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निजी स्कूलों की मनमानी और खाली होती अभिभावकों की जेबें

पढ़ाई के नाम पर कमाई की दुकान का दूसरा नाम बन चुके प्राइवेट स्कूलों को न तो बच्चों की पढ़ाई की चिंता है न उन की सुरक्षा की, उन्हें चिंता है तो बस अपने हित साधने की. क्लासरूम में बच्चों के लिए भले ही सहूलियतें न हों पर वे फीस समय पर वसूलते हैं. आनेजाने की नियमित सुविधा दें या न दें पर बस का किराया पूरा व समय पर लेते हैं.

शिक्षा के नाम पर किताबकौपियां, बस किराया, वरदी, जूते आदि से ले कर बिल्डिंग फंड के नाम पर भी अभिभावकों से लाखों वसूले जाते हैं.

दिल्ली के एक निजी स्कूल को उदाहरणस्वरूप लेते हैं, जिस में 11वीं कक्षा की 3 महीने की फीस का लेखाजोखा कुछ इस तरह है :

ट्यूशन फीस के नाम पर पेरैंट्स पर दोहरी मार पड़ती है क्योंकि वे स्कूल में भी ट्यूशन फीस देते हैं और बाहर कोचिंग की भी. हर 3 महीने में डैवलपमैंट फीस लेने का क्या औचित्य है? फीस में ऐक्टिविटी चार्जेज तो जोड़ दिए जाते हैं लेकिन अधिकांश स्कूलों में अलग से भी इस की वसूली की जाती है.

स्कूल हर साल बिना किसी रोक के फीस बढ़ा देते हैं, भले ही अभिभावक लाखों धरनाप्रदर्शन करें. सरकार कैसे भी कड़े नियम बनाए, इन की दुकानदारी न तो रुकती है और न ही इन पर कोई बंदिश लगती है. फीस बढ़ाने का कोई न कोई बहाना स्कूल ढूंढ़ ही लेते हैं.

हाल में निजी स्कूलों ने 7वें वेतन आयोग को लागू करने के नाम पर फीस में भारी वृद्धि की है. उन का कहना है कि स्कूली खर्च व 7वें वेतन आयोग के एरियर को देने के लिए फीस वृद्धि जरूरी है. 7वें वेतन आयोग के अनुसार शिक्षकों का वेतन बढ़ाया गया है पर इस की असल मार तो अभिभावक ही सह रहे हैं. जो शिक्षक कम वेतन पर काम करने को तैयार थे और उसी लायक थे, उन्हें वेतन में भारी वृद्धि, बिना कुछ किए मिल गई.

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लूट का खेल

दिल्ली हाईकोर्ट ने हाल ही में कहा है कि निजी स्कूल सेवा देने के बजाय लूट रहे हैं. सच ही है कि कभी फीस के नाम पर तो कभी ऐडमिशन के लिए लाखों के डोनेशंस लिए जाते हैं. पिछले साल ईस्ट दिल्ली के एक निजी स्कूल में अपने बच्चे का दाखिला करवाने के लिए एक मां को काफी परेशान होना पड़ा.

असल में पूरा माजरा यह था कि उस का अपने पति से किसी बात को ले कर विवाद चल रहा था जिस कारण वह अपने मायके में रह रही थी. वहां रह कर जब वह अपने बच्चे का ऐडमिशन करवाने एक निजी स्कूल में गई तो उस से मातापिता दोनों की उपस्थिति को जरूरी बताया गया. जब उस ने स्कूल प्रशासन को वास्तविक स्थिति से अवगत कराया तो स्कूल ने उस के बच्चे को ऐडमिशन देने से मना कर दिया.

बच्चे की मां रिक्वैस्ट करने लगी तो प्रिंसिपल ने साफ शब्दों में कहा, ‘‘हम आप के बच्चे को ऐडमिशन सिर्फ एक ही शर्त पर देंगे जब आप हमें डोनेशन देंगी.’’ उस बेचारी मां, जिस की कोई गलती भी नहीं थी, को अपने बच्चे के ऐडमिशन की खातिर लाखों रुपए देने पड़े.

यही नहीं, जो काम सस्ती किताबों से चल सकता है उस की आड़ में भी कमीशन कमाने के चक्कर में पेरैंट्स पर जबरदस्ती स्कूल से ही किताबकौपियां, यूनीफौर्म तक खरीदने का दबाव डाला जाता है. छोटे बच्चों की जो किताबें बाहर से 2,000-2,500 रुपए में आसानी से मिल जाती हैं उन्हें स्कूल वाले पब्लिशर्स से सांठगांठ कर महंगे दामों पर बेच कर अपनी जेबें भरते हैं.

आज शिक्षक कक्षा में जाते जरूर हैं लेकिन वे सीमित पाठ्यक्रम पढ़ाने में ही विश्वास रखते हैं वरना उन का निजी ट्यूशन पढ़ाने वाला बिजनैस पिट जाएगा. शिक्षक बच्चों को अच्छे मार्क्स दिलाने का भरोसा दिलवा कर उन्हें बाहर ट्यूशन पढ़ने पर मजबूर करते हैं. 7वें वेतन आयोग में बढ़ी पगार के साथ ट्यूशन की दरें भी बढ़ा दी गई हैं.

स्कूल में पढ़ाने में ज्यादा मेहनत न करने के बावजूद टीचरों को पूरी पगार मिल रही होती है, वहीं ट्यूशन का बिजनैस भी जोरों से चल रहा होता है.

असुरक्षा का बोलबाला

स्कूल को बच्चों का दूसरा घर कहा जाता है. पेरैंट्स अपने बच्चों के लिए ऐसे स्कूलों का चयन करते हैं जो उन के बच्चों को ऐडवांस स्टडीज देने के साथसाथ उन की सुरक्षा की भी पूरी गारंटी दें.

यह कहना गलत नहीं होगा कि ऐडमिशन देने के वक्त सुरक्षा के लाख दावे किए जाते हैं, लेकिन एक बार ऐडमिशन होने के बाद ऐसे सारे दावे खोखले साबित होते हैं. आएदिन स्कूल बस ड्राइवर की गलती से कोई न कोई बच्चा ऐक्सिडैंट और शिक्षकों की हवस का शिकार होता है.

इन सब के बावजूद उन के खिलाफ कोई खास कार्यवाही नहीं होती. हाल ही में दिल्ली के निकट गुरुग्राम के एक स्कूल में दूसरी शिक्षा में पढ़ने वाले छात्र की स्कूल के वाशरूम से बौडी मिली. इस हादसे के बाद पेरैंट्स के मन में एक डर बना रहता है जब तक कि उन का बच्चा स्कूल से सहीसलामत घर वापस नहीं लौट आता.

सरकारी बनाम निजी स्कूल

हर जगह निजी स्कूलों का ही शोर है. यहां तक कि पेरैंट्स भी अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में ही पढ़ाना चाहते हैं. क्योंकि एक तो यह स्टेटस सिंबल बन चुका है और दूसरा उन्हें लगता है कि उन का बच्चा प्राइवेट स्कूल में ही अच्छी पढ़ाई कर पाएगा. माना तो यह भी जाता है कि निजी स्कूलों में पढ़ाने वाले टीचर्स ज्यादा क्वालीफाइड होते हैं.

हालांकि, यह सोच गलत है. सरकारी स्कूलों के टीचर्स ज्यादा क्वालीफाइड होते हैं क्योंकि वे कई परीक्षाएं पास कर नौकरी हासिल करते हैं, जबकि निजी स्कूलों में कम सैलरी लेने वाले शिक्षक को प्रमुखता दे कर रखा जाता है.

हमारे देश में सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों को अच्छी नजरों से नहीं देखा जाता. पेरैंट्स भी अपने बच्चों को ऐसे बच्चों से बात करने से मना करते हैं. ‘हिंदी मीडियम’ फिल्म में भी यही दर्शाया गया.

