इसी साल अप्रैल में प्रदर्शित फिल्म ‘बेगम जान’ निस्संदेह खास किस्म के दर्शकों को ध्यान में रखते हुए बनाई गई थी, लेकिन इस फिल्म में अभिनेत्री विद्या बालन का जीवंत अभिनय हर वर्ग के दर्शकों को पसंद आया. जिस ने भी फिल्म देखी, विद्या बालन की अभिनय प्रतिभा का लोहा माना.

बंगला फिल्म ‘राजकहिनी’ की रीमेक ‘बेगम जान’ कई मायनों में एक अहम फिल्म थी, जो भारत पाकिस्तान विभाजन की त्रासदी में तवायफों के दर्द को बयां करती थी, इस फिल्म की जान केंद्रीय पात्र बेगम जान उन्मुक्त और सख्त स्वभाव की औरत है, जो कोठा चलाती है. कोठा चलाना कभी भी आसान काम नहीं रहा, इस बात को श्याम बेनेगल निर्देशित फिल्म ‘मंडी’ में बड़ी ईमानदारी से दिखाया गया था.

बंटवारे के दौरान कैसेकैसे कहर टूटे यह कई फिल्मों में दिखाया गया है, लेकिन बेगम जान के कोठे की बात ही कुछ और है. उस का कोठा एक ऐसी जगह बना हुआ है, जो दोनों देशों की सीमा पर है. इस कोठे को तोड़ना प्रशासनिक मजबूरी भी है और जरूरत भी. नाटकीय अंदाज में अधिकारी साम, दाम, दंड, भेद अपनाते हैं तो बेगम जान चौकन्नी हो जाती है. तवायफों से सख्ती से पेश आने वाली बेगम जान कोठा बचाने के लिए जीजान लगा देती है, पर सरकार से जीत नहीं पाती.

फिल्म का दूसरा अहम पहलू बेगम जान की कोठे और अपने पेशे के प्रति प्रतिबद्धता है. बेगम जान को आजादी से कोई सरोकार नहीं है, क्योंकि आर्थिक और सामाजिक रूप से गुलाम तवायफों की दुनिया कोठे तक ही सीमित रहती है. इस के बाहर वे झांकती तक नहीं कि कहां क्या हो रहा है? मसाला फिल्मों की तरह फिल्म आगे बढ़ती रहती है, उस के साथसाथ चलती है तवायफों की बेबस जिंदगी, अनिश्चितता, असुरक्षा और अकेलापन.

बंगला निर्देशक श्रीजीत मुखर्जी ने इस फिल्म को निखारने और संवारने में खुद को पूरी तरह झोंक दिया है. विद्या बालन के कंधों पर टिकी फिल्म ‘बेगम जान’ दरअसल एक ऐसी तवायफ की कहानी है, जिस के कोठा चलाने के अपने उसूल हैं. वह मर्दों की कमजोरी पहचानती है और अपना काम साधने के लिए उसूलों से भी समझौता करने को तैयार हो जाती है.

रुपहले पर्दे की कोई भी अभिनेत्री तब तक पूर्ण नहीं मानी जाती, जब तक वह किसी फिल्म में तवायफ का किरदार न निभा ले. कुछ अपवादों को छोड़ दें तो हर सफल अभिनेत्री ने किसी न किसी फिल्म में तवायफ की भूमिका की है. तवायफ की भूमिका निभाना कोई आसान काम नहीं होता, यह बात ‘पाकीजा’ से ले कर ‘बेगम जान’ तक साबित हुई है.

कोठों और तवायफों की जिंदगी पर दर्जनों फिल्में बनी हैं. उन में से कुछ तो आज भी ब्रांड की तरह हैं. दरअसल, आम लोगों के लिए तवायफें और कोठे हमेशा से ही बेहद जिज्ञासा, उत्सुकता और आकर्षण का केंद्र रहे हैं. बावजूद इस के कि कोठों पर हर कोई नहीं जाता. एक ऐसा वक्त भी था, जब तवायफों के कोठे या तो राजाओं और नवाबों की विलासिता अथवा मनोरंजन के महफूज अड्डे हुआ करते थे या फिर बेहद खास लोगों की अय्याशी के ठिकाने. अभिजात्य मध्यमवर्ग का वास्ता उन से फिल्मों के जरिए ही पड़ा. धार्मिक सामाजिक और पारिवारिक बंदिशों में जीने वाले लोगों ने तवायफों और कोठों को सिर्फ फिल्मी परदे पर ही देखा और समझा.

