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कासगंज का कलंक : कासगंज के दंगे को धर्म व राष्ट्र से न जोड़ें

कासगंज के दंगों को ले कर बरेली के डीएम से ले कर उत्तर प्रदेश के राज्यपाल ने जो कहा वह सच है.  राज्यपाल ने कासगंज के दंगों को कलंक कहा. डीएम के खिलाफ सत्ता से ले कर कट्टरवादी संगठनों तक ने मोरचा खोल दिया पर राज्यपाल की बात पर वे चुप्पी साध गए. देखा जाए तो उत्तर प्रदेश के राज्यपाल की टिप्पणी कुछ वैसी ही है जैसी गुजरात में हुए दंगों के समय भाजपा नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने तब के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को राजधर्म का पालन करने का संदेश दिया था.

भाजपा के लोग डीएम की टिप्पणी को ले कर मुखर हैं, जबकि सांसद राजवीर सिंह, साध्वी निरंजन ज्योति और विनय कटियार के बयानों पर चुप्पी साधे रहे. कासगंज में हुए हादसे को राष्ट्रधर्म से जोड़ कर जिस तरह से प्रचारित किया गया उस से भावनाओं को भड़काने में मदद मिली. जिस का खमियाजा अकरम जैसे तमाम लोगों को भुगतना पड़ा.

लखीमपुर में रहने वाले अकरम की पत्नी अलीगढ़ में रहती थी. उस की पत्नी को बच्चा होने वाला था. अकरम कार से अलीगढ़ जा रहा था. कासगंज हाईवे पर दंगाइयों ने अकरम की कार को घेर लिया और तोड़फोड़ शुरू कर दी. अकरम को खूब मारापीटा. जैसेतैसे वह चोट लगने के बाद अस्पताल पंहुचा तो पता चला कि उस की दाहिनी आंख की रोशनी चली गई है. ऐसे लोगों की संख्या बहुत सारी है. कितने ही बेगुनाह लोगों से मारपीट कर उन की संपत्ति को नुकसान पहुंचाया गया.

कासगंज की घटना को सांप्रदायिक रंग दे कर वोटबैंक की राजनीति करने से पूरे समाज को नुकसान हो रहा है. देशप्रेम के प्रदर्शन में जोरजबरदस्ती का कोई स्थान नहीं होना चाहिए. ‘तिरंगा यात्रा’ के दौरान कार्यकर्ताओं का रंगढंग मुसलिम महल्ले के लोगों को रास नहीं आया. छोटी सी यह घटना दंगे में बदल कर कासगंज का कंलक बन गई.

कासगंज उत्तर प्रदेश का एक छोटा सा जिला है. 2 हजार किलोमीटर वाले कासगंज में मिश्रित आबादी है. 2011 की जनगणना के अनुसार यहां पर 66 फीसदी हिंदू और 32 फीसदी मुसलिम आबादी है. कासगंज शहर में रहने वाले लोग ज्यादातर कारोबारी हैं. गांव में रहने वाले लोग खेतीकिसानी पर आश्रित हैं. गंगा नदी का कछला खेती के लिए प्रयोग किया जाता है. बलुई मिटटी होने के कारण यहां खेती में आलू, तरबूजजैसी फसलें ज्यादा होती हैं.

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कासगंज फरूखाबाद और बरेली के करीब स्थित है. उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से यह सीधे रास्ते पर नहीं है. कानपुर से फरूखाबाद हो कर वहां पहुंचना होता है. देश की राजधानी दिल्ली से यह सीधे मार्ग से जुड़ा है. सड़क और रेलमार्ग दोनों से कासगंज पहुंचा जा सकता है. कासगंज स्टेट हाईवे 33 पर बसा है. लोकल बोली में इस को मथुराबरेली हाईवे कहते हैं.

कासगंज के आमापुर में सुशील गुप्ता का परिवार रहता है. इन का घर गली के अंदर है. सुशील गुप्ता के परिवार में पत्नी संगीता गुप्ता और बेटी वंदना सहित 22 साल का बेटा अभिषेक गुप्ता रहता था. सुशील गुप्ता का अपना बिजनैस है. बेटा अभिषेक उर्फ चंदन गुप्ता ‘संकल्प’ नाम की संस्था चलाता था. वह अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से जुड़ा हुआ था. वह हिंदूवादी विचारधारा का प्रबल समर्थक था. उस की संस्था में 20 से 30 युवा सक्रिय रूप में जुडे़ थे. ये सभी शहर में तमाम तरह की सामाजिक गतिविधियां चलाते थे.

26 जनवरी को चंदन गुप्ता और उस के साथियों ने मोटरसाइकिल से तिरंगा यात्रा निकालने का संकल्प लिया. शुक्रवार को दिन में करीब 10 बजे चंदन गुप्ता और उस के साथ कुछ युवकों ने हिंदूवादी संगठनों के साथ तिरंगा यात्रा निकालनी शुरू की. ये लोग पूरे कासगंज में तिरंगा यात्रा निकालना चाहते थे. सरकार पर प्रभाव होने के कारण तिरंगा यात्रा निकालने के लिए प्रशासन से अनुमति लेने की जरूरत नहीं समझी गई.

आग में घी बनी तिरंगा यात्रा

हिंदूवादी संगठनों ने जिला प्रशासन से तिरंगा यात्रा निकालने की अनुमति नहीं ली थी. असल में इस अनुमति न लेने के पीछे जिले में फैला तनाव था. कासगंज में ही चामुंडा मंदिर है. यहां पर बैरीकेटिंग लगाने को ले कर 22 जनवरी से विवाद चल रहा था. जिस के चलते दोनों पक्षों में तनाव बढ़ा हुआ था.

कासगंज जिला प्रशासन ने इस तनाव को गंभीरता से नहीं लिया. ऐसे में जब 26 जनवरी को 40 से 50 मोटरसाइकिलों के साथ तिरंगा यात्रा निकली और यात्रा में शामिल लोगों द्वारा भड़काऊ नारे लगाए गए तो बडुनगर में दूसरे पक्ष के साथ तकरार शुरू हो गई. तकरार के कारणों पर अलगअलग लोगों की अलगअलग बातें हैं. कुछ लोगों का कहना है कि तिरंगा यात्रा में शामिल युवकों की नारेबाजी को ले कर विवाद हुआ. पथराव के बाद तिरंगा यात्रा वाले लोग वापस चले गए.

बडुनगर महल्ले से 500 मीटर दूर जा कर ये लोग रुक गए और वहां से आधे घंटे के बाद वापस आए. इस बार ये 20-25 लोग थे. नारेबाजी करते इन युवकों पर हमला शुरू हो गया, जिस में चंदन के कंधे पर और नौशाद नामक युवक के पैर में गोली लगी. चंदन की अस्पताल ले जाते समय मौत होगई. इस खबर के फैलते ही माहौल गरम हो गया. पूरे कासगंज और हाईवे पर आगजनी, तोड़फोड़ और हिंसा की घटनाएं होने लगीं.

कासगंज के रहने वाले लोग बताते हैं कि यहां पर इस से पहले कभी भी ऐसा भयंकर दंगा नहीं हुआ था. राममंदिर आंदोलन के दौरान भी ऐसी हिंसक घटनाएं नहीं घटी थीं. यहां के लोग 25 साल के इतिहास में इस को सब से बड़ा दंगा मानते हैं. चंदन के पोस्टमौर्टम से पता चला कि गोली कंधे की तरफ से लगी थी. यह शरीर में धंस गई. किडनी में यह धंसी मिली. जिस से साफ लगा कि गोली छत जैसी किसी जगह से मारी गई थी.

कासगंज दंगों को ले कर 2 मुकदमे लिखे गए. पहला मुकदमा इंस्पैक्टर कासगंज की तरफ से आईपीसी की धारा 147/148/149/307/336/436/295/427/323/504/ व 7 सीएल एक्ट के तहत

4 नामजद और करीब 150 अज्ञात लोगों के खिलाफ दर्ज कराया गया. दूसरा मुकदमा, फायरिंग में मारे गए चंदन गुप्ता के पिता सुशील गुप्ता की तरफ से आईपीसी की धारा 147/148/149/

341/ 336/307/302/504/506/12 ए व राष्ट्रीय ध्वज अधिनियम के तहत दर्ज कराया गया. चंदन की हत्या में वसीम नामक युवक का नाम आया जो समाजवादी पार्टी से जुड़ा माना जा रहा है. वसीम के पिता भी बिजनैसमैन हैं.

आवाज को दबाने की कोशिश

कासगंज के पड़ोसी बरेली जिले के डीएम राघवेंद्र विक्रम सिंह ने फेसबुक पर अपना दर्द बयान करते हुए सामाजिक संदेश में लिखा, ‘अजीब रिवाज बन गया है, पहले मुसलिम महल्ले में पाकिस्तान मुर्दाबाद के नारे लगाते घुस जाओ. क्या वे पाकिस्तानी हैं. ऐसा बरेली के अलीगंज खैलम में हुआ. इस के बाद मुकदमे कायम हुए.’ डीएम बरेली का यह संदेश कट्टरपंथियों को रास नहीं आया. सत्ता पक्ष से ले कर कट्टरवादी हिंदू संगठनों तक ने इस का विरोध करना शुरू कर दिया. ऐसे में मजबूर हो कर डीएम बरेली को फेसबुक से अपना संदेश हटाना पड़ा. संदेश हटाने पर तर्क देते डीएम बरेली ने लिखा, ‘हमारा संदेश हिंदूमुसलिम एकता के लिए था जिस से कि तनाव कम हो सके. इस को सही तरह से समझा नहीं गया.’

हालांकि जो बात बरेली के डीएम राघवेंद्र विक्रम सिंह ने कही, उस से कहीं कठोर शब्दों में उत्तर प्रदेश के राज्यपाल राम नाइक ने कही. उत्तर प्रदेश के राज्यपाल ने कासगंज के दंगे को कलंक बताया. राज्यपाल खुद भाजपा के हैं. ऐसे में कटट्रवादी संगठन उन का विरोध नहीं कर पाए. हर बार की तरह कासगंज में भी सत्ता और विपक्ष ने अपनीअपनी राजनीतिक रोटियां सेंकीं. राजनीतिक रोटियां सेंकने के लिए जुलूस निकाल कर लोगों को उकसाने का काम बारबार होता है. प्रशासन कुछ दिनों के बाद सबकुछ भूल जाता है. इस तरह की घटनाओं में शामिल युवकों को यह देखनासमझना चाहिए.

