लिखावट का मिलान किया तो मृतक की चाची से लिखावट का मिलान हुआ. उस के बाद कड़ाई से पुलिस ने पूछताछ की तो महिला ने अपना जुर्म स्वीकार कर लिया. पुलिस ने इस खौफनाक हत्याकांड में चाची और उस की मां को जेल भेज दिया.

अंधविश्वास के चक्कर में हत्यारिन बनी मां

हाल ही में (25 जनवरी, 2024 ) हरिद्वार में हर की पौड़ी पर तंत्रमंत्र के चक्कर में फंस कर एक मां ने ही 7 साल के बेटे को डुबो कर मार डाला. दरअसल एक तांत्रिक ने कहा था कि हरिद्वार में गंगा की धार में बच्चे को डुबकी लगवाने से उस का ब्लड कैंसर ठीक हो जाएगा. मां ने तांत्रिक की बात सुनी और अपने बीमार बच्चे को हरिद्वार में गंगा की डुबकी लगाने लगी जिस से सांस घुटने से बच्चे की मौत हो गई. जब बच्चे को पानी से निकाला गया तो वह मर चुका था. सामने बच्चे का शव पड़ा था और महिला जोरजोर से पागलों की तरह हंस रही थी. बच्चे की मौत की खबर से अफरातफरी मच गई. उस के मातापिता समेत 3 लोगों को हिरासत में ले लिया गया.

तांत्रिक बाबा के चक्कर में युवक ने मासूम के साथ की दरिंदगी

03 अक्टूबर, 2023 को पंजाब में एक 4 वर्षीय बच्चे की हत्या करने का मामला सामने आया था. मृतक बच्चे की पहचान रवि राज के रूप में हुई. बच्चे की मां ने पुलिस को बताया कि उस के 3 बच्चे हैं जोकि बैड पर सो रहे थे और वे दोनों पतिपत्नी फर्श पर सो रहे थे. रात में करीब 2 बजे जब उस की आंख खुली तो उस ने देखा, उस का बेटा रवि बिस्तर पर नहीं है और वहां पर एक मोबाइल फोन गिरा था.

उन्होंने बच्चे को ढूंढने की कोशिश की. इतने में वहां पुलिस आ गई और बताया कि कुछ दूरी पर एक बच्चे का शव पड़ा हुआ है. उन्होंने जब जा कर देखा तो शव उन के बेटे का ही था जिस की गला रेत कर हत्या कर दी गई थी. पुलिस ने सीसीटीवी कैमरे खंगाले. इस जांच के दौरान सामने आया कि पड़ोस में रहने वाला व्यक्ति उन के बच्चे को ले कर जा रहा था. बच्चे की हत्या तांत्रिक के कहने पर देवीदेवताओं की पूजा और बलि चढ़ाने के लिए की गई थी. आरोपी की पहचान अरविंदर कुमार (23) के रूप में हुई. पुलिस द्वारा बच्चे के खून से लथपथ कपड़े व हत्या में इस्तेमाल चाकू को भी जब्त कर लिया गया.

रायगढ़ में काला जादू के शक में बेटे ने की पिता की हत्या

छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले में एक नाबालिग लड़के ने तांत्रिक के कहने में आ कर अपने ही पिता की हत्या कर दी. तांत्रिक ने पिता पर जादूटोना करने का शक जताया था. इसी शक में बेटे ने अपने साथियों के साथ मिल कर पिता को मार डाला और लाश में पत्थर बांध कर नदी में फेंक दिया. यह मामला 1 अगस्त, 2022 को सामने आया. आरोपी ने हत्या के पीछे वजह बताते हुए कहा कि उस की पत्नी का भाई इस हत्याकांड में शामिल था. घर में सब लोगों की तबीयत खराब होती थी. इसलिए वह एक तांत्रिक के पास गया और तांत्रिक ने उस को खत्म करने के लिए कहा.

ये सारी घटनाएं एक ही हकीकत की तरफ इशारा करती हैं. हकीकत यह है कि तंत्रमंत्र के छलावे में आ कर इंसान अपना ही बड़ा नुकसान कर बैठता है. तांत्रिक और बाबा अपनी बातों के जाल में लोगों को ऐसे फंसा लेते हैं कि इंसान का दिमाग कुंठित हो जाता है. उस के सोचनेसमझने की शक्ति चली जाती है और वह अपनों के खून से ही अपने हाथ रंग लेता है. सच तो यह है कि अंधविश्वास एक ऐसा जाल है जिस में इंसान फंसता ही चला जाता है और उस की शुरुआत कहीं न कहीं किसी बाबा, तांत्रिक या आस्था के नाम पर लोगों को बेवकूफ बनाने वालों से होती है.

इसलिए आप भी अपनी परेशानी से छुटकारा पाने के लिए किसी तांत्रिक के संपर्क में हैं तो जरा सावधान हो जाइए. तांत्रिकों ने अंधविश्वास का ऐसा भ्रम फैला रखा है जिस में भोलेभाले, परेशान लोग आसानी से फंस रहे हैं. परेशान लोगों की पीड़ा खत्म करने के लिए तंत्रमंत्र के माध्यम से लोगों को चूना लगाया जा रहा है. कभी इलाज के नाम पर तांत्रिक किसी की अस्मत लूट रहे हैं तो कभी लाखों रुपए की ठगी कर लेते हैं और कभी किसी की हत्या कराई जाती है. लोगों को इस जंजाल की जानकारी तब होती है जब तांत्रिक उन से करतूतें करवा कर किनारा कर लेता है.

औनलाइन जाल में भी फंसाते हैं बाबा और तांत्रिक

आजकल औनलाइन का जमाना है और तांत्रिक बाबा इस तकनीक का भी इस्तेमाल कर लोगों को अंधविश्वास के जाल में फंसा रहे हैं. इस के एवज में वे उन से मोटी रकम वसूल करते हैं. राजधानी दिल्ली की अगर बात करें तो यहां 2-3 हजार से ज्यादा बाबा या तांत्रिक अपने धंधे को स्वतंत्र रूप से संचालित कर रहे हैं. ये बाबा काला जादू और चमत्कारी शक्तियों की मदद से लोगों को उन का खोया हुआ प्यार, नौकरी ढूंढने में मदद, बीमारियों से नजात और घर खरीदने में मदद के नाम पर बेवकूफ बनाते हैं. इन बाबाओं के नाम भी उन के काम से ही मिलताजुलता होता है, जैसे बाबाजी, वशीकरण गुरुजी, बंगाली बाबा, तांत्रिक बाबा खान बंगाली आदि.

इन्होंने अपने बिजनैस को औनलाइन भी फैला रखा है. बाकायदा उन की अपनी वैबसाइट है, फोन नंबर है जिस के जरिए वे लोगों को उन की परेशानियों से छुटकारा दिलाने का दावा करते हैं और लोगों से पैसे ऐंठते हैं. ये लोग यूट्यूब के जरिए भी पैसे कमा रहे हैं. अपने यूट्यूब चैनल में ये खोया हुआ प्यार वापस मिलना, दुश्मनों से छुटकारा, जमीन में गड़ा हुआ धन का पाना, सौतन से छुटकारा, जमीनी विवाद सुलझाना, मनचाहा प्यार पाना संबंधी वीडियो डालते रहते हैं और लोगों को अंधविश्वास के जाल में फंसाते रहते हैं.

कुछ यूट्यूब चैनल तो ऐसे भी हैं जिन के पास लाखों की संख्या में सब्सक्राइबर्स (ग्राहक) हैं. काला जादू और वशीकरण के नाम पर ये बाबा ‘निराश’ लोगों को इस कदर बेवकूफ बनाते हैं कि वे तुरंत ही उन की चिकनीचुपड़ी बातों में आ जाते हैं और बाबा को अपना सबकुछ न्योछावर कर देते हैं. ये सिर्फ झोलाछाप बाबा और तांत्रिक नहीं हैं जो प्यार और वैवाहिक समस्याओं के जादुई समाधान प्रदान करते हैं बल्कि कई पढ़ेलिखे और इंग्लिश बोलने वाले ज्योतिषी भी हैं जो इस तरह का दावा करते हैं.

जागरूकता जरूरी

हमारे देश की सब से बड़ी विडंबना यह है कि यहां अंधविश्वासों और अंधविश्वासियों की कमी नहीं है. लोग बहुत जल्द छलावों में फंसते हैं. जिंदगी में थोड़ी सी उथलपुथल हुई नहीं कि चल दिए तांत्रिकबाबा के पास. यही बाबा मौके का फायदा उठाते हैं और आस्था के नाम पर डरा कर, तंत्रमंत्र का जाल बना कर लोगों को अपनी गिरफ्त में कर लेते हैं और उन से मोटी रकम वसूल करते हैं.

इस तरह का जाल फैलाने वाले बाबाओं पर लगाम लगाने की जरूरत है और इस के लिए सब से जरूरी है लोगों का जागरूक होना. जब तक हम नहीं चाहेंगे, कोई हमारे दिमाग से नहीं खेल सकेगा. बस, हमें अपना दिमाग खुला रखना है. जिंदगी में जैसा भी समय आए, सोचसमझ कर फैसले लेने हैं और तांत्रिकों के रूप में मंडराने वाले लुटेरों से सावधान रहना है.

समझदार भाईबहन की जोड़ी मगर सनातन में कई किंतुपरंतु

विजयलक्ष्मी पंडित और जवाहरलाल नेहरू भारतीय राजनीति की पहली भाईबहन जोड़ी थी जिस ने सक्रिय राजनीति में अपना एक मुकाम बनाया था. एकदूसरे का साथ दिया. जवाहरलाल नेहरू आजाद देश के पहले प्रधानमंत्री बने तो उन की बहन विजयलक्ष्मी पंडित देश की आजादी से पूर्व कैबिनेट पद संभालने वाली पहली महिला बनीं. वे संयुक्त राष्ट्र महासभा की अध्यक्ष बनने वाली पहली महिला भी थीं. वहीं, वे महाराष्ट्र की राज्यपाल रहीं और संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग में भारत का प्रतिनिधित्व भी किया. आज के दौर में प्रियंका गांधी और राहुल गांधी की जोड़ी एकदूसरे की पूरक है.

