Download App

करोड़ों कमाने के बाद भी अपने ड्राइवर को सैलेरी नहीं दे पा रहे रणवीर सिंह

इन दिनों रणवीर सिंह अपनी अपकमिंग फिल्म ‘पद्मावती’ को लेकर चर्चा में बने हुए हैं. उनकी स्टाइल और फैशन सेन्स के तो लाखों दीवाने हैं, लेकिन उनकी एक्टिंग भी किसी सुपरस्टार से कम नहीं है. फिल्म ‘बाजीराव-मस्तानी’ में अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन कर रणवीर सिंह खूब वाहवाही बटोर चुके हैं. लेकिन इन फिल्मों से करोड़ों कमाने के बाद भी वे अपने ड्राइवर को कुछ हजार की सैलेरी नहीं दे पा रहे.

जी हां, वैसे तो फैन्स के सामने रणवीर की इमेज बेहद अच्छी है, लेकिन इस खबर को सुनकर शायद वे अपसेट हो जाएं. एक मनोरंजन साईट पर छपी खबर के अनुसार रणवीर के ड्राइवर सूरज पाल की दो महीने की सैलेरी बकाया थी, जिसे लेकर वह रणवीर के मैनेजर से बात करने की कोशिश कर रहा था. लेकिन मैनेजर ने उसे पूरी तरह से इग्नोर किया और बौडीगार्ड से कहकर उसे बाहर निकालने के लिए कहा.

लेकिन इसी दौरान बौडीगार्ड और ड्राइवर के बीच झगड़ा हो गया. झगड़ा यहां तक बढ़ गया कि खुद संजय लीला भंसाली को बीच बचाव करना पड़ा. अंत में उन्होंने ड्राइवर को नौकरी से निकाल दिया और उससे कहा कि 1 दिन के अंदर उसे सैलेरी दे दी जाएगी. बता दें कि रणवीर के ड्राइवर की बकाया सैलेरी 85000 थी.

आईफोन 8 प्लस फटा, देखें फटने के बाद कैसा हो गया फोन

ऐपल की मोबाइल की दुनिया में एक अलग पहचान है. कंपनी ने हाल ही में अपने 3 नए स्मार्टफोन लान्च किए थे. आईफोन 8, आईफोन 8 प्लस और आईफोन X. लेकिन अब आईफोन 8 प्लस को लेकर दो मामले सामने आए हैं. आईफोन 8 प्लस में बैटरी फूलने की शिकायत आ रही है. ऐसे दो मामले 2 अलग अलग देशों से आए हैं.

पहला मामला ताइवान का है और दूसरा मामला जापान का है. दोनों ही यूजर्स ने फोटो को सोशल मीडिया में साझा किया है. दरअसल दोनों ही मामलों में बैटरी फूलने के बाद फोन अपने आप खुल गया है.

मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक पहले मामले में यूजर ने आईफोन 8 प्लस को पांच दिन तक यूज किया और चार्जिंग के दौरान आईफोन 8 प्लस फट कर खुल गया. ऐसा बैटरी के फूलने की वजह से हुआ क्योंकि इसमें कोई आग नहीं लगी और यह सिर्फ खुल गया. यह मामला ताइवान का है.

दूसरा मामला जापान का है. यहां यूजर ने दावा किया है कि उसे बौक्स में फटा हुआ यानी हार्डवेयर खुला आईफोन 8 प्लस मिला है. उन्होंने इसकी तस्वीर भी पोस्ट की है जिसमें आप देख सकते हैं कैसे आईफोन 8 प्लस बैटरी फूलने की वजह से खुल गया है.

दिग्गज अमेरिकी कंपनी ऐपल ने आईफोन 8 प्लस की इस कथित घटना के बाद जांच शुरू कर दी है. ऐपल के एक प्रवक्ता ने बताया है कि उन्हें इस मामले की जानकारी है और इसे देखा जा रहा है. बता दें कि यह पहली बार नहीं है कि आईफोन फटने की खबर आई है. ऐसा पहले भी हुआ है लेकिन ऐसे मामले न के बराबर होते हैं और यह बैटरी में कुछ दिक्कतों से होता है.

दिन दहाड़े

हमारा नया घर कोटा के श्रीनाथपुरम इलाके में बन रहा है. नलफिटिंग व लाइटफिटिंग का काम चल रहा था. हम ने सामान मंगवा कर कुछ घर के अंदर और कुछ बाहर चौकीदार की झोंपड़ी में रखवा दिया. मेरे पति, बाऊजी और मेरे देवर सुबहशाम मकान का काम देखने जाया करते थे.

एक दिन दोपहर में 3 बजे 2 व्यक्ति स्कूटी पर आए और कहने लगे, ‘‘बाऊजी ने बिजली के तारों की बोरी, जो तुम्हारी झोंपड़ी में रखी है, पुराने घर पर मंगवाई है.’’ उन सभ्य दिखने वाले व्यक्तियों की बातों पर विश्वास कर चौकीदार ने उन्हें बोरी पकड़ा दी. वे बोरी स्कूटी पर रख कर चलते बने.

शाम 5 बजे जब मेरे पति व बाऊजी मकान पर गए तो चौकीदार ने कहा, ‘‘बाऊजी, आप ने बिजली के तार पुराने घर पर मंगवाए. वहां पर भी काम चल रहा है क्या?’’ यह सुन कर बाऊजी व मेरे पति बोले, ‘‘हम ने कोई तार नहीं मंगवाया.’’

चौकीदार के होश उड़ गए. वह बोला, ‘‘बाऊजी, उन्होंने आप का नाम लिया और हम ने विश्वास कर लिया.’’ इस तरह हमें हजारों रुपए का चूना दिनदहाड़े लग गया.

राधा भारती काल्या

*

मेरे पड़ोस में एक सज्जन के यहां नया एयरकंडीशन लगना था. कंपनी वाले शाम के समय मशीन रख गए और बोले, ‘‘सुबह दुकान खुलने पर हमारा आदमी आ कर इसे लगा देगा.’’ वे सज्जन अपनी मां के साथ रहते थे. उन की बीवी मायके गई हुई थी.

दूसरे दिन सुबह जब वे सज्जन औफिस जाने लगे तो मां से बोले, ‘‘जब कंपनी के आदमी एयरकंडीशन लगाने आएं तो मुझे फोन कर देना. मैं तुरंत औफिस से चला आऊंगा.’’ उन सज्जन का औफिस घर के पास ही था.

दूसरे दिन उन के घर करीब 11 बजे सुबह 2 लड़के आए और कहने लगे, ‘‘माताजी, हम लोग एयरकंडीशन लगाने आए हैं.’’ इस पर माताजी बोलीं, ‘‘बेटे को फोन कर देती हूं, वह अभी औफिस से आ जाएगा.’’ इस पर वे लड़के बोले, ‘‘अरे माताजी, फोन तो कर लो पर हम लोगों को जगह बता दीजिए कि एयरकंडीशन कहां पर लगाना है.’’

माताजी उन को कमरा दिखाने  ले गई. इतने में एक लड़का बोला, ‘‘माताजी, जरा यह तार तो पकडि़ए, हम लोग नाप लें कि कितना तार लगेगा.’’

माताजी ने तार को पकड़ा ही था कि उन्हें बेचैनी हुई. वे सिर पकड़ कर कुरसी पर बैठ गईं और बेहोश हो गईं. वे दोनों लड़के घर का कीमती सामान व नकदी ले कर फरार हो गए.  उपमा मिश्रा

शिंजो, मोदी, बुलेट ट्रेन और देश का अपमान

अहमदाबाद को देश का केंद्र बना कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी न जाने क्या साबित करना चाह रहे हैं. अहमदाबाद देश का अच्छा विकसित शहर है पर है एक राज्य का शहर ही. यहां पहले चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग का स्वागत कर और अब जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे का आतिथ्य कर नरेंद्र मोदी यह दर्शा रहे हैं कि देश की राजनीति का प्रारंभ और अंत अहमदाबाद से है.

यह देश के साथ एक तरह का अपमान है. अहमदाबाद के साथ यदि लखनऊ, पटना, कोलकाता या बेंगलुरु को भी इस तरह का श्रेय मिलता तो बात दूसरी थी. प्रधानमंत्री का अपने गृहराज्य के प्रति यह प्रेम दर्शाता है कि वे देश पर गुजरातियों का राज थोपने की कोशिश कर रहे हैं जैसे जवाहरलाल नेहरू के जमाने में उत्तर प्रदेश का अघोषित राज थोपा हुआ था. यह बात दूसरी थी कि तब लखनऊ एक बड़ा गांव ही था और वहां विदेशी मेहमानों को बुलाना, होटलों की कमी के कारण संभव न था.

अहमदाबाद औद्योगिक शहर हुआ करता था और गुजरात की राजधानी भी. पर पिछले कुछ दशकों में गुजरात की राजधानी गांधीनगर में खिसक गई है और उद्योग जामनगर, सूरत, राजकोट, बड़ौदा, भुज आदि में. अहमदाबाद अब बिखरा हुआ शहर है जिस का आकर्षण नर्मदा के पानी से भरी साबरमती नदी मात्र है. इस नदी के दोनों किनारों पर आड़ीतिरछी बस्तियां हैं. असल में तो यह शहर 2002 के दंगों की याद ज्यादा दिलाता है, साबरमती के तट पर बसे गांधी के आश्रम की कम जिस के आसपास भव्य बहुमंजिले भवन बन गए हैं. गांधी की तरह आश्रम भी बौना बन कर, बस, प्रतीक रह गया है.

विदेशियों के लिए इसे मानक बना कर हम वही गलती कर रहे हैं जो सदियों से करते रहे हैं. आस्था और अंधविश्वास के नाम पर हम अपनी फटी चादर पर गर्व करते रहे हैं और ढोल पीटते रहे हैं. जापान के प्रधानमंत्री के हाथों मुंबई व अहमदाबाद के बीच अरबों की बुलेट टे्रन का शिलान्यास चाहे कर लें पर यह ट्रेन कभी सफल नहीं होगी क्योंकि हवाईयात्रा ज्यादा सस्ती व सुलभ रहेगी. मुंबई अहमदाबाद रूट पर दोनों तरफ उसी तरह के बेतरतीब शहर हैं जैसी साबरमती के दोनों तरफ की बस्तियां.

हमें न जाने क्यों अपने नासूर, अपनी फटी चादर, अपने अंधविश्वास, अपनी गुलामी की निशानियों को दिखाने में मजा आता है. आगरा हो, दिल्ली हो, अहमदाबाद हो या कोई और शहर, हमारे दिखाने लायक इलाके गुलामी की कहानियां ही कहते हैं.

जरूरत है कि हम खुद को और बाहर वालों को अपनी उपलब्धियों की गाथाएं बताएं पर उन्हें न जाने क्यों समेटे हुए हैं. दूसरे देश जब भी अपनी राजधानी से बाहर विदेशी मेहमानों को बुलाते हैं, तो वे अपना ऐसा शहर चुनते हैं जो बहुत ज्यादा फोटोजैनिक हो. अफसोस, हमारी अपनी उपलब्धि वाला कोई शहर है ही नहीं. ऐसे में विदेशी मेहमानों का स्वागत दिल्ली में ही करें, तो अच्छा रहेगा.