विदेशों की तरह भारत में भी समान शिक्षा के अधिकार कानून पर सख्ती से पालन किया जाना चाहिए ताकि सब को सामान शिक्षा मिले और निजी स्कूलों का लूट का गोरखधंधा रुक सके.

सरकारी स्कूलों के प्रति बेरुखी का एक कारण यह भी है कि इन में हर जाति, धर्म, वर्ग व गरीब के घरों से बच्चे आ रहे हैं और ऊंची जातियों के मातापिता नहीं चाहते कि उन के बच्चे नीची जातियों के घरों के बच्चों के साथ पढ़ें चाहे उन का घरेलू आर्थिक स्तर कैसा भी क्यों न हो.

आप को बता दें कि इन सब के लिए कहीं न कहीं अभिभावक भी जिम्मेदार हैं क्योंकि वे फुली स्मार्ट क्लासेज, स्कूल की शानदार बिल्डिंग को देख कर अपने बच्चों का ऐडमिशन ऐसे स्कूलों में करवा देते हैं. ऐसा वे अपने स्टेटस के लिए करते हैं. भले ही उस स्कूल की फैकल्टी अच्छी हो या न हो. अगर अभिभावक इस चकाचौंध से बाहर निकलें तो निजी स्कूलों की मनमानी बहुत जल्द रुक जाएगी और पेरैंट्स खुद को लुटने से बचा पाएंगे.

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जातीय अहंकार के सहारे पौराणिक परंपराएं कायम रखने का प्रयास

भारत अपने 69वें गणतंत्र की सालगिरह का जश्न मना रहा है और 10 आसियान देशों को आमंत्रित कर जंबूद्वीपे भरत खंडे की बात की जा रही है लेकिन वहीं, देश में अलगअलग जातियों की ताकत और अहंकार सिर चढ़ कर बोल रहा है और हर गली में दसियों गुट बनवाए जा रहे हैं. जातीय सेनाएं अपनीअपनी अस्मिता की हुंकार भर रही हैं. सरकारें, राजनीतिक दल और धार्मिक संगठन भी छोटीबड़ी जातियों के साथ खड़े हैं. जातियां अपनी बात को जातीय अस्मिता से जोड़ने में कामयाब दिखाई दे रही हैं. ताकत के बल पर लोकतंत्र पर धर्मतंत्र हावी हो रहा है.

‘पद्मावत’ फिल्म को ले कर राजपूत समुदाय के विरोध डरावने हालात की ओर इशारा कर रहे हैं. यह झूठे, खोखले जातीय अहंकार के बल पर पुरानी परंपराएं फिर थोपने की कोशिश है. फिल्म को रोकने के लिए जिस तरह से विरोध और उपद्रव प्रायोजित किया गया, उस से देश को जातीय ताकत के पुनर्जन्म का एहसास हुआ है.

राजपूत संगठनों के विरोध के बीच फिल्म ‘पद्मावत’ करीब 7 हजार सिनेमाघरों में रिलीज हुई. पर 8 राज्यों में उग्र प्रदर्शन, तोड़फोड़, आगजनी और चक्काजाम हुए. दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान, मध्य प्रदेश, गुजरात, जम्मूकश्मीर, उत्तर प्रदेश में उपद्रव किए गए. हरियाणा के गुरुग्राम में उपद्रवी भीड़ ने तो एक स्कूली बस ही फूंक दी.

फिल्म पर पाबंदी के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट के 2 बार आए आदेशों के बावजूद ‘पद्मावत’ राजस्थान, मध्य प्रदेश, गुजरात और गोवा में रिलीज नहीं हुई. सिनेमाघर मालिकों के संगठन मल्टीप्लैक्स एसोसिएशन औफ इंडिया ने तोड़फोड़ के डर से इन राज्यों में फिल्म नहीं दिखाने का ऐलान किया था.

करणी सेना ने धमकियां देनी शुरू कर दीं. मध्य प्रदेश में सैकड़ों राजपूत स्त्रियों से जौहर करने की गीदड़ भभकी दिलवा दी. क्षत्रिय महिला संघ की सैकड़ों महिलाओं ने जयपुर में सिरसी रोड पर प्रदर्शन किया. 30 नवंबर, 2017 को राजस्थान बंद रखा गया. कोटा के एक सिनेमाहौल में तोड़फोड़ की गई.

4 राज्यों के खिलाफ न्यायालय की अवमानना की याचिका सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की गई. याचिका में कहा गया कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद राजस्थान, मध्य प्रदेश, हरियाणा और गुजरात में लगातार हिंसा हो रही है. राज्य सरकारें पूरी तरह इन घटनाओं को रोकने में नाकाम रही हैं जबकि सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि कानून व्यवस्था बनाए रखना राज्यों की जिम्मेदारी है.

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फिल्म का विरोध

शुरू में ही जनवरी 2017 में जयपुर में फिल्म की शूटिंग के दौरान राजपूत करणी सेना के कुछ सदस्यों ने फिल्म का विरोध किया था और जयगढ़ किले में फिल्म की शूटिंग के सैट पर तोड़फोड़ की. उन्होंने आरोप लगाया कि फिल्म में ऐतिहासिक तथ्यों के साथ छेड़छाड़ की गई है. फिल्म निर्माताओं ने यह आश्वासन दिलाया कि फिल्म में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं है. इस के बावजूद शूटिंग नहीं होने दी तो निर्मातानिर्देशक संजय लीला भंसाली फिल्म की शूटिंग करने के लिए महाराष्ट्र चले गए.

मार्च 2017 में फिर कोल्हापुर में फिल्म के सैट पर तोड़फोड़ की गई और आग लगा दी गई जिस से प्रोडक्शन सैट, वेशभूषा और गहने आदि जल गए. फिल्म का प्रोडक्शन बजट 160 करोड़ से बढ़ कर 200 करोड़ रुपए पहुंच गया. जयगढ़ किले में फिल्म की शूटिंग के दौरान श्रीराजपूत करणी सेना ने सैट पर तोड़फोड़ करने के अतिरिक्त संजय लीला भंसाली के साथ बदसुलूकी की थी. रणवीर सिंह के अलाउद्दीन खिलजी और दीपिका पादुकोण के रानी पद्मावती के किरदार के बीच ड्रीम सीक्वैंस फिल्माए जाने की खबर पर हंगामा हुआ था.

हरियाणा भाजपा के मुख्य मीडिया समन्वयक सूरजपाल अमु ने फिल्म में रानी पद्मावती की भूमिका निभा रहीं दीपिका पादुकोण और निर्माता संजय लीला भंसाली का सिर काट कर लाने वाले को 10 करोड़ रुपए का इनाम देने का ऐलान किया था. ऐसे किसी ऐलान करने वाले को राष्ट्रद्रोह के झूठे आरोप में नहीं पकड़ा गया जो आज फैशन बना हुआ है.

क्या थीं आपत्तियां

फिल्म को ले कर मुख्यतया 2 आपत्तियां थीं. कहा गया कि फिल्म में पद्मावती और अलाउद्दीन खिलजी के बीच एक रोमांटिक सपने वाला दृश्य फिल्माया गया है. दूसरी आपत्ति पद्मावती को दरबार में नाचते हुए दिखाए जाने पर है. करणी सेना द्वारा कहा गया कि राजपूत रानी नृत्य कैसे कर सकती है और बिना घूंघट के कैसे दिख सकती है, यह राजपूत संस्कृति और गर्व के खिलाफ है.

विवाद बढ़ा तो सैंसर बोर्ड ने फिल्म ‘पद्मावती’ का नाम बदल कर ‘पद्मावत’ कर दिया, पर विरोध कर रही करणी सेना के सामने सरकार से ले कर विपक्ष तक सभी बेबस नजर आए. यह जातीय दबदबा है कि इस के पीछे सुनियोजित धार्मिक, राजनीतिक व सामाजिक गणित है.