2024 के आम चुनाव में रायबरेली और अमेठी लोकसभा सीट पर कांग्रेस की साख दांव पर लगी थी. ऐसे मे प्रियंका गांधी ने इन दोनों सीटों पर चुनाव प्रबंधन को जिस तरह से संभाला उस से राहुल गांधी की तमाम परेशानियां कम हुईं. राजनीति के क्षेत्र में राहुल गांधी और प्रियंका गांधी की जोड़ी को ले कर तमाम लोग उन को एकदूसरे का विरोधी मानते हैं. इस तरह की बहुत सी खबरें चर्चा में रहती हैं. इस के इतर सचाई यह है कि राहुल और प्रियंका के बीच बहुत अच्छे स्तर पर रिश्ते हैं. प्रियंका एक ताकत के रूप में राहुल गांधी के साथ रहती हैं. राहुल गांधी जिस मसले में परेशान होते हैं, उन को आगे का रास्ता समझ नहीं आता तो वहां पर प्रियंका उन के काम को संभाल लेती हैं.
राहुल और प्रियंका के बीच यह समझदारी कई मौकों पर दिखती भी है. दोनों सब के सामने अपने स्नेह और प्यार का सम्मान करते हैं. गले लगाते हैं तो कभी बच्चों की तरह से बर्फ के गोले से खेलते नजर आते हैं. राहुल के स्वभाव और प्रियंका के स्वभाव में अंतर है. राहुल थोड़ा गुस्से वाले हैं लेकिन प्रिंयका अपना गुस्सा जाहिर नहीं होने देतीं.
राहुल गांधी को मजबूत करने के लिए ही प्रियंका गांधी ने कांग्रेस महासचिव बनाए जाने पर अपनी सहमति दी थी. इस से कांग्रेस में एक ताकत आई है. कांग्रेस प्रियंका गांधी में इंदिरा जैसी कथित छवि देखती है. प्रियंका मुखर होने के साथ ही राजनीतिक मिजाज रखती हैं. वे राहुल गांधी की सहयोगी की ही तरह से काम कर रही हैं. उन के बीच विरोधियों को भले ही प्रतिस्पर्धा दिखती हो, असल में उन के बीच बहुत समझदारी है.

तेजस्वी और रोहिणी आचार्य

बिहार में पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव की बेटी रोहिणी आचार्य ने जब 2024 के लोकसभा चुनाव लड़ने का फैसला किया तो विरोधियों ने कहना शुरू किया कि इस से लालू परिवार में आपस में झगड़ा बढ़ेगा. सब से ज्यादा मुश्किल तेजस्वी यादव को होगी क्योंकि परिवार की राजनीति में लालू का असली वारिस उन को ही समझा जा रहा है. इस के बाद भी रोहिणी चुनाव मैदान में उतरीं. वे बिहार की सारण सीट से लोकसभा चुनाव लड़ रही हैं.

रोहिणी लालू यादव की दूसरी बेटी हैं जो चुनाव मैदान में हैं. वे अपने परिवार के पक्ष में सोशल मीडिया पर पहले से ही ऐक्टिव रही हैं. पिछले साल लालू यादव को किडनी डोनेट करने के बाद से वेह सुर्खियां में रही हैं. जब लालू यादव से प्रवर्तन निदेशालय के अधिकारी पूछताछ कर रहे थे, तब भी रोहिणी आचार्य सोशल मीडिया पर आगे बढ़ कर राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ तीखे पोस्ट लिख रही थीं.

लालू प्रसाद की बड़ी बेटी मीसा भारती राज्यसभा सांसद हैं. तेज प्रताप यादव और तेजस्वी यादव विधायक हैं. रोहिणी परिवार की चौथी सदस्य हैं जो राजनीति के मैदान में हैं. रोहिणी आचार्य सिंगापुर में अपने पति और बच्चों के साथ रहती हैं. बिहार की सारण लोकसभा सीट से उन का मुकाबला बीजेपी के राजीव प्रताप रूडी से है. सारण वही लोकसभा सीट है जहां से लालू यादव 1977 में पहली बार लोकसभा पहुंचे थे और आखिरी बार भी वहीं से सांसद थे. डीलिमिटेशन से पहले सारण का नाम छपरा लोकसभा सीट हुआ करता था.

लालू यादव अब तक 4 बार इस इलाके से संसद में प्रतिनिधित्व कर चुके हैं. 2013 में चारा घोटाले में सजा हो जाने के चलते लालू यादव की संसद सदस्यता रद्द हो गई थी और उन के चुनाव लड़ने पर भी पाबंदी लग गई. अब भी वो जमानत पर ही जेल से बाहर हैं. 2014 में यह इलाका लालू परिवार के हाथ से छिटक कर बीजेपी के हिस्से में चला गया.

खास बात यह रही कि 2014 में राबड़ी देवी को आरजेडी का उम्मीदवार बनाया गया था, लेकिन बीजेपी के राजीव प्रताप रूडी से वो चुनाव हार गईं. 2019 में आरजेडी ने लालू यादव के समधी चंद्रिका राय को उम्मीदवार बनाया था लेकिन बीजेपी ने कब्जा बरकरार रखा.

लालू यादव सहित परिवार के 5 लोग राजनीति में सक्रिय हैं. आरजेडी की कमान फिलहाल तेजस्वी यादव के हाथ में है. बिहार के 2 बार डिप्टी सीएम रहे तेजस्वी यादव फिलहाल विधायक हैं. उन के बड़े भाई तेज प्रताप यादव भी विधायक हैं. पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी विधान परिषद सदस्य हैं, जबकि लालू यादव की बेटी मीसा भारती राज्यसभा सांसद हैं. अब रोहिणी यादव के चुनाव लड़ने के बाद वे भी राजनीति में हैं.

विरोधी भले ही इस को प्रतिस्पर्धा के रूप में देख रहे हों लेकिन जिस तरह तालमेल के साथ रोहिणी और तेजस्वी यादव चुनाव लड़ रहे हैं उस से भाजपा के सामने संकट खड़ा हो गया है. बिहार राजनीति में ये तीनों भाईबहन पूर्व मुख्यमंत्री लालू और राबड़ी यादव की विरासत को आगे बढ़ाने में लगे हुए हैं. तेजस्वी, तेजप्रताप और मीसा भारती चुनाव राजनीति को संभाल रहे हैं.

दक्षिण की राजनीति में भाईबहन

तमिलनाडु की राजनीति में एम के स्टालिन और कनिमोझी राजनीति के सब से मजबूत भाईबहन हैं. ये दोनों तमिलनाडु में अब पूर्व मुख्यमंत्री करुणानिधि की राजनीति को आगे बढ़ा रहे हैं. कनिमोझी करुणानिधि की बेटी हैं और एम के स्टालिन उन के बेटे हैं. स्टालिन इस समय तमिलनाडू के मुख्यमंत्री हैं और कनिमोझी इस समय सांसद के रूप में केंद्र की राजनीति में सक्रिय हैं.

तेलंगाना की राजनीति में के कविता और के टी रामाराव भाईबहन की जोड़ी पूरी तरह से राजनीति में सक्रिय हैं. के कविता तेलंगाना के पूर्व मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव की बेटी हैं और के टी रामाराव इन के बेटे हैं और भारत राष्ट्र समिति यानी बीआरएस के कार्यकारी अध्यक्ष हैं. के टी रामाराव प्रदेश के पूर्व उद्योग, सूचना प्रौद्योगिकी, नगरपालिका प्रशासन और शहरी विकास राज्यमंत्री रहे हैं.

वही के कविता विधायक हैं. ये दोनों ही भाईबहन पिता की राजनीतिक विरासत को आगे ले जाने का काम कर रहे हैं. के टी रामाराव बहन के कविता के साथ मजबूती से खड़े हैं. जब दिल्ली के कथित शराब घोटाले में ई डी ने के कविता को गिरफ्तार किया तो भाई मजबूती से उन के साथ खड़ा था. वे दिल्ली तक गए और अपना विरोध दर्ज कराया.

राजनीति से अलग भी एकदूसरे की पूरक रही हैं भाईबहन की जोड़ियां

सारा अली खान नई जेनरेशन के स्टार किड्स में फेमस चेहरा हैं. वे बौलीवुड में 3 साल पहले डैब्यू कर चुकी हैं. सोशल मीडिया पर काफी ऐक्टिव हैं वे. सारा अकसर इब्राहिम के साथ अपने इंस्टाग्राम हैंडल पर वैकेशन की फोटो और वीडियो शेयर करते रहती हैं. दोनों ही भाईबहन के फनी वीडियो लोग काफी पसंद भी करते हैं. इब्राहिम के साथ वैकेशन पर बिकिनी फोटो शेयर करने को ले कर दोनों ही ट्रोल्स के निशाने पर भी रहते हैं.

सारा और इब्राहिम की तरह ही आर्यन खान और सुहाना खान की भाईबहन की जोड़ी भी हिट है. इन की गिनती स्टाइलिश सिबलिंग में भी होती है. आर्यन खान के ड्रग्स मामले में पूरा खान परिवार उन के पीछे सपोर्ट सिस्टम के साथ खड़ा रहा. बहन सुहाना ने भी ऐसा ही किया. गिरफ्तारी से ले कर रिहाई तक सुहाना आर्यन के साथ वाली तसवीर शेयर कर के अपना प्यार जाहिर करती रहीं.

भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान विराट कोहली और उन की बहन भावना एकदूसरे के बेहद क्लोज हैं. भावना कोहली से बड़ी हैं लेकिन दोनों का रिश्ता दोस्तों जैसा है. पिता की मौत के बाद से वो विराट के जीवन में गार्जियन के रोल में भी रही हैं. वो कोहली के फैशन लेबल वन सैलेक्ट की सदस्य भी हैं.

भावना विराट की पत्नी अनुष्का शर्मा के साथ भी अच्छा बौंड शेयर करती हैं. आईपीएल में फाइनल से बाहर होने पर भावना ने भाई के समर्थन में इंस्टाग्राम पर एक स्पैशल नोट लिखा था. भावना के इस स्पैशल नोट को लोगों ने काफी सराहा था.