मुंबई में बारिश के कहर से आपको भी कुछ सीखना चाहिए

मुंबई में मूसलाधार बारिश का कहर हो, राम रहीम को ले कर पंचकूला का दंगा हो, गोरखपुर के अस्पताल में बच्चों की मौतें हों, शहरों की गंदगी हो, चारों ओर अस्तव्यस्तता हो, इन सब से यह लगता है हमें शहरों में जीना न आया है और न ही हम सीख रहे हैं. नरेंद्र मोदी का शौचालय व स्वच्छ अभियान अच्छा प्रयास था पर ज्यादातर लोगों ने इसे संजय गांधी की नसबंदी का सा सरकारी कार्यक्रम मान कर फोटो खिंचवाया और इसे छोड़ दिया.

हम अभी भी शहरों में रहने लायक नहीं हुए हैं. शहरी जीवन के सामान्य तौरतरीके हमें नहीं आते. जो जमीन अपनी नहीं है वह सब की है, यह मूल सिद्घांत तक हम नहीं समझ पा रहे हैं. जो सब का है उस पर कोई भी कब्जा कर ले, कोई भी कूड़ा फेंक दे, कोई भी सामान रख दे, कोई भी आड़ीतिरछी गाडि़यां खड़ी कर दे, इसे हम अपना हक मानते हैं. कौर्पोरेशन नाम की कोई संस्था है, यह हमें मालूम ही नहीं क्योंकि वह दिखती भी नहीं है.

शहर में रहने का मतलब है कि थोड़ी सी जगह में सब हिलमिल कर रहें. अपनी सुविधाओं के साथ दूसरों की समस्याओं का भी खयाल रखना होता है. लेकिन हमें लगता है कि हमारे पास पैसे या जगह कम है तो दूसरों का फर्ज बनता है कि वे हमारे जरिए पैदा हुईं असुविधाओं को सहें.

मुंबई में इस साल बारिश में फिर कहर इसलिए बरपा क्योंकि पूरे साल मुंबई वाले इस की तैयारी करते हैं. नालियां बंद करते हैं. नालों को घर बनाते हैं. मकानों के कूड़े से नदियों को भरते हैं. सीवर साफ नहीं कराते. छतों, छज्जों पर सामान भरते हैं जो बरसात में बह कर सड़कों पर आ जाता है. सीवरों के ढक्कन चुरा लेते हैं. वे टूट जाएं तो ठीक कराने के लिए संबंधित विभाग का दरवाजा नहीं खटखटाते.

मुंबईवासी घरों में एयरकंडीशनरों की भरमार करते हैं पर बाहर वालों के लिए गरमी का इंतजाम करते हैं. बिजली के तार बिखरे पड़े रहते हैं. अच्छेभले मकानों की बालकनियों को, आड़ेतिरछे कपड़े फैला कर, भद्दा दिखाते हैं. दीवारों पर लगे पोस्टरों को साफ नहीं करते. झुग्गियों को बनने देते हैं ताकि उन्हें सस्ते कामगार मिल सकें.

इस सारी मेहनत या कहें कि लापरवाही का फल है कि वर्षारानी कभीकभार अपना प्रकोप दिखा जाती है तो फिर मुंबईवासी कलपने लगते हैं.

ऐसा सभी शहरों में होता है. कोई एक शहर नहीं जो इस से बचा हो जहां शहरी मिल कर शहर को सुखमय बनाते हों, पेड़ लगाते हों, झाडि़यों को काटते हों, पब्लिक टौयलेट बनाते हों, उन्हें साफ रखते हों. सभी शहरों में ये काम दूसरों के हैं. वे तो खुद सिर्फ बोल सकते हैं, करना कुछ नहीं है.

ऐसे में जाहिर है कभी नेचरमेड तो कभी मैनमेड प्रकोप आएंगे ही. इसे सहज ही स्वीकार कर लें. फालतू में चूंचूं करने से कोई लाभ नहीं.

सिंदूर का बोझ न उठाएं, जिंदगी को अपने अधिकारों के साथ जीएं

तना कमजोर होता है और एक उच्च शिक्षिता, स्वावलंबी, आत्मनिर्भर स्त्री का मन भी. पति छोड़ कर चला जाता है, दूसरी शादी कर लेता है लेकिन वह उस के नाम का सिंदूर कभी नहीं छोड़ती. वह परित्यक्ता का जीवन बिताती है लेकिन सिंदूर की आड़ में अपने पारिवारिक अलगाव को छिपाना चाहती है. पति साथ में नहीं है और सिंदूर भी नहीं लगाएगी तो समाज सवाल उठाएगा. इस से उस के मतभेद बाहर आ जाएंगे और न चाहते हुए भी वह दोषी ठहराई जाएगी.

आज हम बेटी को बेटे की ही तरह उच्चशिक्षा दे रहे हैं. उसे किताबी ज्ञान तो हासिल हो जाता है लेकिन साथ ही उसे जन्म से ही लड़की होने का एहसास भी कराते हैं और यह एहसास उस के इस मन में जहर बन कर फैल जाता है, जिस से वह कभी बाहर नहीं आ पाती.

बेटी में कभी इतना साहस नहीं आता कि वह अपनी खुशियों के लिए समाज को ठोकर मार सके. उस की सोच में, उसे उसी समाज में रहना है और वह उसी समाज का हिस्सा है, तो समाज के खिलाफ वह कैसे जाए. गरीब अनपढ़ को तो समझ में आता है कि उस का समाज वैसा ही है, उस की मान्यताएं वैसी ही हैं. लेकिन उच्चशिक्षा हासिल करने के बाद भी अगर स्त्री समाज के डर से खुद को सुरक्षित रखने के लिए सिंदूर लगाती है, तो उस की शिक्षा का क्या महत्त्व रह जाता है?

अगर वह शिक्षित हो कर भी समाज की बेडि़यों को तोड़ने का साहस नहीं दिखाती तो फिर उस ने शिक्षित हो कर नारी के उत्थान में, समाज के विकास में, सामाजिक परिवर्तन में क्या योगदान दिया?

कभी पढ़ा था, एक स्त्री एक परिवार को शिक्षित करती है लेकिन यह तो पुराने जमाने की बात थी. यदि तब एक स्त्री एक परिवार को शिक्षित करती थी, तो आज की एक शिक्षित स्त्री को तो एक गांव, एक समुदाय या एक वर्ग को शिक्षित करना चाहिए. पर वह शिक्षित हो कर भी समाज का सामना करने से डरती है. पति के छोड़ जाने के बाद खुद को सुरक्षित रखने के लिए सिंदूर का सहारा लेती है.

एक समय था जब चाहे जितने भी मतभेद हो जाएं, विवाहविच्छेद नहीं होते थे जैसे भी हो औरत तड़प कर सताई जाने पर भी रिश्ते निभाती थी. आज की स्त्री शिक्षित है, आत्मनिर्भर है, इसलिए वह साहस करती है ऐसे बोझ बन चुके रिश्तों से छुटकारा पाने का. लेकिन थोड़ा और साहस क्यों नहीं जुटाती, क्यों नहीं वह गर्व से कहती कि वह एक शिक्षित, आत्मनिर्भर एकल महिला है, उसे अपने निर्णय पर कोई अफसोस नहीं. उसे भी अपनी जिंदगी, पुरुष की ही तरह, अपनी शर्तों पर बिताने का पूरा हक है. शिक्षा और तकनीक के युग में सिंदूर का बोझ न उठाएं,ल्कि अपनी जिंदगी को अपने अधिकारों के साथ जीएं

  • सरिता पंथी

जर्जर रेल और सपने बुलेट ट्रेन के, हो गए न आप भी हैरान

‘लोन लो और घी पियो’, यह कहावत केवल जनता के लिए नहीं है, सरकार के लिए भी है. जापान के सस्ते लोन के चक्कर में भारत अपनी प्राथमिकताओं को भूल कर बुलेट ट्रेन चलाने में लग गया है. नोटबंदी और जीएसटी जैसे फैसलों के प्रभाव को देखते हुए लगता है कि झूठी शान के चक्कर में केंद्र सरकार ने बुलेट ट्रेन चलाने का फैसला ले लिया है. जापान जैसा बिजनैस समझदारी रखने वाला देश अपना नुकसान क्यों करेगा?

बुलेट ट्रेन चलाने की जल्दी में केंद्र सरकार ने प्रोजैक्ट की डिटेल्ड प्रोजैक्ट रिपोर्ट यानी डीपीआर के आने का इंतजार तक नहीं किया. जल्दबाजीभरे ऐसे फैसले देश के भविष्य पर असर डाल सकते हैं. जापान में मैग्नेटिक लेविटेशन से चलने वाली हाईस्पीड ट्रेन का युग आने वाला है. जिस समय भारत में 250 किलोमीटर प्रतिघंटे की स्पीड से ट्रेन चलेगी उस समय जापान 600 किलोमीटर प्रतिघंटा की स्पीड से चलने वाली ट्रेन नई प्रणाली से चला रहा होगा, जिस में शोर काफी कम होगा.

जिस देश में रेल दुर्घटना में मरने वालों के बारे में उन का ऐसा भाग्य होना कहा व माना जाता हो वहां जर्जर रेल व्यवस्था की ओर किसी का ध्यान नहीं जाता है. रेल दुर्घटना का दर्द मुआवजा बंटने तक याद रहता है. इस के बाद नई दुर्घटना होने का इंतजार किया जाने लगता है.

देश में रेल की सब से अधिक जरूरत पैसेंजर रेलगाडि़यों की  है. और यह किसी सरकार के एजेंडे में नहीं होती. याद नहीं आता कि कभी किसी सरकार ने नई पैसेंजर ट्रेन शुरू की हो और उस का जोरशोर से प्रचार किया हो.  पैसेंजर ट्रेनों पर चलने वाले यात्रियों की ही तरह ऐक्सप्रैस ट्रेनों में लगने वाले जनरल कोच की तरफ रेलवे प्रशासन और सरकार का ध्यान नहीं जाता.

जनरल कोच यानी सामान्य डब्बे में यात्रा करना नरक का सफर करने जैसा होता है. जिन के पास पैसा अधिक है वे पूजापाठ के सहारे स्वर्ग का रास्ता पकड़ लेते हैं यानी सुविधाजनक डब्बों और ट्रेनों में सफर कर लेते हैं. जिन के पास गाय के दान जैसे उपाय करने की सामर्थ्य नहीं है वे नरक के सफर जैसे जनरल डब्बे में यात्रा करने को मजबूर होते हैं.

चढ़ावे की धार्मिक संस्कृति को बढ़ावा देने वालों की ही तरह सरकार भी ज्यादा पैसे ले कर सफर करने वालों के लिए सुविधा खोजती है. उन के लिए ही बुलेट टे्रन, शताब्दी ट्रेन और राजधानी ऐक्सप्रैस हैं. देश के बाकी यात्रीजर्जर रेल के हवाले हैं. पुजारी की तरह सरकार भी चढ़ावे के वजन को देख कर ही सुविधाओं का इंतजाम करती है.