करणी सेना की करनी

राजस्थान में करणी सेना का 2006 में गठन हुआ था. इस के लगभग 10 लाख सदस्य होने का दावा किया जाता है. ‘पद्मावत’ के विरोध के बहाने सेना ने दूसरे राज्यों में भी अपनी पहुंच बना ली. पिछले 12 सालों के दौरान करणी सेना कई मौकों पर इस तरह की गतिविधियों में शामिल रही है पर पहली बार इस का असर इतना व्यापक देखा गया. भले ही सर्वोच्च न्यायालय ने ‘पद्मावत’ को रिलीज करने के लिए सभी राज्यों को सख्त निर्देश दिए हों पर न तो सरकार और न ही विपक्ष करणी सेना के खिलाफ रुख जाहिर करने का साहस दिखा पा रहे हैं. अंदरूनी तौर पर कांग्रेस और भाजपा दोनों दलों के नेता फिल्म के विरोध का समर्थन कर रहे हैं.

अभी लोकेंद्र सिंह कालवी के गुट वाला श्रीराजपूत करणी सेना और अजीत सिंह ममदोली के नेतृत्व वाला राष्ट्रीय राजपूत करणी सेना समिति सब से मुख्य विरोधी संगठन हैं. इन राजपूत संगठनों ने सब से पहला सार्वजनिक आंदोलन ‘जोधाअकबर’ फिल्म के विरोध में किया जिस में इन्हें सफलता मिली.

पिछले साल राजस्थान में गैंगस्टर आनंदपाल सिंह की पुलिस एनकांउटर में मौत के बाद करणी सेना के आंदोलन के सामने राज्य सरकार को झुकना पड़ा था. राजपूत समुदाय से ताल्लुक रखने वाले गैंगस्टर आनंदपाल सिंह के समर्थन में राजपूत संगठन आ जुटे और मौत की सीबीआई जांच की मांग की गई. इस पर राज्य सरकार ने पहले तो सीबीआई जांच से साफ इनकार कर दिया पर बाद में इस जाति के बढ़ते दबाव के चलते उसे सीबीआई जांच का आदेश देना पड़ा.

इसी तरह दूसरी छोटीबड़ी जातियां भी आजकल अपनीअपनी ताकत के सहारे अपनी बातें मनवाने में कामयाब हो रही हैं. मजे की बात यह है कि हर जाति व्यापक कट्टर हिंदू अस्मिता से खुद को जोड़ने में सफल हो रही है.

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पद्मावत और जौहर

फिल्म ‘पद्मावत’ सूफी संत मलिक मुहम्मद जायसी की ‘पद्मावत’ रचना पर आधारित है. पद्मावत 1540 ई. की रचना है जबकि इतिहास के अनुसार, चित्तौड़ पर खिलजी के हमले की घटना 1303 ई. की है. पद्मावत में चित्तौड़ की प्रसिद्ध रानी पद्मावती का वर्णन किया गया है जो रावल रतन सिंह की पत्नी थी. पद्मावत रचना के अनुसार, चित्तौड़ पर अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमण का कारण रानी पद्मावती के अनुपम सौंदर्य के प्रति उस का आकर्षण था. आखिर खिलजी चित्तौड़ के किले पर अधिकार करने में कामयाब हो गया. राणा रतन सिंह युद्ध में मारे गए और उन की पत्नी पद्मनी अन्य स्त्रियों के साथ जलती आग में कूद कर भस्म हो गई जिसे ‘जौहर’ नाम दिया गया.

बिना फिल्म देखे ‘पद्मावत’ फिल्म के बारे में यह धारणा बना दी गईर् कि इस में राजपूतों के शौर्य, साहस और बलिदान को कम कर के दिखाया गया है. रानी पद्मावती के ऐतिहासिक किरदार के साथ छेड़छाड़ का आरोप लगाया गया. राज्यों में जारी हिंसा से केंद्र सरकार ने खुद को अलग कर लिया था.

पिछले कुछ समय से अलगअलग जातियां अपनीअपनी अस्मिता के प्रचार में कामयाब होती नजर आई हैं. फिल्म का विरोध कर रही करणी सेना राजपूतों की प्रतिष्ठा की हुंकार भर कर खुद को कट्टर हिंदू भावना से जोड़ने में सफल दिखाई दे रही है. ‘पद्मावत’ के विरोध के दौरान उस के सदस्यों को राजपूतों के साथ हिंदुओं के भी सम्मान के रूप में पेश किया गया है.

जातीय अस्थिरता के बहाने

राजपूत समुदाय द्वारा ‘पद्मावत’ का विरोध पौराणिक पाखंडी जातीय मानसिकता की मजबूती का संदेश है. इस समुदाय के साथ जिस तरह से कट्टर हिंदू संगठन और भाजपा सरकारें खड़ी दिखाई दे रही हैं, वह जताता है कि ताकत के बल पर जातीय अहंकार को भुना कर पौराणिक चढ़ावा संस्कृति की पुनर्स्थापना की जाएगी. ‘पद्मावत’ को ले कर विरोध पर उतरी राजपूत जाति ही नहीं, पिछले कुछ समय से अपनीअपनी मांगों के लिए आंदोलनरत जातियां जिस तरह अपनी आन, बान व अस्मिता को कायम रखने में कामयाब दिखाई दे रही हैं वह सदियों पुरानी वर्णव्यवस्था की कमजोर पड़ रही परंपराओं को फिर से मजबूत करने का संकेत ही है.

कुछ समय से मनुस्मृति और गीता का महिमागान बढ़ गया है. गीता को पाठ्यक्रम में लागू करने की मांग की जा रही है. इन ग्रंथों में वर्णव्यवस्था की पैरवी की गई है और जाति को ईश्वर की देन माना गया है.

असल में पिछले कुछ समय से देश में जातीय अहंकार उबल रहा है. जाट पिछड़ा आरक्षण की मांग को ले कर राजस्थान, हरियाणा, उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में आंदोलनरत हैं. वे आएदिन ट्रेन, बस, सड़क रास्ता जाम, तोड़फोड़ और हिंसा पर उतारू दिखाई दे रहे हैं. वे अपनी ताकत के बल पर सरकारों को झुकाने में सफल दिखते हैं. सरकारें और राजनीतिक  दल जाटों की आरक्षण की मांग के समर्थन में खड़े हैं. कोई विरोध की हिम्मत नहीं दिखा पाता है.

गुजरात और मध्य प्रदेश में पटेल, पाटीदार अपनी जातीय अस्मिता की बात कर सरकारी नौकरियों में आरक्षण के लिए आंदोलन कर रहे हैं. उन के आगे शासन, प्रशासन पंगु बना दिखता है.

राजस्थान में गुर्जर जनजाति में आरक्षण के लिए सरकार और राजनीतिक दलों को अपनी ताकत का लोहा मनवा चुके हैं. गुर्जरों की ताकत के आगे कोई राजनीतिक दल विरोध की स्थिति में नहीं है.

उधर, महाराष्ट्र में मराठा जातियां पिछड़ा वर्ग में शामिल होने की कवायद में अपनी शक्ति का एहसास कराने में पीछे नहीं हैं.

दलितों का दमन

इस दौर में बराबरी की मांग करने वाले दलितों का दमन चरम पर है. अभिव्यक्ति की आजादी का हनन जारी है. दलितों को अलगथलग रखने के लिए उन पर हिंदू कट्टरपंथियों द्वारा हिंसात्मक वारदातों को अंजाम दिया जा रहा है. सदियों से रह रहे दलितों को संदेश दिया जा रहा है कि तुम दलित हो. सदियों से रह रहे दलित की तरह रहो. मूंछें रख कर ठाकुर बनने की कोशिश मत करो. परंपरा में तुम्हारे लिए मंदिरों में प्रवेश निषिद्ध है. मंदिर में प्रवेश कर तुम ब्राह्मण मत बनो. पढ़ाईलिखाई मत करो. बराबरी और हक  की आवाज मत उठाओ वरना कुचल दिए जाओगे. छुआछूत के पैरोकारों द्वारा जातीय, धार्मिक मतभेदों को हवा दी जा रही है. आतंक पैदा किया जा रहा है.