सनातन में भाईबहन की दूरी

जिन राजनीतिक दलों पर सनातन धर्म का प्रभाव है वहां पर भाईबहन की आपस में दूरी दिखती है. ऐसा नहीं कि इन दलों में परिवारवाद नहीं है. इस के बाद भी भाई के सामने बहन को आगे नहीं बढ़ाया जाता है. इस की वजह यह है कि धर्म भाईबहन के बीच एक दीवार खड़ी करता है. वहां यह नहीं बताया जाता कि भाईबहन समान हैं. वहां कहा जाता है कि बहन छोटी हो या बड़ी, उसे भाई की दबाव में रहना चाहिए. महाभारत में द्रौपदी का जब चीरहरण हो रहा था तो उस के सगे भाई धृष्टधुम्न और सत्यजीत उस को बचाने के लिए नहीं आए. द्रौपदी को बचाने उन के बालसखा और मुंहबोले भाई के रूप कृष्ण को ही आना पड़ा.

रामायण में रावण अपनी बहन शूर्पणखा का बदला लेने आया. असल में सनातन सोच में भाई और बहन को अलगअलग देखा जाता है. रावण ने शूर्पणखा के लिए सीता का अपहरण किया जो एक गैरसनातनी का भाईबहन का प्यार था. गैरसनातनी हिडिंबा की भाई से बनती थी, इसीलिए भाई ने उसे ही पांडवों को भगाने के लिए भेजा पर सनातनी पांडवों ने हिडिंबा को ऐसे ही पटा लिया जैसे भाजपा आज कांग्रेस नेताओं को पटाती है.

हिंदू रीतिरिवाजों में यह माना जाता है कि बहन को शादी के बाद दूसरे घर जाना होता है. वह पराई होती है. उस का अपने पिता के घर से रिश्ता नहीं होता है. उस का भाई जैसा हक पिता की जायदाद में नहीं होता है. हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम 2005 के तहत, एक विवाहित बेटी अपने पिता की पैतृक संपत्ति में बेटे के बराबर हिस्सेदारी की हकदार है. 2005 का संशोधन यह सुनिश्चित करता है कि विवाहित बेटियों सहित बेटियों को भी संपत्ति में बेटे के समान अधिकार है.

यह बात और है कि कानून ने 2005 में बहनों को भी पिता की संपत्ति में बराबर का हक दिया है. इस के बाद भी अभी तक बहनों को हक मिला नहीं है. धर्म के प्रभाव से बहनों को भाई का पूरक नहीं, हिस्सेदार माना जाता है. ऐसे में आपस में रिश्ते अच्छे नहीं होते हैं. आमतौर पर देखा जाता है कि जब तक मातापिता जीवित रहते हैं, भाईबहन के रिश्ते अच्छे होते हैं; जैसे ही पेरैंट्स नहीं रहते, ज्यादातर के रिश्ते खराब हो जाते हैं.

ऐसे में भाईबहन की ऐसी सैलिब्रिटी जोड़ियां भी हैं जो एकदूसरे का पूरक बन कर साथ देते हैं. आज के दौर में जहां रिश्ते कम हो रहे हैं, भाईबहन को हिस्सेदार नहीं, पूरक बन कर एकदूसरे का सहयोग करना चाहिए.

दहेज के कारण जान गंवाती महिलाएं

हरियाणाा के अंबाला जिले में एक महिला लेफ्टिनेंट द्वारा आत्महत्या करने का मामला सामने आया है. यहां भारतीय सेना की मेडिकल कोर में तैनात साक्षी ने संदिग्ध परिस्थितियों में फंदा लगाकर सुसाइड कर लिया. अंबाला छावनी के रेसकोर्स स्थित आवास में वह पंखे से लटकी मिलीं. उन्‍हें तुरंत सेना अस्पताल लाया गया, जहां उनकी मौत हो गई. साक्षी के पिता और भाई ने साक्षी के पति पर आरोप लगाते हुए कहा कि वो खुद भारतीय वायुसेना में स्क्वार्डन लीडर है. वो शादी के कुछ दिनों बाद से ही दहेज़ के लिए उनकी बहन से मारपीट करते थे और उसे मानसिक और शारीरिक प्रातड़ना देते थे , जिसके कारण उनकी बहन ने तंग आकर खुद को फांसी के फंदे पर लटका लिया.

साक्षी के पिता और भाई की माने तो उन्हें साक्षी अक्सर अपने पति की प्रतातड़ना से तंग आकर उन्हें अपना दुखड़ा रोती थी ,पिछले साल के दिसंबर माह से ही नवनीत अक्सर उनकी बहन को दहेज़ और पैसे की डिमांड को लेकर तंग करता था. बीती रात भी साक्षी ने अपने पिता को फोन किया की मुझसे मारपीट की जा रही है और मुझसे कुछ गलत हो सकता है. साक्षी ने जो कहा वह सुबह सच हो गया और उन्हें सुबह 6 बजे फोन आ गया की साक्षी ने मौत को गले लगा लिया है. मृतक के भाई का आरोप है की साक्षी के पति नवनीत ने घर पर लगे कैमरों की सीसीटीवी फुटेज गायब कर दी है और शायद खुद उसने साक्षी को मारा फिर खुद ही उसकी डेड बाड़ी ले कर अस्पताल पहुंच गया.

शिक्षित परिवारों में भी दहेज के मामलें

यह घटना एक ऐसे शिक्षित परिवार की है. जिससे साफ है कि चाहें कितना भी लोग पढ़-लिख लें लेकिन समाज की सोच के बदलने के लिए सिर्फ पढ़ाई ही काफी नहीं है. परिजनों के कहने अनुसार ये घटना भी दहेज के कारण हुई है. वही दहेज जिसके कारण उत्तर-आधुनिक समय में भी न जाने कितनी महिलाओं की मौत का कारण बनती है.

शादी-शुदा महिलाओं की हत्याएं, जिन्हें ससुराल में पति और अन्य सदस्यों ने दहेज के लिए या तो क़त्ल कर दिया गया हो अथवा लगातार उत्पीड़न और यातना देकर आत्महत्या के लिए बाध्य किया जाए, दहेज हत्या कहलाती है. दहेज हत्या एक ऐसा अपराध है जहां महिलाओं के लिए उनके अपने घर ही सबसे असुरक्षित स्थान बन जाते हैं. दहेज और उससे जुड़े अपराधों के मामले में भारत दुनियाभर में पहले स्थान पर आता है. इसके बाद पाकिस्तान, बांग्लादेश और ईरान आते हैं, जहां दहेज हत्या एक बड़ी समस्या बन चुकी है.

आज के उत्तर-आधुनिक समाज में चाहें लड़की कितना भी पढ़-लिख लें और अपने पैरो पर खड़ी हो जाएं लेकिन फिर भी उसे पुरुषों के मुकाबले कमतर ही मानी जाती हैं, इसलिए उसकी स्वीकारोक्ति के लिए शादी में धन की कई बार खुली और कभी मूक मांग रखी जाती है. साथ ही इस मांग को यह कहकर जायज़ ठहरा देते है कि लड़की के माता-पिता जो कुछ भी दे रहे हैं, उनकी बेटी के लिए ही हैं. यह एक तरह से सौदा होता है, जिसमें किसी लड़की को ब्याहने के लिए लड़का और उसके परिवार वाले मोटी रक़म चाहते हैं. दहेज की मांग भारतीय समाज में सामान्य बात हो चुकी है. दहेज की प्रथा मानो शादी का एक अभिन्न अंग बन चुकी है. यह प्रथा सभी समूहों में मौजूद है चाहे वे किसी भी जाति, वर्ग, धर्म के हों. लड़की ब्याहने के लिए लड़के के परिवार की हैसियत के अनुसार दहेज देना पड़ता है. यह ब्याह होने की एक अनिवार्य शर्त ही हो गई है. रूढ़िवादी भारतीय समाज शादी की संस्था और पारिवारिक संरचना में सुधार करने की बजाय इसे पारंपरिक रूप में ही चलाना चाहता है. इस समाज के लिए यह महत्वपूर्ण है ही नहीं कि शादी से पहले लड़के और लड़की में सामंजस्य और आपसी समझ विकसित हो, जिससे बेहतर समाज बन सके. यहां रिश्ते की नींव ही लड़की के घर से मिलने वाला दहेज तय करता है. और अगर ये मांग उनके मुताबिक ना हो तो घरेलु हिंसा, हत्या या आत्महत्या जैसे मामले होते है.

यहां साक्षी खुद लेफ्टिनेंट थी और पति भारतीय वायुसेना में स्क्वार्डन लीडर है और दोनों ही पढ़े-लिखें समझदार थे. दोनों ही के करियर के पीछे उनके कितने सालों की मेहनत रही होगी जो एक ही पल में बिखर गई. पुलिस ने इस मामले में केस दर्ज कर लिया है. साथ ही पुलिस का कहना है कि इस मामले में केस दर्ज किया गया है. नवनीत से पूछताछ की जाएगी. वहीं साक्षी के परिवार का कहना है कि नवनीत को सजा होनी चाहिए. उसने उनकी बेटी की हत्या की है.

क्या कहते है आंकड़े

तमाम वैधानिक सुधारों व कानूनों के बावजूद भी दहेज हत्या व दहेज के लिए ससुराल में शोषण और उत्पीड़न की घटनाएं कम होने का नाम नहीं ले रही हैं. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार साल 1995 में दहेज के कारण लगभग 4,668 मौतें हुई थीं. साल 2005 में यह आंकड़ा बढ़कर 6787 हो गया था और साल 2015 में लगभग 7634 महिलाओं की मौत दहेज हत्या के कारण हुई. आए दिन अखबारों, टीवी चैनलों और सोशल मीडिया में खबरें मिलती रहती हैं कि पढ़े-लिखे और आर्थिक रूप से संपन्न लोग भी दहेज की मोटी रकम ले रहे हैं. देश में सशक्त कानून तो हैं लेकिन उनके लागू होने और अनुपालन की समस्या के कारण बहुत सारी लड़कियों को जन्म से पहले ही मार दिया जाता है. कई महिलाएं दहेज की मांग के कारण उत्पीड़न सहते हुए या तो आत्महत्या कर लेती हैं.