कासगंज में मारे गए चंदन गुप्ता के मातापिता और बहन सप्ताह बाद तक भी सोचनेसमझने की हालत में नहीं हैं. मां संगीता गुप्ता को यकीन ही नहीं हो रहा है कि चंदन नहीं रहा. वह अपने आंचल में वही तिरंगा दबाए है जो अंतिम समय चंदन के साथ था. बहन वंदना ने पिता से साफ कह दिया है कि अगर वे सरकारी सहायता के 25 लाख रुपए लेंगे तो वह आत्महत्या कर लेगी.

चंदन की तरह तमाम युवक धार्मिक प्रचार में झोंक दिए जाते हैं. जो धर्म के नाम पर दोनों समुदायों की तरफ से जीनेमरने को तैयार होते हैं. ऐसे युवकों को समझना चाहिए कि धर्म की घुट्टी अफीम के नशे से कम नहीं होती है. चंदन गुप्ता के परिवार के साथ दिख रही लोगों की संवेदनाएं धीरेधीरे खत्म हो जाएंगी लेकिन उस का परिवार वर्षों उस की याद में अंदर ही अंदर सुलगता रहेगा.

पुलिस प्रशासन की लापरवाही

1992 और उस के बाद 1994 में कासंगज सांप्रदायिक तनाव की वजह से तोड़फोड़ और आगजनी हुई थी.  2010 में तहसील परिसर में प्रशासन द्वारा एक  मंदिर के तोडे़ जाने से तनाव फैला था. तिरंगा यात्रा का तनाव इन सब पर भारी पड़ गया. इस की वजह चामुंडा मंदिर में भड़का विवाद था. विवाद की यह आग अंदर ही अंदर सुलग रही थी. पुलिस और प्रशासन इस की लपटों को समझने में असफल रहे. दोनों ही पक्ष किसी न किसी अवसर की तलाश में थे. चामुंडा मंदिर विवाद का गुस्सा तिरंगा यात्रा में खुल कर बाहर आ गया. अगर जिला प्रशासन ने चामुंडा मंदिर विवाद को देखते हुए सतर्कता बरती होती तो तिरंगा यात्रा में हिंसक वारदात न होती.

तिरंगा यात्रा में चंदन गुप्ता की मौत के बाद भड़काऊ राजनीति का दूसरा दौर चल पड़ा. जिस के तहत चंदन गुप्ता के शरीर को तिरंगे से लपेटा गया. सोशल मीडिया पर इस को वायरल किया गया. 26 जनवरी को अखबारों के औफिस बंद होते हैं. ऐसे में कासगंज और बाहर के लोगों को इस समाचार के बारे में सोशल मीडिया व खबरिया चैनलों से खबरें मिलनी शुरू हुईं.

इन में तमाम खबरें बिना किसी आधार के प्रसारित हो रही थीं.  जिला प्रशासन ने सोशल मीडिया पर देर से काबू किया. तब तक आग भड़क चुकी थी. खबरिया चैनलों ने भी अपने हिसाब से खबरों को दिखाना शुरू किया. सब से अहम बात यह थी कि हर निष्पक्ष खबर या संदेश को राष्ट्रवादी विचारधारा के खिलाफ जोड़ दिया गया. इन में कासगंज गए मीडियाकर्मियों से ले कर प्रशासनिक अधिकारियों के सोशल मीडिया पर दिए गए संदेश तक शामिल हैं.

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धार्मिक कर्मकांड : गुमराह करता अद्वैतवाद

दर्शनशास्त्र में स्नातकोत्तर होने के नाते मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की इस विषय में दिलचस्पी स्वाभाविक बात है लेकिन इस का प्रदर्शन बीते 2 सालों से जिस तरह से वे कर रहे हैं वह प्रदेश को सिर्फ बरबाद कर रहा है.

साल 2005 से ले कर 2014 तक शिवराज सिंह की लोकप्रियता किसी सुबूत की मुहताज नहीं थी, क्योंकि इस वक्त तक वे धार्मिक पाखंडों को व्यक्तिगत स्तर तक सीमित रखते थे लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने तो धर्म का दर्शन उन के सिर इस तरह चढ़ कर बोलने लगा कि तब से ले कर अब तक का अधिकांश वक्त उन्होंने धार्मिक यात्राओं व समारोहों में जाया किया.

भाजपाई और हिंदूवादियों का धर्मप्रेम आएदिन तरहतरह से उजागर होता रहता है. इस के बिना उन्हें सत्ता और जीवन व्यर्थ लगने लगते हैं.

शिवराज सिंह चौहान ने धर्म को सीधे पाखंडों और कर्मकांडों के जरिए कम थोपा इस के बजाए यह कहना सटीक साबित होगा कि उन्होंने दर्शनशास्त्र और पर्यावरण जैसे गंभीर मुद्दों की ओट ले कर धर्म को अभिजात्य तरीके से थोपने की कोशिश की और ऐसी उम्मीद है कि पूरे चुनावी साल वे यही करते रहेेंगे.

इस के पीछे उन का मकसद सिर्फ यह है कि जनता बहुत बड़े पैमाने पर सूबे की बदहाली के बाबत सवालजवाब न करने लगे कि बेरोजगारी क्यों बढ़ रही है, राज्य बिकने की हद तक कर्ज में क्यों डूबा है, प्रदेशभर में अपराधों का ग्राफ तेजी से क्यों बढ़ा है और किसान क्यों आत्महत्याएं कर व आंदोलनों के जरिए अपना दुखड़ा रो रहे हैं.

एकात्म यात्रा ने दिए जवाब

22 जनवरी को मध्य प्रदेश के ओंकारेश्वर में आदि शंकराचार्य की 108 फुट की मूर्ति की स्थापना के साथ धूमधड़ाके वाली 22 दिवसीय एकात्म यात्रा आखिरकार  समाप्त हो गई.

यह एकात्म यात्रा वाकई अद्भुत थी जो राज्य के चारों कोनों से शुरू हुई थी और इस का हर जगह सरकारी स्तर पर सरकारी पैसे से स्वागत किया गया. जगहजगह कलैक्टरों और विधायकों ने आदि शंकराचार्य की जूतियां, जिन्हें चरण पादुकाएं कहा गया, सिर पर ढो कर एक नए किस्म के पाखंड का प्रदर्शन किया तो उन की हीनता व मानसिक दरिद्रता पर तरस आना स्वाभाविक बात थी.

अधिकारी और जनप्रतिनिधि जनता के काम करने और उन की समस्याएं हल करने के लिए होते हैं या फिर किसी धर्मविशेष के गुरु की पादुकाएं सिर पर ढोने के लिए, इस सवाल का जवाब भी जनता न चाहने लगे, इसलिए शिवराज सिंह ने चालाकी दिखाते जगहजगह शंकराचार्य के अद्वैतवाद का राग अलापा जिस का अनुसरण जनप्रतिनिधियों और अफसरों ने भी अपना फर्ज समझ कर किया.

यह अद्वैतवाद आखिर क्या बला है और क्यों इस की जरूरत आ पड़ी, यह समझनेसमझाने की किसी ने जरूरत नहीं समझी, तो स्पष्ट हो गया कि अब लोग अपनी परेशानियां भूल इस नए सम्मोहक दर्शन में खोए अपनी जिज्ञासाओं के जवाब ढूंढ़ते रहेंगे. ईश्वर साकार है या निराकार, यह सवाल सदियों से उत्सुकता से पूछा जाता रहा है पर यह कोई नहीं पूछता कि ईश्वर आखिर कहीं है भी कि नहीं, कहीं वह कोरी गप तो नहीं जिसे सच साबित करने के लिए तथाकथित विद्वान और धर्म के दुकानदार सदियों से तरहतरह की बातें करते रहे हैं.

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कोई शासक नहीं चाहता कि प्रजा नास्तिक या अनीश्वरवादी हो कर तर्क करने लगे, इसलिए भगवान में भरोसा बनाए रखने के लिए तरहतरह के स्वांग रचते रहते हैं. लोकतंत्र इस परंपरा का अपवाद नहीं है. एकात्म यात्रा के समापन पर शिवराज सिंह चौहान ने अद्वैत दर्शन का सार बांच दिया कि विश्व शांति का मार्ग युद्ध में नहीं है, बल्कि आदि शंकराचार्य के अद्वैत दर्शन में है.

बकौल शिवराज सिंह चौहान, अद्वैत दर्शन मानता है कि संपूर्ण प्रकृति और प्राणियों में एक ही चेतना है और राजनीति लोगों को तोड़ती है जबकि धर्म जोड़ता है.

विरोधाभासी दर्शन

सुनने वालों ने इस फिलौसफी को हाजमे के चूर्ण की तरह फांक लिया और यह भी आत्मसात कर लिया कि एकात्म यात्रा कोई मामूली यात्रा नहीं है जिस में राज्य की 23 हजार ग्राम पंचायतों से 30 हजार कलश आए जिन में मिट्टी और धातुएं थीं.

राजनीति अगर तोड़ती है तो फिर क्यों अद्वैत के पैरोकार शिवराज सिंह चौहान राजनीति करते हैं, यानी तोड़ने का गुनाह करते हैं, इस सवाल का जवाब शायद ही शिवराज ईमानदारी से दे पाएं. रही बात एक चेतना की, तो वह निहायत ही फुजूल की बात है जिस का देशप्रदेश की समस्याओं से कोई वास्ता नहीं.

एकात्म यात्रा के नाम पर हुआ सिर्फ इतना है कि ओंकारेश्वर में एक अवतार आदि शंकराचार्य का मठ बन गया है जहां कुछ साल बाद लोग जा कर पैसा चढ़ाएंगे, मन्नतें मांगेंगे और पूजापाठ करेंगे.

