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टी 20 क्रिकेट में धोनी की जगह ले सकते हैं ये पांच खिलाड़ी

न्यूजीलैंड के खिलाफ दूसरे टी 20 मुकाबले में भारतीय क्रिकेट टीम को एक हाई स्कोर मैच में हार मिली. हार के पीछे कप्तान विराट कोहली ने बल्लेबाजों को जिम्मेदार ठहराया.

कोहली के बयान देने के बाद पूर्व कप्तान महेन्द्र सिंह धोनी के औसत प्रदर्शन को लेकर दिग्गज क्रिकेटरों ने उन्हें अपने निशाने पर रखा. पूर्व क्रिकेटर वीवीएस लक्ष्मण और अजीत अगरकर ने कहा कि अब भारतीय टीम और खुद धोनी को नये खिलाड़ियों को खेलने का मौका देना चाहिये.

धोनी ने न्यूजीलैंड के खिलाफ दूसरे टी 20 मुकाबले में 49 रन बनाए लेकिन जिस तरह से उन्होंने बल्लेबाजी की उस पर सवाल उठने लगे हैं. कई दिग्गज उन्हें बाहर करने की मांग करने लगे हैं.

इस बात में कोई शक नहीं कि विश्व क्रिकेट में विकेट के पीछे धोनी जैसा कोई नहीं लेकिन विकेट के आगे धोनी की जगह लेने के लिए कई स्टार बाहर बैठे हैं. खास तौर पर बात अगर टी 20 की करें तो कई ऐसे युवा और अनुभवी खिलाड़ी है जो धोनी की जगह ले सकते हैं. आइए नजर डालते हैं उन विकेटकीपर बल्लेबाजों पर जो आने वाले समय में धोनी की जगह ले सकते हैं और आपको टी 20 क्रिकेट में खेलते दिख सकते हैं.

दिनेश कार्तिक

एक समय आईपीएल के दूसरे सबसे मंहगे खिलाड़ी रहे कार्तिक धोनी की जगह लेने में सबसे आगे हैं. भारत के पहले टी 20 मुकाबले में जीत कार्तिक के बल्ले से ही निकली थी. धोनी के डेब्यू करने से पहले से ही दिनेश कार्तिक भारत के लिए मैच खेलते आ रहे हैं, लेकिन समय का चक्र ऐसा घूमा कि कार्तिक की जगह धोनी ने ले ली. पिछले कुछ समय से कार्तिक ने अपना खेल मे काफी सुधार किया जिसके कारण उन्हें टीम में जगह मिलने लगी. आज कार्तिक में रक्षात्मक शाट के साथ-साथ आक्रामक बल्लेबाजी के भी गुण भी देखने को मिल रहे हैं. 10 टी 20 में इनका औसत 21 और स्ट्राइक रेट 126 का रहा है लेकिन अन्य टी 20 में 20 अर्द्धशतक ये दर्शाते हैं कि इनके पास लंबी पारी खेलने का भी काफी अनुभव है.

ऋद्धिमान साहा

33 साल के साहा के नाम आईपीएल फाइनल में शतक लगाने का रिकार्ड है. टेस्ट क्रिकेट में धोनी की जगह लेने वाले साहा को कभी भारत के लिए टी 20 खेलने का मौका नहीं मिला. लेकिन आईपीएल में इनके तूफानी खेल से सभी वाकिफ हैं. अब देखना होगा कि क्या साहा का अंतरराष्ट्रीय टी 20 डेब्यू हो पाता है या नहीं.

ऋषभ पंत

महज 20 साल की उम्र में ऋषभ पंत ने अपने खेल की बदौलत काफी नाम कमाया है. आईपीएल में उनका प्रदर्शन शानदार रहा जिसके कारण उन्हें टीम में भी जगह मिली. लेकिन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अभी अपनी चमक नहीं दिखा पाए हैं, पर उनके प्रदर्शन को देख कर यह जरूर अंदाजा लगाया जा सकता है कि आने वाले समय में पंत भारत के नियमित खिलाड़ी बन सकते हैं.

के एल राहुल

भारत के लिए तीनों फार्मेट में शतक लगा चुके के एल राहुल धोनी की जगह सबसे बेहतरीन उम्मीदवार के रूप में दिखते हैं. देखा जाए तो राहुल पार्ट टाइम विकेटकीपर के सबसे बेहतरीन उदाहरण हैं. तेज गति से रन बनाने के साथ-साथ राहुल स्ट्राइक भी रोटेट करने में सक्षम हैं. इतना ही नहीं राहुल मध्यक्रम में अपनी बल्लेबाजी से एक मजबूत स्तंभ बन सकते हैं. अभी तक खेले अपने 9 अंतरराष्ट्रीय टी 20 में राहुल ने एक शतक और एक अर्द्धशतक लगाया है. उनका औसत 50 का और स्ट्राइक रेट 150 के करीब है.

केदार जाधव

8 साल टी 20 खेलने के बाद 2015 में केदार जाधव ने भारत के लिए डेब्यू किया. इसके बाद से केदार जाधव को भारत का एक उभरता हुआ बेहतरीन बल्लेबाज माना गया. आईपीएल के दौरान केदार जाधव ने रायल चैलेंजर्स बैंगलुरु के लिए विकेटकीपर की भूमिका निभाई. उनकी इस भूमिका ने आरसीबी के खेल को काफी बदला. अंतरराष्ट्रीय टी 20 में उनके नाम 1 अर्द्धशतक दर्ज है तो टी 20 क्रिकेट में उन्होंने 8 अर्द्धशतक लगाए हैं. अगर उनके इन मैचो को देखा जाए तो केदार टी 20 में धोनी की जगह लेने की योग्यता रखते हैं.

हिमेश रेशमिया ने शुरू की दूसरी शादी की तैयारियां

लगभग 22 वर्ष के वैवाहिक जीवन के बाद अपनी पहली पत्नी को तलाक देकर अपनी प्रेमिका व टीवी अभिनेत्री सोनिया कपूर के साथ लिव इन रिलेशनशिप में रह रहे अभिनेता, गायक व संगीतकार हिमेश रेशमिया अब अपनी दूसरी शादी की तैयारी शुरू कर चुके हैं.

यूं तो जब भी हिमेश से मीडिया उनकी दूसरी शादी को लेकर सवाल करती है, तो वह मीडिया पर ही विफर पड़ते हैं. मगर हिमेश के अति नजदीकी सूत्रों का दावा है कि उन्होंने और सोनिया कपूर ने 2018 की शुरूआत में शादी करने के लिए अभी से तैयारियां कर दी है.

सूत्र तो यह भी दावा कर रहे हैं कि हिमेश रेशमिया का बेटा स्वयं भी सोनिया कपूर के साथ अक्सर नजर आता है. सोनिया कपूर भी हिमेश के साथ जोंक की तरह हर जगह चिपकी नजर आती हैं. हिमेश रेशमिया के स्टूडियों में भी सोनिया कपूर को देखा जा सकता है.

मगर हिमेश रेशमिया की तरफ से अभी भी दूसरी शादी को लेकर कोई स्पष्ट जवाब नहीं दिया जा रहा है.

प्रधानमंत्री के लिए है गलती स्वीकारने का समय : मनमोहन सिंह

आठ नवंबर, 2016 का प्रधानमंत्री का 500 और 1,000 के नोटों को रातोंरात चलन से बाहर करने का फैसला राह से भटका हुआ कदम था, जिसने न सिर्फ सबको हैरान किया, बल्कि उसका असर एक-एक भारतीय पर पड़ा. वह एक व्यर्थ आर्थिक नीतिगत फैसला था. अगर यह मान भी लिया जाए कि इसका मकसद काला धन समाप्त करना या डिजिटल इकोनॉमी को बढ़ावा देना था, तब भी इन लक्ष्यों को हासिल करने की मुफीद राह मनमानी नोटबंदी (विमुद्रीकरण) नहीं थी.

धारणा के उलट यह कोई ‘अच्छी नीति, बुरा अमल’ का मामला भी नहीं था. यह तो बुनियादी तौर ही एक दोषपूर्ण विचार था. आज एक साल बाद यह पूरी तरह से साफ हो गया है कि इस लापरवाही भरे फैसले से कितना नुकसान हुआ है. न सिर्फ आर्थिक तौर पर, बल्कि सामाजिक, सांस्थानिक और साख को पहुंची चोट के स्तर पर भी.

