Download App

इजरायल की राजधानी बदलने का क्या होगा असर

दुनिया के सबसे पुराने शहरों में से एक येरुशलम को इजरायल की राजधानी के रूप में मान्यता देने की मंशा जाहिर करके अमेरिका ने बर्र के छत्ते में हाथ डाल दिया है. इसे लेकर दुनिया भर से जो प्रतिक्रियाएं आ रही हैं, वे काफी तीखी हैं. कुछ देर के लिए अगर पश्चिम एशिया के देशों को छोड़ भी दें, तो फ्रांस जैसे नाटो में उसके सहयोगी देश ने भी इस मंशा का खुला विरोध किया है. बाकी दुनिया भी इसे लेकर काफी असहज दिख रही है.

यह लगभग तय माना जा रहा है कि अगर ऐसा होता है, तो पश्चिम एशिया एक बार फिर बड़ी अशांति की ओर बढ़ने लगेगा. बेशक इससे इजरायल और यहूदी विश्व को किसी तरह की मानसिक संतुष्टि मिले, लेकिन इससे इजरायल की मुश्किलें भी बढ़ेंगी ही. फलस्तीनी उग्रवाद का तेवर और तीखा होना तो तय ही है, कई क्षेत्रीय समीकरण भी बदल जाएंगे.

तुर्की ने पहले ही घोषणा कर दी है कि अगर ऐसा होता है, तो वह इजरायल से रिश्ते तोड़ लेगा, पूरी संभावना है कि जल्द ही मिस्र भी शायद यही करे. पश्चिम एशिया में यही दो देश हैं, जिनके इजरायल से कहने लायक कुछ रिश्ते हैं, बाकी से तो बाकायदा उसकी दुश्मनी ही है.

येरुशलम ऐसा शहर है, जो यहूदी, ईसाई और मुस्लिम, तीनों धर्मो का पवित्र स्थान माना जाता है. यह शहर तीनों धर्मो की उत्पत्ति से जुड़ा हुआ है और तीनों के ही बड़े तीर्थस्थल यहां पर हैं. यही वजह है कि 1947 में जब संयुक्त राष्ट्र ने फलस्तीन को दो हिस्सों में बांटकर इजरायल बनाने का प्रस्ताव पास किया, तो येरुशलम को इससे अलग स्वतंत्र दर्जा दिया गया. लेकिन एक साल बाद ही हुए अरब युद्ध में इजरायल ने इस शहर के बड़े हिस्से पर कब्जा जमा लिया. यह शहर ऐतिहासिक और धार्मिक कारणों से इजरायल के लिए महत्वपूर्ण था, इसलिए इस हिस्से को उसने राजधानी के रूप में न केवल विकसित किया, बल्कि अपना ज्यादातर सरकारी कामकाज यहीं से शुरू कर दिया. हालांकि दुनिया के ज्यादातर मुल्कों ने कभी इसको मान्यता नहीं दी और इजरायल की राजधानी के रूप में तेल अवीव को ही अंतरराष्ट्रीय मान्यता मिलती रही.

दूसरी ओर, फलस्तीनी लोग यह मानते हैं कि जब उन्हें उनका अलग देश मिलेगा, तो वे येरुशलम के पूर्वी हिस्से को ही अपनी राजधानी बनाएंगे. इस बीच 1995 में अमेरिकी संसद ने एक प्रस्ताव पास कर दिया कि अमेरिका को अपना दूतावास तेल अवीव से हटाकर येरुशलम में बनाना चाहिए. हालांकि इसके सवा दो दशक बाद भी अमेरिकी विदेश नीति यही कहती रही कि येरुशलम पर अंतिम फैसला दोनों पक्षों की आपसी सहमति से ही निकाला जाएगा. इसलिए येरुशलम का मसला जहां का तहां ही रहा. अब अमेरिका राय बदलता है, तो यह यथास्थिति फिर बुरी तरह से डांवाडोल हो जाएगी.

बहुत से देश ऐसे हैं, जिन्हें इस पर कड़ी आपत्ति होगी कि येरुशलम को इजरायल की राजधानी बनाया जाए. ऐसे भी कई देश हैं, जिनकी आपत्ति इस पर है कि इससे ठंडी होती दिख रही आग फिर से भड़क उठेगी. भारत समेत इन देशों का सैद्धांतिक रुख यह है कि इस तरह के विवाद आपसी बातचीत और सहयोग से निपटाए जाने चाहिए. लेकिन अमेरिका इसका रुख अपनी राजनयिक ताकत से बदल रहा है.

इजरायल ही नहीं, यह पूरी दुनिया जानती है कि अगर अमेरिका का दूतावास तेल अवीव से येरुशलम में स्थानांतरित हो जाता है, तो उसे ही इजरायल की औपचारिक राजधानी का दर्जा मिल जाएगा. अमेरिका के मान्यता देते ही पश्चिम के कुछ देश भी इसी रास्ते को अपनाएंगे और तेल अवीव में बाकी बचे दूतावास मुख्यधारा से कटे हुए दिखाई देंगे. पर असल समस्या इससे भड़कने वाली आग की है.

यूपीए की अध्यक्ष बनी रह सकती हैं सोनिया गांधी..!

कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी संभालने के बाद भी मौजूदा पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी मार्गदर्शन करती रहेंगी. अगले सप्ताह औपचारिक रूप से राहुल के अध्यक्ष बनने के बावजूद सोनिया कांग्रेस संसदीय दल और संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) की अध्यक्ष बनी रह सकती हैं.

पार्टी अध्यक्ष पद के चुनाव के लिए राहुल गांधी के नामांकन के बाद सोनिया की अगली भूमिका को लेकर कयास लगने लगे हैं. पार्टी का एक बड़ा तबका मानता है कि मौजूदा राजनीति परिस्थितियों में सोनिया की भूमिका काफी अहम है. क्योंकि, वह लंबे वक्त से यूपीए की अगुवाई करती रही हैं. सभी पार्टियों के नेता उनका सम्मान करते हैं.

सबसे लंबे वक्त तक कांग्रेस की अध्यक्ष रही सोनिया के कांग्रेस कार्यसमिति में संरक्षक का पद इजाद करने के भी कयास लगाए जा रहे हैं. पार्टी रणनीतिकार मानते हैं कि शायद सोनिया सीधे तौर पर पार्टी के अंदर कोई सक्रिय भूमिका नहीं निभाएंगी. लेकिन कांग्रेस संसदीय दल और यूपीए के अध्यक्ष के तौर हो सकता है, वह अपनी जिम्मेदारियों को अंजाम देती रहे.

इस बीच, राहुल के अध्यक्ष बनने के बाद सोनिया की भूमिका क्या होगी, इस पर सीधे तौर पर कोई भी नेता बोलने को तैयार नहीं है. पार्टी प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने कहा कि हम समझते हैं कि उनका मार्गदर्शन हमेशा हमें मिलता रहेगा. कुछ दिन पहले पार्टी के एक और वरिष्ठ नेता एम. वीरप्पा मोइली ने कहा था कि राहुल के अध्यक्ष बनने के बाद भी सोनिया गांधी की भूमिका रहेगी. पार्टी को हमेशा उनका मार्गदर्शन मिलता रहेगा.

लोकसभा चुनाव से पहले यानी अगले डेढ साल में राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, कर्नाटक और ओडिशा सहित 12 राज्यों में विधानसभा चुनाव हैं. इसके बाद लोकसभा चुनाव में कांग्रेस सभी विपक्षी दलों को एकजुट करने की कोशिश में जुटी हैं. पार्टी के एक नेता ने कहा कि सोनिया के सभी विपक्षी दलों के नेताओं से अच्छे संबंध हैं. ऐसे में लोकसभा चुनाव में उनकी भूमिका अहम होगी.

पिता का हत्यारा पुत्र : ये कहानी पढ़ना हम सब के लिए जरूरी है

15 जून, 2017 की रात 10 बजे रिटायर्ड एएसआई मदनलाल   अपने घर वालों से यह कह कर मोटरसाइकिल ले निकले थे कि दरवाजा बंद कर लें, वह थोड़ी देर में वापस आ रहे हैं. लेकिन वह गए तो लौट कर नहीं आए. उन के वापस न आने से घर वालों को चिंता हुई. 65 वर्षीय मदनलाल पंजाब के जिला होशियारपुर राज्यमार्ग पर शामचौरासी-पंडोरी लिंक रोड पर स्थित थाना बुल्लेवाल के गांव लंबेकाने के रहने वाले थे.

मदनलाल सीआईएसएफ से लगभग 5 साल पहले रिटायर हुए थे. उन्हें पेंशन के रूप में एक मोटी रकम तो मिलती ही थी, इस के अलावा उन के 3 बेटे विदेश में रह कर कमा रहे थे. इसलिए उन की गिनती गांव के संपन्न लोगों में होती थी. उन के पास खेती की भी 8 किल्ला जमीन थी.

मदनलाल के परिवार में पत्नी निर्मल कौर के अलावा 3 बेटे दीपक सिंह उर्फ राजू, प्रिंसपाल सिंह, संदीप सिंह और एक बेटी थी, जो बीए फाइनल ईयर में पढ़ रही थी. दीपक और प्रिंसपाल कुवैत में रहते थे, जबकि संदीप ग्रीस में रहता था. उन के चारों बच्चों में से अभी एक की भी शादी नहीं हुई थी. बेटे कमा ही रहे थे, इसलिए मदनलाल को अब जरा भी चिंता नहीं थी.

मदनलाल सुबह जल्दी और रात में अपने खेतों का चक्कर जरूर लगाते थे. उस दिन भी 10 बजे वह अपने खेतों का चक्कर लगाने गए थे, लेकिन लौट कर नहीं आए थे. उन का बेटा दीपक एक सप्ताह पहले ही 8 जून को एक महीने की छुट्टी ले कर घर आया था.

सुबह जब दीपक को पिता के रात को घर न लौटने की जानकारी हुई तो वह मां निर्मल कौर के साथ उन की तलाश में खेतों पर पहुंचा. दरअसल उन्हें चिंता इस बात की थी कि रात में पिता कहीं मोटरसाइकिल से गिर न गए हों और उठ न पाने की वजह से वहीं पड़े हों.

खेतों पर काम करने वाले मजदूरों ने जब बताया कि वह रात को खेतों पर आए ही नहीं थे तो मांबेटे परेशान हो गए. वे सोचने लगे कि अगर मदनलाल खेतों पर नहीं गए तो फिर गए कहां? निर्मल कौर कुछ ज्यादा ही परेशान थीं. दीपक ने उन्हें सांत्वना देते हुए कहा, ‘‘मां, तुम बेकार ही परेशान हो रही हो. तुम्हें तो पता ही है कि वह अपनी मरजी के मालिक हैं. हो सकता है, किसी दोस्त के यहां या फिर बगल वाले गांव में चाचाजी के यहां चले गए हों?’’

जबकि सच्चाई यह थी कि दीपक खुद भी पिता के लिए परेशान था. जब खेतों पर मदनलाल के बारे में कुछ पता नहीं चला तो वह मां के साथ घर की ओर चल पड़ा. रास्ते में उसे बगल के गांव में रहने वाले चाचा ओंकार सिंह और हरदीप मिल गए. उन के मिलने से पता चला कि मदनलाल उन के यहां भी नहीं गए थे. सभी मदनलाल के बारे में पता करते हुए शामचौरासी-पंडोरी फांगुडि़या लिंक रोड के पास पहुंचे तो वहां उन्होंने एक जगह भीड़ लगी देखी. सभी सोच रहे थे कि आखिर वहां क्यों लगी है, तभी किसी ने आ कर बताया कि वहां सड़क पर मदनलाल की लाश पड़ी है. यह पता चलते ही सभी भाग कर वहां पहुंचे. सचमुच वहां खून से लथपथ मदनलाल की लाश पड़ी थी. लाश देख कर सभी सन्न रह गए. मदनलाल के सिर, गरदन, दोनों टांगों और बाजू पर तेजधार हथियार के गहरे घाव थे.

इस घटना की सूचना तुरंत थाना बुल्लेवाल पुलिस को दी गई. सूचना मिलते ही थानाप्रभारी सुखविंदर सिंह पुलिस बल के साथ घटनास्थल पर आ पहुंचे. भीड़ को किनारे कर के उन्होंने लाश का मुआयना किया. इस के बाद अधिकारियों को घटना की सूचना दे कर क्राइम टीम और एंबुलेंस बुलवा ली. उन्हीं की सूचना पर डीएसपी स्पैशल ब्रांच हरजिंदर सिंह भी घटनास्थल पर आ पहुंचे.

मामला एक रिटायर एएसआई की हत्या का था, इसलिए एसपी अमरीक सिंह भी आ पहुंचे थे. घटनास्थल और लाश का निरीक्षण कर दिशानिर्देश दे कर पुलिस अधिकारी चले गए. मृतक मदनलाल का परिवार मौके पर मौजूद था, इसलिए सुखविंदर सिंह ने उन की पत्नी निर्मल कौर और बेटे दीपक से पूछताछ की. इस के बाद निर्मल कौर के बयान के आधार पर मदनलाल की हत्या का मुकदमा अपराध संख्या 80/2017 पर अज्ञात लोगों के खिलाफ दर्ज कर लाश को पोस्टमार्टम के लिए भिजवा दिया गया.

मृतक मदनलाल की पत्नी और बेटे दीपक ने शुरुआती पूछताछ में जो बताया था, उस से हत्यारों तक बिलकुल नहीं पहुंचा जा सकता था. पूछताछ में पता चला था कि मदनलाल की किसी से कोई दुश्मनी नहीं थी. गांव वाले उन का काफी सम्मान करते थे. इस की वजह यह थी कि वह हर किसी की परेशानी में खड़े रहते थे. अब तक मिली जानकारी में पुलिस को कोई ऐसी वजह नजर नहीं आ रही थी कि कोई उन की हत्या करता.

इस मामले में लूट की भी कोई संभावना नहीं थी. वह घर में पहनने वाले कपड़ों में थे और मोटरसाइकिल भी लाश के पास ही पड़ी मिली थी. गांव वालों से भी पूछताछ में सुखविंदर सिंह के हाथ कोई सुराग नहीं लगा. घर वालों ने जो बता दिया था, उस से अधिक कुछ बताने को तैयार नहीं थे.

चूंकि यह एक पुलिस वाले की हत्या का मामला था, इसलिए इस मामले पर एसएसपी हरचरण सिंह की भी नजर थी. 24 घंटे बीत जाने के बाद भी जब कोई नतीजा सामने नहीं आया तो उन्होंने डीएसपी हरजिंदर सिंह के नेतृत्व में एक स्पैशल टीम का गठन कर दिया, जिस में थानाप्रभारी सुखविंदर सिंह के अलावा सीआईए स्टाफ इंचार्ज सतनाम सिंह को भी शामिल किया था.

टीम ने नए एंगल से जांच शुरू की. सुखविंदर सिंह ने अपने मुखबिरों को मदनलाल के घरपरिवार के बारे में पता लगाने के लिए लगा दिया था. इस के अलावा मदनलाल के मोबाइल नंबर की काल डिटेल्स भी निकलवाई गई. पोस्टमार्टम रिपोर्ट के अनुसार, तलवार जैसे किसी हथियार से गले पर लगे घाव की वजह से सांस नली कट गई थी, जिस से उन की मौत हो गई थी. इस के अलावा शरीर पर 8 अन्य गंभीर घाव थे. पोस्टमार्टम के बाद लाश मिलते ही घर वालों ने उस का अंतिम संस्कार कर दिया था.

मुखबिरों से सुखविंदर सिंह को जो खबर मिली, वह चौंकाने वाली थी. मुखबिरों के बताए अनुसार, मृतक के घर में हर समय क्लेश रहता था. घरपरिवार में जैसा माहौल होना चाहिए था, मृतक के घरपरिवार में बिलकुल नहीं था. ऐसा एक भी दिन नहीं होता था, जिस दिन पतिपत्नी में मारपीट न होती रही हो. मदनलाल पत्नी ही नहीं, जवान बेटी को भी लगभग रोज मारतापीटता था.

