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मैच के दौरान अपने खास दोस्त का सर दबाते दिखें विराट कोहली

गेंदबाजों के संघर्ष भरे प्रदर्शन के दम पर भारतीय क्रिकेट टीम ने शनिवार (24 फरवरी) को न्यूलैंड्स क्रिकेट स्टेडियम में खेले गए रोमांचक टी-20 मैच में दक्षिण अफ्रीका को सात रन से हरा दिया. इस जीत के साथ ही भारत ने तीन टी-20 मैचों की सीरीज पर 2-1 से अपने नाम कर ली. टौस हारकर पहले बल्लेबाजी करने उतरी भारतीय टीम ने निर्धारित 20 ओवरों में दक्षिण अफ्रीका को 173 रनों का लक्ष्य दिया था, जिसे हासिल करने में मेजबान टीम केवल सात रनों से चूक गई.

भारत ने 7 विकेट पर 172 रन बनाए, जवाब में दक्षिण अफ्रीकी टीम 20 ओवर में छह विकेट पर 165 रन ही बना सकी. टेस्ट सीरीज गंवाने के बाद वनडे सीरीज जीतने वाली भारतीय टीम ने इस जीत के साथ ही 8 सप्ताह के दौरे का शानदार अंत किया.

केपटाउन में खेले गए तीसरे टी-20 मैच में पीठ की मांसपेशियों में खिंचाव के चलते कप्तान विराट कोहली टीम से बाहर थे. कोहली की जगह टीम की कमान रोहित शर्मा के हाथों में थी. भले ही मैदान पर उतर कर विराट खेल नहीं पाए, लेकिन पवेलियन में भी वह पूरी तरह उर्जा से भरपूर दिखाई दिए.

जब मैच अपने आखिरी दौर पर था, उस दौरान विराट कोहली और शिखर धवन का एक प्यारा सा मूमेंट कैमरे में कैद हो गया. भारतीय पारी के 19.4 ओवर में विराट कोहली, अपने सबसे ‘खास’ दोस्त शिखर धवन के सिर को दबाते हुए कैमरे में कैद हुए. 9.4 ओवर में 168 के स्कोर पर दिनेश कार्तिक के रूप में भारत का 7वां विकेट गिरा. इसी दौरान जब कैमरा भारतीय ड्रेसिंग रूम की तरफ घूमा तो विराट, शिखर की मसाज करते हुए दिखाई दिए.

सोशल मीडिया पर कुछ फैन्स ने विराट और शिखर के इस स्पेशल मूमेंट और दोस्ती पर अपना रिएक्शन भी दिया और विराट-शिखर की तस्वीरें-वीडियो भी शेयर किए.

यह कोई पहला मौका नहीं है, जब मैदान से दूर होकर भी कप्तान विराट कोहली ने अपने टीम के साथियों के लिए कुछ किया है. 2017 में औस्ट्रेलिया के खिलाफ टेस्ट सीरीज के दौरान धर्मशाला टेस्ट में चोट की वजह से विराट नहीं खेल पाए थे. इस दौरान भी विराट खुद को अपनी टीम से दूर नहीं रख पाए और मौका मिलते ही पानी लेकर मैदान पर जा पहुंचे.

इस मैच के दौरान 12वें खिलाड़ी बने विराट कोहली अपने साथी खिलाड़ियों को पानी और ड्रिंक्स पिलाते नजर आए थें.

बता दें कि भारत ने अपने दक्षिण अफ्रीका दौरे की शुरुआत इसी मैदान पर टेस्ट मैच में हार के साथ की थी लेकिन दौरे का अंत जीत के साथ किया. भारत ने टेस्ट सीरीज 1-2 से गंवाने के बाद जोरदार वापसी करते हुए वनडे सीरीज 5-1 से जीती और फिर टी-20 सीरीज भी अपने नाम की.

13 अंको का नहीं होगा आपका मोबाईल नंबर, जानें विस्तार से

हाल ही में यह खबर ट्रेंड में थी कि आपका मोबाइल नंबर जल्द ही बदलने वाला है. इस खबर में दावा किया जा रहा था कि अब मोबाइल नंबर 10 अंकों का नहीं बल्कि 13 अंकों के साथ आएंगे. इस खबर में यह भी बताया जा रहा था कि 1 जुलाई 2018 के बाद नया नंबर लेने पर 13 अंक वाला मोबाइल नंबर मिलेगा. लेकिन यह खबर पूरी तरह सही नहीं है.

सही जानकारी यह है कि सिम आधारित मशीनों के बीच (एम2एम) संवाद के लिए जल्द ही 13 अंकों की नई नंबर सीरीज को इस्तेमाल किया जाएगा. इसका इस्तेमाल इंटरनेट के जरिए निगरानी कैमरे और कार ट्रेकिंग जैसे विभिन्न उपकरणों के नियंत्रण के लिए किया जा सकेगा. हालांकि, मोबाइल नंबरों के लिए 10 अंकों की मौजूदा व्यवस्था ही कायम रहेगी.

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एम2एम संवाद में इस्तेमाल होगा

ऐसा माना जाता है कि दूरसंचार विभाग ने भारत संचार निगम (बीएसएनएल) सहित अन्य कंपनियों को सूचित किया है कि 13 अंकों की नंब​र सीरीज का इस्तेमाल मशीन टु मशीन (एम2एम) संवाद में किया जाएगा. एम2एम संवाद में जहां 13 अंकों वाली नंबर योजना का उपयोग एक जुलाई 2018 से होगा वहीं मोबाइल फोन नंबरों के लिए 10 अंकों की मौजूदा व्यवस्था कायम रहेगी.

एक जुलाई 2018 से लागू होगा

बीएसएनएल ने अपने उपकरण वेंडरों को हाल ही में भेजे गए एक पत्र में कहा है कि दूरसंचार विभाग द्वारा बुलाई गई बैठक में यह फैसला किया गया कि 13 अंकों की एम2एम नंबर योजना का कार्यान्वयन एक जुलाई 2018 से किया जाएगा. इससे पहले दावा किया जा रहा था कि बैठक में कहा गया कि 10 अंकों के लेवल में अब नए मोबाइल नंबरों की गुंजाइश नहीं बची है. इसी कारण 10 से अधिक अंकों की सीरीज शुरू की जाए और बाद में सभी मोबाइल नंबरों को 13 अंकों का कर दिया जाए.

इस खबर के बार यह माना जा रहा था कि मोबाइल नंबर की नई सीरीज आने से सभी सेवाप्रदाता कंपनियों को अपना सिस्टम अपडेट करना होगा. यह भी दावा किया गया था कि इस संबध में मोबाइल हैंडसेट बनाने वाली कंपनियों को भी निर्देश दिए गए हैं कि वे अपने सौफ्टवेयर को 13 अंकों के मोबाइल नंबर के अनुसार अपडेट कर लें, ताकि उपभोक्ताओं को परेशानी न हो.

