घरों के बाहर पार्किंग की समस्या का हल खोजने के बजाय दिल्ली नगर निगम उस पर शुल्क लगाने का विचार कर रहा है. आज अगर दिल्ली इस में सफल होती है तो कल दूसरे शहर भी ऐसा करेंगे. आज कारों पर शुल्क लगाया गया तो कल बाइकों और फिर साइकिलों पर भी लगेगा. सरकार छोटे टैक्स से शुरुआत करती है और फिर उसे भारीभरकम बनाती जाती है.
घर के बाहर की सड़क सार्वजनिक है और इस का उपयोग एक घर के लोग अपनी गाडि़यों के लिए करें, यह अटपटा लग सकता है पर वास्तविकता यह है कि जब शहर की कालोनियों के नक्शे बनते हैं तभी सड़कों के किनारे की जगह की कीमत अलौट की गई जमीन के दाम में जोड़ ली जाती है. 200 गज के प्लौट के सामने 3 फुट जगह सड़क के किनारे प्लौट मालिक की होती है उस के सार्वजनिक उपयोग के लिए.
घरों के आगे गाडि़यों की समस्याएं उग्र अगर हो रही हैं तो इसलिए कि सरकारों, निगमों ने सड़कों को दुहना तो शुरू कर दिया है पर, हिंदुओं की गायों की तरह, उन्हें संवारना उन का काम नहीं है. शहरभर में सड़कों के किनारे पटरियों पर जमे सीवर, मलबा, दुकानें, दुकानों का सामान, बिजली के आड़ेतिरछे खंभे, बोर्ड, होर्डिंग्स लगे रहते हैं. अगर इन्हीं को दुरुस्त कर दिया जाए तो दिल्ली जैसे शहर की पार्किंग की व्यवस्था सुधर जाए.
लोगों के लिए गाड़ी अब लक्जरी नहीं, निसेसिटी है. हर घर में हर गाड़ी पर 5 से 25 लाख रुपए तक खर्च यों ही दिखावे के लिए नहीं किया जाता. शहर बड़े हो गए हैं, कालोनियां भी बड़ी हो गई हैं. उन पर अकेले रातबिरात चलना सरकार सुरक्षित नहीं कर सकती. ऐसे में लोगों को गाड़ी की सुरक्षा का सहारा लेना पड़ता है.