Download App

भाजपा राज का साइड इफैक्ट : धार्मिक नारों में उलझता देश

एफ ई नोरोन्हा पणजी के जानेमाने वकील हैं जिन का एक लेख अगस्त में एक पत्रिका रेनीवाकाओ  में छपा था. रेनीवाकाओ का प्रकाशन गोवा और दमन के आर्कबिशप करते हैं. अपने लेख में एफ ई नोरोन्हा ने बड़ी बेबाकी से 23 अगस्त को पणजी में होने वाले उपचुनाव के बाबत मतदाताओं से अपील की थी कि वे सांप्रदायिक ताकतों के खिलाफ वोट दें ताकि फासिस्टवादी ताकतों को देश में बढ़ने से रोका जा सके.

पणजी विधानसभा उपचुनाव में भाजपा ने मुख्यमंत्री मनोहर पर्रिकर को उम्मीदवार बनाया था. उन पर और भगवा खेमे पर निशाना साधते नोरोन्हा ने यह भी लिखा था कि साल 2012 में गोवा को सभी भ्रष्टाचार से मुक्त कराने की बात कर रहे थे, 2014 तक इस दिशा में कोशिशें भी हुईं लेकिन इस के बाद से हम भारत में हर दिन जिस तेजी से जिस चीज को बढ़ता हुआ देख रहे हैं, वह कुछ और नहीं, बल्कि संवैधानिक प्रलय है और हम इस के गवाह हैं.

बकौल नोरोन्हा, भ्रष्टाचार बेहद खराब चीज है, सांप्रदायिकता उस से भी खराब है लेकिन नाजीवाद इन से भी खराब है. भारत में अब सब से बड़ा मुद्दा भ्रष्टाचार नहीं, बल्कि आजादी, लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता हैं.

देश में संवैधानिक प्रलय की स्थिति है इस से सहमत हुआ जा सकता है, लेकिन मोदीराज की तुलना सीधे नाजीवाद से करना फिलहाल एक अतिशयोक्ति वाली बात लगती है. हिटलर के राज में 1939 में तकरीबन 60 लाख यहूदियों को मौत के घाट उतार दिया गया था जिन में 15 लाख बच्चे भी थे.

मोदीराज में अब तक घोषित तौर पर 60 अल्पसंख्यक भी नहीं मारे गए हैं, लेकिन दिनोदिन बढ़ते धार्मिक उन्माद के चलते इस संख्या के साथ धार्मिक और जातिगत बैर में इजाफा ही हो रहा है, जो हर लिहाज से चिंता की बात है. इसे हालिया निवृतमान उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने भी अपने अंदाज में उठाया था.

अंसारी का असर

हत्याओं के मामले में भले ही मोदीराज और नाजीवाद में कोई कनैक्शन न दिखता हो पर नोरोन्हा ने जो लिखा था उसे बीती 10 अगस्त को उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी अपने कार्यकाल के आखिरी दिन यह कहते दोहरा चुके थे कि देश के मुसलमानों में बेचैनी का एहसास और असुरक्षा की भावना है. अंसारी ने बेहद तल्ख लहजे में कहा कि भीड़ द्वारा लोगों को पीटपीट कर मार डालना और तर्कवादियों की हत्याएं होना भारतीय मूल्यों का कमजोर होना है. सामान्यतौर पर कानून लागू करा पाने में विभिन्न स्तरों पर अधिकारियों की योग्यता का चरमरा जाना है.

यह कोई गोलमोल बात नहीं थी, बल्कि हामिद अंसारी सीधेसीधे देश के बिगड़ते माहौल का जिम्मेदार उन लोगों को ठहरा रहे थे जो वंदेमातरम के हिमायती हैं, भारत माता की जय बोलने के लिए मुसलमानों के साथ दूसरे अल्पसंख्यकों को भी मजबूर करते हैं और राष्ट्रगान को आरती का दरजा देने व दिलवाने पर तुले हैं.

नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद ऐसे लोगों की तादाद में बेहताशा इजाफा हुआ है. हर दिन कोई न कोई विवाद इन मुद्दों पर देश में कहीं न कहीं हो रहा होता है. लगता ऐसा है मानो राष्ट्रवाद जबरन थोपा जा रहा है. जाहिर है ऐसा कहने में कई स्तरों पर संविधान की अनदेखी करने में हिंदूवादी डरते नहीं. नाजीवाद की बात इस लिहाज में मौजू है कि देश धीरेधीरे ही सही, उस की तरफ बढ़ तो रहा है.

हामिद अंसारी चूंकि एक महत्त्वपूर्ण संवैधानिक पद पर 10 साल रहे थे, इसलिए उन के कहने पर बवंडर मचा. भाजपा खेमे से पहली प्रतिक्रिया उन की जगह उपराष्ट्रपति बनने जा रहे वेंकैया नायडू ने यह कहते दी थी कि कुछ लोग कह रहे हैं कि अल्पसंख्यक असुरक्षित हैं, यह एक राजनीतिक प्रचार है, पूरी दुनिया के मुकाबले अल्पसंख्यक भारत में ज्यादा सुरक्षित हैं, यहां उन्हें उन का हक मिलता है.

हामिद अंसारी के बयान को राजनीतिक मानने की कई वजह हैं लेकिन वेंकैया नायडू का बयान वाकई पूरी तरह राजनीतिक था जिस में एक संदेश हिंदूवादियों के लिए यह छिपा हुआ था कि वे ऐसे किसी बयान की परवा न करते हुए अपने हिंदूवादी एजेंडे की दिशा में काम करते रहेंगे. मौब लिंचिंग के दर्जनों उदाहरण मिथ्या हैं, उन पर ध्यान न दें.

भाजपा के तेजतर्रार प्रवक्ता कट्टरवादी हिंदू नेता कैलाश विजयवर्गीय ने भी अंसारी के बयान को राजनीतिक करार देते यह जाहिर किया कि अगर उन के मन में किसी प्रकार की दहशत थी तो उन्हें अपना कार्यकाल खत्म होने से पहले इस प्रकार का बयान देना चाहिए था.

शायद ही कैलाश विजयवर्गीय बता पाएं कि उपराष्ट्रपति रहते ही हामिद अंसारी यह बयान देते तो क्या उस के माने या मंशा बदल जाते. क्या भाजपा यह मान लेती कि क्या सचमुच देश का माहौल बदला है, मुसलमानों में असुरक्षा की भावना आ रही है और देश में डर का माहौल बन रहा है.

यानी, भाजपा को छोड़ हर किसी ने अंसारी की पीड़ा को जायज बताया, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हामिद अंसारी का यह हमला बरदाश्त नहीं कर पाए. आमतौर पर असहिष्णुता और बढ़ते नवहिंदूवाद पर खामोश रहने वाले नरेंद्र मोदी ने अंसारी पर दार्शनिकों सा प्रहार करते हुए कहा कि पिछले 10 वर्षों में उन्होंने अपना दायित्व बखूबी निभाया है हो सकता है कि उन के भीतर कोई छटपटाहट रही होगी, आज के बाद उन के सामने वह संकट नहीं रहेगा. मुक्ति का आनंद मिलेगा. उन्हें अपनी मूल सोच के अनुसार कार्य करने के, सोचने के और बात कहने के मौके भी मिलेंगे.

किसे मिल रहे मौके

एक सधे हुए शतरंज के खिलाड़ी की तरह हामिद अंसारी अपनी बात कह कर चलते बने जिस पर नरेंद्र मोदी की तिलमिलाहट काबिलेगौर थी. उन्होंने अंसारी के बयान को फुजूल बताते संवैधानिक संयम से काम लिया, लेकिन बाजी तो अंसारी एक ही चाल में ही मार ले गए थे.

मुंहजबानी बातें राजनीति में आम हैं. इन पर अब कोई ज्यादा ध्यान भी नहीं देता, लेकिन अंसारी की बात में असर था जो उन्होंने नरेंद्र मोदी तक को प्रधानमंत्री पद की गरिमा की सीमाएं लांघने को मजबूर कर दिया. नरेंद्र मोदी वैसे भी मान्यताओं के बहुत कायल नहीं हैं और समय पर बात को घुमा देने में माहिर हैं.

अपने मुखिया की खीझ को समझते उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने तो यह फरमान जारी कर दिया कि स्वतंत्रता दिवस पर राज्य के सभी मदरसों में राष्ट्रगान गाया जाना अनिवार्य होगा. इस बाबत सभी मदरसों को आजादी के जलसे की वीडियो रिकौर्डिंग भेजने का हुक्म देते यह धौंस भी दी गई कि राष्ट्रगान न गाने वाले मदरसों के खिलाफ कार्यवाही की जाएगी.

आदित्यनाथ का यह फैसला जरूर कुछकुछ नाजीवाद सरीखा था, क्योंकि संविधान में कहीं नहीं लिखा कि राष्ट्रगान गाया जाना अनिवार्य है, और इसे न गाए जाने पर न गाने वाले के खिलाफ किसी तरह की कार्यवाही की जा सकती है. पर अब तो मोदी और योगी संविधान से कहीं ऊपर हैं. वे जो कह देते हैं, वही संविधान मान लिया जाता है, माहौल कुछ ऐसा ही बना दिया गया है.

मुसलमानों की छवि बिगाड़ने के लिए अव्वल तो यही हुक्म काफी था, पर आदित्यनाथ की भड़ास यहां रुकी नहीं. जेलों में जन्माष्टमी मनाए जाने पर आपत्ति कर वे भड़क कर बोले कि जब सड़क पर नमाज पढ़ना बंद नहीं किया जा सकता तो जेलों में जन्माष्टमी मनाना और कांवड़ यात्रा कैसे बंद कर दूं.

3 सालों से हिंदूवाद की यह ड्रामेबाजी तरहतरह से पेश किए जाने के अपने अलग माने हैं जिस से सरकार की नाकामियां और चुनावी वादे ढके रहें और आम लोग धार्मिक नारों व विवादों में उलझते यह भूल जाएं कि सरकार का असल काम क्या होता है. ये काम हैं जनता की बुनियादी जरूरतें पूरी करना, भूख मिटाना, भ्रष्टाचार खत्म करना, जातिगत और धार्मिक भेदभाव मिटाना और आम लोगों की शिक्षा व सेहत के लिए सटीक व सस्ती योजनाएं बनाना.

मुद्दों से भटकाव

खुलेतौर पर भाजपाराज का यह साइड इफैक्ट है कि आम लोगों का ध्यान उन के भले से जुड़े मुद्दों से भटकाया जा रहा है. बढ़ती महंगाई पर अब कोई बात नहीं करता. 3 वर्षों में कई रोजमर्राई चीजों के दाम बेतहाशा बढ़े हैं जिन में रसोई गैस, पैट्रोल, डीजल, चीनी, दाल और प्लेटफौर्म टिकट जैसी कई चीजें शामिल हैं.

लोग इस बाबत सवाल न करने लगें, इसलिए नमाज, कब्रिस्तान, राष्ट्रगान, भारत माता, कश्मीर समस्या और वंदेमातरम जैसे भावनात्मक रूप से भड़काऊ मुद्दों को कोई न कोई भाजपा नेता या आरएसएस का पदाधिकारी हवा दे देता है.

देशभर में लगातार धार्मिक स्टंट और शोबाजी बढ़ रही है. भोपाल शहर के न्यू मार्केट इलाके में गणेश की सोने की प्रतिमा की झांकी लगाई जा रही है. चंदे से भंडारों का आयोजन हो रहा है. क्ंिवटलों वजनी लड्डुओं का प्रसाद चढ़ा कर लोगों का ध्यान बंटाया जा रहा है. साथ ही, कई किलोमीटर लंबी चुनरी यात्राएं निकाली जा रही हैं.