सुखविंदर सिंह ने सारी बातें एसएसपी और एसपी को बता कर आगे के लिए दिशानिर्देश मांगे. अधिकारियों के ही निर्देश पर सुखविंदर सिंह और सीआईए स्टाफ इंचार्ज सतनाम सिंह ने गांव जा कर मृतक के घर वालों से एक बार फिर अलगअलग पूछताछ की. घर वालों ने इन बातों को झूठा बता कर ऐसेऐसे किस्से सुनाए कि पूछताछ करने गए सुखविंदर सिंह और सतनाम सिंह को यही लगा कि शायद मुखबिर को ही झूठी खबर मिली है.

लेकिन मदनलाल के फोन नंबर की काल डिटेल्स आई तो निराश हो चुकी पुलिस को आशा की एक किरण दिखाई दी. काल डिटेल्स के अनुसार, 15 जून की रात पौने 10 बजे मदनलाल को उन के बेटे दीपक ने फोन किया था. जबकि दीपक ने पूछताछ में ऐसी कोई बात नहीं बताई थी. इस का मतलब था कि घर वालों ने झूठ बोला था और वे कोई बात छिपाने की कोशिश कर रहे थे.

एसएसपी और एसपी से निर्देश ले कर सुखविंदर सिंह और सतनाम सिंह ने डीएसपी हरजिंदर सिंह की उपस्थिति में मदनलाल के पूरे परिवार को पूछताछ के लिए थाने बुला लिया. तीनों से अलगअलग पूछताछ शुरू हुई. दीपक से जब पिता को फोन करने के बारे में पूछा गया तो उस ने साफ मना करते हुए कहा, ‘‘सर, आप लोगों को गलतफहमी हो रही है. उस रात मैं घर पर ही नहीं था. एक जरूरी काम से मैं होशियारपुर गया हुआ था. अगर मैं गांव में होता तो पापा को खेतों पर जाने ही न देता.’’

‘‘हम वह सब नहीं पूछ रहे हैं, जो तुम हमें बता रहे हो. मैं यह जानना चाहता हूं कि तुम ने उस रात अपने पिता को फोन किया था या नहीं?’’ सुखविंदर सिंह ने पूछा.

‘‘आप भी कमाल करते हैं साहब, मेरे पापा की हत्या हुई है और आप कातिलों को पकड़ने के बजाय हमें ही थाने बुला कर परेशान कर रहे हैं.’’ दीपक ने खड़े होते हुए कहा, ‘‘अब मैं आप के किसी भी सवाल का जवाब देना उचित नहीं समझता. मैं अपनी मां और बहन को ले कर घर जा रहा हूं. कल मैं आप लोगों की शिकायत एसपी साहब से करूंगा. आप ने मुझे समझ क्या रखा है. मैं भी एक पुलिस अधिकारी का बेटा और एनआरआई हूं.’’

दीपक की धमकी सुन कर एकबारगी तो पुलिस अधिकारी खामोश रह गए. लेकिन डीएसपी साहब ने इशारा किया तो दीपक को अलग ले जा कर थोड़ी सख्ती से पूछताछ की गई. फिर तो उस ने जो बताया, सुन कर पुलिस अधिकारी हैरान रह गए. पता चला, घर वालों ने ही सुपारी दे कर मदनलाल की हत्या करवाई थी, जिस में मदनलाल की निर्मल कौर ही नहीं, विदेश में रह रहे उस के दोनों बेटे भी शामिल थे. इस तरह 72 घंटे में इस केस का खुलासा हो गया.

पुलिस ने दीपक और उस की मां निर्मल कौर को हिरासत में ले लिया. अगले दिन दोनों को अदालत में पेश कर के विस्तार से पूछताछ एवं सबूत जुटाने के लिए 2 दिनों के पुलिस रिमांड पर लिया. रिमांड अवधि के दौरान सब से पहले दीपक की निशानदेही पर इस हत्याकांड में शामिल 2 अन्य अभियुक्तों की गिरफ्तारी के लिए छापा मारा गया.

इस छापेमारी में अहिराना कला-मोहितयाना निवासी सतपाल के बेटे सुखदीप को तो गिरफ्तार कर लिया गया, लेकिन दूसरा अभियुक्त सोहनलाल का बेटा रछपाल फरार हो गया. तीनों अभियुक्तों से पूछताछ में मदनलाल की हत्या की जो कहानी प्रकाश में आई, वह इस प्रकार थी—

यह बात सही थी कि मदनलाल का परिवार रुपएपैसे से काफी सुखी था, लेकिन यह बात भी सही है कि रुपएपैसे से इंसान को वह सुख नहीं मिलता, जिस के लिए वह जीवन भर भागता रहता है. ऐसा ही कुछ मदनलाल के घर भी था. 5 साल पहले रिटायर हो कर वह अपने घर आए तो 2 साल तो बहुत अच्छे से गुजरे. घर का माहौल भी काफी अच्छा रहा.

लेकिन अचानक न जाने क्या हुआ कि मदनलाल डिप्रेशन में रहने लगे. धीरेधीरे उन की यह बीमारी बढ़ती गई. फिर एक समय ऐसा आ गया, जब छोटीछोटी बातों पर वह उत्तेजित हो उठते और आपे से बाहर हो कर घर वालों से मारपीट करने लगते. इस में हैरानी वाली बात यह थी कि मदनलाल का यह व्यवहार केवल घर वालों तक ही सीमित था. बाहर वालों के साथ उन का व्यवहार सामान्य रहता था.

बेटे जब भी छुट्टी पर आते, पिता को समझाते. उन के रहने तक तो वह ठीक रहते, उन के जाते ही वह पहले की ही तरह व्यवहार करने लगते. मदनलाल लगभग रोज ही पत्नी और बेटी के साथ मारपीट तो करते ही थे, इस से भी ज्यादा परेशानी की बात यह थी कि वह उन्हें घर से भी निकाल देते थे. ऐसे में निर्मल कौर अपनी जवान बेटी को ले कर डरीसहमी रात में किसी के घर छिपी रहती थीं.

अपनी परेशानी निर्मल कौर फोन द्वारा बेटों को बताती रहती थीं. पिता के इस व्यवहार से विदेश में रह रहे बेटे भी परेशान रहते थे. कभीकभी की बात होती तो बरदाश्त भी की जा सकती थी, लेकिन लगभग 3 सालों से यही सिलसिला चला रहा था.

पिता सुधर जाएंगे, तीनों बेटे इस बात का इंतजार करते रहे. लेकिन सुधरने के बजाय वह दिनोंदिन बिगड़ते ही जा रहे थे. घर से हजारों मील दूर बैठे बेटे हर समय मां और बहन के लिए परेशान रहते थे. आखिर जब पानी सिर से ऊपर गुजरने लगा तो तीनों भाइयों ने मिल कर एक खतरनाक योजना बना डाली. यह योजना थी पिता के वजूद को ही खत्म करने की.

इस योजना में निर्मल कौर भी शामिल थी. हां, बेटी जरूर मना करती रही थी, पर उसे सभी ने यह कह कर चुप करा दिया कि वह पराया धन है, उसे आज नहीं तो कल इस घर से चली जाना है. वे सब कब तक इस तरह घुटघुट कर जीते रहेंगे? कल शादियां होने पर उन की पत्नियां आएंगी, तब वे क्या करेंगे.

भाइयों का भी कहना अपनी जगह ठीक था, इसलिए बहन खामोश रह गई. अब जो करना था, दीपक और निर्मल कौर को करना था. योजना के अनुसार, 9 जून, 2017 को दीपक कुवैत से घर आ गया. घर आते ही वह अपने दोस्तों सुखदीप सिंह और रछपाल से मिला और उन्हें पिता को रास्ते से हटाने की सुपारी 2 लाख रुपए में दे दी, साथ ही यह भी वादा किया कि वह उन्हें कुवैत में सैटल करा देगा.

इस के बाद दीपक के भाई प्रिंसपाल ने कुवैत से दीपक के खाते में डेढ़ लाख रुपए भेज दिए, जिस में से दीपक ने 1 लाख रुपए सुखदीप और रछपाल को दे दिए. बाकी पैसा उस ने काम होने के बाद देने को कहा.

दीपक के दोस्तों में सुखदीप तो सीधासादा युवक था, लेकिन रछपाल पेशेवर अपराधी था. उस पर सन 2011 से दोहरे हत्याकांड का केस चल रहा है. वह इन दिनों पैरोल पर जेल से बाहर आया हुआ था.

योजना के अनुसार, 15 जून की रात 9 बजे दीपक, सुखदीप और रछपाल शामचौरासी-पंडोरी रोड पर इकट्ठा हुए. वहीं से दीपक ने मदनलाल को फोन किया, ‘‘पापाजी, मेरी गाड़ी पंडोरी के पास खराब हो गई है. आप अपनी मोटरसाइकिल ले कर आ जाइए तो मैं आप के साथ आराम से चला चलूं.’’

मदनलाल किसी समस्या की वजह से मानसिक बीमारी से जरूर परेशान थे, लेकिन ऐसा भी नहीं था कि उन्हें अपनी जिम्मेदारी का अहसास नहीं था या वह अपना भलाबुरा नहीं समझते था. वह सिर्फ निर्मल कौर को ही देख कर उत्तेजित होते थे. वह ऐसा क्यों करते थे, इस बात को जानने की कभी किसी ने कोशिश नहीं की.

बहरहाल, दीपक का फोन आने के बाद मदनलाल ने कहा कि वह चिंता न करे, मोटरसाइकिल ले कर वह पहुंच रहे हैं. जबकि उस दिन उन की तबीयत ठीक नहीं थी और वह खेतों पर भी नहीं जाना चाहते थे. पर बेटे की परेशानी सुन कर उन्होंने मोटरसाइकिल उठाई और दीपक की बताई जगह पर पहुंच गए.

दीपक, रछपाल और सुखदीप तलवारें लिए वहां छिपे बैठे थे. मदनलाल के पहुंचते ही तीनों उन पर इस तरह टूट पड़े कि उन्हें संभलने का मौका ही नहीं मिला. पलभर में ही मदनलाल सड़क पर गिर कर हमेशा के लिए शांत हो गए. इस तरह बेटे के हाथों मानसिक रूप से बीमार पिता का अंत हो गया.

मदनलाल की हत्या कर सभी अपनेअपने घर चले गए. अगले दिन दीपक ने मां के साथ मिल कर पिता को खोजने का नाटक शुरू किया. लेकिन उस का यह नाटक जल्दी ही पुलिस ने पकड़ लिया.

पुलिस ने दीपक और सुखदीप की निशानदेही पर हत्या में प्रयुक्त तलवारें बरामद कर ली थीं. निर्मल कौर और उस के कुवैत में रहने वाले बेटे प्रिंसपाल सिंह पर भी पुलिस ने धारा 120 लगाई है. रिमांड खत्म होने पर पुलिस ने निर्मल कौर, दीपक तथा सुखदीप को अदालत में पेश किया, जहां से सभी को न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया. तीसरा अभियुक्त रछपाल सिंह अभी पुलिस की पहुंच से दूर है. पुलिस उस की तलाश कर रही है.

– कथा पुलिस सूत्रों पर आधारित

एहसान फरामोश : पैसों के लालच में भांजे ने कर दी मामा की हत्या

7 मई, 2017 की शाम 5 बजे गुड़गांव में नौकरी करने वाले देवेंद्र के फोन पर उस के भाई संदीप का मैसेज आया कि उस के मोबाइल फोन का स्पीकर खराब हो गया है, इसलिए वह बात नहीं कर सकता. वह रात को बस से निकलेगा, जिस से सुबह तक गुड़गांव पहुंच जाएगा. देवेंद्र खाना खा कर लेटा था कि संदीप का जो मैसेज रात 11 बजे उस के फोन पर आया, उस ने उस के होश उड़ा दिए. मैसेज में संदीप ने लिखा था कि वह कोसी के एक रेस्टोरेंट में खाना खा रहा था, तभी उस की तबीयत खराब हो गई. वह कुछ कर पाता, तभी कुछ लोगों ने उस का अपहरण कर लिया. इस समय वह एक वैन में कैद है. वैन में एक लाश भी रखी है. किसी तरह वह उसे छुड़ाने की कोशिश करे.

मैसेज पढ़ कर देवेंद्र के हाथपैर फूल गए थे. उस ने तुरंत गुड़गांव में ही रह रहे अपने करीबी धर्मेंद्र प्रताप सिंह को फोन कर के सारी बात बताई और किसी भी तरह भाई को मुक्त कराने के लिए कहा. देवेंद्र से बात होने के बाद धर्मेंद्र प्रताप सिंह उसे बाद में आने को कह कर खुद कोसी के लिए चल पड़े. रात में ही वह कोसी पहुंचे और थानाकोतवाली कोसी पुलिस को संदीप के अपहरण की सूचना दी.

कोतवाली प्रभारी ने तुरंत नाकाबंदी करा दी. सुबह 5 बजे देवेंद्र भी कोसी पहुंच गया. उस ने अपराध संख्या 129/2017 पर धारा 364 के तहत संदीप के अपहरण की रिपोर्ट दर्ज करा दी. कोसी कोतवाली ने रिपोर्ट तो दर्ज कर ली, लेकिन जब देवेंद्र ने बताया कि संदीप आगरा आया था और वहीं से वह कोसी जा रहा था, तभी उस का अपहरण हुआ है. इस पर कोतवाली प्रभारी ने कहा कि उन्हें आगरा जा कर भी पता करना चाहिए, जहां वह ठहरा था. शायद वहीं से कोई सुराग मिल जाए. देवेंद्र धर्मेंद्र प्रताप सिंह के साथ आगरा के लिए चल पड़ा. संदीप आगरा के थाना सिकंदरा के अंतर्गत आने वाले मोहल्ला नीरव निकुंज में ठहरा था. देवेंद्र और धर्मेंद्र ने थाना सिकंदरा जा कर थानाप्रभारी राजेश कुमार को सारी बात बताई तो उन्होंने कहा, ‘‘आज सुबह ही बोदला रेलवे ट्रैक के पास तालाब में एक सिरकटी लाश मिली है. आप लोग जा कर उसे देख लें, कहीं वह आप के भाई की तो नहीं है?’’

लेकिन देवेंद्र ने कहा, ‘‘रात में 11 बजे तो भाई ने मुझे मैसेज किया था. उन के साथ ऐसी अनहोनी कैसे हो सकती है? फिर उन की हत्या कोई क्यों करेगा?’’

इस बीच देवेंद्र की सूचना पर घर के अन्य लोग भी रिश्तेदारों के साथ आगरा पहुंच गए थे. सभी लोग इस बात को ले कर परेशान थे कि कहीं संदीप के साथ कोई अनहोनी तो नहीं घट गई? सभी को शिवम ने अपने कमरे पर ठहराया था. शिवम संदीप और देवेंद्र का भांजा था. पूछताछ में संदीप के घर वालों ने थाना सिकंदरा पुलिस को बताया था कि संदीप जिस लड़की उमा (बदला हुआ नाम) से प्यार करता था, वह आगरा में ही रहती है. दोनों विवाह करना चाहते थे, लेकिन लड़की के घर वाले इस संबंध से खुश नहीं थे.

घर वालों की इस बात से पुलिस को उमा के घर वालों पर शक हुआ. लेकिन जब उमा को बुला कर पूछताछ की गई तो उस ने बताया कि उस दिन दोपहर दोनों ने एक रेस्टोरेंट में साथसाथ खाना खाया था. उस समय संदीप की तबीयत काफी खराब थी.

उमा जिस तरह बातें कर रही थी, उस से किसी को भी नहीं लगा कि संदीप के साथ किसी भी तरह के हादसे में वह शामिल हो सकती थी. सभी शिवम के कमरे पर बैठे बातें कर रहे थे, तभी शिवम संदीप के बड़े भाई प्रदीप के साले कैलाश का फोन ले कर बाहर चला गया. वह काफी देर तक न जाने किस से बातें करता रहा. अंदर आ कर उस ने कैलाश का फोन वापस कर दिया. सुबह कैलाश ने अपना फोन देखा तो संयोग से उस में शिवम की बातें रिकौर्ड हो गई थीं. जब वह रिकौर्डिंग सुनी गई तो सभी अपनाअपना सिर थाम कर बैठ गए.

रिकौर्डिंग में शिवम अपने दोस्त आशीष से कह रहा था, ‘‘तुम अभी जा कर अपने मोबाइल फोन के गायब होने की रिपोर्ट दर्ज करा दो. उस के बाद किसी दूसरे सिम से संदीप मामा के भाई देवेंद्र को फोन कर के कहो कि संदीप मामा लड़की के चक्कर में मारे गए हैं. अब वे उन्हें ढूंढना बंद कर दें.’’

फिर क्या था, अब संदेह की कोई गुंजाइश नहीं रह गई थी. सभी शिवम को ले कर कोसी के लिए चल पड़े. रास्ते भर शिवम यही कहता रहा कि उस ने कुछ नहीं किया है. क्योंकि उसे पता नहीं था कि उस ने कैलाश के फोन से जो बातें की थीं, वे रिकौर्ड हो गई थीं और उन्हें सब ने सुन लिया था.

शिवम को थाना कोसी पुलिस के हवाले करने के साथ वह रिकौर्डिंग भी सुना दी गई, जो उस ने आशीष से कहा था. शिवम ने भी वह रिकौर्डिंग सुन ली तो फिर मना करने का सवाल ही नहीं रहा. उस ने अपने सगे मामा संदीप की हत्या का अपना अपराध स्वीकार कर लिया. इस के बाद की गई पूछताछ में उस ने संदीप की हत्या की जो कहानी सुनाई, वह इस प्रकार थी—

उत्तर प्रदेश के जिला कासगंज के थाना सहावर से कोई 7 किलोमीटर दूर बसा है गांव म्यासुर. इसी गांव में विजय अपने 3 भाइयों प्रदीप, संदीप और देवेंद्र के साथ रहता था. उस की 2 बहनें थीं, मंजू और शशिप्रभा. मंजू की शादी फिरोजाबाद में संजय के साथ हुई थी. वह सरस्वती विद्या मंदिर में अध्यापक था. उस ने अपनी एक न्यू एवन बैंड पार्टी भी बना रखी थी. मंजू से छोटी शशिप्रभा की शादी एटा में हुई थी.

विजय और प्रदीप ज्यादा नहीं पढ़ पाए थे. शादी के बाद दोनों भाई खेती करने के अलावा खर्चे के लिए गांव में ही घर की जरूरतों के सामानों की एक दुकान खोल ली थी. दोनों भाई भले ही नहीं पढ़ पाए थे, लेकिन वे अपने छोटे भाइयों संदीप और देवेंद्र की पढ़ाई पर विशेष ध्यान दे रहे थे.

इसी का नतीजा था कि संदीप ने बीटेक कर लिया. इस के बाद उसे दिल्ली में नौकरी मिल गई तो वह देवेंद्र को भी अपने साथ दिल्ली ले आया. देवेंद्र नौकरी करने के साथसाथ सीए की तैयारी भी कर रहा था. विजय का अपना परिवार तो व्यवस्थित हो गया था, लेकिन बड़ी बहन मंजू के पति की मौत हो जाने से वह परेशानी में पड़ गई. उस के 3 बच्चे थे, 2 बेटे शिवम और दीपक तथा एक बेटी मानसी.

पति की मौत से मंजू को खर्चा चलाना मुश्किल हो गया तो विजय भांजों की पढ़ाई का नुकसान न हो, यह सोच कर उन्हें अपने घर ले आया. उधर मंजू को एक स्कूल में आया की नौकरी मिल गई तो उस की परेशानी थोड़ी कम हो गई.

शिवम ने मामा के घर रह कर इंटर तक की पढ़ाई की. बहन की परेशानी को देखते हुए विजय उसे अपने घर रख कर पढ़ा तो रहा था, लेकिन वह भांजे से खुश नहीं था. इस की वजह यह थी कि उस के खर्चे बहुत ज्यादा थे. किसी की समझ में नहीं आ रहा था कि वह रुपए कहां खर्च करता है.

जब तक शिवम ननिहाल में रहा, तब तक थोड़ाबहुत मामा के अंकुश में रहा. लेकिन 12वीं पास कर के वह मां के पास आ गया तो पूरी तरह से आजाद हो गया. फिरोजाबाद में उस ने बीएससी करने के लिए एक कालेज में दाखिला ले लिया.

ननिहाल से उसे पढ़ाई का खर्चा मिल रहा था, इस के बावजूद अपने अन्य खर्चों के लिए वह जब चाहता, घर का कोई न कोई सामान बेच देता. इसी तरह धीरेधीरे एकएक कर के उस ने पिता की बैंड पार्टी के सारे बाजे बेच दिए. उस की इन हरकतों से मां ही नहीं, मामा भी दुखी थे. लेकिन सब यही सोच रहे थे कि पढ़लिख कर वह कुछ करने लगेगा तो चिंता खत्म हो जाएगी. लेकिन ऐसा हो नहीं सका.

सब की अपनीअपनी परेशानियां थीं, ऐसे में शिवम पर नजर रखना आसान नहीं था. शिवम ने बीएससी कर लिया तो विजय ने गुड़गांव में अच्छी कंपनी में इंजीनियर के रूप में काम करने वाले अपने छोटे भाई संदीप से कहा कि वह शिवम को अपने साथ रख कर कहीं कोई काम दिला दे, वरना वह हाथ से निकल जाएगा.

संदीप गुड़गांव में छोटे भाई देवेंद्र के साथ रहता था. वह वहां एक प्राइवेट कंपनी में इंजीनियर था. उसे बढि़या तनख्वाह मिल रही थी. वह अपनी रिश्तेदारी की एक लड़की उमा से प्यार करता था. वह आगरा के दयालबाग में परिवार के साथ रहती थी. लेकिन उमा के घर वाले संदीप से उस की शादी नहीं करना चाहते थे.

जबकि उमा ने घर वालों से साफ कह दिया था कि वह शादी संदीप से ही करेगी. यही नहीं, वह संदीप से खुलेआम मिलनेजुलने भी लगी थी. दोनों जल्दी ही शादी करने वाले थे.

भाई के कहने पर संदीप ने शिवम को अपने पास गुड़गांव बुला लिया और किसी प्राइवेट कंपनी में उस की नौकरी लगवा दी. सब को लगा कि अब शिवम सुधर जाएगा. लेकिन ऐसा हो नहीं सका. उस ने करीब एक साल तक नौकरी की, लेकिन इस बीच एक पैसा उस ने न मां को दिया और न मामा को. देने की कौन कहे, वह उलटा मां या मामाओं से पैसे लेता रहा.

फिर एक दिन अचानक शिवम नौकरी छोड़ कर फिरोजाबाद चला गया. वहां वह एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाने लगा. सब ने सोचा कि कुछ तो कर ही रहा है, इसलिए किसी ने कुछ नहीं कहा. लेकिन जब मंजू को पता चला कि शिवम जो कमाता है, वह जुए और शराब पर उड़ा देता है तो उसे चिंता हुई. उस ने यह बात भाइयों को बताई तो वे भी परेशान हो उठे.

मामा शिवम की जिंदगी बनाना चाहते थे. इस की वजह यह थी कि उन्हें बहन की चिंता थी. फिरोजाबाद में रहते हुए शिवम को किसी लड़की से प्यार हो गया. अब उस का एक खर्च और बढ़ गया. उस के इस प्यार की जानकारी संदीप को हुई तो उस ने उसे समझाया कि उस की कमाईधमाई है नहीं और वह लड़की के चक्कर में पड़ा है.

पर शिवम को कहां किस की फिक्र थी. वह तो अपने में ही मस्त था. उसी बीच एक दिन वह गुड़गांव पहुंचा और संदीप से कहा कि वह एक बहुत बड़ी मुसीबत में फंस गया है.

उस की प्रेमिका गर्भवती हो गई है. अगर किसी को पता चल गया तो वह मुसीबत में फंस जाएगा. अगर वह उसे कुछ पैसे दे दें तो वह इस मुसीबत से छुटकारा पा ले.

शिवम की बात पर संदीप को गुस्सा तो बहुत आया, पर मरता क्या न करता. मुसीबत से बचने के लिए संदीप ने उसे 6 हजार रुपए दे दिए.

गुड़गांव में नौकरी करते हुए संदीप और देवेंद्र ने ब्राबो टेक्सटाइल्स नाम से एक कंपनी खोली. उन्हें उत्तर प्रदेश में मार्केटिंग के लिए एक तेजतर्रार आदमी की जरूरत थी. अब तक संदीप को पता चल चुका था कि शिवम ने प्रेमिका के गर्भवती होने की बात बता कर जो पैसे लिए थे, वह झूठी थी. इस के बावजूद उस ने सोचा कि अगर वह शिवम को उत्तर प्रदेश में मार्केटिंग में लगा दें तो शायद वह सुधर जाए.

संदीप ने शिवम को फोन कर के गुड़गांव बुलाया और ऊंचनीच समझा कर उस से अपने लिए काम करने को कहा. संदीप के कहने पर शिवम उस के लिए काम करने को तैयार हो गया. संदीप ने उसे 12 हजार रुपए प्रति महीना वेतन देने को कहा. कारोबार के लिए के.के. नगर, आगरा में एक कमरा भी ले लिया.

संदीप का सोचना था कि इसी बहाने वह आगरा आता रहेगा, जहां उसे प्रेमिका से मिलने में कोई परेशानी नहीं होगी. शिवम को लगभग 1 लाख रुपए के रेडीमेड कपड़े दिलवा दिए गए. जिस से कमा कर देने की कौन कहे, शिवम ने पूंजी भी गंवा दी. संदीप को गड़बड़ी का आभास हुआ तो वह देवेंद्र के साथ आगरा पहुंचा.

आगरा पहुंच कर दोनों भाइयों को पता चला कि शिवम ने व्यापारियों से पैसे ले कर जुए और शराब पर खर्च कर दिए हैं. यह जान कर संदीप ने शिवम की पिटाई तो की ही, फिरोजाबाद ले जा कर बहन से भी उस की शिकायत की. यही नहीं, उस की प्रेमिका को बुला कर उस से भी सारी बात बता दी. जब शिवम की प्रेमिका को पता चला कि उसे गर्भवती बता कर शिवम ने मामा से पैसे ठगे हैं तो उसे बहुत गुस्सा आया. उस ने उसी दिन शिवम से संबंध तोड़ लिए.

संदीप ने तो अपनी समझ से शिवम के लिए अच्छा किया था, पर उस की यह हरकत शिवम को ही नहीं, मंजू को भी नागवार गुजरी. बहन ने बेटे को समझाने के बजाय उस का पक्ष लिया. मां की शह मिलने से शिवम का हौसला और बुलंद हो गया. फिर क्या था, वह मामा से बदला लेने की सोचने लगा.

संदीप समझ गया कि अब शिवम कभी नहीं सुधरेगा, इसलिए उस ने सोच लिया कि अब वह उस की कोई मदद नहीं करेगा. दूसरी ओर शिवम मामा से अपने अपमान का बदला लेने की योजना बनाने लगा. इस के लिए उस ने आगरा के थाना सिकंदरा के मोहल्ला नीरव निकुंज में दीवानचंद ट्रांसपोर्टर के मकान में ऊपर की मंजिल में एक कमरा किराए पर लिया. अब वह इस बात पर विचार करने लगा कि मामा को कैसे गुड़गांव से आगरा बुलाया जाए, जिस से वह उस से बदला ले सके?

काफी सोचविचार कर उस ने एक कहानी गढ़ी और 6 मई, 2017 को गुड़गांव मामा के पास पहुंचा. क्योंकि उस दिन मकान मालिक परिवार के साथ कहीं बाहर गए हुए थे. घर खाली था. उसे देख कर न संदीप खुश हुआ और न देवेंद्र. इसलिए दोनों ने ही पूछा, ‘‘अब तुम यहां क्या करने आए हो?’’

‘‘मामा, मैं जानता हूं कि आप लोग मुझ से काफी नाराज हैं, इसीलिए मुझे आना पड़ा. क्योंकि मैं फोन करता तो आप लोग मेरी बात पर यकीन नहीं करते. एक व्यापारी ने पैसे देने को कहा है, मैं चाहता हूं कि आप खुद चल कर वह पैसा ले लें.’’ शिवम ने कहा.

‘‘भैया, इस की बात पर बिलकुल विश्वास मत करना.’’ देवेंद्र ने शिवम को घूरते हुए कहा.

लेकिन शिवम कसमें खाने लगा तो संदीप को उस की बात पर यकीन करना पड़ा. शिवम के झांसे में आ कर वह उसी दिन यानी 6 मई को शिवम के साथ चल पड़ा. शाम को संदीप शिवम के साथ उस के कमरे पर पहुंच गया. गुड़गांव से चलते समय संदीप ने उमा को फोन कर के आगरा आने की बात बता दी थी.

कमरे पर पहुंचते ही शिवम ने संदीप को कोल्डड्रिंक पिलाई, जिसे पीते ही उसे अजीब सा लगने लगा. कुछ देर बाद उमा आई तो उस ने यह बात उसे भी बताई. तब उमा ने शिवम से पूछा, ‘‘तुम ने कोल्डड्रिंक में कुछ मिलाया तो नहीं था?’’

उमा के इस सवाल पर शिवम एकदम से घबरा गया. लेकिन उस ने तुरंत खुद को संभाल कर कहा, ‘‘आप भी कैसी बातें कर रही हैं, मैं भला मामा के कोल्डड्रिंक में कुछ क्यों मिलाऊंगा?’’

इस के बाद यह बात यहीं खत्म हो गई. अगले दिन रेस्टोरेंट में मिलने का वादा कर के उमा चली गई. उस दिन शिवम सुबह ही से गायब हो गया. उस का मोबाइल फोन भी बंद हो गया. शिवम का कुछ पता नहीं चला तो संदीप ने उमा को फोन किया और कमलानगर स्थित एक रेस्टोरेंट में पहुंचने को कहा.

उमा के साथ खाना खाते हुए भी संदीप ने कहा कि अभी भी उस की तबीयत ठीक नहीं है. तब उमा ने कहा, ‘‘कहीं गरमी की वजह से तो ऐसा नहीं हो रहा?’’

‘‘जो कुछ भी हो, अब मैं कमरे पर जा कर आराम करना चाहता हूं.’’ संदीप ने कहा.

इस के बाद उमा अपने घर चली गई तो संदीप कमरे पर आ गया. संदीप कमरे पर पहुंचा तो शिवम कमरे पर ही मौजूद था. उस ने उसे डांटते हुए पूछा, ‘‘कहां था तू? तुझे पता था कि मेरी तबीयत ठीक नहीं है.’’

‘‘एक दोस्त से मिलने चला गया था.’’ शिवम ने कहा.

संदीप कुछ और कहता, उस के छोटे बहनोई कमल सिंह का फोन आ गया. उस ने बहनोई को बताया कि इस समय वह आगरा में शिवम के कमरे पर है. लेकिन उस की तबीयत ठीक नहीं है. ऐसा कोल्डड्रिंक पीने से हुआ है.

कमल सिंह ने उसे ग्लूकोन डी या नींबूपानी पीने की सलाह दी. शिवम तुरंत ग्लूकोन डी ले आया और पानी में घोल कर संदीप को पिला दिया. ग्लूकोन डी पीने के बाद संदीप की तबीयत ठीक होने की कौन कहे, वह बेहोश हो गया.