इसी तरह मुसलमानों को दोयम दर्जे का मान लिया गया है. उन्हें पाकिस्तानी बताया जा रहा है. लवजिहाद के नाम पर मुसलिम युवाओं को प्रताडि़त किया जाता है. मवेशियों, मीट के व्यापार को प्रतिबंधित किया जा रहा है.

इन की श्रेणी में स्त्रियों को भी शामिल कर लिया गया है. औरतों के साथ यौन हिंसा की बढ़ती वारदातें बताती हैं कि स्त्री केवल भोग की वस्तु है. मर्द जब चाहे, जहां चाहे उसे उपभोग कर सकता है. स्त्री पाप की गठरी है. मर्द की चेरी है. उसे बराबरी का अधिकार नहीं है. शास्त्रों के अनुसार उस की मुक्ति पुरुष के चरणों में है. साधुसंतों, गुरुओं की सेवा करना ही उस का धर्म है. छोटी लड़कियों को आश्रमों में दान में दे दिया जाता है. यह प्राचीन परंपरा है, इस का पालन करना होगा.

तमाम नए कानूनों और कानूनों में संशोधनों के बावजूद स्त्रियों पर बढ़ती यौनशोषण की घटनाओं के पीछे धार्मिक संकीर्ण सोच ही है जो औैरतों को बराबर मानने से रोकती है. स्त्री को ले कर दोयम दर्जे की सामाजिक सोच हमारी सदियों पुरानी परंपरा में शामिल है.

हालांकि इन कट्टर जातियों का परस्पर टकराव फिलहाल अधिक दिखाई नहीं दे रहा पर इस में देर नहीं लगेगी. ‘पद्मावत’ को ले कर राजपूत समुदाय किसी दूसरी जाति से नहीं लड़ रहे. जाट, पाटीदार, गुर्जर, मराठा जातियां भी अन्य जातियों से टकराती नहीं नजर आ रहीं पर विभाजन स्पष्ट दिखता है. जातियां अपनेअपने अस्तित्व, अपनीअपनी अस्मिता का झंडा उठाए घूम रही हैं.

ताकत के सहारे जातियों का यह अपनाअपना अलग राग 69वें गणतंत्र को अंगूठा दिखा रहा. इतने सालों के बावजूद जाति व्यवस्था के उन्मूलन के बजाय इसे कायम रखने व ज्यादा मजबूत करने की कोशिशें की जा रही हैं और सरकार का पूरा खुला व छिपा समर्थन साथ है. कट्टर होते समाज की भय उत्पन्न करने वाली स्थिति है. राजनीतिक दलों ने जातियों को ताकतवर बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. शिक्षा, नौकरियों में आरक्षण, चुनावी टिकट वितरण जैसे कामों में राजनीतिक दल सत्ता के लिए जातियों को बढ़ावा देते रहे हैं.

संविधान बनाम पौराणिक परंपराएं

‘मनुस्मृति’ और ‘गीता’ को वास्तव में भारतीय संविधान से ऊपर मानने वाले कम नहीं हैं. हिंदूराष्ट्र के नारे बुलंद किए जा रहे हैं. भाजपा के कई नेताओं द्वारा भेदभाव वाली वर्णव्यवस्था की पैरवी करने वाले ग्रंथ ‘गीता’ को राष्ट्रीय किताब और उसे पाठ्यक्रमों में लागू करने की बातें उठाई जाती रही हैं. हिंदुओं  के साधुसंत, गुरु और शंकराचार्य तक जातिव्यवस्था स्थापित करने वाले हिंदू धर्मग्रंथों की परंपराओं को चलाने का आह्वान करते सुने जा सकते हैं. राष्ट्रवाद को, देशभक्ति को, हिंदू से जोड़ दिया गया है. भारत का अर्थ हिंदू पौराणिक देश बना दिया गया है.

जातिव्यवस्था स्थापित करने वाले हिंदू ग्रंथ ‘मनुस्मृति’ का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एम एस गोलवरकर जैसे कट्टरपंथियों ने महिमामंडन किया. संघ के नेताओं ने 1947 में ही भारतीय संविधान का इस आधार पर विरोध किया कि जब हमारे पास ‘मनुस्मृति’ के रूप में एक अद्भुत संविधान मौजूद है तो हमें नए संविधान की जरूरत क्या है.

हिंदू नेता आचार्य धर्मेंद्र ने भी कहा था कि हिंदुस्तान में हिंदूद्रोह निसंदेह देशद्रोह है. केंद्र सरकार को फिल्म ‘पद्मावत’ पर प्रतिबंध लगा कर फिल्मकार पर मुकदमा दर्ज करना चाहिए.

हिंदू नेता गाहेबगाहे धर्म की परंपराओं की स्थापना पर बल देते रहे हैं. गीता को मनुस्मृति का छोटा संस्करण माना गया है. वहीं, भाजपा सरकार गीता का प्रचारप्रसार करने में जुटी हुईर् है. इस के नेताओं द्वारा गीता की प्रतियां बांटी जा रही हैं.

करणी सेना, शिवसेना, महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना, भीम सेना, राम सेना, दलित सेना, गुर्जर सेना, भीम आर्मी, जाट महासभा, राजपूत महासभा, क्षत्रिय महासभा, दुर्गा वाहिनी, हिंंदू वाहिनी, केसरिया वाहिनी, हनुमान दल, बजरंग दल जैसे अनगिनत जातीय, वर्र्ग आधारित संगठन बने हुए हैं. यह बंटे हुए समाज की सब से बड़ी मिसाल है. ये सब जाति व्यवस्था को ही मजबूत कर रहे हैं और सोच यह है कि जातियां मजबूत होंगी तो हिंदू धर्म खुद ही मजबूत होगा, जबकि होगा उलटा ही. आपसी फूट सदा देश को गुलाम बनाती रही है और जातियों का गणित ऐसा है कि न स्थिर सरकार रहेगी न सुशासन.

इन जातियों के अलगअलग देवीदेवता हैं. जातियों ने अपनेअपने ऊंचे, नीचे अवतारों को भी बांट लिया है. सब से ऊंची जाति वालों के लिए विष्णु, उस से नीचे वाले शूद्रों के लिए शिव, हनुमान, शनि, साईंबाबा. इसी तरह जातियों के आधार पर इन के गुरु भी बना दिए गए जो सवर्ण, पिछड़ों और दलितों में बंटे हुए हैं और अपनीअपनी दुकानें सफलतापूर्वक चला रहे हैं.

भारतभूमि में लोग तपश्चर्या करते थे, यज्ञ, हवन करते थे, परलोक के लिए आदरपूर्वक दान देते थे. पुरोहित कथावाचन करते थे. यजमान कथा सुनते थे, कर्मकांड कराते थे. सब वर्णव्यवस्था के अनुसार अपनाअपना कर्म करते थे.

हिंदू राष्ट्रवाद के पैरोकार देश में फिर से इस परंपरा की पुनर्स्थापना करना चाहते हैं जिस में हिंदू धर्मग्रंथों के मूल्यों और चढ़ावों का बोलबाला हो. वह उन वैदिक मूल्यों को पुनर्जीवित करना चाहते हैं जिन का एक लोकतांत्रिक, आधुनिक वैज्ञानिक समाज में कोई स्थान नहीं हो सकता.