यह प्रचार आस्था नहीं है, बल्कि धर्म से जुड़े मुद्दों को अब राष्ट्रवाद के नाम पर हवा दी जा रही है जिस से गोरखपुर के सरकारी अस्पताल में हुई 60 नवजातों की औक्सीजन की कमी से हुई मौतों को लोग भगवान की नाराजगी समझ स्वीकार लें. सड़क पर नमाज और जन्माष्टमी व कांवड़ यात्रा पर आदित्यनाथ भड़कते हैं तो आम गरीब, भूखानंगा हिंदू उन की फेकी अफीम चाट कर सो जाता है कि देश उस का ही है और उसी के धर्म की रक्षा कर रहा है और इस के लिए अभावों में रहना पड़े तो बात हर्ज की नहीं.

कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों के सर्वे वक्तवक्त पर स्पष्ट करते रहते हैं कि देश में गरीबी और बेरोजगारी बढ़ रही है, भ्रष्टाचार और घूसखोरी चरम पर है. पर ये बातें झांकियों और मंदिरों की जगमगाती लाइटों के बीच धुंधला कर दम तोड़ देती हैं. ‘आरती गाओ, भजनकीर्तन करो, भगवान की जय बोलो और भोले जैसे मस्त रहो, का पाठ

पढ़ाया जा रहा है जिस का नतीजा यह निकल रहा है कि मुसलमान और दूसरे अल्पसंख्यक वाकई में खुद को दोयम दरजे का समझने लगे हैं.

धर्म को राष्ट्र का पर्याय बना देने पर उतारू हो आई भाजपा कहां ले जा कर देश को छोड़ेगी, इस का अंदाजा किसी को नहीं. इसलिए भी लोगों का भरोसा भगवान और धार्मिक पाखंडों में बढ़ रहा है यानी अल्पसंख्यक ही नहीं बल्कि दलित व पिछड़े भी खुद को असुरक्षित महसूस करने लगे हैं. फर्क इतना है कि उन का डर अलग किस्म का है जो सदियों से चला आ रहा है.

इस की एक मिसाल बीती 22 अगस्त को मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले के एक स्कूल में देखने को मिली जब 6 साल की एक दलित बच्ची ने जल्दबाजी में स्कूल के बाहर ही शौच कर दिया. एक दबंग ने उस से हाथ से अपना मैला उठाने को मजबूर कर दिया था. ऐसे भेदभाव और प्रताड़ना भरे माहौल में कोई अपनी मरजी या खुशी से रहना चाहेगा, यह सोचना एक नादानी वाली बात है.

यह सब करने के लिए एक पूरी लौबी सक्रिय है जो एक नियमित अंतराल से दलितों को प्रताडि़त करती है और मुसलमानों को पीटपीट कर मारती है, क्योंकि वे दोनों कथित रूप से गाय का मांस खाते हैं या फिर उस की तस्करी करते हैं. छत्तीसगढ़ में कोई भाजपा नेता अपनी ही गौशाला में सैकड़ों गायों को भूखा मार कर उन्हें दफना डाले तो वह धर्म या गाय का गुनाहगार नहीं माना जाता क्योंकि वह मुसलमान नहीं है, वह तो हिंदू ही है.

इस भेदभाव से हामिद अंसारी की बात पर तिलमिलाहट का गहरा संबंध है. हामिद अंसारी जैसे लोग यह संदेश देने में कामयाब रहते हैं कि दरअसल, मुसलमानों की आड़ में हिंदुओं को बरगला कर भाजपा अपना हिंदू राष्ट्रवाद का एजेंडा थोप रही है. यह दरअसल, उस की प्रस्तावना है. इस निबंध के उपसंहार तक आतेआते तो नाजीवाद खुदबखुद आ जाएगा.

भूख, भय और भ्रष्टाचार के बाबत कोई सवाल न हो, इस के लिए नरेंद्र मोदी को भाजपा नेता भगवान कहते रहते हैं. भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह भोपाल में उन की चमत्कारिक छवि गढ़ते नजर आए तो एक पूर्व भाजपा सांसद कैलाश सारंग ने बाकायदा एक किताब ‘नरेंद्र से नरेंद्र तक’ का विमोचन अमित शाह से करवा कर साबित करने की कोशिश की कि ये नरेंद्र मोदी दरअसल, विवेकानंद के अवतार हैं जो 2024 तक भारत को विश्वगुरु बनवा देंगे.

तब तक लोगों को, बस, भाजपा को चुनते रहना है और इस बाबत कि त्याग तो उन्हें करना ही पड़ेगा. गरीब, दलित, आदिवासी और मुसलमान बच्चे न पढ़ पाएं, यह चिंता की बात नहीं. अस्पतालों में प्रसूताएं दम तोड़ें, यह भी हर्ज की बात नहीं. बातबात पर सरकारी दफ्तरों में घूस का बढ़ता चलन भगवान की मरजी है. दलित आदिवासी अपने कर्मों व जाति के चलते बेइज्जत किए जा रहे हैं. ये और ऐसी तमाम बातों का जिक्र प्रसंगवश हो जाता है वरना समस्या कुछ खास नहीं है. लोग राष्ट्रगान गाएं या आरती गाएं, तिरंगा फहराए या भगवा, वंदेमातरम बोलें या बमबम भोले बोलें, यह हिंदूवादी तय कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें सच छिपाने की जिम्मेदारी दी गई है.

रही बात असुरक्षा की, तो वह कहीं है ही नहीं. चारों तरफ भगवान हैं उन के रहते असुरक्षा की बात करना उन के अस्तित्व पर संदेह करना है जो कम से कम सवर्ण हिंदू तो नहीं कर सकता. सारे फसादों की जड़ मुसलमानों को बता कर उन्हें सलीके से रहने की हिदायत और धौंस दे दी जाती है. इस से सवर्ण हिंदुओं का पेट भर जाता है, उन के घरों में दूध की नदियां बहने लगती हैं, घर में बिजली मुफ्त में जगमगाने लगती है, गाडि़यों में डीजल, पैट्रोल मुफ्त के भाव भरा जाता है, खेत लहलहा उठते हैं, गैस का सिलैंडर महीनों चलता है और गरीबी गधे के सिर से सींग जैसे गायब हो जाती है.

2017 इसी तरह उत्तरायण हो रहा है और अभी और उम्मीद है कि धार्मिक नारों के शोर के बीच असल मुद्दे यों ही दबे रहेंगे. धार्मिक भेदभाव छोटीमोटी कंपनियों और रिहायशी कालोनियों तक में जा पहुंचा है. कुछ लोगों के लिए सुकून से जीने का बड़ा सहारा हालफिलहाल तो शायद है, लेकिन जब ये समस्याएं कैंसर की शक्ल में देश के शरीर पर मवाद बन कर फैलेंगी तब क्या होगा, यह कोई नहीं सोच पा रहा.

भाजपा ने किस विकास और अच्छे दिनों की बात की थी, यह सवाल अब कोई नहीं करता. बिहार विधानसभा में एक मुसलिम मंत्री खुर्शीद अहमद ने जेडीयूभाजपा गठबंधन के विश्वासमत हासिल करने के बाद जय श्रीराम का नारा लगाया था. इस पर फतवा जारी हो जाने पर उन्होंने माफी मांग ली थी, पर यह भी कहा था कि अगर जय श्रीराम बोलने से बिहार का विकास होता है तो मैं सुबह शाम जय श्रीराम बोलूंगा. ये मंत्रीजी चाहें तो विकास और तेज हो सकता है लेकिन इस के लिए उन्हें सुबहशाम नहीं, बल्कि पूरे चौबीसों घंटे रामराम रटना होगा.

अब सैपरेट लिविंग

क्या वाकई देश का मुसलमान उतना भयभीत और असुरक्षित हो चला है जितना कि हामिद अंसारी और कुछ बुद्धिजीवी हिंदू भी गागा कर या रोरो कर बताते रहते हैं. इस सच को नापने के लिए भले ही कोई तयशुदा पैमाना न हो, पर गौरक्षकों की हिंसा जैसे कई मसले किसी सुबूत के मुहताज नहीं.

आजादी के बाद देश गांवों में बसता था, जहां की बसाहट की अपनी अलग धार्मिक व जातिगत व्यवस्था थी और जो पूरी तरह अभी भी नहीं टूटी है. दलितों और मुसलमानों के महल्ले अलग हुआ करते थे. बात अगर नदी में नहाने या पानी भरने की भी हो, तो उन का नंबर सवर्णों के बाद आता था. शहरीकरण से बात कुछ संभलती दिखी. पर अब वह भी बिगड़ रही है और बिगाड़ने वाले धर्म के वही ठेकेदार व पैरोकार हैं जो 50-60 के दशक में हुआ करते थे. पर अब ये चूंकि सत्ता में हैं, इसलिए घोषित तौर पर फिर सनातनी व्यवस्था थोपने को आमादा हैं.

गुजरात के लिंबायत विधानसभा क्षेत्र की खूबसूरत नैननक्श वाली भाजपा विधायक संगीता पाटिल ने 22 अगस्त को एक बदसूरत बात यह कही कि उन के विधानसभा क्षेत्र में ‘डिस्टर्ब्ड एरिया ऐक्ट’ लागू किया जाए ताकि कोई भी मुसलमान, हिंदुओं के पड़ोस में घर न खरीद पाए. बकौल संगीता, मुसलमान लोग हिंदू सोसायटियों में जबरन घर खरीदते हैं और हिंदू अगर उन्हें घर न बेचें तो तरहतरह से उन्हें तंग करते हैं.

बात बहुत सीधी है कि यह विधायक हिंदू और मुसलमानों की अलगअलग बस्तियों की मांग कर रही है, जिस का मूल आधार धर्म ही है. हिंदू व मुसलमान अगर घुलमिल कर रहेंगे तो जरूर हिंदुत्व को खतरा है, इसलिए इन में वैमनस्य फैलाने की भाजपा हर मुमकिन कोशिश कर रही है. वह लोकतंत्र का गला बहुमत से घोंटना चाह रही है.

भोपाल का अशोका गार्डन इलाका भी मुसलिम बाहुल्य है जिस की एक नई पौश कालोनी में हिंदू और मुसलमानों के घर लगभग बराबर हैं.

2-3 वर्ष पहले तक हिंदुओं को खुद के हिंदू और मुसलमानों को अपने को मुसलमान होने का एहसास नहीं होता था, पर अब होने लगा है और यहां तक होने लगा है कि इन दोनों समुदायों के बच्चे पहले की तरह साथसाथ खेलते नजर नहीं आते.

यहां के रेलवे से रिटायर्ड एक मुसलिम बुजुर्ग की मानें तो अब अधिकतर मुसलमान अपने मकान बेच कर किसी मुसलिम बस्ती में जा कर बसने का मन बना रहे हैं. इस बुजुर्ग का दोटूक कहना है कि ऐसा नहीं है कि हम पर कोई बम फोड़ रहा हो या फिर जबरदस्ती झगड़ रहा हो, पर जाने क्यों, मन में एक डर सा समा गया है. हिंदुओं की नजरें और व्यवहार अब पहले जैसे नहीं रह गए हैं. बातबात में खासतौर से नरेंद्र मोदी और भाजपा को ले कर बहस छिड़ जाती है जिस पर हमें चुप रहने का एहसास करा दिया जाता है कि तुम तो मुसलमान हो उन का विरोध करोगे ही.