समानांतर या कला फिल्मों की तवायफ भी पर्दे पर दिखाई गईं और तवायफों वाली व्यावसायिक फिल्में भी खूब चलीं. इन दोनों किस्म की तवायफों में एक फर्क रहा. फर्क यह कि कला फिल्मों की ज्यादातर तवायफ बुद्धिजीवी महिला होती थीं और साथ में अच्छी शायरा भी. पर व्यासायिक सिनेमा की तवायफ एक खूबससूरत जिस्म भर होती थी, जो शाम ढलते ही कोठों की रौनक में ढल जाती थीं. घुंघरुओं की छमछम और वाद्य यंत्रों की थाप पर जब वह नाचती थीं तो उन के कद्रदान झूम उठते थे.

इन फिल्मों ने तवायफों और कोठों की जो छवि गढ़ी, उस में एक गुलजार गली होती थी, जिस के नीचे पान की दुकानें होती थीं. उन दुकानों पर लोगों की खासी चहलपहल रहती थी. सूरज ढलते ही ये गलियां उजियारी हो जाती थीं और कोठे रोशनियों से नहा उठते थे. गलियों में दलाल घूमते नजर आते थे, जो ग्राहकों से मुजरा सुनने की गुजारिश करते थे.

इन का ग्राहक वर्ग भी अलग था, जो हाथ में गजरा लपेटे रहता था. उस के गले में रंगीन स्कार्फ या रूमाल झूलता रहता था. मुंह में पान की पीक भरी रहती थी और सिर से तेल टपकता रहता था. ग्राहकों में गुंडे, मवालियों से ले कर पैसे वाले और इज्जतदार लोग भी शुमार रहते थे. कोठे पर पहुंच कर ये लोग गावतकिए का सहारा ले कर टिक जाते थे और मुजरे का लुत्फ उठाते हुए तवायफ की हर अदा पर नोट लुटाते थे. इन में से ही कोई तवायफ पर फिदा हो कर उस से मोहब्बत कर बैठता था. फिर शुरू होती थी एक प्रेम कहानी, जिस का अंत अकसर ट्रेजेडी में होता था.

इन व्यावसायिक फिल्मों की एक कमी यह थी कि इन में तवायफ की जिंदगी की कहानी कम ही होती थी, क्योंकि ये फिल्में नीचे के दर्शकों के मनोरंजन के लिए और फिल्म में नाचगाने के दृश्य ठूंसने के लिए बनती थीं.

हर एक फिल्म में कोठे की संचालिका यानी मौसी जरूर होती थी, जिस के इशारे पर महफिल शुरू और खत्म होती थी. यह मौसी आमतौर पर रिटायर्ड तवायफ होती थी, जिसे कोठे की गार्जियन भी कहा जा सकता है्. कोठों का संचालन और प्रबंधन करने वाली इस महिला के ताल्लुकात मालदारों के अलावा गुंडों और पुलिस वालों तक से होते थे. बेगम जान में विद्या बालन लगभग इसी अंदाज में दिखीं, जो कहानी की मांग के मुताबिक जरूरत से ज्यादा क्रूर दिखाई गई है, लेकिन वह तवायफों का दर्द भी समझती है और उन्हें सांत्वना भी देती है.

कोठा संस्कृति का पूरा ऐतिहासिक सच दर्शकों ने 1972 में प्रदर्शित अपने जमाने की सुपर डुपर हिट फिल्म ‘पाकीजा’ से समझा था.

कमाल अमरोही की निर्देशन क्षमता किसी सबूत या तारीफ की मोहताज नहीं रही. वह कहानी में डूब कर फिल्में बनाते थे. पाकीजा की केंद्रीय भूमिका में उन की पत्नी और अपने जमाने की मशहूर अभिनेत्री मीना कुमारी थीं. इस फिल्म के गाने आज भी शिद्दत से गाए और सुने जाते हैं.