एक सवाल पुरुष समाज से

लेकिन एक महिला होने के नाते मेरा सवाल पूरे पुरुष समाज से है कि क्या आपके लिए पूरी जिंदगी साथ रहने वाली लड़की का आपको समझना और हर सुख-दुख में आपके साथ खड़े रहना से ज्यादा जरूरी है दहेज? और एक सवाल उन लोगों से जो दहेज के पक्ष में होते है कि क्या साक्षी और ऐसी ही ओर लड़कियों की जगह आपकी बेटी होगी तब भी आप इस बात के पक्ष में होंगे और उसे मरने के लिए छोड़ देंगे? जितनी मेहनत एक लड़का अपने करियर और अपनी पढ़ाई के लिए करता है उससे कही ज्यादा मेहनत और समाज की चीजों को झेलकर हम आगे बढ़ते है, ऐसे में हमें आपका साथ चाहिए और अगर साथ ना भी दें तो कोई बात नहीं लेकिन इस तरह पैसों के लिए किसी की जान ना लें या उसे अपनी जान लेने पर मजबूर ना करें. साथ ही महिलाओं को भी मैं कहना चाहूंगी कि हम जब जन्म लेते है उसी वक्त से हम बहुत सी चीजें बरदाश्त करते है, ऐसे में इतना सबकुछ झेलने के बाद आपको मजबूत बनना है. आप अगर ऐसे अपनी जान लेंगे तो इतना सबकुछ झेलने का कोई मतलब नहीं. हमें इन सबसे हटकर अपने आपको मजबूती से रखना है ताकि हम इन सब चीजों को रोक सकें.

मेरी दूसरी पत्नी हमेशा झगड़ा करती है, मैं क्या करूं?

सवाल

मैं 42 वर्षीय पुरुष हूं. पहली पत्नी की कैंसर से मृत्यु हो गई. दूसरा विवाह किया तो पत्नी से बनी नहीं और तलाक हो गया. मेरे मातापिता ने मुझे दूसरे विवाह के लिए मना किया था क्योंकि वह मुझ से 5 वर्ष बड़ी थी और उस का एक बेटा भी था, लेकिन मैं नहीं माना क्योंकि मैं उस के बेटे को अपना कर पिता बनने का सुख पाना चाहता था पर उस के बेटे ने मु झे कभी अपना पिता नहीं माना और पत्नी भी हर बात में बेटे का ही पक्ष लेती थी. इसी बात पर हमारी तूतू मैंमैं हो जाती थी और एक साल के भीतर ही हमारा तलाक हो गया. बहुत अकेला महसूस करता था. जिंदगी जीने का कोई मकसद नहीं रह गया था तो मातापिता की सलाह मानते हुए मैं ने एक बच्चा गोद ले लिया.अब सब ठीक लगता है. मातापिता घर में बच्चा आने से खुश हैं. मुझे भी पिता बनने का सुख मिल गया. लेकिन पुरुष हूं, एक पार्टनर की कमी खलती है. तीसरी शादी करने की हिम्मत नहीं है. क्या करूं?

जवाब

आप की फीलिंग्स को हम अच्छी तरह सम झ रहे हैं. गृहस्थी का सुख आप को नहीं मिला. पिता बन गए हैं लेकिन पुरुष होने के नाते आप की कुछ शारीरिक जरूरतें भी हैं जिन का आप के जीवन में अभाव है. आप तीसरी शादी करें, इस हक में न तो अब आप के मातापिता हैं और न आप की हिम्मत है.

आप को ऐसे रिलेशनशिप की जरूरत है जहां आप का पार्टनर आप को समझे और आप उसे. आप उस से अपनी फीलिंग्स शेयर कर सकें. मैंटली और फिजिकली आप दोनों एकदूसरे को कंप्लीट कर सकें. आजकल ऐसी बहुत सी वैबसाइट्स हैं जहां आप ही की तरह कई लोग पार्टनर तलाश रहे होते हैं. बहुत सोचसम झ कर देखपरख कर आप डेटिंग करिए. लेकिन हमारी हिदायत है कि किसी के  झांसे में बिलकुल मत आइएगा. ऐसी साइट्स पर धोखेबाज, पैसे लूटने वाले बहुत होते हैं, इसलिए पूरी जांचपड़ताल करने के बाद ही आगे बढ़ें. मातापिता को कुछ बताने की जरूरत नहीं, आप की जिंदगी है. अपनी खुशी कैसे बरकरार रखनी है, यह आप के खुद के हाथ में है.

अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz

सब्जेक्ट में लिखें- सरिता व्यक्तिगत समस्याएं/ personal problem

अति निराश करती मनोज बाजपेयी की सौंवी फिल्म भैयाजी

(एक स्टार)

लगभग एक साल पहले मनोज बाजपेयी के अभिनय से सजी व अपूर्व सिंह कर्की के निर्देशन में बनी फिल्म ‘सिर्फ एक बंदा काफी है’ ओटीटी प्लेटफौर्म ‘जी5’ पर स्ट्रीम हुई थी. इसे काफी पसंद किया गया था. निर्देशक के साथ ही मनोज बाजपेयी ने भी जम कर तारीफें बटोरी थीं. इस से मनोज बाजपेयी इस कदर हवा में उड़े कि उन्होंने अपूर्व सिंह कर्की के निेर्देशन में फिल्म ‘भैयाजी’ में न सिर्फ शीर्ष भूमिका निभाई बल्कि विनोद भानुशाली व समीक्षा शैल ओसवाल के संग इस का निर्माण भी किया.

फिल्म में निर्माता के तौर पर मनोज बाजपेयी की पत्नी शबाना रजा बाजपेयी का नाम है. ‘भैयाजी’ मनोज बाजपेयी के कैरियर की सौंवी फिल्म है, जिस में वह पहली बार एक्शन हीरो बन कर आए हैं. अति कमजोर कहानी व पटकथा के चलते यह फिल्म काफी निराश करती है. फिल्म ‘भैयाजी’ देख कर विश्वास करना मुश्किल हो जाता है कि इसी फिल्म के लेखक व निर्देशक अपूर्व सिंह कर्की ने एक साल पहले ‘सिर्फ एक बंदा काफी है’ का लेखन व निर्देशन कर चुके हैं.

फिल्म की कहानी बिहार के पूपरी गांव, सीतामढ़ी से शुरू होती है. जहां रामचरण त्रिपाठी उर्फ भैयाजी (मनोज बाजपेयी) का अपना रूतबा है. कभी उन के पिता की ही तरह वह भी बहुत बड़े दबंग, खूंखार माफिया थे. एक वक्त वह था जब अपने फावड़े से भैयाजी ने अच्छेअच्छे वीरों को मौत के घाट उतारा था और गरीबों की मदद किया करते थे. अब उन के परिवार में उन की सौतेली मां (भागीरथी बाई) व उन का सौतेला भाई वेदांत (आकाश मखीजा) है.

पिता के मरने के बाद उन की सौतेली मां ने उन्हें कसम दिलाई कि अब वह शरीफ बन कर ही जिएंगे. अधेड़ उम्र में पहुंच चुके भैयाजी अब मिताली (जोया हुसेन) से शादी करने जा रहे हैं. सीतामढ़ी में संगीत का कार्यक्रम चल रहा है. छोटा भाई वेदांत दिल्ली से आ रहा है लेकिन वेदांत सीतामढ़ी नहीं पहुंचता. वेदांत के साथ ही उस के सभी दोस्तों के फोन भी बंद मिलते हैं. तभी दिल्ली के कमलानगर पुलिस स्टेशन से सब इंस्पैक्टर मगन (विपिन शर्मा) का फोन भैयाजी के पास आता है कि वेदांत का एक्सीडैंट हो गया है, आप दिल्ली आ जाइए.

उधर दिल्ली में चंद्रभान (सुविंदर विक्की) दिखने में शरीफ मगर अति खूंखार माफिया सरगना है. उस का बेटा अभिमन्यू (जतिन गोस्वामी) है. अभिमन्यू किसी भी लड़की की इज्जत लूट सकता है, किसी की भी हत्या कर सकता है. यदि किसी ने चंद्रभान या उन के बेटे अभिमन्यू का विरोध किया तो चंद्रभान कसाई बन कर उस की हड्डी पसली काट कर, उन टुकड़ों को बोरे में भर कर फेंकवा देता है. सब इंस्पैक्टर मगन, गुज्जर का ही साथ देता है.

दिल्ली पहुंचने पर भैयाजी को पता चलता है कि अभिमन्यू ने ही उस के भाई वेदांत की हत्या की है. अब भैयाजी अभिमन्यू की हत्या करना चाहते हैं पर चंद्रभान ऐसा नहीं होने देना चाहते. अब भैयाजी प्रतिशोध लेने पर उतारू है तो वहीं चंद्रभान, भैयाजी को खत्म कर देना चाहता है. कई घटनाक्रम तेजी से बदलते हैं. अंततः भैयाजी, चंद्रभान व उन के बेटे अभिमन्यू को घायल कर जिंदा ही आग के हवाले कर अपना प्रतिशोध पूरा करते हैं.

अति कमजोर व बेसिरपैर की कहानी वाली फिल्म ‘भैयाजी’ की तुलना हिंदी फिल्म की बजाय भोजपुरी फिल्मों से ही की जा सकती है. भोजपुरी फिल्मों में जिस तरह के गाने होते हैं, उसी तरह के गाने के साथ फिल्म की शुरूआत होती है. प्रतिशोध की कहानी पर हजारों फिल्में बन चुकी हैं पर ‘भैयाजी’ सब से ज्यादा कमजोर फिल्म है.

इंटरवल तक तो दर्शक बर्दाश्त कर लेते हैं, मगर इंटरवल के बाद फिल्म इतनी घटिया है कि दर्शक सोचता है कि कब खत्म होगी. फिल्मकार ने फिल्म में एक जगह बताया है कि सीतामढ़ी से नई दिल्ली की दूरी को ट्रैन से 16 घंटे में पूरा किया जा सकता है. सीतामढ़ी से गोरखपुर सड़क मार्ग से 4 घंटे में पहुंचा जा सकता है लेकिन फिल्म के दृष्य कब नई दिल्ली, कब सीतामढ़ी में होते हैं, पता ही नहीं चलता. फिल्म में कुछ एक्शन दृष्य अवश्य अच्छे बन पड़े हैं तो वहीं फिल्म में मेलोड्रामैटिक दृष्यों की भरमार है.

इस फिल्म को सेंसर बोर्ड ने ‘यूए’ प्रमाणपत्र दिया जाना भी आश्चर्य की बात है. फिल्म में गुज्जर को कसाई के छूरे से एक इंसान के शरीर के टुकड़े करते हुए दिखाया गया है, तो वहीं जिंदा इंसान को आग के हवाले करते हुए भी दिखाया गया है. इस के अलावा कई एक्शन दृष्य ऐसे हैं जिन का बच्चों के मन मस्तिष्क पर गलत असर पड़ सकता है. पर सेंसर बोर्ड की सोच कुछ और ही है.