इस बुजुर्ग के मुताबिक, जिस महल्ले, पड़ोस, सोसायटी या शहर में हमारा सामाजिक बहिष्कार शुरू हो जाएगा वहां हमारा दम तो घुटेगा ही. क्या हमें बोलने की आजादी नहीं? क्या भाजपा दूध की धुली है या आसमान से उतरी कोई दैवीय पार्टी है जो हम उस के फैसलों व उसूलों पर एतराज नहीं जता सकते बावजूद इस के कि हम ने पिछले 2 चुनावों में भाजपा को ही वोट दिया था.

मौब लिंचिंग के बाद सैप्रेट लिविंग की यह नई व्यवस्था पनप रही है. संगीता पाटिल ने तो खुलेआम इस पर मुहर लगा कर यह जता दिया है कि अब आगेआगे देखिए, होता है क्या.

अर्थव्यवस्था : खोखली उपलब्धियों का बखान

अब केंद्र सरकार अर्थव्यवस्था के मोरचे पर बचाव की मुद्रा में खड़ी दिखाई देने लगी है. नोटबंदी और फिर जीएसटी को भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए वरदान होने का दावा करने वाले नेता बगलें झांकते दिखे. चारों ओर से विरोध के स्वर उठने के बाद सरकार को यूटर्न लेने पर मजबूर होना पड़ा. आखिर 10 नवंबर को गुवाहाटी में हुई जीएसटी काउंसिल की बैठक में सब से बड़ा बदलाव करना पड़ा. 211 कैटेगरी की वस्तुओं पर टैक्स घटाने के साथसाथ दूसरी रियायतें भी देनी पड़ीं.

अब तक 228 कैटेगरी की वस्तुओं पर 28 प्रतिशत टैक्स था. इन में से 178 पर टैक्स 18 प्रतिशत था यानी अब केवल 50 वस्तुओं पर 29 प्रतिशत टैक्स लगेगा. इस के बावजूद अनेक कारोबारी अब भी संतुष्ट नहीं हैं.

मजे की बात है कि अब ये चीजें सस्ती होंगी, महंगी क्यों हुई थीं, किस ने कीं और अब सस्ती कौन करेगा? जीएसटी काउंसिल ने माना है कि छोटे और मझोले उद्योग क्षेत्र में मुश्किलें आ रही हैं, पर अब तक जिन लोगों को नुकसान हो चुका है, वे उबर पाएंगे, कोई गारंटी नहीं है. अब भी अनेक कारोबारों से जुड़े सामानों मसलन सीमेंट, वार्निश, पेंट पर पहले जैसा 28 प्रतिशत टैक्स रखा गया है.

जीएसटी काउंसिल की बैठक में यह भी तय हुआ कि जिन कारोबारियों पर टैक्स की देनदारी नहीं है उन्हें देरी से रिटर्न फाइल करने पर रोजाना सिर्फ 20 रुपए जुर्माना देना होगा. जिन पर देनदारी है उन्हें रोजाना 50 रुपए देना पड़ेगा. अभी यह सब पर 200 रुपए था. पर कोई लाभ नहीं क्योंकि इस से व्यापारियों पर जो मानसिक दबाव की स्थिति थी वह तो अब भी बरकरार रहेगी. 200 रुपए से घटा कर 50 या 20 रुपए करने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा. ट्रेडर्स संगठनों का मानना है कि टैक्स रेट घटाने और कंपोजीशन की लिमिट 75 लाख रुपए से 1.5 करोड़ रुपए करने से 34 हजार करोड़ रुपए के राजस्व का नुकसान होगा.

रसातल में अर्थव्यवस्था

सरकार यह राजस्व कहां से जुटाएगी? उसे कहीं न कहीं से भरपाई करनी होगी. वह कारोबारियों और आम जनता से ही वसूल करेगी. इसलिए इस फैसले से फायदे की गुंजाइश कम ही है. कंपोजीशन मैन्युफैक्चरर के लिए टैक्स 2 प्रतिशत से घटा कर 1 प्रतिशत किया गया है. ट्रेडर्स के लिए 1 प्रतिशत टैक्स में बदलाव नहीं. टर्नओवर में कर टैक्सेबल और नौन टैक्सेबल दोनों वस्तुएं शामिल होंगी पर टैक्स सिर्फ टैक्सेबल गुड्स पर देना पड़़ेगा. बस यह बढ़ोतरी का फैसला गुजरात चुनावों के बाद होगा. नतीजा चाहे जो भी हो.

इस फैसले से पारदर्शिता, भ्रष्टाचार और बेईमानी पर असर नहीं होगा. रिटेल इंडस्ट्री में ग्रोथ बढ़ेगी, इस बात की गारंटी नहीं है.

सरकार ने जाली करैंसी और कालाधन रोकने का लक्ष्य घोषित किया था पर दोनों ही काम नहीं हुए. कालेधन का बड़ा हिस्सा कहीं न कहीं लगा होता है, सर्कुलेशन में होता है, इसलिए नोटबंदी से कालाधन खत्म नहीं हुआ. सरकार के पास कोई आंकड़ा नहीं है. उलटे, नए नोटों को छापने में 30 हजार करोड़ रुपए खर्च हुए थे. जनता के काम के लाखोंकरोड़ घंटे जो बरबाद हुए उन घंटों के नुकसान का तो अंदाजा ही नहीं लगाया जा सकता.

पिछले साल नवंबर में नोटबंदी और इस साल जुलाई में जीएसटी लागू होने के बाद सरकार ने बारबार चुनावी लहजे में कहा था कि अब अर्थव्यवस्था की दशा सुधरने लगेगी, पर दीवाली आतेआते व्यापारियों, किसानों, कर्मचारियों, मजदूरों और आम लोगों के सब्र का बांध टूटने लगा और जहांतहां उन का आक्रोश जाहिर होने लगा. गिरती अर्थव्यवस्था की तपिश लघु एवं मध्यम उद्योग समूह भी महसूस करने लगे थे. सोशल मीडिया पर तो प्रधानमंत्री के जुमलों की खूब बखिया उधेड़ी जाने लगी.

अर्थव्यवस्था रसातल में जाती दिखने लगी. तमाम सरकारी आंकड़ों और विदेशी सर्वे रिपोर्टों में भी सरकार के दावों की पोल खुलने लगी. वित्त वर्ष 2017 की पहली तिमाही में जीडीपी 3 साल के सब से निचले स्तर 5.7 फीसदी पर पहुंच गई. पिछली तिमाही में यह 6.2 प्रतिशत थी और उस से पहले 7.0 थी जबकि 2016-17 के वित्त वर्ष की पहली तिमाही में जीडीपी में वृद्धि 7.9 फीसदी के स्तर पर थी.

अगर 2007-08 के आंकड़ों के आधार पर अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर को आंका जाए तो यह दर 3.7 प्रतिशत के आसपास तक गिर गई है. पूर्व वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा यही बात कह रहे हैं तो उन्हें महाभारत के पात्र शल्य कह दिया गया. हालांकि शल्य को कौरवों के साथ भेजने की साजिश कृष्ण ने ही रची थी.

पिछले 2 महीनों को छोड़ दें तो देश का आयातनिर्यात पिछले 20 महीनों में लगातार गिरा है. इस वर्ष 15 लाख लोगों को रोजगार से हाथ धोना पड़ा है. निजी निवेश गिर रहा है. औद्योगिक उत्पादन घट रहा है. कृषि संकट में है. निर्माण और दूसरे सर्विस सैक्टर्स की रफ्तार कमजोर हुई है. आयातनिर्यात दिक्कतें झेल रहा है.

नोटबंदी व जीएसटी की मार

गिरती अर्थव्यवस्था के बड़े कारणों में नोटबंदी और जीएसटी प्रमुख हैं. पिछले साल नवंबर में नोटबंदी की घोषणा के बाद देश में 86 प्रतिशत नकदी को अवैध करार दे दिया गया था. जिस के बाद देश में हलचल मच गई. लाखों लोग बेरोजगार हो गए. लाखों व्यापार ठप हो गए. इस दौरान निम्नवर्ग के लोगों पर इस का बुरा असर पड़ा था.

इस के बावजूद जुलाई 2017 में जीएसटी लागू किया गया. इस के लिए काफी सारी कंपनियां तैयार नहीं थीं. बहुत सी कंपनियों ने तो अपने स्टौक को कम कीमत पर बेच दिया. नाराज व्यापारियों का कहना था कि पहले जब केंद्र से कहा गया कि ज्यादा जीएसटी से आम लोगों और छोटे कारोबारियों पर बोझ बढे़गा तो सरकार ने उन की बात नहीं सुनी. अब जब गुजरात के छोटे व्यापारी नाराज हो कर सड़कों पर उतरे तो सरकार टैक्स घटाने पर राजी हुई, क्योंकि वहां चुनाव जो होने जा रहा है.

जीएसटी लागू होने के बाद राज्यों का टैक्स कलैक्शन कम हुआ है. सिर्फ 5 राज्यों ने राजस्व नुकसान न होने की बात कही है. बाकी सभी ने मुआवजा मांगा. देशभर के व्यापारी जीएसटी की जटिलता का रोना रो रहे हैं.

विश्व बैंक की ईज औफ डूइंग बिजनैस की रैंकिंग में भारत भले ही 30 पायदान ऊपर आ गया पर व्यापार और अर्थव्यवस्था से जुड़े कई इंडैक्स में देश अभी काफी पीछे है. ह्यूमन डवलपमैंट में भारत 188 देशों में 131वें, इकोनौमिक फ्रीडम में 186 देशों में 143वें, ग्लोबल पीस इंडैक्स में 163 देशों में 137वें स्थान पर ही है.

पिछले साल ग्लोबल हंगर इंडैक्स में 119 देशों में 97वें नंबर पर रहने वाला भारत अब 3 पायदान नीचे खिसक कर 100वें स्थान पर पहुंच गया. वैश्विक स्तर पर महाशक्ति बनने की राह पर बताने वाले भारत के लिए यह रिपोर्ट चिंताजनक तसवीर पेश करने वाली है.

ग्लोबल हंगर इंडैक्स की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में भूख अब भी एक गंभीर समस्या है. ग्लोबल हंगर इंडैक्स भुखमरी को मापने का एक पैमाना है जो वैश्विक, राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर पर भुखमरी को प्रदर्शित करता है. अंतर्राष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्थान द्वारा प्रतिवर्ष जारी किए जाने वाले इस इंडैक्स में उन देशों को शामिल नहीं किया जाता जो विकास के एक ऐसे स्तर पर पहुंच चुके हैं जहां भुखमरी नगण्य है. इन में पश्चिम यूरोप के अधिकांश देश, अमेरिका, कनाडा आदि शामिल हैं.

बैंकों पर असर

देश में बढ़ता एनपीए यानी डूबत बैंक कर्ज साढ़े 9 लाख करोड़ रुपए के रिकौर्ड स्तर पर पहुंच गया. यह दिसंबर 2014 में 2.61 लाख करोड़ रुपए था. विशेषज्ञों ने कहा कि यह आंकड़ा इतना बड़ा है कि इसे समझने के लिए इतना ही काफी है कि यह पैसा तेल संपदा के धनी कुवैत जैसे देशों सहित कम से कम 130 देशों के सकल घरेलू उत्पाद में शामिल पैसों से अधिक है. यह नरेंद्र मोदी सरकार की आर्थिक समस्याओं को न समझ पाने की भक्ति की पोल खोलती है.