चढ़ावा संस्कृति की वापसी

इस देश में राजामहाराजाओं के समय धर्म के हुक्म पर चलने की परंपरा रही है. राजाओं के दरबार में पुरोहित धार्मिक सलाहकार होते थे. राजा उन्हीं के सलाहमशवरे पर पूरा राजपाट चलाते थे. राजाओं को इतना आशंकित कर के रखा जाता था कि पुरोहित की सलाह के बिना वे कोई भी फैसला नहीं करते थे. राजा दशरथ से ले कर मराठों की अष्टप्रधान व्यवस्था तक ऐसा ही माहौल था.

चित्तौड़ के रावल रतन सिंह समेत तब के राजाओं के दरबार में भी पुरोहित नियुक्त थे. उन्हीं की सलाह पर रानियों को जलती चिताओं पर चढ़ा दिया जाता था.

इतिहास के अनुसार, महमूद गजनवी के समय से राजस्थान और गुजरात में जौहर की परंपरा शुरू हुई थी. हालांकि तब तक भारत के ताजातरीन इतिहास की उम्र डेढ़ हजार साल हो चुकी थी और इसलाम के आने के पहले एक हजार साल के दौरान हिंदू राजाओं के बीच सैकड़ों बार तलवारें खनक चुकी थीं. उत्तर भारत में हर्षवर्द्धन व महमूद गजनवी के बीच के करीब 500 साल तक राजामहाराजा एकदूसरे से ईंट से ईंट बजाते रहे.

महमूद गजनवी जब हिंदूकुश में अनंगपाल को परास्त कर के पंजाब होता हुआ राजस्थान में घुसा तो उस के खिलाफ मोरचे खुले, पर राजस्थान में उसे कोई बड़ा युद्ध नहीं लड़ना पड़ा. राजा खुद को और अपनी प्रजा को किले के अंदर कर दरवाजा बंद कर लेता. कुछ दिन घेरेबंदी चलती, कुछ झड़पें होतीं और एक समय ऐसा आता कि बाहर से कोई मदद न मिलने के कारण दुश्मन की घेराबंदी किले के अंदर मौत का साया बन जाती. तब विवशतावश राजा को अपनी सेना के साथ किले से बाहर आ कर लड़ना पड़ता, जिस से सिर्फ मौत मिलती. किले के अंदर राजा की दोचार सौ रानियां, राजकुमारियां बचतीं और बचते कुछ लाचार बुजुर्ग और उन के बीच कुल ब्राह्मण होता था जो सब औरतों की चिताएं तैयार करवाता, उन्हें जलवाता. तब उन चिताओं पर डेढ़ साल से ले कर 90 साल तक की बुढि़या जौहर करतीं.

राजपूत समाज सती परंपरा का पोषक रहा है. 1987 में राजस्थान के सीकर जिले में देवराला में हुए रूपकंवर सती कांड ने देश को झकझोर दिया था. तब यही समुदाय रूपकंवर की चिता पर तलवारों के साथ पहरा देता रहा. चिता की परिक्रमा में जुटा रहा और सती का खूब महिमामंडन किया गया. अब  ‘पद्मावती’  के नाम पर भी राजपूत समाज जातीय अस्मिता की बात कर रहा है. यह कैसी आन, बान, शान है?

समाज में सामंती अहंकार, भेदभाव, नफरत, हिंसा के उन्मादी लोगों की भुजाएं सियासी और सामाजिक ताकत  पाती रही हैं. यह सब हिंदुत्व के नाम पर हो रहा है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ चाहता है जातिव्यवस्था बनी रहे और धर्म में चढ़ावे की परंपरा और मजबूत हो. चढ़ावे के समर्थक हिंदू संगठन इस काम में सफल होते दिख रहे हैं.

प्राचीन परंपराओं को जिंदा कौन रखना चाहता है, चढ़ावा पाने वाले. हिंदुत्व के पहरेदार धर्म की दुकानदारी में मंदी नहीं आने देना चाहते. अब जब देश में हिंदू राष्ट्रवादियों की सरकार है तो पुरानी परंपराएं न सिर्फ जिंदा की जाएंगी, उन को कायम रखने का प्रयास भी किया जाएगा. ‘पद्मावत’  के विरोध में उतरे राजपूत समुदाय के साथ हिंदू संगठन सतीप्रथा का महिमामंडन चाहते हैं.

धर्म के ठेकेदार चाहते हैं कि सती के मंदिर बनें और वहां भरपूर चढ़ावा आए ताकि पुरोहितों के लिए हलवापूरी का इंतजाम कायम रहे. यह चढ़ावा संस्कृति दलितों को भी बेच दी गई है और वे अपने अनैतिक अपौराणिक देवीदेवताओं को पूजने व उन पर पैसा बरसाने को तैयार हो गए हैं.

भाजपा राज्य सरकारें इसीलिए विरोधियों के पक्ष में खामोश हैं. हिंदू संगठन करणी सेना के साथ हैं क्योंकि चढ़ावा को बढ़ावा देना है. आखिर हिंदुत्व की खोई हुई पहचान लौटानी है. चढ़ावा रहेगा, तभी हिंदुत्व बचेगा. चढ़ावा से ही हिंदुत्व चलेगा.

यह स्थिति भारत में ही नहीं है, विश्वभर में इतिहास में पीछे जाने की सनक बढ़ रही है. असहमति के खिलाफ हिंसक मोरचे पनप गए हैं. संवैधानिक विचारधारा और समाज की सोच में अंतराल बढ़ रहा है. यह अंतराल किसी क्रांतिकारी बदलाव का नहीं है, यह कट्टरता और उदारता का है. हमारा संविधान उदारता की गुंजाइश देता है और यह तभी लागू हो सकता है जब उस के मानने वाले उदार हों. दुख की बात है कि देश में सामाजिक, धार्मिक ही नहीं, राजनीतिक उदारता भी  दम तोड़ रही है.

फिल्मकार, चित्रकार, बुद्धिजीवी वर्ग को अभिव्यक्ति की आजादी के लिए केवल संवैधानिक संस्थाओं पर भरोसा करने के बजाय गैरसरकारी संगठनों का भी सहारा लेना पड़ रहा है. जातीय, धार्मिक संगठन हैं कि वे फिल्मकारों को धमका रहे हैं और परोक्ष चेतावनी भी दे रहे हैं.

धर्म, जाति के नाम पर इस तरह की गैरसंवैधानिक हिंसक हरकतें भारत की कैसी सभ्यता का दर्शन करा रही है, रचना और विचारों का जवाब श्रेष्ठ विचार और रचना से दिया जा सकता है, लेकिन उपद्रव, हिंसा, प्रतिबंध की जिद पर अड़ा समाज कैसी सभ्यता स्थापित कर रहा है?

आज विज्ञान के दौर में, गणतंत्र लागू होने के लगभग 7 दशकों बाद भी, स्वतंत्रता, समानता और बंधुता एवं एकता की मूल अवधारणा वाले भारतीय संविधान के ऊपर धर्म की व्यवस्था चाहने वाले हावी दिखाई दे रहे हैं. चढ़ावा चाहने वाले अपनी ताकत सिद्ध करते हुए धर्म की अमानवीय, असमानता और बर्बर परंपराओं की पुनर्स्थापना करने के प्रयासों में सफल होते दिखाई दे रहे हैं तो यह इस देश के लोकतांत्रिक संविधान की नहीं, समाज की कमजोरी है.

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चीड़ से चाटुकारिता तक

चीड़ का पेड़ बहुतायत में हिमालय की पहाडि़यों में 7 हजार फुट की ऊंचाई तक पाया जाता है. इस पेड़ में पाया जाने वाला एक तत्त्व एलीकोकेम अपने आसपास किसी और पेड़ को नहीं पनपने  देता. चीड़ के पेड़ का तना 3 मीटर तक मोटा होता है.