1 अप्रैल से पहले इन सेवाओं से करलें अपने आधार को लिंक

तमाम सेवाओं और योजनाओं से आधार लिंक कराने का मामला फिलहाल सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है. लेकिन, कोर्ट ने आधार कार्ड को मोबाइल नंबर और बैंक अकाउंट से लिंक कराने की अंतिम तारीख बढ़ाने से मना कर दिया है. इसलिए बैंक अकाउंट, मोबाइल नंबर और अन्य जरूरी योजनाओं को आधार से जोड़ना जरूरी हो गया है.

ऐसा नहीं करने पर 31 मार्च 2018 के बाद सभी सेवाएं बंद हो जाएंगी. वर्तमान में करीब 139 ऐसी सेवाएं हैं जिनके साथ आधार लिंक करना जरूरी है. दरअसल, दिसंबर 2017 में तमाम मंत्रालयों ने 139 सेवाओं से आधार लिंक करने को लेकर एक सर्कुलर जारी किया था. जब तक इस मामले में आखिरी फैसला नहीं आ जाता है, तब तक मंत्रालयों की तरफ से जारी किया गया सर्कुलर को मानना जरूरी है. जो लोग आधार की अनिवार्यता का विरोध कर रहे हैं वे इसे प्राइवेसी के खिलाफ मानते हैं. बीते कुछ सालों में आधार कार्ड का दबदबा इतना बढ़ा है कि इसने लोगों की जिंदगी को प्रभावित करना शुरू कर दिया है.

आधार कार्ड से नहीं जोड़ने पर ये सेवाएं बंद हो जाएंगी

मोबाइल नंबर: अगर आपने मोबाइल नंबर को आधार से नहीं जोड़ा है तो 31 मार्च के बाद मोबाइल नंबर काम करना बंद कर देगा. टेलीकौम कंपनियों ने प्रीपेड मोबाइल नंबर को आधार से जोड़ने के लिए 14546 टोल फ्री नंबर जारी किया है. इस नंबर पर नाम, नंबर और जन्मतिथि जैसी जानकारियां देनी होंगी. पोस्ट पेड यूजर्स को अपने सर्विस प्रोवाइडर के पास जाना होगा. वहां आपके फिंगर प्रिंट के जरिए मोबाइल नंबर को आधार से जोड़ा जाएगा.

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बैंक अकाउंट्स: बैंक अकाउंट्स  को भी आधार से जोड़ना जरूरी है. ये काम आप औनलाइन और बैंक जाकर कर सकते हैं. कई बैंक ATM के जरिए आधार जोड़ने की सुविधा दे रहे हैं. आधार नंबर से जोड़ने के लिए डेबिट कार्ड को ATM मशीन में पहले स्वाइप करें. पासवर्ड डालने के बाद आपको सर्विस रजिस्ट्रेशन वाले औप्शन में जाना होगा. सर्विस रजिस्ट्रेशन में आधार कार्ड रजिस्ट्रेशन का औप्शन है जिसे सिलेक्ट कर आप आधार से बैंक अकाउंट को जोड़ सकते हैं.

डेबिट/ क्रेडिट कार्ड: अगर आपका क्रेडिट और डेबिट कार्ड आधार से नहीं जुड़ा है तो कस्टमर केयर के जरिए इसे जोड़ सकते हैं. कस्टमर केयर आपके द्वारा दी गई जानकारी को वेरीफाई करेगा और आपके डेबिट/ क्रेडिट कार्ड को आधार से जोड़ देगा. यह काम संबंधित बैंक ब्रांच में जाकर भी किया जा सकता है. अगर आपने अपने डेबिट और क्रेडिट कार्ड को नहीं जोड़ा तो 31 मार्च के बाद कार्ड बंद हो जाएंगे.

पीएफ: पीएफ को भी आधार से जोड़ना जरूरी है. अगर आपका पीएफ अकाउंट आधार से नहीं जुड़ा है तो पीएफ की वेबसाइट पर जाकर लौगिन करें. जरूरी जानकारी देने के बाद आधार को जोड़ा जा सकता है.

म्यूचुअल फंड: म्यूचुअल फंड को भी आधार कार्ड से जोड़ना जरूरी है. आप जिस फंड हाउस से म्यूचुअल फंड ले रहे हैं उसे आधार से जोड़ना होगा. आपके पासे जितने भी फंड हाउस हैं सभी को आधार से जोड़ना जरूरी है.

बीमा पौलिसी: बीमा पौलिसी को भी आधार से जोड़ना जरूरी कर दिया गया है. अगर बीमा पौलिसी आधार से नहीं जुड़ा है तो बीमा कंपनी की वेबसाइट पर जाकर इसे जोड़ सकते हैं. तमाम बीमा कंपनियां औनलाइन आधार जोड़ने की सेवा दे रहे हैं.

रसोई गैस: अगर आपने रसोई गैस को आधार से नहीं जोड़ा है तो आपको सब्सिडी का लाभ नहीं मिलेगा. आधार से जोड़ने के लिए आप गैस डीलर से संपर्क कर सकते हैं. या फिर, रजिस्टर्ड मोबाइल नंबर से गैस कंपनी को फोन करें, उसमें आधार नंबर जोड़ने का औप्शन आता है.

राशन कार्ड: राशन कार्ड के लिए भी आधार जरूरी है. अगर आपका राशन कार्ड आधार से नहीं जुड़ा है तो आप सार्वजनिक वितरण प्रणाली की दुकान पर जाकर आधार कार्ड की कौपी दे सकते हैं.

सरकार की कई ऐसी योजनाएं हैं जो पोस्ट औफिस द्वारा संचालित हो रही हैं. इन योजनाओं का लाभ जारी रखने के लिए भी आधार से जोड़ना जरूरी है. अगर कोई ज्वाइंट पौलिसी है तो दोनों के आधार नंबर जरूरी हैं.

पैन कार्ड: पैन कार्ड को भी आधार से जोड़ना जरूरी है. अगर आपका पैन कार्ड आधार से नहीं जुड़ा है तो इनकम टैक्स की वेबसाइट पर जाकर आधार से जोड़ सकते हैं. वेबसाइट पर जाने के बाद आपसे आधार कार्ड और पैन कार्ड डिटेल्स पूछे जाएंगे. यह प्रक्रिया पूरी करने के बाद आपका आधार, पैन से जुड़ जाएगा.

ड्राइविंग लाइसेंस: ड्राइविंग लाइसेंस को भी आधार से जोड़ना जरूरी कर दिया गया है. जो लाइसेंस पुराने हैं वे मान्य होंगे लेकिन हाल में जारी किए गए लाइसेंस को आधार से जोड़ना जरूरी है. नया लाइसेंस जारी करने के लिए जरूरी दस्तावेजों में आधार को शामिल किया गया है. अगर आप कोई गाड़ी खरीदते हैं उसके लिए भी आधार जरूरी है.