फिल्म में मिताली को शूटर बताया गया है, जिसे कई अर्वाड मिल चुके हैं. मगर मिताली यानी कि अभिनेत्री जोया हुसेन तो हवा में उड़ कर बंदूक चलाती हैं. वाह! क्या बात है. सिनेमा के नाम पर कुछ भी दिखा दो. क्या मिताली सुपर हीरो या सुपर हीरोईन है जो कि हवा में उड़ सकती हैं. फिल्म के कई दृष्य अति बनावटी नजर आते हैं, फिर चाहे वह भैयाजी को नदी में फेंकने का दृष्य ही क्यों न हो.

इस फिल्म का प्रचार जिस स्तर पर होना चाहिए था, उस तरह का नहीं हुआ. फिल्म के रिलीज से पहले मनोज बाजपेयी ने चंद पत्रकारों के साथ ग्रुप में बात कर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली. फिल्म का पार्श्वसंगीत भी कानफोड़ू है.

इस फिल्म की सब से बड़ी कमजोर कड़ी भैयाजी के किरदार में अभिनेता मनोज बाजपेयी हैं. 55 वर्ष की उम्र में वह एक्शन हीरो बनने चले हैं जबकि एक्शन करना उन के जौनर की बात नहीं है.

फिल्म में भैयाजी को जितना खतरनाक व खूंखार संवादों के माध्यम से बयां किया गया है, वह भैयाजी के कारनामों में नजर नहीं आता. कुछ इमोशनल दृष्यों में जरुर उन का अभिनय अच्छा है. मनोज बाजपेयी राजनीति में माहिर हैं, इस में कोई दो राय नहीं. बिहार निवासी मनोज बाजपेयी हमेशा अंग्रेजीदां पत्रकारों को ही पसंद करते हैं. उन के साथ एक दो हिंदी भाषी पत्रकार हैं, जो कि उस वक्त यह रोना रोने लगते हैं कि हिंदी भाषी कलाकारों का कोई पत्रकार साथ नहीं देता, जब मनोज बाजपेयी की कोई फिल्म रिलीज होने वाली होती है.

क्या इस तरह के विक्टिम कार्ड को खेल कर वह अपनी फिल्म को सफल बनाना चाहते हैं…काश! ऐसा होता. मगर सच यह है कि अपने कैरियर की सौंवी फिल्म में मनेाज बाजपेयी ने निराश किया है. एकदो एक्शन दृष्यों में मिताली का किरदार निभा रही अभिनेत्री जोया हुसेन, मनोज बाजपेयी पर भारी पड़ती नजर आती हैं. कमजोर पटकथा व कमजोर चरित्र चित्रण के चलते किसी भी कलाकार के अभिनय का जादू परदे पर नजर नहीं आता.

चुनाव में दुष्प्रचार का अड्डा बना सोशल मीडिया

भारत में लोकसभा चुनाव से पहले मेटा ने वादा किया था कि वह अपने सोशल मीडिया प्लेटफौर्म पर गलत सूचना फैलाने के लिए एआई जनित सामग्री के दुरुपयोग को रोकेगी और ऐसे कंटैंट का पता लगाने और हटाने को प्राथमिकता देगी जो हिंसा, उग्रता और नफरत को बढ़ावा देते हैं. मगर अफसोस कि मेटा पर्याप्त सबूतों के बावजूद सुधारात्मक उपायों को लागू करने में न सिर्फ विफल रही, बल्कि भड़काऊ विज्ञापनों को मंजूरी दे कर उस ने चुनाव के दौरान खूब आर्थिक लाभ कमाया. फेसबुक-इंस्टाग्राम ने नफरत फैलाने वाले विज्ञापनों से खूब मोटी कमाई की. इन दोनों प्लेटफौर्म पर मुसलमानों के खिलाफ अपशब्दों वाले विज्ञापनों की भरमार रही. 8 मई से 13 मई के बीच मेटा ने 14 बेहद भड़काऊ विज्ञापनों को मंजूरी दी. इन विज्ञापनों में मुसलिम अल्पसंख्यकों को निशाना बना कर उन के खिलाफ बहुसंख्यकों को हिंसा के लिए उकसाने का प्रयास किया गया.

आम चुनाव में सोशल मीडिया मंचों के दुरुपयोग की आशंकाएं पहले से ही थीं जो सच साबित हुईं हैं. इंडिया सिविल वाच के सहयोग से कौर्पोरेट जवाबदेही समूह ‘एको’ के हाल में किए गए एक अध्ययन में इस तथ्य का खुलासा हुआ है कि फेसबुक और इंस्टाग्राम जैसे सोशल मीडिया प्लेटफौर्म को संचालित करने वाली मेटा कंपनी चुनावी दुष्प्रचार, नफरतभरे भाषण और हिंसा को बढ़ावा देने वाले एआई जेनरेटेड फोटो वाले विज्ञापनों का पता लगाने और उन्हें ब्लौक करने में विफल रही. इस से उसे मोटी कमाई हुई. एको ने पहले भी आगाह किया था कि कई दल भ्रामक विज्ञापनों के लिए बड़ी रकम खर्च करने के लिए तैयार हैं.

पूरे चुनावभर सोशल मीडिया दुष्प्रचार का अड्डा बना रहा. इस पर हिंदू वर्चस्ववादी कहानियां सुना कर जनता को भड़काने का प्रयास किया गया. भारत के राजनीतिक परिदृश्य में भ्रामक सूचनाएं प्रसारित की गईं. एक विज्ञापन में तो भारत के गृहमंत्री अमित शाह के वीडियो से छेड़छाड़ कर उसे ऐसा बनाया गया जिस में वे दलितों के लिए बनाई गई नीतियों को हटाने की धमकी देते नजर आ रहे हैं. इस वीडियो के वायरल होने के बाद कई विपक्षी नेताओं को नोटिस दिया गया और कुछ लोगों की गिरफ्तारियां हुईं. कुछ भाजपा नेताओं के प्रचार के लिए एआई का इस्तेमाल कर हिंदू वर्चस्ववादी भाषा का इस्तेमाल किया गया.

ऐसे हर विज्ञापन में एआई टूल का इस्तेमाल कर फोटो गढ़े गए. इस से यह पता चलता है कि हानिकारक कंटैंट को बढ़ाने में इस नई तकनीक का कितनी जल्दी और आसानी से इस्तेमाल किया जा सकता है. ब्रिटिश अखबार ‘द गार्जियन’ के साथ साझा किए गए एको के अध्ययन में बताया गया है कि फेसबुक ने भारत में मुसलमानों के प्रति अपशब्दों वाले विज्ञापनों को मंजूरी दी. ऐसे विज्ञापनों में ‘आओ इस कीड़े को जला डालें’ और ‘हिंदू खून खौल रहा है, इन आक्रमणकारियों को जला दिया जाना चाहिए’ जैसे वाक्यों का इस्तेमाल चुनाव के दौरान नफरत और हिंसा को उकसाने के लिए किया गया.

चुनावी दुष्प्रचार और कांस्पिरेसी थ्योरी के प्रसार को सुविधाजनक बना कर मेटा ने अमेरिका और ब्राजील की तरह भारत में भी सामुदायिक झगड़े पैदा करने व हिंसा भड़काने में योगदान दिया है.

4 वर्षों पहले 13-19 जुलाई, 2020 को अमेरिकी वयस्कों पर किए गए प्यू रिसर्च सैंटर के सर्वेक्षण में लगभग दोतिहाई अमेरिकियों (64 फीसदी) का कहना था कि सोशल मीडिया का अमेरिका में चल रही राजनीतिक और सामाजिक गतिविधियों पर अधिकतर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है. केवल 10 में से एक अमेरिकी का कहना था कि सोशल मीडिया साइट्स का चीजों पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है और एकचौथाई का कहना है कि इन प्लेटफौर्मों का न तो सकारात्मक और न ही नकारात्मक प्रभाव पड़ता है.

सोशल मीडिया के प्रभाव के बारे में नकारात्मक दृष्टिकोण रखने वाले लोग खासतौर पर गलत सूचना और सोशल मीडिया पर देखी जाने वाली नफरत और उत्पीड़न का जिक्र करते हैं. उन्हें इस बात की भी चिंता है कि उपयोगकर्ता जो कुछ भी देखते या पढ़ते हैं, उस पर यकीन कर लेते हैं. बहुत से लोग वास्तविक और नकली समाचारों और सूचनाओं के बीच अंतर नहीं कर पाते हैं और उचित शोध किए बिना उसे साझा करते हैं. लोग तथ्य को राय से अलग नहीं कर सकते, न ही वे स्रोतों का आलोचनात्मक मूल्यांकन कर सकते हैं. वे जो कुछ भी पढ़ते हैं उस पर विश्वास कर लेते हैं. सोशल मीडिया वह जगह है जहां कुछ लोग सब से घृणित बातें कहने जाते हैं जिन की वे कल्पना करते हैं परंतु किसी के समक्ष नहीं बोल पाते.

दरअसल आज लगभग पूरी दुनिया में ऐसा वातावरण बन गया है कि लोग दूसरों की राय का सम्मान नहीं करते हैं. वे अपनी राय को ही महत्त्व देते हैं. अगर कोई उन के सामने अपनी राय रखे तो वे इसे व्यक्तिगत रूप से लेते हैं और दूसरे समूह या व्यक्ति से लड़ने की कोशिश करते हैं. आमनेसामने की लड़ाई में तो घायल होने की संभावना होती है, इसलिए सोशल मीडिया ऐसी लड़ाई के लिए बिलकुल सेफ जगह है. यहां गंदी से गंदी भाषा, गालीगलौज, आरोपों का इस्तेमाल कर सामने वाले को नीचा दिखाया जा सकता है. बुरी भावनाएं, गंदे वाक्य और खराब भाषा बिना एडिट हुए सोशल मीडिया पर ज्यों की त्यों चलती हैं.