चीड़ के पेड़ के ये गुणधर्म काफी हद तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मिजाज से मेल खाते हैं. शायद इसीलिए अपने स्टाइलिश प्रधानमंत्री के लिए केंद्रीय कपड़ा मंत्री अजय टमटा चीड़ की लकड़ी के रेशे से बनी हुई जैकेट तोहफे में देंगे जिस का नाम, लौंचिंग से पहले ही, नमो वस्त्र रखा गया है. आदमी जब जंगल में रहता था तब पेड़ की पत्तियों और छाल से ही तन ढकता था. अब आधुनिक मानव के लिए यह फैशन हो गया है. यों चीड़ के पेड़ की यह चीरफाड़ यानी शोध काफी दिनों से चल रहा था पर अब वैज्ञानिकों ने इस के रेशे से कपड़ा बनने की पुष्टि कर दी है तो सब से पहले नमो जैकेट बनाई जाएगी. नरेंद्र मोदी से इस शोध का मतलब न पूछें. यह चाटुकारिता का नायाब नमूना है.

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सनातन का धन

ट्रेड यूनियन नेता रह चुके सनातन महाकुद ओडिशा की चांपुआ विधानसभा सीट से निर्दलीय विधायक हैं. पेशे से ट्रांसपोर्टर और माइनिंग कारोबारी सनातन की गिनती देश के शीर्ष रईस विधायकों में होती है. यह बात वैधानिक रूप से स्थापित भी हो गई जब उन के आधा दर्जन बैंक खातों से कोई 165 करोड़ रुपए जब्त किए गए. यह बात उजागर तब हुई जब एक बैंक मैनेजर उन की मांग पर महज 50 लाख रुपए उन्हें देने को उन के घर जा रहा था. बुरा हो मुखबिरी और पुलिस चैकिंग का जिस के चलते यह डील नाके पर ही पकड़ ली गई.

अब सनातन अपने सीज हो चुके खातों को खुलवाने के लिए कोर्टकचहरी करते रहेंगे. लेकिन इस से उन की अपनी खुद की जन समृद्ध पार्टी लौंच करने का सपना हालफिलहाल टूट गया है जो सभी 147 सीटों पर चुनाव लड़ने वाली थी.

मुमकिन है रईसी उजागर हो जाने के बाद तमाम सियासी दल उन पर डोरे डालें.

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आनंदित मध्य प्रदेश

मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने आम लोगों को खुश रखने के लिए आनंद विभाग खोला ही था कि उधर दिल्ली से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी खासमखास आनंदी बेन को राज्यपाल बना कर भोपाल भेज दिया. अहमदाबाद से भोपाल तक का सफर आनंदी बेन ने चार्टर्ड बस से तय किया और रास्ते में उज्जैन के महाकाल मंदिर में अभिषेक कर ऐलान सा कर डाला कि वे पूजापाठ के मामले में शिवराज से उन्नीस नहीं हैं यानी कर्ज में गले तक डूबे इस सूबे में अब कुछ और हो न हो, भजनपूजनकीर्तन तबीयत से होंगे.

लेकिन शिवराज सिंह की असल दिक्कत पूजापाठी नहीं, बल्कि सत्ता में आनंदी बेन की दखलंदाजी है जिस के बाबत नई राज्यपाल को शायद ऊपर से ही निर्देश मिले हुए हैं कि उन्हें गवर्नरी कम, मुखबिरी ज्यादा करनी है. इस साल मध्य प्रदेश में चुनाव हैं जहां भाजपा को शिवराज सिंह का चेहरा आगे रख कर ही चुनाव लड़ने को मजबूर होना पड़ेगा. अब देखना दिलचस्प होगा कि राजकाज राजभवन से चलेगा या सीएम हाउस से.

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जूता या सर्टिफिकेट

औल इंडिया मजलिस इत्तेहादुल मुसलिमीन के मुखिया व कट्टर मुसलिम सांसद असुदुद्दीन ओवैसी पर दक्षिण मुंबई के नागपाड़ा इलाके में एक रैली के दैरान किसी ने जूता फेंक दिया. यह कोई नई या अनहोनी बात नहीं है. नेताओं पर जूते फिंकते रहते हैं जो एक तरह से उन के परिपक्व होने का प्रमाणपत्र होते हैं. इस रिवाज के लिहाज से ओवैसी को तो बजाय व्यथित होने के, खुश होना चाहिए.

नेता बनना कोई आसान काम भी नहीं. इस के लिए बेइज्जती बरदाश्त करना एक गुण है और जो नेता यह गुण खुद में विकसित कर लेते हैं वही बुलंदियां छू पाते हैं. हवा में सनसनाते जूते इस बात की गवाही भी देते हैं.

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केजरीवाल रहें सावधान : सत्ता समीकरणों के सहारे मिलती है, वादों से नहीं

राजनेता अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी प्रारंभिक दिनों को छोड़ कर भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस दोनों की ही आंखों का कांटा बनी रही है. अब जब उस के 20 विधायकों को सरकार में लाभ का पद पाने के आरोप में विधानसभा की सदस्यता खोनी पड़ी तो इन दोनों पार्टियों को असीम सुख मिला.

लाभ का पद देने का विषय पेचीदा है और एक तरह से यह मंत्री का सा पद आम विधायक को देना है जहां सरकार से वेतन व सुविधाएं मिलती रहें. कानून के अनुसार, लाभ का पद कोई विधायक या सांसद नहीं ले सकता. यह प्रावधान इसलिए रखा गया है ताकि अफसरशाही अपने प्रतिनिधि विधानमंडलों में न भेज सकें.

तकनीकी तौर पर चाहे वह नियुक्ति गलत थी पर मोटेतौर पर भ्रष्टाचार नहीं है. नौसिखिया अरविंद केजरीवाल कानूनी बारीकियों को समझ नहीं पाए, सो फंस गए हैं. हो सकता है कि अब उन्हें 20 सीटों पर फिर चुनाव लड़ना पड़े और कुछ सीटें हार भी जाएं पर यह पक्का है कि अरविंद केजरीवाल को जो भारी बहुमत मिला था उस की वजह से वे, नगरनिगमों की हार के बावजूद, तब तक सत्ता में बने रहेंगे जब तक कोई उन की पार्टी को तुड़वा न दे. यह बहुत संभव भी है क्योंकि देश में तोड़फोड़ की राजनीति जम कर चल रही है.

अरविंद केजरीवाल की अब तक की सफलता का राज यह है कि वे और उन की पार्टी जाति व धर्म के ऊपर हैं. उन की पार्टी पर आर्थिक भ्रष्टाचार के आरोप न के बराबर हैं. अरविंद केजरीवाल ने कांग्रेस की जगह लेनी चाही थी पर वे अपने व्यक्तित्व, महत्त्वाकांक्षाओं और जिद के चलते विवादों में ज्यादा घिरे रहे हैं.

भारत के तत्कालीन महालेखा नियंत्रक यानी सीएजी विनोद राय ने पिछले आम चुनावों से पहले कांग्रेस की छवि खराब की थी और उस का सुख भाजपा को मिला था. अब वैसा ही सुख भाजपा को चुनाव आयोग ने दिया है. राजनीतिक सफलता पर काला रंग पोतने में ये स्वतंत्र संस्थाएं आजकल राजनीतिक स्वार्थ साधने के लिए काफी उपयोगी सिद्ध हो रही हैं. अरविंद केजरीवाल को समझना चाहिए कि सत्ता सैकड़ों समीकरणों के सहारे मिलती है, केवल वादों व निष्ठा से नहीं.

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पार्किंग वसूली : घरों के बाहर पार्किंग की समस्या का हल खोजे दिल्ली नगर निगम

घरों के बाहर पार्किंग की समस्या का हल खोजने के बजाय दिल्ली नगर निगम उस पर शुल्क लगाने का विचार कर रहा है. आज अगर दिल्ली इस में सफल होती है तो कल दूसरे शहर भी ऐसा करेंगे. आज कारों पर शुल्क लगाया गया तो कल बाइकों और फिर साइकिलों पर भी लगेगा. सरकार छोटे टैक्स से शुरुआत करती है और फिर उसे भारीभरकम बनाती जाती है.