हालांकि जनधन खाते को आधार से जोड़ना जरूरी नहीं है. हर किसी का बैंक अकाउंट हो इसके लिए पीएम मोदी ने जनधन योजना की शुरुआत की थी. जनधन अकाउंट में 50 हजार रुपए से ज्यादा नहीं जमा कर सकते हैं.

बेवजह नहीं चुंबन सीन : इशिता दत्ता

तेलुगु फिल्म से अपने कैरियर की शुरुआत करने वाली हीरोइन इशिता दत्ता की बचपन से इच्छा थी कि उन्हें ऐक्टिंग करने का मौका मिले और यह प्रेरणा उन्हें अपनी हीरोइन बहन तनुश्री दत्ता से मिली जो उन्हें हमेशा अपनी इच्छा से जुडे़ काम करने की सलाह दिया करती थीं. इतना ही नहीं, आज भी किसी काम को करने से पहले इशिता अपनी बहन की राय जरूर लेती हैं.

झारखंड के जमशेदपुर शहर की रहने वाली इशिता दत्ता अभी अपने मातापिता के साथ मुंबई में रहती हैं. हाल ही में उन की फिल्म ‘फिरंगी’ बड़े परदे पर आई है. पेश हैं, उन से हुई बातचीत के खास अंश :

फिल्म ‘फिरंगी’ को करने की क्या वजह थी?

इस से पहले मैं ने हिंदी फिल्म ‘दृश्यम’ की थी. इस फिल्म में मैं ने अजय देवगन की बेटी का किरदार निभाया था. उस फिल्म में कास्टिंग डायरैक्टर विकी सदाना ने मेरी कास्टिंग कराई थी. फिल्म ‘फिरंगी’ में भी उन्होंने मुझे मेरे किरदार के बारे में बताया और औडीशन के लिए तैयार होने को कहा. कई औडीशन के बाद मैं चुनी गई.

जब मैं इस फिल्म की टीम से मिली तो पहली मुलाकात में इस की कहानी मुझे रोचक लगी. साथ ही, इतने दिनों तक बे्रक के बाद मुझे एक अच्छी फिल्म करने का औफर मिल रहा था जो बड़ी बात थी.

इस से पहले आप ने टैलीविजन में भी काम किया है. टैलीविजन से फिल्मों में आना कैसे हुआ? आप दोनों में क्या फर्क महसूस करती हैं?

दरअसल, मैं ने पहले फिल्म और उस के बाद टैलीविजन में काम किया है. फिल्म ‘दृश्यम’ के बाद मुझे हर कोई वैसी ही छोटी लड़की के किरदार निभाने का औफर दे रहा था और मुझे वैसा काम नहीं करना था इसलिए मैं मना करती रही. उसी दौरान मुझे टैलीविजन सीरियल ‘एक घर बनाऊंगा’ का औफर मिला. वह मुझे पसंद आया औैर मैं ने कर लिया.

मुझे काम करते रहना पसंद है. मैं घर बैठ कर समय को बरबाद नहीं करना चाहती थी.

आजकल फिल्म से टीवी और टीवी से फिल्मों में आना आम बात है. बडे़बड़े कलाकार भी टीवी पर आ रहे हैं. इस के अलावा आजकल टीवी की शूटिंग फिल्मों के जैसे ही हो रही है. टीवी में समय की कमी की वजह से काम बहुत ज्यादा होता है जबकि फिल्म में काम आराम से होता है.

क्या ऐक्टिंग करना एक इत्तिफाक था या बचपन से इच्छा थी?

मेरे लिए ऐक्टिंग जौब नहीं बल्कि एक इच्छा थी. मेरी बहन ने इस बात पर बल दिया और मैं इस क्षेत्र में चली आई. मैं ने मास मीडिया में पढ़ाई पूरी करने के बाद कई जगहों पर अपना पोर्टफोलियो भेजा और मुझे पहले तेलुगु फिल्म में काम करने का मौका मिला. यहीं से मेरे अंदर प्रेरणा जगी और अब मैं इस क्षेत्र में अच्छा काम करना चाहती हूं.

मेरे कैरियर की सपोर्ट सिस्टम मेरी दीदी ही हैं. उन्होंने मुझे फिल्म इंडस्ट्री की बारीकियों को समझाया है. दीदी कहती हैं कि जब भी कोई काम करने की इच्छा हो तो उसे कर लेना चाहिए ताकि बाद में अफसोस न हो.

यहां तक पहुंचने में परिवार का सहयोग कितना रहा?

उन्होंने बहुत सहयोग दिया है, जमशेदपुर से वे मुंबई रहने चले आए ताकि हमें सुविधा हो. मैं ने हमेशा काम के साथ परिवार का बैलैंस रखा है. फुरसत मिलते ही उन के साथ समय बिताना पसंद करती हूं. काम मेरे ऊपर इतना हावी नहीं होता है कि मैं परिवार और दोस्तों को भूल जाऊं इसलिए मुझे कभी तनाव नहीं होता.

फिल्मों में चुंबन सीन करने में आप कितनी सहज होती हैं?

अभी तक तो मैं ने कोई फिल्म ऐसी नहीं की है. लेकिन स्क्रिप्ट की जरूरत पर करना पडे़गा. पर मैं सहज नहीं हूं. ग्लैमर के लिए मैं ऐसे सीन नहीं कर सकती.

आगे किस तरह की फिल्में करने की इच्छा रखती हैं?

मैं ने अभी तो शुरुआत की है. मेरी एक ऐक्शन फिल्म करने की इच्छा है. मैं इम्तियाज अली के डायरैक्शन में बनी फिल्म करना चाहती हूं.

आप कितना फैशनेबल हैं? आप को किस तरह का खानपान पसंद है?

बंगाली हूं और हर तरह का खाना पसंद करती हूं. मिठाई खूब पसंद हैं. समय मिले तो खाना भी बना लेती हूं. मैं चिकन बिरयानी और आइसक्रीम बना लेती हूं. कंफर्ट लैवल को ध्यान में रख कर ड्रैस पहनती हूं. मैं इंडियन और वैस्टर्न हर तरह की पोशाक पहनती हूं. मुझे चटकीले रंग के कपड़े पसंद हैं जिस में पीला रंग मेरा पसंदीदा है.

मेकअप कितना पसंद करती हैं?

पहले मुझे मेकअप का शौक था, पर अब नहीं है क्योंकि हमेशा लगाना पड़ता है. रात को सोने से पहले अच्छी तरह से मेकअप उतारना नहीं भूलती.

आप खाली समय में क्या करना पसंद करती हैं?

मुझे पालतू जानवरों से बहुत लगाव है. मेरे पास एक डौगी है जिस का नाम मैं ने हैप्पी रखा है. उस के साथ मैं खेलती हूं. जब भी मैं काम से घर लौटती हूं तो वह मेरा स्वागत खुशी से करता है. उसे देखते ही मेरी थकान दूर हो जाती है.

इस के अलावा मैं अपना खाली समय दोस्तों और अपने परिवार के साथ बिताती हूं.