डूबत बैंक कर्ज यानी एनपीए के इस दलदल में बिजली, दूरसंचार, रियल्टी और इस्पात जैसे भारी पूंजी वाले क्षेत्र भी गहरे तक धंसे हुए हैं. जब ऐसे क्षेत्र कर्ज के भारी बोझ से दबे होंगे तो फिर ये भारत के बुनियादी ढांचे में बढ़ोतरी में मदद कैसे कर सकते हैं. बुनियादी ढांचे में ही विस्तार से देश की प्रगति हो सकती है. पर देश का नेतृत्व तो गाय, योगा और ताजमहल में अपने को उलझा कर रख रहा है.

देश में औद्योगिक उत्पादन की बात करें तो सितंबर में अगस्त की तुलना में औद्योगिक उत्पादन कम रफ्तार से बढ़ा. सितंबर माह में औद्योगिक उत्पादन सूचकांक यानी आईआईपी 3.8 प्रतिशत दर्ज हुआ. अगस्त महीने में यह 4.3 प्रतिशत दर्ज हुआ था जबकि एक साल पहले सितंबर माह में इस में 5 प्रतिशत की ग्रोथ देखने को मिली थी.

गैडफ्लाई के एक विश्लेषण में बताया गया कि भारत को पिछले 4 वर्षों से निजी क्षेत्र के निवेश में सूखे जैसे हालात का सामना करना पड़ रहा है. गिरती अर्थव्यवस्था का असर लघु एवं मध्यम उद्योग समूह भी महसूस कर रहे हैं.

एनपीए लगातार बढ़ता रहा. इस बढ़ोतरी पर चिंता व्यक्त की जाती रही. छोटे व्यापारियों से लोन की वसूली में बैंक उन का खून पी लेते हैं पर बड़े लोन में बैंक अक्षम साबित होते हैं.

सरकार मानती है कि बैंकों का बढ़ता एनपीए यानी बड़े लोगों से पैसे वसूल करना बड़ी चुनौती है. वित्त मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, वित्त वर्ष 2016-17 के अंत तक विलफुल डिफौल्टर यानी जानबूझ कर कर्ज न चुकाने वालों पर सार्वजनिक बैंकों का 92,376 करोड़ रुपए का बकाया था.

भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर उर्जित पटेल ने कहा था कि बैंकों का फंसा कर्ज 9.6 प्रतिशत तक तय सीमा से अधिक पहुंच जाने पर समस्या को सुलझाने के लिए सार्वजनिक बैंकों में नई पूंजी डालने की जरूरत है. बाद में बैंकों को यह पूंजी दी गई. यह एक तरह का बेलआउट था.

गिरती अर्थव्यवस्था पर भाजपा के ही नेता व पूर्व वित्तमंत्री यशवंत सिन्हा ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और वित्तमंत्री जेटली पर निशाना साधा था. भाजपा से जुड़े अरुण शौरी और सुब्रह्मण्यम स्वामी भी कुछ ऐसा ही बोलते रहे हैं. यशवंत सिन्हा ने कहा था कि मौजूदा समय में न तो युवाओं को रोजगार मिल पा रहा है और न ही देश में तेज रफ्तार से विकास हो रहा है. निवेश लगातार गिर रहा है. इस की वजह से जीडीपी भी घटती जा रही है. जीएसटी की वजह से कारोबार और रोजगार पर विपरीत असर पड़ रहा है.

आर्थिक डिप्रैशन में देश

भाजपा सांसद सुब्रह्मण्यम स्वामी यह भी कह चुके हैं कि देश की अर्थव्यवस्था आने वाले समय में और गिर सकती है और देश आर्थिक डिप्रैशन में जा सकता है.

मई 2014 में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आए थे तब लोगों की राय बंटी हुई थी कि वह हिंदुत्ववादी मुखौटे में आर्थिक सुधारक हैं या आर्थिक सुधारक के मुखौटे में एक हिंदुत्ववादी? पिछले साढे़ 3 वर्षों में लोगों को पता चलने लगा कि मोदी सरकार ने बारबार धार्मिक भावनाओं को बढ़ावा दिया है. देश की सब से बड़ी आबादी वाले उत्तर प्रदेश में कट्टर हिंदू नेता योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनाया. गौरक्षा, दलितों और मुसलमानों पर हमले, मंदिर निर्माण जैसे मुद्दे छाए रहे. आर्थिक सुधारों की बातें तो केवल जुमला साबित हुई हैं, उन का एक भी अपना मौलिक आर्थिक प्रयास अब तक सफल नहीं हुआ है.

वास्तव में मोदी हिंदू कट्टरपंथियों और कौर्पोरेट के समर्थक साबित होंगे. उन की सरकार ने गोमांस निर्यात व्यापार को ले कर उग्रता दिखाई और मवेशियों की खरीदबिक्री का नया कानून बना दिया. मोदी के अधीन हिंदू राष्ट्रवादी धंधेबाजों का काम सरपट तेजी से चलने लगा है. ये लोग उन लोगों को डराने लगे जो सरकार के खिलाफ बोलते या लिखते हैं ताकि उन के व्यापार पर अंकुश न लगे.

नोटबंदी और जीएसटी का मोदी कोई नए विचार ले कर नहीं आए. नोटबंदी से भ्रष्टाचार, कालेधन का कुछ नहीं बिगड़ा. उलटे, उत्पादन और व्यापार का भारी नुकसान हुआ है. नारों के अलावा नरेंद्र मोदी के कोई भी आर्थिक कदम कारगर नहीं हैं.

जीएसटी से छोटे और मझोले व्यापारियों की कमर टूट गई. हर महीने इस का रिटर्न दाखिल करने की बाध्यता ने व्यापारियों को सांसत में डाल दिया. हालांकि बाद में सरकार ने डेढ़ करोड़ रुपए तक का व्यापार करने वालों को हर तिमाही पर रिटर्न दाखिल करने की छूट दे दी. अब कुछ और रियायतें भी दी गई हैं. यह एक तरह से पंडेपुजारियों के हवाले व्यापार करना है. फर्क इतना है कि पोथी की जगह पंडे कंप्यूटर ले कर बैठे हैं.

जीएसटी से छोटे उद्योगों को नुकसान कैसे हो रहा था? एक विशेषज्ञ बताते हैं कि मान लीजिए, किसी शहर के इंडस्ट्रियल एरिया में 7 चाय की दुकानें और 6 खाने के ढाबे चलते हैं. चाय की दुकान पर 1-1 लड़का और ढाबे पर 4-4 लोग काम करते हैं. कुल 31 लोगों को काम मिला हुआ है. मालिकों को मिला लिया जाए तो कुल 44 लोगों को रोजगार मिला हुआ है. जीएसटी लागू होने के बाद इन 11 इकाइयों की जगह 3 फास्टफूड आउटलेट खुल गए. हर आउटलेट पर 4-4 कर्मचारियों को रोजगार मिला. इलाके में चाय और खाने की आपूर्ति पर कोई असर नहीं पड़ा, पहले की तरह जारी रही पर रोजगार पर विपरीत असर पड़ा. पहले 44 कर्मी कमातेखाते थे. अब 12 कर्मी कमाएंगे खाएंगे. 29 लोग बेरोजगार हो गए.

इन 29 लोगों द्वारा बाजार से कपड़े, जूते, साइकिल आदि नहीं खरीदे जाएंगे. इस से संपूर्ण बाजार में मांग में गिरावट आएगी. इस तरह जीएसटी द्वारा छोटे उद्योगों पर हुए प्रहार का असर पूरी अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा. बड़े उद्योगों को बाजार चाहिए. यह बाजार छोटे उद्यमों द्वारा बनता है. छोटे उद्योगों की बलि चढ़ा कर बड़े उद्योग अछूते नहीं रहेंगे.

भारत में बस एक इंडस्ट्री फेल नहीं है और वह है भारतीय मजदूरों को विदेशों में नौकरी. अमेरिका जैसे देश के पाबंदी के नियमों के बावजूद देश के बेरोजगार बड़ी संख्या में बाहर जा रहे हैं. वे अपने परिवार को भी ले जाते हैं और फिर कुछ समय बाद वहीं बस जाते हैं.

दुखड़ा रोए तो किस के पास

दिल्ली की त्रिनगर मार्केट में किराने के सामान से ले कर कपड़ा और फुटवेयर तक घर में काम आने वाले हर सामान का व्यवसाय है. इन के साथसाथ ब्याहशादियों के लिए यह कपड़े का अच्छा मार्केट माना जाता है.

त्रिनगर में 10/7 की दुकान में एक युवा व्यापारी अनुज चौहान की परचून की दुकान है. वह कहता है, ‘‘नोटबंदी के बाद पैसों की तंगी आ गई. पहले दुकान में पूरा सामान भरा रहता था पर अब आधा माल भी नहीं है. माल के बिना बिक्री कहां से होगी. ग्राहक आते हैं, सामान पूछते हैं पर जो सामान वह चाहता है, दुकान में नहीं होता तो ग्राहक लौट जाता है. पहले ऐसा नहीं होता था. ग्राहक की मांग पर हर सामान उपलब्ध रहता था. अब बिना माल के खाली बैठे रहते हैं. दीवाली पर पैसे उधार ले कर माल डलवाया पर ज्यादा फायदा नहीं हुआ. नोटबंदी और जीएसटी से पहले कामधंधा ठीक था.’’

साड़ी, सूट के व्यापारी मनोज गुप्ता कहते हैं, ‘‘नोटबंदी और जीएसटी का असर उन के धंधे पर पड़ा है. बिक्री घट गई. नोटबंदी से उबरे तो जीएसटी का भय हम पर हावी है. जीएसटी अभी समझ ही नहीं आ रही है. जानकारों से जानने की कोशिश कर रहे हैं. अपना काम जानकार से करा रहे हैं.’’

चूडि़यों की दुकान चलाने वाले इस्माइल कादिर कहते हैं, ‘‘हमारा काम छोेटे नोटों के सहारे चलता है. नोटबंदी से नोटों की किल्लत हो गई तो काम एकदम चौपट हो गया. फिर धीरेधीरे 500 और 2 हजार रुपए के नए नोट आए तो भी बुरा हाल रहा. छुट्टे रुपए

की दिक्कत आई. अब हालात ठीक होने की गुंजाइश दिखती है पर नएनए नियमकायदों से कारोबार सुरक्षित नहीं दिखता.’’

बच्चों के रेडिमेड कपड़ों के व्यापारी महेश जैन कहते हैं, ‘‘हम व्यापारियों के लिए तो अनगिनत समस्याएं हैं. सरकार के नएनए कानूनों का सब से ज्यादा असर व्यापारी को झेलना पड़ता है. खुदरा कारोबार पर नोटबंदी का ज्यादा असर पड़ा. अब जीएसटी से निबट रहे हैं. इन फैसलों से धंधा कम हुआ है. जीएसटी से नफानुकसान का आकलन अभी किया नहीं. पर इसे ले कर मानसिक परेशानी ज्यादा बढ़ गई है.

इस मार्केट की दुकानों के दरवाजे आज भी शीशे के नहीं हैं. दुकानों के आगे गाडि़यां नहीं हैं. ये घरेलू सामान बेचते हैं. जब इन दुकानों की स्थिति ठीक नहीं है तो देश की कहां से होगी. देश में हर छोटे, मझोले दुकानदार की हालत तकरीबन ऐसी ही है. नरेंद्र मोदी इन्हें ही कालाबाजारी कहकह कर कोस रहे हैं. इन्हीं से टैक्स वसूल रहे हैं ताकि सरकार चले. पंडे उन्हीं के बल पर मंदिरों की अपनी दुकानें चलाते हैं और उन्हीं के पापों को पुण्यों में बदलते हैं.