नोटबंदी का आर्थिक असर विकास दर की धीमी पड़ी रफ्तार में साफ-साफ दिखता है, साथ ही दूसरे आर्थिक संकेतकों में भी ह्रास दिख रहा है. आर्थिक उत्पादन पर नोटबंदी के नकारात्मक प्रभाव का ठीक-ठीक परिणाम मापा नहीं जा सकता और यह महत्वहीन भी है. अहम बात यह है कि मौजूदा आर्थिक सुस्ती नकदी के नुकसान से पैदा हुई है और इसके पीछे वजह नोटबंदी है, जिसकी कोई जरूरत नहीं थी और जो पूरी तरह से आत्मघाती थी. ऐसे झटके अपनी प्रकृति में भले ही फौरी दिखें, मगर हमारे समाज और औद्योगिक क्षेत्र के कमजोर तबकों पर इनका असर लंबे वक्त तक कायम रहता है.

नगदी का संकट अक्सर कमजोरों की कर्ज भरने के संकट में तब्दील हो जाती है. गरीब परिवारों व छोटे कारोबारियों से जुड़ी खबरों के रूप में यह संकट सामने है कि वे नोटबंदी की वजह से अपनी आजीविका को पहुंचे नुकसान से उबरने को किस कदर संघर्ष कर रहे हैं.कहा जाता है कि पैसा आपमें आत्मविश्वास पैदा करता है. अगर आपसे अचानक वह धन ले लिया जाए, तो इस भरोसे को ध्वस्त कर सकता है. अनेक सर्वेक्षणों ने कारोबारी भरोसे के तेजी से गिरने की पुष्टि भी की है. स्थिरता और निश्चितता एक गतिशील मैक्रोइकोनॉमी के जरूरी घटक हैं. नोटबंदी ने इन दोनों को ही चोटिल किया है.

एक ऐसे समय में, जब व्यक्तिगत और क्षेत्रीय आर्थिक विषमता हमारे देश में तेजी से बढ़ रही है, नोटबंदी जैसे कदम ऐसी असमानताओं को केवल विस्तार ही देंगे. हमारे लाखों नौजवान आर्थिक विकास से वंचित रह जा रहे हैं, क्योंकि नौकरियां सीमित संख्या में हैं. गैर-कृषि रोजगार के तीन-चौथाई अवसर छोटे और मध्यम उद्योगों से आते हैं. सेंट्रल स्टैटिस्टिक्स ऑफिस के विभागीय आंकड़े यह दिखा रहे हैं कि निर्माण व छोटे मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र को नोटबंदी से गहरा झटका लगा है.

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने हमें यह नसीहत दी थी कि जब भी कोई नीतिगत फैसला करना, तब समाज के ‘सबसे गरीब और हाशिये पर जी रहे इंसान का चेहरा जरूर याद करना’. जाहिर है, देश की मुद्रा को निर्थक बनाने का फैसला करते समय बापू की इस नसीहत को भुला दिया गया. इसमें कोई संदेह नहीं कि हमारे समाज के सबसे कमजोर तबकों को नोटबंदी ने काफी तकलीफें पहुंचाई हैं और अब यह अच्छी तरह से साबित हो गया है कि यह एक मनमानी भरा विचार था. इसलिए मुनासिब यही है कि प्रधानमंत्री अब शालीनता से इस बड़ी भूल को स्वीकार करें और देश व हमारे नौजवानों के व्यापक हित में हमारी अर्थव्यवस्था के पुनर्निर्माण में सबसे सहयोग मांगें.

यह बिल्कुल संभव है कि जीडीपी आंकड़ों में मापे जाने वाले आर्थिक विकास के मौजूदा गिरावट वाले स्तर में कुछ सुधार आए, लेकिन सुधार की यह प्रकृति असमानता भरी व बीमारू हो सकती है. और आर्थिक सुधार की कोई भी खबर उस स्थायी नुकसान को नहीं दिखा पाएगी, जो नुकसान अनौपचारिक क्षेत्र को पहुंचा है. हमारा देश आज नौकरी विहिन और समानता भरे विकास की दोहरी चुनौती से जूझ रहा है. यह जरूरी है कि हम इन चुनौतियों से विचलित न हों. नोटबंदी के फैसले को जायज ठहराने वाले मुखौटों की तलाश का असली जोखिम यह है कि उसमें देश के लिए गलत प्राथमिकताओं का पीछा किया जाएगा. मेरी चिंता यह है कि एक निर्थक कदम को सही ठहराने के लिए ‘न्यूनतम नगदी वाली अर्थव्यवस्था’ की दिखावटी कोशिश में हमारी अर्थव्यवस्था की दोनों बड़ी चुनौतियां नजरअंदाज हो रही हैं.

यह बहुत जरूरी है कि हम अब नोटबंदी का गुणगान और उस पर राजनीति करने से आगे बढ़ें और बेरोजगारी व असमानता की चुनौतियों के हल तलाशने के लिए एक साथ आएं. लेकिन नोटबंदी के आर्थिक नुकसान को तरफ कर दें, तो मैं संस्थाओं और उनकी साख के क्षरण को लेकर बेहद चिंतित हूं.सन 1947 में जब एक आजाद देश के तौर पर भारत ने स्वशासन और राष्ट्र निर्माण का अपना सफर शुरू किया था, तब तक उसे दरिद्र मानवों का एक भोगोलिक समूह भर बना दिया गया था. आज सात दशक बाद हम एक गौरवपूर्ण, सुसंगत राष्ट्र हैं, जो विश्व शक्ति की सीढ़ियां तेजी से चढ़ता जा रहा है. हमारे देश को यह असाधारण कामयाबी उन मजबूत संस्थाओं बदौलत मिली है, जिसकी बुनियाद हमारे राष्ट्र-निर्माताओं ने रखी थी, और फिर उन्होंने व उनके बाद के नेताओं ने उनका भरपूर पोषण किया. उन्होंने लोकसभा और विधानसभा जैसी विधायी संस्थाओं के अलावा हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट जैसी न्यायिक संस्थाएं खड़ी कीं, तो मीडिया, चुनाव आयोग, रिजर्व बैंक, सेंट्रल स्टैस्टिटिक्स ऑफिस, सेबी और अनेक सांस्कृतिक संगठनों को भी खड़ा किया. विश्व मंचों पर भारत की मजबूती के ये आधार रहे हैं.

इन संस्थाओं ने नियम बनाए और उन्हें निरंतरता के साथ लागू किया, भले ही सत्ता में कोई भी रहा हो. भारत की ठोस तरक्की और विकास में इन संस्थाओं की स्वायत्तता, साख और भरोसा का भारी महत्व है. यही वे संस्थाएं हैं, जिन्होंने यह सुनिश्चित किया कि किसी व्यक्ति से बड़ा देश है. इन संस्थाओं की स्वायत्तता और साख पर कोई भी हमला देश के प्रत्येक नागरिक पर सीधा हमला है. इतिहास ऐसे सबकों से भरा हुआ है कि किसी भी समाज की दीर्घकालिक तरक्की उसकी संस्थाओं की प्राणशक्ति से संचालित होती है. पश्चिमी यूरोप और उत्तरी अमेरिका की जबर्दस्त सफलता के संदर्भ में अनेक अर्थशास्त्रियों व इतिहासकारों ने काफी तफसील से उनकी संस्थाओं की भूमिका को दर्ज किया है. इन संस्थाओं ने न सिर्फ न्याय और आजादी की स्थापना की, बल्कि उनका बखूबी संरक्षण भी किया है.