मुट्ठीभर बुद्धिजीवी, जो खुद को मुख्यधारा मानते हैं, धर्म और अद्वैतवाद ब्रैंड अफीम का सेवन करते बहस करते रहेंगे कि यह चेतना ही दरअसल, आत्मा है जो मृत्यु के बाद शरीर का साथ छोड़ देती है और फिर ऊपर आकाश की तरफ 84 लाख योनियों की परिक्रमा के बाद नया शरीर ढूंढ़ने लगती है. पुराना शरीर पंचतत्त्व में विलीन हो जाता है जिस के बाबत तुलसीदास ने कहा भी है कि क्षिति जल पावक गगन समीरा, पंचतत्त्व मिल बना शरीरा.

वैसे भी यह एकात्म यात्रा उन जाहिलों के लिए नहीं थी जो ईश्वर को वैज्ञानिक स्तर पर समझने की कोशिश नहीं कर पाते. यह यात्रा उन ब्राह्मण विद्वानों को खुश करने के लिए थी जो वर्णव्यवस्था और मनुवाद में यकीन करते हैं. खुद आदि शंकराचार्य ब्राह्मण थे और उन का इकलौता मकसद देशभर के ब्राह्मणों को एक वैचारिक मंच के नीचे लाना था कि आपस में लड़ोगे तो रोजीरोटी चली जाएगी. लोग तेजी से नास्तिक हो रहे हैं, उन्हें रोकने के लिए जरूरी है कि ब्राह्मण आपसी विवादों को त्यागें और इस बाबत उन्होंने चारों कोनों में मठ बना कर मठाधीश भी नियुक्त कर दिए थे.

चारों पीठों के शंकराचार्य आज भी धर्मध्वज फहराते शानोशौकत की जिंदगी जी रहे हैं. ये महामानव पैदावार नहीं बढ़ाते, रोजगार के मौके मुहैया नहीं कराते और लेशमात्र भी मेहनत नहीं करते.

परेशान है तो आम जनता जो अपनी समस्याओं का हल धर्म में ढूंढ़ने की गलती दोहरा रही है. देशप्रदेश के बुद्धिजीवियों ने यह नहीं सोचा कि एकात्म जैसी धार्मिक यात्राओं पर करोड़ों रुपए फूंके जाते हैं जो जनता के हैं और क्या सरकार को उसे इस तरह बरबाद करने का हक है.

साजिश की देन हैं समस्याएं

धर्म और राजनीति दोनों एकदूसरे को ताकत देते हैं. राजा के जरिए धर्म के दुकानदार धर्म को तरहतरह से थोपते हैं जिस से वह आसानी से धार्मिक खर्चों की भरपाई करने के लिए टैक्स लगा सके और उस में से उन का हिस्सा उन्हें चढ़ावे की शक्ल में मिलता रहे. राजा का स्वार्थ यह रहता है कि लोग तंगहाली और बदहाली में जीने के बाद भी उसे सत्ता में बनाए रखें. हजारों सालों से यह षड्यंत्रकारी व्यवस्था ही लोगों को जीवनचक्र और मृत्यु के बाद क्या, जैसे फुजूल के सवालों में उलझाए रखे हुए है.

महंगाई, बेरोजगारी और बढ़ते अपराध जैसी समस्याएं इसी साजिश की देन हैं जिन से घबराए लोग इन्हीं मठमंदिरों में जा कर त्राहिमामत्राहिमाम करते हैं और तथाकथित भगवान से गुहार लगाते हैं कि हे प्रभु, बचाओ.

अब प्रभु कहीं हो, तो कुछ करे या बचाए. लेकिन राजा और पंडे बेफिक्र रहते हैं कि सबकुछ ठीकठाक चल रहा है–लोग मंदिर जा रहे हैं, पूजाअर्चना कर रहे हैं, दानदक्षिणा दे रहे हैं और थोड़े बहुत विरोध व असहमति के बाद भी सबकुछ ठीकठाक है. लोकतंत्र इस का अपवाद नहीं है, यह एक बार फिर मध्य प्रदेश सरकार की एकात्मक यात्रा से साबित हो गया है जिस के तहत मुमकिन है कुछ सालों बाद कोई मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री चार्वाक दर्शन को जीवन का सार बताते हुए देश को बेच डाले.

हालांकि चिंता की बात ऐसा शुरू हो जाना भी है. उदाहरण मध्य प्रदेश का ही लें, तो एकात्मक यात्रा के 2 दिनों बाद ही मध्य प्रदेश सरकार को यह फैसला लेने की पहल करनी पड़ी कि क्यों न सरकारी जमीनें बेच कर खजाना भरा जाए. कंगाल होते सूबे की दयनीय हालत किसी

सुबूत की मुहताज नहीं रही जो किसी द्वैतअद्वैतवाद से तो हल होने से रही. जब राज्य का मुखिया ही अधिकांश वक्त पूजापाठ और धार्मिक यात्राओं में गुजारे तोे क्या खा कर राज्यवासियों से यह उम्मीद रखी जाए कि वे उत्पादन बढ़ाने के लिए कोई कोशिश या मेहनत करेंगे.

रही बात एकात्म यात्रा के नायक शिवराज सिंह चौहान की, तो साफसाफ दिख रहा है कि वे अपना बढ़ता विरोध और बिगड़ती छवि देख घबराने लगे हैं, इसलिए ज्यादा से ज्यादा वक्त वे धर्म व भगवान की शरण में बिता रहे हैं और सपत्नीक प्रार्थना करते रहते हैं कि हे प्रभु, इस बार भी नैया पार लगा देना. यह एहसास उन्हें है कि नीचे वाले प्रभु यानी जनता उन्हें तभी चुनेगी जब वह वास्तविकताओं से मुंह मोड़े, रामराम करती रहेगी, इसलिए उस का ध्यान द्वैतअद्वैत जहां भी हो, की तरफ मोड़े रखने में ही फायदा है.

थप्पड़ से कतराता मीडिया

अखबारों की हालत आज घर के किसी कोने में पड़े उपेक्षित बुजुर्गों सरीखी हो चली है, जो होते हुए भी नहीं होते. आमतौर पर अब लोग अखबार पर यों ही सरसरी नजर डाल मान लेते हैं कि आज के ढाईतीन रुपए वसूल हो गए. लेकिन मध्य प्रदेश के लोग कुछ दिनों से पूरा अखबार खोल कर इस उम्मीद के साथ पढ़ते रहे कि शायद किसी कोने में यह खबर दिख जाए कि धार के सरदारपुर कसबे में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने आपा खोते एक सुरक्षाकर्मी कुलदीप सिंह गुर्जर को जोरदार थप्पड़ जड़ दिया.

खबर धांसू थी लेकिन सोशल मीडिया के दायरे में सिमट कर रह गई. एकाध न्यूज चैनल ने एकाध बार ही इसे दिखाया, फिर यह गधे के सिर से सींग की तरह गायब होने वाली कहावत को चरितार्थ करने वाली हो गई. इधर लोगों ने अखबार टटोले, पर किसी ने इसे नहीं छापा.

खुद शिवराज सिंह को हैरानी और खुशी हो रही होगी कि बात तो बात, बेबात में भी तिल का ताड़ बना देने वाला मीडिया उन का कितना लिहाज और सम्मान करता है. इधर प्रदेशभर में गुर्जर समाज के लोगों ने आहत होते इस ऐतिहासिक हो चले थप्पड़ के विरोध में न केवल धरनेप्रदर्शन किए, बल्कि शिवराज सिंह का पुतला भी फूंका, लेकिन मीडिया के मुंह में मानो गुड़ भरा है, जो इस खबर को खबर मानने को तैयार ही नहीं हुआ.

अब कहने वाले कहते रहें कि मीडिया बिकाऊ है या मैनेज कर लिया गया है, पर इस से शिवराज सिंह के अदब व रसूख की टीआरपी नहीं गिर रही. उलटे और बढ़ रही है. गोया कि एक अदने से मुलाजिम का कोई स्वाभिमान ही नहीं होता और सीएम से पिटना जिल्लत या जलालत की नहीं, बल्कि फख्र की बात होती है. लोकतंत्र के इस अलिखित उसूल का ही प्रताप इसे कहा जाएगा कि सरकारी विज्ञापनों के एहसान तले दबा मीडिया इस थप्पड़ पर इस तरह खामोश है जैसे अगर इस पर कुछ बोला, लिखा या दिखाया तो अगला थप्पड़ उस के ही गाल पर पड़ना है.

अब भला कौन किस मुंह से कहने का साहस रखता है कि देश में इमरजैंसी सरीखे हालात हैं और लोकतंत्र के चौथे स्तंभ का गला घोंटा जा रहा है. कल को हुक्मरान अगर खुलेआम गुंडागर्दी पर भी उतारू हो आएं, तो यकीन मानें किसी के पेट में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसी मरोड़ नहीं उठेगी, अब डर तो इस बात का सताने लगा है कि कहीं इस को, यानी मुलाजिमों की सरेआम पिटाई को, सर्विस बुक में शामिल न कर लिया जाए.

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अंधविश्वास : बाबागिरी का गोरखधंधा, मीडिया भी है जिम्मेदार

  • ‘बाबा की ऐयाशी का अड्डा’
  • ‘गुफा का रहस्य’
  • ‘दत्तक पुत्री का सच’

आजकल लगभग हर न्यूज चैनल ऐसी कितनी ही कहानियां और गुफा के आभासी वीडियो दिखा कर लोगों को भ्रमित कर रहा है.

सवाल उठता है कि खोजी मीडिया चैनल्स इतने सालों से कहां थे? न तो बाबा नए हैं, न ही गुफाएं रातोंरात बन गई हैं. फिर यह कैसी दबंग पत्रकारिता है जो अब तक सो रही थी. अब बाबाओं के जेल जाते ही यह मुखरित होने लगी है.

इन स्वार्थी और अवसरवादी चैनलों पर भी जानबूझ कर जुर्म छिपाने का आरोप लगना चाहिए, क्योंकि ये दावा करते हैं कि–देशदुनिया की खबर सब से पहले, आप को रखे सब से आगे… वगैरहवगैरह.

किसी भी बाबा का मामला उजागर होते ही सारा इलैक्ट्रौनिक मीडिया एक सुर में अलापना शुरू कर देता है कि लोग इतने अंधविश्वासी कैसे हो गए?