व्यापारी फिर भी भाजपा को वोट देंगे, क्योंकि वह ही हिंदुओं की संरक्षक है, हिंदुत्व की बात करती है और व्यापारी समझते हैं कि उन का पैसा भगवान की गुल्लक से आता है, अपनी मेहनत से नहीं.

बिगड़ रहे हैं हालात

असल में यह दोष प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी या वित्तमंत्री अरुण जेटली का नहीं है, उस जनता का है जो चमत्कार में विश्वास करती है. नोटबंदी लागू हुई तो लोग दिनरात लाइनों में लगे रहे. इस उम्मीद से कि अब तो मोदी सारा कालाधन ला कर उन के खातों में डाल देंगे. जीएसटी से लगा कि अब टैक्स चोरी रुक जाएगी. चमत्कार होगा और जनता का भविष्य सुधर जाएगा लेकिन पिछले साढ़े 3 वर्षों में क्या कोई करिश्मा हुआ?  क्या लोगों की दशा सुधरी? लफ्फाजी खूब हो रही है पर हालात जस के तस ही नहीं है बल्कि ज्यादा बिगड़ रहे हैं.

अब नोटबंदी और जीएसटी की मार असहनीय हो गई तो लोग कराहने लगे. अगर गुजरात विधानसभा के चुनाव न आते और वहां लोगों की चीखपुकार सुनाई न पड़ती तो सरकार के कानों पर जूं तक न रेंगती. चारों ओर होहल्ले के बाद सरकार को जीएसटी की दरें कम करने पर मजबूर होना पड़ा सिर्फ चुनावों तक. चुनाव बाद सरकार फिर अपने रंग में रंग जाएगी.

नोटबंदी और जीएसटी एक नया ब्राह्मणवाद है. यह आर्थिक, सामाजिक विभाजन है. इस से गैरबराबरी पैदा हो रही है. छोटे, मझोले व्यापारी, जो निचले तबकों से आते हैं, बरबादी की कगार पर जा पहुंचे.

देशभर से ऐसे लाखों व्यापारियों की दुकानों पर ताले लग गए. दुकानदार सड़कों पर आ गए. सरकार द्वारा अब टैक्स घटाने के फैसले से भी उन के बीते दिन वापस नहीं आ सकते. एक तरफ सब से अधिक खरबपति हमारे देश में हैं जबकि दूसरी ओर भुखमरी से तबाह और कुपोषित आबादी और गरीब मर रहे हैं. यह कैसा विकास है और किस का विकास है?

देश अपनी जीडीपी की दर की रफ्तार या शेयर सूचकांक की उछाल से महान नहीं बनेगा. व्यापार में आसानी, छोटे, मझोले व्यापारी और उद्योग समूह पर ज्यादा ध्यान, उन के साथ समानता और उत्थान की नीतियों से उन की प्रगति तय होगी. सरकार है कि इस कुव्यवस्था के बावजूद अर्थव्यवस्था की खोखली उपलब्धियों का बखान किए जा रही है.

छेड़खानी बड़ी परेशानी : योजनाओं से नहीं होगा समस्या का समाधान

‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ का नारा देना और बेटियों को समाज में सुरक्षा देना दोनों ही अलगअलग मुद्दे हैं. आज लड़कियां लड़कों के कंधे से कंधा मिला कर चल रही हैं. कई जगह तो वे हुनर में लड़कों से आगे हैं. पुरुषवादी समाज इस बात को स्वीकार करने को तैयार नहीं है.

रात में अकेले सफर करती लड़की हो या बाइक चलाती लड़की, देखने वाले इन को अलग नजरों से ही देखते हैं. हद तो तब हो गई जब 11 नवंबर को उत्तर प्रदेश के कानपुर के चंदारी स्टेशन के पास ट्रेन में छेड़खानी से परेशान हो कर एक महिला अपनी बेटी के साथ चलती ट्रेन से कूद गई. पढ़ाई से ले कर नौकरी करने की जरूरतों में होस्टल में रह रही लड़कियों को सहज, सुलभ मान लिया जाता है.

मजेदार बात यह है कि घरपरिवार, मकानमालिक, कालेज प्रबंधन और पुलिस तक से शिकायत करने पर गलत लोगों के खिलाफ कड़े कदम उठाए जाने के बजाय लड़कियों को नैतिक शिक्षा दी जाने लगती है. यही वजह है कि छेड़खानी आज सब से बड़ी परेशानी बन कर उभर रही है. बहुत सारे कड़े कानूनों के बाद भी हालत सुधर नहीं रही है.

वाराणसी के बीएचयू यानी बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में छेड़खानी की परेशानी को हल करना कुलपति प्रो. जी सी त्रिपाठी ने उचित नहीं समझा. छेड़खानी का विरोध कर रही लड़कियों पर ही लाठियां बरसा दी गईं. कुलपति से ले कर जिला प्रशासन, पुलिस, प्रदेश सरकार और केंद्र सरकार तक ने छेड़खानी के मुद्दे को दरकिनार कर घटना को राजनीतिक रंग देने का काम किया. इस के बाद भी सरकार और समाज के जिम्मेदार लोग कहते हैं कि लड़कियां छेड़खानी जैसे मसलों पर चुप क्यों रहती हैं, उन को शिकायत करनी चाहिए.

जिस लड़की ने बनारस में छेड़खानी का विरोध करने वाली लड़कियों की बात को दबाने के इन तरीकों को देखा होगा वे कभी दोबारा ऐसी आवाज को उठाने का साहस नहीं कर पाएंगी. बीएचयू के होस्टलों में रहने वाली लड़कियों को जिस तरह की प्रताड़ना का शिकार होना पड़ता है वैसे हालात कमोबेश कमज्यादा पूरे देश में हैं.

बहुत सारे उपायों के बाद भी हालात बदलते नहीं दिख रहे हैं. कालेजों के होस्टल में रहने वाली लड़कियों के मुकाबले घरों से पढ़ने वाली लड़कियों को ज्यादा अच्छा माना जाता है. किसी भी तरह की गलती के लिए होस्टल में रहने वाली लड़की को ही दोष दिया जाता है.

दूषित सामाजिक नजरिया

उत्तर प्रदेश में जब अखिलेश यादव की सरकार थी, छेड़खानी रोकने के लिए महिला हैल्पलाइन ‘वूमेन पावर लाइन 1090’ की शुरुआत की गई थी. यहां पर मोबाइल फोन नंबरों पर परेशान करने वाले के खिलाफ कार्यवाही की जाती थी. इस हैल्पलाइन नंबर पर भी धीरेधीरे संवेदनशीलता खत्म हो गई. कई बार शिकायत करने वाली लड़कियों को सलाह दी जाती थी कि वे अपना मोबाइल नंबर ही बदल लें. यह ठीक वैसी ही सलाह है जैसी कालेज में शिकायत करने वाली लड़की को वहां दी जाती है.

एक कालेज के होस्टल में रह रही दीपा कुमारी कहती है, ‘‘हमारे कमरों का दरवाजा सड़क के किनारे खुलता है. होस्टल में बाउंड्री बनी होने के बाद भी दूर खड़े लड़के गंदेगंदे इशारे करते हैं. कई बार वे सड़क किनारे हस्तमैथुन करते दिखते थे. यह बात जब हम ने अपने होस्टल में बताई तो हमारे कमरे की खिड़की को ही बंद करवा दिया गया. चेतावनी दी गई कि हम उधर देखेंगे तो सजा दी जाएगी, घर में मातापिता को चिट्ठी लिख दी जाएगी.’’

वूमेन पावर लाइन 1090 ने महिलाओं और लड़कियों के साथ हुई छेड़छाड़ की घटनाओं का अध्ययन करने के बाद पाया कि इस तरह के अपराध करने वालों में बड़ी उम्र के लोगों से ले कर घरपरिवार, दोस्त और नातेरिश्तेदार तक शामिल होते हैं. स्कूलकालेज में ही नहीं, घरपरिवारों में भी ऐसी घटनाओं से बचने के लिए लड़कियों पर ही अलगअलग तरह के प्रतिबंध लग जाते हैं.

गांवों में देखें तो अधिकतर लड़कियों की पढ़ाई इसलिए बंद करा दी जाती है कि उन के साथ ऐसी कोई घटना न घट सके. इसी डर की वजह से लड़कियों की कम उम्र में शादी तक कर दी जाती है.

समाजशास्त्री डाक्टर रीना राय कहती हैं, ‘‘जब हम ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ की बात करते हैं तो यह समझना चाहिए कि लड़कियों की भू्रणहत्या का बड़ा कारण उन की सुरक्षा होती है. लोगों को लगता है कि बेटी के साथ ऐसा कुछ हो गया तो समाज में नाक नीची हो जाएगी. इस कारण उन को पैदा ही मत होने दो. यह मुहिम तभी सफल हो सकती है जब लड़कियों को सामाजिक सुरक्षा दी जाए. छेड़छाड़ जैसी घटनाओं के होने पर लड़की को दोष न दिया जाए. इस तरह की घटनाएं होने पर बड़ेबड़े लोग लड़कियों के पहनावे, आचारविचार को ही दोष देते हैं. ऐसे में लड़कियों में डर और हीनभावना भर जाती है.

कई बार वे अपनी बात कह ही नहीं पातीं. इस का छेड़छाड़ करने वाले लाभ उठाते हैं. अगर लड़की अपनी परेशानी घटना के शुरू होने पर ही लोगों को बता दे तो इस को रोकना सरल हो जाता है. इस के लिए समाज और परिवार को लड़की का साथ देना होगा जिस से उस में साहस आ सके.’’

थाने में शिकायत करने पर लड़की को ही समझाया जाता है कि इस तरह की शिकायत से बदनामी होगी और उस की शादी होने में दिक्कत आएगी. ऐसे डर दिखाए जाते हैं. परेशानी की सब से बड़ी वजह यह है कि इस तरह की घटनाओं की शिकार लड़की को ही बदचलन मान लिया जाता है. यहां तक कि घर के लोग लड़की को साहस देने की जगह, उस को शक की नजर से देखने लगते हैं.

ऐसे में लड़की इस तरह की घटनाओं को बताने में संकोच करती है. वह तब तक ऐसी परेशानी छिपाती है जब तक छिपा सकती है. घटना छिपाने की यह प्रवृत्ति ऐसे अपराध करने वालों का साहस बढ़ाती है. इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रही निशा कहती है, ‘‘मेरे होस्टल में रहने को ले कर तमाम विरोध था. करीबी लोग ही कहते थे कि इस से मैं बिगड़ जाऊंगी. जब मैं अकेले सफर करती थी तो लोग ऐसे देखते थे जैसे मैं कोई अजूबा हूं.’’

गांव की हालत खराब

शहरों में रहने वाले परिवारों की सोच तो थोड़ा बदल भी रही है पर गांव में रहने वालों की सोच अभी भी वही है. रामपुर गांव में लड़कियों के लिए कक्षा 8 तक का ही स्कूल था. इस के बाद लड़कियों की पढ़ाई बंद करा दी जाती थी. हर जाति के परिवार अपनी लड़कियों के साथ वैसा ही व्यवहार करते थे. 1-2 परिवार ऐसे थे जिन के घरों में सुविधा थी. वे अपने घरों की लड़कियों को शहरों में रहने वाले अपने किसी रिश्तेदार के घर भेज देते थे.