भारत की नोटबंदी की कहानी भी हमारी संस्थाओं और हमारे समाज में उनके महत्व की दास्तान है. भारतीय रिजर्व बैंक एक ऐसी संस्था है, जिसे भारी महत्व दिया गया है और यह महत्व उसे काफी सावधानी से सौंपी गई स्वायत्तता व विश्वसनीयता से पोषित है. नोटबंदी का फैसला आरबीआई की सांस्थानिक स्वायत्तता को गंभीर चोट पहुंचाने वाला कदम था. इस बात की पूरी संभावना है कि आरबीआई को नोटों को रद्द किए जाने के फैसले पर विचार करने या अपनी राय रखने का मौका नहीं दिया गया था. मैं इसके लिए उसे दोषी नहीं ठहरा रहा, बस इस बात को रेखांकित कर रहा हूं कि उसे कार्यपालिका की शक्तियों को नियंत्रित व संतुलित करने का अधिकार सौंपा गया है. मेरा आरबीआई के गवर्नर में पूरा यकीन है और मैं पूरी गंभीरता के साथ यह मानता हूं कि अपने शेष कार्यकाल में वह संस्थान की प्रतिबद्धता, विश्वास और साख को बनाए रखेंगे.

हाल में गुजरात विधानसभा चुनाव की तिथियों की घोषणा में चुनाव आयोग ने जैसी देरी की, वह भी देश की संस्थाओं की मजबूती को लेकर चिंता बढ़ाने वाली रही. अपनी समृद्ध विरासत के साथ चुनाव आयोग जैसी संस्थाएं हमारे गणराज्य की बुनियाद रही हैं. ऐसी संस्थाओं की आजादी को कमतर करने की कोई भी कोशिश हमारे देश के लिए खतरनाक होगी.

मीडिया, जांच एजेंसियों, शैक्षिक व सांस्कृतिक संगठनों की स्वायत्तता और प्रतिबद्धता आज भारी दबाव में हैं. देश के प्रमुख संस्थानों के नेतृत्व के कंधों पर आज एक बड़ी जिम्मेदारी है कि वे देश के भविष्य के लिए अपनी पूरी ताकत से अपने संस्थानों की रक्षा करें. हरेक राजनेता में यह लोभ होता है कि तेजी और दक्षता के लिए वह सांस्थानिक प्रक्रियाओं की अनदेखी कर दे. राजनीतिक बहुमत प्राप्त राजनेताओं में तो अपने लोभों को पूरा करने की क्षमता भी होती है. लेकिन ऐसे लोभ के वशीभूत होकर कदम उठाना अपने उन स्वतंत्रता सेनानियों और राष्ट्र-निर्माताओं से विश्वासघात करना होगा, जिन्होंने इस संप्रभु भारत की नींव रखी है.

मैं यही उम्मीद करता हूं कि नोटबंदी एक बड़ी भूल थी. संस्थाओं की अनेदखी, सर्वसम्मति को महत्व न देना और उतावलेपन ने नोटबंदी के फैसले को संभव बनाया. इसमें शासन और राष्ट्र-निर्माण के गहरे सबक हैं. एक सच्च उदार समाज वह है, जो एक भी बेकसूर इंसान को गैर-मुनासिब सजा से बचाने के लिए संघर्ष करता है. इस बात को सुनिश्चित करने में संस्थाओं की महत्वपूर्ण भूमिका है. वास्तव में, यह समय नोटबंदी से आगे बढ़ने का है, लेकिन हमारी संस्थाओं, उनकी कार्य-पद्धति और प्रक्रिया को अक्षुण्ण रखने का भी.

साभार : हिन्दुस्तान

हर ब्वायफ्रेंड से मेरा ब्रेकअप हो जाता है : कृति खरबंदा

हर इंसान की चाहत होती है कि उसे उपहार मिले. मगर उपहार देने के बारे में बहुत कम लोग सोचते हैं. जबकि दक्षिण भारत में शोहरत बटोरने के बाद बौलीवुड में व्यस्त अदाकारा कृति खरबंदा का शौक ही है, लोगों को उपहार देना.

खुद कृति खरबंदा कहती हैं, ‘‘मुझे लोगों को उपहार देने का बड़ा शौक है. पर आज तक मुझे मेरे जैसे लोग नहीं मिले. जब मेरे दोस्त मेरे जन्मदिन पर सवाल करते हैं कि मुझे उपहार में क्या चाहिए तब मैं उनसे कहती हूं, बेशर्मों मुझे इतने वर्षों से जानते हो, पर तुम्हे यह नहीं पता कि मुझे क्या चाहिए जबकि मैं तुम लोगों का कितना ध्यान रखती हूं. इसी वजह से हर ब्वायफ्रेंड से मेरा ब्रेकअप हो जाता है क्योंकि लोग दूसरों को कुछ भी देना नहीं जानते. यहां लोग सिर्फ लेना चाहते हैं.’’

किस तरह के उपहार आप देना पसंद करती हैं?

यह तो इस बात पर निर्भर करता है कि दोस्त कौन है, उसकी पसंद नापसंद क्या है और अवसर क्या है.

आपको किसी को भी उपहार आदि देना अच्छा क्यों लगता है?

मुझे देना इसलिए अच्छा लगता है, क्योंकि एक वक्त वह भी था, जब मेरी इच्छाएं थी, मेरा मन होता था कि इस शख्स को यह चीज दी जाए, मगर तब मैं खुद इतना आर्थिक संकट से जूझ रही थी, कि कुछ नहीं कर पा रही थी. उस वक्त मुझे अपने आप पर, अपने हालात पर कोफ्त होती थी.

यह कब की बात है?

जब मैं स्कूल में थी, तब भी ऐसा हुआ और जब मैं अभिनेत्री बन गयी, तब भी ऐसा हुआ. जब मैं दसवीं कक्षा में पढ़ती थी, उन दिनों मेरी मम्मी मुझे जेब खर्च के लिए बीस रूपए दिया करती थी. तब अगर कभी ऐसा हुआ कि मेरी किसी दोस्त को भूख लगी है, तो मैं हमेशा उसके साथ होती थी. कई बार मैं पूरे बीस रूपए अपने दोस्त को दिए हैं. पैसा ऐसी चीज है, जिसे मैंने कभी पकड़ा नहीं. जबकि मुझे कमाने का बहुत शौक है. मैं पैसा सिर्फ अपने लिए नहीं कमाना चाहती. बल्कि लोगों की मदद के लिए कमाना चाहती थी और आज भी कमाना चाहती हूं. इसलिए जब मुझे मौका मिला, तो मैने लोगों की मदद करनी शुरू की. दूसरों की मदद कर मुझे काफी अच्छा लगता है. उस वक्त मुझे जो सुख मिलता है, उसे तो मैं शब्दों में बयां नहीं कर सकती.

मैं इसलिए भी हीरोईन बनना चाहती थी, जिससे पैसे कमाकर मैं लोगों की मदद कर सकूं, चैरिटी कर सकूं पर मैं सड़क पर भीख मांग रहे लोगों की मदद नहीं करती. मेरा मानना है कि यदि आपके हाथ पैर सलामत हैं, आप स्वस्थ हैं, तो फिर आपको कुछ न कुछ काम करने का प्रयास करना चाहिए. भीख मांगना गलत है. पर यदि कोई इंसान मेहनत करते हुए नजर आता है, भले ही वह एक छोटी सी दुकान चला रहा हो, ऐसे में यदि उसे तकलीफ है, तो मैं उसकी मदद करना पसंद करुंगी. मानव मनोविज्ञान भी यही कहता है, ‘आप जिस तरह के इंसान हो, उसी तरह के लोग आपको मिलते हैं. मेरा मानना है कि चाहे दोस्त हो या ब्वायफ्रेंड हो, यदि उसके अंदर देने की आदत नहीं है, तो वह मेरा दोस्त हो ही नहीं सकता. मुझे कंजूस दोस्त नही पसंद.

आपने कभी किसी की मदद की हो या किसी को कुछ दिया हो, जिससे सामने वाले इंसान की जिंदगी बदल गयी हो?

इस सवाल का जवाब देकर मैं खुद को महान और सामने वाले को तुच्छ नहीं साबित करना चाहती. मेरी नजर में हर इंसान का आत्मसम्मान होता है, उसकी अपनी हैसियत भी होती है. वक्त कई बार इंसान को मदद लेने के लिए विवष करता है. दूसरी बात मैंने अब तक ऐसा कुछ महान चैरिटी वाला काम नहीं किया है कि उसका प्रचार करुं. मेरी कमाई अभी बहुत कम है.