चैनल्स राशिफल, बाबाओं के प्रवचन, तथाकथित राधे मां या कृष्णबिहारी का रंगारंग शो, प्यासी चुडै़ल, नागिन का बदला, कंचना, स्वर्गनरक, शनिदेव जैसे तमाम अंधविश्वासों पर आधारित कार्यक्रम दिनरात चला कर लोगों के दिमाग में कूड़ा भरते हैं और बेशर्म बन कर टीवी पर चोटी कटवा जैसे मुद्दे पर डिबेट करवाते हैं. फिर पूछते हैं कि लोग अंधविश्वासी कैसे बन गए.

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अगर सच में आप जनता को सचाई दिखाना चाहते हैं तो अपने जमीर को जिंदा कर दिखाएं. गरीबी से जूझ रहे लोगों, बढ़ती बेरोजगारी, रोजाना बढ़ रही महंगाई, अस्पतालों की अवस्था, डाकू बने डाक्टरों, जगहजगह पड़े कचरे के ढेरों, भ्रष्टाचार में लिप्त सरकारी तंत्रों की जमीनी हकीकत और निष्पक्ष जांच न्याय प्रणालियों को दिखाओ. तब जा कर नए भारत का सपना कुछ हद तक सही हो सकता है.

पिछले दिनों एक दैनिक अखबार के मुखपृष्ठ पर एक विज्ञापन छपा था. अखबार के एक ही एडिशन में उस के छपने की कीमत कम से कम डेढ़दो लाख रुपए तो होगी ही. ऐसे न जाने कितने एडिशनों में यह विज्ञापन छपा था.

समझ में यह नहीं आता कि इतने महान बाबाओं के समागमों और प्रवचनों के बावजूद देश में असमानता, हिंसक वारदातें, अपराध लगातार बढ़ते जा रहे हैं. यही न कि धर्म के नाम पर लोगों को उल्लू बनाते रहो और अपनी दुकान चलाते रहो.

विज्ञापन में यह दावा भी किया गया कि इस कथित ब्रह्मांडरत्न को साक्षात श्रीहरि ने देवराज इंद्र को प्रदान किया था.

कहते हैं कि जिस देश की प्रजा जैसी होती है, उसे वैसा ही राजा मिल जाता है. इस में कमी हम भारतीयों की भी नहीं है. किसी गरीब को 10 रुपए मेहनत के देने हों तो उसे पाठ पढ़ा देंगे, लेकिन मंदिरमसजिदों में, बाबाजी के समागमों में हजारों खर्च कर देंगे.

मीडिया भी है जिम्मेदार

आध्यात्मिक या धार्मिक पोंगापंथ फैलाने वाले चैनल्स व समाचारपत्र बाबाओं की एक ऐसी फौज खड़ी कर रहे हैं जो देश में धर्म के नाम पर लूटखसोट मचा रही है. लगातार बढ़ रही इन की फेहरिस्त और इन पर हर रोज चलने वाले बाबाओं के प्रवचनों में आध्यात्म के नाम पर लोगों को उल्लू बनाया जा रहा है.

धर्मभीरू जनता का जितना शोषण धार्मिकता का लबादा ओढ़े इन बाबाओं ने किया है, उस में चैनलों और समाचारपत्रों का भी बराबर या उस से भी ज्यादा हाथ है. चैनल अपने फायदे को कैश करने के लिए बाबाओं को बराबर पब्लिसिटी और एंकर तक मुहैया करवा कर उन का तथाकथित धार्मिक सामान बेचने का औफर दे रहे हैं.

पाखंडी बाबा किसी भी तरह से अपनी जेबें भरने में जुटे हुए हैं. इन की प्रौपर्टी और बैंकबैलेंस का मुकाबला कुबेरपति भी नहीं कर सकते. भक्तों के बीच ये ऐसे महात्मा हैं जिन का माहात्म्य विवादों में उलझ कर रह गया है. ये मोहमाया छोड़ने का आह्वान करते हैं जबकि वे खुद गले तक मोह और माया में जकड़े हुए हैं.

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खेलो इंडिया खेलो

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिल्ली के इंदिरा गांधी इंदौर स्टेडियम में खेलो इंडिया स्कूल गेम्स के उद्घाटन के बाद कहा कि देश में खेल प्रतिभाओं की कमी नहीं है और सरकार ऐसे खिलाडि़यों का सहयोग करना चाहती है, जिन्हें खेल से प्यार है. उन्होंने कहा कि खेल इंडिया का मतलब पदक जीतना नहीं है, यह और अधिक खेलने के जन आंदोलन को मजबूत बनाने की कोशिश है.

इस लिहाज से प्रधानमंत्री की यह चिंता और पहल काबिलेतारीफ है कि वे युवाओं का सहयोग करना चाहते हैं. पर उन के इस जोशीले भाषण से लगता है कि या तो उन्हें यह अंदाजा नहीं है कि गड़बड़झाला कहां और कैसा है या फिर उन्हें सबकुछ मालूम है कि कैसे मौजूदा सिस्टम में खेल और खिलाड़ी भी बाबूशाही के शिकार हो कर उस की गिरफ्त में हैं.

खिलाडि़यों को सरकार सीधे पैसा या दूसरी सुविधाएं नहीं देती है बल्कि जिस किसी सरकारी एजेंसी के जरिए देती है वह खिलाडि़यों का वैसे ही शोषण करती है जैसे पटवारी किसानों का करता है.

सरकारी बाबुओं की धौंस राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक है, जो ज्यादातर खिलाडि़यों को एहसास दिलाते हैं कि बिना कुछ लिएदिए या चापलूसी किए तुम्हारा भला नहीं हो सकता. खिलाडि़यों को भी इन के चक्कर लगातेलगाते ज्ञान हो जाता है कि असल सरकार तो यही हैं और यही हमारा भला कर सकते हैं. मगर कुछ खिलाड़ी ऐसे भी हैं जो इन के खिलाफ आवाज बुलंद करते हैं पर कुछ दिनों बाद उन की भी बोलती बंद कर दी जाती है.

कई ऐसे खिलाड़ी हैं इस देश में जो राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय मैडल जीत चुके हैं पर गुमनामी में जी रहे हैं या फिर वे पसरी बाबूशाही और भेदभाव को देख खेलने का अपना सपना छोड़ खेती करते हैं, मजदूरी करते हैं, गाडि़यों के शीशे साफ करते हैं या चायपकौड़े का ठेला लगा कर गुजारा कर रहे हैं.

सरकारी बाबुओं को ऐसे खिलाड़ी पत्र लिखलिख कर थकहार चुके होते हैं पर सरकारी बाबुओं के कानों में जूं तक नहीं रेंगती. सरकारी बाबुओं को यह सबकुछ मालूम है. लेकिन उन्हें तो नईनई योजनाओं को लागू करने में इसलिए मजा आता है ताकि उन के आका खुश हो सकें.

खेलों को बढ़ावा देने के लिए ऐसी कई सारी सरकारी योजनाएं हैं लेकिन उन पर सही से न तो अमल होता है और न ही खिलाडि़यों का इस से भला होता है.

सुविधाओं के नाम पर सरकारी दावे बहुत किए जाते हैं, बावजूद इस के, ओलिंपिक जैसे खेलों या दूसरे अंतर्राष्ट्रीय स्तर के खेलों में हम बहुत पीछे हैं. वर्ष 1952 के ओलिंपिक में चीन एक भी पदक नहीं जीत पाया था. 32 वर्षों तक चीन ओलिंपिक खेलों से दूर रहा पर 1984 में 15 स्वर्ण पदक जीत कर उस ने सब को चौंका दिया. वर्तमान समय में चीन हम से बहुत आगे है.

केवल योजना बना देने से खेलों का विकास नहीं हो सकता. प्रधानमंत्री को भी मालूम है कि इस देश में प्रतिभाओं की कमी नहीं है पर इन खिलाडि़यों को निखारने की जिम्मेदारी जिस को आप ने सौंपी है क्या वाकई में वे यह जिम्मेदारी निभा रहे हैं?

खेलों को तो खेल संघों और रसूखदारों ने राजनीति का अखाड़ा बना दिया है. ऐसे में इंडिया खेल पाएगा, ऐसा लग नहीं रहा. प्रधानमंत्री की नजर खेलों के स्याह पहलुओं पर नहीं गई जिन के चलते खिलाड़ी पलायन कर जाते हैं.

ऐसा नहीं है कि भारतीय युवा शारीरिक और मानसिक रूप से बेहतर नहीं हैं. अभावों में खेलते कई खिलाडि़यों ने झंडे गाड़े हैं पर उन्हीं की दास्तां बताती है कि वे कैसीकैसी बाधाओं को पार कर एक मुकाम तक पहुंचे हैं. इस हकीकत को बताती कई फिल्में खिलाडि़यों की जिंदगी पर बनी भी हैं. मसलन, ‘मैरीकौम’ और ‘दंगल’. इन फिल्मों ने सरकारी तंत्र की पोल खोल कर रख दी है.

खेलों में परचम लहराना भारतीय युवाओं के लिए चुनौती नहीं है. अगर चुनौती है तो सरकारी प्रक्रिया जो इंडिया को खेलने नहीं देती. ऐसे में चिल्लाचिल्ला कर खेलो इंडिया, खेलो इंडिया कहने से न तो इंडिया खेल पाएगा और न ही खिलाडि़यों का भला होगा.

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दृष्टिहीन क्रिकेटरों का हाल बेहाल

भारत ने दृष्टिहीन विश्वकप क्रिकेट 2018 के फाइनल मुकाबले में पाकिस्तान को हरा कर खिताब पर कब्जा जमा लिया. भारत ने पिछली बार यानी वर्ष 2014 में भी विश्वकप का खिताब अपने नाम किया था.

उधर अंडर-19 वर्ल्डकप में भी भारत ने आस्ट्रेलिया को मात दे कर चौथी बार वर्ल्ड चैंपियन का खिताब हासिल कर लिया.

इस देश के खिलाडि़यों की विडंबना देखिए एक तरफ अंडर-19 क्रिकेट टीम व इंडियन प्रीमियर लीग यानी आईपीएल में क्रिकेटरों पर करोड़ों रुपए की बारिश होती है वहीं दूसरी तरफ दृष्टिहीन क्रिकेट टीम के कई सदस्यों के पास रोजगार तक नहीं है. कोई खेतिहर मजदूर है तो कोई घरों में दूध बेचता है तो कोई और्केस्ट्रा में गा कर जीवन व्यतीत करता है.