दलित परिवार में रहने वाली मीना को पढ़ने का बहुत शौक था. उस के परिवार वाले भी चाहते थे कि मीना अपनी पढ़ाई पूरी करे. इस कारण वह अपने घर से 10 किलोमीटर दूर साइकिल से पढ़ने जाने लगी. इस बात को ले कर गांव के लोग तरहतरह के सवाल करने लगे. जब मीना अपनी पढ़ाई पूरी कर के नौकरी करने लगी तो लोगों ने उस की तारीफ करनी शुरू की.

होस्टल में रहने वाली लड़कियों को गांव में अच्छा नहीं माना जाता. जो परिवार अपनी लड़की का साथ भी देते हैं उन के लिए कहा जाता है कि वे अपनी लड़कियों को बिगाड़ रहे हैं.

यही वजह है कि आज भी गांव में लड़कियों की शादी जल्दी कर दी जाती है. आज के समय में गांव में शहरों की लड़कियां जा कर स्कूलों में नौकरी कर रही हैं. गांव की लड़कियों को वहां रोजीरोजगार इसलिए नहीं मिल रहा है क्योंकि वे अपनी पढ़ाई पूरी नहीं करतीं. उन की पढ़ाई केवल शादी होने तक ही होती है.

गांव की लड़कियों का शोषण अधिक होता है. धर्म के नाम पर सब से अधिक शोषण गांव की लड़कियों, औरतों का होता है. बाबाओं द्वारा इन औरतों को ही सब से अधिक निशाने पर रखा जाता है. यह सोचना पूरी तरह से गलत है कि पढ़ीलिखी लड़की बिगड़ सकती है. आज समय बदल रहा है. ऊंची पढ़ाई के लिए अब लड़कियों को शहर में जाने की जरूरत होती है.

छेड़छाड़ का सामना वैसे तो हर उम्र और आर्थिक स्तर की महिलाओं को करना पड़ता है लेकिन कामकाजी महिलाओं और होस्टल में रहने वाली लड़कियों को ले कर पुरुषों की मानसिकता ज्यादा दूषित होती है. सही मानो में लड़कियों को ज्यादा परेशानियों से मुकाबला करना होता है. जरूरत इस बात की होती है कि इन को समाज और घरपरिवार का पूरा साथ और सहयोग मिले.

कानून इन की हिफाजत करे. शिकायत होने पर इन को नैतिकता का पाठ पढ़ाने की जरूरत नहीं बल्कि कानून का पालन किए जाने की जरूरत होती है. गर्ल्स होस्टल को ले कर तमाम तरह की चटपटी बातें समाज में होती हैं. इन का प्रभाव लड़कों पर भी पड़ता है. ऐसे में लड़के यहां रहने वाली लड़कियों को आदर की नजर से नहीं देखते. इस वजह से छेड़छाड़ बढ़ती जा रही है. आज के समय में लड़कियों का होस्टल में रहना मजबूरी है. ऐसे में समाज को होस्टल में रहने वाली लड़कियों को ले कर सोच बदलनी होगी.

धार्मिक कहानियों का प्रभाव

आम जनमानस में धर्म और उस की कहानियों का बहुत प्र्रभाव पड़ता है. औरत को एक वस्तु के रूप में प्रयोग किया जाता रहा है. मर्द के गलत काम करने के बाद भी औरत को ही सजा मिलती थी. अहल्या और गौतम ऋषि का प्रकरण इस बात को सब से मजबूती से पेश करता है. इंद्र ने अहल्या के साथ छल किया. इस के बाद भी गौतम ऋषि ने अहल्या को पत्थर बनने का श्राप दे दिया. रामायण की कहानियों में सीता के उदाहरण को देखें तो अग्निपरीक्षा देने के बाद भी उन पर शक किया गया. राम को सच का पता था पर लोकलाज के कारण सीता को महल से बाहर कर दिया.

रामायण और महाभारत जैसे धार्मिक ग्रंथों में ऐसे तमाम उदाहरण हैं. जहां औरत पर ही लांछन लगता रहा है. मुगलकाल में जब राजा अपनी महिलाओं की रक्षा करने में असमर्थ रहे, तो सतीप्रथा और बालविवाह जैसे रिवाज ले आए.

धर्म में औरतों के लिए ही सारे प्रतिबंध बनाए गए. इसी तरह आज के समय में होस्टल को देखें तो लड़कों के लिए कोई नियमकानून नहीं है, लड़कियों के ऊपर ही तमाम तरह के प्रतिबंध लगाए जाते हैं.

राष्ट्रीय महिला आयोग की कार्यकारी अध्यक्ष रेखा शर्मा ने बताया कि बीएचयू में अब लड़के, लड़कियों के लिए छात्रावास में एकजैसे नियम होंगे. केवल एक जगह का ही यह मसला नहीं है, हर कालेज में अलगअलग व्यवहार होता है. इस को ले कर लड़कियां आवाज उठाती हैं, तो घर, परिवार और समाज उन की आवाज को दबा देते हैं.

बीएचयू में जिस छात्रा से छेड़छाड़ के मसले पर हंगामा हुआ, वह अपनी बात कहने के लिए राष्ट्रीय महिला आयोग की कार्यकारी अध्यक्ष रेखा शर्मा के सामने पेश ही नहीं हुई. इस तरह की घटनाओं से लड़कियों का मनोबल टूटता है. लड़कियां शिकायत करने से बचती हैं.

निजी होस्टल भी बुरी हालत में

केवल कालेज के होस्टल ही बुरी हालत में नहीं है, निजी होस्टल, जहां ज्यादातर कामकाजी महिलाएं रहती हैं, वहां भी बुरी हालत है.

नेहा कहती है, ‘‘हमारा कमरा ग्राउंडफ्लोर पर है. हम 2 लड़कियां साथ रहते हैं. हमारा बाथरूम गली के पास है. लड़कों ने मेरे बाथरूम का शीशा तोड़ दिया जिस से कि नहाते समय वे झांक सकें. जब हम ने यह बात मकानमालिक को बताई तो उन्होंने पुलिस में शिकायत करने की जगह पर खिड़की में लोहे की जाली लगवा दी.’’

नेहा के साथ रहने वाली राखी कहती है, ‘‘हम जिस औफिस में काम करते हैं वहां पर लड़के भी काम करते हैं. कभी औफिस की जरूरत से भी वे हम से मिलने चले आते हैं तो हमें उन को कमरे में बुलाने की इजाजत नहीं होती है. हमें बाहर ही खड़े रह कर बात करनी होती है.’’ इस तरह की परेशानियां कई और लड़कियों के सामने भी हैं.

पीजी के रूप में लखनऊ की गोमतीनगर कालोनी में रहने वाली शिखा कहती है, ‘‘हम जब बाजार जाते हैं तो लोग यह सोचते हैं कि होस्टल में रहने वाली लड़की है. आसानी से उपलब्ध हो सकती है. कई लोग तो इस चक्कर में इंप्रैस करने की कोशिश करते हैं. होस्टल वाली लड़कियों के चरित्र को ले कर हमेशा सवाल उठते रहे हैं.’’

इस तरीके को अपनाकर आप बंद कंप्यूटर से भी कर सकते हैं फोन चार्ज

कई बार ऐसा होता है कि हमें कंप्यूटर का इस्तेमाल करने की जरूरत नहीं होती, लेकिन उससे फोन चार्ज करने की वजह से हमें अपना कंप्यूटर भी औन रखना पड़ता है. क्या आप जानते हैं कि अगर आपका कंप्यूटर बंद है तब भी आप उससे अपना स्मार्टफोन चार्ज कर सकते हैं. जी हां, यह बिल्कुल सच है आप वाकई ऐसा कर सकते हैं. बस इसके लिए आपको अपने कंप्यूटर की सेटिंग्स में थोड़ा बदलाव करना होगा. तो आइये जानते हैं कंप्यूटर की कौन सी सेटिंग्स में बदलाव करके ऐसा संभव है.

– सबसे पहले अपने कंप्यूटर से माय कंप्यूटर (My Computer) पर क्लिक करें.

– अब इस नए पेज पर प्रापर्टीज (Properties) का विकल्प  आएगा जिसपर आपको क्लिक करना है. इसपर क्लिक करते ही आपको सामने कंट्रोल पैनल खुल जाएगा.

– आपको कंट्रोल पैनल होम के नीचे पहले नंबर पर ही डिवाइस मैनेजर (Device Manager) का विकल्प दिखाई देगा. जिसपर आपको क्लिक करना है.

– इस डिवाइस मैनेजर के विकल्प पर क्लिक करते ही एक नया पेज खुल जाएगा. इस पर सबसे नीचे यूनिवर्सल सीरियल बस कंट्रोलर (Universal Serial Bus Controllers) का विकल्प आएगा. इस विकल्प के ठीक सामने आपको एक तीर का निशान नजर आएगा, जिसपर आपको क्लिक करना है.

– इस पर क्लिक करते ही नीचे की तरफ इसमें और भी कई सारे विकल्प जुड़ जाएंगे. इनमें से यूएसबी रूट हब (USB Root Hub) पर आपको दो बार क्लिक करना है. इस पर क्लिक करने पर जनरल, ड्राइवर, डिटेल्स, इवेंट्स और पावर मैनेजमेंट का विकल्प दिखाई देगा. इनमें से पावर मैनेजमेंट (Power management) पर क्लिक करें.

– इस पर क्लिक करते ही आपके सामने ‘Allow The Computer To Turn Off This Device To Save The Power’ का विकल्प आएगा और इसके सामने एक बाक्स दिखाई देगा. इस बाक्स में राइट का निशान भी लगा होगा. आपको इस निशान पर क्लिक करके इसे हटा देना है और उसके बाद ओके पर क्लिक कर दें. अब आपके कंप्यूटर की सेटिंग्स बदल गई है.

आपको कंम्पूटर पर इस तरह से सेटिंग्स करने के बाद अब कंप्यूटर आफ होने के बाद भी आप अपना मोबाइल चार्ज कर पाएंगे.

प्रदूषण बनाम प्रदूषण : राजनेताओं के बस के परे है इस समस्या का हल

दिल्ली व उत्तर भारत के अनेक शहरों में बढ़ते प्रदूषण के कारण इन जगहों में जिंदगी गुजारना एक आफत सा हो गया है. अफसोस यह है कि इस का नोटबंदी की तरह का कोई सरल उपाय नहीं कि मंत्र पढ़ा और कालेधन की समस्या को चुटकियों में समाप्त कर दिया. यह समस्या फिलहाल वर्तमान राजनेताओं के बस के परे है क्योंकि एक तो यह विश्वव्यापी असर का परिणाम है और दूसरा यह कि मानव जिस आधुनिक जीवनशैली का आदी हो गया है उसे वह छोड़ने वाला नहीं है.

यह कहना कि प्रदूषण केवल पंजाब, हरियाणा व उत्तर प्रदेश के खेतों में फसल काटे जाने के बाद बची जड़ों को जलाने या डीजल गाडि़यों व जेनरेटरों से होता है, काफीकुछ अधूरा है. इस प्रदूषण के बहुत से कारण हैं और उन के एकसाथ जुड़ जाने और वर्षा न होने व तेज हवाएं न चलने के कारण यह समस्या उग्र हो जाती है.