इसके अलावा लोगों को सलाह देकर भी उनकी जिंदगी बदली जा सकती है. मैंने दो तीन दोस्तों की मदद कर उनकी जिंदगी बदली है, पर यह मेरे दोस्तों का निजी मसला है, इसलिए बता नहीं सकती. मसलन, मेरी एक दोस्त ऐसी है, जो एक समय बहुत बुरे दौर से गुजर रही थी. मेरी मदद से उसकी जिंदगी बदली भी है. वैसे मुझे यह भी लगता है कि इंसान के कर्म बहुत महत्वपूर्ण हैं.

मदद तो भावनात्मक सहारे या पैसे से की जाती है. आप इसमें से किसे ज्यादा अहमियत देती हैं?

मेरे लिए दोनों महत्वपूर्ण है. जहां भावनात्मक मदद की जरुरत होती है, वहां पैसा काम नहीं आता और जहां पैसे की जरुरत हो, वहां भावना काम नहीं आती है. पर मैं पैसे को ग्रांटेड मानकर नहीं चलती.

सिद्धार्थ मल्होत्रा का नुकसान, आयुष्मान खुराना का फायदा

बौलीवुड में हमेशा सफलता की ही पूजा होती है. इसके बावजूद कुछ कलाकार एक फिल्म के सफल होते ही अहम के शिकार हो जाते हैं और स्टार की तरह व्यवहार करने लगते हैं. परिणामतः बहुत जल्द उनके करियर पर सवालिया निशान लगने लगते हैं. ऐसे ही कलाकार हैं सिद्धार्थ मल्होत्रा.

2012 में करण जोहर की सफल फिल्म ‘‘स्टूडेंट आफ द ईअर’’ से अभिनय करियर शुरू करने वाले सिद्धार्थ मल्होत्रा की उसके बाद से लगातार ‘हंसी तो फंसी’,‘ब्रदर्स’,‘बार बार देखेा’,‘ए जेंटलमैन’आदि फिल्में बौक्स आफिस पर बुरी तरह से असफल होती आयी हैं. अब जब उनकी नई फिल्म‘‘इत्तफाक’’ने भी बाक्स आफिस पर दम तोड़ दिया,तो फिल्मकारों का उनसे मोहभंग हो गया.

सूत्रों पर यकीन किया जाए, तो एक बड़े प्रोडक्शन हाउस ने अपनी हास्य फिल्म से सिद्धार्थ मल्होत्रा की छुट्टी कर उनकी जगह इस फिल्म में आयुष्मान खुराना को शामिल कर लिया है. इस तरह सिद्धार्थ मल्होत्रा का नुकसान और आयुष्मान खुराना का फायदा हो गया. अब सिद्धार्थ मल्होत्रा के पास ‘‘अय्यारी’’के अलावा कोई फिल्म नहीं बची है. इस मल्टीस्टारर फिल्म में  उनके साथ मनोज बाजपेयी, नसिरूद्दीन शाह,मो. जीशान अयूब सहित कई दूसरे कलाकार हैं.

सूत्रों की माने तो अब बौलीवुड में लोग खुलकर कहने लगे हैं कि यदि सिद्धार्थ मल्होत्रा ने रोमांस से ध्यान हटाकर अपने अभिनय करियर को संवारने पर ध्यान नहीं दिया, तो उनके करियर को चौपट होने से कोई नहीं बचा पाएगा.

नोटबंदी बेवजह उठाया गया एक कदम : सचिन पायलट

काले धन के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए. इसमें किसी को कोई आपत्ति नहीं है. लेकिन ठीक एक साल पूर्व आठ नवंबर को जिस प्रकार केंद्र सरकार ने आनन-फानन में नोटबंदी की, वह एक बड़ी राजनीतिक भूल थी. जो उद्देश्य सरकार ने नोटबंदी के बताए थे, उनमें से एक भी पूरा नहीं हुआ. जबकि अर्थव्यवस्था को सरकार के इस अपरिपक्व कदम की भारी कीमत चुकानी पड़ी. एक साल बाद भी देश इसके दुष्प्रभावों से उबर नहीं पाया है.

नोटबंदी को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तीन बातें कही थीं. एक, इससे लोगों की तिजोरियों में छिपा काला धन खत्म हो जाएगा. दूसरी, आतंकियों और नक्सलियों को आर्थिक मदद मिलनी बंद हो जाएगी. तीसरी, नकली नोटों की समस्या दूर होगी. लेकिन ये तीनों समस्याएं आज भी जस की तस बनी हुई हैं. जब मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा था, तो अटार्नी जनरल ने कहा था कि तीन लाख करोड़ का काला धन उजागर होगा. लेकिन यह बात सही नहीं निकली.

99 फीसदी रुपये तय समय के भीतर बैंकों में वापस आ गए, जबकि पिछले एक साल में आतंकी गतिविधियों में 33 फीसदी का इजाफा हुआ है. जहां तक जाली नोटों का प्रश्न है, तो सरकार बताए कि कितने जाली नोट कम हुए? सरकार के पास कोई जवाब नहीं है. नोटबंदी एक बेवजह उठाया गया कदम था. इसमें भारतीय रिजर्व बैंक की सहमति नहीं थी. यह एक सांस्थानिक कदम नहीं, बल्कि पूरी तरह राजनीतिक कदम था. इसके लिए उचित तैयारी भी नहीं की गई.

पहले 31 मार्च तक पुराने नोट बदलने की तिथि रखी गई. फिर उसे 31 दिसंबर को खत्म कर दिया गया. कुप्रबंध कितना था, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि रिजर्व बैंक को महज 50 दिनों के भीतर 74 नोटिफिकेशन निकालने पड़ गए. एटीएम मशीनों को भी नए नोट के लायक नहीं बनाया गया. नतीजा यह हुआ कि 140 लोग लाइनों में लगे-लगे मारे गए.

आरबीआई को नोट छापने में आठ हजार करोड़ रुपये का नुकसान हुआ. एक तरफ पांच सौ और एक हजार रुपये के बड़े नोटों को बंद किया गया, ताकि काले धन पर लगाम लगे, लेकिन दूसरी तरफ दो हजार रुपये के नोट शुरू कर दिए गए. यह पूरा अर्थशास्त्र समझ से परे है. सरकार को जब इसके नुकसान का एहसास होना शुरू हुआ, तो रुख बदलने की कोशिश की गई. आनन-फानन में नोटबंदी को डिजिटल भुगतान से जोड़ दिया गया. काले धन, आतंकी फंडिंग व नकली नोटों का मुद्दा गौण हो गया. मगर क्या डिजिटल भुगतान बढ़ा?

रिजर्व बैंक के ताजा आंकड़े कहते हैं कि स्थिति अब फिर नोटबंदी के पहले वाले स्तर पर आ गई है. नोटबंदी के दौरान 99 फीसदी पैसा बैंकों में वापस चला गया, इसलिए अघोषित संपत्ति के खुलासे के जो मामले सामने आए, वे बेहद कम हैं. पिछले एक साल के दौरान कुल 29 हजार करोड़ रुपये की अघोषित आय पकड़ी गई है, जबकि यूपीए शासन में 2013-14 के दौरान एक लाख एक हजार करोड़ रुपये की अघोषित आय पकड़ी गई थी.

जाहिर है, नोटबंदी अघोषित आय का पता लगाने में भी असफल रही है. नोटबंदी को लेकर पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का अनुमान सही निकला. उन्होंने जीडीपी में दो फीसदी की गिरावट की बात कही थी, जो आज सही हो रही है. देश भारी मंदी की चपेट में है. किसानों, मजदूरों की बदहाली बढ़ी है. देश में असंगठित क्षेत्र में काम-धंधा चौपट हो गया है. करीब 33 फीसदी रोजगार घटे हैं. मध्यम व लघु उद्योगों के लाभ में 50 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई है. संगठित रोजगार भी घट रहा है. कंपनियों में छंटनी हुई है.

हमारी ग्रामीण अर्थव्यवस्था नकदी आधारित है. डिजिटल भुगतान के लिए गांवों में न तो बुनियादी ढांचा है और न लोगों में इतनी जागरूकता और कौशल है. लोगों पर नोटबंदी और डिजिटल भुगतान थोपा गया. इससे ग्रामीण, किसान, छोटा-मोटा काम करने वाले सबसे ज्यादा प्रभावित हुए.सरकार की तरफ से कहा गया है कि नोटबंदी से आयकर देने वालों की संख्या में एक साल में 25 फीसदी का इजाफा हुआ. पिछले साल आयकर देने वाले 25 फीसदी बढ़े जरूर थे, लेकिन उससे पहले साल यह वृद्धि 27 फीसदी की हुई थी. वास्तव में आयकर देने वाले बढ़ने की बजाय घट गए.