नवाबी दौर को जीवंत करती पाकीजा की कहानी आम कहानियों से हट कर थी. साहिब जान बनी मीना कुमारी की एक्टिंग ने साबित कर दिया था कि हर तवायफ के अंदर एक औरत भी होती है, जिस के अपने जज्बात होते हैं. वह महज पैसों या मनोरंजन के लिए नहीं जीती, बल्कि प्यार भी कर सकती है और उसे आखिरी सांस तक निभा भी सकती है.

‘पाकीजा’ की पाकीजा उर्फ नरगिस उर्फ साहिबजान की भूमिका मीना कुमारी ने बेहद सहज ढंग से निभाई थी, जिस के लिए वह जानी भी जाती थीं. कोठे पर ही पलीबढ़ी नरगिस अपने दौर की प्रसिद्ध नर्तकी और गायिका है. जब वह कोठे का चक्रव्यूह नहीं भेद पाती तो उस से समझौता कर लेती है. तभी उस की जिंदगी में एक नवाब सलीम अहमद खान आता है. सलीम की भूमिका में 68-70 के दशक के दौर के मशहूर अभिनेता राजकुमार थे.

सलीम और साहिबजान कोठे की बंदिशों को भूल कर एकदूसरे से प्यार करने लगते हैं और शादी करने का फैसला ले लेते हैं. दोनों भाग तो जाते हैं, पर शादी नहीं कर पाते. अपनी शोहरत के कारण साहिबजान हर जगह पहचान ली जाती है. फिल्म का अंत भले ही सामाजिक उपन्यासों जैसा रहा हो, जिस में साहिबजान अपने आशिक की प्रतिष्ठा के लिए अपना प्यार कुर्बान कर देती है. इस पूरी फिल्म में मीना कुमारी छाई रहीं तो उस की मुकम्मल वजहें भी थीं.

एक वजह यह भी थी कि मीना कुमारी वाकई एक ऐसी अभिनेत्री थीं, जो वास्तविक जिंदगी में जीवन भर सच्चे प्यार के लिए भटकती रहीं. वह एक उम्दा गजलकार भी थीं. मीना कुमारी की गजलें आज भी गजल प्रेमी डूब कर सुनते हैं. कमाल अमरोही से शादी करने के बाद भी वह अभिनेता धर्मेंद्र को नहीं भुला पाई थीं और उन्होंने खुद को शराब के नशे में डुबो लिया था.

‘पाकीजा’ 1958 में बनना शुरू हुई थी, पर प्रदर्शित 1972 में हो पाई. एक वक्त में लग रहा था कि यह फिल्म डिब्बे में ही बंद रह जाएगी. पर राजकुमार की कोशिशों के चलते इस का प्रदर्शन संभव हो पाया. अक्खड़ मिजाज के राजकुमार शायद पहली दफा किसी के सामने गिड़गिड़ाए थे. वह मीना कुमारी ही थीं, जो राजकुमार के अनुनयविनय को टाल नहीं पाईं और ‘पाकीजा’ की बाकी शूटिंग बीमारी की हालत में भी करने तैयार हो गईं. ‘पाकीजा’ के प्रदर्शन के चंद दिनों बाद ही उन की मृत्यु हो गई थी.

फिल्म जब प्रदर्शित हुई तो उस ने बौक्स औफिस के सारे रिकौर्ड तोड़ डाले. जिन मीना कुमारी को दर्शक एक घरेलू महिला के तौर पर देखने के आदी हो गए थे, उन्होंने बड़े शिद्दत से उन्हें तवायफ के रोल में पसंद किया.

‘पाकीजा’ ने तवायफ की एक नई और लगभग वास्तविक छवि दर्शकों के सामने रखी, जो आज भी लोगों के जेहन में जिंदा है. मीना कुमारी ने ‘पाकीजा’ में तवायफ की जो भूमिका निभाई, उस ने दर्शकों के मन में यह बात स्थापित कर दी कि तवायफ सिर्फ मुजरा ही नहीं करती, बल्कि उस के अंदर एक औरत भी होती है, उस की भावनाएं होती हैं. उस का दिल भी किसी के लिए धड़कता है. वह भी मोहब्बत करने का हक रखती है और अपनी मोहब्बत के लिए कोठे के उसूल तोड़ने का दुस्साहस भी कर सकती है.