घर के बाहर की सड़क सार्वजनिक है और इस का उपयोग एक घर के लोग अपनी गाडि़यों के लिए करें, यह अटपटा लग सकता है पर वास्तविकता यह है कि जब शहर की कालोनियों के नक्शे बनते हैं तभी सड़कों के किनारे की जगह की कीमत अलौट की गई जमीन के दाम में जोड़ ली जाती है. 200 गज के प्लौट के सामने 3 फुट जगह सड़क के किनारे प्लौट मालिक की होती है उस के सार्वजनिक उपयोग के लिए.

घरों के आगे गाडि़यों की समस्याएं उग्र अगर हो रही हैं तो इसलिए कि सरकारों, निगमों ने सड़कों को दुहना तो शुरू कर दिया है पर, हिंदुओं की गायों की तरह, उन्हें संवारना उन का काम नहीं है. शहरभर में सड़कों के किनारे पटरियों पर जमे सीवर, मलबा, दुकानें, दुकानों का सामान, बिजली के आड़ेतिरछे खंभे, बोर्ड, होर्डिंग्स लगे रहते हैं. अगर इन्हीं को दुरुस्त कर दिया जाए तो दिल्ली जैसे शहर की पार्किंग की व्यवस्था सुधर जाए.

लोगों के लिए गाड़ी अब लक्जरी नहीं, निसेसिटी है. हर घर में हर गाड़ी पर 5 से 25 लाख रुपए तक खर्च यों ही दिखावे के लिए नहीं किया जाता. शहर बड़े हो गए हैं, कालोनियां भी बड़ी हो गई हैं. उन पर अकेले रातबिरात चलना सरकार सुरक्षित नहीं कर सकती. ऐसे में लोगों को गाड़ी की सुरक्षा का सहारा लेना पड़ता है.

हर गाड़ी पर और गाड़ी के लिए इस्तेमाल होने वाले हर लिटर पैट्रोल व डीजल पर सरकार टैक्स वसूल कर रही है. पार्किंग के नाम पर एक और टैक्स की वसूली किए जाने की योजना असल में तानाशाही है और यह तैमूरी टैक्स होगा. अफसोस यह है कि आज देश की जनता ने अपने अधिकारों के प्रति इस कदर बेरुखी अख्तियार कर ली है कि धर्म व जाति के नाम पर दिए गए अपने वोट के लिहाज में वह अपने सब दुखदर्द भुला रही है. वह हिंदू धर्म को बचाने के चक्कर में सरकार की हर मनमानी सह रही है जो उसे बुरी तरह निचोड़ रही है और उस से उस की हर आजादी-बोलने की आजादी, पैसा रखने की आजादी व गाड़ी रखने की आजादी छीन रही है.

पार्किंग शुल्क, खासतौर पर अपने घर के सामने खड़ी कार का, अन्याय की पराकाष्ठा है. इसे हरगिज सफल नहीं होने देना चाहिए. लोगों को सांसदों, विधायकों, पार्षदों और अफसरों को तुरंत ईमेल, व्हाट्सऐप, पत्र भेजने चाहिए कि उन के बचेखुचे हक छीने न जाएं.

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ओंब्रे मेकअप : ब्यूटी का नया ट्रैंड, यह मेकअप खास आप के लिए ही है

मेकअप और ब्यूटी दोनों को फ्रैश बनाए रखने के लिए मेकअप आर्टिस्ट को हमेशा कुछ न कुछ चुनौतीपूर्ण काम करते रहना पड़ता है, ताकि नयापन बना रहे. इस दिशा में आजकल ‘ओंब्रे मेकअप’ ट्रैंड में है. छोटीमोटी पार्टी हो या विवाह ओंब्रे मेकअप हर जगह अच्छा लगता है.

असल में मेकअप में ओंब्रे हेयर कलर से ही आया है, जिसे सभी ने खूब पसंद किया. यही वजह है कि इस तकनीक को लिप्स, चीक्स और आईज मेकअप में लाया गया है. इस में एक ही कलर टोन या कंट्रास्ट कलर के लाइट और डार्क शेड का प्रयोग कर मेकअप किया जाता है, जो सुंदर दिखने के साथसाथ आकर्षक भी लगता है.

फैशन में इन है

लैक्मे सैलून की क्रिएटिव डाइरैक्टर और मेकअप ऐक्सपर्ट सुषमा खान बताती हैं कि ओंब्रे मेकअप इस साल फैशन में खूब है. ओंब्रे एक तकनीक है, जिस में होंठों पर 2-3 कलर का प्रयोग कर फाइनल कलर दिया जाता है. इस में अधिकतर 3 रंग मिलाएं जाते हैं. ब्राइड में इस बार हौट औरेंज कलर बहुत अधिक प्रचलन में है. रैड कलर पहले से ही पौपुलर है. ब्राइड के लिए रैड क्लासिक कलर है. इंडियन वैडिंग में इस की खास जगह होती है. लाल रंग के बिना शादी अधूरी होती है. 80% महिलाएं लाल या मैरून कलर की पोशाक शादी में पहनती हैं. सारे ब्राइट कलर जैसे हौट औरेंज, फ्यूशिया कलर आदि सभी फैशन में हैं.

यह मेकअप करने से पहले निम्न बातों का ध्यान दें:

– सब से पहले ड्रैस क्या पहनने वाली हैं, उस पर ध्यान देना जरूरी होता है. ड्रैस को कौंप्लिमैंट करने वाला रंग आप ले सकती हैं. मसलन, अगर आप लाल रंग की ड्रैस पहनने वाली हैं तो रैड के साथ मैरून और पिंक को भी लिया जा सकता है.

– ओंब्रे का अर्थ है एक ही फैमिली के डार्क और लाइट शेड लेना जैसेकि अगर आप ने लाल रंग की लिपस्टिक ली हो तो, उस से मैचिंग रंगों का चयन करें.

– पहले बेस लिपस्टिक से 1 शेड डार्क आउटर लिपलाइनर लगाएं. लाइन को थोड़ा थिक रखें. इस के बाद बेस लिपस्टिक और अंत में लिप्स के अंदर लाइट शेड लगाएं. इस के ऊपर लिप ग्लौस लगा कर उसे फाइनल टच दें.

– घर पर भी इस मेकअप को कर सकती हैं. इस के लिए आप अपने पर्सनल मेकअप आर्टिस्ट या सैलून से मेकअप का सामान खरीदते वक्त वहां की ऐक्सपर्ट से इसे करने की तकनीक जान लें.

– इस के अलावा इस साल होलोग्राफी का भी चलन है. इस में चेहरे के किसी एक भाग को हाईलाइट किया जाता है. ऐक्स्ट्रा शाइनिंग दे कर उस भाग को उभारा जाता है. इस में गोल्डन या सिल्वर कलर अधिक पौपुलर है. इस बार आंखों के ऊपर उसे देने का ट्रैंड रहेगा. ब्राइड भी इसे लगा कर अलग लुक पा सकती है.

– यंग ब्राइड पौप कलर और ब्राइट कलर पहन सकती है. उसी के अनुसार ओंब्रे मेकअप करें.

– स्किन कलर के आधार पर ड्रैस का चयन करें ताकि मेकअप सही दिखे.

सुषमा कहती हैं कि ब्राइड बनने जा रही लड़की को शादी के कुछ महीने पहले से स्किन की देखभाल करते रहना चाहिए ताकि शादी के दिन मेकअप उस के चेहरे को सुंदर बनाए.