जब वर्ष 2014 में भारतीय टीम विश्व विजेता बनी थी तो बहुत बड़ीबड़ी बातें की गई थीं लग रहा था कि अब दृष्टिहीन क्रिकेटरों के भी दिन फिरने वाले हैं पर हकीकत इस से कोसों दूर है.

वलसाड़ के रहने वाले गणेश मूंडकर को वर्ष 2014 में गुजरात सरकार ने नौकरी देने का वादा किया था पर गणेश को नौकरी नहीं मिली. नतीजतन वे आर्थिक तंगी से गुजर रहे हैं लेकिन उन का हालचाल लेने वाला कोई नहीं. गणेश के मातापिता खेत में मजदूरी करते हैं और किसी तरह अपना जीवनयापन करते हैं. कई बार तो आर्थिक स्थिति के चलते वे गणेश को क्रिकेट खेलने के लिए मना भी कर चुके हैं.

आंध्र प्रदेश के कूरनूल जिले के प्रेम कुमार बी वन श्रे यानी पूर्णरूप से नेत्रहीन हैं और और्केस्ट्रा में गा कर अपना गुजारा करते हैं.

यही हाल गुजरात के वलसाड़ के रहने वाले अनिल आर्या का भी है. वे भी दूध बेच कर अपना जीवनयापन करते हैं लेकिन उन्हें क्रिकेट का जनून है. आंध्र प्रदेश के रहने वाले वेंकटेश्वर राव किसी तरह 13-14 हजार रुपए कमा लेते हैं लेकिन इतने कम पैसे में महंगाई के इस दौर में भला क्या हो सकता है.

टीम इंडिया में हर सदस्य किसी सैलिब्रिटी से कम नहीं है पर दृष्टिहीन क्रिकेट टीम के सदस्यों के नाम तक लोगों को नहीं मालूम. कप्तान अजय रेड्डी का मानना है कि जहां क्रिकेटरों को एक जीत पर सिरआंखों पर बिठाया जाता है वहां ये नौकरी और सम्मान के लिए तरस रहे हैं. खिलाड़ी अपना फोकस खेल पर नहीं कर पा रहे हैं. बीसीसीआई और खेल मंत्रालय से मान्यता मिलने से समस्याओं का समाधान हो सकता है पर वह भी नहीं मिली है.

खेल मंत्रालय खिलाडि़यों की बेहतरी के लिए कई सारी योजनाएं लागू करता है और योजनाएं चल भी रही हैं पर विश्व विजेता टीम का यह हाल है तो वाकई में चिंता की बात है. बिना आर्थिक मदद या रोजगार के भला ये कब तक खेल पाएंगे, यह सोचने वाली बात है.

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नकली लेनदेन पर पाबंदी का औचित्य

सरकार ने हाल ही में अखबारों में विज्ञापन दे कर नकद लेनदेन पर लगाई गई नई पाबंदियों की जनसाधारण को सूचना दी है. नई व्यवस्था के तहत 2 लाख रुपए या इस से अधिक की राशि एक दिन में किसी व्यक्ति से स्वीकार न करने, इतनी राशि का एक या एक से ज्यादा बार एकसाथ लेनदेन न करने, अचल संपत्ति के हस्तांतरण में 20 हजार रुपए नकद लेने या देने और अपने व्यापार या व्यवसाय के खर्च में 10 हजार रुपए से ज्यादा का नकद भुगतान न करने जैसी हिदायतें दी गई हैं. इस के साथ ही, राजनीतिक दलों को 2 हजार रुपए से अधिक का चंदा नहीं देने को भी कहा गया है.

आयकर विभाग ने नकद लेनदेन को नियंत्रित करने के लिए यह पाबंदी लगाई है. इन पाबंदियों का पालन न करने पर आयकर विभाग जुर्माना लगा सकता है. सरकार की इस नई नियमावली से कारोबारी परेशान हैं, लेकिन कुछ कारोबारियों का कहना है कि जो लोग ईमानदारी से अपना काम करते हैं, उन के लिए यह नई पाबंदी सुकूनभरी है.

कई कारोबारियों का कहना है कि इस से नए उद्यमियों को ईमानदारी से अपना कारोबार करने में आसानी होगी और आयकर विभाग के नाम पर उन के साथ प्रताड़ना बंद हो जाएगी. विश्लेषकों का मानना है कि इन पाबंदियों का मकसद राजनीतिक चंदे के नाम पर होने वाले घोटाले पर रोक लगाना है. कारोबारी राजनीतिक दलों को चंदे के नाम पर जिस तरह से अपने पक्ष में कर के अराजक तरीके से लाभ अर्जित करते हैं, इस व्यवस्था से उस पर लगाम कसी जा सकेगी.

सरकार ने राजनीतिक दलों को चंदा देने की प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने के लिए गत वर्ष चुनावी बौंड जारी करने की अधिसूचना जारी की थी. राजनीतिक दल ये बौंड देश में सरकारी क्षेत्र के सब से बड़े बैंक स्टेट बैंक औफ इंडिया की चुनिंदा शाखाओं पर और निर्धारित समय के भीतर ही खरीद सकते हैं.

उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकार की इस सख्ती से बेलगाम चुनावी चंदे पर रोक लगेगी और राजनीतिक दल अपने चहेते कारोबारियों को नियमों का उल्लंघन कर लाभ नहीं पहुंचा सकेंगे. चुनावी चंदे के काले कारोबार को रोके जाने से चुनाव में होने वाले अनापशनाप खर्च की बदौलत मतदाताओं को अपने पक्ष में कर चुनाव जीतने वाले राजनेताओं द्वारा जीत हासिल करने के बाद की जाने वाली वसूली को नियंत्रित भी किया जा सकेगा.

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देश की 73 फीसदी संपत्ति पर एक फीसदी लोगों का कब्जा

हाल ही में एक चौंकाने वाला सर्वेक्षण आया है जिस में कहा गया है कि 1 फीसदी अमीरों के पास देश की 73 फीसदी संपत्ति है. यह सर्वेक्षण अंतर्राष्ट्रीय राइट्स समूह औक्सफेम ने किया है. सर्वे के अनुसार, 67 करोड़ भारतीयों की संपत्ति 2017 में महज 1 फीसदी बढ़ी है जबकि देश के नागरिकों की कुल आय के 73 प्रतिशत हिस्से पर अमीरों का कब्जा रहा. सामाजिक असमानता की यह तसवीर वैश्विक स्तर पर भी चौंकाने वाली है.

सर्वे के अनुसार, गत वर्ष दुनिया में कुल अर्जित की गई संपत्ति के 82 प्रतिशत हिस्से पर सिर्फ 1 प्रतिशत अमीरों का कब्जा रहा और दुनिया में 3.7 अरब लोगों की संपत्ति में इस दौरान कोई इजाफा नहीं हुआ. मतलब कि पिछले साल विश्व की आधी से अधिक आबादी की संपत्ति में कोई बढ़ोतरी नहीं हुई जबकि 1 फीसदी अमीरों ने इस दौरान भी पहले की तरह चांदी काटी.

आश्चर्य की बात है कि समाजवाद और सब के लिए समान अवसर की बात करने वाली दुनिया में गरीब के हिस्से उस की खूनपसीने की कमाई भी पूरी तरह से नहीं आती है. उस के खूनपसीने पर भी बेईमान नजर गड़ाए रहते हैं.

यह आम धारणा है कि हर अमीर ने गरीब का खून चूस कर अमीरी के पायदान पर कदम रखा है और गरीब के परिश्रम की बदौलत ही अमीरों का आलीशान संसार चल रहा है. गरीबी उन्मूलन से ले कर सब का साथ सब का विकास जैसे नारे दे कर राजनीतिक दलों ने सिर्फ गरीब को सपने दिखाए हैं और उन को बरगला कर उन के वोट बटोरने की साजिश की तथा लोकतंत्र की सुरक्षा की दुहाई दे कर सत्ता की रोटी सेंकी है.

लोकतंत्र के पैरोकार कहे जाने वाले अखबार भी देश और दुनिया के सब से अमीर व्यक्ति के बारे में जानने को उत्सुक रहते हैं और प्रमुखता से देश व दुनिया के सब से ज्यादा दौलत वाले अमीरों की प्रशंसा में खोए रहते हैं और उन्हीं से जुड़ी खबरें प्रकाशित हैं. कभी किसी मीडिया संस्थान का जमीर गरीब के लिए नहीं जागा और उस ने यह सवाल नहीं उठाया कि आखिर सब से अमीर आदमी की तर्ज पर सब से गरीब आदमी का उल्लेख क्यों नहीं होता. इस का सीधा और सरल कारण यह है कि पूरी दुनिया गरीबों से भरी है और गरीबी इस कदर है कि उस में डूबे सब से गरीब की पहचान की ही नहीं जा सकती.

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बजट के बाद शेयर बाजार में हाहाकार

लगातार रिकौर्ड बना रहे बौंबे शेयर बाजार को वित्त मंत्री अरुण जेटली द्वारा आम बजट पेश करने के एक दिन बाद अचानक करारा झटका लगा और सूचकांक करीब साल में पहली बार सर्वाधिक गिरावट पर बंद हुआ. 1 फरवरी को जब वित्त मंत्री आम बजट पेश कर रहे थे तो बाजार में हलचल रही और सूचकांक ऊपरनीचे झूलता रहा, लेकिन शुक्रवार 2 फरवरी को अचानक बिकवाली का दौर शुरू हुआ और बाजार में तेज गिरावट आ गई. जनवरी के आखिर में बहुत कम समय में शेयर बाजार 36,000 अंक के मनोवैज्ञानिक स्तर को पार कर अचानक करीब 850 अंक लुढ़क कर 35,66 पर आ गया.