 

नौकरी के लाले और देश में बेरोजगारी का आलम

देश में बेरोजगारी का आलम यह है कि पक्की ठीकठाक लंबी नौकरी देने वाली सेना की भरती पर आमतौर पर हर जगह धक्कामुक्की तो होती ही है, अकसर लाठीचार्ज होता है, पुलिस बंदोबस्त करना पड़ता है और कई दफा इस दौरान एकदो मौतें हो जाती हैं. सासाराम, बिहार में मिलिटरी पोलिस कंपाउंड में घुसने के समय भीड़ में कुचलने से 1 की मौत हो गई और 4 बुरी तरह घायल हो गए.

यह 6000 की भीड़ सर्दियों के दिनों में सुबह 3 बजे देशभक्ति के जज्बे की वजह से रिक्रूटमैंट सैंटर पर नहीं खड़ी थी. यह तो एक ऐसी नौकरी पाना चाहती थी जिस में खाने, पीने, रहने, कपड़ों, घूमने के साथ एक अच्छी पगार भी मिलती हो.

देश के गांवोंकसबों में आज जो मारामारी सरकारी नौकरियों की है वह साफ जाहिर करती है कि देश का माहौल ऐसा है कि अपनी मेहनत के बलबूते पर अच्छी जिंदगी बिताना हरेक के बस का नहीं. सरकार नौकरियां देने के कितने वादे करती रहे, असल यही है कि आज न खेतों में नौकरियां हैं, न कारखानों में, न दुकानों में और न दफ्तरों में.

यह देश की असल आर्थिक स्थिति की पोल तो खोलती ही है, यह भी साबित करती है कि अपनी मनचाही नौकरी पाना अब मुश्किल होता जा रहा है. यहां के लोगों को अपने पर इतना कम भरोसा है कि वे पक्की सरकारी नौकरी ही लपकना चाहते हैं जिस में काम कम हो, वेतन ठीकठाक, पर यदि ऊपरी कमाई हो तो पौबारह. अगर राजस्थान में चपरासी की नौकरी के लिए इंजीनियर परचा भरते हैं और विधायक का बेटा ही सिफारिश के बलबूते पर नौकरी पाता है. इस पर चौंकने की जरूरत नहीं. यह तो होना ही है.

यहां मुफ्त की रोटियों को बड़ी इज्जत मिलती है. समाज पंडोंमुल्लाओं को सिरआंखों पर रखता है. जो न एक तिनका उगाते हैं और न एक पैसे का सामान बनाते हैं या बेचते हैं. काम करने वालों को तो यहां शूद्र और अछूत कहा जाता रहा है और आरक्षण के बलबूते उन्हें कुछ लाख सरकारी नौकरियां ही मिली हैं, जबकि उन की गिनती पूरी जनसंख्या में 80-85 फीसदी है. बाकी 10-15 फीसदी से आने वालों ने ही सरकारी नौकरियों पर कब्जा कर रखा है और इसीलिए सब से निचली रैंक के लिए हो रही भरती पर हर जगह हजारों जमा हो जाते हैं.

यह देश के लिए परेशानी की बात होनी चाहिए. दूसरे कई देशों में सदियों तक सेना में भरती के लिए जबरदस्ती की जाती थी पर यहां हमेशा ही इसे नियामत समझा गया है क्योंकि इस में पैसा, परमानैंसी और पौवर तीनों हैं. यह बेरोजगारी का हल नहीं है, यह बदन पर हर जगह बहते नासूरों को मैले कपड़ों से ढकना भर है.

जातिवाद में सुलगता देश और जाति के खुले घावों से कराहते लोग

देश के गांवदेहातों में ही नहीं कसबों और शहरों की गरीब बस्तियों में भी पढ़ाईलिखाई, साथ नौकरियां करने, साथ चलने के बावजूद जाति और धर्म के भेद आज भी 100 साल पुराने लगते हैं. गुजरात चुनावों में अगर जाति का भूत बोतल से फिर बाहर निकल कर आता दिखा तो सिर्फ इसलिए कि नरेंद्र मोदी और उन की भारतीय जनता पार्टी को लगा कि विकास के मुद्दों पर जिन ऊपरी जातियों को इकट्ठा किया था, वे छिटक रही हैं और राहुल गांधी पर हिंदू धर्म विरोधी यानी जाति को भड़काने का आरोप लगा दो.

राहुल गांधी ने खुद तो कुछ नहीं कहा पर भाजपा समर्थक मीडिया ने इतना कुछ कांग्रेसियों के मुंह से निकलवा लिया कि जाति का सवाल देशभर में सुलगने लगा है. थोड़े ऊंचे पाटीदारों और बहुत नीचे दलितों का साथ हो जाना बहुत ऊंचों को अपनी सत्ता पर हमला दिखा है और इसीलिए जब महाराष्ट्र में भीमा कोरेगांव में दलितों की एक जाति महार के लाखों लोग पेशवाओं की हार की 200वीं बरसी मनाने पहुंचे तो ऊंची जातियोें का गुस्सा भड़क उठा.

गुजरात, उत्तर प्रदेश, बिहार पहले से जाति के खुले घावों से कराह रहे हैं. अन्य राज्यों में यह कैंसर है पर छिपा है और पीढ़ी दर पीढ़ी चला आ रहा है. यह जिंदगी का हिस्सा है जहां घाव की चीराफाड़ी होने लगी है. लोग समझने लगे हैं कि उन के घावों को कुरेद कर उन्हें काम करने, वह भी लगभग मुफ्त में, मजबूर करा जा रहा है तो आज जो अकेली जबान उन्हें मिली है, वोट की जबान, का इस्तेमाल करने लगे हैं.

भीमा कोरेगांव देश के हर हिस्से में हर रोज छोटे पैमाने पर दोहराया जाता है. इस के समाचार नहीं बनते क्योंकि यह आम बात मानी जाती है. कांग्रेस की खूबी थी कि उस ने बरसों इस की दवा ढूंढ़ रखी थी, ऐसी अफीम जिसे खा कर वे चुप हो जाते थे. भाजपा के पास इस की दवा मंदिर हैं जहां इन्हें अंदर आने की इजाजत दे कर मगर अलग कतार में खड़ा कर बेइज्जत कर के भिखारियों की तरह 2 दाने दे दिए जाते हैं. चूंकि मंदिर में जगह मिल रही थी, दलित सोच रहे थे कि उन का भी भगवान कल्याण करेंगे. पर जहां मंदिर ऊंची जातियों के दूसरों से बेहतर पैदायशी होने के सुबूत बन गए, दलितोंपिछड़ों के नीचे होने का अहसास बढ़ाते गए.

जिन पिछड़ों व दलितों ने केसरिया दुपट्टा पहना था वे अब दुविधा में हैं कि वे किस राह पर चलें? उन के कल के नेता जगजीवन राम, कांशीराम, उदित राज, मायावती, रामविलास पासवान थे पर सब सत्ता सुख भोगने में लग गए, पूरियों की टुकड़न से मुंह बंद कर दिया गया उन का. अब जिग्नेश मेवाणी, चंद्रशेखर आजाद जैसे नेता निकल रहे हैं.