इन सैकड़ों कारणों का एकसाथ एक ही आदेश से निवारण करना असंभव है. इस के लिए जीवनशैली बदलनी होगी और यह देश खासतौर पर इस के लिए तैयार है ही नहीं. हमारे यहां दूसरों के दुखदर्द को देखने व महसूस करने की आदत ही नहीं है. हम तो जुगाड़ संस्कृति का ढोल पीटने वाले हैं जो 2 मिनट हाथ सेंकने के लिए एक पूरा पेड़ जला कर राख कर दें और राख का निबटान तक न करें.

हम तो वे लोग हैं जो एक तरफ गंगायमुना की सफाई के नाम पर अरबों रुपए लगाएं और फिर सफाई का बजट पास करने वाले मंत्री, मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री ही नदियों किनारे आरतियों, पूजा सामग्रियों, मूर्तियों को बहा कर व छठपूजा के बहाने से उसे खराब कर दें और अपनी पीठ थपथपाने भी लगें.

जैसे हमारी कुरीतियों ने हमारे समाज को टुकड़ों में बांट रखा है, जैसे हमारी सोच ने हमें देश व समाज के प्रति गैरजिम्मेदार बना रखा है वैसे ही हम ने अपनेआप को प्रकृति से खिलवाड़ करने का अधिकारी बना रखा है. हम ने प्रकृति की देखभाल करना तो मानो सीखा ही नहीं है. आधुनिक विज्ञान हमारी सहायता करने को तैयार है. ऐसे उपाय हैं जिन से कुछ हद तक प्रदूषण का मुकाबला किया जा सकता है पर हम हैं कि न सुनने को तैयार हैं न कुछ करने को.

जब दिल्ली का दम घुट रहा था तब नोटबंदी जैसी बेवकूफियों की सालगिरह ऐसे मनाई जा रही थी, मानो वह एवरेस्ट फतह हो. इस से कुछ नहीं हुआ जबकि करोड़ों नोट स्वाहा हो गए. यह प्रदूषण बढ़ाने वाला ही काम तो है.

दिल्ली का प्रदूषण अभी न कम होने वाला है न इस का हमारे पास हल है. जब बारिश होगी, हवाएं चलेंगी, यह अपनेआप कम हो जाएगा वरना प्लेग की तरह यह जानें लेता रहेगा. अरविंद केजरीवाल सरकार बातें तो करती है पर उस के हाथों में बहुतकुछ नहीं है. केजरीवाल थोड़ाबहुत कर लें उसी से खुश हो जाएं. नरेंद्र मोदी तो अभी गुजरात में लगे हैं, उन्हें कृपया डिस्टर्ब न करें.

ऐच्छिक सादगी से भरा जीवन जीने के पीछे ये है असल वजह

जब हम संसार में होश संभालते हैं, तभी से निरंतर प्रगतिशील होने की प्रेरणा दी जाती है. जिस के पास जितनी अधिक दौलत है वह उतना ही सफल माना जाता है. इसी विचारधारा के अंतर्गत टीवी, रेडियो, अखबार, पत्रिकाएं, वैबसाइट्स व सड़क पर खड़े बिलबोर्डों के विज्ञापन चीखचीख कर अपनी ओर आकर्षित कर हम से कहते हैं, ‘ज्यादा है तो बेहतर है’, ‘यूं जियो जैसे कल हो न हो’, ‘लिव लाइक किंग साइज’ आदि.

लिहाजा, हम अपने सपनों के संसार का विस्तार कर उस की पूर्ति के लिए अंधी दौड़ में भागे जाते हैं और भागते ही रहते हैं. बस, एक ही लक्ष्य होता है, हमारे पास सबकुछ हो, बहुत हो और लेटैस्ट हो. ज्यादा बेहतर है, को हमें इतना रटाया गया होता है कि हम इसे जीवन की सच्चाई मान बैठते हैं और इसी में उलझे रहते हैं.

विश्व के जानेमाने लेखक औस्कर वाइल्ड कहते हैं, ‘‘जीवन उलझा हुआ नहीं है, हम उलझे हुए हैं. सादगी से जीना ही असली जीवन है.’’

असल में ‘ज्यादा बेहतर है’ मंत्र के विपरीत आजकल एक नई सोच, ‘गोइंग मिनिमिलिस्टिक’ यानी जीवन की आवश्यकताएं कम की जाएं, उभर रही है.

इस विचार के पक्षधर माइक्रोसौफ्ट कंपनी की इकाई माइक्रोसौफ्ट एक्सिलरेटर कंपनी के सीईओ मुकुंद मोहन बेंगलुरु में रहते हैं. उन्होंने वर्ष 2001 से अपने जीवन में बदलाव लाना शुरू किया और अति सूक्ष्मवादी जीवनशैली अपना ली. उन के बच्चे व पत्नी भी इसी जीवनशैली से जीते हैं. इस से पूर्व वे अमेरिका में कई उच्चस्तरीय कंपनियों में कार्यरत रहे. वहां औडी व बीएमडब्लू गाड़ी चलाते थे. भारत में आ कर मारुति औल्टो खरीदी. पर आज वे बस द्वारा अपने दफ्तर जाते हैं. सूटबूट तथा उच्चस्तरीय वस्तुओं को छोड़ सादा व सरल जीवन जी रहे हैं.

इस विचार से प्रभावित लोग पुरानी रीति पर चलना चाह रहे हैं जब कम सामान के साथ जीवन व्यतीत किया जाता था. हाल ही में अमेरिकन टीवी कलाकार व जनसेविका ओपरा विनफ्रे ने अपना बहुत सारा सामान बेच दिया ताकि मनमस्तिष्क हलके हो जाएं. उन का मानना है कि हमारे साधन सीमित हैं, इसलिए इन का प्रयोग आवश्यकतानुसार सोचसमझ कर करना चाहिए.

ऐसी ही ऐच्छिक सादगीपूर्ण जीवन जीने के पक्षधर हैं अंकुर वारिकू. वे नियरबाय कंपनी के सीईओ हैं. वे कहते हैं, ‘‘मैं महंगा व फैंसी सामान नहीं खरीदता क्योंकि महंगी व बड़ी कार भी वही कार्य करती है जो एक छोटी कार करती है. दोनों गाडि़यों का कार्य एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाना ही होता है. इसलिए छोटीबड़ी गाड़ी से क्या फर्क पड़ता है.’’

इसी सोच के धारक हैं विंसेंट कार्थेसर जोकि एक ऐक्टर हैं. वे कार के बजाय बस द्वारा जाना या पैदल जाना ज्यादा पसंद करते हैं.

ऐसे लोगों की अब संख्या बढ़ रही है. बौलीवुड स्टार सिद्धार्थ मल्होत्रा अपने काम पर साइकिल से जाते हैं. वहीं ऐक्टर नाना पाटेकर अपनी सादगीपूर्ण जिंदगी अपने फौर्म हाउस (पुणे) में ही रह कर जीना पसंद करते हैं. पिछले 10 वर्षों से उन्होंने एक ही गाड़ी रखी हुई है. वे ज्यादा सामान खरीदना/रखना पसंद नहीं करते. इसी तरह बौलीवुड डायरैक्टर मंसूर खान भी अपने औरगैनिक फौर्म पर रह कर सादा जीवन जीते हैं. उन का मानना है कि अगर खुशी चाहिए तो भौतिकवाद से दूर रहें, जरूरत के सामान पर ही निर्भर रहें. भौतिकवाद आप को अपने परिवार के लिए समय नहीं देता, फलस्वरूप, मन अशांत रहता है.

लेखक पीको अय्यर का कहना है कि भोजन सादा खाना चाहिए, फास्टफूड आदि से दूर रहें.

रौ फूड एक्सपर्ट डा. सूर्या कौर कहती हैं, ‘‘सादगी अपनी रसोई से ही शुरू करें. अपनी बौडी के हिसाब से उतना ही खाना खाएं जो पचा सकें.’’ अमेरिकन सोशलवर्कर क्रिस्टीकेन भी सादा भोजन की पक्षधर हैं. वे हलकी आंच से पका चावल खाना पसंद करती हैं.

40 वर्षीय मुंबई बेस्ड पीयूष शाह, जो कि आईटी प्रोफैशनल हैं, ने मुहिम चलाई है, ‘साइकिल टू वर्क.’ उन के अनुसार, साइकिल ईकोफ्रैंडली होने के साथसाथ चुस्तदुरुस्त भी रखती है. अपना बड़ा मकान बेच कर अब ये वनरूम अपार्टमैंट में रहते हैं. वे चाहते हैं कि जीवन सहज व सरल तरीके से व्यतीत हो.

दुनियाभर में मशहूर अमेरिकी व्यवसायी वारेन बफेट तो अपने पास सैलफोन तक नहीं रखते और वे डायरैक्टर क्रिस्टोफर नोलान की तरह ही सादा जीवन व्यतीत करते हैं.

ऐच्छिक सादगी से तात्पर्य कंजूसी से जीना नहीं है और न सबकुछ छोड़ कर ही जीना है बल्कि बेकार के खर्चों पर नियंत्रण करना है. सामान कम करना है और कम करते समय स्वयं से पूछना है कि क्या इस सामान की जरूरत है? तो ज्यादातर जवाब मिलेगा, नहीं. फिर आप बाकी बचे सामान के लिए भी सोचें कि क्या उस के बिना आप रह सकते हैं. तब आप और भी सामान कम कर पाएंगे यानी सीधा सा अर्थ है कि ऐच्छिक सादगी अनचाहे खर्चों को कम करना है.

एक और उदाहरण से आप रूबरू हों. डैनियल सुएलो नामक व्यक्ति ने एक दिन अपनी सारी पूंजी एक टैलीफोन बूथ पर छोड़ दी और वे जंगल व गुफाओं की ओर प्रस्थान कर गए. उन्होंने अपना जीवन जंगली फलफूल पर आश्रित हो व्यतीत किया. इन के ऊपर एक पुस्तक ‘द मैन हू क्विट मनी’ भी लिखी गई है जोकि बहुत पौपुलर हुई.

पर यह एक तरीके से सादा जीवन या अतिसूक्ष्मवाद की पराकाष्ठा है. फिर भी इस से एक शिक्षा तो मिलती है कि संसार के अरबपति, करोड़पति अपनी संपत्ति से कुछ कमी करें तो विश्व से गरीबी खत्म नहीं तो काफी कम तो की ही जा सकती है.

गौर करें तो इन सभी भावों का संबंध भौतिकता से है. अतिसूक्ष्मवाद या ऐच्छिक सादगी अपनाने का अर्थ जीवन को कम से कम वस्तुओं, आवश्यकताओं के साथ व्यवस्थित करने से है.

केवल पदार्थवादी व अनआत्मवाद संबंधी जीवन जी कर हम अपने जीवन में अनावश्यक क्लेश घोलते हैं.

ऐसे टिप्स जो जीवन को सहज व सरल बनाने में सहयोगी होंगे :

– अपने खर्चों पर ध्यान रखें. अच्छा हो कि अपने खर्चों को लिखें ताकि अनावश्यक खर्च पर रोक लग सके.

– क्रैडिट कार्ड का प्रयोग न के बराबर करें.

– रात में मोबाइल फोन तथा वाईफाई बंद रखें.

– फोन की हर बीप पर उसे औन न करें.

– सादगी को ध्यान में रख कर अपनी दिनचर्या में शामिल करें, यह एक सहज कदम होगा.

– जो ज्यादा है उसे जरूरतमंदों में बांट दें. इस से जो खुशी व संतुष्टि मिलेगी वह अप्रतिम होगी.

– जरूरत पड़ने पर ही शौपिंग करें. इसे अपनी हौबी या प्रैस्टिज इश्यू न बनने दें.

– अपनी बौर्डरोब हलकी रखें, क्योंकि पहनेंगे वही जो आप को बहुत पसंद है.