इस के बाद शिवम ने संदीप का ही नहीं, अपना फोन भी बंद कर दिया. वह बाजार गया और 2 नए ट्रौली बैग खरीद कर ले आया. ये बैग उस ने संदीप के पर्स से पैसे निकाल कर विशाल मेगामार्ट से खरीदे थे. चाकू उस ने पहले ही 2 सौ रुपए में खरीद कर रख लिया था. उस ने संदीप की कोल्डड्रिंक में भी नशीली दवा मिलाई थी और ग्लूकोन डी में भी. इसीलिए वह ग्लूकोन डी पीते ही बेहोश हो गया था. सारी तैयारी कर के पहले तो शिवम ने ईंट से संदीप के सिर पर वार किए, उस के बाद चाकू से उस का सिर धड़ से काट कर अलग कर दिया.

सिर को वह एक पौलीथिन में डाल कर बोदला रेलवे ट्रैक के पास की झाडि़यों में फेंक आया. इस के बाद धड़ से पैरों को अलग किया और ट्रौली बैग में भर कर बोदला रेलवे ट्रैक के पास तालाब में फेंक आया. चाकू भी उस ने उसी तालाब में फेंक दिया था.

वापस आ कर पहले उस ने कमरे का खून साफ किया, उस के बाद फिनायल से धोया. गद्दे में खून लगा था. उसे ठिकाने लगाने के लिए उस ने मकान मालिक से कहा कि उस के गद्दे में चूहा मर गया है, इसलिए वह उसे जलाने जा रहा है. इस के बाद पड़ोस के खाली पड़े प्लौट में गद्दे को ले जा कर जला दिया. इतना सब कर के वह निश्चिंत हो गया कि अब उस का कोई कुछ नहीं कर सकता.

लेकिन जिस तरह हर अपराधी कोई न कोई गलती कर के पकड़ा जाता है, उसी तरह शिवम भी कैलाश के फोन से आशीष को फोन करके पकड़ा गया. संदीप अब इस दुनिया में नहीं है, यह जान कर घर में कोहराम मच गया. पता चला कि थाना सिकंदरा द्वारा बरामद की गई लाश संदीप की ही थी. पुलिस को वह पौलीथिन तो मिल गई थी, जिस में संदीप का सिर रख कर फेंका गया था, लेकिन सिर नहीं मिला था. धड़ और पैर तालाब से बरामद हो गए थे.

पुलिस ने पोस्टमार्टम करा कर धड़ और पैर घर वालों को सौंप दिए थे. संदीप की मौत से पूरा गांव दुखी था, क्योंकि वह गांव का होनहार लड़का था. मंजू के लिए परेशानी यह है कि अब तक भाइयों से रिश्ता निभाए या बेटे की पैरवी करे. बड़े भाई विजय ने तो साफ कह दिया है कि वह बेटे की हो कर रहे या उन लोगों की. क्योंकि दोनों की हो कर वह नहीं रह सकती.

पूछताछ के बाद पुलिस ने शिवम को अदालत में पेश किया, जहां से उसे जेल भेज दिया गया. शिवम ने मामा की हत्या कर उस थाली में छेद किया है, जिस में खा कर वह इतना बड़ा हुआ है. ऐसे आदमी को जो भी सजा मिले, वह कम ही होगी.

आनंदपाल एनकाउंटर : सियासी मोहरे की मौत

समय बदल गया, लोकतंत्र के रूप में स्वतंत्र भारत के उदय होने के साथ ही सत्ता पर कब्जा पाने के लिए तिकड़मी नेताओं ने राजनीति की नई बिसात बिछा कर देश में छलकपट का खेल शुरू कर दिया था. फर्क सिर्फ इतना रहा कि सत्ता को हासिल करने के लिए छलकपट करने वाले चेहरे और कथानक बदल गए. आज की राजनीति के दौर में धार्मिक उन्माद भरना और अपराधियों का जातीयकरण कर के उन्हें राजनैतिक संरक्षण देना आज के नेताओं की राजनीति का प्रमुख हिस्सा बन गया है. देश में साफसुथरी राजनैतिक मूल्यों के आधार पर आज राजनीति करने वाले नेता कम ही रहे हैं.

राजनीति के शिखर पर पहुंचने की जल्दी में राजनीति का माफियाकरण हो गया है. देश में बिहार के धनबाद जिले से कोयला माफिया के रूप में बाहुबली नेताओं के राजनीति में आने की शुरुआत हुई थी, जो धीरेधीरे पूरे देश में फैल गई. उत्तर प्रदेश, बिहार सहित देश के अन्य राज्यों में भी बाहुबली अपराधियों ने चुनाव लड़ कर राजनीति में भागीदारी हासिल कर ली.

पहले जहां नेता अपराधियों का इस्तेमाल कर के चुनाव जीतते थे, अब अपराधी खुद ही बाहुबल, धनबल से चुनाव जीत कर सांसद और विधायक बनने लगे हैं. राजनेताओं द्वारा भष्मासुर अपराधी पैदा करने की रीति राजस्थान के नेताओं में कम ही रही है.

अन्य राज्यों की अपेक्षा शांत माने जाने वाले राजस्थान में भी इधर नेताओं ने अपना हित साधने के लिए अपनीअपनी जाति के अपराधियों को संरक्षण देना शुरू कर दिया है. राजस्थान की जाट जाति मूलरूप से खेतीकिसानी करने वाली जाति मानी जाती है, जबकि राजपूत शासक और सामंत रहे हैं, जिस की वजह से जाट जाति राजपूतों की दबंगई का शिकार बनती रही है.

आजादी के बाद जाट कांग्रेस के समर्थक बन गए थे, जबकि राजपूत जागीरदारी छिनने की वजह से कांग्रेस के घोर विरोधी रहे हैं. राजस्थान के शेखावाटी, मारवाड़ अंचल में कांग्रेस की सरकारों के साथ मिल कर जाटों ने अपनी राजनीति खूब चमकाई. समूचे शेखावाटी, मारवाड़ इलाके में कांग्रेस पार्टी के टिकट पर जाट विधायक और सांसद का चुनाव जीतते रहे हैं.

यही वजह रही कि भाजपा ने कांग्रेस को शिकस्त देने के लिए राजपूत, बनिया और ब्राह्मणों को अपनी ओर खींचा. जाति का यह नया समीकरण भाजपा को जीत दिलाने में कामयाब भी रहा. इस में यूनुस खान के आ जाने से कुछ मुसलिमों का भी समर्थन मिल गया. यूनुस खान के विधानसभा क्षेत्र डीडवाना में मुसलिम, राजपूत और जाटों के निर्णायक वोट थे. इन में राजपूतों और मुसलिमों को जोड़ कर यूनुस खान चुनाव जीत कर विधायक बन गए. युनूस खान के विधानसभा क्षेत्र में रूपाराम डूडी जाटों के दबंग नेता रहे हैं. उन के समय में डीडवाना विधानसभा क्षेत्र में जाट जाति के अपराधियों का बोलबाला रहा.

जाटों की दबंगई खत्म करने और राजपूतों में अपना प्रभाव जमाने के लिए यूनुस खान को एक दबंग राजपूत की जरूरत थी. उसी बीच उन के इलाके में राजपूतों में आनंदपाल सिंह अपराधी के रूप में उभरा. अपराधी प्रवृत्ति के जीवनराम गोदारा को कांग्रेस के जाट नेताओं का खुला संरक्षण मिला था.

लेकिन यूनुस खान ने आनंदपाल सिंह के बल पर क्षेत्र के जाटों की दबंगई को खत्म कर के नागौर, चुरू और झुंझनू में राजपूत, मुसलिम, बनियों और ब्राह्मणों का गठजोड़ कर इन जिलों में भाजपा को स्थापित करने के लिए आनंदपाल सिंह से मिल कर दिनदहाड़े जीवनराम गोदारा की हत्या करा दी.

इस के बाद यूनुस खान ही नहीं, नागौर और चुरू जिलों के भाजपा के राजपूत नेता खुल कर आनंदपाल सिंह को राजनीतिक संरक्षण देने लगे. आनंदपाल की गुंडई की बदौलत मकराना की मार्बल खदानों पर कब्जे करने से ले कर जमीनों पर कब्जे करने के मामलों में यूनुस खान के परिवार वालों के नामों की धमक पूरे राजस्थान में सुनी जाने लगी. सन 2013 के विधानसभा चुनाव में आनंदपाल सिंह ने खुल कर यूनुस खान को चुनाव जिताने में मदद की. चूंकि यह कहानी आनंदपाल सिंह की है, इसलिए पहले उस के बारे में जान लेना जरूरी है.

बात 27 जून, 2006 की है. राजस्थान के जिला नागौर के कस्बा डीडवाना का बाजार खुला हुआ था. मानसून ने दस्तक दे दिया था. सुबह से हलकी बूंदाबांदी हो रही थी. दोपहर 2 बजे के करीब कस्बे की गोदारा मार्केट की दुकान ‘पाटीदार बूटहाउस’ पर 4 लोग बैठे चाय पी रहे थे. उसी समय संदिग्ध लगने वाली 2 गाडि़यां दुकान के सामने आ कर रुकीं. उन में से 6 लोग उतरे. कोई कुछ समझ पाता, उस से पहले ही उन्होंने हथियार निकाल कर गोलियां चलानी शुरू कर दीं.

उन 6 लोगों में 6 फुट लंबा एक दढि़यल नौजवान भी था. सब से पहले उसी ने अपनी 9 एमएम पिस्तौल निकाल कर चाय पी रहे उन 4 लोगों में से सामने बैठे हट्टेकट्टे आदमी के सीने पर गोली दागी थी.

गोली चलाने वाले उस दढि़यल नौजवान का नाम आनंदपाल सिंह था और जिस हट्टेकट्टे आदमी के सीने में उस ने गोली दागी थी, उस का नाम जीवनराम गोदारा था.

सन 1992 में देश में राम मंदिर आंदोलन के समय नागौर की लाडनूं तहसील के गांव सांवराद के रहने वाले पप्पू उर्फ आनंदपाल सिंह की शादी थी. वह रावणा राजपूत बिरादरी से था. राजस्थान में सामंती काल में राजपूत पुरुष और गैरराजपूत महिलाओं की संतान को रावणा राजपूत कहा जाता है. इसलिए राजपूत इस बिरादरी को हिकारत की नजरों से देखते हैं.

चूंकि पप्पू असली राजपूत नहीं था, इसलिए बारात निकलने से पहले ही गांव के असली राजपूतों ने चेतावनी दे रखी थी कि अगर दूल्हा घोड़ी पर चढ़ा तो अंजाम ठीक नहीं होगा. क्योंकि घोड़ी पर सिर्फ असली राजपूत ही चढ़ सकता है.

चूंकि पप्पू घोड़ी पर चढ़ कर ही बारात निकालना चाहता था, इसलिए उस ने अपने एक दोस्त को याद किया, जिस का नाम था जीवनराम गोदारा. उस समय वह डीडवाना के बांगड़ कालेज का छात्रनेता हुआ करता था. जीवनराम खुद बारात में पहुंचा और अपने रसूख का इस्तेमाल कर के पप्पू को घोड़ी पर चढ़ा कर शान से बारात निकाली.

राजपूतों का ऐतराज अपनी जगह रह गया. इस के बाद दोनों में गाढ़ी दोस्ती हो गई. अब यहां सवाल यह उठता है कि पप्पू उर्फ आनंदपाल ने अपने ऐसे दोस्त जीवनराम गोदारा को क्यों मारा? दरअसल, यह मदन सिंह राठौड़ की हत्या का बदला था.

कहा जाता है कि कुछ महीने पहले फौज के जवान मदन सिंह की हत्या जीवनराम गोदारा ने इसलिए कर दी थी, क्योंकि जीवनराम राह चलती लड़कियों को छेड़ता था, जिस का मदन सिंह ने विरोध किया था. हत्या का तरीका भी बड़ा भयानक था. सिर पर पत्थर की पटिया से मारमार कर मदन सिंह को खत्म किया गया था.

इस हत्या ने जातीय रूप ले लिया था और सारा मामला राजपूत बनाम जाट में तब्दील हो गया था. पप्पू ने राजपूतों के मान के लिए जीवनराम की हत्या कर बदला ले लिया था. उसी पप्पू को, जिसे जीवनराम ने घोड़ी चढ़ाया था, लोग आनंदपाल सिंह के नाम से जानने लगे थे. उस के बाद वही आनंदपाल राजस्थान के माफिया इतिहास में मिथक बन गया.

आनंदपाल सिंह ऐसे ही माफिया नहीं बना था. वह पढ़नेलिखने में ठीक था. उस ने बीएड किया था. उस के पिता हुकुम सिंह चाहते थे कि वह सरकारी स्कूल में अध्यापक हो जाए. उस की शादी भी हो गई थी.

घर वालों ने उसे लाडनूं में एक सीमेंट एजेंसी दिलवा दी थी. इस की वजह यह थी कि घर वाले चाहते थे कि प्रतियोगी परीक्षाओं के साथसाथ वह अपना खर्चा भी निकालता रहे.

लेकिन आनंदपाल सिंह राजनीति में जाना चाहता था. सन 2000 में जिला पंचायत के चुनाव हुए. उस ने पंचायत समिति का चुनाव लड़ा और जीत भी गया. अब पंचायत समिति के प्रधान का चुनाव होना था. आनंदपाल सिंह ने निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में पर्चा भर दिया. उस के सामने था कांग्रेस के कद्दावर नेता हरजीराम बुरड़क का बेटा जगन्नाथ बुरड़क.

यह चुनाव आनंदपाल मात्र 2 वोटों से हार गया. लेकिन अनुभवी नेता रहे हरजीराम की समझ में आ गया कि यह नौजवान आगे चल कर उस के लिए खतरा बन सकता है. कांग्रेस सरकार में कृषि मंत्री रहे थे हरजीराम बुरड़क.

नवंबर, 2000 में पंचायत समिति की सहायक समितियों का चुनाव था. अब तक आनंदपाल और हरजीराम के बीच तकरार काफी बढ़ चुकी थी. कहा जाता है कि सबक सिखाने के लिए हरजीराम ने आनंदपाल के खिलाफ कई झूठे मुकदमे दर्ज करवा कर उसे गिरफ्तार करवा दिया.

तभी पुलिस ने आनंदपाल सिंह को ऐसा परेशान किया कि उस के कदम अपराध की दुनिया की ओर बढ़ गए. इस के बाद तो किसी की हत्या करना आनंदपाल के लिए खेल बन गया.

सीकर का श्री कल्याण कालेज स्थानीय राजनीति की पहली पाठशाला माना जाता है, जहां वामपंथी संगठन एसएफआई का दबदबा था. इस संगठन में जाटों की पकड़ काफी मजबूत थी. सन 2003 में जब वसुंधरा राजे के नेतृत्व में बीजेपी की सरकारी बनी तो यहां के छात्र नेता रह चुके कुछ नौजवान छात्र नेता राजनीतिक शह पा कर अपराध की डगर पर चल पड़े.

देखते ही देखते कई छात्र नेता शराब और भूमाफिया बन गए. ऐसे में एक नौजवान तेजी से उभरा, जिस का नाम था गोपाल फोगावट. गोपाल एसके कालेज में पढ़ते समय बीजेपी के छात्र संगठन एबीवीपी का कार्यकर्ता हुआ करता था. वह शहर के एसके हौस्पिटल में मेल नर्स भी था. उसी बीच सीपीएम के छात्र संगठन एसएफआई के कुछ लड़के गोपाल के करीब आ कर अवैध शराब की तस्करी में जुट गए. सीपीएम ने उन लड़कों को संगठन से बाहर निकाल दिया. उन में एक लड़का था राजू ठेहट. राजू का ही एक सहयोगी और दोस्त था बलबीर बानूड़ा. सन 2004 में राजू ने पैसे के लेनदेन को ले कर बलबीर के साले विजयपाल की हत्या कर दी. इस के बाद दोनों दोस्तों के बीच दुश्मनी हो गई.