बजाय जाति भेद को पैदा होने से रोकने के, ऊंची जातियों का रवैया बड़ा दोगलापन लिए है. वे अपने नाम के आगे जाति लगाते हैं, कुंडली बनवाते हैं, मंदिरों में हजारों का दान करते हैं, जाति में शादी करते हैं पर आरक्षण पर हल्ला मचाते हैं, जिग्नेश मेवाणी और चंद्रशेखर आजाद पर जातिवादी होने का दोष मढ़ते हैं.

जाति तब खत्म होगी जब नीची जातियों को थोड़ा पैसा मिलेगा. उन्हें काम, काम के बदले दाम और इज्जत से नाम तीनों चाहिए. ये तीनों ऊंची जातियां देने को तैयार नहीं हैं– न पहले थीं, न आगे रहेंगी. ये हल्ले होते रहेंगे. दलित नेताओं को कानून और डंडों के साथ बासी पूरी दे कर चुप कराया जाता रहेगा. भीमा कोरेगांव के बाद उफना तूफान ठंडी होती आग पर चढ़ा पानी है जो एक उबाल के बाद ठंडा हो जाएगा.

श्रीदेवी : चार शिफ्ट में चार फिल्में और चारों हिट

जन्म और मृत्यु शाश्वत सत्य है. जो इस संसार में आया है, उसका जाना भी तय है. मगर कुछ लोग इस संसार से विदा लेने के बाद भी अपने कर्मों से ऐसी अमिट छाप छोड़ जाते हैं, जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकता. ऐसे ही लोगों में चार दशक तक बौलीवुड में राज करने वाली अदाकारा व एकमात्र महिला सुपर स्टार श्रीदेवी भी हैं, जो कि सदैव अपने प्रशंसकों के दिलों में जीवित रहेंगी.

श्रीदेवी महज एक अभिनेत्री ही नहीं, बल्कि एक बेहतरीन नृत्यांगना और बेहतरीन पेंटर भी थीं. वर्तमान समय के कलाकार फिल्म में और अपने अभिनय में परफैक्शन की बात कर हर साल सिर्फ एक ही फिल्म में अभिनय करते हैं. इसके बावजूद इनकी फिल्में बौक्स औफिस पर फ्लौप हो जाती हैं.

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जबकि श्रीदेवी ने अपने समय में एक साथ चार शिफ्टों में काम करते हुए चार चार फिल्मों की एक साथ शूटिंग की थी और उनकी यह चारों फिल्में सुपर हिट रही थी. खुद इस बात को श्रीदेवी ने कबूल करते हुए हमसे कहा था – ‘‘आज की तारीख में जिस ढंग से काम होता है, उस तरह का काम करने में इंज्वौयमेंट ज्यादा है. परफैक्शन की जो भूख है, उससे कलाकार को भी काम करने में इंज्वौयमेंट आता है.

जब मैं फिल्म ‘नगीना’ कर रही थी, उस वक्त मैंने एक साथ तीन नहीं बल्कि चार शिफ्टों में काम किया है. अब उस तरह से कोई कलाकार काम नही कर सकता. यह अच्छी बात है. मैंने ‘नगीना’ के साथ साथ ‘मिस्टर इंडिया’ के अलावा दो और फिल्मों की एक साथ शूटिंग की थी और यह सभी फिल्म सुपरहिट हुई थीं.’’

श्रीदेवी के बचपन का यह सपना रह गया अधूरा

हर इंसान के अपने कुछ सपने होते हैं, जिन्हें वह चाहकर भी पूरा नहीं कर पाता है. श्रीदेवी अपने समय की मशहूर अदाकारा थीं. उनके पास सुख सुविधा व हर तरह के साधन मौजूद थें, पर 54 साल की उम्र में मौत को गले लगा लेने के साथ ही उनका यह सपना अधूरा रह गया.

अपने इस अधूरे सपने को लेकर लगभग आठ माह पहले श्रीदेवी ने हमसे कहा था -‘‘बचपन से मुझे पेंटिंग्स का शौक रहा है. मैं हमेशा पेंटिंग्स करना चाहती थी. पेंटिंग्स मेरा पैशन भी रहा है. लेकिन कुछ वजहों से मैंने पेंटिंग्स करना छोड़ दिया था.

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लेकिन शादी के बाद जब मैंने अपने बच्चों का होमवर्क करवाना शुरु किया, तो उनके लिए मैं ड्रौइंग बनाती थी. मेरी बेटियों ने कहा कि मम्मा आप तो बहुत अच्छी ड्रौइंग कर लेती हैं. आपको तो पेटिंग बनानी चाहिए.

तब मैंने फिर से पेटिंग्स बनाना शुरू किया. मेरी एक पेंटिंग अमरीका के न्यूयौर्क शहर की एक आर्ट गैलरी में खरीद कर रखी गई है. मैंने बहुत पेंटिंग्स बनाई हैं. लेकिन कुछ साल बाद मैंने फिर पेंटिग बनाना छोड़ दिया. तो यह मेरा एक सपना है, जिसे मैं पूरा करना चाहती हूं. मैं चाहती हूं कि नए सिरे से अच्छी पेंटिंग बनाना शुरू करूं.

मैं अपनी पेंटिंग की प्रदर्शनी भी लगाना चाहती हूं. पेंटिंग्स के बिकने से जो पैसा मिले, उससे चैरिटी करना चाहती हूं. मैंने जो भी पेंटिंग बनायी हैं, वह सारी मूड पर हैं. कुछ पेंटिंग्स मेडीटेशन को लेकर हैं. कुछ पेंटिंग शाम के मूड पर हैं.’’

सवासवाई का जंजाल, पाखंडी हो रहे मालामाल

राहुल को इस इंटरव्यू कौल का बेसब्री से इंतजार था. करीब 2 सालों की मेहनत… पहले प्री फिर मेन ऐग्जाम और अब अंतिम सीढ़ी यानी इंटरव्यू. 15 दिनों से राहुल इस इंटरव्यू की तैयारी में जुटा था.

सुबहसुबह तैयार हो कर राहुल इंटरव्यू के लिए निकलने को हुआ तो दादी ने टोक दिया, ‘‘10 मिनट रुक जा. घर से सवा 8 बजे निकलना. तेरा काम सवाया होगा.’’

‘‘मगर दादी बस तो सवा 8 बजे तक निकल जाएगी,’’ राहुल को दादी का टोकना अच्छा नहीं लगा.