साभार : हिन्दुस्तान

मैट्रो के साथ साथ बहुमंजिली सड़कें बनाना है जरूरी

शहरों की बढ़ती भीड़ को नियंत्रित करने के लिए मैट्रो रेल सेवाओं का बड़ा जाल बिछाया जा रहा है. यह  ठीक है पर ट्रैफिक की समस्या को यह न तो नजात देगा न हरेक वर्ग के लिए, हर समय के लिए उपयुक्त है. अपना वाहन सदियों से मानव का सही सहारा रहा है और अपना घोड़ा, गधा या रथ अथवा घोड़ागाड़ी सदियों से सफल संपन्न लोगों की ताकत रहे हैं.

इस तरह के लोग अगर मैट्रो, बस, टैक्सी न लें तो इस के लिए उन्हें दोष देना गलत है. उन्हें उन की चाही सुविधा दें चाहे, उस की कीमत लें. मैट्रो के साथसाथ बहुमंजिली सड़कें बनाना भी अब जरूरी हो गया है. जैसेजैसे शहर ऊंचे हो रहे हैं यानी 20-30-50 मंजिले मकान बन रहे हैं, वैसे ही बहुमंजिली सड़कें 4-5-6 मंजिली बननी चाहिए. बहुत जगह बन रही हैं और 2-3 लैवल अब आम होने लगे हैं. अब सरकारों को 4-5 मंजिली लंबी सड़कों के बनाने पर विचार करना होगा.

जैसी बहुमंजिली पार्किंग बन रही हैं और ये शहरों के लिए विलासिता नहीं, आवश्यकता हो गई हैं, वैसी ही बहुमंजिली सड़कें भी बनानी होंगी.

ज्यादा गाडि़यां ज्यादा प्रदूषण जरूर फैला सकती हैं पर यदि ट्रैफिक के लिए रुकना न पड़े तो कम धुआं बरबाद कर के भी लंबी यात्रा की जा सकती है. ये सड़कें टोल सड़कें यानी जब इस्तेमाल करो तब पैसा दो के आधार पर भी बनाई जा सकती हैं और कर लगा कर पैसा वसूल करने के आधार पर भी.

मैट्रो पर भरोसा ठीक है पर कारें आज के आधुनिक समाज के लिए आवश्यक हैं. उन से बचा नहीं जा सकता.

सलाखों में पहुंचा हवस का भूखा हलाला ऐक्सपर्ट

24 अगस्त, 2017 को पुलिस की गिरफ्त में आए नीले रंग का लिबास पहने और सिर पर गोल टोपी लगाए उस शख्स की बातें वरदी वालों को हैरान कर रही थीं. उस का गुनाह इतना था कि वह सजायाफ्ता मुजरिम था और कई सालों से फरार था. उस ने न सिर्फ जादूटोना, तावीजगंडों के नाम पर अपने अंधविश्वासी मुरीदों को लूटा था, बल्कि वह औरतों की आबरू से भी खेलता था और इस काम के पैसे लेता था.

धर्म की आड़ में खुद को वह हलाला ऐक्सपर्ट मौलवी बताता था. अपने पाखंड के जाल व हलाला को उस ने मौजमस्ती व रोजीरोटी का जरीया बना लिया था.

हलाला को बनाया धंधा

दरअसल, पकड़ा गया मौलाना करीम खुद को धर्म का बहुत बड़ा जानकार और तंत्रमंत्र का माहिर बताता था. लोगों को भूतप्रेत व निजी परेशानियों को दूर करने के नाम पर वह तावीजगंडे बांटता था. उस के अंधभक्तों की खासी तादाद थी.

मौलाना करीम मुंबई, सूरत, अजमेर शरीफ, फर्रुखाबाद वगैरह जगहों पर जा कर रुकता था. चेलेचपाटे ही उस का प्रचारप्रसार किया करते थे. बदले में वह उन्हें छल से कमाई दौलत का कुछ हिस्सा देता था.

मौलाना करीम ने 20 साल से ले कर 50 साल तक की औरतों के हलाला किए. हलाला का काम वह कभी लोगों के घर जा कर, तो कभी होटलों में कर दिया करता था. जिस औरत पर उस का ज्यादा दिल आ जाता, उसे वह कई दिनों तक अपने पास रखता था और मन भर जाने पर उसे उस के परिवार वालों के हवाले कर देता था.

इतना ही नहीं, करीम खुद को धर्मगुरु बताता था. हलाला करने के पहले वह सामने वाले की माली हालत के हिसाब से पैसे लिया करता था. उस ने एकदो नहीं, बल्कि 38 से ज्यादा औरतों का हलाला किया था. चेले खुश रहें, इसलिए वह उन्हें भी औरतों से मजे कराता था.

करीम के चेले बहलाते थे कि जो कोई मौलाना से हलाला कराएगा, उस शख्स को जन्नत नसीब होगी. साथ ही, रिश्ते में कभी कड़वाहट पैदा नहीं होगी. करीम की सभी मुरादें बैठेबिठाए पूरी हो रही थीं. तंत्रमंत्र और हलाला उस के लिए धंधा था, जिस से होने वाली कमाई वह खुद भी रखता था और अपने चेलों में भी बांटता था.

पुराना अपराधी था पाखंडी

मौलाना करीम का असली नाम आफताब उर्फ नाटे था. न तो वह कोई पहुंचा हुआ धार्मिक गुरु था और न ही तंत्रमंत्र का जानकार, बल्कि वह सजायाफ्ता एक भगौड़ा अपराधी था.

पुलिस से बचने के लिए आफताब उर्फ नाटे ने धर्म का चोला पहना और धार्मिक जगहों को ठिकाना बना कर लोगों की आंखों में धूल झोंकने लगा.

दरअसल, आफताब उत्तर प्रदेश के इलाहाद जनपद के शाहगंज थाना इलाके का रहने वाला था. वह जवानी में दबंग व आपराधिक सोच का था.

साल 1981 में आफताब ने एक नौजवान मोहम्मद अजमत की गोली मार कर हत्या कर दी थी. हत्या के इस मामले में पुलिस ने उसे गिरफ्तार कर जेल भेज दिया.

एक साल बाद जनपद कोर्ट से उसे हत्या का कुसूरवार पाते हुए उम्रकैद की सजा सुना दी गई. उस के परिवार वालों ने सजा के खिलाफ हाईकोर्ट में अपील की, तो साल 1985 में उसे कुछ समय के लिए जमानत मिल गई.

आफताब जेल की जिंदगी से ऊब चुका था. बाहर आते ही वह हमेशा के लिए फरार हो गया. उस ने अपना नाम बदल कर मौलाना करीम रखा और यह धंधा आबाद करने लगा.

यों आया शिकंजे में आफताब भले ही धर्म की आड़ में मौज काट रहा था, लेकिन उस के परिवार वालों ने उस के कहने पर पहले तो उस से संबंध न होने की बात फैलाई, फिर कुछ साल बाद यह कहना शुरू कर दिया कि शायद आफताब किसी हादसे का शिकार हो कर मर चुका है. यह सब उस की सािजश का हिस्सा था. दरअसल, आफताब परिवार की खैरखबर रखता था. वह लगातार मोबाइल फोन के जरीए उन के संपर्क में रहने लगा.

आफताब शातिर था. कुछ ही महीनों में वह सिमकार्ड बदल दिया करता था. वह इलाहाबाद समेत आसपास के जिलों में होने वाले धार्मिक जलसों में पुलिस की आंखों में धूल झोंक कर घूमता था. 4 साल पहले हाईकोर्ट ने आफताब की फरारी को संज्ञान में ले कर पुलिस से उसे कोर्ट में पेश करने को कहा, तो पता चला कि वह फरार है.

जब पुलिस उसे खोजने में नाकाम रही, तो हाईकोर्ट ने किसी तरह उसे 3 महीने में पेश करने को कहा. उस के बाद इलाहाबाद परिक्षेत्र के आईजी एसवी सावंत ने उसे तलाशने के निर्देश दिए और उस पर 12 हजार रुपए का इनाम भी ऐलान कर दिया.