राजू ठेहट को गोपाल फोगावट का संरक्षण मिला हुआ था. बलबीर बानूड़ा उस के सामने काफी कमजोर पड़ रहा था. तब उस ने बगल के जिले नागौर में अपनी धाक जमा रहे माफिया आनंदपाल सिंह से हाथ मिला लिया. अब बलबीर को उस मौके का इंतजार था, जब वह अपने साले की मौत का बदला ले सके. उन्हें यह मौका मिला 5 अप्रैल, 2006 को.

गोपाल फोगावट किसी शादी में शामिल होने के लिए अपने गांव तासर बड़ी जा रहा था. इस के लिए उस ने पहली बार सूट सिलवाया था. वह हौस्पिटल के पास ही स्थित सेवन स्टार टेलर्स की दुकान पर अपना सूट लेने पहुंचा.

जैसे ही गोपाल सूट का ट्रायल लेने के लिए ट्रायल रूम में घुसा, बलबीर बानूड़ा और उस के साथियों ने दुकान में घुस कर गोपाल को एक के बाद एक कर के 8 गोलियां मार दीं. गोलियां मार कर बलबीर बाहर निकल रहा था तो उसे लगा कि गोपाल फोगावट में अभी जान बाकी है. उस ने लौट कर 2 गोलियां उस के सिर में मारीं.

इस वारदात में आनंदपाल सिंह बलबीर के साथ था. धीरेधीरे आनंदपाल सिंह के गैंग ने शेखावाटी और मारवाड़ के बड़े हिस्से में शराब तस्करी और जमीन के अवैध कब्जे में अपनी धाक जमा ली. इस के बाद की कहानी में बस इतना ही कहा जा सकता है कि हमेशा एके47 ले कर चलने वाले इस गैंगस्टर को पकड़ने के लिए राजस्थान पुलिस को 3 हजार जवान तैनात करने पड़े. इन जवानों को खास किस्म की ट्रेनिंग भी दी गई थी. इसी के साथ उस पर 5 लाख का इनाम भी घोषित किया गया था.

वसुंधरा राजे जब पहली बार सत्ता में आई थीं, तब उन की छवि बाहरी नेता के रूप में थी. हालांकि उन की शादी राजस्थान के धौलपुर राजघराने में हुई थी. राजस्थान में राजपूतों की नेता के रूप में अपनी छवि बनाने के लिए उन्हें काफी मेहनत करनी पड़ी. आज राजपूत समुदाय वसुंधरा के पक्ष में खड़ा है. उन के सब से भरोसेमंद माने जाने वाले नेताओं में राजेंद्र सिंह राठौड़ और गजेंद्र सिंह खींवसर हैं. ये दोनों नेता राजपूत हैं.

आनंदपाल सिंह राजपूत नौजवानों में काफी लोकप्रिय था. क्योंकि जाटों के खिलाफ संघर्ष का वह प्रतीक बन चुका था. नागौर जिले के मुंडवा विधानसभा क्षेत्र के विधायक हनुमान बेनीवाल राज्य की मुख्यमंत्री के धुर विरोधी माने जाते हैं.

आनंदपाल की बदौलत यूनुस खान हनुमान बेनीवाल पर खासा नियंत्रण पाने में सफल रहे. यूनुस खान मंत्री के रूप में बीकानेर जेल में बंद आनंदपाल से निजी रूप से मिलने पहुंचे थे, जिस से राज्य की राजनीति में तीखी प्रतिक्रिया  हुई थी.

जेल में बंद खूंखार अपराधी आनंदपाल की सुरक्षा व्यवस्था में लगे पुलिस बल की कटौती यूनुस खान के प्रभाव से ही की गई थी, जिस का फायदा उठा कर एक दिन पेशी के दौरान आनंदपाल सिंह पुलिस हिरासत से भाग निकला था.

राज्य की राजनीति में राजपूत जाति का संरक्षण आनंदपाल सिंह को मिल ही रहा था. इसी तरह राजू ठेहट गिरोह को गैरभाजपा दल के नेताओं का संरक्षण मिल रहा था. बीकानेर जेल में बंद रहने के दौरान राजू ठेहट गिरोह ने आनंदपाल की हत्या की कोशिश की थी, जिस में आनंदपाल तो बच गया था, लेकिन उस का एक साथी मारा गया था. फरारी के दौरान पुलिस मुठभेड़ में नागौर जिला पुलिस के जवान खुभानाराम को घायल कर आनंदपाल फिर पुलिस पकड़ से दूर हो गया था.

लेकिन आनंदपाल सिंह भागतेभागते थक गया तो उस ने अपने वकील के माध्यम से आत्मसमर्पण करने की कोशिश की. फरारी के दौरान अपने उपकारों के बदले आनंदपाल ने यूनुस खान से आत्मसमर्पण करवाने के लिए मदद मांगी. शायद यूनुस खान ने मदद करने से इनकार कर दिया तो आनंदपाल ने यूनुस खान को देख लेने की धमकी दे दी.

यूनुस खान आनंदपाल सिंह को अच्छी तरह जानते थे कि वह धमकी को अंजाम दे सकता है, इसलिए डरे हुए यूनुस खान राज्य की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे से मिले और उन्हें अपनी दुविधा बताई. इस के बाद उन्होंने आनंदपाल सिंह की हत्या की पटकथा तैयार कर डाली.

यूनुस खान की शिकायत पर मुख्यमंत्री ने आनंदपाल का एनकाउंटर करने के लिए राज्य पुलिस के एनकाउंटर विशेषज्ञ एम.एन. दिनेश (आईजी पुलिस) को लक्ष्य दे कर एसओजी में भेज दिया. कहा जाता है कि आनंदपाल से डरे यूनुस खान मुख्यमंत्री के पास जा कर खूब रोए थे.

जिस आनंदपाल को पालपोस कर यूनुस खान ने इतना बड़ा किया था, जब वह उन पर भारी पड़ने लगा तो सत्ता के बल पर 24 जून, 2017 की रात पुलिस की मदद से उसे ठिकाने लगवा दिया.

आनंदपाल तो अपने अंजाम तक पहुंच गया, लेकिन उसे अपराधी बनाने वाले भ्रष्ट यूनुस खान सरीखे नेताओं का क्या होगा? आनंदपाल के एनकाउंटर के बाद राजस्थान में राजपूत जाति ने उसे जातीय अस्मिता से जोड़ लिया है. जबकि जाट उस की हत्या पर कई दिनों तक डीजे बजा कर खुशियां मनाते रहे.

आनंदपाल सिंह के घर वालों का कहना था कि भाजपा सरकार के गृहमंत्री चाहते थे कि आनंदपाल आत्मसमर्पण कर दे, लेकिन आनंदपाल के आत्मसमर्पण करने से यूनुस खान के तमाम राज खुल सकते थे. इसलिए आत्मसमर्पण करने को तैयार आनंदपाल को यूनुस खान के लिए मार डाला गया. आनंदपाल के मारे जाने से मंत्री यूनुस खान खुश हैं कि उन के राज अब कभी नहीं खुल पाएंगे.

यह एनकाउंटर चुरू जिले में हुआ, जो राजेंद्र राठौड़ का गृह जिला है. राजपूत बिरादरी में पैदा हुए रोष का शिकार राजेंद्र सिंह राठौड़ बन सकते हैं. राजपूतों का एक छोटा सा संगठन है श्री राजपूत करणी सेना. इस के कर्ताधर्ता हैं लोकेंद्र सिंह कालवी, जिन के पिता कल्याण सिंह कालवी राजपूतों के बड़े नेता और केंद्रीय मंत्री रहे हैं.

लोकेंद्र सिंह कालवी, उन के पिता कल्याण सिंह कालवी और करणी सेना तब चर्चा में आई थी, जब जयपुर में इस संगठन के लोगों ने फिल्म डायरेक्टर संजय लीला भंसाली के साथ बदसलूकी की थी. यह गैरराजनीतिक संगठन लगातार कई सालों से आनंदपाल की रौबिनहुड की छवि गढ़ने में लगा था. आनंदपाल के एनकाउंटर को यह संगठन भुनाने में लगा है. राजस्थान विधानसभा चुनाव सन 2018 में होने वाले हैं. हो सकता है, इस का असर चुनाव पर पड़े.

यह भी हो सकता है कि इस घटना के बाद पश्चिमी राजस्थान में मदेरणा और मिर्धा परिवारों के सियासी पतन के बाद जाटों के नए नेता के रूप में उभर रहे हनुमान बेनीवाल फिर भाजपा में आ जाएं. सन 2009 तक वह बीजेपी में थे, लेकिन बाद में आनंदपाल की वजह से वह पार्टी छोड़ गए थे.

आनंदपाल के मामले को ले कर वह लगातार सरकार को घेरते रहे हैं. फिलहाल वह निर्दलीय विधायक हैं. पश्चिमी राजस्थान जाट बाहुल्य है. ऐसे में बेनीवाल किसी भी राजनीतिक पार्टी के लिए फायदेमंद हो सकते हैं.

आनंदपाल सिंह का भले ही अंत हो चुका है, पर याद करने वाले उसे अपनीअपनी तरह से याद करते रहेंगे. उस की मौत के बाद जो लोग उस के एनकाउंटर की सीबीआई जांच की मांग कर रहे हैं, राजपूत हिम्मत सिंह की पत्नी ममता कंवर ने न्याय मांगते हुए उन पर गंभीर सवाल खड़े किए हैं. हिम्मत सिंह की हत्या आनंदपाल ने ही की थी. ममता कंवर ने एक लिखित संदेश और वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल किया है.

उन्होंने आनंदपाल सिंह का समर्थन कर रहे राजपूतों से पूछा है कि क्या कसूर था उन के पति राजपूत हिम्मत सिंह का, जिन की शादी हुए कुछ ही समय हुआ था और आनंदपाल सिंह ने उन्हें मार दिया था. यही नहीं, उन्होंने श्याम प्रताप सिंह रूवा, राजेंद्र सिंह राजपूत और आनंदपाल के एनकाउंटर में शामिल कमांडो सोहन सिंह तंवर पर चली गोलियों का हिसाब मांगा है.

उन का कहना है कि वह तो असली राजपूत हैं, जबकि आनंदपाल सिंह रावणा राजपूत था. क्या कारण था कि रावणा राजपूत होते हुए भी उस ने असली राजपूतों को मारा, फिर भी किसी राजपूत ने कभी जुबान नहीं खोली.

दरअसल, सन 2016 में जयपुर के विद्याधरनगर इलाके में अलंकार प्लाजा के पास खड़ी एक कार में हिम्मत सिंह राजपूत की कुछ हथियारबंद बदमाशों ने दिनदहाड़े गोली मार कर हत्या कर दी थी. इस के बाद एसओजी ने 4 लोगों को गिरफ्तार किया था. गिरफ्तार किए गए सोहन सिंह उर्फ सोनू पावटा और अजीत पावटा नागौर के पावटा के रहने वाले थे.

पूछताछ में पता चला कि ये दोनों कुख्यात बदमाश आनंदपाल सिंह के सहयोगी थे. उन्होंने स्वीकार किया है कि आनंदपाल सिंह के कहने पर उन्होंने ही हिम्मत सिंह की हत्या की थी. दोनों के खिलाफ नागौर के कुचामनसिटी, डीडवाना, मुरलीपुरा और जोधपुर के चौपासनी थाने में हत्या, हत्या के प्रयास, लूट, अपहरण, मारपीट और अवैध हथियारों के करीब 15 मुकदमे दर्ज हैं.

आनंदपाल सिंह की मौत हो चुकी है. राजस्थान के राजपूतों ने इसे अपनी शान से जोड़ लिया है. यही वजह है कि वे उस का अंतिम संस्कार तब तक न करने पर अड़े हैं, जब तक उस के एनकाउंटर की सीबीआई जांच नहीं कराई जाएगी. वैसे इस एनकाउंटर से वसुंधरा सरकार को नुकसान हो सकता है.

रुपहले पर्दे की तवायफ : आधी हकीकत, आधा फसाना

इसी साल अप्रैल में प्रदर्शित फिल्म ‘बेगम जान’ निस्संदेह खास किस्म के दर्शकों को ध्यान में रखते हुए बनाई गई थी, लेकिन इस फिल्म में अभिनेत्री विद्या बालन का जीवंत अभिनय हर वर्ग के दर्शकों को पसंद आया. जिस ने भी फिल्म देखी, विद्या बालन की अभिनय प्रतिभा का लोहा माना.

बंगला फिल्म ‘राजकहिनी’ की रीमेक ‘बेगम जान’ कई मायनों में एक अहम फिल्म थी, जो भारत पाकिस्तान विभाजन की त्रासदी में तवायफों के दर्द को बयां करती थी, इस फिल्म की जान केंद्रीय पात्र बेगम जान उन्मुक्त और सख्त स्वभाव की औरत है, जो कोठा चलाती है. कोठा चलाना कभी भी आसान काम नहीं रहा, इस बात को श्याम बेनेगल निर्देशित फिल्म ‘मंडी’ में बड़ी ईमानदारी से दिखाया गया था.

बंटवारे के दौरान कैसेकैसे कहर टूटे यह कई फिल्मों में दिखाया गया है, लेकिन बेगम जान के कोठे की बात ही कुछ और है. उस का कोठा एक ऐसी जगह बना हुआ है, जो दोनों देशों की सीमा पर है. इस कोठे को तोड़ना प्रशासनिक मजबूरी भी है और जरूरत भी. नाटकीय अंदाज में अधिकारी साम, दाम, दंड, भेद अपनाते हैं तो बेगम जान चौकन्नी हो जाती है. तवायफों से सख्ती से पेश आने वाली बेगम जान कोठा बचाने के लिए जीजान लगा देती है, पर सरकार से जीत नहीं पाती.

फिल्म का दूसरा अहम पहलू बेगम जान की कोठे और अपने पेशे के प्रति प्रतिबद्धता है. बेगम जान को आजादी से कोई सरोकार नहीं है, क्योंकि आर्थिक और सामाजिक रूप से गुलाम तवायफों की दुनिया कोठे तक ही सीमित रहती है. इस के बाहर वे झांकती तक नहीं कि कहां क्या हो रहा है? मसाला फिल्मों की तरह फिल्म आगे बढ़ती रहती है, उस के साथसाथ चलती है तवायफों की बेबस जिंदगी, अनिश्चितता, असुरक्षा और अकेलापन.

बंगला निर्देशक श्रीजीत मुखर्जी ने इस फिल्म को निखारने और संवारने में खुद को पूरी तरह झोंक दिया है. विद्या बालन के कंधों पर टिकी फिल्म ‘बेगम जान’ दरअसल एक ऐसी तवायफ की कहानी है, जिस के कोठा चलाने के अपने उसूल हैं. वह मर्दों की कमजोरी पहचानती है और अपना काम साधने के लिए उसूलों से भी समझौता करने को तैयार हो जाती है.

रुपहले पर्दे की कोई भी अभिनेत्री तब तक पूर्ण नहीं मानी जाती, जब तक वह किसी फिल्म में तवायफ का किरदार न निभा ले. कुछ अपवादों को छोड़ दें तो हर सफल अभिनेत्री ने किसी न किसी फिल्म में तवायफ की भूमिका की है. तवायफ की भूमिका निभाना कोई आसान काम नहीं होता, यह बात ‘पाकीजा’ से ले कर ‘बेगम जान’ तक साबित हुई है.