‘‘कोई बात नहीं, तू टैक्सी कर लेना,’’ दादी जिद पर अड़ गईं तो हार कर राहुल को सवा 8 बजे ही निकलना पड़ा. टैक्सी से निकला तो रास्ते में टैक्सी खराब हो गई और साथ ही उस का मूड भी. दूसरी टैक्सी लेने के चक्कर में लेट हो गया और अंत में हुआ यह कि उस का आत्मविश्वास कमजोर हो गया. इंटरव्यू के दौरान पूछे गए सवालों के सही जवाब आते हुए भी नहीं दे पाने के कारण उस का इंटरव्यू खराब हो गया. जिस नौकरी के लिए वह इतनी मेहनत से तैयारी कर रहा था वह उसे हाथ से निकलती लगी.

घर लौटते ही राहुल के लटके चेहरे ने सारी कहानी बिना कहे ही सुना दी. मगर दादी अब भी कहां हार मानने वाले थी. तुरंत बोलीं, ‘‘तू फिक्र मत कर. मैं ने बालाजी की सवामनी बोल दी है, देखना यह नौकरी तुझे ही मिलेगी और तेरी पहली तनख्वाह से मैं पैदल जा कर बालाजी को भोग लगा कर आऊंगी.’’

राहुल झुंझला गया. बोला, ‘‘दादी, अगर सवामनी से ही नौकरियां मिलने लगें तो लोग कोचिंग में महंगी फीस देने के बजाय मंदिरों में सवामनी ही करने लगें.’’

हम यहां पाठकों को बताना चाहेंगे कि मारवाड़ी समाज में सवामनी एक बहुत ही प्रचलित शब्द है, जिस का तात्पर्य है, मन्नत पूरी होने पर अपने ईष्ट देव को सवा मन (लगभग 50 किलोग्राम) मिष्ठान्न का भोग लगाना.

यह तो सिर्फ एक छोटा सा उदाहरण है सवाई पर अंधविश्वास का. अकसर कहते हैं कि काम होने पर सवा रुपए का प्रसाद चढ़ाऊंगा. अकसर शुभकार्यों में शगुन का लिफाफा देते हुए भी नोटबंदी से पहले तक 51, 101, 501 आदि का चलन था. इस तरह के लिफाफे बनाने वाली कई कंपनियां तो लिफाफे  के ऊपर ही क्व1 का सिक्का तक चिपका देती हैं.

सावन के महीने में अकसर विभिन्न स्थानीय समाचारपत्रों में शिवभक्तों द्वारा सवा लाख शिवलिंगों के अभिषेक के समाचार पढ़ने में आते हैं.

मेरे एक परिचित की बेटी को लड़के वाले देखने आए थे. जैसे ही लड़के की मां ने कहा कि लड़की को ले आएं तो उन के साथ आए पंडितजी ने कहा कि बिटिया को आधे घंटे बाद लाना, अभी पौने 11 बजे हैं, सवा 11 बजने दो. अगर यह रिश्ता जुड़ेगा तो देखना इस रिश्ते में खुशियां सवाई होंगी. तब तक हम चायनाश्ता कर लेते हैं.

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सवा और सवाई की धारणा

यों तो सवा का शाब्दिक अर्थ होता है किसी भी माप का 25% या एकचौथाई अधिक, मगर आम धारणा या मान्यता में इसे माप से जरा सा अधिक माना जाता है. उस का वास्तविक तोल या माप से कोई सीधा संबंध नहीं है. ‘सेर को सवा सेर’ कहावत तो हम सभी ने सुनी है. इस का अर्थ भी यही है कि किसी काबिल व्यक्ति को उस से अधिक या बेहतर व्यक्ति का मिलना. कहने का तात्पर्य है कि जैसे यह कहावत सदियों पुरानी है वैसे ही सवा और सवाई की धारणा भी सदियों पुरानी है.

राजस्थान में ऐसे राजाओं को जो अपने समकालीन योद्धाओं से सवाए यानी अधिक वीर और बुद्घिमान थे और जिन्होंने राज्य और राजघरानों की शान, यश और कीर्ति को बढ़ाने में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, उन्हें सवाई की उपाधि से नवाजा जाता था जैसे सवाई जय सिंह, सवाई मान सिंह, सवाई माधो सिंह आदि. सब से पहले आमेर के राजा जय सिंह द्वितीय को औरंगजेब द्वारा सवाई की मौखिक उपाधि से नवाजा गया था, जिन्होंने सवाई जयनगर नामक शहर बसाया जो आज राजस्थान की राजधानी जयपुर के नाम से जाना जाता है.

मान्यताओं के पीछे की असलियत

यही नहीं ऐसे अनेक उदाहरण हमारे समाज में मिल जाएंगे, जिन पर शायद कभी हम ने खुद भी गौर नहीं किया होगा कि इन मान्यताओं के पीछे की असलियत क्या है. हम अकसर बड़ेबुजुर्गों को सवाई तरक्की करो का आशीर्वाद देते हुए देखते हैं. हमारे देश में अनेक ऐसे समाज हैं, जिन में बच्चे का नामकरण उस के जन्म के सवा महीने बाद किया जाता है. राजस्थान, पंजाब, गुजरात सहित कई अन्य प्रदेशों में भी लड़की के लिए शादी का चूड़ा शादी के सवा महीने बाद तक पहनना अनिवार्य होता है.

अगर हम अपने आसपास नजर डालें तो पाएंगे कि गलीमहल्ले का छोटा खुदरा दुकानदार या फलसब्जी का ठेला लगाने वाला अथवा खुला दूधदही बेचने वाला व्यापारी भी अपने ग्राहकों को सामान तोलते समय सामान रखे जाने वाला पलड़ा वास्तविक माप से थोड़ा सा झुका रखता है यानी सवाया तोलता है. वह ऐसा क्यों करता है शायद वह खुद भी नहीं जानता होगा, मगर उस ने अपने बड़ों को ऐसा ही करते देखा होगा और बस उसी पुरानी परिपाटी को निभाए जा रहा है.

मुझे याद है बचपन में मां मुझे चाय बनाना सिखा रही थीं. उन्होंने अनुमान के अनुसार प्रति कप 1 चम्मच चीनी और चौथाई चम्मच चायपत्ती का हिसाब मुझे बताया. मगर मैं ने देखा कि चायपत्ती और चीनी डालने के बाद उन्होंने दोनों ही सामग्री चुटकी भर के खौलते हुए पानी में और डाल दी. जब मैं ने कहा कि अरे, आप ने तो ज्यादा डाल दी तो मां मुसकराई और फिर बोलीं कि इतने से कोई फर्क नहीं पड़ता, बल्कि चाय का स्वाद सवाया हो जाता है.

कुल मिला कर कहना यह है कि यह सवा और सवाई वाली धारणा या अंधविश्वास इतना प्रचलित हो चला है कि अंधविश्वास न हो कर आम जीवन का आवश्यक नियम सा लगने लगा है और इसे मानने वालों में पढ़ेलिखे अधिकारी, लेखक, राजनेता, अभिनेता और जानेमाने साहित्यकार तक शामिल हैं.