यह ट्रेजेडी भी दर्शकों को रास आई थी कि एक तवायफ का मुकाम आखिरकार कोठा ही है, जहां से उस की जिंदगी का सफर शुरू होता है और उसी पर आ कर खत्म होता है. समाज तवायफ को बहैसियत पत्नी तो दूर की बात है, बतौर आम औरत भी मान्यता नहीं देता. तवायफ आखिरकार तवायफ ही होती है और तवायफ ही रहती है.

‘पाकीजा’ के बाद लंबे वक्त तक तवायफों पर आधारित कोई फिल्म नहीं बनी, जिस की बड़े पैमाने पर चर्चा हुई हो. व्यावसायिक फिल्मों में जरूर तवायफें और कोठे दिखाए जाते रहे, पर यह दर्शकों को बांधे रखने का टोटका भर था, जिस के एकाध दृश्य में आइटम सौंग की तरह तवायफ और मुजरा डाल दिए जाते थे.

8 साल के सन्नाटे के बाद जब चुप्पी टूटी तो उस का अंदाज भी जुदा था. तवायफों पर लगातार क्रमश: 4 फिल्में 1981 में ‘उमराव जान’, 1982 में ‘बाजार’, 1983 में ‘मंडी’ और 1984 में ‘उत्सव’ प्रदर्शित हुईं.

इन फिल्मों के प्रदर्शन से बुद्धिजीवी वर्ग में एक बार फिर से यह बहस छिड़ गई कि आखिर तवायफ के माने क्या है? क्या वह वेश्या और कालगर्ल्स से भिन्न है? और यदि है तो किस तरह?

एक वर्ग वह था, जो इस जिद पर अड़ा था कि तवायफ जिस्मफरोशी नहीं करती, वह सिर्फ अपना नाचगाने का हुनर दिखा कर पैसा कमाती है. समाज में उस की भी इज्जत और जगह होती है. इस वर्ग का एक चलताऊ तर्क यह था कि तवायफों के पास तो शहजादों और राजकुमारों को भी अदब, तमीज और तहजीब सीखने भेजा जाता था.

इसी दौर में हालांकि यह बात भी साफ होती जा रही थी कि आधुनिक युग में तवायफ और वेश्या में कहने भर का फर्क है. इतिहास और साहित्य तवायफों से भरा पड़ा है. हिंदू पौराणिक ग्रंथों में इस का पर्याय शब्द गणिका है. गणिका और तवायफ में कोई खास फर्क नहीं होता. दोनों को ही राजाश्रय मिला होता है. हिंदी और उर्दू के साहित्यकार इस सच पर तो सहमत थे कि तवायफ भी समाज का एक अभिन्न हिस्सा हैं और उस की अपनी एक अलग अहमियत और उपयोगिता है. लेकिन चूंकि साहित्य भी पुरुष प्रधान था, इसलिए हमेशा ही तवायफ, वेश्या या गणिका के चरित्र को उभार कर उस का अंत पलायन में ही दिखाया गया है.

निस्संदेह यह संकीर्ण पुरुष मानसिकता थी, जो फिल्मों में लगातार देखने को मिली. सार रूप में यह स्वीकार कर लिया गया कि तवायफ ऐच्छिक ही सही जिस्मफरोशी भी करती है. लेकिन एक विशिष्ट वर्ग के पैसे और संरक्षण पर गुजर करने वाली सुंदर प्रतिभाशाली गणिका या तवायफ और आम आदमी की बाई, रंडी या वेश्या में एक सीमा रेखा खींची जाना जरूरी है.

यह वह दौर था, जब कोठे खत्म हो रहे थे. बनारस, कोलकाता और लखनऊ शहर 70 के दशक तक आबाद कोठों और मुजरों के लिए मशहूर थे, जहां देश भर के शौकीन मुजरे के लिए जाया करते थे. आपातकाल के बाद जो न दिखने वाले बदलाव समाज में आए, कोठों का लुप्त हो जाना भी उन में से एक था.