मुफ्त में बुलेट ट्रेन

भारत और जापान के बीच हुए समझौते के बाद अब बुलेट ट्रेन की सवारी करने का सपना हर भारतीय देखने लगा है. सरकार 2022 में मुंबई से अहमदाबाद तक बुलेट ट्रेन चलाना शुरू कर देने का दावा व वादा कर रही है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शब्दों में, ‘‘बुलेट ट्रेन का यह सफर महंगा नहीं, बल्कि मुफ्त है.’’ यह एक तरह का लौलीपौप है. प्रधानमंत्री ने 2019 के लोकसभा चुनावों के प्रचार यह लौलीपौप दिया था. बुलेट ट्रेन की परियोजना पर 1 लाख करोड़ रुपए से अधिक खर्च होगा. इस का 80 फीसदी जापान देगा और 20 फीसदी खर्च भारत करेगा.indian politics

प्रधानमंत्री ने देश की जनता को बताया कि जापान ने भारत को मुफ्त में बैंकलोन दिया है. जापान ने भारत को 88 हजार करोड़ रुपया महज 0.1 प्रतिशत के ब्याज पर दिया है. इस को 50 वर्षों में चुकाना है. ऐसे में यह पूरी तरह से मुफ्त मिला है. प्रधानमंत्री ने यह भी कहा कि बुलेट ट्रेन से केवल अमीरों को लाभ मिलेगा, यह धारणा गलत है.

इस प्रोजैक्ट का लाभ पूरे देश के रेल नैटवर्क को होगा. बुलेट ट्रेन के चलने से गरीब जनता को क्या लाभ मिलेगा, यह सरकार बताने को तैयार नहीं है. वह यह नहीं कह रही कि बुलेट ट्रेन के सफर से होने वाले लाभ से पैसेंजर ट्रेनों की हालत सुधारी जाएगी. आज देश को बडे़ पैमाने पर इस की जरूरत है कि आम लोगों के सफर को सुविधाजनक व सुरक्षित बनाया जाए.

प्रधानमंत्री ने बुलेट ट्रेन के भावी सफर से देश को तरक्की का फिर से सुनहरा सपना दिखाने का प्रयास किया है. प्रधानमंत्री ने कहा कि बुलेट ट्रेन से देश की घटती आर्थिक विकास दर बढ़ेगी, हाईस्पीड रेल प्रोजैक्ट्स से विकास में तेजी आएगी. प्रधानमंत्री ने अमेरिका और जापान का उदाहरण देते हुए कहा कि अमेरिका में रेल आने और जापान में हाईस्पीड रेल आने से प्रगति का दौर शुरू हुआ. भारत में भी नैक्सट जैनरेशन ग्रोथ वहीं होगी जहां पर हाई स्पीड कौरिडोर होंगे. मुंबई से अहमदाबाद के बीच चलने वाली बुलेट ट्रेन से 500 किलोमीटर दूर बसे शहरों के लोग करीब आ जाएंगे. यह सफर 2 से 3 घंटे के बीच तय होगा. इस से लोगों का समय बचेगा, उन को सफर में कम खर्च करना होगा. इन शहरों के बीच का एरिया सिंगल इकोनौमिक जोन में बदल जाएगा. इस से हर तरह के बिजनैस को बढ़ावा भी मिलेगा.

प्रधानमंत्री ने भारतीय स्वतंत्रता की 75वीं वर्षगांठ के मौके पर 15 अगस्त, 2022 को बुलेट ट्रेन के सफर को शुरू करने का लक्ष्य रखा है. 2022 में बुलेट ट्रेन में सफर करने का सपना देख रहे लोगों को यह पता नहीं है कि इस प्रोजैक्ट की डीपीआर अभी बनी नहीं है. यह रिपोर्ट 2018 तक पूरी तरह तैयार करने की बात हो रही है. बुलेट ट्रेन चलाने के लिए पैसा और टैक्नोलौजी जापान देगा. 88 हजार करोड़ रुपए के कर्ज के बदले भारत को केवल 90 हजार 500 करोड़ रुपए ब्याज सहित चुकाने होंगे. यह कर्ज बुलेट ट्रेन चलने के 15 वर्षों के बाद देना शुरू करना होगा.

देश की पहली बुलेट ट्रेन मुंबई से अहमदाबाद के बीच की 508 किलोमीटर की दूरी केवल 2 घंटे में तय करेगी. इस लाइन पर 12 स्टेशन बनाए जाएंगे. रेलवे ट्रैक का 7 किलोमीटर हिस्सा समुद्र से हो कर जाएगा. बाकी रास्ता एलिवेटेड होगा. इस का खाका जापान इंटरनैशनल कौर्पाेरेशन ने बनाया है.

ट्रेन केवल 4 स्टेशनों पर रुकेगी.  मुंबई से अहमदाबाद के बीच दूसरे स्टेशन बांद्रा, कुर्ला कौंप्लैक्स, थाणे, विरार बोईसर, वापी बिलिमोरा, सूरत, भरूच, वड़ोदरा, आणंद, अहमदाबाद और साबरमती होंगे. मुंबई स्टेशन अंडरग्राउंड होगा. बाकी स्टेशन एलिवेटेड होंगे. यह पूरा रूट डबल लाइन का होगा. यह रूट महाराष्ट्र, गुजरात और दादरा नगर हवेली से हो कर गुजरेगा. महाराष्ट्र में 156 किलोमीटर, गुजरात में 351 किलोमीटर और दादरा नगर हवेली में 2 किलोमीटर होगा.

ट्रेन की अधिकतम स्पीड 350 किलोमीटर प्रतिघंटे होगी. ट्रेन सभी12 स्टेशनों पर रुकेगी तो 3 घंटे का समय लगेगा. अगर 4 स्टेशनों पर ट्रेन रुकेगी तो 2 घंटे का समय लगेगा. जापान भारत को टैक्नोलौजी ट्रांसफर करेगा. इस प्रोजैक्ट के तहत जरूरी सामान भारत में बनाने के लिए उद्योग को बढ़ावा दिया जाएगा.  इस के संचालन के लिए 4 कौर्पोरेशन बनाए जाएंगे. ये चारों ट्रैक, सिविल रोलिंग, स्टौक इलैक्ट्रिकल और सांइस ऐंड टैक्नोलौजी संभालेंगे. जापान बुलेट ट्रेन के संचालन में सब से भरोसेमंद देश है. जापानबुलेट ट्रेन चलाने की ट्रेनिंग भी देगा. बुलेट ट्रेन प्रोजैक्ट के लिए वड़ोदरा में हाईस्पीड रेल ट्रेनिंग इंस्टिट्यूट स्थापित किया जाएगा. इस में 4 हजार लोगों को ट्रेनिंग दी जाएगी. indian politics

मजबूत होगा राजनीतिक सफर

भारत में ट्रेन का प्रयोग सफर करने के अलावा राजनीति में भी होता है. यही वजह है कि ट्रेन की उपयोगिता से अधिक इस बात का ध्यान रखा जाता है कि इस से क्या राजनीतिक लाभ उठाया जा सकता है.

मैट्रो ट्रेन से ले कर बुलेट ट्रेन तक इस का जरिया बनती रहती हैं. नेता अपने राजनीतिक सफर को ट्रेन की लोकलुभावनी घोषणाओं से पूरा करना चाहते हैं.  सस्ता और मुफ्त का लौलीपौप दे कर नरेंद्र मोदी ने 2014 का लोकसभा चुनाव जीता था. महंगाई रोकने, रोजगार बढ़ाने और कालेधन से हर किसी के खाते में 15 लाख रुपया जमा होने जैसे वादे चुनाव के पहले नरेंद्र मोदी और उन की भाजपा ने किया था.

3 साल सरकार चलाने के दौरान जनता के किसी वादे पर केंद्र की मोदी सरकार खरी नहीं उतरी है. बड़े जोरशोर और वादों के साथ केंद्र सरकार ने नोटबंदी का फैसला लिया था. परेशान जनता से कहा गया कि 50 दिन कष्टकारी हैं, इस के बाद हर कष्ट कट जाएगा.

50 दिनों का कष्ट सहने के बाद भी सरकार यह बताने की हालत में नहीं है कि नोटबंदी का क्या लाभ हुआ? नोटबंदी के बाद अब जनता को यह पता चल रहा है कि देश की जीडीपी में 2 प्रतिशत की गिरावट आई है. नोटबंदी और बाद में उलझावभरे जीएसटी बिल ने कारोबार को बुरी तरह से प्रभावित किया है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अब मुफ्त बुलेट ट्रेन का सपना दिखा रहे है.

प्रधानमंत्री इस बात को समझ चुके हैं कि यह देश मुफ्त के नाम पर हमेशा झांसे में फंस जाता है. ऐसे में वे अब मुफ्त में बुलेट ट्रेन का सपना बेचने की कोशिश में है. इस के जरिए वे गुजरात के विधानसभा चुनाव और 2019 के लोकसभा चुनाव को ठीक करना चाहते हैं.

3 नहीं, 60 साल का चाहिए हिसाब  

मोदी सरकार अपने से पहली सरकार से उस के 60 साल का हिसाब मांग रही है पर अपने 3 साल का हिसाब देने को तैयार नहीं है. आमतौर पर सरकार जनता में गरीब और कमजोर वर्ग के लिए काम करती है. मोदी सरकार के बुलेट ट्रेन चलाने से गरीब जनता का क्या भला होगा, समझ नहीं आता.

यह बात ठीक  है कि जापान बुलेट ट्रेन चलाने के लिए सस्ती ब्याजदर पर लोन दे रहा है. भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे ने जब गुजरात प्रदेश के अहमदाबाद में देश की पहली बुलेट ट्रेन की आधारशिला रखी तो उस को ले कर पूरे देश में अलगअलग तरह के विचार सामने आने लगे.

आज के दौर में सब से ताकतवर सोशल मीडिया में भी इस को अलग तरह से देखा गया. एक मजाकिया मैसेज में कहा गया, ‘जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे को अभी तक नहीं पता कि उन का इस्तेमाल बुलेट ट्रेन के लिए नहीं, गुजरात चुनाव के लिए हो रहा है.’ इस मजाकिया मैसेज के भीतर भारतीय व्यवस्था का सच छिपा हुआ है. भारत में रेल को चुनावप्रचार का सब से बड़ा माध्यम माना जाता है. रेल मंत्री के इलाके के लिए सब से अधिक ट्रेन की सुविधा पहुंचाने का प्रयास होता रहा है. कुछ ट्रेनों को उन स्टेशनों पर रोकने के लिए बाद में आदेश हुए जहां के नेता या सांसद रेल मंत्रालय में पावरफुल होते थे. अंगरेजों ने भारत में रेलमार्ग की शुरुआत की थी, उन का मकसद अपनी प्रशासनिक व्यवस्था को मजबूत करना था. बाद में इस को जनता की सुविधाओं के हिसाब से आगे बढ़ाया गया. पैसेंजर ट्रेन की कल्पना इस की मिसाल है.