पिछले दिनों एक वरिष्ठ साहित्यकार की किताब के लोकार्पण समारोह का निमंत्रण मिला. लोकार्पण का समय शाम सवा 5 बजे का था, इस के पीछे भी यही सोच रहती है कि लोकार्पित किताब के माध्यम से साहित्यकार की शोहरत सवाई हो. अनायास एक मुसकान तैर गई होंठों पर. अगर समाज की दिशा और दशा बदलने का दावा करने वाले ये बुद्घिजीवी खुद इस जाल में फंसे हुए हैं, तो आम आदमी की क्या मजाल जो इस सवा के महत्त्व को नकार सके.

सरासर तर्कहीन

मैं ने अपनी एक मित्र जोकि एक राजपत्रित अधिकारी भी है और इस धारणा पर बेहद विश्वास करती है, से सवाई के पीछे के सच के बारे में बात की तो उस ने बड़ा ही हास्यास्पद सा जवाब दिया. उस ने कहा कि इस से कुछ अच्छा होता है या नहीं यह तो पता नहीं, मगर इतना जरूर है कि जब भी वह ऐसा करती है तो उस का आत्मविश्वास आश्चर्यजनक रूप से बढ़ जाता है और उस के मन में स्वत: ही ये विचार आने लगते हैं कि जब जो होगा वह बेहतर ही होगा. इसे यों भी कह सकते हैं कि वह परिणाम को ईश्वर पर छोड़ कर निश्चिंत हो जाती है कि अब जो कुछ भी होगा वह ऊपर वाले की इच्छा होगी. इस पर मैं ने हंस कर चुटकी ली कि तो फिर तुम औफिस साढ़े 9 के बजाय सवा 9 क्यों नहीं आती और 6 के बजाय सवा 6 बजे तक क्यों नहीं रुकती? तुम भी सरकार का काम कुछ सवाया कर दो. उस के भी अच्छे दिन आने दो.

दोस्त खिसिया कर कहने लगी कि ये सब रोजमर्रा की जिंदगी में लागू नहीं होता. यानी सिर्फ खास मौकों पर ही कोई चीज सवाई होती है. यह तो सरासर तर्कहीन है.

तथ्यहीन मान्यताएं

दरअसल, कुछ बातें हमारे दिलोदिमाग में इस कदर घर कर चुकी हैं कि हम खुद भी नहीं जानते कि हम ऐसा क्यों कर रहे हैं. बस यंत्रचालित से किए चले जाते हैं. इस का अमीरीगरीबी, शिक्षाअशिक्षा, गांवशहर के परिवेश आदि से कोई संबंध नहीं है. इसे यों भी समझा जा सकता है कि जब हमें सही रास्ता न मालूम हो तो अकसर हम वह रास्ता चुनते हैं जिस पर अधिकांश लोग जा रहे हों. फिर वही रास्ता आम रास्ता बन जाता है और धीरेधीरे सभी उस पर चल पड़ते हैं. इसी तरह पुरानी मान्यताएं भी पीढ़ी दर पीढ़ी स्थानांतरित होती हैं.

यह हमारे धर्मभीरु मन का डर भी है कि हम चाह कर भी पीढि़यों से चली आ रही इन तथ्यहीन मान्यताओं से मुक्त नहीं हो पा रहे हैं या यों कहें कि अपनेआप को अतिआधुनिक कहने वाले हम खुद भी नहीं जानते कि हम भी इस के शिकार हैं. ऐसा लगता है जैसे यह एक स्वचालित प्रक्रिया है, जो मस्तिष्क द्वारा नियंत्रित होती है.

शुभ अशुभ का डर

एक शुभ संकेत यह है कि हमारी आने वाली कंप्यूटर जैनरेशन के पास इन बकवास ढकोसलों के लिए वक्त ही नहीं है. उस का दिन कैलेंडर की तारीखों और घड़ी की सूइयों के अनुसार चलता है न कि चांद के घटनेबढ़ने से. मगर फिर भी हम कहां मानते हैं. जबतब उन्हें कुछ अशुभ होने का डर दिखा कर इमोशनल ब्लैकमेल करते हैं और अपना मनचाहा करने के लिए बाध्य करते हैं.

हम ऐसा क्यों करें उन के इस तर्क के सामने हमारे पास वितर्क नहीं, बल्कि कुतर्क होते हैं. हम इस बात के पक्ष में कोई तर्क नहीं दे पाते कि उन्हें ऐसा क्यों करना चाहिए. हम कुतर्क देते हैं कि ऐसा करने में आखिर नुकसान ही क्या है? कुछ और न सही हमारा मन रखने के लिए ही कर लो.

नई पीढ़ी को यह भी डर है कि ये नई पौध अगर पूरी तरह से वैज्ञानिक हो गई तो निरंकुश हो कर अपने मनमाफिक जीने लगेगी और उस जीवन में धर्म, आस्थाओं और मान्यताओं का कोई स्थान नहीं होगा और अगर ऐसा हुआ तो ईश्वर के प्रकोप से प्रलय आ जाएगी.

हालांकि अब तो काफी हद तक पुरानी पीढ़ी भी इस बात को मानने और समझने लगी है कि इन मान्यताओं का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है, फिर भी इन की जड़ें इतने गहरे तक मन में गड़ी हैं कि उन से छुटकारा पाना अगर नामुमकिन नहीं है तो मुमकिन भी नहीं है.

पुरानी पीढ़ी को चाहिए कि वह अगर अपनेआप को नहीं बदल सकती तो बेशक जिए अपनी पुरानी मान्यताओं के साथ मगर कम से कम आने वाली पीढ़ी को तो ये ढकोसले मानने को बाध्य न करे. इस प्रकार धीरेधीरे ये सड़ीगीली मान्यताएं पोषण के अभाव में खुदबखुद नष्ट हो जाएंगी. मगर तब तक सवा और सवाई के सवालों को झेलना ही होगा.

बेलगाम गौरक्षकों की गुंडई और उग्र हिंदुत्व का उभार

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भले ही देशप्रदेश में भारत की धर्मनिरपेक्ष इमेज की मार्केटिंग करते फिर रहे हों और अपने देश के सामाजिक माहौल को अच्छा करार दे रहे हों, लेकिन देश में कट्टर और हिंसक सांप्रदायिक ताकतों के हमले उन के इस दावे की कलई खोल देते हैं.

हाल के दिनों में देश के जिन राज्यों में उग्र हिंदुत्व का उभार दिखा है, उन में से एक राजस्थान में पिछले दिनों गौरक्षकों ने एक और शख्स की हत्या कर दी. तथाकथित गौरक्षकों ने अलवर जिले के गोपालगढ़ गांव के 35 साला उमर खान को पीटपीट कर मार डाला और उस के साथ ताहिर खान व जावेद को भी गंभीर रूप से घायल कर दिया.

तकरीबन 6-7 महीने पहले भी राजस्थान में इसी तरह गौरक्षकों ने अपने साथ गाय ले जा रहे पहलू खान की हत्या कर दी थी और उन के बेटों को बुरी तरह घायल कर दिया था.