यहां कोई सैंसर की कैंची नहीं है. कोई जवाबदेह नहीं है. मेटा इस हिंसा, नफरत, विवाद, झगड़े रोकने की जहमत नहीं उठाती. कोई संपादक वहां नहीं बैठा है जो यह देखे कि उस के प्लेटफौर्म से जो चीजें सीधे पब्लिक में जा रही हैं और पब्लिक की जिंदगी को प्रभावित कर रही हैं, किसी देश की शांति, सुरक्षा, सद्भाव और भाईचारे को नुकसान पहुंचा रही हैं, उस को देखे और रोके. मेटा कभी जवाबदेह नहीं होता है.

गौरतलब है कि दुनिया का ज्यादातर हिस्सा अब सोशल मीडिया पर संवाद करता है. दुनिया की लगभग एकतिहाई आबादी अकेले फेसबुक पर सक्रिय है. विशेषज्ञों का कहना है कि जैसेजैसे ज्यादा से ज्यादा लोग औनलाइन होते जा रहे हैं, नस्लवाद, स्त्री-द्वेष या समलैंगिकता के प्रति झुकाव रखने वाले लोगों ने ऐसे स्थान खोज लिए हैं जो उन के विचारों को पुष्ट कर सकते हैं और उन्हें हिंसा के लिए उकसा सकते हैं. सोशल मीडिया प्लेटफौर्म हिंसक लोगों को अपने कृत्यों को प्रचारित करने का अवसर भी देते हैं. अकेले मेटा इस के लिए फेसबुक, इंस्टाग्राम, व्हाट्सऐप, मैसेंजर, फेसबुक वाच, फेसबुक पोर्टल, थ्रेड्स, मेटा क्वेस्ट और होराइजन वर्ल्ड्स जैसे प्लेटफौर्म मुहैया कराता है.

शोध से पता चलता है कि पिछले 2 सालों में 60 प्रतिशत बच्चों ने सोशल मीडिया पर हिंसा के कृत्य देखे हैं. लगभग एकतिहाई ने हथियारों से जुड़े फुटेज देखे हैं और एकचौथाई ने महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ हिंसा को बढ़ावा देने वाली सामग्री देखी हैं. टिकटौक का उपयोग करने वाले लगभग आधे बच्चों ने हिंसक सामग्री देखी हैं. वर्तमान में फेसबुक, व्हाट्सऐप, इंस्टाग्राम और ट्विटर भारत में प्रमुख रूप से प्रयोग किए जाते हैं, जिन पर बड़ी संख्या में बच्चे भी इन्वौल्व हैं.

जरमनी में धुर दक्षिणपंथी अल्टरनेटिव फौर जरमनी पार्टी के शरणार्थी विरोधी फेसबुक पोस्ट और शरणार्थियों पर हमलों के बीच एक संबंध पाया गया. विद्वान कार्स्टन मुलर और कार्लो श्वार्ज ने देखा कि आगजनी और हमलों में वृद्धि के बाद नफरत फैलाने वाली पोस्ट में भी वृद्धि हुई.

संयुक्त राज्य अमेरिका में हाल के श्वेत वर्चस्ववादी हमलों के अपराधियों ने नस्लवादी समुदायों के बीच औनलाइन प्रचार किया और अपने कृत्यों को प्रचारित करने के लिए सोशल मीडिया का सहारा लिया.

म्यांमार में सैन्य नेताओं और बौद्ध राष्ट्रवादियों ने जातीय सफाए के अभियान से पहले और उस के दौरान रोहिंग्या मुसलिम अल्पसंख्यकों को बदनाम करने व उन का अपमान करने के लिए सोशल मीडिया का इस्तेमाल किया. हालांकि रोहिंग्या आबादी वहां मात्र 2 प्रतिशत ही थी, लेकिन जातीय राष्ट्रवादियों ने दावा किया कि रोहिंग्या जल्द ही बौद्ध बहुमत का स्थान ले लेंगे. बिलकुल वैसे ही जैसे इन दिनों चुनावप्रचार के दौरान भाजपा नेता मुसलमानों की आबादी को हिंदुओं पर खतरा बता रहे हैं और सोशल मीडिया प्लैटफौर्म्स- फेसबुक, इंस्टाग्राम और यूट्यूब के माध्यम से अपनी गलत बातों का प्रचार कर रहे हैं.

श्रीलंका में भी तमिल मुसलिम अल्पसंख्यकों को निशाना बना कर औनलाइन फैलाई गई अफवाहों से प्रेरित उत्तेजना और सतर्कता देखी गई. मार्च 2018 में हिंसा की एक श्रृंखला के दौरान सरकार ने एक हफ्ते के लिए फेसबुक और व्हाट्सऐप के साथसाथ मैसेजिंग ऐप वाइबर तक पहुंच को अवरुद्ध किया, तब जा कर शांति बहाली हुई.

फेसबुक उन लोगों के लिए एक उपयोगी उपकरण रहा है जो नफरत फैलाना चाहते हैं. भारत में 2014 में हिंदू-राष्ट्रवादी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के सत्ता में आने के बाद से भीड़ द्वारा हत्या और अन्य प्रकार की सांप्रदायिक हिंसा, जिन में से कई मामले व्हाट्सऐप समूहों पर अफवाहों के कारण फैले. हर चुनाव में ऐसी राजनीतिक ताकतें सोशल मीडिया प्लेटफौर्म के जरिए ध्रुवीकरण की कोशिश करती हैं. लोगों के बीच भय, नफरत, गुस्से, दंगे को भड़काती हैं और अपना उल्लू सीधा करती हैं.

इन दिनों फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम पर प्रधानमंत्री से ले कर तमाम भाजपा नेताओं द्वारा मुसलमानों को जम कर गालियां दी जा रही हैं. कभी उन के बच्चों को कोस रहे हैं, कभी उन को मिलने वाले आरक्षण को जो संविधान से उन्हें प्राप्त हुआ है. सारी कोशिश ध्रुवीकरण के जरिए किसी तरह वोट पाने की है. मगर यह कृत्य देश की जनता को आपस में बांटने और आमजन के बीच नफरत की खाई पैदा करता है. चुनाव के बाद 5 साल तक तमाम नेता अपने बिलों में घुस जाएंगे मगर उन के द्वारा तैयार की गई नफरत की खाई पाटने में जनता को समय लग जाएगा.

जरूरत है कि सोशल मीडिया प्लेटफौर्म के मालिक अब चेत जाएं. अपने आर्थिक फायदे के लिए दुनिया के देशों में रहने वालों के बीच घृणा और गुस्सा पैदा करने के जिम्मेदार न बनें. हर अखबार, हर पत्रिका और हर टीवी चैनल की तरह फेसबुक, इंस्टाग्राम, ट्विटर और यूट्यूब में से प्रत्येक को एक सख्त और निष्पक्ष संपादक की जरूरत है. जो चीजों पर नजर रखे, सैंसर की कैंची चलाए और मानवता को शर्मसार करने वाली हर घटना के प्रति जवाबदेह हो.

मई का तीसरा सप्ताह, कैसा रहा बौलीवुड का कारोबारः जंगल में मोर नाचा,किस ने देखा…

बौलीवुड के हालात सुधरने का नाम ही नहीं ले रहे हैं. एक तरफ 80 प्रतिशत सिनेमाघर बंद चल रहे हैं तो दूसरी तरफ फिल्म निर्माता सुधरने का नाम नहीं ले रहे हैं.
फिल्म निर्माता जिस तरह से अपनी फिल्मों को प्रदर्शित कर रहे हैं. उस से अहसास होता है कि वह ‘सब्सिडी’ की रकम बटोरने या ओटीटी प्लेटफार्म पर अपनी फिल्म बेचने के लिए आवश्यक शर्त पूरी करने के लिए फिल्म को प्रदर्शित कर खाना पूर्ति मात्र ही कर रहे हैं. उन्हें इस बात की परवाह ही नहीं है कि उन की फिल्म से दर्शक परिचित हों और उन की फिल्म कमाई करे.
इसी तरह से मई माह के तीसरे सप्ताह यानी कि 17 मई को निर्देशक सोहम शाह की फिल्म ‘‘करतम भुगतम’’ प्रदर्शित हुई, जिस में श्रेयश तलपडे़, विजय राज,मधु व अक्षा पारदर्शिनी ने अहम किरदार निभाए हैं. यह सायकोलौजिकल थ्रिलर फिल्म कर्म और उस के फल के साथ ही ज्योतिष की भी बात करती है.
फिल्म ‘‘करतम भुगतम’’ को प्रदर्शित करने से पहले कोई प्रचार नहीं किया गया. इस फिल्म का टीजर या ट्रेलर कब आया, यह भी पता नहीं चला. यहां तक कि 17 मई को फिल्म चुपचाप प्रदर्शित कर दी गई. आम दर्शक को तो छोड़िए, पत्रकारों को भी पता नहीं चला कि ‘करतम भुगतम’ नाम की कोई फिल्म प्रदर्शित हो रही है.
यानी कि ‘जंगल में मोर नाचा, किस ने देखा..’ वाली कहावत चरितार्थ हो गई. इतना ही नहीं भूले भटके जो दर्शक सिनेमाघर पहुंच गए, वे इस फिल्म के साथ जुड़ नहीं सके. फिल्म के निर्माता फिल्म के बजट को ले कर चुप्पी साधे हुए हैं. तो वहीं यह फिल्म की कमाई पूरे एक सप्ताह में एक करोड़ भी नहीं हुई. निर्माता के हाथ में चाय पीने के भी पैसे नहीं आए…
बिना किसी प्रचार के फिल्म ‘करतम भुगतम’ को प्रदर्शित करने के पीछे निर्माता की क्या सोच रही है, यह तो वही जाने. आखिर उस ने अपने सारे पैसे क्यों डुबाए यह भी वही जाने. इस तरह फिल्म को प्रदर्शित कर निर्माता सरकार से ‘सब्सिडी’ भले हासिल कर ले, पर कोई ओटीटी प्लेटफार्म इस तरह की फिल्म में रूचि दिखाएगा, ऐसा हमें तो नहीं लगता.

एससी/एसटी महामंडलेश्वर बना कर अब दलित औरतों को घेरने की साजिश

बात हैरानी के साथसाथ चिंता की ज्यादा है कि कल तक जिन तबकों के लोगों की परछाई पड़ने से भी साधुसंयासियों सहित आम सवर्ण का भी धर्म भ्रष्ट हो जाता था, आज उन्हीं के समुदाय के 100 और महामंडलेश्वर बनाए जाएंगे. यह ऐलान अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद् के मुखिया रविंद्र पुरी ने उज्जैन से ऐसे वक्त में किया है जब लोकसभा चुनाव का प्रचार शबाब पर है जिस में संविधान और आरक्षण को ले कर जोरदार बहस छिड़ी हुई है. भाजपा और इंडिया गठबंधन एकदूसरे पर संविधान खत्म कर देने का आरोप मढ़ रहे हैं.