पुलिस अधीक्षक सिद्धार्थ मीना ने इंस्पैक्टर अनिरुद्ध सिंह समेत पुलिस की टीमों को उस की खोज में लगाया. पुलिस को सूचना मिली कि आफताब कौशांबी के एक प्रोग्राम में आने वाला है. पुलिस ने घेराबंदी की, लेकिन वह चकमा दे कर भाग गया.

पुलिस ने आफताब के परिवार वालों के फोन नंबर सर्विलांस पर ले लिए, जिस से पता चला कि वह एक मजार में शरण लिए हुए है. इस के बाद इंस्पैक्टर अनिरुद्ध सिंह ने खुद को झाड़फूंक करवाने वाला मरीज बता कर उसे गिरफ्तार कर लिया.

पुलिस अधीक्षक सिद्धार्थ मीना ने बताया, ‘‘आफताब तंत्रमंत्र का ढोंग कर के लोगों से पैसा ऐंठता था. उस ने झांसा दे कर 38 से ज्यादा औरतों का हलाला करवाने की बात कबूल की है. उस की पहचान एक सिद्ध मौलाना के रूप में बन रही थी.’’

सामाजिक कार्यकर्ता ताहिरा हसन कहती हैं कि मुसलिम धर्म में प्रचलित हलाला को ले कर मौलानाओं पर तमाम आरोप लगते रहे हैं, लेकिन यह बड़ी हकीकत खुल कर उजागर हुई है कि हलाला के नाम पर धर्म की आड़ में पाखंडी क्याकुछ नहीं करते हैं.

बड़ा सवाल : बच्चे हों या औरतें बलात्कार क्यों

8 सितंबर, 2017 की सुबह भोंडसी, गुड़गांव में श्याम कुंज इलाके की गली नंबर 2 में रहने वाले वरुण ठाकुर अपने बच्चों प्रद्युम्न और विधि को सुबह के 7 बज कर 50 मिनट पर रयान इंटरनैशनल स्कूल के गेट पर छोड़ गए थे. प्रद्युम्न दूसरी क्लास में पढ़ता था, जबकि विधि 5वीं क्लास में.

8 बजे स्कूल का एक माली दौड़ कर प्रद्युम्न की टीचर अंजू डुडेजा के पास गया और उन का हाथ पकड़ कर खींचते हुए बोला, ‘‘देखो,?टौयलेट में क्या हो गया है…’’

अंजू डुडेजा जब वहां पहुंचीं, तो उन्होंने देखा कि टौयलेट के बाहर गैलरी की दीवार के पास प्रद्युम्न का स्कूल बैग पड़ा था और टौयलेट के भीतर वह लहूलुहान हालत में. 8 बज कर 10 मिनट पर?स्कूल मैनेजमैंट ने प्रद्युम्न के पिता को उस की तबीयत खराब होने की सूचना दी. इसी बीच प्रद्युम्न को अस्पताल ले जाया गया, लेकिन तब तक उस की मौत हो चुकी थी.

इस हत्याकांड में बस कंडक्टर को जिम्मेदार ठहराया गया. उस ने बच्चे के साथ यौन शोषण करने की कोशिश की थी या किसी और को बचाने के लिए बस कंडक्टर को बलि का बकरा बनाया जा रहा है, ऐसे सवालों के जवाब तो समय आने पर ही पता चलेंगे, लेकिन सब से अहम बात यह है कि एक परिवार ने अपने मासूम बच्चे को खो दिया, वह भी इस तरह से कि जीतेजी तो उन के दिलोदिमाग से प्रद्युम्न की यादें नहीं जा पाएंगी.

प्रद्युम्न के पिता ने इस हत्याकांड की तह तक पहुंचने के लिए कानून का सहारा लिया और सुप्रीम कोर्ट ने मामले की गंभीरता को देखते हुए खुद सभी प्राइवेट स्कूलों में सिक्योरिटी की जांच करने का फैसला लिया. लेकिन सवाल उठता?है कि ऐसी नौबत ही क्यों आती है कि कोई बालिग आदमी किसी बच्चे

को अपनी हवस का शिकार बनाता है, क्योंकि इस वारदात के तुरंत बाद दिल्ली के एक निजी स्कूल में 5 साल की एक बच्ची के साथ रेप की वारदात सामने आई थी.

गुड़गांव के ही एक पड़ोसी जिले फरीदाबाद में भी ऐसा ही शर्मनाक वाकिआ हो गया था. नैशनल हाईवे के पास सीकरी गांव के सरकारी स्कूल में 7वीं क्लास में पढ़ने वाले एक बच्चे को 24 अगस्त, 2017 को सीकरी गांव का रहने वाला 19 साला सूरज अपने साथ स्कूल के पीछे उगी झाडि़यों में ले गया था. वह उस के साथ गलत काम करना चाहता था. बच्चे ने विरोध किया,

तो सूरज ने उस का गला दबाया और जबरदस्ती की. बाद में पहचान मिटाने के लिए पत्थर से वार कर के बच्चे का चेहरा कुचल दिया. हाल ही में मुंबई में अपने सौतेले पिता द्वारा कथित तौर पर बलात्कार किए जाने के बाद पेट से हुई 12 साल की एक लड़की ने एक सरकारी अस्पताल में बच्चे को जन्म दिया. आरोपी को इसी साल जुलाई महीने में गिरफ्तार किया गया था.

पुलिस ने बताया कि लड़की के पेट से होने के बारे में बहुत देर से, तकरीबन 7 महीने बाद पता चला था. लड़की ने अपनी मां को बताया था कि उस के सौतेले पिता ने उस के साथ कथित तौर पर कई बार बलात्कार किया था.

बड़े दुख की बात है कि भारत में साल 2010 से साल 2015 तक यानी 5 साल में ही बच्चों के बलात्कार के मामलों में 151 फीसदी की शर्मनाक बढ़ोतरी हुई थी. नैशनल क्राइम रिकौर्ड्स ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक, साल 2010 में दर्ज 5,484 मामलों से बढ़ कर यह तादाद साल 2014 में 13,366 हो गई थी.

इस के अलावा बाल यौन शोषण संरक्षण अधिनियम (पोक्सो ऐक्ट) के तहत देशभर में ऐसे 8,904 मामले दर्ज किए गए. साल 2013 की बात है. छत्तीसगढ़ राज्य के कांकेर जिले में कन्या छात्रावास में प्राइमरी क्लास की 9 आदिवासी छात्राओं के साथ यौन शोषण का एक मामला सामने आया था. इस वारदात

की जानकारी मिलते ही पुलिस ने छात्रावास के चौकीदार दीनाराम और शिक्षाकर्मी मन्नूराम गोटर को गिरफ्तार कर लिया था.

तब छत्तीसगढ़ में भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता व सांसद रमेश बैस ने सवाल उठाया था कि बराबरी या बड़े लोगों के साथ बलात्कार समझ में आता है, लेकिन बच्चों के साथ ऐसा अपराध क्यों होता?है?

औरतें और बच्चे शिकार

सच तो यह है कि औरतों और बच्चों से बलात्कार करने का इतिहास बहुत पुराना है. जब कभी राजामहाराजा किसी पड़ोसी देश को लड़ाई में जीतते थे, तो हारे हुए राजा की जनता में से औरतों के साथ अपने सैनिकों को बलात्कार करने की छूट दे देते थे. वे सैनिक बच्चियों और औरतों में कोई फर्क नहीं करते थे. जो औरतें अपनी इज्जत बचाना चाहती थीं, उन्हें खुदकुशी करना सब से आसान रास्ता लगता था.

भारत और पाकिस्तान के बंटवारे में भी न जाने कितनी औरतों और बच्चियों ने अपनी इज्जत गंवाई थी. वैसे, जब हवस हावी होती है, तो फिर छोटे लड़के भी बलात्कारी के शिकार बन जाते हैं.

भारत में जिन राज्यों में सेना की चलती है, वहां की लोकल औरतों की सब से बड़ी समस्या यह रहती है कि उन की व उन के बच्चों की इज्जत सुरक्षित नहीं है. जम्मू व कश्मीर में बहुत से सैनिकों पर बलात्कार करने के आरोप लगते रहे?हैं.