आपके फोन के सीक्रेट मैसेज पर है इस ऐप की नजर

प्रमुख आईटी कंपनी गूगल ने ‘टीजी’ (Tizi) नाम के एक ऐसे ऐप का पता लगाया है जो फेसबुक, वेहाट्सऐप जैसे सोशल मीडिया ऐप के साथ-साथ फोन से जानकारियां चुराता है.

यह ऐप मोबाइल फोन के काल रिकार्ड से भी जानकारी चुरा लेता है और यह काम इतनी सफाई से करता है कि यूजर्स को भनक तक नहीं लगती. गूगल ने एक ब्लौग पोस्ट में इसका खुलासा किया है.

इसके अनुसार टीजी ऐप लोकप्रिय सोशल मीडिया ऐप से संवेदनशील डेटा चुराने के लिए फोन में स्पाइवेयर इंस्टाल कर देता है. गूगल प्ले प्रोटेक्ट सिक्यौरिटी की टीम को इस ऐप की जानकारी सितंबर 2017 में डिवाइस स्कैन के दौरान मिली.

कंपनी ने इस ऐप को प्ले स्टोर से हटा दिया और सभी प्रभावित डिवाइसों को इस बारे में सूचना भेजी. कंपनी ने इस ऐप के डेवेलपर के अकाउंट को सस्पेंड कर दिया है.

इसमें कहा गया है कि टीजी के पहले वाले वर्जन में रूटिंग कंपैबिलिटी नहीं थी लेकिन बाद में ये आईं और इसने डिवाइसेज से संवेदनशील सूचनाएं चुरानी शुरू कर दी.

अगर आप हैं पार्टी लवर तो कर सकते हैं ये बिजनेस

अगर आपको जौब करना अच्‍छा नहीं लगता, बल्कि आप हमेशा पार्टियों के बारे में सोचते हैं या पार्टियां और्गनाइज करना चाहते हैं, लेकिन कमाई की चिंता में आप अपने इस शौक को पूरा नहीं कर पाते हैं तो परेशान न हों. अपने इस शौक को आप बिजनेस में बदल सकते हैं. पार्टियां और्गनाइज करना भी एक बिजनेस है, जिसे आप पैशन के साथ करें तो इसमें लाखों रुपए कमा सकते हैं. आज हम आपको इन बिजनेस और उनकी खूबियों के बारे में बताते हैं.

रोजाना और्गनाइज कर सकते हैं पार्टी

जिस बिजनेस आइडिया की हम बात कर रहे हैं, यदि वह चल निकले तो आप रोजाना पार्टी और्गनाइज कर सकते हैं. इस बिजनेस को इंवेंट मैनेजमेंट कहा जाता है. इंवेंट भी कई तरह के होते हैं. ऐसे में बस आपको अपने शौक या पसंद के मुताबिक इंवेंट का आइडिया सेलेक्‍ट करना है. उसके बारे में व्‍यवहारिक जानकारी लेने के बाद आप अपना बिजनेस शुरू कर सकते हैं.

कौरपोरेट हाउस के साथ मिलकर करें बिजनेस

अगर आप बड़ी-बड़ी कंपनियों के प्रोडक्‍ट्स के लौन्चिंग सेरेमनी का हिस्‍सा बनने की चाहत रखते हैं या सेमीनार-एग्जिबिशन जैसे इंवेंट को और्गनाइज कर सकते हैं तों आपके लिए बिजनेस का मौका है. बड़ी-बड़ी कंपनियां आए दिन तरह-तरह के इंवेंट कराती हैं. इनमें हाई लेवल मीटिंग, कौन्‍फ्रेंस, एग्जिबिशन, प्रोडक्‍ट लौन्‍च, इम्‍पलौयज के लिए फन एंड अम्‍यूजमेंट इंवेंट या सेमीनार का आयोजन करती रहती है.

शादी का जश्‍न या बर्थडे सेलिब्रेशन का हिस्‍सा बनें

अब शादी का आयोजन करने के लिए पूरे परिवार, नाते रिश्‍तेदार को महीने भर तक मेहनत करने की जरूरत नहीं रही. अब तो वर व वधू दोनों परिवारों को केवल अपनी खरीददारी करनी होती है विवाह वाले दिन वेन्यू पर पहुंच जाते हैं. सब कुछ तैयार मिलेगा. यह काम एक इंवेंट कंपनी करती है.

अगर आप को शादी विवाह की पार्टी का हिस्‍सा बनने का शौक है तो आप भी मैरिज प्‍लानर बन कर इंवेंट कंपनी के तौर पर अपना बिजनेस शुरू कर सकते हैं. जब शादी का काम न मिले तो आप बर्थडे सेलिब्रेशन हो या गृह प्रवेश या कोई भी सोशन फंक्‍शन, आप इन सब इंवेंट का कौन्‍ट्रेक्‍ट ले सकते हैं. इससे आपको 2 से 10 लाख रुपए तक की कमाई आसानी से हो सकती है.

सेलिब्रिटीज से मिलने के शौक को बनाएं बिजनेस

अगर आप फिल्‍मी हीरो-हिरोइन से मिलने का शौक है और उनके साथ समय बिताना चाहते हैं तो अपने इस शौक को बिजनेस में तब्‍दील कर सकते हैं. आप एक इंवेंट कंपनी बना कर अपने शहर या आसपास के इलाकों में  सेलिब्रिटी शो का आयोजन कर सकते हैं. या शो करने वालों के कौन्‍ट्रेक्‍ट करके ऐसे आयोजन कर सकते हैं. इसके लिए आपको सेलिब्रिटीज से संपर्क करना होगा, जैसे-जैसे आपके कॉन्‍टेक्‍ट मजबूत होंगे, आपका बिजनेस बढ़ता जाएगा और एक इंवेंट पर आप 10 से 20 लाख रुपए तक बचा सकते हैं.

स्‍पोर्ट्स में इंटरेस्‍ट हो तो अपनाएं यह बिजनेस

अगर आप कोई ऐसा बिजनेस करना चाहते हैं, जिससे आप अपने फेवरेट खिलाड़ी से मिलते रहें तो आप अपने शहर में ऐसे इंवेंट का आयोजन कर सकते हैं, जो आपको इन खिलाड़ियों के नजदीक पहुंचा सकता है. ये खिलाड़ी सेलेब्‍स के तौर पर तो फंक्‍शन में शामिल होते ही हैं. साथ ही, आप कोई चैरिटेबल या कोई प्रतियोगी मैच करा कर इन खिलाडि़यों को बुलवा सकते हैं. इस एक इंवेंट में आप 1 से 10 लाख रुपए तक कमा सकते हैं.

तनुश्री दत्ता की छोटी बहन इशिता दत्ता ने लिए सात फेरे

मशहूर अदाकारा व पूर्व मिस इंडिया तनुश्री दत्ता की छोटी बहन इशिता दत्ता मुंबई के ‘इस्कौन’ मंदिर के सभाग्रह में अपने प्रेमी व अभिनेता वत्सल सेठ के साथ सात फेरे लेकर शादी के बंधन में बंध गयीं.

जमशेदपुर निवासी इशिता दत्ता ने सीरियल ‘‘एक घर बनाउंगा’’ में पूनम नाथ गर्ग का किरदार निभाते हुए अभिनय के क्षेत्र में कदम रखा था. उसके बाद वह फिल्म ‘‘दृश्यम’’ में अजय देवगन की बेटी के किरदार में नजर आयीं. इसके अलावा वह कन्नड़ व तेलगू फिल्में भी कर चुकी हैं.

फिर 2016 में सीरियल ‘‘रिश्तों का सौदागर : बाजीगर’’ में इशिता ने वत्सल सेठ के साथ अभिनय किया था. इस सीरियल में इशिता ने अरूंधती त्रिवेदी और वत्सल सेठ ने आरव त्रिवेदी का किरदार निभाया था. इसी सीरियल के सेट पर दोनों के बीच डेटिंग की शुरुआत हुई थी, जिसने इन दोनों को पति पत्नी बना दिया. मगर वत्सल सेठ और इशिता दत्ता में से किसी ने भी अपनी डेटिंग की खबर को स्वीकार नहीं की थी.

इशिता दत्ता और वत्सल सेठ की शादी के अवसर पर इन्हें आशीर्वाद देने के लिए अजय देवगन, बौबी देओल, काजोल, तनूजा मुखर्जी, सोहेल खान सहित बौलीवुड और टीवी इंडस्ट्री से जुड़ी कई हस्तियां मौजूद थीं.

जहीर के रिसेप्शन में जमकर नाचे नेहरा जी, देखें वीडियो

पूर्व भारतीय क्रिकेटर जहीर खान और अभिनेत्री सागरिका घटके ने 23 नवंबर, 2017 को शादी कर ली. दोनों ने इसी साल सगाई की थी और फिर कोर्ट मैरिज कर एक-दूजे के हो गए. जहीर-सागरिका ने अपने रिश्‍तेदारों, दोस्‍तों के लिए रिसेप्‍शन रखा. इस रिसेप्शन पार्टी में भारतीय टीम के कप्तान विराट कोहली और उनकी गर्लफ्रेंड अनुष्का शर्मा समेत कई क्रिकेटर और बौलीवुड जगत की हस्तियां पहुंचीं.

सोशल मीडिया पर पार्टी के वीडियोज खूब देखे जा रहा हैं. विराट और अनुष्का इस पार्टी में जमकर थिरके और उनके साथ-साथ जहीर और सागरिका ने भी डांस किया. विराट कोहली और अनुष्‍का शर्मा का ‘अंग्रेजी बीट’ गाने पर डांस वायरल हो रहा है.

Virat and Anushka at Zaheer Khan’s wedding Reception last night in Mumbai! ❤️?

A post shared by Virat Kohli (@viratkohli.club) on

अब एक और वीडियो सामने आया है जिसमें जहीर के साथी गेंदबाज आशीष नेहरा नाचते नजर आ रहे हैं.

नेहरा की शख्सियत ऐसी है कि उन्‍हें नाच-गाने से दूर रहने वाला इंसान समझा जाता है. मगर दोस्‍त की शादी हो तो नेहरा जी के कदम भी थिरकने से रुक नहीं पाए. लाल टोपी लगाए नेहरा पहले युवराज सिंह के साथ ताल पर ताल मिलाते नजर आ रहे हैं. उसके बाद उन्‍होंने दुल्‍हन को साथ लिया और उसके साथ थिरके.

भारत की विश्व विजेता टीम के सदस्य रहे आशीष नेहरा ने इसी महीने की 1 तारीख को अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट से संन्‍यास ले लिया था. 1999 में अजहरूद्दीन की कप्तानी में श्रीलंका के खिलाफ पदार्पण करने वाले नेहरा का करियर 18 साल लंबा रहा है. हालांकि वह टेस्ट क्रिकेट ज्यादा नहीं खेल पाए. उनके खाते में सिर्फ 17 टेस्ट मैच हैं जिसमें उन्होंने 44 विकेट लिए हैं. उन्होंने अपना आखिरी टेस्ट मैच रावलपिंडी में पाकिस्तान के खिलाफ 2004 में खेला था.

वनडे में नेहरा ने भारत के लिए 120 मैच खेले हैं और 157 विकेट लिए हैं. जिम्बाब्वे के खिलाफ 2001 में हरारे में अपना पहला मैच खेलने वाले नेहरा ने अपना आखिरी वनडे 2011 विश्व कप में पाकिस्तान के खिलाफ 30 मार्च को खेला था.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें