फिल्मकार तिग्मांशु धुलिया के निर्देशन मे बनने वाली रोमांटिक फिल्म ‘‘मिलन टौकीज’’ पिछले तीन चार वर्षों से लगातार सुर्खियों में है. इस बीच इस फिल्म के साथ कई कलाकार जुड़ते और कई कलाकार बाहर होते रहे हैं. इतना ही नहीं कलाकारों के बदलने के साथ ही फिल्म की पटकथा में भी थोडे़ बहुत बदलाव किए जाते रहे हैं.
बहरहाल, अब फिल्म ‘‘मिलन टौकीज’’ में अली फजल को मुख्य भूमिका निभाने के लिए जोड़ा गया है. सूत्र बताते हैं कि अली फजल इन दिनों बौलीवुड के साथ साथ हौलीवुड में भी काफी व्यस्त है, तो तिंग्मांषु धुलिया को लगता है कि उनकी फिल्म की नैय्या पार लग जाएगी. वैसे अभी तक अली फजल के साथ अभिनय करने के लिए हीरोईन की तलाश पूरी नहीं हुई है.
मगर तिग्मांषु धुलिया का दावा है कि वह एक माह के अंदर हीरोइन का नाम तय कर लेंगे और अली फजल के साथ मार्च माह के दूसरे सप्ताह में उत्तर प्रदेश में षूटिंग भी शुरू कर देंगे.
ज्ञातब्य है कि फिल्म ‘‘मिलन टौकीज’’ के साथ शाहिद कपूर, आदित्य राय कपूर, आयुष्मान खुराना जैसे कलाकारों के आने व जाने की खबरें गर्म रही हैं. देखना यह है कि अली फजल ‘‘मिलन टौकीज’’ को उसके अंजाम तक पहुंचा पाते हैं या…
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सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि बिहार की टीम बिहार क्रिकेट एसोसिएशन यानी बीसीए के तहत रणजी ट्रौफी और अन्य घरेलू टूर्नामैंटों में हिस्सा लेगी.
वर्ष 2000 में बिहार का विभाजन होने के बाद अलग राज्य झारखंड बना. इस के बाद से बिहार क्रिकेट का भविष्य अंधकार में चला गया. 2001 में क्रिकेट झारखंड चला गया. इस के बाद बिहार में नए संघ की दावेदारी को ले कर घमासान शुरू हो गया.
काफी जद्दोजेहद के बाद 27 सितंबर, 2008 को भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड यानी बीसीसीआई की आमसभा की बैठक हुई और उस में बिहार क्रिकेट एसोसिएशन को एसोसिएट का दर्जा मिल गया. उस समय बिहार से खेलने वाले खिलाडि़यों को उम्मीद जगी कि अब भविष्य ठीक होने वाला है पर खेल पदाधिकारियों की राजनीति के कारण इन युवा खिलाडि़यों को फिर निराश होना पड़ा.
वर्ष 2010 में बिहार क्रिकेट एसोसिएशन 2 धड़ों में बंट गया. इस लड़ाई में खिलाडि़यों का भविष्य फिर अंधकारमय हो गया और पद की लड़ाई इतनी बढ़ी कि बात हाईकोर्ट तक जा पहुंची फिर सुप्रीम कोर्ट. आखिरकार कोर्ट ने 23 सितंबर, 2015 को बिहार क्रिकेट एसोसिएशन चुनाव कराया और इस के मुखिया अब्दुल बारी सिद्दीकी बने. वर्ष 2016 में बिहार क्रिकेट एसोसिएशन को बीसीसीआई से मान्यता मिल गई. फिर लोढ़ा समिति की सिफारिशें लागू होने के बाद एक व्यक्ति एक पद के नियमों के अनुसार बीसीए के मुखिया को इस्तीफा देना पड़ा.
बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से 17 वर्षों बाद अब बिहार के क्रिकेटर खुली हवा में सांस ले सकेंगे. उन्हें अब झारखंड नहीं, बल्कि अपने राज्य का प्रतिनिधित्व रणजी जैसे क्रिकेट टूर्नामैंट में करने का मौका मिलेगा. अब इशान किशन, बाबूल, शशीम राठौर, समर कादरी, केशव कुमार व शाहबाज नदीम जैसे क्रिकेटरों को संन्यास नहीं लेना पड़ेगा. बता दें कि इन खिलाडि़यों ने इसलिए असमय संन्यास लिया था क्योंकि इन के साथ सौतेला व्यवहार किया जाता था.
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आशीष के जाते ही डिंपल दरवाजा बंद कर रसोईघर की ओर भागी. जल्दी से टिफिन अपने बैग में रख शृंगार मेज के समक्ष तैयार होते हुए वह बड़बड़ाती जा रही थी, ‘आज फिर औफिस के लिए देर होगी. एक तो घर का काम, फिर नौकरी और सब से ऊपर वही बहस का मुद्दा…’
5 वर्ष के गृहस्थ जीवन में पतिपत्नी के बीच पहली बार इतनी गंभीरता से मनमुटाव हुआ था. हर बार कोई न कोई पक्ष हथियार डाल देता था, पर इस बार बात ही कुछ ऐसी थी जिसे यों ही छोड़ना संभव न था.
‘उफ, आशीष, तुम फिर वही बात ले बैठे. मेरा निर्णय तो तुम जानते ही हो, मैं यह नहीं कर पाऊंगी,’ डिंपल आपे से बाहर हो, हाथ मेज पर पटकते हुए बोली थी.
‘अच्छाअच्छा, ठीक है, मैं तो यों ही कह रहा था,’ आखिर आशीष ने आत्मसमर्पण कर ही दिया. फिर कंधे उचकाते हुए बोला, ‘प्रिया मेरी बहन थी और बच्चे भी उसी के हैं, तो क्या उन्हें…’
बीच में ही बात काटती डिंपल बोल पड़ी, ‘मैं यह मानती हूं, पर हमें बच्चे चाहिए ही नहीं. मैं यह झंझट पालना ही नहीं चाहती. हमारी दिनचर्या में बच्चों के लिए वक्त ही कहां है? क्या तुम अपना वादा भूल गए कि मेरे कैरियर के लिए हमेशा साथ दोगे, बच्चे जरूरी नहीं?’ आखिरी शब्दों पर उस की आवाज धीमी पड़ गई थी.
डिंपल जानती थी कि आशीष को बच्चों से बहुत लगाव है. जब वह कोई संतान न दे सकी तो उन दोनों ने एक बच्चा गोद लेने का निश्चय भी किया था, पर…
‘ठीक है डिंपी?’ आशीष ने उस की विचारशृंखला भंग करते हुए अखबार को अपने ब्रीफकेस में रख कर कहा, ‘मैं और मां कुछ न कुछ कर लेंगे. तुम इस की चिंता न करना. फिलहाल तो बच्चे पड़ोसी के यहां हैं, कुछ प्रबंध तो करना ही होगा.’
‘क्या मांजी बच्चों को अपने साथ नहीं रख सकतीं?’ जूठे प्याले उठाते हुए डिंपल ने पूछा.
‘तुम जानती तो हो कि वे कितनी कमजोर हो गई हैं. उन्हें ही सेवा की आवश्यकता है. यहां वे रहना नहीं चाहतीं, उन को अपना गांव ही भाता है. फिर 2 छोटे बच्चे पालना…खैर, मैं चलता हूं. औफिस से फोन कर तुम्हें अपना प्रोग्राम बता दूंगा.’
तैयार होते हुए डिंपल की आंखें भर आईं, ‘ओह प्रिया और रवि, यह क्या हो गया…बेचारे बच्चे…पर मैं भी अब क्या करूं, उन्हें भूल भी नहीं पाती,’ बहते आंसुओं को पोंछ, मेकअप कर वह साड़ी पहनने लगी.
2 दिनों पहले ही कार दुर्घटना में प्रिया तो घटनास्थल पर ही चल बसी थी, जबकि रवि गंभीर हालत में अस्पताल में था. दोनों बच्चे अपने मातापिता की प्रतीक्षा करते डिंपल के विचारों में घूम रहे थे. हालांकि एक लंबे अरसे से उस ने उन्हें देखा नहीं था. 3 वर्ष पूर्व जब वह उन से मिली थी, तब वे बहुत छोटे थे.
वह घर, वह माहौल याद कर डिंपल को कुछ होने लगता. हर जगह अजीब सी गंध, दूध की बोतलें, तारों पर लटकती छोटीछोटी गद्दियां, जिन से अजीब सी गंध आ रही थी. पर वे दोनों तो अपनी उसी दुनिया में डूबे थे. रवि को तो चांद सा बेटा और फूल जैसी बिटिया पा कर और किसी चीज की चाह ही नहीं थी. प्रिया हर समय, बस, उन दोनों को बांहों में लिए मगन रहती.
परंतु घर के उस बिखरे वातावरण ने दोनों को हिला दिया. तभी डिंपल बच्चा गोद लेने के विचार मात्र से ही डरती थी और उन्होंने एक निर्णय ले लिया था. ‘तुम ठीक कहती हो डिंपी, मेरे लिए भी यह हड़बड़ी और उलझन असहाय होगी. फिर तुम्हारा कैरियर…’ आशीष ने उस का हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा था.
दोनों अपने इस निर्णय पर प्रसन्न थे, जबकि वह जानती थी कि बच्चे पालने का अर्थ घर का बिखरापन ही हो, ऐसी बात नहीं है. यह तो व्यक्तिगत प्रक्रिया है. पर वह अपना भविष्य दांव पर लगाने के पक्ष में कतई न थी. वह अच्छी तरह समझती थी कि यह निर्णय आशीष ने उसे प्रसन्न रखने के लिए ही लिया है. लेकिन इस के विपरीत डिंपल बच्चों के नाम से ही कतराती थी.
डिंपल ने भाग कर आटो पकड़ा और दफ्तर पहुंची. आधे घंटे बाद ही फोन की घंटी घनघना उठी, ‘‘मैं अभी मुरादाबाद जा रहा हूं. मां को भी रास्ते से गांव लेता जाऊंगा,’’ उधर से आशीष की आवाज आई.
‘‘क्या वाकई, मेरा साथ चलना जरूरी न होगा?’’
‘‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं, मांजी तो जाएंगी ही. और कुछ दिनों पहले ही बच्चे नानी से मिले थे. उन्हें वे पहचानते भी हैं. तुम्हें तो वे पहचानेंगे ही नहीं. वैसे तो मैं ही उन से कहां मिला हूं. खैर, तुम चिंता न करना. अच्छा, फोन रखता हूं…’’
2 दिनों बाद थकाटूटा आशीष वहां से लौटा और बोला, ‘‘रवि अभी भी बेहोश है, दोनों बच्चे पड़ोसी के यहां हैं. वे उन्हें बहुत चाहते हैं. पर वे वहां कब तक रहेंगे? बच्चे बारबार मातापिता के बारे में पूछते हैं,’’ अपना मुंह हाथों से ढकते हुए आशीष ने बताया. उस का गला भर आया था.