संविधान का धर्म, उस के गुरुओं, ग्रंथों और दलित व सवर्णों से भी गहरा कनैक्शन है. जब संविधान का मसौदा सामने आया तो तमाम हिंदुवादियों ने जम कर इस का विरोध किया था. उन का कहना था कि मनुसमृति ही असल संविधान है. आरएसएस और हिंदू महासभा ने तो जगहजगह संविधान के विरोध में प्रदर्शन भी किए थे लेकिन आश्रमों, मंदिरों और मठों में रह रहे साधुसंयासियों ने भी कम आग नहीं उगली थी.

वाराणसी के नामी संत और राम राज परिषद् नाम की राजनीतिक पार्टी के मुखिया करपात्री महाराज ने तो दो टूक कह दिया था कि वे एक अछूतदलित डाक्टर भीमराव आंबेडकर के हाथों लिखे संविधान को नहीं मानेंगे, इस से उन का धर्म और संस्कृति नष्टभ्रष्ट हो जाएंगे.

इन लोगों की तकलीफ यह थी कि संविधान में दलित आदिवासियों, मुसलमानों और औरतों को सवर्णों के बराबर के अधिकार दिए जा रहे थे जिस से धर्मगुरुओं की दुकान खतरे में पड़ रही थी. समाज पर से उन का दबदबा कम हो रहा था.

75 साल में इतनी तबदीलियां तो संविधान के चलते आईं कि पहली बार बड़े पैमाने पर सवर्णऔरतें, दलित और आदिवासी शिक्षित हुए जिस के चलते उन के पास पैसा आया (लेकिन अक्ल और जागरूकता उम्मीद के मुताबिक नहीं आईं). सवर्ण औरतें तो तबीयत से व्रतउपवास, धर्मकर्म करते दानदक्षिणा, चढ़ावा यानी धार्मिक टैक्स देती रहीं लेकिन दलित आदिवासियों ने ऐसा कम किया. इस की बड़ी वजह यह थी कि उन्हें मंदिरों में दाखिल होने की इजाजत ही नहीं थी और न ही ब्राह्मण उन के लिए कर्मकांड करने को राजी था क्योंकि उसे अपने सवर्ण यजमानों से ही इफरात में दानदक्षिणा मिल जाती थी. आज भी ऐसी खबरें आना आम है कि दलितों को मंदिर में प्रवेश करने से रोका गया और न मानने पर उन के साथ मारपीट की गई.

इस से होने यह भी लगा कि दलित हल्ला मचाते थाने और अदालत भी जाने लगे. इस पर भी भेदभाव और अत्याचार कम नहीं हुए तो वे बौद्ध, ईसाई और मुसलमान बनने लगे जिस से हिंदुओं की तादाद कम होने लगी.

इन स्थितियों से बचने के लिए अब अखाड़ा परिषद का दलित आदिवासी समुदाय से थोकबंद महामंडलेश्वर बनाने का फैसला धर्म की दुकानदारी को और एक्स्टेंशन यह सोचते हुए लेना है कि जब मनुस्मृति से बात नहीं बन रही तो इन तबकों को गले लगा कर ही लूटो और इन के संपर्क में आने से बचने के लिए इन के तबके के ही महामंडलेश्वर बना दो जिस से वे सवर्णों के लिए बने ब्रैंडेड मंदिरों में जाने की जिद पर न अड़ें और धर्मांतरण पर भी लगाम लगे.

इस बाबत इन नए महामंडलेश्वरों का सनातन धर्म का ज्ञान अनिवार्य किया गया है. महामंडलेश्वर बनने के लिए जरूरी है कि उम्मीदवार दलित आदिवासियों को वेदपुराणों और दूसरे धर्मग्रंथों का ज्ञान हो. यानी, इस पद के लालच में वे इन्हें पढ़ तो लें और इस बात से सहमत हो जाएं कि इन में अगर शूद्रों के साथ भेदभाव करने की हिदायत है तो इस पर उसे कोई एतराज नहीं बल्कि महामंडलेश्वर बन जाने के बाद वह अपने तबके के लोगों को भी इन बातों से सहमत करने की कोशिश करेगा कि यह तो भगवान का आदेश है जिस ने हमेंतुम्हें पैर से बनाया. इसलिए इस पर एतराज जताने का कोई मतलब नहीं.

अब जो भी दलित आदिवासी इस ओहदे पर आएगा वह दान का हिस्सा अखाड़ा परिषद् को भी देगा और बड़े पैमाने पर दलित आदिवासियों को पूजापाठी बनाने का काम भी करेगा जैसे भी आए आने दो, आखिर, पैसे से क्या दुश्मनी वह तो हाथ का मेल है और उस की जाति या धर्म नहीं होता. प्रयोग के तौर पर अखाड़ा परिषद् ने बीती 19 अप्रैल को गुजरात में 4 दलित आदिवासी महामंडलेश्वरों का पट्टाभिषेक किया था, प्रयोग सफल रहा तो अब थोक में भरतियां की जा रही हैं.

इस फैसले का एक अहम मकसद सवर्ण औरतों की तर्ज पर दलित औरतों को भी धर्मकर्म का संक्रामक रोग लगाना है जिस से यह समुदाय तरक्की की दौड़ में पिछड़ा ही रहे. धर्म के प्रभाव में आने से ये भी भाग्यवादी, पूजापाठी और भक्तिन बन जाएंगी और हरेक बात या परेशानी के लिए व्रतउपवास रखने लगेंगी.

इस से भी बात नहीं बनेगी तो ज्योतिषियों और तांत्रिकों के चक्कर काटने लगेंगी, जहां से परेशानियां कम होने के बजाय और बढ़ती हैं. यही इन के बच्चे सीखेंगे कि नौकरी पढ़ाई और मेहनत से नहीं बल्कि पूजापाठ और गुरुओं के आशीर्वाद से मिलती है जिस के लिए अब हमारे तबके के भी धर्मगुरु महामंडलेश्वर जैसे रुतबेदार ओहदे पर बैठा दिए गए हैं.

ऐसे आएगी समानता

हिंदू या सनातन धर्म की एक बड़ी खामी इस में पसरी वर्णव्यवस्था है जिस के चलते जातिगत भेदभाव, छुआछूत, अत्याचार और शोषण इस की रगरग में खून के साथ दौड़ने लगे हैं. इस बीमारी का इलाज किसी से नहीं हो पा रहा तो नए बीमार पैदा किए जा रहे हैं. रविंद्र पुरी ने यह घोषणा करते हुए कहा भी कि सालों से पिछड़े इस तबके को मुख्यधारा से जोड़ना जरूरी है. बकौल रविंद्र पुरी, पुरानी सोच बदलने की जरूरत है.

दिल को बहलाने का खयाल अच्छा है जिस के लिए जाने क्यों यह नहीं सोचा जा रहा कि पुरानी सोच के स्रोत ही क्यों न खत्म कर दिए जाएं. मसलन, भेदभाव फैलाते धर्मग्रंथ ही नष्ट कर दिए जाएं जिस से न बांस रहेगा न बांसुरी बजेगी. फिर सब बराबर हो जाएंगे और संविधान पर भी बवंडर मचाने की जरूरत नहीं रहेगी. लेकिन असल मकसद धर्म की बांसुरी पर अब दलितों को भी नचाने का है जिस के लिए मुख्यधारा जैसे साहित्यिक और समाजवादी शब्दों का सहारा लिया जा रहा है.

बाबाओं और महाराजाओं का डर यह भी है कि कहीं धीरेधीरे ये दलित, आदिवासी ही मुख्यधारा न बन जाएं, इसलिए इन्हें भी अफीम चटाई जाए. इस के लिए बेहतर यह है कि इस अफीम की सप्लाई के नए अड्डे खोले जाएं और सप्लायर भी इन्हीं के तबके के बनाए जाएं जिस से नशा करने में आसानी रहे.

अगर मंशा वाकई बराबरी की है तो सब से पहले जन्मकुंडली में जाति और गोत्र लिखना बंद किया जाए जो फसाद की बड़ी जड़ और धार्मिक पहचान का आधारकार्ड है. धर्म के दुकानदार यह हिम्मत दिखा पाएंगे, ऐसा लगता नहीं.

आधी दुनिया को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं

दुनिया भर की आधी आबादी को अभिव्यक्ति की आजादी नहीं है. औक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय द्वारा 161 देशों पर किए गए अध्ययन के बाद यह तथ्य सामने आया है कि दुनिया की आधी से ज्यादा जनसंख्या को अपने मन की बात कहने की स्वतंत्रता नहीं है. 2022 में यह आंकड़ा 34 फीसदी था मगर 2023 में यह बढ़ कर 53 फीसद पर पहुंच गया है. जाहिर है जिस तरह दुनिया के देशों में धार्मिक कट्टरता और धर्म के आधार पर लड़ाइयां बढ़ रही हैं, अभिव्यक्ति की आजादी पर उतना ही ज्यादा अंकुश लगाने की कोशिशें हो रही हैं.

जिन 161 देशों पर अध्ययन हुआ है और जहां लोगों के बोलने के अधिकार पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सरकारी रोक लगी हुई है, उस सूची में भारत 123वें स्थान पर है. गणतंत्र देश होने के बावजूद यहां लोगों को खुल कर अपनी बात कहने का हक न होना इतने बड़े लोकतंत्र के लिए बेहद शर्म की बात है. इसे जनता के ऊपर तानाशाही ही कहा जाएगा. पाकिस्तान में भी लोगों को बोलने की आजादी पर रोकटोक होती है, सूची में उस का स्थान 108वां है, वहीं अफगानिस्तान के वाशिंदों के पास भी अभिव्यक्ति का हक नहीं है. अफगानिस्तान इस सूची में 155वें स्थान पर है.

अध्ययन के अनुसार अधिक प्रतिबंधित क्षेत्र वाले देशों की संख्या 24 है, जहां की 77 करोड़ आबादी के पास अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की कमी है. कुछ अन्य देश जहां हाल में ज़्यादा प्रतिबन्ध लगे हैं उन में बुर्किना, फासो, केंद्रीय अफ्रीकन गणराज्य, इक्वाडोर, सेनेगल और टोगो जैसे देश हैं.