पुनर्जन्म का गणित

2014 के लोकसभा चुनावों में रेल की सुरक्षित यात्रा को ले कर बडे़बडे़ दावे किए गए. भारतीय जनता पार्टी ने अपने चुनावप्रचार में इस बात का वादा किया कि ट्रेन की सुरक्षित यात्रा उस का सब से बड़ा संकल्प है. ट्रेन की सुरक्षित यात्रा के लिए जरूरी पैसे के इंतजाम के लिए प्लेटफौर्म टिकट से ले कर यात्री टिकट, रेलभाड़ा तो बढ़ाया ही गया, कई ऐसे छिपे उपाय भी किए गए जिन का बोझ यात्री को उठाना पड़ा. जैसे, पहले प्लेटफौर्म टिकट का समय अधिक था और दाम कम था. केंद्र में भाजपा की सरकार बनने के बाद प्लेटफौर्म टिकट के दाम बढे़ और समय घट गया.

वेटिंग टिकट को ले कर भी ऐसे बदलाव किए गए जिन का बोझ यात्रियों की जेब पर पड़ा. रेलवे अपने सुरक्षा फंड को बढ़ाने के लिए कई तरह के प्रयोग कर रहा है. इस के बाद भी रेल दुर्घटनाओं में कमी नहीं हो पा रही है. सालदरसाल रेल दुर्घटनाओं में इजाफा होता जा रहा है. रेलवे में होने वाली दुर्घटनाओं में विभाग की लापरवाही के साथ सरकारी योजना की नाकामी साफ दिखने लगी है.

रेल दुर्घटनाओं पर कुछ दिनों तक बहुत सारा गुस्सा और क्षोभ व्यक्त होता है. मुआवजे का बंटवारा होतेहोते इस बात को लोग भूल जाते हैं. यात्री की मौत को उस के कर्मों का फल मान कर लोग चुप हो जाते हैं. मरने वाले की तथाकथित आत्मा की शांति के लिए तरहतरह के आयोजन किए जाते हैं. मरने के बाद स्वर्ग में जगह मिले, वहां कोई कष्ट न हो और पुनर्जन्म अच्छा हो, इस के लिए पिंडदान, तेरहवीं जैसे आयोजन हो जाते हैं. यात्री और बाकी लोग मरने वाले की तेरहवीं तक भी घटना को याद नहीं रखते हैं. सरकार को यह पता है कि देश में मरने वाले को दुघर्टना से नहीं, पूर्वजन्म के किए गए पापों से जोड़ा जाता है. यही वजह है कि रेलवे दुर्घटना में रेल विभाग और सरकार की जिम्मेदारी तय नहीं होती. मरने वाले के भाग्य में ही मरना लिखा था, ऐसा मान लिया जाता है.

जर्जर रेल व्यवस्था

यातायात की व्यवस्था में भारतीय ट्रेन का दुनिया में सब से बड़ा स्थान है. भारत दुनिया का ऐसा सब से बड़ा देश है जहां का प्राकृतिक  और आर्थिक दोनों की तरह के हालात ट्रेन व्यवस्था के लिए सब से अधिक अनुकूल हैं. यही वजह है कि भारत ट्रेन यातायात और परिवहन दोनों के लिए सब से अधिक सुविधाजनक है. यहां अलगअलग जरूरतों के हिसाब से ट्रेनों को तैयार किया गया था. इन को पैसेंजर ट्रेन, ऐक्सप्रैस ट्रेन और मालगाडि़यों की श्रेणी में रखा जाता है. आज के दौर में ट्रेनों को पैसेंजर की जरूरत के हिसाब से नहीं, बल्कि राजनीतिक जरूरत के हिसाब से चलाया जाता है. जिस नेता के जिम्मे ट्रेन मंत्रालय होता है, उस के चुनाव क्षेत्र के लिए अलग जरूरत बन जाती है.

आज भारत में ट्रेन का विशाल नैटवर्क है. करीब 1 लाख 15 हजार किलोमीटर लंबे रेलमार्ग पर साढे़ 7 हजार से अधिक रेलवेस्टेशन बने हुए हैं. अलगअलग जरूरतों और हालात के हिसाब से रेलमार्ग की चौड़ाई अलगअलग है.  भारत में 3 तरह के गेज वाली पटरियां हैं. इन में चौड़ी गेज यानी बड़ी लाइन, मीटर गेज यानी छोटी लाइन और पतली गेज बहुत छोटी संकरी जगहों के लिए बनी हैं, जिस में पहाड़ी इलाके आते हैं. अब रेलवे अपनी ट्रेन संचालन व्यवस्था को सही करने के लिए एकजैसी गेज की लाइनें तैयार करने के काम में लगा है. अभी चालू पटरियों के आधे हिस्से को ही विद्युतीकरण में बदला जा सका है. हाल के कुछ वर्षों में केवल वाहवाही के नाम पर रेल को ले कर लोकलुभावनी घोषणाएं की गई हैं. रेल के क्षेत्र में जरूरत के हिसाब से काम नहीं किए जा रहे.

उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले के खतौली स्टेशन पर उत्कल ऐक्सप्रैस ट्रेन पटरी से उतर गई. घटना का जो कारण सामने आया उस से पता चला कि उस जगह की पटरी टूटी हुई थी. टूटी हुई पटरी को सही करने के लिए लोहे को काट कर रख दिया गया था पर उस को वैल्ंिडग मशीन से जोड़ा नहीं गया था. उत्कल ऐक्सप्रैस हादसे के साथ 5 वर्षों में करीब 586 रेल हादसे हो चुके हैं. इन में से आधे हादसे ट्रेन के पटरी से उतरने के चलते हुए. नवंबर 2014 से अगस्त 2017 तक 20 रेल हादसे हुए हैं.

सुधार की पहल नहीं

रेल हादसों के बाद रेलवे अपनी कमी को परखने और उस को सुधारने का दावा करता है. इस के लिए समिति का गठन किया जाता है. 2012 में रेल मंत्रालय ने भारतीय रेल के सुरक्षा मानकों की जांच और सुधार का सुझाव देने के लिए अनिल काकोदकर समिति का गठन किया.

समिति ने रेल सुरक्षा प्राधिकरण के निर्माण सहित 106 सुझाव दिए. इन में से 68 सुझाव रेल मंत्रालय ने माने और 19 सुझाव पूरी तरह से खारिज कर दिए. रेलवे ने सुझाव मान तो लिए पर उन पर अमल नहीं किया. समिति ने कहा था कि 2017 तक सभी लैवल क्रौसिंग को खत्म किया जाए. इस पर 50 हजार करोड़ रुपए के खर्च का अनुमान था. 20 हजार करोड़ रुपए सुरक्षा संबंधी इन्फ्रास्ट्रक्चर पर खर्च करने का सुझाव दिया गया था.

समिति ने अपनी टैक्निकल जांच में यह पाया था कि अगर रेल का सिग्नल सिस्टम एडवांस हो जाए तो बहुत सारी दुर्घटनाओं को रोका जा सकता है. इस के लिए 20 हजार करोड़ रुपए के खर्च का अनुमान लगाया गया था.  यह सिस्टम

19 हजार किलोमीटर लंबे ट्रैक पर लगना था. 10 हजार करोड़ रुपए सफर के लिए तैयार किए जाने वाले सुरक्षित एलएचबी कोच को तैयार करने पर लगाने की सिफारिश की गई थी. ज्यादातर ट्रेनों में अभी भी पुरानी तरह से बने कोच ही लगाए जाते हैं. उत्कल ऐक्सप्रैस में पुरानी तरह से बने आईसीएफ डब्बे लगे थे. इस में बोगी के ऊपर डब्बा रखा होता है. ऐसे में जब ट्रेन पटरी से उतरती है तो ये डब्बे बोगी से पूरी तरह से अलग हो जाते हैं. इन में डब्बे के पहियों समेत निचला हिस्सा अलग हो जाता है. इस से डब्बे के पलटने का खतरा रहता है. अनिल काकोदकर समिति ने इन डब्बों को बदलने का सुझाव दिया था.

सुरक्षा का ध्यान नहीं

रेलवे के पास सुरक्षा उपकरणों की भारी कमी है. रेल पटरियों के आसपास अवैध कब्जे हैं, जिन से भी पटरियों की सुरक्षा को बड़ा खतरा होता है. सामान्यतौर पर पटरियों को काटने की तमाम घटनाएं होती रहती हैं. इन की वजह से ट्रेन के पटरी से उतरने का खतरा बढ़ जाता है. इस से जानमाल का भारी नुकसान होता है. रेलवे में पटरी की खराबी का पता चलने या सिग्नल के फेल होने की सूचना ट्रेन के ड्राइवर तक देना बहुत मुश्किल काम होता है.

ऐसे में अगर रेलवे को अत्याधुनिक बनाया जाए तो हादसे कम हो सकते हैं. कई बार एक ही लाइन पर 2 ट्रेनों के आ जाने से भी बडे़ हादसे हो जाते हैं. अगर रेलवे के ट्रेन सिस्टम को ठीककर लिया जाए तो दुर्घटनाएं कम हो सकती हैं.

रेलवे पुलों को ठीक करना, लैवल क्रौसिंग को पूरी तरह से खत्म करना और ट्रेन प्रोटैक्शन स्टाफ को बेहतर ट्रेनिंग देना भी बहुत जरूरी हो गया है. 20 नवंबर, 2016 को इंदौर-पटना ऐक्सप्रैस कानपुर के पास पटरी से उतर गई थी. यह सब से भीषण ट्रेन दुर्घटना थी. इस में 150 से अधिक लोग मारे गए और इतने ही लोग घायल हुए थे.

दुर्घटना का कारण रेल की पटरी में दरार का होना था. अगर इस तरह की कमी का पता समय से चल जाए तो हादसे रोके जा सकते हैं. परेशानी की बात यह है कि ट्रेन के हादसों के बाद कुछ रेलवे अफसरों और कर्मचारियों को सजा के तौर पर इधर से उधर कर दिया जाता है. कुछ दिनों के बाद हादसों को भूल कर लापरवाही भरा काम शुरू हो जाता है. अगर कानपुर के हादसे से सबक लिया गया होता तो उत्कल ऐक्सप्रैस ट्रेन का हादसा नहीं होता. दोनों ही मामलों में रेल की पटरी की खराबी के कारण हादसे हुए थे. ऐसे में जरूरत इस बात की है कि सुरक्षा का पूरा ध्यान रखा जाए.

सही किया जाए बुनियादी ढांचा

रेलवे के जानकारों का कहना है कि हर तरह के सुधार के लिए जरूरी है कि रेलवे का बुनियादी ढांचा सही किया जाए. ट्रेन के पटरी से उतरने के कई कारण होते हैं. कई बार पटरी पर सामने की ओर से कोई अवरोध होने से ट्रेन पटरी से उतर जाती है. कई बार ऐसा होता है कि कोई मवेशी या बड़ा जानवर पटरी पर आ जाता है जिस के कारण ट्रेन पटरी से उतर जाती है. इंजन का कोई हिस्सा या पार्ट अगर गिर जाए और उस पर ट्रेन चढ़ जाए तो इस हालत में भी ट्रेन पटरी से उतर जाती है.

सब से अधिक बार पटरी के टूटे होने से ट्रेन पटरी से उतरती है. कई बार यह होता है कि इंजन के निकल जाने के बाद पटरी के बीच का गैप बढ़ जाता है तब उस के पीछे के डब्बे पटरी से उतर जाते हैं. कई इलाकों में शरारती तत्त्वों द्वारा पटरी की तोड़फोड़ की जाती है और समय रहते स्टेशन को इस की सूचना नहीं मिलती, जिस के कारण भी ट्रेन पटरी से उतर जाती है.