‘‘मां बच्चों को संभालने गई थीं, पर वे तो रवि की हालत देख अस्पताल में ही गिर पड़ीं,’’ आशीष ने एक लंबी सांस छोड़ी.
‘‘मैं ने आज किशोर साहब से बात की थी, वे एक हफ्ते के अंदर ही डबलबैड भिजवा देंगे.’’
‘‘एक और डबलबैड क्यों?’’ आशीष की नजरों में अचरजभरे भाव तैर गए.
‘‘उन दोनों के लिए एक और डबलबैड तो चाहिए न. हम उन्हें ऐसे ही तो नहीं छोड़ सकते, उन्हें देखभाल की बहुत आवश्यकता होगी. वे पेड़ से गिरे पत्ते नहीं, जिन्हें वक्त की आंधी में उड़ने के लिए छोड़ दिया जाए,’’ डिंपल की आंखों में पहली बार ममता छलकी थी.
उस की इस बात पर आशीष का रोमरोम पुलकित हो उठा और वह कूद कर उस के पास जा पहुंचा, ‘‘सच, डिंपी, क्या तुम उन्हें रखने को तैयार हो? अरे, डिंपी, तुम ने मुझे कितने बड़े मानसिक तनाव से उबारा है, शायद तुम नहीं समझोगी. मैं आजीवन तुम्हारे प्रति कृतज्ञ रहूंगा.’’ पत्नी के कंधों पर हाथ रख उस ने अपनी कृतज्ञता प्रकट की.
डिंपल चुपचाप आशीष को देख रही थी. वह स्वयं भी नहीं जानती थी कि भावावेश में लिया गया यह निर्णय कहां तक निभ पाएगा.
डिंपल सारी तैयारी कर बच्चों के आने की प्रतीक्षा कर रही थी. 10 बजे घंटी बजी. दरवाजे पर आशीष खड़ा था और नीचे सामान रखा था. उस की एक उंगली एक ने तो दूसरी दूसरे बच्चे ने पकड़ रखी थी. उन्हें सामने देख डिंपल खामोश सी हो गई. बच्चों के बारे में उसे कुछ भी तो ज्ञान और अनुभव नहीं था. एक तरफ अपना कैरियर, दूसरी तरफ बच्चे, वह कुछ असमंजस में थी.
आशीष और बच्चे उस के बोलने का इंतजार कर रहे थे. ऊपरी हंसी और सूखे मुंह से डिंपल ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा, ‘‘हैलो, कैसा रहा सफर?’’
‘‘बहुत अच्छा, बच्चों ने तंग भी नहीं किया. यह है प्रार्थना और यह प्रांजल. बच्चो, ये हैं, तुम्हारी मामी,’’ आशीष ने हंसते हुए कहा.
परंतु चारों आंखें नए वातावरण को चुपचाप निहारती रहीं, कोई कुछ भी न बोला.
डिंपल ने बच्चों का कमरा अपनी पसंद से सजाया था. अलमारी में प्यारा सा कार्टून प्रिंट का कागज बिछा बिस्कुट और टाफियों के डब्बे सजा दिए थे. बिस्तर पर नए खिलौने रखे थे.
प्रांजल खिलौनों से खेलने में मशगूल हो, वातावरण में ढल गया, किंतु प्रार्थना बिस्तर पर तकिए को गोद में रख, मुंह में अंगूठा ले कर गुमसुम बैठी हुई थी. वह मासूम अपनी खोईखोई आंखों में इस नए माहौल को बसा नहीं पा रही थी.
पहले 4-5 दिन तो इतनी कठिनाई नहीं हुई क्योंकि आशीष ने दफ्तर से छुट्टी ले रखी थी. दोनों बच्चे आपस में खेलते और खाना खा कर चुपचाप सो जाते. फिर भी डिंपल डरती रहती कि कहीं वे उखड़ न जाएं. शाम को आशीष उन्हें पार्क में घुमाने ले जाता. वहां दोनों झूले झूलते, आइसक्रीम खाते और कभीकभी अपने मामा से कहानियां भी सुनते.
आशीष, बच्चों से स्वाभाविकरूप से घुलमिल गया था और बच्चे भी सारी हिचकिचाहट व संकोच छोड़ चुके थे, जिसे वे डिंपल के समक्ष त्याग न पाते थे. शायद यह डिंपल के अपने स्वभाव की प्रतिक्रिया थी.
एक हफ्ते बाद डिंपल ने औफिस से छुट्टी ले ली थी ताकि वह भी बच्चों से घुलमिल सके. यह एक परीक्षा थी, जिस में आशीष उत्तीर्ण हो चुका था. अब डिंपल को अपनी योग्यता दर्शानी थी. हमेशा की भांति आशीष तैयार हो कर 9 बजे दफ्तर चल दिया. दोनों बच्चों ने नाश्ता किया. डिंपल ने उन की पसंद का नाश्ता बनाया था.
‘‘अच्छा बच्चो, तुम जा कर खेलो, मैं कुछ साफसफाई करती हूं,’’ नाश्ते के बाद बच्चों से कहते समय हमेशा की भांति वह अपनी आवाज में प्यार न उड़ेल पाई, बल्कि उस की आवाज में सख्ती और आदेश के भाव उभर आए थे. थालियों को सिंक में रखते समय डिंपल उन मासूम चेहरों को नजरअंदाज कर गई, जो वहां खड़े उसे ही देख रहे थे.
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सुप्रीम कोर्ट के 4 वरिष्ठ जजों की प्रैस कौन्फ्रैंस के बाद सुप्रीम कोर्ट को उपदेश देने वालों की बाढ़ आ गई है. जो लोग अब तक सुप्रीम कोर्ट के कथन को ही अंतिम शब्द मानने को मजबूर थे, अब महात्मा बन गए हैं और इन 4 जजों को नैतिकता, अनुशासन, अदालतों की गरिमा, वरिष्ठता के मान, देश की अस्मिता, संविधान की आस्था आदि का पाठ पढ़ाने में लग गए हैं, साथ ही, शब्दकोशों से नएनए शब्द खोज कर जजों पर चिपका रहे हैं.
एक तरफ वे लोग हैं जो जानते हैं कि इन 4 जजों ने जो किया वह तभी किया होगा जब अति हो चुकी होगी. जो कुछ 12:15 बजे 12 जनवरी, 2018 की प्रैस कौन्फ्रैंस में कहा गया वह वास्तव में बहुत कम ही होगा और सुप्रीम कोर्ट की बैंचों, चैंबरों व गलियारों में बहुतकुछ ऐसा हो रहा होगा जिस के बारे में कहने या लिखने का साहस बहुत कम लोगों को है.
सुप्रीम कोर्ट की संस्था पर इस प्रैस कौन्फ्रैंस ने चोट पहुंचाई, उस की प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचाई है, यह कहने वालों में से अधिकतर वे हैं जो चाहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट लगेबंधे संस्कारों से बंधी रहे व वैदिक, संकुचित, सरकार की सत्ता में विश्वास रखने वाली, व्यक्तिपूजक हो और वह ‘संसद ही सर्वोपरि’ है के सिद्धांत को माने क्योंकि आज संसद की बागडोर एक विशिष्ट विचारधारा के हाथ में है.
सुप्रीम कोर्ट के ये 4 जज जानते हैं कि जो कुछ उन्होंने किया, करा या कहा वह अभूतपूर्व है पर जो कुछ उन्होंने नहीं कहा, पर जिस का संदेश वहां पहुंच गया जहां पहुंचना चाहिए था, उस के बारे में कम ही सोचा, बोला या लिखा जा रहा है.
एक विशिष्ट खेमे ने इन 4 जजों का इतिहास उघाड़ना शुरू कर दिया है जबकि सत्य यह है कि हर व्यक्ति के इतिहास में काले धब्बे होते हैं. पद की प्रतिष्ठा के कारण बहुत जगह चुप रहना ठीक होता है.
इन 4 जजों ने सुप्रीम कोर्ट का अपमान नहीं किया, खुद को सामने कर उस पर हो रहे निरंतर आक्रमण का सामना किया है. वे ह्यूमन शील्ड बन गए हैं. उन्होंने अपना भविष्य, अपनी गवर्नरशिपें, चेयरमैनशिपें, आरबिट्रेशन के अवसर, संतानों के भविष्य को दांव पर लगा दिया इसलिए कि सुप्रीम कोर्ट व देश के लोकतंत्र को बचाया जा सके.
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लोकप्रिय क्रिकेटर महेंद्र सिंह धौनी के जीवन पर बनी फिल्म ‘महेंद्र सिंह धौनी-द अनटोल्ड स्टोरी’ के एक दृश्य में महेंद्र सिंह धौनी को अपने दोस्तों से एक मैच का विश्लेषण करते हुए बताया गया है कि कूच बिहार क्रिकेट ट्रौफी टूर्नामैंट में पंजाब की टीम से बिहार की टीम क्यों हारी थी.
यह मैच 16 दिसंबर, 1999 को हुआ था. उस समय अंडर-19 की राष्ट्रीय टीम के खिलाडि़यों का चयन होना था. पंजाब की तरफ से युवराज सिंह और बिहार से महेंद्र सिंह धौनी का चयन तय माना जा रहा था. लेकिन बिहार की टीम के हार जाने की वजह से धौनी का चयन नहीं हो पाया था.
अपनी टीम की हार की वजह गिनाते किशोर महेंद्र सिंह धौनी दोस्तों को फ्लैशबैक में जाते बता रहा है कि दरअसल, हार तो तभी गए थे जब मैच के पहले ही दिन स्टेडियम से गुजरते युवराज सिंह के सामने हमारा आत्मविश्वास लड़खड़ा गया था. इस दृश्य में दिखाया गया है कि पंजाब का यह धुरंधर, उभरता बल्लेबाज कानों में ईयरफोन लगाए हाथ से ट्रौलीबैग घसीटते बड़ी बेफिक्री व आत्मविश्वास से जमीन को रौंदते हुए जा रहा है और बिहार के खिलाड़ी उस की इस अदा को भौचक देख रहे हैं.
फिल्म बनी थी महेंद्र सिंह धौनी की जिंदगी पर, लेकिन एक दृश्य में ही सही, कैमरे का फोकस युवराज सिंह पर करना अगर निर्देशक की मजबूरी हो गई थी तो बिलाशक इस की वजह युवराज सिंह का वह गजब का आत्मविश्वास व दृढ़ इच्छाशक्ति थी जो आंकड़ों और मैदान से परे उन की व्यक्तिगत जिंदगी में भी दिखी जब वे कैंसर का शिकार हो गए थे.
युवराज के हिम्मती हौसले
मैदान पर कीर्तिमान गढ़ते रहने वाले युवराज सिंह को 2012 की शुरुआत में कैंसर ने अपनी गिरफ्त में ले लिया था. ठीक इस के पहले 2011 में भारत को क्रिकेट वर्ल्डकप जिताने में भी उन की भूमिका अहम रही थी.
फरवरी 2012 में जैसे ही यह खबर आम हुई कि युवराज सिंह के फेफड़े में ट्यूमर है तो उन के प्रशंसकों ने उन के मैदान तो मैदान, जिंदगी के मैदान में भी बने रहने पर शंकाएं व्यक्त करनी शुरू कर दी थीं. इस की वजह तय है कैंसर के प्रति पूर्वाग्रह और इसे असाध्य बीमारी मानना, जबकि ऐसा है नहीं.
युवराज सिंह के फिजियो डाक्टर जतिन चौधरी ने फरवरी 2012 में ही युवराज सिंह के बारे में उड़ रही अफवाहों को विराम देते स्पष्ट कर दिया था कि उन्हें असामान्य और कैंसर ट्यूमर है. अब यह फैसला डाक्टरों को करना है कि वे कीमोथेरैपी कराएं या फिर दवाइयां दें. ट्यूमर का हिस्सा युवराज सिंह के दिल की धमनी के ऊपर था जिस के फटने की आशंका से डाक्टर इनकार नहीं कर रहे थे.
देर न करते हुए युवराज सिंह बोस्टन के कैंसर अनुसंधान केंद्र जा पहुंचे जहां उन्हें कीमोथेरैपी दी गई. बहुत जल्द युवराज सिंह ठीक हो कर भारत आए और क्रिकेट के मैदान में भी दमखम दिखाते दिखे तो कैंसर से डरने वालों को सुखद आश्चर्य हुआ था कि अरे, यह तो ठीक हो जाता है.
युवराज सिंह के ठीक होने में यानी कैंसर को हराने में इलाज के अलावा उन का वह आत्मविश्वास अहम था जिस का जिक्र 1999 में बिहार कूच ट्रौफी के दौरान महेंद्र सिंह धौनी ने किया था. कैंसर से अपने संघर्ष की दास्तां बयां करती किताब ‘द टैस्ट औफ माइ लाइफ’ में युवराज ने लिखा है, ‘‘जब आप बीमार होते हैं, जब आप पूरी तरह निराश होने लगते हैं तो कुछ सवाल एक भयावह सपने की तरह बारबार आप को सता सकते हैं लेकिन आप को सीना ठोक कर खड़ा होना चाहिए और उन मुश्किल सवालों का सामना करना चाहिए.’’
मनीषा की जिंदादिली
‘सौदागर’ फिल्म से फिल्म इंडस्ट्री में दाखिल हुईं अभिनेत्री मनीषा कोइराला ने भी कैंसर को हंसतेहंसते हराया. कई फिल्मों में बोल्ड सीन देने वाली मनीषा कैंसर का पता चलने के बाद भी बोल्ड रहीं. उन्हें ओवेरियन कैंसर था. यह इत्तफाक की बात थी कि मनीषा कोइराला के कैंसर का निदान भी 2012 में हुआ था.
मनीषा कोइराला की सर्जरी न्यूयौर्क में हुई थी. ठीक होने के बाद उन्होंने कहा था, ‘‘कैंसर के आगे अगर मैं घुटने टेक देती तो हार जाती पर मैं ने कैंसर का डट कर मुकाबला किया और मैं जीत गई.’’
अब कैंसर की ब्रैंड एंबैसेडर बन कर जागरूकता फैला रहीं मनीषा सामान्य जीवन जी रही हैं.
मनीषा की तरह अभिनेत्री लीजा रे भी स्तन कैंसर की शिकार हुईं. कई सालों के इलाज के बाद उन्होंने हौलीवुड में अपने अभिनय की नई पारी शुरू की. और आज वहां की एक लोकप्रिय अभिनेत्री हैं लीजा.
शेफाली का आत्मविश्वास
जरूरी नहीं है कि कैंसर सैलिब्रिटीज का ही ठीक हो और उस के लिए महंगा इलाज कराने को बोस्टन या न्यूयौर्क जाना पड़े. इलाज कहीं भी हो, जरूरी यह है कि मरीज हौसला और हिम्मत बनाए रखें. लाखों मरीजों की तरह भोपाल की शेफाली चक्रवर्ती और लखनऊ की नीलम वैश्य सिंह के उदाहरण आश्वस्त करते हैं कि कैंसर से जीतना अब नामुमकिन नहीं रहा.
शेफाली के पति अमित चक्रवर्ती भोपाल स्थित बीएचईएल कंपनी में काम करते हैं. इस दंपती के 2 बच्चे हैं. बेटी 12 साल की और बेटा 8 साल का है. चक्रवर्ती दंपती की जिंदगी में सबकुछ ठीकठाक चल रहा था कि अब से कोई 4 साल पहले पता चला कि शेफाली को जीभ का कैंसर है.
शेफाली बताती हैं कि जिस दिन बायोप्सी की रिपोर्ट आई थी, अमित ने यह नहीं कहा कि तुम्हें कैंसर है, बल्कि यह कहा कि हमें एक लड़ाई लड़नी है और किसी भी हालत में जीतना है.
शेफाली सकते में थी कि कैसे एक झटके में परिवार की खुशियों को ग्रहण लग गया था. डाक्टरों से मिलीं तो पता चला कि जीभ का औपरेशन होगा और मुमकिन है इस से उन की आवाज भी जाती रहे यानी वे कभी बोल ही न पाएं. मुंबई के टाटा मैमोरियल में शेफाली का इलाज व औपरेशन हुआ और सफल भी रहा.
शेफाली ने इस दौरान हिम्मत नहीं हारी. पति और नातेरिश्तेदारों ने भी पूरा सहयेग दिया जिस के चलते एक दुर्गम रास्ते से हो कर वे मंजिल तक आ पाईं. अब शेफाली पूरी तरह स्वस्थ व सामान्य हैं. कैंसर से जंग उन्होंने जीत ली है तो इस की एक बड़ी वजह वही आत्मविश्वास है.
डर कर जीना नहीं
कैंसर का पता शुरुआती दौर में जांच रिपोर्ट में आसानी से नहीं आता है. लखनऊ की रहने वाले नीलम वैश्य सिंह बहुत ही फिट व जागरूक महिला हैं. जब उन का वजन घटना शुरू हुआ और बौडी स्टैमिना कम होने लगा तो वे अपने फैमिली डाक्टर के पास गईं. कुछ समय पहले वे मैमोग्राफी करा चुकी थीं. उस में कोई जानकारी नहीं मिली थी. डाक्टर की सलाह पर दोबारा मैमोग्राफी टैस्ट कराया. इस में भी सही जानकारी नहीं मिल सकी. मैमोग्राफी के बाद अल्ट्रासाउंड यूएसजी कराया. इस में कुछ संकेत मिले. जिस की पुष्टि के लिए दिल्ली जा कर एफएनसी कराया. एफएनसी बहुत पीड़ादायक टैस्ट था. इस टैस्ट के बाद ही ब्रैस्ट कैंसर का पता चला. नीलम के लिए वे पल बहुत संघर्ष वाले थे. परिवार और बेटी को ले कर तमाम तरह की चिंताएं होने लगीं. नीलम के लिए अच्छा यह था कि पूरा परिवार उन के साथ हर तरह से सक्षम खड़ा था.
दिल्ली के बाद मुंबई जा कर सब से बेहतर इलाज की दिशा में प्रयास शुरू हुए. कई अलगअलग विशेषज्ञ डाक्टरों की राय और काउंसलिंग के बाद नीलम में आत्मविश्वास वापस आना शुरू हुआ. उन्होंने खुद को मजबूत किया. किसी भी औरत के लिए सब से कमजोर पहलू उस के खूबसूरत बाल होते हैं. ब्रैस्ट कैंसर में सुदंरता को ले कर अलग धारणा मन में थी. सर्जरी के पहले डाक्टर ने जब यह बता दिया कि इस में ब्रैस्ट को कोई नुकसान नहीं होगा और बाल वापस आ जाएंगे, तब मन मजबूत हुआ. नीलम कहती हैं, ‘‘सर्जरी करने वाले डाक्टर से बात करने के बाद मेरी सारी चिंताएं शांत हो गईं. सर्जरी से पहले हर तरह के टैस्ट किए जाने के बाद औपरेशन हुआ. औपरेशन के बाद एक ट्रेनपाइप लगा कर मुझे अस्पताल से डिस्चार्ज कर दिया गया. दवाओं का शरीर पर बुरा प्रभाव था. इस के बाद भी मैं खुद को व्यस्त रखना चाहती थी. मैं पार्टी, शौपिंग सबकुछ करने लगी.
‘‘सर्जरी के बाद कीमोथेरैपी शुरू हुई. हर 21 दिन पर 4 बार कीमोथेरैपी होने लगी. पहली थेरैपी के बाद ही मेरे बाल गिरने लगे. कई लोगों ने राय दी कि विग लगा लो. मेरा मन विग के लिए तैयार नहीं था. मैं ने अपने सिर के सारे बाल मुड़वा दिए. यह फैसला मेरे लिए और मेरे जानने वाले लोगों के लिए कठिन था.
‘‘मैं डर में नहीं जीना चाहती थी. बिना बाल के ही लोगों से मिलना, पार्टी और शौपिंग करना शुरू कर दिया.
‘‘अब मेरे बाल वापस आने लगे हैं. मैं ने कभी विग नहीं लगाई. जैसे नैचुरल बाल रहे उस की स्टाइल बना ली. हमेशा अपने को समाज के सामने रखा. कभी हिम्मत हार कर खुद को घर में कैद नहीं किया.
‘‘मेरा मानना है कि इस मर्ज में सब के साथ खुद की ताकत बहुत जरूरी होती है. कैंसर का इलाज बहुत खर्चीला है. इलाज के बाद भी जीवनभर दवाओं और जांच पर टिके रहना होता है. ऐसे में इलाज की कीमत का अंदाजा लगाना कठिन होता है. मेरे मामले में केवल डाक्टरी खर्च, दवा और जांच में 35 से 40 लाख रुपए खर्च हो चुके हैं. यह कमज्यादा भी हो सकता है.’’
मुमताज भी हैं मिसाल
60-70 के दशकों में धूम मचा देने वाली अभिनेत्री मुमताज अब 68 साल की हो रही हैं. साल 2000 में मुमताज को ब्रैस्ट कैंसर हुआ था. उन के बाएं स्तन में गांठ थी. मैमोग्राफी से यह बात स्पष्ट हो गई थी कि बगैर औपरेशन के वह ठीक नहीं हो सकती तो मुमताज ने सर्जरी कराने का फैसला ले लिया. जब कैंसर का पता चला, उस पूरी रात मुमताज सो नहीं पाई थीं. यह वह दौर था जब वे गुजराती मूल के व्यवसायी मयूर वाधवानी से शादी कर इंगलैंड में जा बसी थीं. वे फिल्मों को अलविदा कह चुकी थीं. मुमताज शुरू से ही हार न मानने वाली अभिनेत्री रही हैं. यही आत्मविश्वास कैंसर से लड़ कर जीतने में भी काम आया. औपरेशन हुआ, कीमोथेरैपी और रेडियोथेरैपी भी हुईं जिस से उन का खानापीना बंद हो गया था. मुमताज ने हार नहीं मानी और एक दिन ऐसा भी आया जब डाक्टरों ने उन्हें विजयी यानी कैंसरमुक्त घोषित कर दिया.