कोठों और तवायफों की जिंदगी पर दर्जनों फिल्में बनी हैं. उन में से कुछ तो आज भी ब्रांड की तरह हैं. दरअसल, आम लोगों के लिए तवायफें और कोठे हमेशा से ही बेहद जिज्ञासा, उत्सुकता और आकर्षण का केंद्र रहे हैं. बावजूद इस के कि कोठों पर हर कोई नहीं जाता. एक ऐसा वक्त भी था, जब तवायफों के कोठे या तो राजाओं और नवाबों की विलासिता अथवा मनोरंजन के महफूज अड्डे हुआ करते थे या फिर बेहद खास लोगों की अय्याशी के ठिकाने. अभिजात्य मध्यमवर्ग का वास्ता उन से फिल्मों के जरिए ही पड़ा. धार्मिक सामाजिक और पारिवारिक बंदिशों में जीने वाले लोगों ने तवायफों और कोठों को सिर्फ फिल्मी परदे पर ही देखा और समझा.

समानांतर या कला फिल्मों की तवायफ भी पर्दे पर दिखाई गईं और तवायफों वाली व्यावसायिक फिल्में भी खूब चलीं. इन दोनों किस्म की तवायफों में एक फर्क रहा. फर्क यह कि कला फिल्मों की ज्यादातर तवायफ बुद्धिजीवी महिला होती थीं और साथ में अच्छी शायरा भी. पर व्यासायिक सिनेमा की तवायफ एक खूबससूरत जिस्म भर होती थी, जो शाम ढलते ही कोठों की रौनक में ढल जाती थीं. घुंघरुओं की छमछम और वाद्य यंत्रों की थाप पर जब वह नाचती थीं तो उन के कद्रदान झूम उठते थे.

इन फिल्मों ने तवायफों और कोठों की जो छवि गढ़ी, उस में एक गुलजार गली होती थी, जिस के नीचे पान की दुकानें होती थीं. उन दुकानों पर लोगों की खासी चहलपहल रहती थी. सूरज ढलते ही ये गलियां उजियारी हो जाती थीं और कोठे रोशनियों से नहा उठते थे. गलियों में दलाल घूमते नजर आते थे, जो ग्राहकों से मुजरा सुनने की गुजारिश करते थे.

इन का ग्राहक वर्ग भी अलग था, जो हाथ में गजरा लपेटे रहता था. उस के गले में रंगीन स्कार्फ या रूमाल झूलता रहता था. मुंह में पान की पीक भरी रहती थी और सिर से तेल टपकता रहता था. ग्राहकों में गुंडे, मवालियों से ले कर पैसे वाले और इज्जतदार लोग भी शुमार रहते थे. कोठे पर पहुंच कर ये लोग गावतकिए का सहारा ले कर टिक जाते थे और मुजरे का लुत्फ उठाते हुए तवायफ की हर अदा पर नोट लुटाते थे. इन में से ही कोई तवायफ पर फिदा हो कर उस से मोहब्बत कर बैठता था. फिर शुरू होती थी एक प्रेम कहानी, जिस का अंत अकसर ट्रेजेडी में होता था.

इन व्यावसायिक फिल्मों की एक कमी यह थी कि इन में तवायफ की जिंदगी की कहानी कम ही होती थी, क्योंकि ये फिल्में नीचे के दर्शकों के मनोरंजन के लिए और फिल्म में नाचगाने के दृश्य ठूंसने के लिए बनती थीं.

हर एक फिल्म में कोठे की संचालिका यानी मौसी जरूर होती थी, जिस के इशारे पर महफिल शुरू और खत्म होती थी. यह मौसी आमतौर पर रिटायर्ड तवायफ होती थी, जिसे कोठे की गार्जियन भी कहा जा सकता है्. कोठों का संचालन और प्रबंधन करने वाली इस महिला के ताल्लुकात मालदारों के अलावा गुंडों और पुलिस वालों तक से होते थे. बेगम जान में विद्या बालन लगभग इसी अंदाज में दिखीं, जो कहानी की मांग के मुताबिक जरूरत से ज्यादा क्रूर दिखाई गई है, लेकिन वह तवायफों का दर्द भी समझती है और उन्हें सांत्वना भी देती है.

कोठा संस्कृति का पूरा ऐतिहासिक सच दर्शकों ने 1972 में प्रदर्शित अपने जमाने की सुपर डुपर हिट फिल्म ‘पाकीजा’ से समझा था.

कमाल अमरोही की निर्देशन क्षमता किसी सबूत या तारीफ की मोहताज नहीं रही. वह कहानी में डूब कर फिल्में बनाते थे. पाकीजा की केंद्रीय भूमिका में उन की पत्नी और अपने जमाने की मशहूर अभिनेत्री मीना कुमारी थीं. इस फिल्म के गाने आज भी शिद्दत से गाए और सुने जाते हैं.

नवाबी दौर को जीवंत करती पाकीजा की कहानी आम कहानियों से हट कर थी. साहिब जान बनी मीना कुमारी की एक्टिंग ने साबित कर दिया था कि हर तवायफ के अंदर एक औरत भी होती है, जिस के अपने जज्बात होते हैं. वह महज पैसों या मनोरंजन के लिए नहीं जीती, बल्कि प्यार भी कर सकती है और उसे आखिरी सांस तक निभा भी सकती है.

‘पाकीजा’ की पाकीजा उर्फ नरगिस उर्फ साहिबजान की भूमिका मीना कुमारी ने बेहद सहज ढंग से निभाई थी, जिस के लिए वह जानी भी जाती थीं. कोठे पर ही पलीबढ़ी नरगिस अपने दौर की प्रसिद्ध नर्तकी और गायिका है. जब वह कोठे का चक्रव्यूह नहीं भेद पाती तो उस से समझौता कर लेती है. तभी उस की जिंदगी में एक नवाब सलीम अहमद खान आता है. सलीम की भूमिका में 68-70 के दशक के दौर के मशहूर अभिनेता राजकुमार थे.

सलीम और साहिबजान कोठे की बंदिशों को भूल कर एकदूसरे से प्यार करने लगते हैं और शादी करने का फैसला ले लेते हैं. दोनों भाग तो जाते हैं, पर शादी नहीं कर पाते. अपनी शोहरत के कारण साहिबजान हर जगह पहचान ली जाती है. फिल्म का अंत भले ही सामाजिक उपन्यासों जैसा रहा हो, जिस में साहिबजान अपने आशिक की प्रतिष्ठा के लिए अपना प्यार कुर्बान कर देती है. इस पूरी फिल्म में मीना कुमारी छाई रहीं तो उस की मुकम्मल वजहें भी थीं.

एक वजह यह भी थी कि मीना कुमारी वाकई एक ऐसी अभिनेत्री थीं, जो वास्तविक जिंदगी में जीवन भर सच्चे प्यार के लिए भटकती रहीं. वह एक उम्दा गजलकार भी थीं. मीना कुमारी की गजलें आज भी गजल प्रेमी डूब कर सुनते हैं. कमाल अमरोही से शादी करने के बाद भी वह अभिनेता धर्मेंद्र को नहीं भुला पाई थीं और उन्होंने खुद को शराब के नशे में डुबो लिया था.

‘पाकीजा’ 1958 में बनना शुरू हुई थी, पर प्रदर्शित 1972 में हो पाई. एक वक्त में लग रहा था कि यह फिल्म डिब्बे में ही बंद रह जाएगी. पर राजकुमार की कोशिशों के चलते इस का प्रदर्शन संभव हो पाया. अक्खड़ मिजाज के राजकुमार शायद पहली दफा किसी के सामने गिड़गिड़ाए थे. वह मीना कुमारी ही थीं, जो राजकुमार के अनुनयविनय को टाल नहीं पाईं और ‘पाकीजा’ की बाकी शूटिंग बीमारी की हालत में भी करने तैयार हो गईं. ‘पाकीजा’ के प्रदर्शन के चंद दिनों बाद ही उन की मृत्यु हो गई थी.

फिल्म जब प्रदर्शित हुई तो उस ने बौक्स औफिस के सारे रिकौर्ड तोड़ डाले. जिन मीना कुमारी को दर्शक एक घरेलू महिला के तौर पर देखने के आदी हो गए थे, उन्होंने बड़े शिद्दत से उन्हें तवायफ के रोल में पसंद किया.

‘पाकीजा’ ने तवायफ की एक नई और लगभग वास्तविक छवि दर्शकों के सामने रखी, जो आज भी लोगों के जेहन में जिंदा है. मीना कुमारी ने ‘पाकीजा’ में तवायफ की जो भूमिका निभाई, उस ने दर्शकों के मन में यह बात स्थापित कर दी कि तवायफ सिर्फ मुजरा ही नहीं करती, बल्कि उस के अंदर एक औरत भी होती है, उस की भावनाएं होती हैं. उस का दिल भी किसी के लिए धड़कता है. वह भी मोहब्बत करने का हक रखती है और अपनी मोहब्बत के लिए कोठे के उसूल तोड़ने का दुस्साहस भी कर सकती है.

यह ट्रेजेडी भी दर्शकों को रास आई थी कि एक तवायफ का मुकाम आखिरकार कोठा ही है, जहां से उस की जिंदगी का सफर शुरू होता है और उसी पर आ कर खत्म होता है. समाज तवायफ को बहैसियत पत्नी तो दूर की बात है, बतौर आम औरत भी मान्यता नहीं देता. तवायफ आखिरकार तवायफ ही होती है और तवायफ ही रहती है.

‘पाकीजा’ के बाद लंबे वक्त तक तवायफों पर आधारित कोई फिल्म नहीं बनी, जिस की बड़े पैमाने पर चर्चा हुई हो. व्यावसायिक फिल्मों में जरूर तवायफें और कोठे दिखाए जाते रहे, पर यह दर्शकों को बांधे रखने का टोटका भर था, जिस के एकाध दृश्य में आइटम सौंग की तरह तवायफ और मुजरा डाल दिए जाते थे.

8 साल के सन्नाटे के बाद जब चुप्पी टूटी तो उस का अंदाज भी जुदा था. तवायफों पर लगातार क्रमश: 4 फिल्में 1981 में ‘उमराव जान’, 1982 में ‘बाजार’, 1983 में ‘मंडी’ और 1984 में ‘उत्सव’ प्रदर्शित हुईं.

इन फिल्मों के प्रदर्शन से बुद्धिजीवी वर्ग में एक बार फिर से यह बहस छिड़ गई कि आखिर तवायफ के माने क्या है? क्या वह वेश्या और कालगर्ल्स से भिन्न है? और यदि है तो किस तरह?

एक वर्ग वह था, जो इस जिद पर अड़ा था कि तवायफ जिस्मफरोशी नहीं करती, वह सिर्फ अपना नाचगाने का हुनर दिखा कर पैसा कमाती है. समाज में उस की भी इज्जत और जगह होती है. इस वर्ग का एक चलताऊ तर्क यह था कि तवायफों के पास तो शहजादों और राजकुमारों को भी अदब, तमीज और तहजीब सीखने भेजा जाता था.

इसी दौर में हालांकि यह बात भी साफ होती जा रही थी कि आधुनिक युग में तवायफ और वेश्या में कहने भर का फर्क है. इतिहास और साहित्य तवायफों से भरा पड़ा है. हिंदू पौराणिक ग्रंथों में इस का पर्याय शब्द गणिका है. गणिका और तवायफ में कोई खास फर्क नहीं होता. दोनों को ही राजाश्रय मिला होता है. हिंदी और उर्दू के साहित्यकार इस सच पर तो सहमत थे कि तवायफ भी समाज का एक अभिन्न हिस्सा हैं और उस की अपनी एक अलग अहमियत और उपयोगिता है. लेकिन चूंकि साहित्य भी पुरुष प्रधान था, इसलिए हमेशा ही तवायफ, वेश्या या गणिका के चरित्र को उभार कर उस का अंत पलायन में ही दिखाया गया है.

निस्संदेह यह संकीर्ण पुरुष मानसिकता थी, जो फिल्मों में लगातार देखने को मिली. सार रूप में यह स्वीकार कर लिया गया कि तवायफ ऐच्छिक ही सही जिस्मफरोशी भी करती है. लेकिन एक विशिष्ट वर्ग के पैसे और संरक्षण पर गुजर करने वाली सुंदर प्रतिभाशाली गणिका या तवायफ और आम आदमी की बाई, रंडी या वेश्या में एक सीमा रेखा खींची जाना जरूरी है.

यह वह दौर था, जब कोठे खत्म हो रहे थे. बनारस, कोलकाता और लखनऊ शहर 70 के दशक तक आबाद कोठों और मुजरों के लिए मशहूर थे, जहां देश भर के शौकीन मुजरे के लिए जाया करते थे. आपातकाल के बाद जो न दिखने वाले बदलाव समाज में आए, कोठों का लुप्त हो जाना भी उन में से एक था.

आपातकाल का कोठों और तवायफों से कोई प्रत्यक्ष संबंध नहीं था. लेकिन उन की जिंदगी और रोजीरोटी से एक कनेक्शन जरूर था. जो ठीक नोटबंदी के बाद जैसा था, जिस की मार बारबालाओं और कालगर्ल्स पर पड़ी थी. सियासी फैसलों के उपेक्षित वर्ग पर फर्कों के कोई मायने नहीं होते, इसलिए ऐसी दिक्कतें किसी को नजर नहीं आतीं.

सागर सरहदी निर्देशित ‘बाजार’ फिल्म नाम के मुताबिक तवायफों की बेबसी को दर्शाती हुई थी तो मशहूर निर्देशक श्याम बेनेगल की फिल्म ‘मंडी’ तमाम थिएटरी कलाकारों से सजी हुई थी. मंडी से कैरियर की शुरुआत करने वाली इला अरुण को तब कोई जानता भी नहीं था, लेकिन बेगम जान में वे मुख्य भूमिका में थीं.

इला अरुण नहीं मानतीं कि ‘बेगम जान’ और ‘मंडी’ की तुलना की जानी चाहिए. पर हकीकत यह है कि दोनों फिल्मों में देशकाल का फर्क भर है, नहीं तो ‘मंडी’ में भी राजनेता भूमाफिया और भ्रष्ट प्रशासन तवायफों के जरिए अपना स्वार्थ सिद्ध करते नजर आए थे. ‘मंडी’ की रूक्मिणी बाई यानी शबाना आजमी मुंह में पान की गिलोरी दबाए सौदेबाजी करती नजर आती हैं तो इस के उलट ‘बेगम जान’ की हुक्का गुड़गुड़ाती विद्या बालन जौहर या खुदकुशी करने को प्राथमिकता देती है. इन दोनों ही फिल्मों ने तवायफ और वेश्या शब्द के फर्क को मिटाने में सटीक भूमिका निभाई.

श्याम बेनेगल के चतुराई भरे निर्देशन ने तवायफ और वेश्या में फर्क खत्म कर दिया था और इस मिथक को भी तोड़ा था कि तवायफ कोई मुसलमान औरत ही होती है. इस से पहले सन 1983 में प्रदर्शित फिल्म ‘उमराव जान’ ने भी हाहाकारी सफलता हासिल की थी. अभिनेत्री रेखा उमराव जान की भूमिका में थीं. ‘उमराव जान’ एक ऐसी किशोरी की कहानी पर आधारित फिल्म थी, जिसे बचपन में ही अगुवा कर कोठे पर बेच दिया जाता है.

मशहूर उपन्यासकार मिर्जा हादी रुस्वा के चर्चित उपन्यास उमराव जान अदा की वास्तविकता को ले कर आज तक संदेह व्याप्त है. इस से परे फिल्मी कोठों का एक कड़ा सच जरूर निर्देशक मुजफ्फर अली ने उजागर किया था कि एक तवायफ की दौड़ कोठे से शुरू हो कर कोठे पर ही खत्म होती है. यह अंत ही तवायफ की नियति है.

‘उमराव जान’ की रेखा ठीक ‘पाकीजा’ की मीना कुमारी की ही तरह सराही गई थीं और हर वर्ग के दर्शक द्वारा पसंद की गई थीं. यह अस्सी के दशक की वह फिल्म थी, जिस  ने तवायफों के बारे में लोगों को एक बार फिर नए सिरे से सोचने पर मजबूर कर दिया था. ‘उमराव जान’ के किरदार में अपने जीवंत अभिनय से जान डाल देने वाली रेखा ने एक तवायफ की जिंदगी और कशमकश को साकार कर अहसास करा दिया था कि वह आखिर रेखा क्यों हैं.