उमर खान की हत्या मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के मेवात दौरे के ठीक एक दिन बाद हुई. इस मामले में गोविंदगढ़ थाने में दर्ज कराई गई एफआईआर के मुताबिक, उमर खान और ताहिर खान ड्राइवर जावेद के साथ एक पिकअप वैन में 6 गाएं और बछड़े ले कर गहेनकर गांव से आ रहे थे. लेकिन रास्ते में गोपालगढ़ के पास उन्हें 8 लोगों ने घेर लिया और उन पर बंदूकों और धारदार हथियारों से हमला कर दिया.

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हमले में उमर खान की तुरंत मौत हो गई जबकि ताहिर और जावेद को हरियाणा के एक अस्पताल में गंभीर हालत में इलाज के लिए भरती कराया गया. हमलावरों ने उमर खान की लाश 12 किलोमीटर दूर रेलवे ट्रैक पर फेंक दी थी.

पहलू खान की हत्या की पूरे देश में हुई फजीहत के बाद ऐसा लगा था कि यह सिलसिला थमेगा, ऐसी वारदातें कम होंगी. बीचबीच में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी सरकार की अच्छी इमेज पेश करने के लिए गौरक्षकों की बुराई भी करते रहे. उन के रुख से ऐसा लगा था कि गौरक्षक बन कर उग्र भीड़ के तौर पर हमले रुकेंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ.

ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री हिंसा रोकने की दिखावटी अपील कर रहे थे. उन की मंसा गौरक्षा के नाम पर हिंसा रोकने की नहीं है. उलटे भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ साल 2019 के लोकसभा चुनावों को देखते हुए कट्टर हिंदुत्व की इमेज को और भी धारदार बनाने की योजना पर काम कर रहे हैं.

केंद्र और वसुंधरा सरकार दोनों ही इस तरह की वारदातों के लिए जिम्मेदार हैं. अल्पसंख्यकों की हिफाजत में नाकाम रहने के घातक नतीजे भी हो सकते हैं. सरकार इस के गंभीर खतरों को जानते हुए भी चुप्पी साधे हुए है और गौरक्षकों का हिंसक खेल जारी है.

खुलेआम घूम रहे हत्यारे

गौरक्षकों के हमले के शिकार पहलू खान ने मरते वक्त जिन 6 लोगों के नाम लिए थे, उन्हें राजस्थान पुलिस ने क्लीन चिट दे दी है.

मामले की जानकारी के मुताबिक, राजस्थान पुलिस ने दूध का कारोबार करने वाले गौरक्षकों के शिकार किसान पहलू खान द्वारा जिन 6 लोगों के नाम बताए गए थे, उस से संबंधित जांच को बंद कर दिया गया है, क्योंकि इन 6 आरोपियों में से 3 का संबंध हिंदू संगठन से है.

जांच रिपोर्ट में कहा गया है कि पुलिस वालों समेत गवाहों ने कहा कि आरोपियों में से कोई भी घटना के समय मौजूद नहीं था.

मालूम हो कि लोगों की भीड़ ने पहलू खान पर हमला किया था जिस से उस की मौत हो गई थी.

एक रिपोर्ट के मुताबिक, ऐसे आरोप सामने आए हैं कि संदिग्ध गौरक्षकों को बचाने के लिए सरकार का अफसरों पर दबाव है. गौशाला के मुलाजिम के बयान और मोबाइल फोन के रिकौर्ड के आधार पर पुलिस ने आरोपियों को क्लीन चिट दी है.

गौशाला के कर्मचारी के बयान के मुताबिक, आरोपी नवीन शर्मा, राहुल सैनी, ओम यादव, हुकुम चंद यादव, सुधीर यादव और जगमल यादव उस की गौशाला में थे, जो वारदात वाली जगह से तकरीबन 6 किलोमीटर दूर है.

मालूम हो कि 6-7 महीने पहले पहलू खान जयपुर के हटवाड़ा पशु बाजार से कुछ गायों को हरियाणा के नूह इलाके में ले जा रहा था. इसी दौरान अलवर के नजदीक गौरक्षकों ने पहलू खान पर हमला कर दिया जिस से उस की मौत हो गई.

पहलू खान के पास गाय को ले जाने के दस्तावेज भी थे, फिर भी गौरक्षकों ने उस पर हमला कर दिया.

इस मामले की जांच कर रही अपराध शाखा ने पहलू खान की हत्या की जांच रिपोर्ट अलवर पुलिस को भेज दी है.

इस रिपोर्ट में कहा गया है कि हत्याकांड के मामले में आरोपियों की लिस्ट में से 6 लोगों के नाम हटाए जाएं. इस के बाद अलवर पुलिस ने  6 आरोपियों को पकड़ने के लिए किए गए इनाम को भी रद्द कर दिया.

6 लोगों के नाम हटाए जाने पर पहलू खान के परिवार वालों में बेहद नाराजगी है. उन का कहना है कि वारदात के समय जब आरोपियों का नाम ले कर बुलाया जा रहा था, तो फिर आखिर कैसे उन के नाम हटा दिए गए?

इरशाद के बेटे ने इस मसले पर कहा, ‘‘मैं ने हमले के समय ओम, हुकुम, सुधीर और राहुल का नाम पुकारते सुना था. पुलिस दबाव में

ऐसा कह रही है. लेकिन हमारी लड़ाई यहां खत्म नहीं होगी. हम आगे भी लड़ेंगे और उन 6 लोगों को कुसूरवार साबित करेंगे.’’

दलित भी हैं गौरक्षकों के शिकार

गाय के नाम पर अब तक तो ज्यादातर मुसलमानों के साथ ही मारपीट होती रही है, लेकिन अब राजस्थान के आदिवासी व दलित समुदाय के लोग भी गौरक्षकों की गुंडागर्दी के शिकार बनने लगे हैं.

डूंगरपुर से तकरीबन 45 किलोमीटर दूर जिले के नारेडा गांव में एक दलित नानूराम की कहानी भी काफी दुखद है. यहां एक हिंदू संगठन के कार्यकर्ताओं ने नानूराम पर गाय का गोश्त बेचने के आरोप में उसे बुरी तरह पीट दिया जबकि नानूराम एक मजदूर है.

नानूराम बताता है कि वह मजदूरों को जागरूक करता है. गांव के कुछ दबंग लोगों को यह बात अच्छी नहीं लगी. उसे तरहतरह से धमकी दी जाने लगी. 28 नवंबर को गांव में हिंदू संगठन के लोगों ने उस के घर को घेर लिया. उस के साथ मारपीट की और जान से मारने की धमकी दी गई.

उन्होंने नानूराम पर झूठा आरोप लगाया कि वह गाय का गोश्त बेचता है. उस ने जब इस बारे में पुलिस थाने में शिकायत की तो थानेदार ने उलटा उसे ही धमका दिया.

नानूराम का आरोप है कि इस हिंदू संगठन के लोग चाहते हैं कि मजदूर गांव छोड़ दें ताकि वे उन की जमीनों पर कब्जा कर सकें.

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