सुप्रीम कोर्ट के 4 वरिष्ठ जजों की प्रैस कौन्फ्रैंस के बाद सुप्रीम कोर्ट को उपदेश देने वालों की बाढ़ आ गई है. जो लोग अब तक सुप्रीम कोर्ट के कथन को ही अंतिम शब्द मानने को मजबूर थे, अब महात्मा बन गए हैं और इन 4 जजों को नैतिकता, अनुशासन, अदालतों की गरिमा, वरिष्ठता के मान, देश की अस्मिता, संविधान की आस्था आदि का पाठ पढ़ाने में लग गए हैं, साथ ही, शब्दकोशों से नएनए शब्द खोज कर जजों पर चिपका रहे हैं.

एक तरफ वे लोग हैं जो जानते हैं कि इन 4 जजों ने जो किया वह तभी किया होगा जब अति हो चुकी होगी. जो कुछ 12:15 बजे 12 जनवरी, 2018 की प्रैस कौन्फ्रैंस में कहा गया वह वास्तव में बहुत कम ही होगा और सुप्रीम कोर्ट की बैंचों, चैंबरों व गलियारों में बहुतकुछ ऐसा हो रहा होगा जिस के बारे में कहने या लिखने का साहस बहुत कम लोगों को है.

सुप्रीम कोर्ट की संस्था पर इस प्रैस कौन्फ्रैंस ने चोट पहुंचाई, उस की प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचाई है, यह कहने वालों में से अधिकतर वे हैं जो चाहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट लगेबंधे संस्कारों से बंधी रहे व वैदिक, संकुचित, सरकार की सत्ता में विश्वास रखने वाली, व्यक्तिपूजक हो और वह ‘संसद ही सर्वोपरि’ है के सिद्धांत को माने क्योंकि आज संसद की बागडोर एक विशिष्ट विचारधारा के हाथ में है.

सुप्रीम कोर्ट के ये 4 जज जानते हैं कि जो कुछ उन्होंने किया, करा या कहा वह अभूतपूर्व है पर जो कुछ उन्होंने नहीं कहा, पर जिस का संदेश वहां पहुंच गया जहां पहुंचना चाहिए था, उस के बारे में कम ही सोचा, बोला या लिखा जा रहा है.

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