ऐसा ही माहौल नैशनल स्टौक ऐक्सचेंज के निफ्टी में भी देखने को मिला. कारोबार के दौरान नए रिकौर्ड पर टिका निफ्टी 255 अंकों की गिरावट के साथ 10,760 पर लुढ़क कर आ गया. बाजार में मचे इस कोहराम के बीच वैश्विक क्रैडिट रेटिंग एजेंसी फिच ने यह कह कर गिरते बाजार को और झटका दिया कि सरकार पर कर्ज के भारी दबाव के चलते भारत की रेटिंग में सुधार कार्यक्रम अवरुद्ध हो रहे हैं.

फिच का बयान आने से एक ही दिन पहले पेश बजट में वित्त मंत्री ने राजकोषीय घाटे का लक्ष्य सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी 3.2 प्रतिशत से बढ़ा कर 3.5 प्रतिशत किया. जानकार शेयर बाजार को अचानक लगे इस झटके की वजह शेयरों से कमाई पर लौंग टर्म कैपिटल गेन टैक्स यानी 1 लाख रुपए से ज्यादा के शेयर पर दीर्घकालिक कर लगाना और म्यूचुअल फंड में 10 प्रतिशत का कर लगाना मान रहे हैं.

बजट के बाद बाजार के अचानक औंधेमुंह गिरने से निवेशकों के करीब 5 लाख करोड़ रुपए स्वाहा हो गए और सूचकांक 2.25 फीसदी से ज्यादा गिर कर बंद हुआ. कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने बाजार की गिरावट पर चुटकी ली और कहा कि मोदी सरकारके बजट को बाजार ने भी खारिज कर दिया. पहले, साल की शुरुआत से ही बाजार का मूड बहुत अच्छा था और बाजार में लगातार रिकौर्ड बन रहे थे.

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बेटी ही नहीं बेटों को भी कराएं ससुराल की तैयारी

अर्पिता एक अच्छी मां हैं. अपनी अच्छाई के चलते वे रिश्तेदारों व पूरे महल्ले की प्रिय हैं. इस की सब से बड़ी वजह यह है कि उन का रवैया एकसमान है. जितना वे बेटी के लिए करती हैं उतना ही अपने बेटे के लिए भी करती हैं. न किसी के लिए कम न किसी के लिए ज्यादा. सब से बड़ी बात यह है कि जहां महल्ले और रिश्तेदारों की महिलाएं अपनी बहुओं से परेशान रहती हैं वहीं अर्पिता को सब से ज्यादा सुख अपनी बहू से ही है.

दरअसल, अर्पिता ने शुरू से ही घर के काम सिर्फ बेटी को ही नहीं सिखाए, बल्कि अपने बेटे को भी सिखाए हैं. अर्पिता का बेटा मल्टीनैशनल कंपनी में जौब करता है. अच्छा कमाता है. इस के बावजूद वह घर के कामकाज में पत्नी को पूरा सहयोग देता है. बेटा अगर किचन में पत्नी की मदद करता है तो अर्पिता को बुरा नहीं लगता. अगर बहू किचन में काम कर रही है और अर्पिता किसी काम में बिजी हैं तो भी वह बेटे को किचन में बहू की मदद करने के लिए जाने को कहती हैं.

अर्पिता की बहू को सास का यह रवैया काफी पसंद आया और यही वजह है कि उन की कभी खटपट नहीं हुई जबकि शादी को करीब 5 साल हो रहे हैं. लेकिन ऐसा काफी कम घरों में ही देखने को मिलता है. बेटे को घर की शुरू से ही कोई भी जिम्मेदारी नहीं दी जाती. उसे नाजों से पाला जाता है जो आगे चल कर परेशान करता है.

बेटों को भी करें तैयार

घर के काम सिर्फ बेटियों को ही न सिखाएं बल्कि बेटों में भी काम करने की आदत डालें. अकसर हर घर में देखने को मिलता है कि बेटे को खेलने भेज दिया जाता है और बेटियों को मांएं घर के काम में व्यस्त कर देती हैं. अगर बेटों को खेलने का हक है तो बेटियों को भी है. बेटों से घर के काम करवाएं, शुरुआत छोटेछोटे काम सेकरें लेकिन इस आदत को छूटने न दें.

बड़े बुजुर्ग चढ़ाते हैं बेटों को सिर पर

अकसर देखने को मिलता है कि बुजुर्ग घर में बेटों को सिर चढ़ा कर रखते हैं. अगर बेटे से किसी काम के लिए बोल भी दिया जाए तो बुजुर्ग मना कर देते हैं. कहा जाता है कि बच्चा थक गया है. अरे छोड़ो भी, क्या काम करवा रहे हो. लड़कियों वाले काम क्यों करेगा बेटा. ऐसे कथनों की आड़ में बेटों को बचाने की कोशिश की जाती है, लेकिन यह सही नहीं है.

काम के प्रति जितनी जिम्मेदारी एक लड़की की होती है उतनी ही जिम्मेदारी एक बेटे की भी होती है. घर में भले ही 10 नौकर हों लेकिन काम करने की आदत हर बच्चे में होनी चाहिए.

जरूरी काम तो जरूर सिखाएं

ऐसा तो नहीं है कि बेटा हमेशा आप से ही चिपका रहेगा. कल को उसे पढ़ाई के लिए बाहर किराए पर रहना पड़े तो सोचिए वह उस वक्त क्या करेगा. आप कब तक उस के दोस्तों के साथ रहेंगे. कम से कम बच्चों को इस लायक बनाएं कि वह नूडल्स के भरोसे न रहे. अपने लिए खाने के लिए कुछ बना सके. बाहर का खाना हर वक्त सही नहीं रहता है. खुद के कपड़े धोना, बाहर से सामान लेना. खाना बनाना ये वे काम हैं जिन से वास्ता हर शख्स का पड़ता है. कल को परेशानी न हो, इसलिए आज से ही इस के लिए कोशिश कर लीजिए.

बेटों को घर का काम सिखा कर न सिर्फ आप उन्हें सुखी रखेंगी, बल्कि अपनी आने वाली बहू की नजर में भी आप की इज्जत बढ़ जाएगी. और शायद आप के इस रवैए से हो सकता है समाज का नजरिया धीरेधीरे बदल जाए.

कैसे करें शुरुआत

  • बच्चा अगर छोटा है तो उसे धीरेधीरे काम देना शुरू करें. मसलन, अगर वह 10 साल का है तो छोटेमोटे काम में हाथ बंटाने को बोलें.
  • बाहर से कुछ सामान लाना हो तो उसे भेजना शुरू करें. ज्यादा दूर तक नहीं. थोड़ा बड़ा होने पर आप घर के  बाकी कामों में भी उस की मदद ले सकती हैं.
  • अगर बच्चे की छुट्टियां हैं तो रसोई में मदद करने के लिए कहें.
  • उसे गमलों को ठीक करने का काम दें.
  • बच्चा अगर 15 साल के आसपास है तो कभीकभी उस से अपने कपड़े धोने के लिए बोलें.
  • खाना खा कर बच्चे अकसर टीवी देखने बैठ जाते हैं. ऐसा न करने दें.
  • खाना खा कर टेबल पर पड़े बरतन उठा कर किचन में रखने का काम दें.बीमार हैं तो रैस्ट करें, बच्चे और
  • पति को घर की जिम्मेदारी दें.
  • सिर्फ नूडल्स बनाना ही न सिखाएं, आगे का प्रोसैस भी धीरेधीरे शुरू करें.

अच्छी नौकरी और भविष्य के साथ यह भी जरूरी है कि वह निजी तौर पर भी अच्छा बने. अगर आज वह आप की मदद कर रहा है तो कल को वह अपनी पत्नी की भी मदद करेगा. इस से आप की आने वाली बहू को भी काफी आराम मिलेगा और आप की छवि एक अच्छी मां की बनेगी.

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जिंदगी जब जीने की राह दिखाए : कुछ जिंदगियों की दास्तां आप भी जानें

विश्व के सब से बड़े आर्ट फैस्टिवल एडिनबर्ग फ्रिंज में जब मुंबई के रेड लाइट एरिया की 15 कलाकारों ने ‘लाल बत्ती ऐक्सप्रैस टू’ नामक नाटक का मंचन किया, तो सभी दर्शक दंग रह गए. एनजीओ ‘क्रांति’ की इन लड़कियों की उम्र 15 से 23 वर्ष है. इन्होंने अपने संवाद और नृत्य द्वारा खुद पर होने वाले जुल्म, शोषण और डिप्रैशन की कहानी दर्शकों के आगे नाटक के जरिए इस तरह पेश की कि वे अपने अनुभव भी उन के साथ बांटने लगे.

अच्छी बात यह रही कि इन क्रांतिकारी लड़कियों ने इस नाटक द्वारा समाज और दुनिया के आगे एक क्रांति लाने की कोशिश की है, जिस में वे सफल रहीं और विश्वपटल पर 1 लाख शोज में उन का 10वां स्थान रहा. यह नाटक इन क्रांतिकारी लड़कियों द्वारा ही लिखा व निर्देशित किया गया है. पूरे यूरोप में इन लड़कियों ने इस नाटक के 57 परफौर्मेंस दिए. इतना ही नहीं, इस नाटक को बीबीसी ने भी दिखाया, जो उन के पिछले 10 वर्षों के रिकौर्ड को तोड़ कर सब से अधिक दर्शकों का हकदार बना.

हर जगह मिली प्रशंसा

यह नाटक अलग तरह का है, जिस में नाटक के दौरान कुछ दर्शकों को उस में शामिल कर पात्र के अनुसार अभिनय करने के लिए कहा जाता है. इस में पहले उन्हें कुछ जानवर बनने के लिए कहते हैं. लेकिन ज्यों ही उन्हें सैक्सवर्कर बनने के लिए कहा जाता है, वे चुप हो जाती हैं. यह भाव और यह सोच दर्शकों को सोचने पर मजबूर करते हैं कि आखिर वे खुद ऐसा क्यों सोचते हैं. कितना मुश्किल होता है एक सैक्सवर्कर बनना और शायद यही वजह है कि यह नाटक हर जगह पसंद किया जा रहा है.

lifestyle

यह सच है कि हमारे देश में सैक्सवर्कर्स की दुर्दशा से कोई अनजान नहीं है. पतली और तंग गुमनाम गलियों में इन की जिंदगी की सचाई काफी भयावह है. गरीबी और बीमारी से लड़ रही इन महिलाओं से सैक्सुअल सुखप्राप्ति के लिए लोग आते हैं. इन में गरीब से ले कर रईसजाद तक सभी वर्ग, जाति और धर्म के लोग होते हैं. काम उन का होता है पर बदनामी इन महिलाओं को मिलती है. इस से भी बदतर होती है इन के बच्चों की जिंदगी, जिन्हें न तो कोई नाम मिलता है, न प्यार और न ही सही भविष्य.