‘उमराव जान’ का गीत संगीत ‘पाकीजा’ से उन्नीस नहीं था. फिल्म की कहानी भी ‘पाकीजा’ से बहुत ज्यादा जुदा नहीं थी. उमराव जान भी जिंदगी भर प्यार को तरसती रही और शेरोशायरी के जरिए मशहूर हुई. समाज में उमराव जान की अपनी जगह थी, उस का अपना एक अलग प्रशंसक वर्ग था, जो तवायफ से ज्यादा शायरी को अहमियत देता था. लेकिन आखिरकार मुजफ्फर अली को फिल्म के अंत में दिखाना पड़ा कि उमराव जान अपनों के ठुकराए जाने से ज्यादा आहत हुई. वह कभी अपनी गलती नहीं समझ पाई और कोठों के पहरेदारों से ले कर एक डाकू और फिर एक नवाब तक में अपना प्यार तलाशती रही.

उमराव जान फिल्म एक हद तक व्यावसायिक थी, पर उस में समानांतर सिनेमा की छाप भी साफ दिखाई दी थी. फिल्म के अंत में प्रतीकात्मक तौर पर आईने से धूल पोंछती रेखा को दिखाया गया है, जिस से दर्शक समझ लें कि तवायफ कभी बीवी बहन या मां नहीं हो सकती. उमराव जान बन गई अमीरन को उस का सगा भाई न पहचान कर किस गुनाह की सजा दे रहा है, यह बात दर्शक तब समझे जब उन्हें यह अहसास हुआ कि क्यों तवायफ को गिरी नजर से देखा जाता है.

अस्सी का दशक रेखा के नाम था, ‘उमराव जान’ हिट हुई तो 3 साल बाद सन 1984 में वह शशि कपूर की महत्त्वाकांक्षी फिल्म ‘उत्सव’ में बसंत सेना की भूमिका में दिखीं, जो एक गणिका थी. उत्तेजक दृश्यों से भरपूर इस कथित कला फिल्म को दर्शकों ने बेरहमी से नकार दिया था. अभिनेता गिरीश कर्नाड के निर्देशन के जरिए शशि कपूर की इच्छा कामोत्तेजक दृश्यों को दिखा कर दौलत और शोहरत बटोरने की थी, जो पूरी नहीं हुई. ‘उत्सव’ असल में वात्स्यायन के कामसूत्र को चित्रण करने की कोशिश करने वाली फिल्म थी, पर इस के ऐतिहासिक पात्र और कहानी दर्शकों को पसंद नहीं आए थे.

‘मुकद्दर का सिकंदर’ और ‘सुहाग’ जैसी व्यावसायिक फिल्मों में भी रेखा तवायफ की भूमिका में थीं. ‘मुकद्दर का सिकंदर’ में तवायफ की जिंदगी का छोटा सा हिस्सा दिखाया गया था, लेकिन वही हिस्सा पूरी फिल्म पर भारी पड़ा.

दर्शकों को यह बात पसंद आई कि कोठे वाली जौहरा बाई (रेखा) सिकंदर (अमिताभ बच्चन) पर मरने लगती है, पर सिकंदर उसे नहीं चाहता. उलट इस के एक मवाली दिलावर (अमजद खान) जौहरा पर इस कदर जान छिड़कता है कि फिल्म के आखिर में सिकंदर को जौहरा से प्यार करने की गलतफहमी में मार डालता है.

निर्देशक प्रकाश मेहरा बहुत कम दृश्यों में कोठों की बंदिशें बताने में कामयाब रहे थे. साहिब जान, बेगम जान और उमराव जान की तरह जौहरा की जिंदगी भी एक बड़े कमरे में कैद बताई गई. यहां निर्देशकों की मजबूरी भी हो गई थी और जरूरत भी कि वे कैमरे की नजर गलियों, फूलों और कोठों की सीढि़यों से हटा कर कुछ इतर नहीं दिखा सके और जो दिखाया वह मुजरा था, घुंघरुओं की खनक के साथ तवायफ पर न्यौछावर होते नोट थे.

1987 में बी.आर. चोपड़ा ने ऋषि कपूर और रति अग्निहोत्री को ले कर ‘तवायफ’ शीर्षक से ही फिल्म बना डाली. केंद्रीय भूमिका में रति अग्निहोत्री थीं, जिन्हें यह समझ आ गया था कि बौलीवुड में कामयाबी के झंडे गाड़ने के लिए किसी चर्चित अभिनेत्री को तवायफ की भूमिका निभाना अनिवार्य होता है. ‘तवायफ’ फिल्म ठीक चली. यह कहानी पारिवारिक थी, इसलिए तवायफ जीवन और कोठे का चित्रण वैसा नहीं हो पाया, जैसा दर्शक पसंद करते रहे थे.

अस्सी के दशक में ही तवायफों पर कई और फिल्में भी बनीं, लेकिन मसाला ज्यादा होने के कारण वे बौक्स औफिस पर औंधे मुंह लुढ़कीं. सलमा आगा और राजबब्बर अभिनीत ‘पति पत्नी और तवायफ’ इन में प्रमुख थी. इस दौर में एक ही विषय पर लगातार फिल्में बनीं और अधिकांश कमजोर कहानी और लचर निर्देशन के चलते फ्लौप हुईं तो अरसे तक फिर किसी ने तवायफ प्रधान फिल्म बनाने की हिम्मत नहीं की.

सन 1991 में निर्देशक महेश भट्ट ने फिल्म ‘सड़क’ में अपनी बेटी पूजा भट्ट को तवायफ के रोल में पेश किया था. नायिका को एक टैक्सी ड्राइवर चाहने लगता है और बड़े नाटकीय व करिश्माई तरीके से उसे गुंडों और दलालों से छुड़ा कर उस से शादी कर लेता है. महेश भट्ट जैसे तजुर्बेकार निर्देशक ही दर्शकों की कमजोर नब्ज पकड़ पाते हैं. वह जानते हैं कि कैसे कोठे की पृष्ठभूमि पर बनाई फिल्म देखने के लिए दर्शकों को खींचा जा सकता है. ‘सड़क’ में संजय दत्त बतौर हीरो थे.

‘सड़क’ फिल्म की खूबी यह थी कि इस में कोठों का आधुनिकीकरण दिखाया गया था. फिल्म में तवायफ तो थी, पर वह लहंगे में नहीं, बल्कि सलवारसूट में थी और फिल्म में परंपरागत मुजरा नहीं था. एक किन्नर महारानी के रोल में अभिनेता सदाशिव अमरापुरकर भी जमे थे. इस अलग किरदार के जरिए महेश भट्ट ने खूब वाहवाही बटोरी थी, साथ ही सदाशिव अमरापुरकर ने भी. ‘बेगम जान’ के शुरुआती दृश्यों में महेश भट्ट की यह शैली दिखी थी कि कैसे बेगम जान सदमे में आई लड़की को थप्पड़ मारमार कर उसे सदमे से उबारने का मनोवैज्ञानिक काम करती है.

फिर एक दशक तक तवायफों पर कोई उल्लेखनीय फिल्म नहीं बनी. यह सन्नाटा सन 2001 में मधुर भंडारकर की फिल्म ‘चांदनी बार’ से टूटा, जिस में एक तवायफ मुमताज की भूमिका में अभिनेत्री तब्बू थीं. फिल्म चली और तब्बू का अभिनय सराहा भी गया, पर इस से तब्बू के डूबते कैरियर को कोई सहारा नहीं मिला.

सन 2002 में प्रदर्शित फिल्म ‘देवदास’ में तवायफ चंद्रमुखी की भूमिका में माधुरी दीक्षित थीं. ‘देवदास’ बड़े बजट की भव्य फिल्म थी, जिस में नायक शहरुख खान और अभिनेत्री ऐश्वर्या राय भी थीं. आम दर्शकों के लिए देवदास की कहानी हालांकि जिज्ञासा का विषय नहीं थी, लेकिन बड़े सितारों से सजी इस फिल्म के सेट दर्शकों को थिएटर तक खींचने में कामयाब रहे थे.

देवदास पर फिल्म पहले भी बन चुकी थी, पर इस देवदास में कहानी का इतना सरलीकरण कर दिया गया था कि दर्शक उसे आसानी से समझ पाए थे. बंगाली संस्कृति को छूती ‘देवदास’ में एक अलग हट कर बात यह थी कि तवायफें एकदम अछूत नहीं बताई गई थीं.

निर्देशक की यह कोशिश कामयाब रही थी कि तवायफों का भी समाज में सम्मानजनक स्थान होता है और यह एक स्वतंत्र व्यवसाय है. जिस का संबंध आम संपन्न परिवारों से भी होता है. धकधक गर्ल के नाम से मशहूर हो चुकीं माधुरी दीक्षित की अभिनय प्रतिभा भी ‘देवदास’ से उजागर हुई थी.

तवायफों की जिंदगी पर हर 10-12 साल के अंतर से लगातार फिल्में बनीं. ‘चांदनी बार’ और ‘देवदास’ के तुरंत बाद आई निर्देशक सुधीर मिश्रा की ‘चमेली’, जिस में मुख्य भूमिका में कपूर खानदान की बेटी करीना कपूर थीं. करीना कपूर ने भी साबित कर दिया कि एक तवायफ का चुनौतीपूर्ण किरदार वह सफलतापूर्वक निभा सकती हैं. इस फिल्म में करीना के हावभाव और लटकेझटके पेशेवर तवायफों सरीखे ही थे, जिन्हें दर्शकों ने सराहा था.

अब तक यह साबित हो चुका था कि ‘पाकीजा’ और ‘बेगम जान’ जैसी ऐतिहासिक और कला फिल्मों के मुकाबले ‘चांदनी बार’ और ‘चमेली’ जैसी फिल्में एक अलग फ्लेवर की हैं. इस यानी नए दौर की तवायफ कोई शायरा या गायिका नहीं रह गई, लेकिन उस में अहसास और जज्बात आम औरतों सरीखे ही होते हैं.

कोठों की भव्यता भी सन 2000 के बाद की फिल्मों में नहीं दिखी. इन फिल्मों में तवायफ परंपरागत तवायफ कम वेश्या ज्यादा लगीं. जो तय है, बदलते वक्त की मांग और सच दोनों थे. ‘बेगम जान’ में मुद्दत बाद परंपरागत कोठों और तवायफों की झलक दिखी तो दर्शकों ने उसे फिर हाथोंहाथ लिया.

तवायफों पर बनी नई फिल्मों का पुरुष चरित्र भी भिन्न था. वह पहले की तरह नवाब, गुंडा या मालदार जमींदार नहीं था, बल्कि आम आदमी था, जिस का अपना एक अलग मध्यमवर्गीय द्वंद्व होता है.

तवायफों का द्वंद्व ‘पाकीजा’ से ले कर ‘चमेली’ तक में ज्यों का त्यों था, बस इतिहास और वक्त के लिहाज से उस का प्रस्तुतीकरण बदल गया था. परदे की तवायफों ने हर दौर में दर्शकों को सोचने पर मजबूर तो किया कि क्यों उन की जिंदगी का स्याह पहलू उन के व्यक्तिगत आत्मसम्मान और स्वाभिमान पर भारी पड़ता है. समाज का नजरिया न ‘पाकीजा’ के दौर में बदला था, न ‘चमेली’ या ‘चांदनी बार’ के दौर में बदला. तवायफों से प्यार कोई भी करे, लेकिन सामाजिक और पारिवारिक दबावों के चलते उन्हें अपना नहीं पाता.

तवायफों पर बनी तमाम फिल्में स्त्री प्रधान मानी जाती हैं, जिन के अंत में उन की हताशा ही दिखती है. यह कहना मुश्किल है कि हालात और दुश्वारियों से परेशान तवायफों का पलायन और पराजय उन्हें पुरुष प्रधान समाज के सामने हथियार डालने को मजबूर क्यों करता है? स्त्री विमर्श तो उन में कहीं दिखता ही नहीं. एक तयशुदा संघर्ष के बाद तवायफ हार मान लेती है. लेकिन हम ‘मंडी’ को भी नहीं भूल सकते, जिस में दिखाया गया था कि पिंजरे में कैद पंछी आजाद हो जाता है, जो असल में तवायफ और कोठों का प्रतीकात्मक संबंध उजागर करता है.

सुपर किड बनाने की होड़ में पिसता आपके बच्चे का बचपन

हर मातापिता की ख्वाहिश होती है कि जो मुकाम उन्होंने हासिल नहीं किया उसे उन का बच्चा हासिल करे. कई बार इस के लिए बच्चों पर अतिरिक्त दबाव भी बन जाता है. आजकल टीवी पर तमाम तरह के रिऐलिटी शो बच्चों से रिलेटेड भी हैं. इन्हें ले कर भी मातापिता अपने बच्चों के प्रति कुछ अधिक कौंशस हो रहे हैं. हर कोई अपने बच्चे को सुपर किड बनाना चाहता है. जैसेजैसे बच्चा बड़ा होता जाता है, वह अपने आसपास के माहौल से सीखता जाता है. पहले परिवार से फिर दोस्तों से या फिर टीवी प्रोग्राम्स से.

सृष्टि की उम्र करीब 8 साल है. वह स्कूल जाती है. स्कूल से लौट कर आने तक उस के म्यूजिक टीचर घर आ जाते हैं. उस के बाद उसे ट्यूशन क्लास जाना होता है. वहां से लौटने तक स्विमिंग क्लास जाने का समय हो जाता है. शाम को डांस क्लासेज होती हैं. वहां से लौट कर होमवर्क पूरा करना होता है. तब तक उसे उबासियां आने लगती हैं. वह ऊंघने लगती है तो मां की डांट सुननी पड़ती है.

अब आप ही सोचिए कि नन्ही सी जान और इतना अधिक बोझ. इस भागमभाग के बीच न तो मासूम बचपन को अपनी इच्छा से पंख फैलाने की फुरसत है और न ही थक कर सुस्ताने की.

ऐसी दिनचर्या आजकल हर उस बच्चे की है, जिस के मातापिता उसे सब कुछ बनाने की चाह रखते हैं. आजकल पेरैंट्स ने जानेअनजाने अपने अधूरे सपनों और इच्छाओं को मासूम बच्चों की क्षमता और अभिरुचि का आकलन किए बिना उन पर लाद दिया है. हर अभिभावक की बस एक ही इच्छा होती है कि उन का बच्चा हर जगह हर हाल में अव्वल आए. उन का बच्चा आलराउंडर हो. दूसरे बच्चों से अधिक प्रतिभावान हो. सुपर हीरोज की तरह उन का बच्चा भी सुपर किड हो.

दिल्ली के सीनियर ऐडवोकेट, सरफराज ए सिद्दीकी कहते हैं कि अभिभावकों की ऐसी महत्त्वाकांक्षाओं का बोझ मासूमों को अवसाद की ओर ले जा रहा है. अंकों के खेल में अव्वल रहना उन की विवशता बन गया है. यही कारण है कि हर साल जब परीक्षा परिणाम आता है, तो बच्चों की आत्महत्या के दुखद समाचार पढ़ने को मिलते हैं. ऐसा नहीं करना चाहिए. हर मातापिता को यह सोचना चाहिए कि हर बच्चा हर फील्ड में अव्वल नहीं आ सकता.

मातापिता बच्चों की खूब देखभाल करते हैं. लेकिन नतीजा कुछ नहीं. तो आखिर कहां है कमी? सच तो यह भी है कि टीवी पर छाए बच्चों के रिऐलिटी शोज ने तो मासूमों की जिंदगी में क्रांति ला दी है.