फिलीपींस देश के राष्ट्रपति रोड्रिगो दुतेर्ते ने तो एक चौंकाने वाला बयान दे डाला था. जब वे दक्षिणी फिलीपींस में मार्शल ला लगाने के 3 दिन बाद सैनिकों का मनोबल बढ़ाने के लिए वहां पहुंचे, तो उन्होंने कहा कि सैनिकों को 3 औरतों के साथ बलात्कार करने की इजाजत है.

ऐसी क्या वजह?है कि कोई राष्ट्रपति अपने ही देश की औरतों के साथ बलात्कार करने की इजाजत देता है? क्या कोई सैनिक जब उन के आदेश को मानेगा, तो वह सामने औरत है या बच्ची, इस बात का ध्यान रखेगा?

चलो, एक बालिग लड़की या औरत के साथ जबरदस्ती करने की बात समझ में आती?है, हालांकि यह भी गलत?है, लेकिन किसी बच्ची को लहूलुहान करने में किसी मर्द को कौन सा सुख हासिल होता है?

जब कोई मर्द किसी औरत या बच्ची को अपनी हवस का शिकार बनाता है, तब उस की सोच क्या रहती?है? भारत की बात करें, तो यहां ऐसा मर्दवादी समाज है, जहां मर्दों को अपना हुक्म चलाने की आदत होती है. वे चाहते हैं कि औरतें उन के पैरों की जूती बन कर रहें. जब कोई बाहरी औरत उन की बात नहीं मानती है, तो वे उस की इज्जत से खेल कर उस के अहम को चोट पहुंचाते?हैं. जब औरत हाथ नहीं आती, तो बच्ची ही सही.

क्या आप ने कभी सोचा है कि जितनी भी गालियां बनी हैं, उन में औरतों के नाजुक अंगों को ही क्यों निशाना बनाया जाता है? इस में भी मर्दवादी सोच ही पहले नंबर पर रहती है. कुछ लोगों के दिमाग में 24 घंटे हवस सवार रहती है. वे जब अपनी जिस्मानी जरूरत घर में बीवी से पूरी नहीं कर पाते?हैं, तो आसपड़ोस में झांकते हैं. जब कभी कोई बड़ी औरत फंस जाए तो ठीक, नहीं तो कम उम्र की बच्ची को भी नहीं छोड़ते?हैं. फिर उन के लिए यह बात कोई माने नहीं रखती है कि मजा मिला या नहीं.

जब किसी बड़े संस्थान या मैट्रो शहर में ऐसे बलात्कार होते हैं, तो अपराध सामने आ जाते हैं, लेकिन छोटे इलाकों में तो पता भी नहीं चल पाता?है. समाज का डर दिखा कर घर वाले ही पीडि़त को चुप करा देते?हैं, जिस से बलात्कारी के हौसले बढ़ जाते हैं. लेकिन बलात्कारी खासकर छोटे बच्चों को शिकार बनाने वाले समाज में

खुले घूमने नहीं चाहिए? क्योंकि वे अपनी घिनौनी हरकत से पीडि़त बच्चे के दिलोदिमाग पर ऐसी काली छाप छोड़ देते हैं, जो उस के भविष्य पर बुरा असर डालती है.

ऐसा पीडि़त बच्चा बड़ा हो कर अपराधी बन सकता है. यह सभ्य समाज के लिए कतई सही नहीं. लेकिन एक कड़वा सच यह भी है कि बलात्कारी आतंकवादियों के ‘स्लीपर सैल’ की तरह समाज में ऐसे घुलेमिले होते?हैं कि जब तक वे पकड़ में न आएं, तब तक उन की पहचान करना मुश्किल होता है. इस के लिए कानून से ज्यादा लोगों की जागरूकता काम आती है.

सैक्स ऐजुकेशन जरूरी

बच्चों के हकों के प्रति लोगों को जागरूक करने वाले और नोबल अवार्ड विजेता कैलाश सत्यार्थी का मानना है कि बच्चे सैक्स हिंसा का शिकार न बनें, इस के लिए पूरे समाज को अपनी सोच में बदलाव लाना होगा. साथ ही, स्कूलों में सैक्स ऐजुकेशन से बच्चों को इस जानकारी से रूबरू कराना चाहिए.

कैलाश सत्यार्थी की सब से बड़ी चिंता यह है कि बच्चों को उन के?घरों व स्कूलों में मर्यादा, इज्जत, परंपरा वगैरह की दुहाई दे कर इस तरह के बोल्ड मामलों पर बोलने ही नहीं दिया जाता है. अगर वे कुछ पूछना चाहते हैं, तो उन्हें ‘गंदी बात’ कह कर वहीं रोक दिया जाता है.

अगर कोई बच्चा यौन शोषण का शिकार होता है, तो उस के जिस्मानी घाव तो वक्त के साथ फिर भी भर जाते हैं, पर मन पर लगी चोट उम्रभर दर्द देती है.

हिंदी फिल्म ‘हाईवे’ की हीरोइन आलिया भट्ट के साथ बचपन में उन्हीं के परिवार के एक सदस्य ने यौन शोषण किया था, जिस की तकलीफ से वे पूरी फिल्म में जूझती दिखाई देती हैं.

जहां तक इस समस्या से जुड़े कानून की बात है, तो हमारे यहां बाल यौन शोषण को ले कर पोक्सो जैसे कानून हैं तो, पर उन का भी ठीक ढंग से पालन नहीं किया जाता है.

पिछले साल इस कानून के तहत तकरीबन 15 हजार केस दर्ज हुए थे, जिन में से महज 4 फीसदी मामलों में सजा हो पाई. 6 फीसदी आरोपी बरी हो गए और बाकी 90 फीसदी मामले अदालत में अपनी बारी का इंतजार कर रहे हैं. ऐसी ही लचर चाल रही, तो उन का फैसला आने में कई साल लग जाएंगे.

बच्चों को करें होशियार

सच तो यह है कि जब कोई छोटा बच्चा यौन शोषण का शिकार होता है, तो उस में इतनी समझ नहीं होती कि उस के साथ हो क्या रहा है. अपराधी उन की इसी बालबुद्धि का फायदा उठाते हैं. लेकिन इस का मतलब यह नहीं है कि बच्चों को उन की सिक्योरिटी के मद्देनजर जानकारी न दी जाए. कभीकभी कुछ टिप्स ऐसे होते हैं, जो मौके पर काम कर जाते हैं या फिर बच्चे को उस के साथ कोई अनहोनी होने का डर हो तो वह वक्त रहते किसी अपने को बता सकता है. कुछ जरूरी बातें इस तरह?हैं:

* मातापिता बच्चे को अपना दोस्त समझें, ताकि वह अपने मन की बात खुल कर कह सके.

* हालांकि बहुत बार जानकार आदमी भी बच्चे के साथ यौन शोषण कर सकता है, लेकिन फिर भी बच्चों को किसी के गलत तरीके से उन के बदन के खास हिस्सों को?छूने के प्रति आगाह कर देना चाहिए.

* अगर बच्चा डराडरा सा रहता है या चुप रहता है, तो खुल कर इस की वजह पूछें. आप की बात नहीं सुनता है, तो किसी काउंसलर की मदद भी ली जा सकती है.

* स्कूल में टीचर का भी फर्ज बनता है कि वह अपने हर स्टूडैंट पर कड़ी नजर रखे. कुछ भी गलत होने की खबर लगे, तो फौरन मांबाप को इस की जानकारी दी जाए.

* अगर बच्चे के साथ कुछ गलत हो भी रहा है, तो वह शर्मिंदगी महसूस न करे, बल्कि अपने मातापिता को जानकारी दे.

बाढ़ के बाद आखिर कैसे हो जिंदगी आबाद

साल 2017. अगस्त का महीना. बिहार के 18 जिलों के   164 ब्लौक, 1842 पंचायतें, 6625 गांव और एक करोड़, 22 लाख लोग बाढ़ से प्रभावित हुए. 21 अगस्त, 2017 तक 202 लोगों को बाढ़ ने लील लिया था. अररिया, किशनगंज, सहरसा, कटिहार, पूर्णिया, सुपौल, शिवहर, मधुबनी, गोपालगंज, सारण, मुजफ्फरपुर, सीतामढ़ी, मधेपुरा, खगडि़या, दरभंगा, समस्तीपुर, पूर्वी चंपारण और पश्चिमी चंपारण जिलों में बाढ़ ने जम कर तांडव मचाया.