आपातकाल का कोठों और तवायफों से कोई प्रत्यक्ष संबंध नहीं था. लेकिन उन की जिंदगी और रोजीरोटी से एक कनेक्शन जरूर था. जो ठीक नोटबंदी के बाद जैसा था, जिस की मार बारबालाओं और कालगर्ल्स पर पड़ी थी. सियासी फैसलों के उपेक्षित वर्ग पर फर्कों के कोई मायने नहीं होते, इसलिए ऐसी दिक्कतें किसी को नजर नहीं आतीं.

सागर सरहदी निर्देशित ‘बाजार’ फिल्म नाम के मुताबिक तवायफों की बेबसी को दर्शाती हुई थी तो मशहूर निर्देशक श्याम बेनेगल की फिल्म ‘मंडी’ तमाम थिएटरी कलाकारों से सजी हुई थी. मंडी से कैरियर की शुरुआत करने वाली इला अरुण को तब कोई जानता भी नहीं था, लेकिन बेगम जान में वे मुख्य भूमिका में थीं.

इला अरुण नहीं मानतीं कि ‘बेगम जान’ और ‘मंडी’ की तुलना की जानी चाहिए. पर हकीकत यह है कि दोनों फिल्मों में देशकाल का फर्क भर है, नहीं तो ‘मंडी’ में भी राजनेता भूमाफिया और भ्रष्ट प्रशासन तवायफों के जरिए अपना स्वार्थ सिद्ध करते नजर आए थे. ‘मंडी’ की रूक्मिणी बाई यानी शबाना आजमी मुंह में पान की गिलोरी दबाए सौदेबाजी करती नजर आती हैं तो इस के उलट ‘बेगम जान’ की हुक्का गुड़गुड़ाती विद्या बालन जौहर या खुदकुशी करने को प्राथमिकता देती है. इन दोनों ही फिल्मों ने तवायफ और वेश्या शब्द के फर्क को मिटाने में सटीक भूमिका निभाई.

श्याम बेनेगल के चतुराई भरे निर्देशन ने तवायफ और वेश्या में फर्क खत्म कर दिया था और इस मिथक को भी तोड़ा था कि तवायफ कोई मुसलमान औरत ही होती है. इस से पहले सन 1983 में प्रदर्शित फिल्म ‘उमराव जान’ ने भी हाहाकारी सफलता हासिल की थी. अभिनेत्री रेखा उमराव जान की भूमिका में थीं. ‘उमराव जान’ एक ऐसी किशोरी की कहानी पर आधारित फिल्म थी, जिसे बचपन में ही अगुवा कर कोठे पर बेच दिया जाता है.

मशहूर उपन्यासकार मिर्जा हादी रुस्वा के चर्चित उपन्यास उमराव जान अदा की वास्तविकता को ले कर आज तक संदेह व्याप्त है. इस से परे फिल्मी कोठों का एक कड़ा सच जरूर निर्देशक मुजफ्फर अली ने उजागर किया था कि एक तवायफ की दौड़ कोठे से शुरू हो कर कोठे पर ही खत्म होती है. यह अंत ही तवायफ की नियति है.

‘उमराव जान’ की रेखा ठीक ‘पाकीजा’ की मीना कुमारी की ही तरह सराही गई थीं और हर वर्ग के दर्शक द्वारा पसंद की गई थीं. यह अस्सी के दशक की वह फिल्म थी, जिस  ने तवायफों के बारे में लोगों को एक बार फिर नए सिरे से सोचने पर मजबूर कर दिया था. ‘उमराव जान’ के किरदार में अपने जीवंत अभिनय से जान डाल देने वाली रेखा ने एक तवायफ की जिंदगी और कशमकश को साकार कर अहसास करा दिया था कि वह आखिर रेखा क्यों हैं.