रेलवे विभाग के जानकार लोगों का कहना है कि बुलेट टे्रन के लिए पटरी बिछाने का काम बेहद खर्चीला है. ऐसे में अगर पहले से चल रही पटरियों को ठीक किया जाता तो जनता को ज्यादा राहत मिलती. बुलेट ट्रेन से कुछ लोगों को ही सुविधा मिल सकती है. अगर पहले से चल रही ट्रेनों की स्पीड को बढ़ाया जाता, ट्रेनों में होने वाली दुर्घटनाओं को रोका जाता और नई पटरियों को बनाया जाता तो यह जनता के लिए ज्यादा फायदेमंद होता और जो जरूरी भी है. हमारे देश में रेल से सफर करने वालों के लिए ट्रेन से सस्ता और सुलभ कोई दूसरा रास्ता नहीं है. बस के मुकाबले ट्रेन का सफर कहीं अधिक सस्ता पड़ता है. जरूरत इस बात की है कि ट्रेन की स्पीड बढ़ा दी जाए और समय पर रेलगाडि़यां चलने लगें.

अभी भारत में जो रेल पटरियां हैं उन की सुरक्षा पर रेलवे पूरी तरह से सफल नहीं है. भारतीय रेलवे के पास बुनियादी ढांचे को सही करने के लिए फंड हो, इस का प्रयास हो. रेलवे के पास सुविधा न होने के कारण माल की ढुलाई के लिए लोग दूसरे साधनों पर निर्भर होने लगे हैं जिस से रेल को नुकसान हो रहा है. इसी तरह से रेल के समय पर न चलने से लोग हवाईयात्रा को अधिक उपयोगी समझने लगे हैं. सुविधाजनक बससेवा ने भी रेल के लाभ को कम कर दिया है. रेल के सफर को सुविधाजनक मानने के बाद भी लोग आज दूसरे साधनों की ओर रुख करने लगे हैं.

बुलेट ट्रेन बनाम हाईस्पीड ट्रेन

बुलेट ट्रेन कई देशों में सफेद हाथी बन चुकी है. भारत में बुलेट ट्रेन एक सफल प्रयास होगा, इस में कई तरह के संशय हैं. जापान ने भारत को जो लोन दिया है वह देखने में अभी सस्ता लग रहा है पर इस में कई ऐसे पेंच होंगे जिन का लाभ भारत से अधिक जापान को होगा. एक बड़ी योजना के चक्कर में भारत बडे़ लोन के जाल में फंस रहा है. जापान बहुत चतुर देश है. वह अपने नुकसान का कोई काम नहीं करेगा. यह साफ है कि भारत कम ब्याज के चक्कर में बड़ी महत्त्वाकांक्षी योजना के जाल में उलझ गया है. यह लोन इतना सरल नहीं है जितना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मान रहे हैं. रेल के जानकार लोगों का मानना है कि भारत में राजधानी ऐक्सप्रैस 130 किलोमीटर प्रतिघंटा की स्पीड से चलती है. इस को सुधार कर के अगर 200 किलोमीटर प्रतिघंटा की रफ्तार तक ले जाएं तो बुलेट ट्रेन की जरूरत खत्म हो जाएगी. साथ ही, रेल का ज्यादा विकास हो सकेगा.

भारत के बड़े शहरों के बीच हवाई सफर का रास्ता पहले से खुला हुआ है. इस को और सुगम बनाया जा सकता है. मुंबई और अहमदाबाद के बीच हवाईयात्रा का विकल्प पहले से खुला है. जिस से 70 मिनट में इस सफर को तय किया जा सकता है. बुलेट ट्रेन के टिकट और हवाई जहाज के टिकट में कोई खास अंतर नहीं होगा.

जानकार लोगों का कहना है कि जापान ने अपनी कंपनी के सर्वे और अनुमान के आधार पर भारत के सामने ऐसे आंकडे़ रखे हैं जिन से भारत को बुलेट ट्रेन, विकास का मार्ग लगने लगी है. जापान ने भारत के रेल विभाग के कुछ अधिकारियों को अपने आंकड़ों के शीशे में उतार लिया है. ये अफसर बुलेट ट्रेन की योजना को देश के लिए एक अवसर मानने लगे हैं. ऐसे अफसर कहते हैं कि अगर इस योजना पर अभी काम नहीं किया गया तो देश तरक्की की राह में पीछे रह जाएगा. ऐसे अफसर तर्क देते हैं कि अगर हाईस्पीड ट्रैक सही तरह से काम करने लगे तो हमारे देश कीतरक्की के लिए संसाधन खुद जुटने लगेंगे.

सब से आगे जापान

बुलेट ट्रेन के संचालन में जापान सब से आगे है. जिस समय भारत 200 किलोमीटर या इस के आसपास की स्पीड वाली बुलेट ट्रेन का सफर शुरू कर रहा होगा उस समय जापान 600 किलोमीटर प्रतिघंटा की स्पीड से चलने वाली ट्रेन शुरू कर रहा होगा. जापान में इस का ट्रायल 15 अप्रैल, 2015 को हो गया है. 2027 तक इस को चलाने की योजना है. यह आधुनिक चुंबकीय प्रणाली मैग्नेटिक लेविटेशन से चलेगी. इस में बिजली से चार्ज किए गए चुंबक ट्रेन को पटरी से 4 इंच ऊपर रखेंगे. इस से शोर कम और स्पीड अधिक मिलती है. बुलेट ट्रेन के संचालन में जापान के बाद चीन का नंबर आता है. चीन में विश्व की सब से तेज स्पीड से चलने वाली ट्रेन है. यह 431 किलोमीटर प्रतिघंटा की स्पीड से चलती है. चीन में 22 हजार किलोमीटर लंबा रूट इस के लिए बना है. इटली और स्पेन दूसरे प्रमुख देश हैं जहां पर हाईस्पीड ट्रेनें चलती हैं.

मध्य प्रदेश : सरकारी स्कूलों से हुआ बच्चों का मोह भंग

मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर जिले के एक गांव के सरकारी स्कूल की तसवीर कुछ ऐसी है जिस में न तो स्कूल की घंटी बजती है और न ही बच्चों की चहलपहल सुनाई देती है. स्कूल भवन में ताला लटका रहता है. दरअसल, स्कूलों में बदलती नीतियों, सरकारी प्रयोगों और शिक्षकों से कराई जा रही बेगारी की वजहों से सरकारी स्कूलों में बच्चों का नामांकन शून्य हो गया है.

ग्राम पंचायत धौखेड़ा के तिघरा टोला का प्राथमिक स्कूल 1997 में खोला गया था. तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने प्रत्येक किलोमीटर के दायरे में शिक्षा प्रदान करने के लिए शिक्षा गारंटी कानून बनाया था. उस के तहत, गांव के कजरे टोले, जिन में 40 से अधिक बच्चे स्कूल जाने योग्य हैं, में स्कूल खोल कर बच्चों को शिक्षा की सुविधा मुहैया करवाई गई थी. 60 बच्चों के साथ प्रारंभ हुए इस स्कूल में 2 शिक्षकों की नियुक्ति पढ़ाने के लिए की गई.

20 सालों में प्रदेश के शिक्षा विभाग द्वारा औपरेशन ब्लैकबोर्ड, समाख्या, हमारी शाला कैसी हो, शालासिद्घि जैसी दर्जनों योजनाएं ला कर स्कूलों को प्रयोगशाला बनाया गया और शिक्षकों से जनगणना, चुनाव, सर्वे के साथ मध्याह्न भोजन, स्कौलरशिप, साइकिल, गणवेश वितरण जैसी विभिन्न योजनाओं के क्रियान्वयन की बेगारी करवाई गई. नतीजतन, आज यह सरकारी स्कूल बच्चों को चिढ़ाता नजर आता है. प्रदेश में तिघरा टोला का यह स्कूल अकेला नहीं है, बल्कि रिछावर का नागल टोला, बम्हौरी के माटिया टोला और जमधान टोला जैसे कई स्कूल हैं जो नामांकन में कमी की वजह से बंद होने के कगार पर हैं.

शिक्षकों से बेगारी

शिक्षकों से दूसरे काम कराए जाने का एक ताजा मामला प्रदेश के सिंगरोली जिले में प्रकाश में आया है. सरकार द्वारा कराए जा रहे सामूहिक विवाह के आयोजन में बाकायदा कलैक्टर के निर्देश पर जिला शिक्षा अधिकारी ने 28 शिक्षकों की ड्यूटी पूरी, दाल, सब्जी परोसने में लगा दी. शिक्षा के अधिकार अधिनियम के तहत राष्ट्रीय महत्त्व के कार्य, जैसे चुनाव और जनगणना को छोड़ कर, शिक्षकों की सेवाएं गैरशिक्षकीय कार्यों में नहीं ली जा सकतीं.

प्राथमिक शिक्षा के गिरते स्तर के लिए कुछ हद तक हमारा समाज भी जिम्मेदार है. आज समाज में अभिभावक मौजूदा दौर को देखते हुए बच्चों को अंगरेजी माध्यम या फिर मिशनरी स्कूल में पढ़ाना चाहते हैं. पर आर्थिक हालत के चलते कुछ अभिभावकों को उन्हें सरकारी प्राथमिक स्कूलों में पढ़ाना पड़ता है.

शिक्षा के बाजारीकरण ने, राजनीति की तरह शिक्षा को भी 2 धड़ों में बांट दिया है. एक वो जो अंगरेजी के तानेबाने से भरे प्राइवेट स्कूलों के भारीभरकम बस्तों पर खत्म होती है, दूसरी, शिक्षकों, सरकारी तंत्र की नीतियों के दबाव में और निकम्मे आलसी शिक्षकों की वजह से कराह रही है. गांव के सरकारी प्राथमिक स्कूलों की शिक्षा प्राइवेट स्कूलों के सामने कहीं नहीं टिकती. बच्चों के लिए दोवक्त की रोटी की व्यवस्था में लगे अभिभावक सरकारी प्राथमिक विद्यालयों, सरकार और सरकारी नीतियों के बीच पिस रहे हैं.

मध्य प्रदेश में कुल 1 लाख 23 हजार 51 सरकारी स्कूल हैं, जिन में से 83,969 प्राथमिक, 30,460 माध्यमिक, 4,768 हाई स्कूल एवं 3,854 हायर सैकंडरी स्कूल हैं. सरकार के शिक्षा विभाग के

पोर्टल के अनुसार, वर्ष 2011-12 में जहां प्राथमिक स्कूलों में कक्षा 1 से 5 तक 66 लाख 94 हजार 402 विद्यार्थी पढ़ रहे थे, 5 वर्षों बाद 2016-17 में यही आंकड़ा 43 लाख 44 हजार 410 रह गया है. जाहिर है इन 5 सालों में केवल प्राथमिक स्कूलों में 23 लाख विद्यार्थी सरकारी स्कूलों की बदहाली के कारण अपना रुख निजी स्कूलों की ओर कर चुके हैं.

क्या कहते हैं आंकड़े

आंकड़ों पर नजर डालने से प्रतीत होता है कि नामांकन में इसी दर से कमी आती गई तो आने वाले 5 वर्षों में प्राथमिक स्कूलों का बंद होना तय है. दरअसल, सरकार भी अब प्राथमिक शिक्षा से अपने हाथ खींचने का मन बना चुकी है. यही कारण है कि पिछले 5 सालों से न तो शिक्षकों की भरती की गई और न ही भविष्य में की जाने की उम्मीद दिखाई देती है. सरकारी स्कूलों की दुर्दशा के लिए केवल सरकारी तंत्र ही जिम्मेदार हो, ऐसा नहीं है. काफी हद तक शिक्षकों की लापरवाही भी इस का प्रमुख कारण है. वैसे भी, इन स्कूलों में दलितों व अतिपिछड़ों के बच्चे आते हैं जिन्हें पढ़ाने में ऊंची जातियों के शिक्षकों की कोई रुचि है ही नहीं.

शिक्षा का अधिकार फोरम ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि देश में 98,443 सरकारी प्राथमिक विद्यालय सिर्फ एक शिक्षक की बदौलत चल रहे हैं. अर्थात देश के करीब 12 फीसदी प्राथमिक स्कूलों में कक्षा 1 से 5वीं तक छात्रों की पढ़ाई की पूरी जिम्मेदारी सिर्फ एक शिक्षक पर ही निर्भर है. अब इन आंकड़ों से जाहिर है कि ये शिक्षक विद्यालयों में अलगअलग कक्षा के छात्रों को शिक्षा देने के नाम पर खानापूर्ति करते होंगे. जिस भी दिन शिक्षक की अनुपस्थिति होती होगी उस दिन वह विद्यालय बंद होता होगा.

देश में इस समय लगभग साढ़े 13 लाख प्राथमिक विद्यालय हैं. परंतु इन में 41 लाख शिक्षकों के पद रिक्त पड़े हैं और जो शिक्षक हैं उन में से लगभग साढ़े 8 लाख शिक्षक अप्रशिक्षित हैं. ऐनुअल स्टेट्स औफ एजुकेशन रिपोर्ट 2014 के अनुसार भी भारत में निजी स्कूलों में जाने वाले बच्चों का प्रतिशत 51 फीसदी हो गया है. वर्ष 2010 में यह दर 39 फीसदी थी. रिपोर्ट के अनुसार, भारत में कक्षा 8वीं के 25 फीसदी बच्चे दूसरी कक्षा का पाठ भी नहीं पढ़ सक हैं.

आज शिक्षा अपने समूचे स्वरूप में अराजकताएं, अव्यवस्थाएं, अनैतिकता और कल्पनाहीनता का पर्याय बन गई है. शिक्षा के जरिए अब न उत्पादकता का पाठ पढ़ाया जा रहा है, न तार्किक शिक्षा व समझदारी का, न दायित्व एवं कर्तव्यबोध और न ही अधिकारों के प्रति चेतना का. आज पोंगापंथी का पाठ सरकारी स्कूलों में पढ़ाया जा रहा है. शिक्षा के गिरते स्तर पर लंबीलंबी बहसें होती हैं. और अंत में उस के लिए जो शिक्षक दोषी है उसे बख्श दिया जाता है. शिक्षक के लिए शिक्षा उत्पादन है पर उस का खरीदार वह छात्र है जो पैसा नहीं दे रहा.

शिक्षा की गुणवत्ता

स्कूलों में शिक्षक पढ़ाते नहीं हैं. शिक्षक वक्त पर पहुंचते नहीं हैं. शिक्षक वैसा शिक्षण नहीं करते जो गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की श्रेणी में आता है. आएदिन किसी मुद्दे को ले कर हड़ताल पर चले जाना और स्कूलों की छुट्टी हो जाना आम हो गया है. बच्चे शिक्षा पाने के लिए विद्यालय जाते हैं लेकिन वहां शिक्षक ही नदारद रहते हैं. ऐसे में शिक्षा की गुणवत्ता कहां से आएगी?

शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने की बात अकसर सुनने में आती है. किंतु सुधार कहीं नजर नहीं आता. अभी कुछ दिनों से शिक्षा विभाग में बच्चों की शैक्षिक गुणवत्ता में सुधार को ले कर मध्य प्रदेश में स्कूल स्तर से ले कर राज्य स्तर तक के अधिकारियों व कर्मचारियों द्वारा एक नाटक खेला जा रहा है. जिस में बच्चों की शैक्षिक गुणवत्ता की जांच की जा रही है. टैस्ट लेने के लिए जिले, विकास खंड, संभाग और राज्य स्तर तक के शिक्षा विभाग से जुड़े अधिकारी स्कूलों में जा रहे हैं और निरीक्षण कर रहे हैं.

अधिकारीगण शिक्षकों को फटकारनुमा समझाइश देते हैं कि वे गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लक्ष्य को हासिल करें. यह कैसी विडंबना है कि स्कूलों में शिक्षक पर गुणवत्तापूर्ण शिक्षा स्थापित करने का भारी दबाव तो है मगर उन्हें गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लिए तैयार ही नहीं किया गया. सरकार की गलत शिक्षा नीतियों के दुष्परिणाम आज सामने आ रहे हैं.

होना क्या चाहिए, हो क्या रहा है

मध्य प्रदेश के 83 हजार 969 सरकारी प्राथमिक स्कूल शैक्षणिक गुणवत्ता में कमी, शिक्षकों के रिक्त पदों पर पदपूर्ति न होने एवं बुनियादी आवश्यकताओं के अभाव और शिक्षकों की लापरवाही, अनुशासनहीनता व बेईमानियों के चलते दम तोड़ते नजर आ रहे हैं. वातानुकूलित कक्षों में बैठे अफसर व अल्पज्ञानी मंत्री सरकारी स्कूलों में नित नए ऊटपटांग प्रयोग कर शिक्षा को रसातल की ओर ले जा रहे हैं. जिला स्तर पर होने वाली समीक्षा बैठकों में भी शिक्षा की गुणवत्ता के बजाय गैर शिक्षा योजनाओं की समीक्षा का कार्य ही होता है. इन्हीं सब कारणों से प्रदेश के प्राथमिक स्कूलों के नामांकन में भारी गिरावट दर्ज की गई है.

लड़कियां क्यों छोड़ रही हैं स्कूल

देश की आजादी के 70 साल बीत जाने के बाद भी मध्य प्रदेश की गोटेगांव तहसील मुख्यालय से महज 10 किलोमीटर दूर कोडिया गांव के लिए पक्की सड़क बनवाने में जनप्रतिनिधि नाकाम रहे तो उन्हें आईना दिखाते हुए प्रदेश की मैरिट में आने वाली छात्रा विनीता का जब क्षेत्र के विधायक जालम सिंह पटेल ने सम्मान करना चाहा तो उस ने यह कह कर सम्मान को ठुकरा दिया, ‘‘भले आप मेरा सम्मान न करो पर मेरे गांव की पक्की सड़क बनवा दो…गांव से स्कूल जाने में बहुत परेशानियां होती हैं. कई छात्राएं सड़क न होने की वजह से पढ़ नहीं पातीं. बीमार अस्पताल आतेआते दम तोड़ देता है. बारिश में न खेत नजर आता है न सड़क.’’

छात्रा के जवाब से पानीपानी हुए विधायक जालम सिंह ने छात्रा के हौसले की सराहना करते हुए उसे भरोसा दिलाया कि वे जल्द ही मुख्यमंत्री से मिल कर उन्हें गांव की सड़क के लिए प्रस्ताव देंगे ताकि ग्राम कोडिया के निवासियों को पक्की सड़क हासिल हो सके.

यह कहानी विकास की डींगे मारने वाले प्रदेश के मंत्री, विधायकों के मुंह पर करारा तमाचा तो है ही, साथ ही, सरकार की लड़कियों की शिक्षा के लिए किए जा रहे तमाम खोखले प्रयासों की पोल भी खोलती है. प्रदेश की सरकार गांवों के सरकारी स्कूलों में कक्षा 6वीं व 9वीं में प्रवेश लेने वाली हर छात्रा को निशुल्क पाठ्यपुस्तक, साइकिल, स्कौलरशिप देती है. बावजूद इस के, 12वीं कक्षा के बाद 50 फीसदी लड़कियां पढ़ाई छोड़ देती हैं.

लड़कियों के पढ़ाई बीच में छोड़ने के और भी कई कारण हैं. आज भी ग्रामीण इलाकों में 16 साल के बाद लड़कियों की शादी कर दी जाती है. महिला बाल विकास विभाग नाम का सफेदहाथी चुपचाप बाल विवाह को मूक सहमति दे, अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेता है.

आज भी प्रदेश के 60 प्रतिशत ग्रामों में हाईस्कूल की सुविधा नहीं है. कक्षा 8वीं पास करने के बाद उन्हें 5 से 10 मिलोमीटर का सफर तय कर हाईस्कूल में दाखिला लेना पड़ता है जो सुरक्षा के लिहाज से हर अभिभावक को सुविधाजनक नहीं लगता.

स्कूलों में लड़कियों के लिए पृथक शौचालय, सैनीटरिंग का अभाव होने के साथ पृथक कन्या हाईस्कूल न होना भी लड़कियों की शिक्षा में बाधक हैं.

बालिका शिक्षा के क्षेत्र में किए जा रहे अनेक प्रयत्नों के बावजूद प्रदेश लगातार पिछड़ता जा रहा है. स्टेटस औफ एजुकेशन की 11वीं सालाना रिपोर्ट में बताया गया है कि 29.8 प्रतिशत लड़कियां अभी भी स्कूल नहीं जा रही हैं. यह आंकड़ा राजस्थान, गुजरात, ओडिशा व छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों के बाद समाविष्ट होता है यानी मध्य प्रदेश इन राज्यों से भी पीछे है.

नए खुलने वाले हाईस्कूल भी बेतरतीब तरीके से खोले गए हैं. जहां ज्यादा आवश्यकता है वहां न खोल कर खानापूर्ति कर ली गई है. अनेक स्कूलों के पास अपना भवन ही नहीं है. वे या तो प्राइमरी, माध्यमिक के भवनों में संचालित हो रहे हैं या पंचायत के भवनों में. पर्याप्त जगह न होने से भी शिक्षणकार्य प्रभावित हो रहा है.

बालिका शिक्षा को बेहतर बनाने की दिशा में किए जा रहे प्रयास ज्यादा कारगर साबित नहीं हो रहे हैं. सरकार को चीजें मुफ्त में देने के बजाय गुणवत्तापूर्ण शिक्षा पर जोर देना चाहिए. प्राइवेट स्कूलों में लड़कियां बहुतायत में पढ़ती हैं क्योंकि वहां भले ही फीस अधिक लगती हो पर शिक्षा गुणवत्तापूर्ण मिलती है. निजी स्कूलों में लड़कियों के लिए प्रसाधनगृह के अलावा तमाम वे सुविधाएं उपलब्ध हैं जो उन्हें स्कूल में आवश्यक होती हैं. अभिभावक भी बेटियों को ऐसे स्कूलों में भेजने में संकोच नहीं करते. सो, सरकार द्वारा शिक्षा में किए जा रहे प्रयोगों को बंद कर बेहतर शिक्षा की दिशा में कदम बढ़ाना चाहिए.