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औफिस में क्या पहनें और क्या नहीं, हम से जानिए

हाल ही में दिल्ली में संपन्न हुए इंडिया रनवे फैशन वीक में जब पूर्वी रौय ने अपना कलैक्शन पेश किया तो सभी ने उसे खूब सराहा. पूर्वी ने महिलाओं के लिए कपड़ों की फौर्मल रेंज पेश की, जिस में औफिस और स्पैशल औफिशियल मीटिंग्स एवं पार्टी ड्रैसेज शामिल थीं. इस कलैक्शन ने कुछ बिंदुओं की ओर ध्यान भी खींचा जैसे क्या महिलाएं अपने औफिस वियर को ले कर जागरूक रहती हैं? औफिस में उन के लिए फौर्मल गैटअप कैरी करना कितना जरूरी है? क्या महिलाएं कैजुअल और फौर्मल ड्रैसेज में अंतर को ठीक से समझती हैं? क्या महिलाएं जितनी जागरूक अपनी कैजुअल ड्रैसेज को ले कर हैं उतना ही फौर्मल ड्रैसेज को ले कर भी हैं? क्या वे जानती हैं कि कौन से कलर और स्टाइल औफिस में अच्छे लगते हैं और कौन से नहीं? ऐसे तमाम सवाल जब सामने आए तो डिजाइनर पूर्वी रौय से ही इन के जवाब जानने चाहे.

पूर्वी ने इस विषय पर विस्तार से बात की और फौर्मल वियर को ले कर महत्त्वपूर्ण जानकारी भी दी. आइए, जानें क्या कहती हैं पूर्वी आप के फौर्मल आउटफिट के बारे में:

आत्मविश्वास और आप की ड्रैस

आमतौर पर लोगों को लगता है कि कपड़े बस शरीर ढकने और हमें सुंदर लुक देने के लिए होते हैं जबकि यह आधा सच है. बाकी का आधा सच यह है कि हमारे पहनावे का हमारे आत्मविश्वास और हमारी बोल्डनैस से गहरा संबंध है. आज के माहौल में महिलाएं कहीं भी सुरक्षित नहीं हैं. ऐसे में उन का पहनावा किस प्रकार उन के व्यक्तित्व को बोल्ड एवं आत्मविश्वास से भरा दिखाने में उन की मदद कर सकता है, यह जानना और समझना बहुत जरूरी है.

कपड़ों के माध्यम से आप अपना आत्मविश्वास बढ़ा सकती हैं. उदाहरण के लिए अगर आप किसी मल्टीनैशनल कंपनी में काम करती हैं, तो वहां ज्यादातर कंपनियों में केवल फौर्मल ड्रैसेज ही पहनने को कहा जाता है. जब महिलाएं फौर्मल लुक कैरी करती हैं तो देखने वाले को भी लगता है कि हां इस महिला में कुछ बात है और वह खुद भी यह महसूस करती है कि उस में पहले से ज्यादा आत्मविश्वास आ गया है. उस के अंदर बोल्डनैस भी बढ़ी हुई होती है, जिस से किसी की हिम्मत नहीं होती कि कोई उस से फालतू बात कर सके.

अगर आप अपने औफिस में फौर्मल ड्रैसेज पहन कर नहीं जाती हैं तो एक बार ट्राई कीजिए. एक बार थ्री पीस फौर्मल वियर कैरी तो कीजिए. जब आप थ्री पीस पहनती हैं, कोट, पैंट और शर्ट के साथ टाई लगाती हैं तो खुद को आत्मविश्वास से भरा महसूस करती हैं, साथ ही औफिस में आप के साथ डील करने वालों का नजरिया भी आप के लिए बदल जाता है. वे आप को ज्यादा आदर दे कर आप से बात करते हैं. आप खुद महसूस करती हैं कि आप का व्यक्तित्त्व पहले से ज्यादा वजनदार हो गया है.

ऐसा इसलिए होता हैं, क्योंकि किसी भी ड्रैस का अपना रोब होता है. और जब आप उस ड्रैस को अपनाती हैं तो आप का व्यक्तित्व खिल उठता है. ड्रैस आप को आत्मविश्वास से भरी एक अलग पहचान देती है.

खुद को कैसे करें कैरी

बहुत सी महिलाओं को यह पता नहीं होता है कि अगर वे कौरपोरेट जगत में काम कर रही हैं तो उन्हें खुद को कैसे कैरी करना चाहिए. कई मामलों में वे दूसरों को कौपी करती हैं. ऐसे में महिलाओं को सलाह है कि-

– जब भी अपने औफिस के लिए ड्रैसेज खरीदें तो स्ट्रौंग कलर ही चुनें, क्योंकि जब आप कहीं जौब कर रही होती हैं तो आप अपने काम के प्रति जिम्मेदार व जवाबदेह भी होती हैं, इसलिए एक जिम्मेदार कर्मचारी की तरह दिखना भी जरूरी है. ऐसे में स्ट्रौंग कलर का चुनाव सही रहता है.

– कलर के साथसाथ इस बात का भी खयाल रखें कि आप की ड्रैस में कम से कम डिटेलिंग हो.

– आप जो भी ड्रैस अपने लिए चुन रही हैं उसे आत्मविश्वास के साथ पहनें. उस ड्रैस को पहन कर आप के अंदर किसी भी प्रकार का संकोच या झिझक नहीं होनी चाहिए, क्योंकि यह संकोच आप के व्यक्तित्व को बहुत डाउन कर देता है.

– आप ने जो ड्रैस चुनी है वह सुविधाजनक होनी चाहिए. अगर थोड़ा भी लगता है कि इस ड्रैस को पहन कर आप खुद को सहज महसूस नहीं कर रही हैं तो मत पहनिए. दूसरा कोई विकल्प तलाशिए, क्योंकि अगर आप ने ऐसी ड्रैस पहन ली, जिस में आप सहज नहीं हैं तो दिन भर आप असहज महसूस करती रहेंगी और उस का बुरा असर आप के काम और व्यक्तित्व पर पड़ेगा.

– यदि आप औफिस में शर्ट पहन रही हैं तो उसे थोड़ा टक करिए और टक कर के थोड़ा सा बाहर निकालिए. शर्ट को इस तरह बाहर रखिए ताकि आप की बैल्ट लाइन न दिखे. यदि आप ट्राउजर और शर्ट पहन रही हैं तो आप की बैल्ट दिखनी नहीं चाहिए. अगर आप शर्ट को टक नहीं करना चाहती हैं और बाहर रखना चाहती हैं तो ध्यान रहे कि आप की शर्ट की लंबाई न तो बहुत छोटी हो और न ही ज्यादा लंबी, क्योंकि औफिस में खुली हुई ओवर साइज की शर्ट अच्छी नहीं लगती. इसलिए फिटिंग वाली शर्ट ही पहनिए.

– औफिसवियर स्कर्ट भी औफिस में पहनी जा सकती है, जिसे आप शर्ट या फौर्मल टौप के साथ पहन सकती हैं.

फौर्मल शर्ट्स के लिए बैस्ट कलर्स

फौर्मल शर्ट्स के लिए बैस्ट कलर है सफेद. आप के पास 1-2 सफेद शर्ट जरूर होनी चाहिए. इस के अलावा एक काली, एक ग्रे, एक नेवी ब्लू, एक औलिव ग्रीन कलर की शर्ट भी अपनी वाडरोब में जरूर रखें. आजकल पेस्टल शेड्स भी फौर्मल शर्ट में बहुत फैशन में हैं. आप उन्हें भी ट्राई कर सकती हैं.

औफिस में क्या न पहनें

टीशर्ट, फैंसी टौप, डैनिम या अन्य फैब्रिक्स की बनी छोटी स्कर्ट्स, मिनी ड्रैस आदि को औफिस में न पहनें, क्योंकि ये सभी ड्रैसेज आप को बहुत ही कैजुअल लुक देंगी. साथ ही औफिस में काम करने के लिए आरामदायक व सुविधाजनक भी नहीं होतीं. औफिस में आप का लुक फौर्मल ही होना चाहिए. कुछ औफिशियल मौकों पर आप वन पीस ड्रैस जोकि ट्यूनिक स्टाइल में हो, पहन सकती हैं.

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