‘उमराव जान’ का गीत संगीत ‘पाकीजा’ से उन्नीस नहीं था. फिल्म की कहानी भी ‘पाकीजा’ से बहुत ज्यादा जुदा नहीं थी. उमराव जान भी जिंदगी भर प्यार को तरसती रही और शेरोशायरी के जरिए मशहूर हुई. समाज में उमराव जान की अपनी जगह थी, उस का अपना एक अलग प्रशंसक वर्ग था, जो तवायफ से ज्यादा शायरी को अहमियत देता था. लेकिन आखिरकार मुजफ्फर अली को फिल्म के अंत में दिखाना पड़ा कि उमराव जान अपनों के ठुकराए जाने से ज्यादा आहत हुई. वह कभी अपनी गलती नहीं समझ पाई और कोठों के पहरेदारों से ले कर एक डाकू और फिर एक नवाब तक में अपना प्यार तलाशती रही.

उमराव जान फिल्म एक हद तक व्यावसायिक थी, पर उस में समानांतर सिनेमा की छाप भी साफ दिखाई दी थी. फिल्म के अंत में प्रतीकात्मक तौर पर आईने से धूल पोंछती रेखा को दिखाया गया है, जिस से दर्शक समझ लें कि तवायफ कभी बीवी बहन या मां नहीं हो सकती. उमराव जान बन गई अमीरन को उस का सगा भाई न पहचान कर किस गुनाह की सजा दे रहा है, यह बात दर्शक तब समझे जब उन्हें यह अहसास हुआ कि क्यों तवायफ को गिरी नजर से देखा जाता है.

अस्सी का दशक रेखा के नाम था, ‘उमराव जान’ हिट हुई तो 3 साल बाद सन 1984 में वह शशि कपूर की महत्त्वाकांक्षी फिल्म ‘उत्सव’ में बसंत सेना की भूमिका में दिखीं, जो एक गणिका थी. उत्तेजक दृश्यों से भरपूर इस कथित कला फिल्म को दर्शकों ने बेरहमी से नकार दिया था. अभिनेता गिरीश कर्नाड के निर्देशन के जरिए शशि कपूर की इच्छा कामोत्तेजक दृश्यों को दिखा कर दौलत और शोहरत बटोरने की थी, जो पूरी नहीं हुई. ‘उत्सव’ असल में वात्स्यायन के कामसूत्र को चित्रण करने की कोशिश करने वाली फिल्म थी, पर इस के ऐतिहासिक पात्र और कहानी दर्शकों को पसंद नहीं आए थे.

‘मुकद्दर का सिकंदर’ और ‘सुहाग’ जैसी व्यावसायिक फिल्मों में भी रेखा तवायफ की भूमिका में थीं. ‘मुकद्दर का सिकंदर’ में तवायफ की जिंदगी का छोटा सा हिस्सा दिखाया गया था, लेकिन वही हिस्सा पूरी फिल्म पर भारी पड़ा.

दर्शकों को यह बात पसंद आई कि कोठे वाली जौहरा बाई (रेखा) सिकंदर (अमिताभ बच्चन) पर मरने लगती है, पर सिकंदर उसे नहीं चाहता. उलट इस के एक मवाली दिलावर (अमजद खान) जौहरा पर इस कदर जान छिड़कता है कि फिल्म के आखिर में सिकंदर को जौहरा से प्यार करने की गलतफहमी में मार डालता है.

निर्देशक प्रकाश मेहरा बहुत कम दृश्यों में कोठों की बंदिशें बताने में कामयाब रहे थे. साहिब जान, बेगम जान और उमराव जान की तरह जौहरा की जिंदगी भी एक बड़े कमरे में कैद बताई गई. यहां निर्देशकों की मजबूरी भी हो गई थी और जरूरत भी कि वे कैमरे की नजर गलियों, फूलों और कोठों की सीढि़यों से हटा कर कुछ इतर नहीं दिखा सके और जो दिखाया वह मुजरा था, घुंघरुओं की खनक के साथ तवायफ पर न्यौछावर होते नोट थे.