अपनी प्रतिभा को सिद्ध करने के इस संघर्ष के नाम पर मातापिता उन्हें दुनिया भर में अपना नाम रोशन करने का माध्यम समझ बैठे हैं. उन्हें हरफनमौला बनाने के खेल में बचपन की सरलता और सहजता गुम हो चली है. यह बताने की जरूरत नहीं कि बच्चे स्वाभाविक रूप से बड़े कल्पनाशील होते हैं. कुछ नया रचने में रुचि लेते हैं. तभी तो आनंद लेते हुए, खेलते हुए जब किसी कार्य को पूरा करते हैं, तो परिणाम बहुत बेहतर होते हैं.

समाजशास्त्री, डा. राकेश कुमार कहते हैं कि  बच्चे जिस क्षेत्र में रुचि रखते हैं, उन्हें उस में आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहन दिया जाना आवश्यक है. अपनी योग्यता और क्षमता के अनुसार स्वयं को निखारने का हर प्रयत्न करने के लिए बच्चों का मार्गदर्शन परिवार वाले ही कर सकते हैं. बच्चों के मन को समझते हुए उन्हें साथ एवं सहयोग कुछ इस तरह से दिया जाए कि बड़ों की आशाएं भार नहीं उत्प्रेरक बनें. मातापिता के  लिए समझना महत्त्वपूर्ण है कि बच्चे अभिभावकों के कौशल का प्रदर्शन करने वाले यंत्र भर नहीं हैं.

बच्चे की खूबी पहचानें

इस सबंध में एक मुलाकात में अभिनेता आमिर खान ने कहा, ‘‘मैं यह कहना चाहता हूं कि हर बच्चा खास है. यह बात मुझे अपने शोध से पता चली है. हर बच्चे में कोई न कोई खूबी होती है. अभिभावक होने के नाते यह हमारी जिम्मेदारी बनती है कि हम बच्चे की उस खूबी को पहचानें और उसे निखारने में बच्चे की मदद करें. सब में कोई न कोई योग्यता और कमजोरी होती है. मुझ में भी कुछ काबिलीयत है तो कुछ कमजोरी भी. हमें देखना होगा कि बच्चे को क्या अच्छा लगता है. उस का दिल क्या चाहता है. हमें  उस की ख्वाहिश को समझना चाहिए. बच्चे में कोई कमजोरी हो सकती है. हमें उस की मदद करनी चाहिए ताकि वह उस कमजोरी को दूर कर सके. हमारी शिक्षा व्यवस्था ऐसी है कि हम  बचपन से ही बच्चे पर फर्स्ट आने का दबाव डालने लगते हैं.

‘‘भला हर बच्चा फर्स्ट कैसे आ सकता है? यह कैसी रेस हम बच्चों पर थोप रहे हैं? जरा गौर करें कि इस तरह का दबाव बच्चों को कहां ले जाएगा? फर्स्ट आने की होड़ उस के दिल और दिमाग पर क्या प्रभाव डालेगी? हमें इन प्रश्नों पर विचार करना होगा. मैं चाहता हूं कि शिक्षा के क्षेत्र से जुड़े लोग इस पर जरूर सोचें.’’

हम बच्चे को सुपर किड्स बनाने के चक्कर में कहीं स्वार्थी न बना दें. जब हम बच्चे पर सब से आगे रहने का दबाव बनाते हैं, तो उस के दिमाग में यह बात घर कर जाती है कि चाहे जो हो उसे सब को पछाड़ना है. वह सोचता है कि अव्वल आना ही उस की जिंदगी का मकसद है.

कई बार सब से आगे रहने की जिद उसे स्वार्थी बना देती है. वह सिर्फ अपने बारे में सोचने लगता है. बच्चा जब स्कूल से घर आए तो पूछें कि बेटा आज तुम ने किस की मदद की? आज तुम्हारी वजह से किस के चेहरे पर मुसकान आई? हमें उस के अंदर दूसरों की मदद करने की इच्छा पैदा करनी चाहिए. अगर हम बच्चे को ऐसी प्रेरणा देंगे तो उस का जीवन के प्रति नजरिया ही बदल जाएगा और जब ऐसे बच्चे नौजवान बनेंगे तब हमारा समाज भी बदल जाएगा.

बच्चे को न दें टैंशन

 बच्चों में भी बड़ों की तरह टैंशन होती है, किंतु उन की टैंशन के कारण कुछ अलग हो सकते हैं. बच्चों के आसपास अलगअलग तरह का माहौल होता है, जिस का उन पर सहीगलत असर पड़ता है. घर स्कूल, ट्यूशन, प्लेग्राउंड कहीं पर उन का सामना टैंशन से हो सकता है. इस वक्त उन के जीवन में बदलाव भी काफी तेजी से आते हैं. ऐसे में कब कौन सी बात टैंशन का सबब बन जाए, यह कहना मुश्किल है. लेकिन इस से बच्चे की कार्यक्षमता पर असर पड़ता है और उस का मन हमेशा उदास रहता है.

अब बच्चों के बस्ते पहले के मुकाबले काफी भारी हो गए हैं. उन के सब्जैक्ट्स भी बढ़े हैं और हर महीने क्लास टैस्ट, यूनिट टैस्ट, ट्यूशन टैस्ट आदि का दबाव अलग. किसी एक सब्जैक्ट में अच्छी पकड़ न बनने के कारण वह लगातार उस में कमजोर होता जाता है. परीक्षा के दौरान भी वे टैंशन में रहते हैं. सभी पेरैंट्स अपने बच्चों को फर्स्ट पोजिशन पर देखता चाहते हैं. इस कारण परीक्षा के दौरान ज्यादा पढ़ाई और पूरी नींद न ले पाने के कारण टैंशन घेर लेती है.

इंडोवैस्टर्न के साथ ये ज्वैलरी मैच करा के देखें, लुक और भी मौडर्न हो जाएगा

कपड़ों के फैशन की तरह ज्वैलरी ट्रैंड भी बदलता रहता है. लेकिन कुछ ज्वैलरी ऐसी होती है, जिस का क्रेज हमेशा बना रहता है. इस में झुमकों से ले कर नए डिजाइन के चोकर, नैकलैस, मांगटीका, अलगअलग तरह के कड़े आदि महिलाओं में प्रचलित हैं. आइए, जानते हैं कि इन दिनों कौन सी नई और ट्रैंडी ज्वैलरी इन है:

औक्सिडाइज ज्वैलरी : आजकल ज्यादातर औक्सिडाइज ज्वैलरी ही पहनी जाती है. लेकिन इस तरह की ज्वैलरी को अब नए रूप में पेश किया जा रहा है. जैसे औक्सिडाइज ज्वैलरी में बने पदकों और पैंडेंट को ऊन के धागों में पिरोया जाता है. इस के अलावा औक्सिडाइज सिल्वर से बने कड़ों को हाथीदांत से बने कड़ों और मोतियों से बनी ज्वैलरी के साथ भी पहना जाता है, जो राजस्थानी लुक देता है. इस के अलावा औक्सिडाइज ज्वैलरी में एअर कफ का भी ट्रैंड जोरों पर है, जो आप की खूबसूरती और बढ़ा देगा.

कड़े : लुक को और निखारने के लिए हाथों में पहने गए कड़ों की अहम भूमिका होती है. कड़े बरबस लोगों का ध्यान आकर्षित करते हैं. इस साल भी औरों से हट कर दिखने के लिए आप को जरूरत है ऐसे कड़े चुनने की, जो आप की खूबसूरती में चार चांद लगा देंगे. कड़ों में आजकल वूलन और मोती से बने कड़े ट्रैंड में हैं. इन के अलावा ट्राइबल डिजाइन के साथ औक्सिडाइज कड़े भी आप के हाथों पर अच्छे लगेंगे. आप गोल्डन के साथ सिल्वर कड़ों का कौंबिनेशन बना कर भी पहन सकती हैं, जो आप की ड्रैस के अनुसार बनाया जा सकता है.

कंठा ज्वैलरी : कंठा ज्वैलरी वैसे तो कई साल पुराना स्टाइल है, लेकिन इस बार इसे नए रूप में पेश किया गया है. कंठा ज्वैलरी में मैटल से बने मोतियों का इस्तेमाल किया जाता है, जिन्हें ऊन के धागों में पिरो कर पैंडेंट के साथ सजाया जाता है.

वूलन ज्वैलरी : आजकल वूलन ज्वैलरी भी पहनी जा रही है. यह ज्वैलरी आमतौर पर हैंडमेड होती है. इस में डिजाइनर पैच पर हाथों से मोती काम किया जाता है और इस के साथसाथ वूलन से बने लटकन भी लगा दिए जाते हैं. जो अपनेआप में बेहद खूबसूरत होते हैं.

वेस्ट बैल्ट : वेस्ट बैल्ट ऐसी ज्वैलरी है, जो आप की खूबसूरती को कई गुना बढ़ा देती है. बाजार में कई तरह की वेस्ट बैल्ट उपलब्ध हैं. इन में औक्सिडाइज सिल्वर के साथसाथ वूलन बैल्ट, मिरर वर्क बैल्ट भी आप पहन सकती हैं, ये आप की ड्रैस के लुक को और भी निखारेंगी.

डैंगलर्स ऐंड ड्रौप्स : अभिनेत्री दीपिका पादुकोण की फिल्म ‘रामलीला’ की रिलीज पर डैंगलर्स ऐंड ड्रौप्स का चलन शुरू हुआ था, जो आज भी ट्रैंड में है. खासतौर पर इस ज्वैलरी में चांद के आकार के कानों के झुमके ट्रैंड में हैं, जो आकार में काफी बड़े होते हैं. ये झुमके कानों की खूबसूरती को दोगुनातिगुना कर सकते हैं. इन्हें पहनने के बाद आप भी दीपिका की तरह खूबसूरत लगेंगी.

राहुल गांधी की धमकी ने मोदी के तेवर किए ढीले

राहुल गांधी की गब्बर सिंह टैक्स धमकी ने जीएसटी की हालत पतली कर दी है और नरेंद्र मोदी और अरुण जेटली की अकड़ और तेवर को ढीला कर दिया है. जीएसटी में काफी बदलाव 10 नवंबर की काउंसिल की बैठक में किए गए, हालांकि ये काफी नहीं हैं. पर यह साबित करते हैं कि न तो भारतीय जनता पार्टी का हिंदुत्व कार्ड मजबूत है और न राहुल गांधी की कांग्रेस का अभी अंतिम संस्कार हुआ है.

राहुल गांधी ने गुजरात चुनावों को देशभर के व्यापारियों, किसानों, मजदूरों, कारखानेदारों की मुसीबतों का चुनाव बना कर भगवा पार्टी को सकते में डाल दिया है. जहां पहले राममंदिर, गौ, पाकिस्तान, कश्मीर, ट्रिपल तलाक जैसे बेहूदा, बेमतलब और बेबुनियाद के मसलों को ले कर ही चुनाव लड़े जाते रहे हैं, इस बार कामकाज को ले कर चुनाव लड़ा जा रहा है.

चुनाव अब मंदिरों के अहातों से नहीं असल में उन गलियों से लड़ा जा रहा है, जहां व्यापारी माल बेचते हैं और जहां वे किसानों और छोटे कारखानेदारों से तैयार सामान खरीदते हैं. पिछले कई चुनावों में ये लोग सिर्फ घृणा के निशाना बनते थे.

ये चुनावों में पैसा देते थे, ये चुनावों के लिए नेताओं को पालते थे, पर इन को गालियां दी जाती थीं. नरेंद्र मोदी जिन्हें कालाबाजारी कहकह कर सुबहशाम गाली देते हैं, वे उन्हीं सर्राफा बाजारों व होलसेल मार्केटों में, मंडियों में काम करते हैं, जिन को कर चोर बताया जा रहा है. वे ही घरघर सामान पहुंचाते हैं, वे ही सुबह 6 बजे से रात 12 बजे तक दुकानों को चलाते हैं, वे ही देश के एक कोने से दूसरे कोने तक कच्चा व तैयार सामान पहुंचाते हैं.

इन को देश का दुश्मन बताना सब से बड़ा गुनाह है पर भगवा जमात इन्हें हमेशा से पापों की गठरी कहती रही है. इन्हें कहा जाता है कि पैसा तो पाप की निशानी है. पैसा कमाओ और ब्राह्मणों को दान कर दो. अब ये ही ब्राह्मणवादी सरकार में जा पहुंचे हैं. राहुल गांधी ने यह पलटा है, चुनावी इतिहास में पहली बार. पहली बार व्यापार संगठनों में चुनावों का प्रचार किया जा रहा है. पहली बार व्यापारियों की दिक्कतों को सुना जा रहा है.

किसानों और मजदूरों की हालत तभी सुधरेगी जब इन व्यापारियों को काम करने की छूट मिलेगी, इन्हें सिरआंखों पर रखा जाएगा, इन का मानसम्मान किया जाएगा और इन्हें बैल समझ कर खसी कर बैलगाडि़यों और हलों

में जोत कर मारने लायक ही नहीं समझा जाएगा. यह बदलाव सुखद है. भगवा जमात को समझना चाहिए कि संस्कृति, पूजापाठ, इतिहास, मंत्र, योग आदि से नहीं, मेहनत से देश बदलेगा और ये नहीं समझे तो या तो देश नष्ट हो जाएगा या इन्हें तूफान बहा ले जाएगा.

बीसीसीआई : दिल्ली में 2020 तक नहीं होगा इंटरनेशनल क्रिकेट मैच का आयोजन

भारतीय टीम और श्रीलंका के बीच दिल्ली के फिरोजशाह कोटला के मैदान पर तीसरा और आखिरी टेस्ट मैच खेला जा रहा है. मालूम हो कि दूसरे टेस्ट मैच के दौरान श्रीलंका टीम के खिलाड़ी दिल्ली में प्रदुषण की वजह से मैदान पर मास्क लगाकर कर उतरे. इस मैच में श्रीलंकाई खिलाड़ी मैदान पर मास्क पहन कर फील्डिंग करते हुए भी नजर आए और प्रदुषण की वजह से उन्होंने सांस लेने में हो रही तकलीफ की शिकायत की थी. जिसकी वजह से मैच को बार बार रोका गया था. जिसे लेकर दिल्ली पर इंटरनेशनल खेल स्थल के रूप में सवाल उठने लगे.

दिल्ली पर इंटरनेशनल खेल स्थल के रूप में उठ रहे सवाल को लेकर बीसीसीआई ने अब एक ऐसा फैसला लिया है जिसके बाद अगले दो साल के लिए कोई भी टीम दिल्ली में प्रदुषण को लेकर शिकायत नहीं कर पाएंगी.

बीसीसीआई के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा, ‘‘बीसीसीआई हर साल फरवरी-मार्च तक एक्सक्लूसिव घरेलू सीजन के लिये कोशिश कर रहा है. उन्हें यह समय नए भविष्य दौरा कार्यक्रम के अनुसार फरवरी-मार्च 2020 में ही मिलेगा. इसलिए कोटला 2020 से पहले टेस्ट मैच के आयोजन के लिये पंक्ति में शामिल नहीं हो सकता.

उन्होंने कहा, ‘‘रोटेशन पालिसी के अनुसार, कोटला को एक टेस्ट मैच और नवंबर में इसे एक टी20 मिल गया था. तो शायद अब उनका मौका अगले साल तक नहीं आयेगा. अन्य स्थल भी अपने मौके का इंतजार कर रहे हैं.

अधिकारी ने कहा, ‘‘अब 2020 में पर्यावरण के हालात कैसे होंगे, उसकी भविष्यवाणी अभी 2017 में नहीं की जा सकती है. इसलिए अगर कोटला को मैच नहीं मिलता है तो यह पूरी तरह से रोटेशन नीति के अनुसार ही होगा. ’

बता दें कि श्रीलंका की शिकायत के अलावा पिछले महीने दिल्ली हाफ मैराथन के दौरान भी हंगामा हुआ, हालांकि प्रदूषण के उच्च स्तर के बावजूद यह आयोजित हुई, पर भारतीय चिकित्सीय संघ ने इसे रद्द करने की अपील की थी.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें