आठ नवंबर, 2016 का प्रधानमंत्री का 500 और 1,000 के नोटों को रातोंरात चलन से बाहर करने का फैसला राह से भटका हुआ कदम था, जिसने न सिर्फ सबको हैरान किया, बल्कि उसका असर एक-एक भारतीय पर पड़ा. वह एक व्यर्थ आर्थिक नीतिगत फैसला था. अगर यह मान भी लिया जाए कि इसका मकसद काला धन समाप्त करना या डिजिटल इकोनॉमी को बढ़ावा देना था, तब भी इन लक्ष्यों को हासिल करने की मुफीद राह मनमानी नोटबंदी (विमुद्रीकरण) नहीं थी.

धारणा के उलट यह कोई ‘अच्छी नीति, बुरा अमल’ का मामला भी नहीं था. यह तो बुनियादी तौर ही एक दोषपूर्ण विचार था. आज एक साल बाद यह पूरी तरह से साफ हो गया है कि इस लापरवाही भरे फैसले से कितना नुकसान हुआ है. न सिर्फ आर्थिक तौर पर, बल्कि सामाजिक, सांस्थानिक और साख को पहुंची चोट के स्तर पर भी.

नोटबंदी का आर्थिक असर विकास दर की धीमी पड़ी रफ्तार में साफ-साफ दिखता है, साथ ही दूसरे आर्थिक संकेतकों में भी ह्रास दिख रहा है. आर्थिक उत्पादन पर नोटबंदी के नकारात्मक प्रभाव का ठीक-ठीक परिणाम मापा नहीं जा सकता और यह महत्वहीन भी है. अहम बात यह है कि मौजूदा आर्थिक सुस्ती नकदी के नुकसान से पैदा हुई है और इसके पीछे वजह नोटबंदी है, जिसकी कोई जरूरत नहीं थी और जो पूरी तरह से आत्मघाती थी. ऐसे झटके अपनी प्रकृति में भले ही फौरी दिखें, मगर हमारे समाज और औद्योगिक क्षेत्र के कमजोर तबकों पर इनका असर लंबे वक्त तक कायम रहता है.

नगदी का संकट अक्सर कमजोरों की कर्ज भरने के संकट में तब्दील हो जाती है. गरीब परिवारों व छोटे कारोबारियों से जुड़ी खबरों के रूप में यह संकट सामने है कि वे नोटबंदी की वजह से अपनी आजीविका को पहुंचे नुकसान से उबरने को किस कदर संघर्ष कर रहे हैं.कहा जाता है कि पैसा आपमें आत्मविश्वास पैदा करता है. अगर आपसे अचानक वह धन ले लिया जाए, तो इस भरोसे को ध्वस्त कर सकता है. अनेक सर्वेक्षणों ने कारोबारी भरोसे के तेजी से गिरने की पुष्टि भी की है. स्थिरता और निश्चितता एक गतिशील मैक्रोइकोनॉमी के जरूरी घटक हैं. नोटबंदी ने इन दोनों को ही चोटिल किया है.

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