1987 में बी.आर. चोपड़ा ने ऋषि कपूर और रति अग्निहोत्री को ले कर ‘तवायफ’ शीर्षक से ही फिल्म बना डाली. केंद्रीय भूमिका में रति अग्निहोत्री थीं, जिन्हें यह समझ आ गया था कि बौलीवुड में कामयाबी के झंडे गाड़ने के लिए किसी चर्चित अभिनेत्री को तवायफ की भूमिका निभाना अनिवार्य होता है. ‘तवायफ’ फिल्म ठीक चली. यह कहानी पारिवारिक थी, इसलिए तवायफ जीवन और कोठे का चित्रण वैसा नहीं हो पाया, जैसा दर्शक पसंद करते रहे थे.

अस्सी के दशक में ही तवायफों पर कई और फिल्में भी बनीं, लेकिन मसाला ज्यादा होने के कारण वे बौक्स औफिस पर औंधे मुंह लुढ़कीं. सलमा आगा और राजबब्बर अभिनीत ‘पति पत्नी और तवायफ’ इन में प्रमुख थी. इस दौर में एक ही विषय पर लगातार फिल्में बनीं और अधिकांश कमजोर कहानी और लचर निर्देशन के चलते फ्लौप हुईं तो अरसे तक फिर किसी ने तवायफ प्रधान फिल्म बनाने की हिम्मत नहीं की.

सन 1991 में निर्देशक महेश भट्ट ने फिल्म ‘सड़क’ में अपनी बेटी पूजा भट्ट को तवायफ के रोल में पेश किया था. नायिका को एक टैक्सी ड्राइवर चाहने लगता है और बड़े नाटकीय व करिश्माई तरीके से उसे गुंडों और दलालों से छुड़ा कर उस से शादी कर लेता है. महेश भट्ट जैसे तजुर्बेकार निर्देशक ही दर्शकों की कमजोर नब्ज पकड़ पाते हैं. वह जानते हैं कि कैसे कोठे की पृष्ठभूमि पर बनाई फिल्म देखने के लिए दर्शकों को खींचा जा सकता है. ‘सड़क’ में संजय दत्त बतौर हीरो थे.

‘सड़क’ फिल्म की खूबी यह थी कि इस में कोठों का आधुनिकीकरण दिखाया गया था. फिल्म में तवायफ तो थी, पर वह लहंगे में नहीं, बल्कि सलवारसूट में थी और फिल्म में परंपरागत मुजरा नहीं था. एक किन्नर महारानी के रोल में अभिनेता सदाशिव अमरापुरकर भी जमे थे. इस अलग किरदार के जरिए महेश भट्ट ने खूब वाहवाही बटोरी थी, साथ ही सदाशिव अमरापुरकर ने भी. ‘बेगम जान’ के शुरुआती दृश्यों में महेश भट्ट की यह शैली दिखी थी कि कैसे बेगम जान सदमे में आई लड़की को थप्पड़ मारमार कर उसे सदमे से उबारने का मनोवैज्ञानिक काम करती है.

फिर एक दशक तक तवायफों पर कोई उल्लेखनीय फिल्म नहीं बनी. यह सन्नाटा सन 2001 में मधुर भंडारकर की फिल्म ‘चांदनी बार’ से टूटा, जिस में एक तवायफ मुमताज की भूमिका में अभिनेत्री तब्बू थीं. फिल्म चली और तब्बू का अभिनय सराहा भी गया, पर इस से तब्बू के डूबते कैरियर को कोई सहारा नहीं मिला.

सन 2002 में प्रदर्शित फिल्म ‘देवदास’ में तवायफ चंद्रमुखी की भूमिका में माधुरी दीक्षित थीं. ‘देवदास’ बड़े बजट की भव्य फिल्म थी, जिस में नायक शहरुख खान और अभिनेत्री ऐश्वर्या राय भी थीं. आम दर्शकों के लिए देवदास की कहानी हालांकि जिज्ञासा का विषय नहीं थी, लेकिन बड़े सितारों से सजी इस फिल्म के सेट दर्शकों को थिएटर तक खींचने में कामयाब रहे थे.

देवदास पर फिल्म पहले भी बन चुकी थी, पर इस देवदास में कहानी का इतना सरलीकरण कर दिया गया था कि दर्शक उसे आसानी से समझ पाए थे. बंगाली संस्कृति को छूती ‘देवदास’ में एक अलग हट कर बात यह थी कि तवायफें एकदम अछूत नहीं बताई गई थीं.