यूनाइटेड नैशंस की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 3 मिलियन कमर्शियल सैक्सवर्कर्स हैं जिन से करीब 40 प्रतिशत बच्चे जन्म लेते हैं. इन बच्चों को न तो कोई काम मिलता है, न बैंक लोन और न ही पासपोर्ट. इस दलदल से सैक्सवर्कर्स और उन की लड़कियों का निकलना भी मुश्किल होता है. रोबिन चौरसिया और बानी दास की संस्था ‘क्रांति’ इस दिशा में काम कर रही है.

‘क्रांति’ की पहल

क्रांति की संस्थापिका बानी दास बताती हैं, ‘‘एक एनजीओ के कैंपस में मुंबई के कमाठीपुरा रेड लाइट एरिया से लड़कियों को ला कर रखा जाता था. पुलिस छापा मार कर 13-14 वर्ष की लड़कियों को यह कह कर लाती थी कि इन्हें शिक्षा दे कर आत्मनिर्भर बनाया जाएगा, लेकिन वहां पढ़ाई के नाम पर कुछ भी नहीं होता था. एक कक्षा में 80 लड़कियों को एकसाथ बैठा दिया जाता था.

‘‘ये लड़कियां अलगअलग उम्र की होती थीं. उन में कुछ पढ़ीलिखी होती थीं तो कुछ अनपढ़ थीं. ऐसी लड़कियां अपने मनमुताबिक न तो काम कर सकती थीं, न ही आगे बढ़ सकती थीं और उन्हें एहसास कराया जाता था कि वे सैक्सवर्कर्स की बेटियां हैं और उन्हें पुलिस द्वारा ‘रेड’ कर लाया गया है. उन के पास यही विकल्प है. उन का कोई सपना नहीं हो सकता. उन्हें एक लैवल तक पढ़ालिखा कर अचारपापड़ बनाने, सिलाई करने या छोटेमोटे काम में लगा दिया जाता था.

‘‘लेकिन मैं ने पाया कि इन में से कुछ लड़कियां काफी प्रतिभावान हैं और वे आगे पढ़लिख कर अच्छा काम कर सकती हैं. ऐसे में मेरी मुलाकात रोबिन चौरसिया से हुई, जो अमेरिका से मुंबई आ कर कुछ सामाजिक काम करना चाहती थीं. उन की भी सोच मेरी ही तरह थी.’’

रोबिन और बानी की जोड़ी चाहती थी कि वह केवल बच्चों को शिक्षा ही न दे, बल्कि उन की प्रतिभा को निखारने और उन की इच्छाओं को भी फलनेफूलने दे. साल 2007 में उन दोनों ने कमाठीपुरा की 4 बच्चियों को ले कर क्रांति एनजीओ की स्थापना की.

संस्था की सहसंस्थापिका रोबिन चौरसिया कहती हैं, ‘‘लाल बत्ती ऐक्सप्रैस टू नाटक के मंचन का उद्देश्य यह था कि इन लड़कियों की समस्या को किसी रचनात्मक माध्यम से लोगों तक पहुंचाया जाए और लोगों में इन के प्रति जो भ्रांतियां हैं, उन्हें दूर किया जाए. मुंह से कह कर एक बार में केवल एक व्यक्ति को ही समझाया जा सकता है. इस के अलावा इन बच्चों की इच्छा थी कि सैक्सवर्कर्स क्या हैं? उन का जीवन क्या है? उन के बच्चों की गलती क्या है? वे आजाद क्यों नहीं घूमफिर सकतीं? आदि सवालों को सब के सामने लाना, लेकिन कैसे लाएं? समस्या यह थी. सैक्सवर्कर की बेटी का नाम सुनते ही लोग उसे अलग नजर से देखते हैं.

‘‘ये लड़कियां बताना चाहती थीं कि अगर कोई महिला मजदूरी करती है तो उसे वर्कर की संज्ञा दी जाती है. वैसे ही हमारी मां भी पेट पालने के लिए यह काम करती हैं. इस में बुराई क्या है? इस बात को वे एक रिसोर्स के सहारे लोगों में जागरूकता फैलाने के लिए लाना चाहती थीं और इस के लिए इन लड़कियों ने नाटक का सहारा लिया. अगर 500 लोग भी साथ बैठ कर 50 मिनट के इस नाटक को देखते हैं और इस से केवल 5 लोगों के विचारों में भी यदि फर्क आ जाए, तो बड़ी बात होगी.

साल 2013 में पहली बार इसे मुंबई में मंच पर दिखाया गया था, जिस की दर्शकों ने खूब तारीफ की थी.

प्रतिभा को पहचान

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रोबिन आगे बताती हैं, ‘‘मेरी अमेरिका में बहुत जानपहचान है. कुछ बच्चे पढ़ाई पूरी करने के लिए अमेरिका गए हैं, लेकिन जिन्हें पढ़ाई का शौक नहीं है और वे अभिनय करते हैं, उन्हें भी आगे बढ़ने का मौका देना चाहिए. यह सोच कर साल 2015 में मैं ने अमेरिका में इस नाटक के मंचन का प्रस्ताव रखा और इस में कामयाब हुई. 15 सदस्यों की इस नाटक टीम की परफौर्मेंस सभी ने पसंद की. न्यूयौर्क, शिकागो, येलो स्टोन आदि करीब 5 शहरों में इस नाटक का मंचन किया गया था. इस काम में एक महिला निर्देशक जया अय्यर ने भी काफी साथ दिया. वे अभिनय को एक थेरैपी बताती हैं और उसी के अनुसार अभिनय करने में लड़कियों की मदद करती हैं.

‘‘नाटक का नाम पहले ‘लाल बत्ती’ था, अब इसे ‘लाल बत्ती ऐक्सप्रैस टू’ नाम दिया गया है. इस की वजह यह है कि ये लड़कियां मानती हैं कि उन की लाइफ एक ऐक्सप्रैस टे्रन की तरह है, जिस में कई लोग चढ़ते, उतरते हैं और इस जर्नी में काफी लोगों का साथ भी रहता है. यह नाटक केवल आईओपनर ही नहीं था, बल्कि कई लोगों की निजी जिंदगी से जुड़े उन के भाव भी प्रकट कर रहा था, जैसे कि कई बार महिलाएं सामने आ कर कहती हैं कि उन के साथ भी सैक्सुअल हेरेसमैंट हुआ है, जिसे वे आज तक बता नहीं पाई हैं और अब ये छोटी लड़कियां खुल कर स्टेज पर इसे बता रही हैं. इस तरह की बातें सभी के लिए प्रेरणादायक रहीं.’’

थेरैपी द्वारा मानसिक उपचार

कम उम्र में जब सैक्सुअल हेरेसमैंट होता है, तो बच्चा उसे अपनी गलती मान, अकेले रहने की कोशिश करता है. कई बार तो मां और घर वाले भी उसे चुप रहने की सलाह देते हैं, जबकि गलती उस की नहीं, शोषण करने वाले की होती है. यहां बच्चों को थेरैपी द्वारा उन की खोई हुई मानसिक शक्ति को फिर से वापस लाया जाता है.

क्रांति की सब से पुरानी और 10 वर्षों से क्रांतिकारी रही श्वेता कट्टी के साथ भी बचपन में सैक्सुअल अब्यूज हुआ था, लेकिन क्रांति ने उस की जिंदगी बदल दी. साल 2014 में यूएन यूथ करेज अवार्ड मिलने के साथ अमेरिका जा कर पढ़ने वाली वह पहली रेड लाइट एरिया की लड़की थी.

वहां रहने वाली कविता बताती है, ‘‘मैं कमाठीपुरा से यहां 18 साल की उम्र में आई थी. मैं ने 12वीं की परीक्षा दी, कमाठीपुरा में आगे पढ़ाई की कोई सुविधा नहीं है और उस उम्र में वहां रहना भी मुश्किल था. मैं वहां दादी के साथ 4 साल की उम्र से रह रही थी. उन्होंने ही मुझे पाला है. दादी की आर्थिक स्थिति काफी खराब थी. वे आगे मुझे रख नहीं पा रही थीं. मैं दादी से बहुत जुड़ी हुई थी और उन्हें छोड़ कर नहीं आना चाहती थी. मेरी हाफसिस्टर श्वेता क्रांति में सालों से रहती है, उस ने ही मुझे यहां आने की सलाह दी.

‘‘कमाठीपुरा में रहने वाली सभी लड़कियां सोचती हैं कि जल्दी से कुछ छोटीमोटी जौब कर, शादी कर यहां से निकल जाओ. मैं ऐसा नहीं चाहती थी. मैं अपने तरीके से जिंदगी जीना चाहती थी. 7 साल की उम्र में मेरे साथ भी सैक्सुअल अब्यूज हुआ है. मैं ने इस बारे में कभी किसी को नहीं बताया क्योंकि मुझे डरा कर रखा गया था.

‘‘जहां मैं रहती थी, वहां सैक्सवर्कर, डब्बे वाले और सामान्य सरकारी लोग रहते थे. वहां पास के एक अंकल मुझे अपनी गोदी में बिठा कर गलत तरीके से हर जगह छूते थे और मुझ से भी छूने के लिए कहते थे, जो मुझे अच्छा नहीं लगता था. उन्होंने कहा था कि अगर मैं इस बात को किसी से बताऊंगी तो वे मुझे जान से मार देंगे.