भारत में जब से मोदी सरकार केंद्र की सत्ता में आयी है लोगों से अभिव्यक्ति की आजादी जैसे छीन ली गई है. सरकार की नीतियों की आलोचना करने वाले को देशद्रोही घोषित करना एक आम चलन हो गया है. जबकि एक लोकतंत्र में कार्यपालिका, न्यायपालिका और नौकरशाही की आलोचना करना जनता का अधिकार है, इसे देशद्रोह नहीं माना जा सकता है. मगर मोदी सरकार को अपनी आलोचना बर्दाश्त नहीं है. सोशल मीडिया प्लेटफौर्म पर सरकार की आलोचना करने वाली सामग्री गायब कर दी जाती है. गूगल पर ऐसी कोई सामग्री ढूंढने पर भी नहीं मिलेगी जिस में मोदी सरकार की नीतियों, कार्यों आदि का आलोचनात्मक विश्लेषण प्रस्तुत किया गया हो. साफ है कि एक लोकतान्त्रिक राष्ट्र में लोक को अपने विचार प्रस्तुत करने के लिए कोई स्थान मुहैया नहीं है.

बीते कुछ सालों में उन तमाम टीवी चैनलों को सरकार के करीबी उद्योगपतियों द्वारा खरीद लिया गया है जो सरकार की नीतियों की समीक्षा करते थे और विश्लेषण जनता के सामने प्रस्तुत करते थे. वे तमाम जर्नलिस्ट नौकरियों से निकाल बाहर किए गए जो सरकार की आंख में आंख डाल कर सवाल पूछने की हिम्मत रखते थे, सरकार को समयसमय पर आईना दिखाने का काम करते थे और जनता के सामने सच परोसते थे. बीते 10 सालों के दौरान सरकार की आलोचना को राजद्रोह के रूप में परिभाषित करके मोदी सरकार ने भारत का लोकतंत्र एक पुलिस राज्य के रूप में विकसित कर दिया है. जो बोले पुलिस के डंडे खाए और जेल जाए.

अभिव्यक्ति की आजादी का सीधा सा अर्थ है देश के संविधान के दायरे में रहते हुए किसी भी राजनीतिक विषय,राजनीतिज्ञ, दल,व्यक्ति के नीतियों या सोच पर अपनी सहमति या असहमति व्यक्त करना. सरकार की नीतियों से अपनी असहमतियों को जाहिर करना, इस के खिलाफ धरनाप्रदर्शन, आंदोलन के साथ मीडिया में अपनी असहमति को दर्ज करना कोई अपराध नहीं, एक स्वतंत्र लोकतंत्र का हक़ है. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मनुष्य का एक सार्वभौमिक और प्राकृतिक अधिकार है और लोकतंत्र, सहिष्णुता में विश्वास रखने वालों का कहना है कि कोई भी राज्य और धर्म इस अधिकार को छीन नहीं सकता. भारत का संविधान एक धर्मनिरपेक्ष, सहिष्णु और उदार समाज की गारंटी देता है. संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का सब से महत्वपूर्ण हिस्सा माना गया है. लेकिन मोदी सरकार के कार्यकाल में इस अधिकार को सबसे ज़्यादा कुचला गया है.

इस के अलावा भारत सहित दुनिया भर में जैसेजैसे धार्मिक पागलपन बढ़ रहा है वैसेवैसे लोगों को बोलने, सवाल करने या तर्क करने की आजादी छीनी जा रही है. धर्म अपने आगे कोई सवाल नहीं चाहता. हजारों साल पहले जो बातें धर्मग्रंथों में लिख दी गईं उस पर आज कोई तर्कवितर्क धर्म के ठेकेदारों (वर्तमान समय में सरकार) बर्दाश्त नहीं है. भारत सरकार हो या अफगानिस्तान में शासन कर रहा तालिबान, धर्म की बेड़ियों में जनता को जकड़ कर उसे गूंगा बनाने की मुहिम हर जगह जारी है.

भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और धर्म के बीच टकराव जगजाहिर है. राज्य द्वारा पुस्तकों और फिल्मों पर सेंसरशिप और मुसलिम कट्टरपंथी और हिंदू धार्मिक-राष्ट्रवादी समूहों द्वारा पत्रकारों, लेखकों, फिल्म निर्देशकों और शिक्षाविदों का उत्पीड़न पूरे देश में जारी है. दिलचस्प बात यह है कि भारतीय धर्मनिरपेक्षता को कट्टरपंथी मुसलमानों और हिंदू राष्ट्रवादियों दोनों ने ही नापसंद किया है. अपनेअपने धर्म के खिलाफ वे कुछ भी सुनने को तैयार नहीं हैं.

धार्मिक रूप से आहत करने वाले भाषण (या अभिव्यक्ति) को प्रतिबंधित करने की कई लोगों की इच्छा धार्मिक-कट्टरपंथी समूहों और स्वतंत्र विचारकों के बीच संघर्ष का केंद्र बिंदु बन गई है. भारतीय दंड संहिता के प्रावधान 298 और 295ए के परिणामस्वरूप कई लेखकों, पत्रकारों और शिक्षाविदों का उत्पीड़न हुआ है. इस के अलावा, कट्टर मुसलमानों और हिंदू कट्टरपंथी समूहों द्वारा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को दबाने के लिए हिंसा और फतवे का पुरजोर इस्तेमाल किया जा रहा है.

हिंदू धार्मिक-राष्ट्रवादियों का मुख्य उद्देश्य भारत में हिंदू शासन स्थापित करना है. हिंदू मूल्यों के प्रचार प्रसार की राह में वे कोई अवरोध, कोई सवाल. कोई आलोचना नहीं चाहते हैं. प्रमुख हिंदू कट्टरपंथी समूहों में आरएसएस (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ), वीएचपी (विश्व हिंदू परिषद) और शिवसेना 1980 के दशक की शुरुआत से ही भारत में धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ सांप्रदायिक हिंसा भड़काने के लिए जिम्मेदार रहे हैं. यह हिंदू कट्टरपंथी समूह इस विचार के भी सख्त खिलाफ हैं कि अल्पसंख्यकों को हिंदुओं के समान अधिकार मिलें. इन समूहों के भीतर, विशेष रूप से आरएसएस, अंततः भारत को एक हिंदू राष्ट्र बनाने का लक्ष्य रखता है और धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र और पश्चिमीकरण के राजनीतिक विचारों को भारतीय संस्कृति के खिलाफ मानता है. हिंदू कट्टरपंथी ताकतें तब और भी मजबूत हुईं जब भारतीय जनता पार्टी 2014 में सत्ता में आई और नरेंद्र मोदी जो कि एक पूर्णकालिक आरएसएस सदस्य रहे, को भारत का प्रधानमंत्री बनाया गया.

हिंदू कट्टरपंथी प्रकाशकों को प्रकाशन वापस लेने की धमकी देने, अपने राजनीतिक एजेंडे के लिए आपत्तिजनक मानी जाने वाली फिल्मों को सेंसर करने के लिए दबाव बनाने और हिंदू धार्मिक मिथकों और किंवदंतियों का विरोध करने वाली आलोचनात्मक आवाजों को चुप कराने में सफल रहा है. 2017 में पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या, जो दक्षिणपंथी और हिंदू राष्ट्रवाद की आलोचक थीं, यह दर्शाता है कि ऐसी कट्टरपंथी ताकतें भय का माहौल बना कर स्वतंत्र अभिव्यक्ति को प्रतिबंधित कर रही हैं.

अभिव्यक्ति की आजादी पर कुठाराघात का इस से बड़ा उदाहरण क्या हो सकता है कि अदालत के आदेश के बाद भी जेम्स डब्ल्यू लेन की शिवाजी पर लिखी किताब पर प्रतिबंध हटा दिए जाने के बाद भी, किताबों की दुकानें इसे स्टोक करने के लिए तैयार नहीं हुईं. कट्टरपंथी हिंदुत्व की ताकतें भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और उदारवादी आवाजों के लिए गंभीर चुनौतियां पेश कर रही हैं, इस में कोई शक नहीं है.

इस्लामिक कट्टरपंथी ताकतों ने भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बाधित करने में कोई कोरकसर नहीं छोड़ी है. आमतौर पर, कट्टरपंथी इस्लामी समूह – जैसे देवबंद और आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल बोर्ड धर्मविरोधी विचार या आलोचना पर हिंसा, धार्मिक फतवे और सार्वजनिक निंदा का सहारा लेते हैं, या अगर उन्हें लगता है कि उन के धर्म के लिए कुछ भी अपमानजनक है तो वे अदालत में मामला दर्ज करते हैं.

भारत ने 1988 में मुस्लिम राजनीतिक समूहों के दबाव के कारण ही सैटेनिक वर्सेज नामक पुस्तक पर प्रतिबंध लगा दिया था. बांग्लादेशी लेखिका तस्लीमा नसरीन की किताब ‘द्वीखंडिता’ को भी मुसलमानों की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने का आरोप लगा कर भारत में प्रतिबंधित कर दिया गया था. यहां तक कि इस्लामी कट्टरपंथियों के दबाव में, भारत सरकार ने तसलीमा नसरीन को नागरिकता देने से भी इनकार कर दिया था. उर्दू अखबार की संपादक शिरीन दलवी को फ्रांसीसी व्यंग्य पत्रिका चार्ली हेब्दो के विवादित कवर को छापने के लिए गिरफ्तार किया गया. दलवी पर भारतीय दंड संहिता की धारा 295 ए के तहत दुर्भावनापूर्ण इरादे से धर्म का अपमान करने और धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने का आरोप लगाया गया.

अदालत में, स्वतंत्र विचारकों के खिलाफ भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) 298, 295 ए, 153 ए का इस्तेमाल किया गया है. स्वतंत्र विचारकों को आम तौर पर दो स्तरों पर चुनौतियों का सामना करना पड़ता है; या तो आहत पक्ष उन्हें अदालत में घसीटता है या उन्हें डरानेधमकाने, शारीरिक हिंसा और सामाजिक दबाव के साथ माफी मांगने के लिए मजबूर करता है. जैसे अपनी राय रख कर उस ने बहुत बड़ा गुनाह कर दिया हो.

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