निर्देशक की यह कोशिश कामयाब रही थी कि तवायफों का भी समाज में सम्मानजनक स्थान होता है और यह एक स्वतंत्र व्यवसाय है. जिस का संबंध आम संपन्न परिवारों से भी होता है. धकधक गर्ल के नाम से मशहूर हो चुकीं माधुरी दीक्षित की अभिनय प्रतिभा भी ‘देवदास’ से उजागर हुई थी.

तवायफों की जिंदगी पर हर 10-12 साल के अंतर से लगातार फिल्में बनीं. ‘चांदनी बार’ और ‘देवदास’ के तुरंत बाद आई निर्देशक सुधीर मिश्रा की ‘चमेली’, जिस में मुख्य भूमिका में कपूर खानदान की बेटी करीना कपूर थीं. करीना कपूर ने भी साबित कर दिया कि एक तवायफ का चुनौतीपूर्ण किरदार वह सफलतापूर्वक निभा सकती हैं. इस फिल्म में करीना के हावभाव और लटकेझटके पेशेवर तवायफों सरीखे ही थे, जिन्हें दर्शकों ने सराहा था.

अब तक यह साबित हो चुका था कि ‘पाकीजा’ और ‘बेगम जान’ जैसी ऐतिहासिक और कला फिल्मों के मुकाबले ‘चांदनी बार’ और ‘चमेली’ जैसी फिल्में एक अलग फ्लेवर की हैं. इस यानी नए दौर की तवायफ कोई शायरा या गायिका नहीं रह गई, लेकिन उस में अहसास और जज्बात आम औरतों सरीखे ही होते हैं.

कोठों की भव्यता भी सन 2000 के बाद की फिल्मों में नहीं दिखी. इन फिल्मों में तवायफ परंपरागत तवायफ कम वेश्या ज्यादा लगीं. जो तय है, बदलते वक्त की मांग और सच दोनों थे. ‘बेगम जान’ में मुद्दत बाद परंपरागत कोठों और तवायफों की झलक दिखी तो दर्शकों ने उसे फिर हाथोंहाथ लिया.

तवायफों पर बनी नई फिल्मों का पुरुष चरित्र भी भिन्न था. वह पहले की तरह नवाब, गुंडा या मालदार जमींदार नहीं था, बल्कि आम आदमी था, जिस का अपना एक अलग मध्यमवर्गीय द्वंद्व होता है.

तवायफों का द्वंद्व ‘पाकीजा’ से ले कर ‘चमेली’ तक में ज्यों का त्यों था, बस इतिहास और वक्त के लिहाज से उस का प्रस्तुतीकरण बदल गया था. परदे की तवायफों ने हर दौर में दर्शकों को सोचने पर मजबूर तो किया कि क्यों उन की जिंदगी का स्याह पहलू उन के व्यक्तिगत आत्मसम्मान और स्वाभिमान पर भारी पड़ता है. समाज का नजरिया न ‘पाकीजा’ के दौर में बदला था, न ‘चमेली’ या ‘चांदनी बार’ के दौर में बदला. तवायफों से प्यार कोई भी करे, लेकिन सामाजिक और पारिवारिक दबावों के चलते उन्हें अपना नहीं पाता.

तवायफों पर बनी तमाम फिल्में स्त्री प्रधान मानी जाती हैं, जिन के अंत में उन की हताशा ही दिखती है. यह कहना मुश्किल है कि हालात और दुश्वारियों से परेशान तवायफों का पलायन और पराजय उन्हें पुरुष प्रधान समाज के सामने हथियार डालने को मजबूर क्यों करता है? स्त्री विमर्श तो उन में कहीं दिखता ही नहीं. एक तयशुदा संघर्ष के बाद तवायफ हार मान लेती है. लेकिन हम ‘मंडी’ को भी नहीं भूल सकते, जिस में दिखाया गया था कि पिंजरे में कैद पंछी आजाद हो जाता है, जो असल में तवायफ और कोठों का प्रतीकात्मक संबंध उजागर करता है.

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