कैंसर को दी मात
कई कामयाब और हिट फिल्मों के निर्देशक अनुराग बासु की सकारात्मकता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वे कहते हैं कि उन्होंने कैंसर का नहीं, बल्कि कैंसर ने उन का सामना किया. साल 2004 में अनुराग को ल्यूकेमिया नाम का कैंसर हुआ था. तब वे फिल्म ‘तुम सा नहीं देखा’ का निर्देशन कर रहे थे. प्रोयाइलोसाइटिक ल्यूकेमिया एक तरह का ब्लड कैंसर होता है जिस से ठीक होने की बाबत डाक्टर कोई गांरटी नहीं देते.
आज अगर अनुराग को देखें तो लगता नहीं कि यह वही शख्स है जिसे डाक्टरों ने कह दिया था कि उस के पास 2-3 महीने का ही वक्त है. अनुराग ने कैंसर के आगे सिर नहीं झुकाया और 3 वर्षों के लंबे इलाज के बाद वे जीत गए. दृढ़ इच्छाशक्ति वाले डायरैक्टर ने 17 दिन वैंटीलेटर पर भी गुजारे थे. मौत के मुंह से वापस आए अनुराग बासु अब कैंसर पर फिल्म बनाने की सोच रहे हैं जिस में उन के व्यक्तिगत अनुभव स्वाभाविक तौर पर शामिल होंगे.
– साथ में शैलेंद्र सिंह
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रवि प्रकाश के 7 साल के बच्चे को ब्लड कैंसर था. उत्तर प्रदेश के बलरामपुर जिले का रहने वाला रवि प्रकाश पेश से किसान था. गांव में उस की 4 बीघा खेती की जमीन थी. बलरामपुर जिला अस्पताल से वह लखनऊ मैडिकल कालेज बच्चे के इलाज के लिए आ गया. यहां आ कर उसे पता चला कि वह बीपीएल कार्डधारक नहीं है यानी सरकार उसे गरीबीरेखा से नीचे का नहीं मानती, इसलिए उस के बच्चे का ‘कैंसर कार्ड’ नहीं बन सकता. ऐसे में कैंसर के इलाज में सरकार द्वारा मिलने वाली सहायता उस को नहीं मिल सकेगी.
अब रवि प्रकाश के सामने 2 तरह की परेशानियां थीं. एक तो, उसे बच्चे का इलाज कराना था. दूसरे, इलाज के लिए पैसों का इंतजाम करना था. रवि प्रकाश के परिवार में 2 बच्चे और पत्नी थी. दोनों ही बच्चे बड़े थे, स्कूल जाते थे. दोनों के स्कूल का खर्च भी कंधों पर था. पत्नी घर पर रहती थी. सब से छोटे बेटे प्रमोद के इलाज को ले कर पूरा परिवार अस्तव्यस्त हो गया था. रवि प्रकाश अपनी पत्नी के साथ लखनऊ मैडिकल कालेज आ गया था. उस के दोनों बच्चे रिश्तेदारों के भरोसे गांव में थे.
कैंसर का इलाज लंबा चलता है. ऐसे में समय और पैसा दोनों देना पड़ता है. रवि प्रकाश की सब से पहले किसानी प्रभावित हुई. वह समय पर फसल नहीं बो पाया. इस के बाद पैसों की जरूरत को ले कर उस ने अपने खेत गिरवी रख दिए. खेत को गिरवी रखने से मिले पैसों से बेटे का इलाज होने लगा. कुछ दिनों वह मैडिकल कालेज में रहता, फिर उसे गांव जाना पड़ता. जब डाक्टर बुलाता, उसे वापस आना पड़ता. 5 वर्षों के इलाज में रवि प्रकाश पूरी तरह से टूट गया था. अब उसे लगने लगा कि यह बच्चा तो बचेगा ही नहीं, उस के बचाने के चक्कर में जमीन गिरवी चली गई, सो अलग. अब परिवार कैसे चलेगा. अब वह रात में लखनऊ में ही रिकशा चलाने लगा. बच्चे के इलाज में गांव का किसान शहर में मजदूर बन गया. इस के बाद भी बच्चा सही नहीं हो सका.
रवि प्रकाश अकेला नहीं है. कैंसर का महंगा इलाज हर वर्ग के लोगों को तोड़ देता है. इस का कोई अनुमानित खर्च नहीं है. रोग की जांच से ले कर इलाज तक अलगअलग अस्पतालों की अलगअलग फीस है. कीमोथेरैपी, दवाओं का खर्च, दवाओं के शरीर पर होने वाले प्रभाव को दूर करने का इलाज सब की अलगअलग कीमतें होती हैं.
लखनऊ के ही पीजीआई में दिल्ली की एक प्राइवेट कंपनी में काम करने वाले नीरज अपना इलाज कराने आए. नीरज मार्केटिंग विभाग में थे. अच्छी सैलरी पाते थे. नीरज के लिवर में कैंसर था. 35 साल की उम्र में नीरज को कैंसर की खबर ने तोड़ दिया. उस की 10 साल पुरानी नौकरी थी. नीरज ने शुरुआत में दिल्ली में अपना इलाज शुरू कराया. वहां उसे इलाज के लिए छुट्टी लेनी पड़ती थी. शुरुआत में उस की कंपनी से कुछ छुट्टियां मिल गईं. इलाज लंबा चलता देख कंपनी ने छुट्टी देने से मना कर दिया. नीरज को उस की कंपनी ने नौकरी छोड़ने पर मजबूर कर दिया. नौकरी में बचाया पैसा खत्म हो चुका था. पीजीआई में उसे बताया गया कि कम से कम 4 लाख रुपए का खर्च आएगा.
नीरज ने अपने हिस्से का पैतृक आवास बेच दिया. उस से मिले पैसों से अपना इलाज शुरू कराया. अब उस का परिवार किराए के कमरे में रहता था. वहां ही रह कर वह अपना इलाज करा रहा था. 3 वर्षों के प्रयासों के बाद भी नीरज का इलाज पूरा नहीं हो सका. ऐसे में वह जिंदगी की जंग हार गया. नीरज के पीछे उस का 10 साल का बेटा और पत्नी बेसहारा हो गए. पत्नी ने लखनऊ में एक दुकान पर सेल्स का काम करना शुरू किया. आज वह अपनी और बेटे की परवरिश को ले कर परेशान है. वह कहती है, ‘‘नीरज ने जो भी कमाया और बचाया था, वह सब उस की बीमारी में खर्च हो गया. कैंसर की बीमारी से हम भिखारी हो गए. नीरज को बचा पाए होते तो शायद अफसोस न होता.’’
कैंसर के इलाज में टूटते परिवार
कैंसर के इलाज में टूटते परिवारों की दर्दनाक कहानी का अंत नहीं है. अस्पतालों में ऐसे परिवारों से मिलने के बाद समझ आता है कि कैंसर सिर्फ मरीज के लिए जानलेवा ही नहीं होता, यह पूरे परिवार की खुशियों को छीन भी लेता है है. मरीज के जाने के बाद परिवार सड़क पर बदहाल होता है. उसे समझ नहीं आता के वह अपनी जिंदगी कहां से शुरू करे. लखनऊ के मैडिकल कालेज में कैंसर पीडि़त परिवारों को सही से खाना तक नहीं मिल पाता.
लखनऊ के मैडिकल कालेज में ‘प्रसादम सेवा’ चलाने वाले विशाल सिंह कहते हैं, ‘‘हमारी संस्था कैंसर पीडि़त परिवार वालों के तीमारदारों यानी घर के लोगों को दिन का खाना खिलाने का काम करती है. हमारे पास आए परिवारों को देख कर पता चलता है कि कैंसर की मार केवल बीमार पर नहीं पड़ती, बल्कि पूरा परिवार भुक्तभोगी होता है. हम समाज के सहयोग से रोज 250 लोगों को खाना खिलाने का काम करते हैं. यहां लोग उत्तर प्रदेश, नेपाल, बिहार और बंगाल तक से आते हैं.’’
कैंसर की बीमारी बच्चों से ले कर बड़ों तक किसी को भी हो सकती है. इस के इलाज में नियमित जांच और दवाएं जरूरी होती हैं. इस के साथ ही साथ, मरीज को तनाव से मुक्त रहना, अपने शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाना भी होता है. कैंसर के प्रकार और बीमारी की स्टेज के अनुसार खर्च बढ़ता रहता है. खर्च का अनुमान लगाना संभव नहीं होता है.
सरकार इस के इलाज में सहायता देती है पर यह कुछ मरीजों तक ही सीमित रह जाती है. कैंसर के खिलाफ लड़ाई जीतने में अच्छे इलाज और आत्मविश्वास का बहुत महत्त्व होता है. कैंसर के इलाज में इतना खर्च हो जाता है कि गरीब परिवार तो छोड़ दीजिए, सामान्य परिवार तक टूट जाते हैं.
भारत में लगभग 25 लाख लोग कैंसर से ग्रस्त हैं और हर साल 7 लाख से अधिक नए मामले रजिस्टर होते हैं. सभी प्रकार के कैंसरों में, पुरुषों में मुंह व फेफड़ों का कैंसर और महिलाओं में सर्विक्स व स्तन कैंसर देश में होने वाली सभी संबंधित मौतों में लगभग 50 प्रतिशत के लिए दोषी हैं.
इंडियन मैडिकल एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष डा. के के अग्रवाल ने कहा, ‘‘हमारे देश में कैंसर का फैलाव एकसमान नहीं है. ग्रामीण और शहरी सैटिंग के आधार पर लोगों को प्रभावित करने वाले कैंसर के प्रकार में अंतर है. हम ने देखा है कि ग्रामीण महिलाओं में सर्विक्स कैंसर सब से अधिक व्यापक है, जबकि शहरी महिलाओं में स्तन कैंसर बड़े पैमाने पर है. पुरुषों के मामले में, ग्रामीण लोगों को मुंह का कैंसर प्रमुख रूप से होता है, जबकि शहरी पुरुष फेफड़ों के कैंसर से अधिक प्रभावित होते हैं. कैंसर एक महामारी की तरह बनता जा रहा है.
‘‘विडंबना यह है कि कैंसर की दवाएं बहुत महंगी हैं और आम आदमी की पहुंच से परे हैं. इस प्रकार, कैंसर की दवाइयां किफायती दामों पर उपलब्ध कराने के लिए मूल्य नियंत्रण बहुत आवश्यक है. कैंसर के शुरुआती निदान को सुनिश्चित करने के लिए सरकार को भी पर्याप्त कदम उठाने चाहिए क्योंकि यह एक सिद्ध तथ्य है कि शीघ्र निदान से कई जानें बचाई जा सकती हैं.’’