वर्णव्यवस्था की शिकार साफसफाई, क्या है इसका उपाय

6 अगस्त, 2017, दिल्ली के लाजपत नगर में गटर की सफाई कर रहे 3 मजदूरों की जहरीली गैस के रिसाव के चलते मौत हो गई. यह पहली घटना नहीं है. इस से पहले दक्षिणी दिल्ली के घिटोरनी इलाके में सैप्टिक टैंक में मजदूरी करने उतरे 4 लोग भी मौत के मुंह में समा चुके हैं. इसी तरह 3 मई, 2017 को पटना, बिहार में सफाई करने के दौरान गटर में गिरने से 2 सफाईकर्मियों की मौत हो गई.

स्वच्छ भारत अभियान के तहत नेता व अफसर हाथों में झाड़ू ले कर फोटो खिंचवा लेते हैं और इश्तिहारी ढोल बजा कर मीडिया में गाल भी बजा लेते हैं. लेकिन सचाई यह है कि साफसफाई के मामले में हम आज भी अमीर मुल्कों से कोसों पीछे हैं. सही व्यवस्था नहीं होने के कारण 1 सितंबर को दिल्ली के गाजीपुर में कचरे का पहाड़ का एक हिस्सा धंस जाने से 2 लोगों की मौत हो गई. ज्यादातर गांवों, कसबों व शहरों में आज भी गंदगी के ढेर दिखाई देते हैं.

वर्णव्यवस्था का जाल

हमारी धार्मिक, सामाजिक व्यवस्था ने हमें अपनी गंदगी, कूड़ाकरकट स्वयं साफ करने की सीख नहीं दी. हमें सिखाया गया है कि आप अपनी गंदगी वहीं छोड़ दें या बाहर फेंक दें. कोई दूसरा वर्ग है जो इसे उठाएगा. गंदगी उठाने वाले वर्ग को यह कार्य उस के पूर्वजन्म के कर्मों का फल बताया गया. गंदगी को उस की नियति करार दिया गया. इसलिए निचले वर्गों को बदबूदार गंदगी के ढेर में रहने की आदत है.

वर्णव्यवस्था में शूद्रों यानी पिछड़ों का काम ऊपर के 3 वर्णों की सेवा करना, उन का बचा हुआ भोजन खाना और उतरा हुआ कपड़ा पहनना बताया गया. इस व्यवस्था की वजह से यह वर्ग भी गंदगी को त्याग नहीं पाया. वहीं इन चारों वर्णों से बाहर का एक पांचवां वर्ण था दलित. उसे गांव, शहर से बाहर रहने का आदेश दिया गया. उसी का काम गंदगी उठाना, साफसफाई करना और मरे हुए पशुओं को ठिकाने लगाना था. सदियों बाद भी यह वर्ग इस सब से उबर नहीं पाया है.

आबादी का बड़ा हिस्सा पुलों के नीचे, सड़कों व नालों के किनारे, उड़ती धूल व कीचड़ के पास बनी झुग्गी बस्तियों में रहता है. गंदगी के कारण बहुत से लोग बीमारियों से

भरी जिंदगी जीते हैं. ठेलेखोमचों पर चाटपकौड़ी व खानेपीने की दूसरी बहुत सी चीजें खुली हुई बिकती रहती हैं और लोग बड़े आराम से उन्हें खातेपीते रहते हैं.

सिर्फ एअरपोर्ट, महानगरों की पौश कालोनियों, रईसों के बंगले, अमीरों के फार्महाउस व नेताओं की कोठियों आदि कुछ अपवादों को छोड़ कर देश के ज्यादातर इलाकों में गंदगी की भरमार है. नदी, नाले, गली, महल्ले, बसअड्डे, रेलवेस्टेशन, रेल की पटरियां, प्लेटफौर्म, सिनेमाघर, सड़कें, पार्क, सरकारी दफ्तर, स्कूल, अस्पताल आदि सार्वजनिक इमारतों में जहांतहां गंदगी पसरी रहना आम बात है.

भारी गंदगी के कारण देश में तरक्की के बजाय पिछड़ापन, निकम्मापन व बदइंतजामी दिखती है. इस वजह से विदेशी सैलानी भारत के नाम पर नाकभौं सिकोड़ते हैं. वे हमारे देश में आने से हिचकते हैं. सो, हमारे रोजगार के मौके घटते हैं. गंदगी से बहुत सी बीमारियां फैलती हैं. इस के चलते इंसान की कम वक्त में बेहतर व ज्यादा काम करने की कूवत घटती है. परिणामस्वरूप, उस की आमदनी कम होती है.

हक से बेदखल

बहुत से लोग आज भी गंदे रहते हैं क्योंकि हमारे समाज में धर्म के ठेकेदारों ने अपनी चालबाजियों से जातिवाद के जहरीले बीज बोए. सारे अच्छे काम अपने हाथों में ले कर शूद्रों को सिर्फ सेवा करने का काम दिया. जानबूझ कर इन को हर तरह से कमजोर बनाया गया. धर्म की आड़ में चालें चली गईं कि सेवाटहल करने वाले माली व अन्य पिछड़े वर्ग सामाजिक तौर पर ऊपर न उठने पाएं. नियम बना कर उन्हें गंदा व गांवों से बाहर गंदी जगहों में जानवरों के साथ व जानवरों की तरह जीने, रहने पर मजबूर किया गया.

दलितों व पिछड़ों को बुनियादी हकों से बेदखल रखा गया. इसी कारण ज्यादातर लोग आज भी गंदगी में ही रहने, खाने व जीने के आदी हैं. आबादी का बड़ा हिस्सा दलितों व पिछड़ों का है और उन्हें सदियों से गंदा रहने के लिए मजबूर किया जाता रहा है. जहांतहां पसरी भयंकर गंदगी की असली वजह यही है. इस में सब से बड़ी व खास बात यह है कि निचले तबके के लोग अपनी मरजी से नहीं, बल्कि उन पर जबरदस्ती थोपे गए सामाजिक नियमों के कारण गंदगी में रहते हैं.

सब से बड़ी खोट तो अगड़ों की उस गंदी व पुराणवादी हिंदू पाखंडी सोच में है जिस में वे खुद को सब से आगे व ऊपर रखने के लिए दूसरों, खासकर कमजोरों, को जबरदस्ती धकेल कर नीचे व पीछे रखा जाता है. बेशक, आगे बढ़ना अच्छा है लेकिन यह हक सभी का है. सिर्फ अपनी बढ़त के लिए दूसरों को उन के अधिकारों से बेदखल करना सरासर गलत तथा समाज, संविधान व इंसानियत के खिलाफ है. इसलिए सफाई के लिए दिमाग के जाले साफ करने भी जरूरी हैं.

ऊंची जातियों की साजिश

मुट्ठीभर ऊंची जातियों वाले अमीर दबंग वर्णव्यवस्था के नाम पर अपनी दबंगई, अमीरी व बाहुबल पर सदियों से दलितों व पिछड़ों पर राज करते रहे हैं. अपने हक में तरहतरह के नियम बना कर निचले तबकों को नीचे व पीछे रखने की साजिशें रचते रहे हैं. उन्हें कुओं पर चढ़ने, मंदिरों में घुसने व बरात निकालने व मरने पर आम रास्ते से लाश ले जाने तक से वंचित किया गया. पिछले दिनों बिहार में दलितों को अपने संबंधी की लाश को तालाब से हो कर ले जाना पड़ा था.

मंदिर कोई पैसा कमा कर नहीं देते पर उन में घुसने न देना दलितों में हीनभावना भर देता है. पंडेपुजारियों की मदद से अगड़ों द्वारा दलितों व पिछड़ों के खिलाफ बनाए गए सामाजिक नियमों की फेहरिस्त बहुत लंबी है. पुनर्जन्म और पिछले जन्म के कर्मों का फल बताने के साथ नीच व मलेच्छ बता कर उन के नहानेधोने, नल से पानी लेने, साफसुथरे रहने, अच्छे कपड़े पहनने, पक्के घर बनाने व पढ़नेलिखने तक पर पाबंदियां लगाई गईं. गंदगी में रह कर जानवरों से बदतर जिंदगी जीने पर उन्हें मजबूर किया गया ताकि वे ऊपर उठ कर या उभर कर किसी भी तरह मजबूत न होने पाएं.

धर्मग्रंथों में अगड़ों के कुल वंश में जन्म लेने को पुण्य का परिणाम व दलितों को पाप की पैदाइश बताया गया है. हालांकि हमारे संविधान में सभी को बराबरी का दरजा हासिल है लेकिन दलित व पिछड़े आज भी गंदगी में रहते हैं क्योंकि वे अगड़े, अमीरों व दबंगों के रहमोकरम पर जीते हैं. आज कुछ को मंदिरों में जाने दिया जा रहा है लेकिन उन्हें दूसरे दरजे के देवीदेवता दिए गए हैं.

साफसुथरे रह कर कहीं वे सामने आ कर मुकाबला करने लायक न हो जाएं, इस डर से अगड़ों ने दलितों व पिछड़ों को सदियों तक किसी भी तरह उबरने नहीं दिया. उन का खुद पर से यकीन तोड़ने के लिए ही उन्हें उतरन व जूठन की सौगातें बख्शिश में दी जाती हैं. इतना ही नहीं, ऊपर से उन्हीं के सामने जले पर नमक बुरकते हुए यह भी कहा जाता है कि ये तो गंदगी में रहने के ही आदी हैं.

दोषी कौन?

आम आदमी की जिंदगी में जो कुछ भरा गया, जहां जैसे खराब माहौल में उन्हें रखा गया, सामाजिक नियमों के चलते जो गंदे हालात उन्होंने देखे, उसी के मुताबिक वे आज भी गंदगी में जीते, खाते व रहते हैं. इस में दोष उन का नहीं है. असल दोषी तो वे हैं जिन्होंने अपने मतलब की वजह से समाज में उन्हें

गंदा बनाए रखने के नियम बनाए. उन्हें साफसफाई की अहमियत नहीं जानने दी. साफसुथरा नहीं रहने दिया. सो, जागरूक हो कर इन चालबाजियों को समझना बेहद जरूरी है ताकि जिंदगी दुखों की गठरी न साबित हो.

ज्यादातर अगड़े, अमीर खुद साफसफाई जैसे किसी भी काम को हाथ नहीं लगाते. दरअसल, उन की नजर में काम करना तो सिर्फ दलितों व पिछड़ों का फर्ज व जिम्मेदारी है. अमीर मुल्कों में नेता, अफसर व अमीर सब खुद अपनी मेज आदि साफ करने में जरा भी नहीं हिचकते, जबकि यहां इसे हिमाकत समझा जाता है. हर काम के लिए दलितों का सहारा लिया जाता है. इसलिए हमारे देश में गंदगी की समस्या भयंकर होती जा रही है.

समाज में आज भी ऐसे घमंडी सिरफिरों की कमी नहीं है जो जाति के आधार पर ऊंचनीच का फर्क करते हैं, कमजोरों के साथ भेदभाव करते हैं. उन्हें दलितों व पिछड़ों की खुशहाली खटकती है. दलितों, पिछड़ों के पास वाहन व पक्के घर होना, उन का साफसुथरे रहना भी अगड़ों को जरा नहीं सुहाता. सो, वे उन्हें पीछे और नीचे रखने की सारी कोशिशें करते हैं.