देश में हर 5 साल में 75 लाख हैक्टेयर जमीन बाढ़ खा जाती है और तकरीबन 16 सौ जानें लील लेती है. हर साल जून से ले कर अगस्त महीने के बीच बिहार और नेपाल की नदियां बिहार में कहर बरपाती रही हैं. हर साल बाढ़ की चपेट में फंस कर औसतन 5 सौ से ज्यादा इनसानी और 2 हजार से ज्यादा जानवरों की जानें जाती हैं. साथ ही, 2 लाख से ज्यादा घरों को बाढ़ बहा ले जाती है और 6 लाख हैक्टेयर जमीन में लगी फसलों को बरबाद कर डालती है.

कुलमिला कर नेपाली नदियों की उफान से हर साल बिहार को 3 हजार करोड़ रुपए का नुकसान उठाना पड़ता है. उत्तर बिहार की 75 फीसदी से ज्यादा आबादी बाढ़ के खतरे के बीच जिंदगी गुजारने के लिए मजबूर है. राज्य की जमीन का 70 फीसदी से ज्यादा इलाका बाढ़ से प्रभावित होता है.

राज्य आपदा प्रबंधन विभाग के आकलन के मुताबिक, साल 1980 से ले कर साल 2015 के बीच हर साल तकरीबन 10 लाख हैक्टेयर खेती के लायक जमीन बाढ़ के पानी में डूबती रही है, जिस वजह से 6 लाख हैक्टेयर में लगी खरीफ की फसल तो पूरी तरह से चौपट हो जाती है. बाढ़ से 17 लाख मवेशी भी प्रभावित होते हैं.

कोसी नदी की बाढ़ में हर साल तबाह होने वाले सहरसा जिले का किसान रामदेव महतो कहता है कि बाढ़ से घर के ढहने के बाद एक कच्चा घर बनाने में कम से कम 20 से 25 हजार रुपए खर्च हो जाते हैं. गरीब किसानों की मेहनत की कमाई का एक बड़ा हिस्सा तो घर बनाने में ही चला जाता है.

सवाल यह उठता है कि हर साल बाढ़ राहत के नाम पर केंद्र और राज्य सरकार अरबों रुपए बहाती हैं, लेकिन बाढ़ कंट्रोल के नाम पर सालभर हवाई किले ही बनाए जाते हैं. बाढ़ का पानी उतरने के बाद सरकार और प्रशासन अपने काम का खत्म होना मान लेता है, जबकि बाढ़ का पानी उतरने के बाद ही बाढ़ पीडि़तों की असली मुश्किलें शुरू होती हैं.

गौरतलब है कि उत्तर बिहार की तकरीबन 76 फीसदी आबादी बाढ़ की तबाही और खौफ के साए में जिंदगी गुजारती है. राज्य का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 94 हजार, 160 वर्ग किलोमीटर है, जिस में से 73.06 फीसदी यानी

68 हजार, 8 सौ वर्ग किलोमीटर क्षेत्र हर साल बाढ़ में डूबता रहा है. समूचे भारत का कुल बाढ़ प्रभावित इलाका 4 सौ लाख हैक्टेयर है, जिस में से 17.2 फीसदी इलाका बिहार में है.

पिछले साल अगस्तसितंबर महीने में बिहार की नदियों में आई बाढ़ से तकरीबन 12 सौ करोड़ रुपए बरबाद हो गए थे. राज्य में तकरीबन 4 लाख हैक्टेयर खेती के लायक जमीन बाढ़ की चपेट में आई थी और उस में लगी फसलें पूरी तरह बरबाद हो गई थीं.

प्रति हैक्टेयर 30 क्विंटल धान की पैदावार का नुकसान माना जाए, तो इस लिहाज से एक करोड़, 20 लाख क्विंटल धान की फसल चौपट हो गई थी. धान की कीमत अगर 10 रुपए प्रति किलो भी मानी जाए, तो नुकसान की रकम 12 सौ करोड़ रुपए बैठती है. गौरतलब है कि बिहार में खरीफ के मौसम में 32 लाख हैक्टेयर जमीन में धान, 2 लाख हैक्टेयर जमीन में मक्का और 90 हजार हैक्टेयर जमीन में दलहन की फसलें लगाई जाती हैं.

कृषि वैज्ञानिक वेदनारायण सिंह कहते हैं कि बिहार के मैदानी इलाकों में नदियों का जाल बिछा हुआ है. गंगा, सोन, गंडक, बूढ़ी गंडक, कमला बलान, भूतही बलान, घाघरा, कोसी, बागमती, महानंदा, नून, लखदेई और अधवारा समूह की नदियां हर साल बरसात के मौसम में बिहार में कहर ढाती रही हैं. इन नदियों का तकरीबन 60 फीसदी जलग्रहण क्षेत्र नेपाल और तिब्बत में व 35 फीसदी बिहार में पड़ता है.

नेपाल के 60 हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में जो पानी जमा होता है, उस के निकलने का रास्ता बिहार के निचले इलाकों के जरीए ही होता है. इस से बिहार के कई इलाकों में अचानक बाढ़ आ जाती है.

कटिहार जिले के कुरसैला इलाके का किसान लल्लू प्रसाद बताता है कि बाढ़ के बाद खेतों में अक्तूबरनवंबर महीने तक पानी भरा रह जाता है और किसान खेती नहीं कर पाते हैं. फसलें तो बरबाद हो ही जाती हैं, ऊपर से कर्ज के पैसे का ब्याज भी बढ़ता जाता है. किसान कर्ज चुकाएं तो कैसे चुकाएं? खेत बेच कर कर्ज चुकाने के सिवा उस के सामने कोई चारा ही नहीं रह जाता है. सरकार भी मदद के नाम पर कभी कर्जमाफी, कभी मुफ्त में बीज और कभी बिजली देने का ऐलान कर अपनी जवाबदेही का खत्म होना मान लेती है.

कृषि वैज्ञानिक डाक्टर सुरेंद्र नाथ कहते हैं कि हर साल भारी बारिश और नेपाल समेत पड़ोसी राज्यों से बड़े पैमाने पर पानी छोड़े जाने की वजह से बाढ़ आती रही है. सरकार के तमाम उपायों के बाद भी जानमाल का बहुत नुकसान हो जाता है.

जुलाई से सितंबर महीने के बीच ही बाढ़ का खतरा रहता है, ऐसे में गांव वालों को बाढ़ से निबटने के लिए अपने लैवल पर कुछ उपाय करने चाहिए. अगर वे पहले से तैयार रहें, तो बाढ़ से होने वाले नुकसान को काफी हद तक कम किया जा सकता है. राशन, दवा, ईंधन, पशुचारे को जमा कर के रखना बहुत जरूरी है. गांव की ऊंची जगहों की पहचान कर वहां बाढ़ के दौरान लोगों और मवेशियों को महफूज रखा जा सकता है.

यह जरूर करें बाढ़ के बाद

* बाढ़ के बाद हुए नुकसान का आकलन करने के लिए आने वाली टीम को सही आंकड़ा दें.

* बाढ़ के गंदे पानी के असर को कम करने के लिए डाक्टर से पूरी जांच और इलाज कराएं.

* बच्चों का इलाज गंभीरता से कराएं.

* महामारी से बचाव के लिए मरे मवेशियों को गड्ढा खोद कर चूना डाल कर दफनाएं.

* मवेशियों की रहने वाली जगहों पर चूने का घोल और फिनाइल का छिड़काव करें.

* जलजमाव वाले इलाके से जलीय पौधों को निकाल दें, ताकि उन में घोंघे वगैरह न पनप सकें.

* गंदा और कई दिनों से जमा पानी मवेशियों को न पिलाएं.

* जब तक खेतों में पानी जमा है, तब तक उस में मछलियों का जीरा डाल कर मछली पैदा की जा सकती है.

* बाढ़ के बाद लत्तर वाली सब्जियों मसलन कद्दू, सेम, परवल वगैरह लगा कर उन की अच्छी पैदावार ली जा सकती है.

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