‘‘थोड़ी बड़ी होने के बाद मुझे सहीगलत का फर्क समझ में आया. वह दर्द और गुस्सा आज तक मेरे मन से गया नहीं है, पर क्रांति संस्था में आ कर मुझे अपनी पहचान मिली है. मैं चाहती हूं कि बचपन से ही मातापिता अपनी बच्चियों को बताएं कि गुड टच और बैड टच क्या होता है. मेरी दादी भी पहले सैक्सवर्कर ही थीं और बाद में कुछ घरों में काम किया करती थीं लेकिन मेरी मां सैक्सवर्कर नहीं थीं. मां की जब शादी हुई और मैं पैदा हुई, उसी दौरान मेरे पिता को एचआईवी होने से उन की मृत्यु हो गई. पिता के परिवार वालों ने 23 साल की उम्र में मां को ही पिता की मृत्यु का दोषी ठहराया. तब मेरी दादी ने मुझे अपने पास रख लिया और पढ़ाया. मां को उन के मायके भेज दिया गया.

‘‘मुझे याद है, दादी वेश्यालय की हैड थीं और वहां जा कर वेश्याओं की बच्चियों को संभाला करती थीं. मैं भी वहीं दादी के साथ रहती थी. मुझे याद आता है जब मैं बचपन में वहां की लड़कियों को शाम को पेटी निकाल कर, गजरा लगा कर सजते हुए देखती थी, तब बड़ा अच्छा लगता था. बाद में दादी भी वहां से हट गईं और कमाठीपुरा में दूसरी जगह रहने लगीं. मैं अभी भी यह सोचने पर मजबूर होती हूं कि मैं और मेरी दादी यहीं क्यों रहीं, कहीं और क्यों नहीं चली गईं. कभी दादी से पूछा भी तो उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया.

‘‘यह भी सही था कि किसी सैक्सवर्कर को आम लोगों के साथ रहने का अधिकार नहीं होता. इस के अलावा कभी किसी सैक्सवर्कर ने मुझे उस फील्ड में नहीं धकेला. वे चाहती थीं कि मैं कोई अच्छा काम कर घर बसा लूं क्योंकि उन्हें जीने की जो आजादी नहीं मिली वह मुझे मिले. बड़ी होने पर मैं ने कई बार एनजीओ के साथ काम किया, पर मैं आगे नहीं बढ़ पा रही थी.

‘‘12 साल बाद मैं मां से मिलने कर्नाटक गई थी. दादी से मिलने भी मैं वहीं जाती हूं. मैं अब गायिका बनना चाहती हूं. मैं पढ़ना पसंद नहीं करती. मैं एक अलग संस्था मेटा क्रांति से जुड़ कर कमाठीपुरा की लड़कियों को पढ़ाना चाहती हूं, ताकि वे आगे बढ़ें.’’

सैक्स : एक जरूरत

कविता आगे कहती है, ‘‘भारत में सैक्स को एक टैबू बना कर रखा गया है, जबकि यहां जनसंख्या बहुत अधिक है और सैक्सुअल अपराध भी अधिक होते हैं. दरअसल, सैक्स शरीर की एक जरूरत है, इस पर खुल कर बातचीत होनी चाहिए.’’

यहां रहने वाली 17 वर्षीया रानी 5 वर्ष पहले क्रांति में आई थी. उस की मां कर्नाटक में देवदासी थी. पिता की मृत्यु के बाद उस के सौतेले पिता ने उस की मां को पहले पुणे, फिर मुंबई के कमाठीपुरा में ला कर डाल दिया. वह कहती है, ‘‘मेरे पिता रोज मुझे मारते थे. वहां मैं नरक जैसे हालात में जी रही थी. मैं ने अपनी इच्छा से क्रांति को चुना है. पुलिस वाले भी हमें वहां से छुड़ाने आते थे, लेकिन सब दिखावा होता था. वे वहां की महिलाओं से पैसा वसूल कर निकल जाते थे.

‘‘मेरी मां आज भी जो कमाती हैं, उस में से कुछ हिस्सा पुलिस वालों को देना पड़ता है. हर व्यक्ति से वे लोग कम से कम 2,000 रुपए ऐंठते हैं. मेरे साथ भी 7 साल की उम्र में मेरे कजिन ने यौनशोषण किया और इस बारे में घर वालों को बता कर भी कुछ लाभ नहीं हुआ. मुझे तो एक बार ऐसा लगने लगा था कि मैं ही गलत हूं. अपनेआप से घृणा होने लगी थी, लेकिन क्रांति की बानी से मिल कर मैं यहां पहुंची और डांस थेरैपी से ठीक हुई.’’

अपनी पहचान को बनाए रखने और अपनेआप को समझने में क्रांति संस्था बहुत बड़ा काम कर रही है. वित्तीय सहायता के बारे में पूछे जाने पर बानी कहती हैं, ‘‘हमें वित्तीय सहायता बहुत कम मिलती है.

3 महीने में एक छोटी ग्रांट ग्लोबल की तरफ से वुमन राइट्स और वुमन शिक्षा के लिए मिलती है. कुछ लोग तो सीधे स्कूलकालेज में पढ़ने वाले बच्चों की फंडिंग करते रहते हैं. इस के लिए काफी मेहनत करनी पड़ती है. लोगों को बताना पड़ता है कि वे कैसे क्या कर रही हैं.

‘‘सरकार की तरफ से यह संस्था फंडिंग नहीं चाहती, क्योंकि इस से सरकार की दखलंदाजी अधिक हो जाती है. सरकार काम से अधिक पाबंदी लगाती है और सही काम नहीं करने देती. केवल 20 रुपए एक लड़की के खाने के लिए देती है, बाकी पैसे की व्यवस्था खुद करनी पड़ती है. इतना ही नहीं, अगर कभी रेड लाइट एरिया में रेड हुई, तो पकड़ी गई सारी लड़कियों को मेरे यहां बिना पूछे डाल देगी, जिन्हें 3 सप्ताह तक यहां रखना पड़ता है, जिस से यहां का माहौल बिगड़ता है. कहीं जानेआने के लिए सरकार की अनुमति लेनी पड़ती है.

बानी कहती हैं, ‘‘क्रांति इन लड़कियों का घर है और इस में बच्चों को मैं पूरी आजादी देना चाहती हूं. मेरी एक बेटी है. मैं अपनी बेटी की तरह सारी लड़कियों को देखती हूं. मेरे यहां की 20 क्रांतिकारी लड़कियां ही आगे और 20 को सुधार सकती हैं, यही मेरा लक्ष्य है. हम गुणवत्ता को अधिक महत्त्व देते हैं.’’

अलग कहानी अलग वेदना

यहां रहने वाली हर लड़की की अपनी कहानी और मनोवेदना है, जो हृदय विदारक है. आंखों में आंसू लिए 18 वर्ष की अस्मिता बताती है, ‘‘बचपन में मेरा यौनशोषण हुआ. हमारे जानने वाले, जो हमारी देखभाल करते थे, मां के काम पर जाने के बाद मेरे साथ गंदी हरकतें करते थे. मैं ने इस बारे में अपनी बड़ी बहन और मां को बताया था लेकिन उन्होंने चुप रहने की सलाह दी. मेरी मां एक कंपनी में काम करती थीं. मेरा वहां से निकलना बहुत मुश्किल था. मैं 2 साल पहले 16 साल की उम्र में क्रांति में आई हूं. जो माहौल मुझे वहां नहीं मिला, वह यहां मिला है. यहां मुझे सबकुछ करने की आजादी है. क्रांति में मैं ने अपनेआप को पाया है.’’

यहां यौनशोषण से ग्रसित लड़कियों को एक थेरैपी दी जाती है, जिस से वे फिर से अपने अस्तित्व को पा सकें. अस्मिता की जिंदगी में काफी बदलाव आ गया है. पहले उस के अंदर जो डर था, अब नहीं है, उसे पहचान मिली है. वह मैंटली चैलेंज्ड बच्चों के साथ काम करना चाहती है.

अस्मिता कहती है, ‘‘मेरे हिसाब से पूरे विश्व में यौनशोषण का सामना बहुत सारी लड़कियों को करना पड़ता है. उन से मेरा कहना है कि रेप या यौनशोषण के लिए अपनेआप को दोषी समझ कर कभी आत्महत्या न करें. ऐसा मानसिक विकृति वाले लोग ही करते हैं. आप इस से निकल कर नई जिंदगी शुरू करें.’’

अस्मिता की तरह 20 साल की पिंकी की जिंदगी भी बहुत भयावह थी. 9 साल की उम्र में उस की शादी करा दी गई थी. उस के चाचा और पति ने बारबार उसे मानसिक व शारीरिक रूप से अब्यूज किया. परिणामस्वरूप, 10 साल की कच्ची उम्र में उसे ऐबौर्शन कराना पड़ा. आज यहां पर उसे सुकून की जिंदगी मिली है.

रहने का आसरा

क्रांति में आने के लिए लड़कियों के और उन की मांओं के लगातार फोन आते रहते हैं, पर संस्था के पास जगह की कमी है. बानी और रोबिन कमाठीपुरा की और लड़कियों को भी शरण देना चाहती हैं. इस के लिए उन्हें खुद का घर बनाने की इच्छा है, क्योंकि अभी 20 लड़कियों के लिए उन्होंने 5 मकान बदले हैं और किराए के मकान में केवल 20 ही लड़कियों को रखने की परमिशन मिलती है. इतना ही नहीं, अधिकतर लोग इन्हें घर देने से भी मना कर देते हैं.

रोबिन कहती हैं, ‘‘ये लड़कियां सैक्सवर्कर्स की बेटियां हो सकती हैं, पर इन की सोच आम लड़कियों से अलग और अच्छी है. मेरी पूरी जिंदगी इन्हें हौसला और अच्छी जिंदगी देने में ही बीतेगी, यही मेरा मकसद है.’’

आज 3 क्रांतिकारियों ने पढ़ाई पूरी कर ‘मेटा क्रांति’ नामक संस्था बनाने की सोच बनाई है. इन लड़कियों का उद्देश्य है सैक्सवर्कर्स की लड़कियों को शिक्षा दे कर उन्हें आगे बढ़ाने में मदद करना. इन में कोई ड्रम, तो कोई संगीत या पेंटिंग में माहिर हैं. इन लड़कियों की कोशिश रहेगी कि उन के इस हुनर के जरिए कमाठीपुरा से आने वाली सभी लड़कियों के मनोबल को आर्ट थेरैपी द्वारा ऊंचा उठाया जाए ताकि वे मानसिक तनाव से अपनेआप को मुक्त कर सकें.

VIDEO : अगर प्रमोशन देने के लिए बौस करे “सैक्स” की मांग तो…

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