कैंसर की प्रमुख जांच
कैंसर की प्रमुख जांच में मैमोग्राफी और पैप स्मियर शामिल होती हैं. मैमोग्राफी में स्तन के तंतु की एक्सरे के जरिए जांच की जाती है. पैप स्मियर जांच को पैपेनिकोला भी कहते हैं. गर्भाशय या सेरविक्स टिशू ले कर इस जांच को किया जाता है. इस के अलावा कैंसर की जांच के लिए शरीर के प्रभावित हिस्से का एक्सरे किया जाता है.
कैंसर का रोग जिस स्थान पर हुआ वह इस बात का मुख्य कारक होता है कि इलाज कैसे होगा? इस के साथ ही साथ मरीज की हालत कैसी है, यह भी महत्त्वपूर्ण होता है. इस के इलाज में रेडियम किरणों का प्रयोग किया जाता है. ये किरणें शरीर के कैंसर कोष को खत्म करने का काम करती हैं.
कैंसर के इलाज में रेडियम का प्रयोग काफी सावधानी से किया जाता है. कैंसर की शुरुआती अवस्था में सर्जरी सब से प्रभावशाली होती है. तब तक कैंसर शरीर में फैला नहीं होता है.
कीमोथेरैपी में कैंसर का इलाज दवाओं द्वारा किया जाता है. कैंसर के इलाज में 50 से अधिक प्रभावशाली दवाओं का प्रयोग किया जाता है. बहुत सारे इलाजों के आने के बाद, कैंसर सौ फीसदी ठीक हो जाएगा, यह नहीं कहा जाता है.
कैंसर से ठीक होने के बाद भी लोग सामान्य जीवन बिताने में लंबा समय ले लेते हैं. महंगा होने के बाद भी कैंसर का इलाज पूरी तरह से ठीक होने वाला नहीं है. यही वजह है कि मरीज तो हाथ से जाता ही है, परिवार भी इलाज के बोझ से कर्जदार हो जाता है, सो अलग.
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सुप्रीम कोर्ट के 4 वरिष्ठ जजों ने 12 जनवरी को भारत के मुख्य न्यायाधीश के विरुद्ध प्रैस कौन्फ्रैंस कर के न्यायपालिका और लोकतंत्र को बचाने की अपील की तो देश सकते में आ गया. न्यायिक और राजनीतिक क्षेत्रों में हलचल मच गई. देश में एक अजीब स्थिति पैदा हो गई. न्यायिक इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है.
जजों ने जनता की अदालत में आ कर जो कुछ कहा, सामान्य नहीं, बहुत गंभीर है. जजों के मतभेद खुल कर सामने आने के बाद न्याय का सब से बड़ा मंदिर शक के कठघरे में आ गया. जजों का इशारा स्पष्ट तौर पर न्याय के मंदिर में न्याय के ढोंग, पाखंड की ओर है. उच्च न्यायपालिका पर दबाव या फिर नेता, अपराधी और न्यायतंत्र के अपवित्र गठजोड़ की तरफ संकेत है.
12 जनवरी को 12:15 बजे सुप्रीम कोर्ट के 4 सीनियर जज जस्टिस जस्ती चेलमेश्वर, रंजन गोगोई, कुरियन जोसेफ और मदन बी लोकुर अचानक मीडिया के सामने आए. इन्होंने चीफ जस्टिस के तौरतरीकों पर सवाल उठाए, कहा कि लोकतंत्र खतरे में है. ठीक नहीं किया गया तो सब खत्म हो जाएगा.
चीफ जस्टिस पर आरोप
जस्टिस चेलमेश्वर ने शुरुआत करते हुए कहा कि यह कौन्फ्रैंस करने में हमें कोई खुशी नहीं है. यह बहुत ही कष्टप्रद है. हम ने 2 माह पहले चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा को पत्र लिखा था और शिकायत की थी कि महत्त्वपूर्ण मामले उन से जूनियर जज को न दिए जाएं पर चीफ जस्टिस ने कुछ और ऐसे फैसले किए जिन से और सवाल पैदा हुए. इतना ही नहीं, आज (12 जनवरी) भी हम मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा से मिले और संस्थान को प्रभावित करने वाले मुद्दे उठाए पर वे नहीं माने. इस के बाद हमारे सामने कोई विकल्प नहीं रह गया. अपनी बात देश के सामने रखने का फैसला किया. कल को लोग यह न कह दें कि हम चारों जजों ने अपनी आत्मा बेच दी.
जस्टिस चेलमेश्वर ने कहा कि मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा महत्त्वपूर्ण मामले स्वयं सुनते हैं और दूसरे जजों को इस काम का मौका नहीं देते. देश की व्यवस्था के लिए अहम मामले अपनी पसंद की कुछ खास बैंचों में भेजते हैं. यह कार्य तर्क और विवेक के आधार पर नहीं होता.
चेलमेश्वर ने चीफ जस्टिस को 2 महीने पहले लिखा 7 पेज का पत्र भी जारी किया. इस में केस आवंटन की मनमानी प्रक्रिया के बारे में वर्णन था. चेलमेश्वर ने कहा कि यह सब खत्म होना चाहिए. जस्टिस कर्णन पर दिए गए फैसले में हम में से 2 जजों ने नियुक्ति प्रक्रिया को दोबारा देखने की जरूरत बताई थी, महाभियोग के अलावा अन्य रास्ते भी खोलने की मांग की थी. कोर्ट ने कहा था कि एमओपी में देरी न हो. केस संविधान पीठ में हैं तो दूसरी बैंच कैसे सुन सकती है. कोलेजियम ने एमओपी मार्च 2017 में भेजा पर सरकार का जवाब नहीं आया. मान लें कि वही एमओपी सरकार को मंजूर है.
जब जस्टिस चेलमेश्वर से यह पूछा गया कि क्या यह मुलाकात गैंगस्टर सोहराबुद्दीन मुठभेड़ के ट्रायल जज बृजगोपाल हरकिशन लोया की मौत की जांच जस्टिस अरुण मिश्रा की पीठ को सौंपने के खिलाफ थी जो वरिष्ठता में 10वें नंबर पर हैं?
चेलमेश्वर ने कहा कि आप यह मान सकते हैं.
मालूम हो कि दिल्ली प्रैस समूह की अंगरेजी पत्रिका ‘दी कैरेवान’ ने जज लोया की मौत को संदिग्ध हालत में हुई बताती रिपोर्ट औनलाइन प्रकाशित कर दिया तो हड़कंप मच गया. बृजगोपाल हरकिशन ?लोया मुंबई में सीबीआई के विशेष जज थे. उन की मौत 30 नवंबर और 1 दिसंबर, 2014 की रात को हुई. उस रात वे नागपुर में थे. उस समय सोहराबुद्दीन मामले की सुनवाई चल रही थी जिस में मुख्य आरोपी भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह व अन्य लोग हैं.
इस की जांच की मांग को ले कर लगी याचिका को बंबई हाईकोर्ट ने स्वीकार कर लिया. इसे अचानक सुप्रीम कोर्ट ने सुनना शुरू कर दिया. चूंकि जस्टिस लोया विवादित सोहराबुद्दीन फर्जी मुठभेड़ मामले की सुनवाई कर रहे थे, इसलिए यह विवाद और गहरा गया क्योंकि इस में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह व कई प्रभावशाली लोग आरोपी हैं.
चारों जजों को इस मामले में भी आपत्ति है. ये जज इस मामले की सुनवाईर् के इच्छुक थे पर चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा ने इस मामले को मनमाने तरीके से जस्टिस अरुण मिश्रा की पीठ को दे दिया, जिस में जस्टिस एम एम शांतानागौडर शामिल हैं. यह जूनियर अदालत है.
मामले को ले कर बंबई लायर्स एसोसिएशन ने जनहित याचिका दाखिल की है. एसोसिएशन की ओर से वरिष्ठ वकील दुष्यंत दवे ने तो खुल्लमखुल्ला कह दिया है कि हर कोई जानता है कि जस्टिस अरुण मिश्रा के भाजपा और उस के बड़े नेताओं से नजदीकी संबंध हैं. जबकि, इस प्रकार आरोप लगाना सही नहीं कहा जा सकता.
दवे ने यह भी कहा कि यह मामला बंबई हाईकोर्ट में लंबित है और शीर्ष अदालत को इस पर सुनवाई करने से बचना चाहिए. इस पर पीठ ने दवे से कहा कि शीर्ष अदालत को इसे क्यों नहीं सुनना चाहिए. हालांकि, अब जस्टिस अरुण मिश्रा की पीठ इस मामले से हट गई है.
इसी तरह चेलमेश्वर ने एमओपी संविधान पीठ 2016 का जिक्र किया. इस पीठ में जस्टिस चेलमेश्वर और कुरियन जोसेफ थे. चेलमेश्वर ने कहा कि वह फैसले का विषय था तो कोई दूसरी बैंच इसे कैसे सुन सकती है. यह आपत्ति न्यायाधीशों की नियुक्ति संबंधी सरकार के साथ निर्धारित सहमतिपत्र के बारे में है जिस पर एक बार 5 जजों की पीठ से सुनवाईर् हो चुकी थी पर मुख्य न्यायाधीश ने इसे छोटी बैंच को भेज दिया.
सिस्टम में पेंच
चारों जज मैडिकल कालेज घोटाले के उस मामले में भी खफा हैं जिस की सुनवाई भी चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा ने एक बैंच से ले कर दूसरी को सौंप दी. मामला लखनऊ मैडिकल कालेज छात्र भरती घोटाले से संबंधित है जिसे जस्टिस चेलमेश्वर ने गंभीर मान कर 5-सदस्यीय पीठ गठित कर दी थी और जिसे चलती कोर्ट में रोकने के लिए चीफ जस्टिस ने एक स्लिप भेजी थी पर जस्टिस चेलमेश्वर नहीं माने. लेकिन चीफ जस्टिस ने अगले ही दिन नई बैंच से उसे खारिज कर दिया. इस घोटाले में गंभीर आरोप न्यायपालिका पर भी थे, इसलिए विवाद और गहरा गया.
मैडिकल घोटाले में ओडिशा के दलाल, हवाला कारोबारी शामिल थे. ओडिशा हाईकोर्ट के जज आई एम कुद्दूसी इस मामले में भ्रष्टाचार करने और पद के दुरुपयोग करने के आरोपी हैं. और याचिकाकर्ता कह चुका था कि चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा भी ओडिशा से हैं, इसलिए वह उन की बैंच में केस नहीं लगाना चाहता. इस पर भारी रोष था. बाद में उस पर कोर्ट ने 25 लाख रुपए का जुर्माना लगाया था.
कलकत्ता उच्च न्यायालय के जस्टिस सी एस कर्णन का विवादित मामला भी था. उन्होंने राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को 20 भ्रष्ट जजों की लिस्ट भेजी थी लेकिन उन पर तो कोई कार्यवाही नहीं हुई, उलटे जस्टिस कर्णन को अवमानना मामले में जेल भेज दिया गया. जस्टिस कर्णन मामले में 7 जजों की संविधान पीठ बनी. पीठ ने कहा कि वे या तो जजों पर लगाए गए भ्रष्टाचार के आरोपों का साबित करें या अपनी भूल के लिए माफी मांगें.
जस्टिस कर्णन ने अपने मामले की सुनवाई करने वाली संवैधानिक पीठ के सातों जजों के खिलाफ जातिगत भेदभाव के आरोप लगाए. इस मामले में सुप्रीम कोर्ट की बहुत विचित्र हालत देखी गई.
प्रैस कौन्फ्रैंस में जो इन मामलों का जिक्र सामने आया है, वे पहले भी उठते रहे हैं.
असल में यह तो न्याय के इस महासागर में ऊपर दिखने वाला एक छोटा सा हिमखंड है. भीतर कितना बड़ा आइसबर्ग छिपा है, अंदाजा लगाया जा सकता है. चारों जजों की चीफ जस्टिस से कोई व्यक्तिगत लड़ाई नहीं है. वे निजी खुंदक की बात नहीं कर रहे हैं. यह पदप्रतिष्ठा की लड़ाई भी नहीं है. प्रैस कौन्फ्रैंस करने वाले 4 जजों में से 3 इसी साल रिटायर हो जाएंगे. ये सभी वरिष्ठ जज विधि व्यवस्था की बात करते हैं.
न्यायपालिका पर सवाल
समयसमय पर उच्च न्यायपालिका पर उंगली उठती रही है. कुछ सालों पहले ‘अंकल जजेज सिंड्रोम’ चर्चित हुआ था. 2009 में भारत के विधि आयोग ने अपनी 230वीं रिपोर्ट में उच्च न्यायालयों में ‘अंकल न्यायाधीशों’ की नियुक्ति के मामले में उल्लेख किया था कि न्यायाधीशों, जिन के परिजन उच्च न्यायालय में प्रैक्टिस कर रहे हैं, को उच्च न्यायालय में नियुक्त नहीं किया जाना चाहिए.
उसी समय सुप्रीम कोर्ट की एक पीठ को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के बारे में कहना पड़ा था, ‘‘समथिंग इज रौटन इन द इलाहाबाद हाईकोर्ट.’’
यह मशहूर पंक्ति शेक्सपियर के हैमलेट में है जिस में कहा गया है कि ‘डेनमार्क के राज्य में कुछ सड़ा हुआ है.’ यह पंक्ति उच्च स्तरों में भ्रष्टाचार औैर नैतिकता की कमी का उल्लेख करने के लिए मानक वाक्य बन गई है.
असल में एक मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट के कुछ जजों के भ्रष्टाचार की शिकायतों पर सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू और ज्ञानसुधा मिश्रा की पीठ ने यह टिप्पणी की थी. सुप्रीम कोर्ट में शिकायतें आ रही थीं कि कुछ न्यायाधीशों के पास अपने दोस्त और रिश्तेदार हैं जो अदालत में वकील के रूप में प्रैक्टिस करते हैं.
पीठ ने कहा था कि प्रैक्टिस शुरू करने के कुछ समय बाद ही जजों के बेटे और रिश्तेदार मल्टी मिलेनियर बन जाते हैं. वे आलीशान बंगले, बैंक बैलेंस, शानदार कार के मालिक बन जाते हैं.
उसी दौरान सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एस एच कपाडि़या ने हाईकोर्ट के 20 जजों के तबादले कर दिए थे.
2003 में बार कौंसिल औफ इंडिया यानी बीसीआई ने सभी जजों से मांग की थी कि यदि उन के करीबी रिश्तेदार उसी अदालत में प्रैक्टिस करते हैं तो वे पहले से जानकारी दें. बार कौंसिल को पता चला था कि उच्च न्यायालय में बड़ी संख्या में ऐसे न्यायाधीश हैं. बीसीआई ने एक वकील के लिए व्यावसायिक आचरण और शिष्टाचार के मानक के रूप में नियम निर्दिष्ट किया था. नियम के अनुसार, किसी अधिवक्ता और न्यायाधीश के पिता, दादा, पुत्र, पोते, चाचा, भाई, भतीजे, चचेरे भाई, पति, पत्नी, मां, बेटी, बहन, सास, चाची, भतीजी, दामाद या भाभी के रूप में संबंधित हैं.
नहीं है कारगर उपाय
इस के बाद बीसीआई ने केंद्रीय कानून मंत्रालय को 21 उच्च न्यायालयों में 131 ‘अंकल जजों’ और उन के 180 अधिवक्ताओं की और उन के रिश्तों के नाम के साथ सूची भेजी थी. लेकिन अभी तक न तो न्यायपालिका और न ही सरकार इस पर कोई कारगर उपाय कर पाई.
प्रसंगवश यह सामने आया है कि चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा पूर्व चीफ जस्टिस रंगनाथ मिश्रा के भतीजे हैं. चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा ने विवादित लोया मामला अरुण मिश्रा की पीठ को सौंपा है. जो कि 10वें नंबर पर जूनियर हैं, इस पर भी विवाद है.
असल में लोकतंत्र में न्याय के साथ खिलवाड़ इंदिरा गांधी के समय से ही शुरू हो गया था. 70 के दशक में इंदिरा गांधी ताकतवर हो कर उभर रही थीं पर इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उन्हें झटका दिया तो न्यायतंत्र से सर्वशक्तिमान बनने की कोशिश के रूप में उन्होंने देश पर इमरजैंसी थोप दी. अंदरूनी तौर पर न्यायपालिका में गोपनीयता और मौन के नाम पर अनगिनत लूपहोल नजर आते हैं पर अदालत और न्यायपालिका के सम्मान के नाम पर चुप्पी साध ली जाती है.
देश के जो प्रसिद्ध वकील हैं, यह नहीं कि वे कानून के ज्यादा विशेषज्ञ हैं, राजनीतिक रसूख की वजह से जजों के साथ उन की अच्छी सांठगांठ होती है. कौर्पोरेट और राजनीतिक दलों के साथ अंदरूनी खेल चलते रहते हैं.
अपने 3 वर्षों के शासन के दौरान भाजपा सरकार न्यायपालिका का विभाजन करने में सफल रही है. सरकार ने आते ही कोलेजियम सिस्टम को बदलने का प्रयास किया. 1993 से लागू कोलेजियम व्यवस्था को बदलने के लिए 2014 में सरकार ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग यानी एनजेएसी कानून पारित किया था लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसे असंवैधानिक करार दे दिया. जस्टिस जे एस खेहर, जे चेलमेश्वर, एम बी लोकुर, कुरियन जोसेफ तथा ए के गोयल की 5 सदस्यीय संविधान पीठ ने एनजेएसी कानून को सर्वसम्मति से खारिज किया था.
इस फैसले से सुप्रीम कोर्ट और 24 हाईकोर्टों में जजों की नियुक्ति तथा तबादले की 2 दशकों से भी पुरानी कोलेजियम व्यवस्था फिर से बहाल हो गई. एनजेएसी कानून में जजों की नियुक्ति और तबादलों में सरकार की प्रमुख भूमिका रहती पर यह खत्म हो गया.
कोलेजियम व्यवस्था के बदले नई व्यवस्था के लिए 99वें संविधान संशोधन को भी असंवैधानिक करार दे दिया गया. पीठ ने उच्च न्यायपालिका में नियुक्ति के लिए सुप्रीम कोर्ट के 1993 और 1998 के फैसलों को समीक्षा के लिए भेजने का सरकार का आग्रह भी ठुकरा दिया.
इसे ले कर सरकार ने फिर से कोशिश की पर हल्ला मचा कि सरकार उच्च न्यायपालिका में हस्तक्षेप कर रही है. अब 4 जजों के मुख्य न्यायाधीश के कामकाज के प्रति विरोध प्रकट करना बताता है कि उन पर सत्ता का प्रभाव है. न्याय व्यवस्था में अब हालात सही नहीं हैं.
उच्च न्यायपालिका में अनियमितता गहरी है. संविधान, कानून अलग बातें हैं पर धार्मिक, जातीय पूर्वाग्रह अदालतों में आज भी कायम है. न्याय प्रभावशाली सामाजिक वर्ग के पक्ष में होता है. समयसमय पर यह बात बाहर आती रही है. फैसले पूर्वाग्रहपूर्ण होते हैं, यह बात कई बार सामने आती है. अमीरी, गरीबी, जाति, धर्म देख कर निर्णय होते रहे हैं. कभीकभी ‘न्याय’ विधिसम्मत से ऊपर धर्मसम्मत दिखते हैं.
आंकड़े बताते हैं कि देश की अदालतों में 3 करोड़ से ज्यादा मामले लंबित पड़े हैं. न्याय व्यवस्था में ऊपर से नीचे तक भेदभाव देखा जाता है. लाखों गरीब, दलित, पिछड़े छोटेछोटे मामलों में वर्षों से जेलों में बंद हैं या अदालतों के चक्कर लगा रहे हैं.
असल में यह हमारी प्राचीन न्यायिक व्यवस्था की सोच का असर है. प्राचीन भारतीय समाज में कानून अथवा धर्म, जिस का अनुपालन हिंदुओं द्वारा किया जाता था, मनुस्मृति द्वारा प्रतिपादित था. यह निष्पक्ष नहीं, वर्णव्यवस्था पर आधारित था. महाभारत में मनुस्मृति को कई जगह सर्वोच्च धर्मशास्त्र व न्यायशास्त्र घोषित किया गया है. यही वजह है कि यहां न्याय गरीबों, वंचितों, निचलों, किसानों, आदिवासियों के लिए नहीं है. कौर्पोरेट, अपराधी, राजनीतिबाजों की सांठगांठ न्यायिक व्यवस्था में उजागर होती रही है.
समाज व सरकार में दरार
भारत की न्याय व्यवस्था विश्व में श्रेष्ठ मानी जाती है. मुसलिम देशों में धर्म की तानाशाही, अमानवीय न्याय संवैधानिक न्याय बना हुआ है. धार्मिक कानून वाले देशों को छोड़ दें तो विकसित अमेरिका, यूरोप के देशों के संविधान विज्ञान व प्राकृतिक आधारित हैं.
एक बार सुप्रीम कोर्ट का मतभेद सार्वजनिक हो जाने के बाद अब लगता नहीं कि यह दरार फिर से भर पाएगी. सुप्रीम कोर्ट के सभी 24 जज परस्पर एक रह पाएंगे, अब मुश्किल होगा. हर एक पर किसी न किसी का ‘आदमी’ होने का ठप्पा लगेगा. अब पीठें बनेंगी तब भी जजों के मतभेद उभरेंगे.
सुप्रीम कोर्ट, अटौर्नी जनरल और बीसीआई सब कहते हैं कि मामला घर का है और सुलझा लिया गया है पर घर में, एक बार मतभेद दुनिया के सामने आ जाने के बाद, वापस वही प्रतिष्ठा आ पाना कठिन है.
दरअसल, समाज और सरकार में जो दरार पड़ी है उस का असर अब न्याय व्यवस्था पर भी पड़ रहा है, इस दौर में व्यापक पैमाने पर सामाजिक विभाजन हुआ है. समूचे देश में हिंदूमुसलमानों के बीच खाई बढ़ी है. दलितों और पिछड़ों, पिछड़ों और मुसलमानों के मध्य तनाव, हिंसा बढ़ी. यही नहीं, पिछड़ी जातियों के बीच भी परस्पर वैमनस्य बढ़ा है. जाटों, गुर्जरों, राजपूतों, पटेल, पाटीदारों में एकदूसरे से दूरियां हुईं. समाज को बांटने वाली अनगिनत घटनाएं पिछले समय हुईं.
इस विभाजन को पाटने के लिए न तो राजनीतिक दल, न सामाजिक संगठन और न ही एनजीओ ने कोई प्रयास किया.
यह समस्या भारत में ही नहीं, विश्वव्यापी है. यह विघटन की दरार सामाजिक, राजनीतिक क्षेत्र से होती हुई उच्च न्यायपालिका तक जा पहुंची, जो दिखने भी लगी है. आजादी के इतने सालों बाद भी समाज में न्याय का सिद्धांत पूरी तरह लागू नहीं है. 1947 में स्वतंत्रता के बाद भारतीय संविधान में जिस समानता, स्वतंत्रता, न्याय का सपना देखा गया था वह ध्वस्त होता दिख रहा है. न्याय की अवधारणा पर चोट पहुंचती रही है.
कुछ समय से देश में धर्मविशेष राष्ट्र बनाने की मुहिम चल रही है. अखंड भारत कहलाने वाला यह देश वह है जहां राजा को न्याय की सलाह पुरोहित देते रहे हैं. शंबूक वध का उदाहरण है जहां पुरोहितों के कहने पर राजा राम ने शूद्रों के लिए निषिद्ध तप करने पर उस का सिर कलम कर दिया.
डर है कि कहीं न्यायतंत्र जातिविशेष और सत्ता की कठपुतली न बन जाए. जजों का यह कहना कि लोकतंत्र खतरे में है, यह कोर्ट का आंतरिक मामला नहीं है. हर भारतीय के लिए यह चिंता का विषय होना चाहिए.
जजों से निबटने की जटिल प्रक्रिया
मौजूदा व्यवस्था में उच्च या सर्वोच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश के खिलाफ केवल महाभियोग का ही प्रावधान है. पर यह प्रक्रिया जटिल है. आज तक किसी जज को इस प्रक्रिया के जरिए हटाया नहीं जा सका. महाभियोग के अलावा उच्च न्यायालय के किसी जज को दंडित करने के नाम पर एक राज्य से दूसरे राज्य में भेजा जा सकता है.
इसलिए यह चर्चा समयसमय पर उठती रही है कि जजों के मामले में कुछ ऐसे प्रावधान होने चाहिए जो न तो महाभियोग जितने कठोर और जटिल हों और न ही इतने हलके कि दोषी सिर्फ तबादला पा कर बच निकले.
जस्टिस कर्णन मामले में ऐसे किसी विकल्प का सुझाव देने को कहा गया था. इस संबंध में यूपीए सरकार के समय जुडिशियल स्टैंडर्ड्स ऐंड अकाउंटेबिलिटी बिल-2010 लाया गया था. इस बिल में एक ऐसी समिति के गठन का प्रावधान था जो जजों के खिलाफ आने वाली शिकायतों को दर्ज कर उन की जांच करती. कोई भी व्यक्ति किसी भी जज के व्यवहार या अक्षमताओं से संबंधित मामले की शिकायत इस समिति में कर सकता था. बिल में दोषी पाए जाने वाले जजों के खिलाफ कार्यवाही किए जाने के भी प्रावधान थे.
2012 में यह बिल लोकसभा से तो पारित हो गया पर राज्यसभा में इस में कई बदलाव किए गए. न्यायपालिका को भी इस के कई प्रावधानों पर आपत्ति थी. इसलिए यह बिल करीब 4 साल लंबित रहा और फिर 2014 में लोकसभा भंग होने के साथ ही लैप्स हो गया. ऐसे में आज भी किसी उच्च या सर्वोच्च न्यायालय के जज के खिलाफ कार्यवाही करने के लिए महाभियोग जैसे लगभग असंभव विकल्प के अलावा दूसरे विकल्प मौजूद नहीं हैं.
जजों का पत्र
प्रिय मुख्य न्यायाधीश,
दुख और चिंता के साथ हम ने यह उचित समझा कि आप को पत्र लिख कर कुछ न्यायिक आदेशों को रेखांकित किया जाए जिन से न्याय वितरण व्यवस्था का कार्य न सिर्फ विपरीत रूप से प्रभावित हुआ है, हाईकोर्टों की आजादी के प्रभावित होने के अतिरिक्त चीफ जस्टिस के प्रशासनिक कार्य को भी प्रभावित किया है. कोलकाता, बंबई और मद्रास हाईकोर्ट के स्थापित होने के बाद कुछ परंपराएं और रूढि़यां कायम हुई थीं और उन्हें लगभग एक शताब्दी के बाद बने सुप्रीम कोर्ट ने भी अपनाया है. इन में से एक परंपरा यह है कि चीफ जस्टिस रोस्टर के मास्टर होते हैं. इस के अंतर्गत वे केसों को वितरण करते हैं. पर यह, चीफ जस्टिस को अन्य साथी जजों पर कोई कानूनी वरिष्ठता प्राधिकार नहीं देता.
देश की न्यायपालिका में यह स्थापित है कि मुख्य न्यायाधीश बराबरी वालों में सब से ऊपर हैं. न इस से अधिक और न इस से कम. सभी जज रोस्टर के अनुसार केस सुनने के लिए बाध्य हैं. इन नियमों के खिलाफ जाना न सिर्फ नाखुशी की बात होगी, अवांछनीय भी होगा और इस से पूरे कोर्ट की सत्यनिष्ठा पर संदेह पैदा होंगे. इस से जो हंगामा उत्पन्न होगा उस की बात करना आवश्यक नहीं है.
हमें दुख है कि पिछले दिनों 2 नियमों की बात हुई, उन का पालन नहीं किया जा रहा है. ऐसे उदाहरण हैं कि देश तथा संस्थान के लिए दूरगामी प्रभाव वाले केस मुख्य न्यायाधीश द्वारा उन की पसंद के जजों को दे दिए गए जबकि इन के पीछे कोई तर्कशील कारण नहीं था. इस से हर हालत में बचना चाहिए. हम संस्थान को फजीहत से बचाने के लिए इन केसों को विस्तार नहीं दे रहे हैं पर यह जरूर कहते हैं कि इस तरह के फैसलों से संस्थान की छवि को पहले ही कुछ हद तक नुकसान पहुंच चुका है.
इस बारे में हम यह उचित समझते हैं कि आप को 27 अक्तूबर, 2017 के केस (आर पी लूथरा बनाम भारत सरकार) में पास आदेश के बारे में बताया जाए. इस आदेश में था कि व्यापक जनहित में एमओपी (उच्च न्यायपालिका में जजों की नियुक्ति का ज्ञापन) को अंतिम रूप देने में कोई देरी न की जाए. जब एमओपी संविधान पीठ (इस पीठ में जस्टिस चेलमेश्वर और जस्टिस जोसेफ थे) के फैसले का विषय था तो यह समझना काफी मुश्किल हो रहा है कि कोई दूसरी बैंच इसे कैसे देख सकती है. इस के अलावा संविधान पीठ के निर्णय के बाद आप को मिला कर कोलेजियम के 5 जजों ने एमओपी पर विचार कर उसे अंतिम रूप दिया और तब के चीफ जस्टिस ने उसे मार्च 2017 में भारत सरकार को भेजा.
सरकार ने इस का कोईर् जवाब नहीं दिया और सरकार की इस चुप्पी को देखते हुए यह माना जा सकता था कि सरकार ने कोलेजियम का एमओपी स्वीकार कर लिया है. इस के बाद बैंच के लिए ऐसा कोई अवसर नहीं था कि वह एमओपी को अंतिम रूप देने के लिए अपनी टिप्पणियां करे या यह मामला अनिश्चित समय के लिए लटका रहे.
4 जुलाई, 2017 को 7 जजों की बैंच ने जस्टिस कर्णन के मामले में फैसला दिया. इस मामले में हम में से 2 जजों ने टिप्पणियां कीं कि जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया को फिर से देखे जाने की जरूरत है और कोई ऐसा तंत्र बनाया जाए जिस में जजों को सुधारने के लिए महाभियोग से कम की सजा का प्रावधान हो. इस दौरान सातों में से किसी भी जज ने एमओपी के बारे में कोई शब्द नहीं कहा था. इस बारे में एमओपी से जुड़ा कोई भी मुद्दा चीफ जस्टिस और फुल कोर्ट की बैठक में उठाया जाना चाहिए था. अगर इसे न्यायिक पक्ष में उठाया जाना ही था तो कम से कम इसे संविधान पीठ के सामने उठाया जाना चाहिए था. यह घटनाक्रम बहुत गंभीर है.
चीफ जस्टिस इस बात के लिए बाध्य हैं कि वे स्थिति को ठीक करें और कोलेजियम के अन्य सदस्यों के साथ विचार कर उचित सुधारात्मक कदम उठाएं. अगर जरूरत पड़े तो वे अन्य जजों से भी बात करें.
आदर सहित,
जस्टिस जस्ती चेलमेश्वर
रंजन गोगोई
मदन भीमराव लोकुर
कुरियन जोसेफ
VIDEO : अगर प्रमोशन देने के लिए बौस करे “सैक्स” की मांग तो…
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भारतीय टीम ने औस्ट्रेलिया को हराकर चौथी बार आईसीसी अंडर-19 विश्व कप का खिताब अपने नाम कर लिया है. जिसके बाद भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड ने खिलाड़ियों पर पैसों की बारिश कर दी. बीसीसीआई ने हर खिलाड़ी को 30 लाख, सपोर्ट स्टाफ को 20 लाख और कोच राहुल द्रविड़ के लिए सबसे ज्यादा 50 लाख रुपए के ईनाम का ऐलान किया. राहुल द्रविड़ को सबसे ज्यादा पैसे इसलिए दिए गए क्योंकि इस जीत में उनका योगदान सबसे अहम माना जा रहा है. क्रिकेट विशेषज्ञों का मानना है कि राहुल द्रविड़ की शानदार कोचिंग की वजह से ही ऐसा संभव हो पाया है. यही वजह रही कि बीसीसीआई ने उनके लिए सबसे ज्यादा रकम का ऐलान किया लेकिन जब वतन लौट कर टीम मीडिया से मुखातिब हुई तो मीडिया से बात करते हुए विश्व कप जीतने के बाद भी टीम के कोच राहुल द्रविड़ थोड़े नाखुश दिखे.
प्रेस कौन्फ्रेंस के दौरान राहुल द्रविड़ ने बीसीसीआई के एक फैसले पर अपनी नाराजगी जाहिर की. राहुल द्रविड़ ने बीसीसीआई से पूछा है कि टीम के विश्व कप जीतने के बाद बोर्ड की तरफ से जो इनामी राशि दी गई उसमें इतना अंतर क्यों है? द्रविड़ ने पूछा कि मुझे, मेरी टीम और मेरे सपोर्टिंग स्टाफ को दी गई प्राइज मनी में इतना अंतर क्यों रखा गया है. अब खुद राहुल द्रविड़ ने ही इस पर सवाल उठा दिया है. उनका कहना है कि अन्य सपोर्ट स्टाफ ने भी उनके जितना ही मेहनत किया है इसलिए सिर्फ उनको ज्यादा पैसा मिलना सही नहीं है.
बताया जा रहा है कि टीम के हेड कोच द्रविड़ ने बीसीसीआई से अपील की है कि पूरे कोचिंग स्टाफ को एक समान इनामी राशि दी जाए. उन्होंने बोर्ड से स्टाफ के बीच में मतभेद ना करने की अपील भी की है. द्रविड़ ने बोर्ड से साफ कह दिया है कि कोचिंग स्टाफ के हर एक सदस्य का बराबर का योगदान है. पूरे स्टाफ ने एक टीम की तरह काम किया जिसका नतीज विश्व कप फतह रहा. इसलिए स्टाफ के हर सदस्य को बराबर का इनाम दिया जाना चाहिए. गौरतलब है मुख्य कोच राहुल द्रविड़ के अलावा टीम के अन्य सपोर्ट स्टाफ में गेंदबाजी कोच पारस म्हाब्रे, फील्डिंग कोच अभय शर्मा, फिजियोथेरैपिस्ट योगेश परमार, ट्रेनर आनंद दाते और वीडियो एनालिस्ट देवराज राउत थे.
आपको बता दें कि शुक्रवार 2 फरवरी को न्यूजीलैंड में औस्ट्रेलिया के खिलाफ धमाकेदार खेल दिखाते हुए टीम इंडिया ने 6 विकेट से फाइनल मुकाबला जीत विश्व कप अपने नाम कर लिया. टीम की तरफ से मनजोत कालरा ने शानदार नाबाद शतक लगाया. उन्हें मैन औफ द मैच चुना गया. पूरी सीरीज में शुभमान गिल के प्रदर्शन को देखते हुए उन्हें प्लेयर औफ द सीरीज का खिताब मिला.
बता दें कि वर्ल्ड कप जीतने के तुरंत बाद ही राहुल द्रविड़ ने ये कहा था कि उन्हें टीम की जीत का श्रेय कुछ ज्यादा ही दिया जा रहा है. उन्होंने कहा था कि ये पूरी टीम की मेहनत का नतीजा है और सिर्फ उनको ही इसका क्रेडिट नहीं मिलना चाहिए. अपने क्रिकेट करियर से ही लेकर द्रविड़ काफी सभ्य स्वभाव वाले इंसान रहे हैं. क्रिकेट के मैदान पर भले ही उन्होंने कितने बड़े कारनामे किए हों लेकिन वो हमेशा क्रेडिट लेने से बचते रहे और अब कोच बनने के बाद भी वो इसी तरह का बड़प्पन दिखा रहे हैं.
आज दुनिया का सबसे शक्तिशाली रौकेट लौन्च होने जा रहा है. इसका नाम फोल्कन हैवी रौकेट है, जिसका निर्माण टेस्ला के बिलेनियर एलन मस्क की कंपनी स्पेसएक्स ने किया है. अमेरिका की दिग्गज कंपनी स्पेसएक्स इसे अंतरिक्ष में भेजने को तैयार है. इसका पहला टेस्ट फ्लोरिडा के कैनेडी स्पेस सेंटर में होगा. टेकऔफ आज मंगलवार को 1:30 बजे से 4 बजे के बीच हो सकता है. यानी कि फौल्कन हैवी को फ्लोरिडा के कैनेडी अंतरिक्ष केंद्र से भारतीय समयानुसार देर रात लौन्च किया जाएगा.
स्पेसएक्स के मालिक एलन मस्क ने कहा कि पूरी दुनिया से लोग सबसे बड़े रौकेट और सर्वश्रेष्ठ आतिशबाजी के प्रदर्शन को देखने के लिए पहुंच रहे हैं. यदि मौसम खराब होने की वजह से या फिर किसी और कारण की वजह से मंगलवार को रौकेट लौन्च नहीं हो पाता तो इसे बुधवार को लौन्च किया जाएगा.
कंपनी का दावा है कि उनका रौकेट अब तक का सबसे शक्तिशाली रौकेट है और विशेषज्ञों ने इसकी सराहना करते हुए इसे गेम-चेंजर करार दिया है. नासा की भी इस पर नजर है. इसके जरिए आने वाले समय में लोगों को मंगल और चांद पर भेजा जा सकेगा. इस समय रौकेट के साथ भविष्य का स्पेस सूट पहने एक पुतला और मालिक की चेरी रेड कलर की टेस्ला कार भेजी जा रही है. रौकेट धरती की और्बिट से मंगल की और्बिट तक चक्कर लगाता रहेगा. मस्क का दावा है कि और्बिट पर पहु्ंचते ही यह रौकेट 11 किलोमीटर प्रति सेकेंड की रफ्तार से चक्कर लगाएगा.
पिछले साल दिसंबर में स्पेसएक्स के सीईओ एलन मस्क ने 27 मर्लिन इंजन वाले इस रौकेट की तस्वीरें सोशल मीडिया पर साझा की थीं. इसे फौल्कन 9 नामक तीन रौकेट को मिलाकर बनाया गया है. यह 40 फीट चौड़ा व 230 फीट लंबा है और इसका कुल वजन 63.8 टन है, जो दो स्पेस शटल के वजन के बराबर है. जमीन से उठने पर यह 50 लाख पाउंड का थ्रस्ट पैदा करता है जो बोइंग 747 एयरक्राफ्ट के 18 प्लेन द्वारा मिलाकर पैदा करने वाले थ्रस्ट के बराबर है. इससे लगभग एक लाख 40 हजार पाउंड का वजन अंतरिक्ष में भेजा जा सकता है.
मस्क ने यह दावा भी किया था कि यह रौकेट मनुष्यों को चांद और मंगल ग्रह तक ले जा सकेगा. उन्होंने बताया था कि फौल्कन हैवी को ठीक उसी जगह से लौन्च किया जाएगा, जहां से ‘सैटन 5 अपोलो 11 मून रौकेट’ को लौन्च किया गया था. उन्होंने यह भी बताया था कि वह इस रौकेट के साथ मंगल ग्रह की ओर अपनी टेस्ला कंपनी की रोडस्टर कार भी लौन्च करेंगे. यह एक स्पोर्ट्स कार है और एक बार चार्जिंग में यह एक हजार किमी की यात्रा कर सकती है. वहीं 1.9 सेकंड में 0 से 100 किमी प्रतिघंटे की रफ्तार पकड़ सकती है. इस कार की अधिकतम रफ्तार 400 किमी प्रतिघंटे है.
बता दें कि स्पेसएक्स ने रौकेट इंडस्ट्री में उस समय तहलका मचा दिया था जब उसने सफलतापूर्वक रौकेट बूस्टर्स का इस्तेमाल किया था. इससे स्पेस फ्लाइट की कीमत में कमी आई है. इसमें लौन्च किया गया रौकेट और्बिट में अपने भार को छोड़कर धरती पर सुरक्षित लैंडिंग करता है. इस तकनीक के सफल प्रयोग में रूसी, जापानी और यूरोपिय स्पेस एजेंसियां काम कर रही हैं. हालांकि वह अभी टेस्टिंग स्टेज में ही हैं.
पिछले दिनों ‘अजान की तेज आवाज’ पर ट्वीट कर विरोध जताने वाले बौलीवुड के जाने माने सिंगर सोनू निगम की जान को खतरा बताया गया है और इसी के मद्देनजर उनकी सुरक्षा बढ़ा दी गई है. दरअसल, महाराष्ट्र के खुफिया विभाग ने पुलिस को भेजी एडवायजरी में कहा है कि कुछ कट्टरपंथी संगठनों से सोनू निगम को जान का खतरा है. वह उनकी हत्या की साजिश रच रहे हैं. मीडिया रिपोर्ट्स के हवाले से बताया जा रहा है कि खुफिया रिपोर्ट में कहा गया है ये कट्टरपंथी संगठन सोनू निगम को किसी पब्लिक प्लेस पर या फिर किसी इवेन्ट या प्रमोशन के दौरान निशाना बना सकते हैं. ऐसे में मुंबई पुलिस भी सतर्क हो गई है और उनकी सुरक्षा बढ़ाने की कवायद शुरू हो गई है.
आपको याद दिला दें कि सोनू निगम ने पिछले साल सुबह-सुबह लाउडस्पीकर से आने वाली अजान की आवाज पर आपत्ति जताई थी. बाद में सोनू ने साफ किया था कि वह धार्मिक स्थलों पर सुबह के समय बजने वाले लाउडस्पीकरों के विरोध में हैं.
पिछले साल सोनू निगम के एक ट्वीट के बाद ये विवाद शुरू हुआ था, जिसमें उन्होंने लिखा था, जब मोहम्मद ने इस्लाम की स्थापना की थी, जब बिजली नहीं थी. फिर एडिसन के आविष्कार के बाद ऐसे चोंचलों की क्या जरूरत है. जाहिर है कि इस आवाज से सभी की नींद खुल जाती है. सोनू निगम ने अपने ट्वीट में ये भी कहा था कि अगर वो मुस्लिम नहीं हैं तो मस्जिद की अजान की आवाज से उनको क्यों रोज सुबह उठना पड़ता है. साथ ही उन्होंने अपने ट्विटर अकाउंट पर यह भी लिखा कि कब तक हम लोगों को ऐसी धार्मिक रीतियों को जबरदस्ती ढोना पड़ेगा.
सोनू निगम के इन ट्वीट्स पर बौलीवुड भी दो भागों में बंट गया था. बता दें कि इसी घटना के बाद सोनू निगम ने ट्विटर छोड़ दिया था. साथ ही एक मौलवी के फतवे के बाद उन्होंने मीडिया के सामने अपना सिर मुंडवा लिया था. इस मामले में कई कट्टरपंथी संगठनों ने उन्हें लेकर उग्र धमकियां भी दी थीं.
इस खुफिया रिपोर्ट में सोनू निगम के साथ ही बीजेपी के दो विधायकों पर भी जान का खतरा बताया गया है. विधायक राम कदम और आशीष सेलर को पाकितस्तान के आतंकी संगठन लश्कर ए तैयबा की तरफ से खतरा बताया गया है. इन दोनों विधायकों की सुरक्षा भी बढ़ा दी गई है.