बदलें हालात

अपवाद के तौर पर पुरानी लीक, अंधविश्वास, गरीबी व दबंगों के चंगुल से दूर रहने वाले कुछ दलित व पिछड़े पढ़लिख कर आगे निकले और वे शहरों में बस गए. लेकिन ज्यादातर आज भी गंदगी व गरीबी के शिकार हैं. उन की दुनिया आज भी जस की तस है. वे आज भी घासफूंस व खपरैल की छत वाली कच्ची झोंपडि़यों में अपने जानवरों के साथ रहते हैं. जरूरत उन की जिंदगी में सुखद बदलाव लाने की, उन्हें हिम्मत व हौसला देने की है.

साफसुथरा रहना महंगा, मुश्किल या नामुमकिन नहीं है. कम खर्च में भी साफसुथरा रहा जा सकता है, अपने आसपास का माहौल बेहतर बनाया जा सकता है. उत्तराखंड के पंतनगर के पास एक गांव है नंगला. वहां बंगालियों के बहुत से परिवार रहते हैं. उन में से बहुतों की आर्थिक हालत अच्छी नहीं है, लेकिन उन के घरों के अंदरबाहर साफसफाई व सजावट देखते ही बनती है. इसलिए आज जरूरत गंदगी से उबर कर ऐसी ही मिसाल कायम करने की है.

हर इलाके में रहने वालों को अब खुद तय करना होगा कि कूड़ा, मलबा आदि इधरउधर बिलकुल नहीं फैलाना है. कचरे का निबटारा हमेशा ठीक तरीके से करना है. नालेनालियों में गोबर व पौलिथीन आदि नहीं फेंकने हैं. साफसफाई के लिए सरकारी कर्मचारियों का इंतजार किए बिना खुद अपने हाथपैरों को भी हिलाना है.

यह नजरिया बदलना होगा कि सफाई करना दलितों, पिछड़ों व सफाई कर्मचारियों की जिम्मेदारी है. यह भी जरूरी है कि उन्हें गंदगी में रहने

को मजबूर न किया जाए. उन्हें भी साफसुथरा रहने का हक है. इसलिए पहले दिमाग में बसी ऊंचनीच व गैरबराबरी की गंदगी दूर करें, तभी समाज में बाहरी गंदगी दूर होगी. वरना गंदगी रुकने वाली नहीं है. और ऐसेमें स्वच्छता अभियान भी सिर्फ एक ढकोसला बन कर रह जाएगा.

त्योहारों पर बधाई संदेश व्हाट्सऐप नहीं फोन से दें

त्योहारों के आते ही बधाई संदेशों का सिलसिला तेज हो जाता है. समय के साथसाथ बधाई संदेशों का चलन बदलता जा रहा है. टैलीग्राम, ग्रीटिंगकार्ड, ईमेल, एसएमएस से गुजरते हुए बधाई संदेश व्हाट्सऐप और फेसबुक तक पहुंच गए. एसएमएस और व्हाट्सऐप से बधाई संदेश भेजने में यह सहूलियत होने लगी कि एकसाथ सैकड़ों लोगों को ये भेजे जा सकते हैं. एसएमएस के जरिए केवल टैक्सट यानी लिखे हुए मैसेज ही भेजे जा सकते हैं. व्हाट्सऐप में लिखे हुए मैसेज के साथ फोटो, वीडियो और वौयस मैसेज भी भेजे जाने की सुविधा मिल गई. यह एसएमएस से अधिक प्रभावी दिखने लगा. मल्टीमीडिया फोन के चलन में आने के बाद से एसएमएस लगभग पूरी तरह बंद हो गए. अब ज्यादातर व्हाट्सऐप के जरिए ही बधाई संदेशों को भेजा जाता है.

व्हाट्सऐप में कटपेस्ट कर के एक ही मैसेज, फोटो, बधाई संदेश या औडियोवीडियो संदेश कई दोस्तों को भेजे जा सकते हैं. व्हाट्सऐप में ब्रौडकास्ट और व्हाट्सऐप ग्रुप जैसे औप्शन मिलने लगे जिन के जरिए हर तरह के बधाई संदेश एकसाथ सैकड़ों लोगों को भेजे जाने लगे. समय के साथ बधाई संदेश देने का पुराना साधन पीछे छूटता गया. बधाई संदेश देने का नया साधन आगे बढ़ता गया. एसएमएस के जमाने में टैलीकौम कंपनियां होली, दीवाली, क्रिसमस और नए साल पर एसएमएस वाले अपने रैगुलर पैकेज बंद कर देती थीं क्योंकि वे कम बजट वाले होते थे. बधाई संदेश के लिए टैलीकौम कंपनियां ज्यादा पैसे वसूलने लगी थीं.

अपनेपन से दूर बधाई संदेश

मल्टीमीडिया फोन आने के बाद व्हाट्सऐप और फेसबुक बधाई संदेश देने के नए माध्यम बन गए. फेसबुक मैसेंजर और फेसबुक वाल पर बधाई संदेश का चलन बढ़ा तो सामान्य लिखे मैसेज वाले बधाई संदेश पुराने दिनों की बात हो कर रह गए. फेसबुक के साथ इंस्ट्राग्राम और ट्विटर भी बधाई संदेश देने के साधन बन गए हैं. आज के समय में व्हाट्सऐप ने बाकी बधाई संदेश देने के औप्शंस को सीमित कर दिया है. व्हाट्सऐप के बधाई संदेश लोगों को शुरुआत में बहुत पसंद आए पर बाद में ये बहुत औपचारिक से लगने लगे. बहुत ही जल्द व्हाट्सऐप के बधाई संदेश अपनेपन से दूर भी होने लगे.

व्हाट्सऐप पर रोज ही सुबहशाम गुडमौर्निंग, गुडईवनिंग के अलावा और भी तरह के मैसेज आते रहते हैं. मैसेज की अधिकता के कारण व्हाट्सऐप से बधाई संदेश देने में नएपन का एहसास खत्म होने लगा. बधाई संदेश आने पर कुछ नयापन नहीं लगता.

कई बार एक ही बधाई संदेश बारबार अलगअलग लोगों से मिलता है. जिस से यह लगता है कि कहीं से आया मैसेज, कहीं भेज दिया गया. इस से बधाई संदेश का आकर्षण खो जाता है.

व्हाट्सऐप से बधाई संदेश देने के लिए अपनी वौयस रिकौर्ड कर के भी बधाई संदेश दे सकते हैं. इस से पाने वाले को अलग किस्म का एहसास होगा. बेहतर यह होगा कि एक ही रिकौर्ड को सभी को न भेजें. सब के लिए अलगअलग वौयस रिकौर्ड करें. जब आप वौयस रिकौर्ड करते समय उस का नाम लेंगे या उस को अपनेपन सेसंबोधित करेंगे तो पाने वाले को अलग लगेगा. इस से आप सीधे तौर पर जुडे़ भी होंगे और अच्छी तरह से आप की बात सामने वाले तक पहुंच भी जाएगी.

लाजवाब थे ग्रीटिंग कार्ड

बधाई संदेश की बात चलती है तो आज भी लोग सब से अधिक ग्रीटिंगकार्ड को पसंद करते हैं. आज समय पर डाक और कूरियर की व्यवस्था न होने के कारण इस का चलन कम हो गया है पर यह अपनेपन का अलग ही एहसास कराते हैं.

ग्रीटिंगकार्ड को भेजने से पहले खरीदने और फिर पोस्टऔफिस या कूरियर तक पहुंचाने के लिए की जाने वाली जद्दोजेहद से पता चलता था कि जिसे हम भेज रहे हैं वह कितना खास है. ग्रीटिंगकार्ड की खाली जगह में अपने हाथ से कुछ सुंदर पक्तियां लिखना सहज एहसास कराता है. कई टैलेंटेड लोग तो अपने हाथ से तैयार कर के ग्रीटिंगकार्ड भेजते थे. ऐसे बधाई संदेश रिश्तों को नई मजबूती देते थे.

ग्रीटिंगकार्ड की खरीदारी करते समय देने वाले की आयु, रिश्तों और अवसर का पूरा ध्यान रखा जाता था. खरीदने वाला हर संभव यह कोशिश करता था कि पाने वाले का दिल ग्रीटिंगकार्ड देख कर ही खुश हो जाए. इस के लिए कईकई दुकानों में कार्ड खेजे जाते थे.

फोन है बेहतर जरिया

ग्रीटिंगकार्ड को भेजना तो अब बहुत पुराना अंदाज हो गया है. व्हाट्सऐप के बधाई संदेश की जगह पर अगर आप अपनों को फोन से बधाई संदेश दें तो यह दिल को छूने वाला संदेश होगा. फोन से बात करने पर एकदूसरे के बारे में पता चल जाता है. कई बार हम कई दोस्तों, रिश्तेदारों से बात नहीं करते, क्योंकि

कोई काम नहीं होता है. दीवाली की शुभकामनाएं देते समय ऐसे लोगों से बात हो जाती है जिस से उन को भी रिश्तों के नएपन का एहसास होता है.

आज के दौर में जब सभी व्हाट्सऐप पर बधाई संदेश दे रहे हों और अचानक उसी समय किसी का फोन बधाई संदेश देने के लिए आ जाए तो दिल खुश हो जाता है.  फोन से ही लगता है कि उस के दिल में कितना सम्मान रहा होगा. फोन से बात करने पर एकदूसरे से अच्छी तरह से बात हो जाती है. बधाई के साथ भावनाओं का आदानप्रदान हो जाता है. फोन से बधाई संदेश देना अपनेपन का एहसास कराता है. ऐसे में व्हाट्सऐप के साथ फोन से भी बधाई संदेश दे सकते हैं.

जीवंत होते हैं फोेन से दिए संदेश

व्हाट्सऐप पर वौयस रिकौर्डिंग के साथ भी बधाई देने का सिलसिला चल रहा है. इस के बाद भी यह फोन का विकल्प नहीं हो सकता. वौयस रिकौर्डिंग एक तरफ से होती है. उस में नयापन होता है पर जीवंतता का एहसास नहीं रहता. दूसरे, सामने वालों के एहसास को समझ नहीं सकते. फोन से बधाई संदेश देने से एकदूसरे की भावनाओं को समझा जा सकता है. सब से बड़ी बात यह है कि फोन से दिया गया बधाई संदेश इस बात का एहसास कराता है कि आप का महत्त्व क्या है.

फेसबुक और व्हाट्सऐप में बहुत सारी कलात्मकता हो सकती है पर जीवंतता का अभाव होता है. व्हाट्सऐप और फेसबुक के बधाई संदेशों

से यह लगता है जैसे मशीनी अंदाज में दिया गया हो. यह सच है कि फेसबुक और व्हाट्सऐप के बधाई संदेश कम समय में अधिक लोगों तक पहुंच जाते हैं पर वहीं यह भी सच है कि ये अपनेपन के एहसास को मिटा देते हैं.

सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभाव के बीच आप को अपने करीबी रिश्तों में नएपन के एहसास को बनाए रखना जरूरी होता जा रहा है. ऐसे में फोन से दिए गए संदेश बहुत उपयोगी हो सकते हैं. ये रिश्तों में नया एहसास जगा सकते हैं.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें