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खोखले वादों का शुभलाभ उठाते क्रोनी कैपिटलिस्ट

पंजाब नैशनल बैंक में 11,394 करोड़ रुपए के घोटाले के परदाफाश होने से स्तब्ध जनता उबर भी नहीं पाई थी कि 900 करोड़ रुपए के रोटोमैक और फिर ओरिएंटल बैंक औफ कौमर्स से 390 करोड़ रुपए की धोखाधड़ी से वह और भी सन्नाटे में है. भ्रष्टाचार मुक्त देश, स्वच्छ भारत और ईमानदारी पर बड़ेबड़े दावे करने वाले नेता खामोश हैं. सरकार विपक्ष के निशाने पर है. इन घोटालों से सरकार चौतरफा घिर गई है.

नोटबंदी, जीएसटी जैसे निर्णयों के साथ अर्थव्यवस्था में ईमानदारी व सुधारों के सरकारी दावे खोखले साबित हो रहे हैं. कहां तो विदेशों में जमा कालेधन को वापस लाने के वादे किए जा रहे थे और आज देश का सफेदधन ले कर भागने वाले कतार में दिख रहे हैं. ऐसे में जनता की ईमानदारी पर सरकार पर सवाल उठाने लगी है.

पीएनबी में घोटाले का यह मामला पिछले 7 वर्षों से चल रहा था लेकिन किसी को भी इस का पता नहीं चल पाया. देश के इस सब से बड़े बैंक घोटाले के बारे में बताया जा रहा है कि लेनदेन में हुए फर्जीवाड़े से कुछ खास लोगों को फायदा पहुंचाया गया है.

हीरों के व्यापार का किंग माना जाने वाला नीरव मोदी और उस के साथियों ने 2011 में बिना तराशे हीरे आयात करने के वास्ते लाइन औफ क्रैडिट के लिए पंजाब नैशनल बैंक की मुंबई स्थित ब्रेडी हाउस ब्रांच से संपर्क किया था. आमतौर पर बैंक विदेश से आयात को ले कर होने वाले भुगतान के लिए लैटर औफ अंडरटेकिंग (एलओयू) जारी करता है. इस का अर्थ है कि बैंक नीरव मोदी के विदेश में मौजूद सप्लायर को 90 दिनों के लिए भुगतान करने पर राजी है और बाद में पैसा नीरव को चुकाना है. पर बैंक के कुछ कर्मचारियों ने नीरव मोदी की कंपनियों को फर्जी एलओयू जारी किए और ऐसा करते वक्त उन्होंने बैंक प्रबंधन को अंधेरे में रखा.

बैंक द्वारा दी गई ऐक्सचेंज फाइलिंग में कहा गया है कि  नीरव मोदी की कंपनियों ने पूर्व डिप्टी जीएम गोकुलनाथ शेट्टी की मिलीभगत से फर्जी तरीके से 11,394 करोड़ रुपए का लैटर औफ अंडरटेकिंग ले लिया था. एलओयू एक तरह की गारंटी होती है जिस के आधार पर दूसरे बैंक कर्ज देते हैं.

घोटाले का परदाफाश

शेट्टी के रिटायर होने के बाद 16 जनवरी, 2018 को नीरव की एक कंपनी ने बे्रडी हाउस ब्रांच से गारंटी (एलओयू) देने का आग्रह किया. तब बैंक अधिकारियों ने एलओयू के बदले 100 प्रतिशत कैश जमा करने को कहा. इस पर कंपनियों ने कहा कि वे बिना कैश मार्जिन के वर्षों से एलओयू लेती रही हैं. जब इस की छानबीन शुरू हुई तो इस घोटाले का परदाफाश हो गया.

दिल्ली और मुंबई में बैंक अधिकारियों के साथ नीरव मोदी और मेहुल चौकसी की कंपनियों के प्रतिनिधियों की कई बैठकें हुईं. उन में कंपनियों से पैसा वापस करने को कहा गया. 15 जनवरी को 280.70 करोड़ रुपए के एक एलओयू की अवधि पूरी हो गई तो आरबीआई और सीबीआई को इस की जानकारी दे दी गई. इस के बाद मेहुल चौकसी की 2 कंपनियों के 65.25 करोड़ रुपए के एलओयू की लायबिलिटी 7 फरवरी को पूरी हो गई. इस की जानकारी भी आरबीआई और सीबीआई को दे दी गई तो छानबीन के बाद 12 फरवरी को पता चला कि कुल 11,394 करोड़ रुपए के एलओयू फर्जी तरीके से जारी किए गए.

गोकुलनाथ शेट्टी मार्च 2010 से मुंबई शाखा में पीएनबी के विदेशी विनिमय विभाग में कार्यरत था. कथित रूप से उस ने मनोज खारत नाम के एक क्लर्क के साथ मिल कर एलओयू जारी किए थे.

साजिश रचने वाले लोगों ने एक और कदम आगे बढ़ कर सोसाइटी फौर वर्ल्डवाइड इंटरबैंक फाइनैंशियल टैलिकम्युनिकेशन (स्विफ्ट) का नाजायज फायदा उठाने का फैसला किया. यह इंटरबैंक मैसेजिंग सिस्टम है जिसे विदेशी बैंक पैसा जारी करने से पहले लोन का ब्योरा पता लगाने के लिए इस्तेमाल करते हैं. बैंक के कर्मचारियों ने अपने बड़े अधिकारियों की जानकारी के बिना गारंटी को हरी झंडी देने के लिए स्विफ्ट तक अपनी पहुंच का फायदा उठाया.

ऐसा करने पर भारतीय बैंकों की विदेशी शाखाओं को कोई शक नहीं हुआ और उन्होेंने नीरव मोदी की कंपनियों को फौरैक्स क्रैडिट जारी कर दिया. यह रकम एक विदेशी बैंक के साथ पीएनबी के खाते में दी गई थी जिसे नोस्ट्रो अकाउंट कहते हैं. पैसा इस अकाउंट से मोदी के विदेश में मौजूद बिना तराशे हीरे सप्लाई करने वाले लोगों को भेजा गया. जब ये फर्जी एलओयू परिपक्व होने लगे तो पीएनबी के भ्रष्ट कर्मचारियों ने 7 वर्षों तक दूसरे बैंकों की रकम का इस्तेमाल इस लोन को रिसाइकिल करने के लिए किया.

सीबीआई ने 13 फरवरी को नीरव मोदी ग्रुप, गीतांजलि ग्रुप और चांदरी पेपर ऐंड अलायड प्रोडक्ट्स नाम की कंपनियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की. सीबीआई ने नीरव मोदी, उन की पत्नी एमी, भाई निशाल और कारोबारी साझेदार मेहुल चौकसी के खिलाफ मामला दर्ज किया. 14 फरवरी को आंतरिक जांच पूरी होने के बाद पीएनबी ने बौंबे स्टौक ऐक्सचेंज को इस फर्जीवाड़े की जानकारी दी. मामला उजागर होने की भनक लगते ही नीरव मोदी जनवरी में भारत छोड़ कर न्यूयौर्क भाग गया.

15 फरवरी को प्रवर्तन निदेशालय ने मोदी के मुंबई, सूरत और दिल्ली के कई दफ्तरों में छापामारी की और प्रिवैंशन औफ मनी लौड्रिंग एक्ट के तहत मामला दर्ज किया.

कौन है नीरव मोदी

नीरव मोदी के पिता हीरा कारोबारी थे जो भारत से बैल्जियम के एंटवर्प चले गए. नीरव मोदी का लालनपालन वहीं पर हुआ लेकिन वह व्यापार के लिए मुंबई आ गया. उस ने अपने चाचा मेहुल चौकसी से व्यापार करना सीखा. पीएनबी घोटाले में मेहुल चौकसी का नाम भी शामिल है. नीरव मोदी 2013 से फोर्ब्स की अमीरों की सूची में अपना नाम बरकरार रखे हुए है. उस के ब्रैंड को अभिनेत्री प्रियंका चोपड़ा, बिपाशा बासु, एंड्रिया डायाकोनु  और रोजी हंटिंगटन प्रोमोट करते हैं. हालांकि, प्रियंका चोपड़ा अब अलग हट गई हैं.

46 वर्षीय नीरव व्हार्टन ड्रौपआउट है. उस के ज्वैलरी शोरूम में एक ज्वैलरी के दाम 5 लाख से 50 करोड़ रुपए तक हैं. नीरव मोदी, उस की पत्नी एमी, भाई निशाल और मेहुल चौकसी डायमंड्स आरयूएस, सोलर ऐक्सपोर्ट्स तथा स्टैलर डायमंड्स में भागीदार हैं. इन कंपनियों की हौंगकौंग, दुबई और न्यूयौर्क में इकाइयां हैं.

1999 में नीरव ने फायरस्टार कंपनी बनाई. फोर्ब्स के मुताबिक, नीरव की नैटवर्थ 11 हजार करोड़ रुपए है. फोर्ब्स की सूची में नीरव 85वें स्थान पर है. उस के ज्वैलरी स्टोर  लंदन, न्यूयौर्क, लास वेगास, हवाई, सिंगापुर, बीजिंग जैसे 16 शहरों में हैं. भारत में दिल्ली और मुंबई में उस के कई स्टोर्स हैं.

जब देश नीरव मोदी के घोटाले पर हैरान था तभी रोटोमैक और सेठ द्वारका दास इंटरनैशनल ज्वैलर का घोटाला भी सामने आ गया. पैनकिंग रोटोमैक कंपनी के प्रमुख विक्रम कोठारी के खिलाफ मामला दर्ज किया गया. कोठारी, उन की पत्नी साधना और पुत्र राहुल कोठारी पर बैंक औफ बड़ौदा समेत 7 बैंकों को 3,695 करोड़ रुपए की चपत लगाने का आरोप है. इसी तरह सीबीआई ने दिल्ली स्थित डायमंड आभूषण निर्यातक द्वारका दास सेठ इंटरनैशनल कंपनी के खिलाफ ओरिएंटल बैंक औफ कौमर्स के साथ 389.85 करोड़ रुपए की धोखाधड़ी करने का मामला दर्ज किया है. कंपनी के निदेशकों सभ्य सेठ, रीता सेठ, कृष्णकुमार सिंह और रवि सिंह पर आरोप हैं कि उन्होंने बैंक के साथ धोखाधड़ी की.

घोटालों का घटाटोप

देश में बैंक धोखाधड़ी के आंकड़े चौंकाने वाले हैं. भारतीय बैंकिंग की स्थिति पर इंडियन इंस्टिट्यूट औफ मैनेजमैंट, बेंगलुरु की एक रिपोर्ट का हवाला देते हुए केंद्रीय कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद मानते हैं कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में वर्ष 2012 से 2016

के बीच 22,743 करोड़ रुपए की धोखाधड़ी हुई. रिपोर्ट में कहा गया है कि 2017 में पहले 9 महीने में आईसीआईसीआई बैंक में करीब 455, स्टेट बैंक औफ इंडिया में 429, स्टैंडर्ड चार्टर्ड बैंक में 244 और एचडीएफसी बैंक में 237 मामले पकड़े गए.

नीरव मोदी से पहले भी कई बैंकिंग घोटाले सामने आ चुके हैं. 2014 में कोलकाता के उद्योगपति बिपिन बोहरा पर कथिततौर पर फर्जी दस्तावेज के सहारे सैंट्रल बैंक औफ इंडिया से 1,400 करोड़ रुपए का लोन लेने का आरोप लगा था. उसी साल सिंडिकेट बैंक के पूर्व चेयरमैन और प्रबंध निदेशक एस के जैन पर रिश्वत ले कर 8,000 करोड़ रुपए का ऋण मंजूर करने का मामला सामने आया था. 2014 में ही यूनियन बैंक ने विजय माल्या को विलफुल डिफौल्टर घोषित कर दिया था. इस के बाद एसबीआई और पीएनबी ने भी यही राह अपनाई.

बाद में सीबीआई ने विजय माल्या के खिलाफ 9,000 करोड़ रुपए की कर्जवसूली के लिए चार्जशीट दाखिल की. 2016 में विजय माल्या देश छोड़़ कर भाग गया. तब से वह ब्रिटेन में रह रहा है. ललित मोदी 6,000 करोड़ रुपए के साथ भाग गया. भारत सरकार उस के प्रत्यर्पण के लिए कानूनी लड़ाई लड़ रही है. हर तरफ गजब की सांठगांठ चल रही है.

कुछ समय पहले 7,000 करोड़ रुपए के एक और घोटाले में विनसम डायमंड्स का नाम सामने आया था. जतिन मेहता की विनसम डायमंड्स कंपनी का मामला भी नीरव मोदी जैसा ही था. हर तरफ कोलकाता के कारोबारी नीलेश पारेख का मामला भी सुर्खियों में रहा. सीबीआई ने 2017 में नीलेश को मुंबई एअरपोर्ट से गिरफ्तार किया था. उस पर कम से कम 20 बैंकों से 2,223 करोड़ रुपए की धोखाधड़ी करने के आरोप थे. पारेख ने यह पैसा शेल कंपनियों के माध्यम से हौंगकौंग, सिंगापुर और संयुक्त अरब अमीरात ट्रांसफर कर दिया था.

बढ़ता डूबत ऋण

आंकड़े बताते हैं कि जितना देश में एनपीए यानी डूबत ऋण है दुनिया के 137 देशों की उतनी जीडीपी है. पिछले 5 सालों में बैंकों में 1 लाख से ज्यादा रकम के 5,064 घोटाले हुए. इन में बैंकों को 16,770 करोड़ रुपए की चपत लगी.

कहने को पीएनबी घोटाला 11,300 करोड़ रुपए का बताया जाता है पर नीरव मोदी ने अन्य बैंकों से भी करीब 8 हजार करोड़ रुपए का कर्ज लिया है. इस तरह यह घोटाला 15 से 20 हजार करोड़ रुपए का बैठता है.

30 सितंबर, 2013 तक डूबत खातों की कुल राशि 28,416 करोड़ रुपए थी और 30 सितंबर, 2017 तक यानी 4 वर्षों में यह बढ़ कर 1 लाख 11 हजार करोड़ रुपए हो गई, अर्थात नरेंद्र मोदी की सरकार के दौरान यह लूट तकरीबन चारगुना बढ़ गई.

मजे की बात यह है कि बैंकों को बचाने के लिए सरकार 2 लाख करोड़ रुपए से ज्यादा देने की योजना बना रही है यानी साफ है कि सरकार फिर क्रोनी कैपिटलिस्टों के लिए राहत और लूट का इंतजाम कर रही है. सरकार से पूछा जाना चाहिए कि यह पैसा किस का है और इस से वह किसे बचाने की कोशिश कर रही है. जाहिर है आम आदमी, किसान को तो बिलकुल नहीं.

पगपग पर सांठगांठ है. सरकार अपराधियों को विदेश भगा देती है और फिर वर्षों तक जनता का मन बहलाने के लिए प्रत्यर्पण का ड्रामा करती है. 5 साल पहले ललित मोदी को भगाया, 2 साल विजय माल्या को हो रहे हैं, अब नीरव मोदी. यह पक्का है कि यह सिलसिला रुकने वाला नहीं है. जो पूंजीपति प्रधानमंत्री के विदेश दौरों में बिजनैस डैलीगेट्स के तौर पर नजर आते हैं और फिर प्रधानमंत्री के साथ खिंची तसवीरों  से रुतबा बना कर मोटा धन उगाते हैं, उन पर नजर रखी जानी चाहिए.

जानबूझ कर खेल

जो उद्योगपति रंगेहाथ पकड़े जाते हैं वे दरअसल ऐसे होते हैं कि जो सब नियमकायदों का उल्लंघन कर के करोड़ोंअरबों का कर्ज लेते हैं और उसे डूबत खाते में डलवा देते हैं क्योंकि उन्हें पता है कि दिवालिया घोषित होने के बाद उन का कुछ नहीं  बिगड़ता. अगर डिफौल्टरों की सूची देखें तो बारबार वही लोग सामने आते हैं जो पहले डिफौल्टर घोषित हो चुके हैं. वे फिर से सरकारी बैंकों तक पहुंचने में कामयाब हो जाते हैं. वे बढ़ाचढ़ा

कर बिजनैस परियोजनाओं के प्रस्ताव पेश करते हैं और लोन लेने में सफल हो जाते हैं. बाद में कर्ज चुकाने में नाकाम रहते हैं. यह बैंक अधिकारियों, बिजनैसमेन व सरकारी तंत्र का मिलाजुला खेल है.

हिम्मत व चोरी कर सीना जोरी का आलम तो देखिए कि नीरव मोदी बैंक को खुलेआम पैसा नहीं चुकाने की चुनौती दे रहा है. बैंक प्रबंधन को लिखे पत्र में नीरव ने कहा है कि उस ने उस की साख खराब कर दी. मामले को तूल दे कर ऋण वापसी के सभी रास्ते बंद कर दिए. उस के ब्रैंड को बरबाद कर दिया गया.

सरकारी बैंकों में नेताओं की चलती है. बड़े पूंजीपतियों और नेताओं की मिलीभगत होती है. सरकारी बैंकों के अफसरों की इतनी हिम्मत नहीं होती कि वे मना कर सकें. 1969 में इंदिरा गांधी ने जब 14 बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया था तब कहने को उन का लक्ष्य बैंकों में जमा पूंजी से राष्ट्रीय विकास करना था पर असल में बैंकों पर खुद का नियंत्रण करना था ताकि पूंजीपतियों को मनमरजी से लोन बांटा जा सके और वक्त पड़ने पर उन्हीं से वसूली की जा सके. इस के बाद  संपूर्र्ण बैंकिंग व्यवस्था पर डूबत खातों का घुन लग गया.

डिफौल्टर कंपनियों के खिलाफ दिवालिया प्रक्रिया के लिए शुरुआत में जो मामले नैशनल कंपनी ला ट्रिब्यूनल को भेजे गए उन में इस्पात, बिजली और सीमेंट शामिल हैं. बड़ी मात्रा में कौर्पोरेट कंपनियों द्वारा बैंकों का पैसा दबाया गया. देशभर की दर्जनों कंपनियां दिवालिया प्रक्रिया में हैं. सरकार ऐसी कंपनियों की संपत्तियों को बेचने की तैयारी कर रही है. एस्सार अपने स्टील कारोबार का बड़ा हिस्सा बेचने को मजबूर है. वह अपने तेल व्यापार की 49 प्रतिशत हिस्सेदारी बेच रहा है. जिंदल स्टील को अपने रेल व्यापार का 49 प्रतिशत हिस्सा बेचना पड़ रहा है. वह अपना 3,500 मेगावाट का पावर प्लांट भी बेचने को तैयार है.

रीयल एस्टेट कंपनी डीएलएफ को अपने रैंटल और भूमि संपत्ति में से 40 फीसदी हिस्सा बेचना पड़ रहा है. उस के दिल्ली स्थित भव्य साकेत मौल तक को बेचने की नौबत आ गई है. जेवीके को बैंकों का पैसा लौटाने के लिए अपने बेंगलुरु और मुंबई एअरपोर्ट में 33 प्रतिशत हिस्सेदारी बेचनी पड़ रही है और सड़क से जुड़ी अपनी पूरी संपत्ति को वह बेच रहा है.

जीएफआर हाईवे प्रोजैक्ट, साउथ अफ्रीकन कोल माइंस, इस्तांबुल एअरपोर्ट और सिंगापुर पावर प्रोजैक्ट का 70 प्रतिशत, इंडोनेशिया के 2 कोयला खदानों को बेचना चाहता है. जेपी ग्रुप अल्ट्राटैक, यमुना ऐक्सप्रैस वे और जेएसडब्लू में अपनी पूरी हिस्सेदारी बेच रहा है.

टाटा द्वारा यूके में कोरस स्टील प्लांट, धमरा पोर्ट को बेचना पड़ रहा है. वह दक्षिण अफ्रीका में नियोटिल बेच रहा है और मुंबई में उसे अपनी जमीन तक बेचनी पड़ रही है. लैंको ग्रुप आंध्र प्रदेश और उडुपी में अपने बिजली प्लांट बेच रहा है. रेणुका सुगर, ब्राजील पावर, चीनी और बायोफ्यूल के कारोबार को निबटाने में जुटा है. वीडियोकौन 6 सर्किल में अपना टैलीकौम स्पैक्ट्रम बेचने को मजबूर है. मोजांबिक में वह तेल संपत्ति बेच रहा है.

बिड़ला सीमेंट को अपना सीमेंट व्यापार और सड़क से जुड़ी तमाम परियोजनाएं बेचनी पड़ रही हैं.

सहारा समूह की 86 संपत्तियां बिक रही हैं. वह फार्मूला वन में अपना 42 प्रतिशत, मुंबई में सहारा होटल, लंदन के होटल, न्यूयौर्क प्लाजा होटल, द ड्रीम न्यूयौर्क होटल और 4 हवाईर् जहाज बेच रहा है. 9,000 करोड़ रुपए ले कर भागे लिकरकिंग विजय माल्या की सारी संपत्तियां भी बिक रही हैं.

रिलायंस इंफ्रास्ट्रक्चर के हालात भी बुरे हैं. उसे मुंबई में बिजली कंपनी के उत्पादन और वितरण की 49 प्रतिशत हिस्सेदारी बेचनी पड़ रही है.

सवाल है कि कंपनियां फेल क्यों हो रही हैं? हमारे यहां कच्चा माल है, श्रमशक्ति है, बाजार है, ग्राहक हैं, संसाधन हैं तो कोई व्यापार फेल क्यों होता है? जब सरकारी बैंक मेहरबान हैं, सरकार टैक्सों में छूट मिल रही है, आयातनिर्यात में भारी सुविधाएं मुहैया कराई जाती हैं, तो फिर कंपनियां दिवालिएपन की कगार पर क्यों पहुंच रही हैं. विदेशी कंपनियां कैसे यहां आ कर मालामाल हो रही हैं? स्टील, माइंस, बिजली कंपनियां क्यों फेल हो गईं? इन सवालों के जवाब तलाशने के लिए क्रोनी कैपिटलिज्म को समझना जरूरी है.

क्रोनी कैपिटलिज्म

दरअसल, शासकों और अमीरों ने मिल कर एक भ्रष्ट व्यवस्था बना ली है. सांठगांठ वाली यह व्यवस्था क्रोनी कैपिटलिज्म कहलाती है. इस में कारोबार में कामयाबी व्यापारी और सरकार के आपसी संबंध से तय होने लगती है. इस के तहत सरकारी तंत्र उद्योगपतियों को लीगल परमिट के आवंटन में पक्ष ले कर उन्हें अनुदान दे कर, टैक्स संबंधित सहूलियतें दे कर तथा अन्य आर्थिक अनियमितताओं के जरिए फायदा पहुंचाता है.

पिछली मनमोहन सिंह सरकार ने कौर्पोरेट पर खूब पैसा लुटाया. अब उन का कारोबार चला नहीं तो वे कंपनियां दिवालिया घोषित हो रही हैं. कौर्पोरेट और नेता परस्पर मदद कर एकदूसरे की ताकत बढ़ाते रहे हैं.

स्पैशल इकोनौमिक जोन यानी सेज, निजी अस्पतालों, स्कूलों को मुफ्त जमीन आवंटन, शहरों में औद्योगिक क्षेत्रों के कथित विकास, मशीनरी, कर्ज, सब्सिडी बिना मेहनत किए ज्यादा फायदे के सौदे साबित होते रहे हैं. इस तरह की सहूलियतों का भरपूर दोहन कर मोटा पैसा बनाने की ललक अधिक है.

पिछले कुछ समय से देश में अरबपतियों की बाढ़ और किसी भी तरीके से पूंजी बढ़ाने की प्रवृत्ति ने भारत को क्रोनी कैपिटलिस्ट देशों की सूची में 9वें स्थान पर ला खड़ा किया है.

क्रोनी कैपिटलिज्म में पारदर्शिता और प्रतिस्पर्धा नहीं होती. यह मुक्त उद्यमशीलता, अवसरों के विस्तार और आर्थिक वृद्धि के लिए नुकसानदेह है.

राजनीतिक पार्टियां क्रोनी कैपिटलिज्म के लिए एकदूसरे पर आरोप लगाती रही हैं. भाजपा और आम आदमी पार्टी कांग्रेस पर क्रोनी कैपिटलिज्म का यह कहते हुए आरोप लगाती रही हैं कि 2जी घोटाला, कोयला घोटाला के जरिए यूपीए नेताओं के करीबी कारोबारियों को अनुचित फायदा पहुंचाया गया.

उधर, भाजपा के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर आरोप है कि वे अडाणी और अंबानी जैसे कुछ करीबी उद्योगपतियों को कौडि़यों के भाव जमीन तथा दूसरी सुविधाएं मुहैया कराते रहे हैं. दूसरी तरफ आम आदमी, किसान, छोटे व्यापारी हैं जो मामूली कर्ज के लिए बैंकों के चक्कर लगातेलगाते थक जाते हैं. पहले तो उन्हें आसानी से कर्ज नहीं मिलता. और अगर कर्ज मिल भी गया तो जरा सी चूक होने पर बैंक 1 लाख रुपए के लोन पर किसान की 25 लाख रुपए की जमीन नीलाम कर देता है.

आम आदमी पर बैंक सख्त

आम आदमी अपनी जिंदगी की आवश्यक जरूरतों के लिए बैंकों से कर्ज लेता है और किस्त चुकाने में यदि उस से चूक हो जाती है तो बैंक उस की कुर्की कर उसे दिवालिया बना देता है, जबकि पूंजीपति सांठगांठ कर के बैंकों का पैसा लूट कर विदेश भाग जाते हैं.

जीवन के लिए अनिवार्य रोटी, कपड़ा और मकान से जुड़े कर्ज को चुकाने में आम आदमी से जरा सी चूक होने पर बैंकों की ज्यादतियां शुरू हो जाती हैं. बैंक आम कर्जदार की संपत्तियां नीलाम कर उसे न घर का छोड़ता है न घाट का. ये वे लोग होते हैं जिन की मंशा बैंक से कर्ज ले कर भागना नहीं होती. क्रोनी कैपिलिस्टों की तरह ये विलफुल डिफौल्टर नहीं होते, पर बैंक इन की संपत्तियां कुर्क कर देता है या फिर नीलाम कर के वसूली कर लेता है. बैंकों की इस नीलामी में कई लोग बेघर हो जाते हैं. उन की अपनी जोड़ी संपत्ति भी बिक जाती है.

हाल ही में अखबारों और बैंकों की वैबसाइट्स पर कुछ लोगों के मकानों की नीलामी के नोटिस देखिए:

28 फरवरी, 2018 को इलाहाबाद बैंक ने हिंदुस्तान समाचारपत्र में कर्ज चूककर्ताओं की संपत्तियों की नीलामी का विज्ञापन दिया है. इस में चंद्रभूषण ठाकुर के गांव सैदुल्लाबाद, लोनी, गाजियाबाद के रिहायशी फ्लैट नं. एसएफ-3, द्वितीय तल की 20.76 लाख रुपए में नीलामी की सूचना दी गई है.

23 फरवरी के दैनिक जागरण में ओरिएंटल बैंक औफ कौमर्स ने गीता सिंह पत्नी अनिरुद्ध सिंह के रिहायशी मकान संख्या ई-26, जवाहर विहार कालोनी, सदर तहसील, रायबरेली पर 9,99,500 रुपए का कर्ज 60 दिनों में न चुकाने पर इस संपत्ति पर कब्जा कर नीलाम कर देने की सूचना दी है.

ओरिएंटल बैंक औफ कौमर्स ने जानकीपुरम, लखनऊ के प्रवीन कुमार वर्मा के मकान नं. बी-1/281 को 2,18,19,000 रुपए न चुकाने पर 22 फरवरी के दैनिक जागरण में नोटिस प्रकाशित किया है.

स्टेट बैंक औफ इंडिया ने मकान, जमीन नंबर 10, बिल्हा ब्लौक, राहंगी, जिला बिलासपुर, छत्तीसगढ़ की मेघा भट्ट को 8 लाख 25 हजार रुपए के लिए इस संपत्ति की नीलामी करने के लिए अपनी वैबसाइट पर नोटिस प्रसारित किया है.

स्टेट बैंक की अमेठी शाखा ने प्रदीप कुमार कौशल के रिहायशी मकान वार्ड नं. 6, रामलीला मैदान, मौजा भनौली, अमेठी के 8.50 लाख रुपए न चुकाने पर नीलामी का विज्ञापन निकाला है.

यूनियन बैंक औफ इंडिया महल्ला किशनपुरा, जालंधर की मधुबाला के मकान नं. 352 के 36 लाख रुपए न चुकाने पर नीलामी की तैयारी कर रहा है.

कैलाश डूडेजा के फ्लैट नं. 201, सैक्टर-सी, लिंबोडी, खंडवा रोड, इंदौर को 18 लाख रुपए में बेचने के लिए सूचना जारी की है. बैंक औफ इंडिया ने चिंचवाड, पुणे के एम पी सिंह के फ्लैट नं. 202 की 59 लाख रुपए में नीलामी की सूचना प्रकाशित की है. देना बैंक ने जयपुर के लखीचंद जैन के घर को 47.75 लाख रुपए में नीलाम करने का नोटिस दिया है.

खोखले वादे

जो देश खोखले दावों के बल पर जीता है, मेहनत के बजाय मंत्रों से सुखी, अमीर बनने की उधेड़बुन में दिनरात लगा रहता है, वहां ऐसे हालात सामने आते हों तो आश्चर्य कैसा?

इस देश में ‘न खाऊंगा, न खाने दूंगा,’ ‘ईज औफ डूइंग बिजनैस में भारत की रैंकिंग सुधरने का ढिंढोरा,’ ‘कालाधन वापस लाएंगे,’ ‘हर व्यक्ति के खाते में 15 लाख जमा होंगे,’ ‘भारत विश्वगुरु होगा,’ ‘नोटबंदी से कालाधन बाहर निकलेगा,’ ‘जीएसटी से कर चोरी, बेईमानी रुकेगी,’ ‘राष्ट्रवाद,’ ‘मंदिर वहीं बनाएंगे,’ ‘वंदेमातरम’ और ‘गौभक्ति’ जैसे थोथे नारे और वादे प्रचारित किए गए. इन का देश के विकास से कोई लेनादेना नहीं है. स्टार्टअप, स्टैंडअप, मुद्रा योजना, प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना अब तक कोई रंग नहीं ला पाई हैं. फिर भी खोखले दावे किए जाते हैं.

ट्रांसपेरैंसी इंटरनैशनल की ताजा रिपोर्ट कहती है कि भारत भ्रष्टाचार के मामले में 2 पायदान और आगे बढ़ गया है. वह 183 देशों में 81वें स्थान पर जा पहुंचा है. 2016 में भारत 79वें नंबर पर था यानी बीते साल के दौरान देश में भ्रष्टाचार और बढ़ा है.

हमारे यहां जितने खोखले वादे, नारे हैं उतनी ही लूट ज्यादा है. व्यवस्था बेईमानों के नियंत्रण में है, वह बेईमानी को उकसाती है. तुम बेईमानी करो ताकि व्यवस्था में बैठे बेईमानों को भी फायदा मिले.

देश थोथे भाषणों, प्रवचनों से नहीं चलता. देश की जनता मेहनत करेगी तो वह अपने खूनपसीने की कमाई को लुटने नहीं देगी.

सरकार मेहनत के बजाय निकम्मापन और बेईमानी के रास्ते दिखाती है. भूमि, भवन मुफ्त, ब्याजमुक्त कर्ज, टैक्सों में छूट, बाजार की उपलब्धता, आयातनिर्यात की सुविधाएं जैसे अनगिनत साधन बैठेबिठाए उपलब्ध कराए जाते हैं. कौर्पोरेटजगत इन सुविधाओं का जम कर शुभलाभ उठाता है. फिर भी कुछ समय बाद पता चलता है कि कंपनियां फायदे के बजाय घाटे में जा रही हैं.

घाटे के बाद भी सरकार की मेहरबानी में कोई कमी नहीं आती. सरकार उन्हें दिवालिया घोषित कर देती है. उन के कर्ज को डूबत ऋण खाते में डाल देती है. कर्जदार का कुछ नहीं बिगड़ता. उस के घर से कुछ नहीं जाता. उलटा, वह सरकारी पैसे से अपनी निजी संपत्ति जोड़ लेता है.

मजे की बात है कि दिवालिया होने के बावजूद सरकार फिर से उन्हीं लोगों को दूसरी दिवालिया कंपनियां खरीदने के लिए कर्ज व सुविधाएं देने को तैयार दिखती है.

मेहनती कंपनियां खुद अपने साधनसुविधाएं जुटा लेती हैं. वे किसी की मुहताज नहीं होतीं, लेकिन जिन का इरादा ही बेईमानी के बल पर पैसा जोड़ना होता है वे इस तरह के फर्जीवाड़े करती रहती हैं.

जिस देश में मेहनतकश ज्यादा होंगे वहां लूट नहीं होगी. मेहनत की कमाई को वे लूटने ही नहीं देंगे. जिन लोगों ने बिना मेहनत पैसा, सुविधाएं पाईं, उन्हें लूट का कोई दुख नहीं होगा. लेकिन मेहनत की कमाई को कोई लूटने नहीं देगा.

असल में हमेशा से यहां काम न करने वाले मिल कर, मेहनत करने वालों की कमाई को लूटने की तिकड़म करते आए हैं. राजामहाराजा अमीरों से कर्ज ले कर उन्हें हर साधनसुविधा प्रदान करते आए थे. आम आदमी, किसानों से टैक्स वसूली चलती आई है.

देश के विकास के लिए सरकार और पूंजीपतियों की सांठगांठ वाली यह व्यवस्था खतरनाक है. इस से आम आदमी की कमाई लुट जाती है. लूटने वाले हमेशा की तरह दानदक्षिणा और घूस दे कर तीर्थयात्रा पर चले जाते हैं, पापों के प्रायश्चित्त करने का उन्हें उपाय जो बताया गया है.

जानबूझ कर कर्ज न चुकाने वाली चुनिंदा कंपनियां

कंपनी/ग्रुप   –    बकाया रकम(करोड़ों रुपए में)

फोरएवर प्रिंसियस ज्वैलरी ऐंड डायमंड्स लि. –  3,466 करोड़

किंगफिशर एयरलाइंस लि.  –  3,097 करोड़

आरईआई एग्रो लि. – 2,730 करोड़

सैंचुरी कम्युनिकेशन, पिक्सियन मीडिया प्रा.लि. –  2,416 करोड़

जूम डैवलपर्स प्रा. लि. –  2,371 करोड़

रेड ऐंड टेलर (इंडिया) लि.,

एस कुमार्स नैशनवाइड लि. –  2,080 करोड़

डेक्कन क्रोनिकल होल्डिंग्स लि. – 2,041 करोड़

सूर्या विनायक इंडस्ट्रीज लि. –  1,853 करोड़

इंडियन टैक्लोइमैक कं. लि. – 1,646 करोड़

बेटा नैफथोल – 1,324 करोड़

रजा टैक्सटाइल लि. – 1,044 करोड़

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दलित उत्पीड़न से दुनियाभर में धूमिल होती समाज की छवि

उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से महज 58 किलोमीटर की दूरी पर उन्नाव शहर है. यहां के वारासगवर इलाके के सथनी गांव में 22 फरवरी को 19 साल की मोनी नामक लड़की को जिंदा जला दिया गया.

मोनी साइकिल से एक दिन अपने गांव से बाजार की तरफ जा रही थी. इतने में कुछ लड़के साइकिल से आए और उसे खेतों में खींच ले गए, फिर उस पर पैट्रोल छिड़क कर आग लगा दी. जान बचाने के लिए लड़की सड़क की ओर भागी पर उस की मदद करने वाला कोई न था. बदमाश लड़की को जलता छोड़ कर भाग गए. लड़की जल कर मर गई.

पुलिस ने 2 दिनों बाद विकास नामक एक लड़के को पकड़ कर जेल भेज दिया. विकास पर आरोप है कि उस की मोनी से दोस्ती थी. दोस्ती में दरार पड़ी तो उस ने यह कांड कर दिया. किसी लड़की को आज के सभ्य समाज में जिंदा जलाने की घटना क्रूर राजाओं और तानाशाहों की याद दिलाती है.

केंद्र और प्रदेश में सरकारें चला रही भारतीय जनता पार्टी के लिए उन्नाव महत्त्वपूर्ण जिला है. भाजपा के साक्षी महाराज यहां से सांसद है. उन के क्षेत्र में दलित लड़की की बर्बर हत्या से पता चलता है कि दबंगों का मनोबल कितना बढ़ा हुआ है.

प्रदेश सरकार में महत्त्वपूर्ण पद संभाल रहे विधानसभा अध्यक्ष हृदय नारायण दीक्षित का कार्यक्षेत्र भी उन्नाव ही है. एक ओर केंद्र से ले कर प्रदेश तक दोनों सरकारें ‘बेटी बचाव बेटी पढ़ाओ’ की बात कर रही हैं, तो वहीं दूसरी ओर इन्हीं सरकारों के दौर में लड़कियां जलाई जा रही हैं.

उन्नाव की घटना से कुछ ही दिनों पहले उत्तर प्रदेश की शिक्षानगरी कहे जाने वाले इलाहाबाद शहर में एक दलित युवक को एक रैस्टोरैंट में पीटपीट कर मार डाला गया. मारपीट की छोटी सी वजह थी. दोनों घटनाओं में सरेआम लोगों ने अकेले को मारा. उन्नाव की मोनी को पैट्रोल छिड़क कर जलाया गया तो इलाहाबाद के युवक को नाली के किनारे पीटपीट कर मार डाला गया. युवक के मरने के बाद भी उस को पीटा जाता रहा.

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एनकाउंटर को सही ठहराते हुए उन्नाव और इलाहाबाद की घटनाएं पूरी तरह से बर्बरता से भरी हैं. यह तब है जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ कहते हैं, ‘‘बदमाशों को उन की ही भाषा में जवाब दिया जाए.’’ पुलिस ने कुछ एनकाउंटर्स कर सनसनी फैलाने की कोशिश की पर दबंगों पर असर पड़ता तो ऐसी घटनाएं न घटतीं.

हिंदुत्व के नाम पर दबंगई

योगीराज में ये हिंदुत्व की रक्षा के नाम पर चोला बदल चुके हिंदू रक्षा के नाम पर दबंग और गुंडे सक्रिय हो गए हैं. ये भगवा गमछाधारी बन गए हैं. अब इन को किसी पार्टी के झंडे तक की जरूरत नहीं रह गई है. ऐसे दबंग नेताओं के लिए भीड़ जुटाने में भी आगे हो जाते हैं. जहां अच्छे काम में 5 लोग एकसाथ नहीं खड़े होते वहां ये लोग हत्या जैसे जघन्य अपराध करने पर भी बहुत सारे लोगों को तैयार कर लेते हैं.

उन्नाव और इलाहाबाद दोनों शहरों की ही घटनाओं में दबंगों का साथ देने वाले दूसरे लोग भी थे. कासगंज में हुए दंगे में भी ऐसे ही दबंग शामिल थे.

इन को कानून की परवा नहीं होती. कासगंज में धारा 144 लागू होने के बाद भी तिरंगा यात्रा निकालने की अनुमति लेने की जरूरत नहीं समझी गई.

प्रदेश में अगर कानून का राज होता तो लोगों में जरूर कानून का डर होता और एक के बाद एक बर्बर घटनाएं नहीं घटतीं. गौरक्षा और धर्म के नाम पर कानून तोड़ने वाले जब बचने लगे तो दूसरे दबंगों का भी मनोबल बढ़ने लगा. ये अब उद्दंड हो गए हैं. हर गांव गली में जाति की खाई लगातार गहरी होती जा रही है.

ऐसे में जब लोगों को यह लगता है कि सामने वाला उस से नीची जाति का है तो वह और भी ज्यादा हिंसक हो कर उस को पीटने लगता है. दलितों के साथ हो रही घटनाओं के पीछे पाखंडी सोच का बड़ा हाथ है. इस को रोज बढ़ावा दिया जा रहा है.

धर्म की आड़ में प्रवचनों द्वारा लोगों को लगातार यह बताया जा रहा है कि समाज में अलगअलग खेमे भगवान की देन हैं. यह पिछले जन्मों में किए गए पापों का फल है. दबंगई करनेवाले जानते हैं कि उन पर उंगली नहीं उठाई जाएगी क्योंकि यह समाज का दस्तूर है.

दलितों को आज भी धार्मिक कहानियों में यही समझाया जाता है कि सवर्णों व उच्च जाति की सेवा करो, तभी कल्याण होगा. यही सोच एक दलित लड़की को जिंदा जलाने को प्रेरित करती है. आज तक जिन बाबाओं के आश्रमों का परदाफाश हुआ वहां सब से अधिक दलित लड़कियां ही पाई गईं. इस से भी समाज में ऊंचनीच के अंतर को समझा जा सकता है.

खामोश हैं दलित संगठन

दलितों के संगठन इन घटनाओं पर चुप्पी साधे हुए हैं. बहुजन समाज पार्टी की चुप्पी सब से बड़ी है. इस तरह की घटनाओं पर भाजपा के नेता कौशल किशोर दोनों ही जगहों पर गए और वहां पीडि़त परिवारों की मदद का पूरा भरोसा दिलाया. दलितों के मुखर न होने की प्रमुख वजह यह है कि भाजपा ने हिंदुत्व के नाम पर इन को अपने साथ कर लिया था.

देश और प्रदेश के तमाम बडे़ दलित नेता भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़े और अब वे भाजपा के साथ हैं. ऐसे में वे चुप हैं. दलित संख्या में अधिक हैं. ऐसे में नेता उन को साथ रख कर वोट लेने तक उन के साथ रहते हैं. बाद में वे उन की मूल समस्याओं पर चुप हो जाते हैं. दलित अपने से ऊंची जातियों से मेलजोल नहीं रख पाते हैं. ऊंची जातियों वालों का मानना है कि दलितों को वैसे ही रहना चाहिए जैसे वे सदियों से रहते आए हैं.

आज जिस तरह दबंगों के हौसले बुलंद हैं उस से सरकार की छवि खराब हो रही है. इलाहाबाद और उन्नाव की दोनों ही घटनाओं में पुलिस ने पहले मुकदमा दर्ज नहीं किया. इलाहाबाद और उन्नाव की घटनाओं के वीडियो और फोटो जब सोशल मीडिया पर वायरल हुए तब पुलिस हरकत में आई.

थाना स्तर पर आज भी दलित पीडि़त के पक्ष में कोई कार्यवाही नहीं होती है. सरकार यह कह कर अपना पल्ला झाड़ती रहती है कि वह प्रेमप्रसंग है, वह पारिवारिक विवाद है वगैरहवगैरह. असल में तो यह वर्णवाद है, वह भी सदियों पुराना.

सरकार के संरक्षण से बढ़ रही दबंगई

–आर एस दारापुरी (पूर्व आईपीएस, सदस्य – उत्तर प्रदेश स्वराज समिति)

उत्तर प्रदेश में दलितों के प्रति बढ़ रही हिंसक घटनाओं पर जहां बहुत सारे दलित नेता और दल चुप्पी साधे हैं वहीं अवकाशप्राप्त आईपीएस अधिकारी और उत्तर प्रदेश स्वराज समिति के सदस्य आर एस दारापुरी पूरी तरह से मुखर हैं. वे कहते हैं, ‘‘दलितों पर हिंसक घटनाओं की शुरुआत मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के शपथ लेते ही शुरू हो गई थी. जब सहारनपुर के शब्बीरपुर गांव में कहा गया, ‘अगर यूपी में रहना है तो योगीयोगी कहना है’. इस नारे में ही बाद में वंदेमातरम भी जोड़ दिया गया. यही नहीं, वहां बाबासाहेब को ले कर भी आपत्तिजनक टिप्पणियां की गईं. इस से हिंदुत्व के नाम पर काम करने वालों का हौसला बढ़ गया.

‘‘सरकार के इस कदम से खुली गुंडई, हिंसा और दबंगई को संरक्षण मिलने लगा. कई तरह की वाहनियां और सेनाएं अपनाअपना विरोध प्रदर्शन करने लगीं. इस से समाज का माहौल खराब हुआ. समाज में कानून का भय खत्म हो गया. समाज में एक हिंसक वातावरण बन गया है जो पूरे समाज के लिए घातक है.’’

दलित आंदोलन की चुप्पी पर दारापुरी ने कहा, ‘‘बसपा के समय से दलित आंदोलन कमजोर हो गया था. बाबासाहेब हमेशा कहते थे कि हिंदूराष्ट्र समाज के लिए घातक होगा. यहां पर शंबूक और बाली की तरह लोगों के वध होंगे. सीता की तरह महिलाओं के साथ अन्याय होगा. वे हमेशा देश में हिंदूराष्ट्र की स्थापना का विरोध करते रहे.

‘‘कांशीराम आंदोलन की जगह उस तरह काम करते थे जिस में दलित कमजोर बन कर उन के पीछेपीछे चलता रहे. जिस वजह से आज भी दलित मुखर हो कर अपनी बात नहीं कह पा रहा है. आज वह फिर से बसपा का साथ छोड़ ऊंची जातियों की अगुआई करने वालों के पीछे खड़ा हो गया है. इस के साथ ही भाजपा ने दलित नेताओं को अपने पक्ष में कर लिया, इसलिए दलित चुप हैं. उन को समझ में ही नहीं आ रहा है कि वे क्या करें?’’

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बिल्डर्स पर सरकार का नया फंदा है ‘कंप्लीशन सर्टिफिकेट’

मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के नगरनिगम की 6 फरवरी को संपन्न हुई अहम मीटिंग में 2 अपर आयुक्तों बी के चतुर्वेदी और मलिका निगम को हटाने के साथ उन के खिलाफ विभागीय जांच के आदेश दिए गए. मामला कंप्लीशन सर्टिफिकेट से संबंधित था. कंप्लीशन सर्टिफिकेट सारे राज्यों के सभी शहरों में अनिवार्य है और इस के अभाव में लाखों बनेबनाए मकान वैध रूप से खाली रहते हैं.

भोपाल नगरनिगम के इन अधिकारियों पर आरोप था कि उन्होंने कई बिल्डर्स को गलत तरीके से कंप्लीशन सर्टिफिकेट जारी कर लगभग 200 करोड़ रुपयों का घोटाला कर डाला. जाहिर है कंप्लीशन सर्टिफिकेट देने के एवज में मोटी घूस ली गई और जब मामला दबाए नहीं दबा तो नगरनिगम ने उस पर लीपापोती करने की गरज से कुछ अधिकारियों को सस्पैंड कर दिया जिस के बारे में हर कोई जानता है कि इस सजा के कोई खास माने नहीं होते.

दरअसल होता यह है कि जांच चलती रहती है और दोषी अधिकारी शान से नौकरी करते रहते हैं. दूसरी तरफ कंप्लीशन सर्टिफिकेट घोटाले में दोषी पाए गए बिल्डर्स पर 0.5 फीसदी की दर से पैनल्टी लगा दी गई जो करोड़ों में होती है.

इस मामले में पैनल्टी जमा करने के लिए एक महीने का वक्त दिया गया. उलट इस के नगरनिगम के दोषी अधिकारियों की बाबत जांच की कोई समयसीमा तय नहीं की गई कि यह फलां वक्त तक पूरी कर ली जाएगी.

भोपाल के मामले में तो उस वक्त हैरानी हुई जब 3 दोषी अधिकारियों को हफ्तेभर बाद ही बाइज्जत फिर से पदस्थ कर दिया गया. नियमकायदे और कानूनों के नाम पर जो खेल इस घूसकांड में हुआ उस की मिसाल शायद ही ढूंढ़ने से कहीं मिले.

नगरनिगम परिषद ने एक संकल्प पारित करते हुए अपर आयुक्त बी के चतुर्वेदी और मलिका निगम सहित सिटी इंजीनियर जी एस सलूजा को एकतरफा कार्यमुक्त करते हुए उन्हें उन के मूल विभाग में भेजने व उन के खिलाफ विभागीय जांच की बात कही थी लेकिन 13 फरवरी को शासन ने निगम परिषद का संकल्प खारिज करते हुए उन्हें वापस नगरनिगम में ही नियुक्त करने के आदेश दे दिए. अब यह विवाद कानून के मकड़जाल में उलझ कर रह गया है, जिस में दोषी अफसर शान से नौकरी कर रहे हैं यानी या तो उन्होंने भ्रष्टाचार किया ही नहीं और अगर किया भी है तो उन का कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता.

प्रतिनियुक्ति इन के लिए वरदान साबित हुई पर इस का फर्जी कंप्लीशन सर्टिफिकेट पर क्या फर्क पड़ा, यह न किसी ने सोचा और न ही किसी ने बताया.

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कंप्लीशन का औचित्य क्या

नवंबर 2017 में नगरनिगम, भोपाल में फर्जी कंप्लीशन सर्टिफिकेट का मामला चर्चा में था. कुछ कांग्रेसी पार्षदों ने आरोप लगाया था कि बिल्डिंग अनुभूति शाखा ने बिल्डरों से सांठगांठ कर उन्हें गलत तरीके से कंप्लीशन सर्टिफिकेट जारी कर दिए हैं.

ऐसा इसलिए किया गया था कि बिल्डर मई 2016 से लागू नए कानून रेरा यानी रियल स्टेट अथौरिटीज एक्ट में रजिस्ट्रेशन कराने से बच जाएं. इस घूसकांड के उजागर होने पर भोपाल के महापौर आलोक शर्मा ने एक जांच कमेटी बना दी जिस ने जांच की तो इस फर्जीवाड़े का कुछ हिस्सा सामने आ गया.

बहरहाल, जो भी सामने आया उस से एक बात तो स्पष्ट हो गई कि सरकार चाहे कितने भी नियमकानून बना ले, वे ग्राहकों के हितों के बजाय भ्रष्ट अफसरों के हित साधते हैं. चूंकि तमाम नियमों और कानूनों की चाबी इन्हीं अफसरों के पास रहती है, इसलिए घूस खाने के लिए उन्हें नया मौका मिल जाता है. कंप्लीशन सर्टिफिकेट उन में से एक है, जिस पर घूस लेने में कोई चूक नहीं की गई.

कंप्लीशन सर्टिफिकेट ग्राहक को आश्वस्त करता एक कागज है कि जिस फ्लैट, मकान या कालोनी में वह रहा है वह कानूनन पूरी तरह वैध है और वैसा ही है जैसा प्रोजैक्ट के वक्त बिल्डर ने बताया था. हिंदी में इस सर्टिफिकेट को अधिभोग एवं समापन प्रमाणपत्र कहा जाता है. जब कोई डैवलपर किसी प्रोजैक्ट को पूरा कर लेता है तो उसे स्थानीय निकाय से इस प्रमाणपत्र को हासिल करना पड़ता है. न लेने पर सजा और पैनल्टी के प्रावधान हैं. बोलचाल की भाषा में इसे कंप्लीशन सर्टिफिकेट कहा जाता है.

बदली अहमियत

भोपाल के एक सीनियर आर्किटैक्ट सुयश कुलश्रेष्ठ की मानें तो कंप्लीशन सर्टिफिकेट तो हमेशा से ही अनिवार्य रहा है पर अभी तक इस की कोई अहमियत नहीं थी, इसलिए लोग इसे लेते नहीं थे. रेरा लागू होने के बाद इस की अनिवार्यता से देशभर के बिल्डर परेशान हैं. सुयश बताते हैं कि रेरा में कोई नया प्रावधान नहीं है. हुआ इतना भर है कि बहुत से पुराने कानूनों को मिला कर एक नया कानून बना दिया गया है.

एक मकान या अपार्टमैंट कई कानूनी जटिलताओं व प्रक्रियाओं में उलझा रहता है. निर्माण से ले कर समापन तक तरहतरह की अनुमतियां डेवलपर को सरकार से लेनी पड़ती हैं. निर्माण का नक्शा पेश करने से ले कर निर्माण पूरा होने के बाद तक नियमकायदे व कानूनों के यज्ञ में सैकड़ों तरह की आहुतियां डालने के बाद भी मकान काननून आप का हुआ या नहीं, यह तय करने का हक पंडों की तरह अधिकारियों के हाथ में होता है.

कंप्लीशन सर्टिफिकेट इस बात का प्रमाण होता है कि भवन निर्माण का काम स्थानीय कानूनों व स्वीकृत नक्शे या योजना के अनुरूप हुआ है. इस में यदि रत्तीभर भी गड़बड़ी है तो आप एक अवैध भवन या मकान में रह रहे हैं. जहां तक बात बिल्डर्स की है, तो वे तब तक ग्राहक को कब्जा नहीं दे सकते जब तक उन्होंने यह कंप्लीशन सर्टिफिकेट स्थानीय निकाय से हासिल न कर लिया हो. अगर बिल्डर यह सर्टिफिकेट नहीं लेता है तो मान लिया जाता है कि उस ने निर्माण तयशुदा पैमानों व कानूनों के मुताबिक नहीं किया है.

देशभर में ऐसी इमारतों की भरमार है जिन के कंप्लीशन सर्टिफिकेट बिल्डर्स ने नहीं लिए हैं और लिए भी हैं तो भोपाल के घोटाले की तर्ज पर घूस  दे कर, जिस का खमियाजा खरीदारों को भी भुगतना पड़ता है. यह परेशानी कितनी बड़ी है, इस का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि देशभर में आएदिन अवैध कालोनियों को वैध बनाने की मुहिम चलती रहती है. अवैध निर्माण क्यों हुआ था और क्या यह बिना सरकारी विभागों की मिलीभगत के मुमकिन है, इस पर सरकारें मौन रहती हैं, लेकिन वे वैध करार देने के नाम पर और टैक्स यानी दक्षिणा लेने से नहीं चूकतीं. रेरा के राडार पर बिल्डर हैं. यह  सर्टिफिकेट तमाम मकानों के लिए भी जरूरी है, इस लिहाज से देश के 80 फीसदी मकान अवैध या गैरकानूनी हैं. अगर इस बाबत भी अनिवार्यता लाद दी गई तो देशभर में हड़कंप मच जाएगा.

बेतुके नियमकायदे

मकान बनाना कभी आसान काम नहीं रहा. 90के दशक तक लोग खुद की देखरेख में अपनी मरजी का मकान बनवाते थे. इस बाबत तब उन्हें स्थानीय निकाय से अनुमति भर लेनी पड़ती थी जो तब 100-500 रुपए की घूस दे कर मिल जाती थी. बिजली, पानी और सीवेज को ले कर तब खासे कानून  वजूद में नहीं थे. सारी सहूलियतें एक आवेदन व निर्धारित शुल्क अदा करने पर मिल जाती थीं. बड़ी दिक्कत तब मजदूरों और सामग्री की हुआ करती थी.

पर जब शहरीकरण का दौर शुरू हुआ तो रियल एस्टेट कारोबार चमक उठा. हर शहर में बिल्डर, कोलोनाइजर्स और डैवलपर कुकरमुत्तों की तरह उग आए.  ये लोग आज भी आम लोगों की कानूनी परेशानियां दूर करने में अहम रोल निभाते हैं. एक बिल्डर सरकारी कायदेकानूनों की जितनी जानकारी रखता है, उतनी शायद खुद सरकार के कर्मियों को भी नहीं होती.

इन जानकारियों और सहूलियतों की कीमत वह ग्राहकों से वसूलता है तो इस में हर्ज क्या. इस सवाल पर तय है कि सहमत होना मुश्किल है. वजह, बिल्डर्स की छवि कुछ ऐसी बिगाड़ी गई है कि वे हर किसी को लुटेरे नजर आते हैं. मकान और भवन निर्माण को ले कर हर साल नए नियमकानून बनते हैं. कहने को तो ये आम लोगों के भले व हित के लिए होते हैं लेकिन हकीकत में इन से घूस का दायरा बढ़ता है.

विभिन्न विभागों से अनापत्ति प्रमाणपत्र लेने से उसे कंप्लीशन सर्टिफिकेट तक के मुकाम तक पहुंचाने का सफर घूस से भरा हुआ है. भोपाल के एक नामी बिल्डर की मानें तो 60 लाख रुपए का एक फ्लैट तो 40 लाख रुपए में बन जाता है पर बचे 20 लाख रुपए में से हमें 12 लाख रुपए टैक्स और घूस के रूप में देने पड़ते हैं. लोग भी हमें पैसे इसी बाबत देते हैं कि कानूनी खानापूर्तियों की बाबत उन्हें दरदर और दफ्तरदफ्तर न भटकना पड़े.

इस बिल्डर के मुताबिक, निर्माण से संबंध रखते अधिकांश नियमकानून गैरजरूरी व बेमतलब के हैं. कंप्लीशन सर्टिफिकेट उन में से एक है. अगर कोई अपनी जमीन पर मकान या अपार्टमैंट बना रहा है तो उसे कंप्लीशन सर्टिफिकेट लेने के लिए बाध्य करना ज्यादती नहीं, तो क्या है.

बात सच भी है कि इतने फुट की गली छोड़ो, इतने फुट का रास्ता अनिवार्य है, इतनी जमीन पार्किंग और इतनी पर्यावरण के नाम पर खाली रखने व बिल्डिंग का इतना या उतना हिस्सा फलां के लिए आरक्षित रखने जैसी शर्तें लागत को बढ़ाती ही हैं जिसे आम ग्राहक को ही चुकाना पड़ता है. अधिकांश पैसा सरकारी खजाने या घूस में जाता है जबकि लोग समझते हैं कि बिल्डर लूट रहा है.

डैवलपर चंदन गुप्ता का कहना है, ‘‘जिसे लूट करार दे दिया गया है वह दरअसल फीस है. एक बिल्डर तो करोड़ों का दांव खेलता है, इस पर भी उस का टेटुआ सरकारी मुलाजिमों के पंजे में रहता है. अगर वह इतना सबकुछ करने के एवज में कुछ ज्यादा ले ले, तो बेकार की हायतोबा क्यों मचती है. कुछ बिल्डर ज्यादा मुनाफे में ठगी करते हैं, पर ऐसे लोग हर पेशे में हैं. दूसरे, लागत मूल्य में उतारचढ़ाव आता रहता है, इसलिए भी धोखाधड़ी होती है.’’

रही बात कंप्लीशन सर्टिफिकेट की, तो उस का औचित्य समझ से परे है, खासतौर से तब, जब उसे भी रिश्वत दे कर हासिल किया जा सकता है. इस की अनिवार्यता से घूसखोरी और बढ़ रही है और भोपाल की तरह देशभर के स्थानीय निकायों के अधिकारी व दूसरे ओहदेदार अपनी जेबें भर रहे हैं.

कंप्लीशन सर्टिफिकेट का स्थानीय निकाय द्वारा दिया जाना और भी बेतुकी बात है. इसे ग्राहक या खरीदार से लिया जाना चाहिए जो मेहनत की गाढ़ी कमाई दे कर मकान खरीदता है. अगर उसे एतराज नहीं तो स्थानीय निकायों को सरपंच बनाने की कोई तुक नहीं. बिल्डर्स के गले में डाले इस नए फंदे को ढीला करने को निकायों के घूसखोर मुलाजिम तैयार नहीं, जिन्हें आम लोगों के भलेबुरे से लेनादेना नहीं होता.

रेरा का फेर

मई 2016 से ग्राहकों के भले के लिए सरकार ने रेरा यानी रियल एस्टेट अथौरिटी एक्ट लागू किया है जिस का हर किसी ने स्वागत किया. रेरा का प्रमुख प्रावधान यह है कि अब हर प्रोजैक्ट का रजिस्ट्रेशन अनिवार्य है और बिल्डर को उन शर्तों को पूरा करना जरूरी है जिन वह वादा व दावा ग्राहक से करता है.

ग्राहक बिल्डर की ठगी से बचें, यह बेहद जरूरी है लेकिन इस बाबत जो शर्तें बिल्डर पर लादी जा रही हैं वे पूरी हो पाएंगी, इस में शक है. नए  प्रावधानों में से एक उल्लेखनीय यह है कि खरीदारों से जो पैसा बिल्डर लेगा, उस का 70 फीसदी निर्माण कार्य में लगाएगा, लेकिन बिल्डर इमारत की कीमत नहीं बढ़ा पाएगा भले ही बिल्डिंग मटेरियल के भाव बढ़ रहे हों. ऐसे में जाहिर है कि बिल्डर इमारत की गुणवत्ता गिराने को मजबूर होंगे. बिल्डर डिजायन में बदलाव तभी कर सकता है जब दोतिहाई खरीदार अपनी सहमति दें.

ऐसी कई बंदिशों की कोई खास अहमियत नहीं है. वजह, आमतौर पर खरीदार अब जागरूक है और ठोकबजा कर ही जायदाद खरीदता है.

रेरा को लागू हुए डेढ़ साल होने को हैं लेकिन इस का फायदा ग्राहकों को उतना नहीं मिल पा रहा है जितना कहा गया था. इस की इकलौती वजह कानून का उन बाबुओं के हाथों में होना है जो उसे अपनी मरजी से नचाते हैं.

नोएडा और ग्रेटर नोएडा के करीब डेढ़ लाख ग्राहक आज भी इंतजार कर रहे हैं कि उन्हें मालिकाना हक मिले लेकिन वह नहीं मिल रहा है. शिकायतें हो रही हैं पर उन पर कार्यवाही नहीं हो रही. ऐसे में साफ दिख रहा है कि यह कानून भी अव्यावहारिकताओं से भरा है. तयशुदा वक्त में मकान दे पाना पूंजी, बिल्डिंग मटेरियल और श्रमिक उपलब्धता पर निर्भर रहता है. ये सब बातें बिल्डर्स के हक में नहीं हैं, लिहाजा अब विवाद नएनए रूप में सामने आएंगे.

कंप्लीशन सर्टिफिकेट विवाद इसी रेरा की देन है. अप्रैल 2016 तक, जिन्होंने बिल्डिंग निर्माणकार्य पूरा कर लिया था, उन्हें इस सर्टिफिकेट की बाध्यता नहीं थी. लेकिन भोपाल की तरह देशभर में आधेअधूरे प्रोजैक्ट्स को कंप्लीशन सर्टिफिकेट जारी हुए ताकि बिल्डर रेरा में रजिस्ट्रेशन से बच सकें तो इस में गलती सर्टिफिकेट जारी करने वाले निकायों की भी है.

दिलचस्प बात यह भी है कि मध्य प्रदेश में तो ग्राम सचिवों तक ने ये प्रमाणपत्र बिल्डर्स को दे दिए थे जिस से यह साबित हुआ था कि सरकार को यह भी नहीं पता कि कंप्लीशन सर्टिफिकेट जारी करने का हक आखिर है किस को. अब मकान महंगे हो गए हैं. रेरा की शर्तों पर खरा उतरने के लिए बिल्डर दाम बढ़ाने को मजबूर हो चले हैं यानी इस नए कानून का भार भी खरीदारों को ढोना है. इस के बाद भी वे खुश और संतुष्ट हैं, तो यह खुशी कितने दिन टिक पाएगी, यह भी जल्द सामने आ जाना है.

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नोट और सिक्के लेने से मना न करें बैंककर्मी : रिजर्व बैंक

देश में कौन से सिक्के या कैसे नोट चलने हैं, यह भारतीय रिजर्व बैंक का विशेषाधिकार है. बैंक जिस मुद्रा को प्रचलन के लिए बाजार में उतारेगा उसी को बाजार में चलना है. रिजर्व बैंक ने 500 रुपए और 1,000 रुपए के पुराने नोटों को बंद किया और फिर 2 हजार रुपए का नोट बाजार में पेश किया है. मतलब यह है कि रिजर्व बैंक जिसे मान्यता दे वही अधिकृत मुद्रा है, लेकिन इस के इतर, बाजार का अपना कानून है.

बाजार सरकारी मुद्रा को अनधिकृत रूप से प्रचलन से बाहर कर देता है. बाजार का यह अनधिकृत कानून 10 रुपए के 2 सिक्कों के प्रचलन को ले कर इन दिनों गरम है. 10 रुपए के जिस सिक्के पर 15 तिलियां हैं उसे कोई लेने को तैयार नहीं है. जब सिक्का बाजार में चलना ही नहीं है, दुकानदार, बस, टैक्सी, औटो वाले उसे स्वीकार करने को तैयार ही नहीं हैं तो आप भी उसे जेब में बोझ के रूप में नहीं रख सकते. इसी तरह की अफवाहें कुछ अन्य सिक्कों को ले कर भी चल रही हैं. आप भले ही समझाते रहें कि बैंक ने उसे बंद नहीं किया है लेकिन कोई मानने को तैयार नहीं होता.

बात तब ज्यादा बिगड़ी जब बैंकों ने सिक्के लेने से मना कर दिया. स्थिति की गंभीरता को देखते भारतीय रिजर्व बैंक ने हाल में एक सूचना जारी कर सिक्के नहीं लेने वाले कर्मचारी पर कार्यवाही करने की धमकी दी. बैंक ने स्पष्ट कहा है कि किसी भी बैंक का कोई भी बैंककर्मी सिक्के लेने से मना करेगा तो उस के खिलाफ कार्यवाही की जाएगी. हर तरह के नोट और सिक्के बैंक कर्मचारियों को स्वीकार करने पड़ेंगे. सिक्के या नोट बदलने में आम लोगों को दिक्कत नहीं हो, देश के बैंकों को इस का ध्यान रखना है.

मुश्किल यह है कि रिजर्व बैंक की हिदायत के बावजूद बैंककर्मी नोट और सिक्के लेने से मना करते हैं जिस के कारण कारोबारियों व जनसामान्य को दिक्कतें होती हैं. लोगों को बेवजह परेशानी न हो, इस की हिदायत बैंक प्रशासन को अपने कर्मचारियों को देनी चाहिए. भारतीय रिजर्व बैंक ने स्पष्ट कर दिया है कि सिक्का लेने से मना करने वाले कर्मचारी पर कार्यवाही होगी.

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इंडस्ट्री में जबरन कुछ भी नहीं होता : प्रिया बनर्जी

बचपन से ही अभिनय की इच्छा रखने वाली 26 वर्षीया अभिनेत्री प्रिया बनर्जी ने तमिल और तेलुगु फिल्म से अपने कैरियर की शुरुआत की. प्रिया 2011 में ‘मिस कनाडा’ भी रह चुकी हैं. अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने 3 महीने का ऐक्टिंग कोर्स किया और फिर अभिनय के क्षेत्र में उतर गईं.

नम्र स्वभाव वाली और स्पष्टभाषी प्रिया किसी भी गलत बात को सहन नहीं करतीं. यही वजह है कि अभी तक उन्हें सही लोग मिलते गए. उन्हें पता है कि इंडस्ट्री आउटसाइडर के लिए मुश्किल है, पर उन्हें उस में रहना आता है. अभी वे अपनी आने वाली फिल्म ‘दिल जो न कह सका’ में मुख्य भूमिका निभा रही हैं और उस के प्रमोशन को ले कर व्यस्त हैं. उन से बात करना रोचक रहा. पेश हैं, कुछ अंश:

अपने बारे में बताएं?

मैं कनाडा में जन्मी और पलीबढ़ी हूं. हिंदी मैं ने कुछ अरसा पहले ही सीखी है. कनाडा में मेरे पिता इंजीनियर हैं और मां हाउसवाइफ. मुझे बचपन से ही अभिनय का शौक था. स्कूलकालेज में जहां भी मौका मिलता मैं थिएटर में अभिनय कर लेती थी.

मार्केटिंग में स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद जो थोड़ा ब्रेक मिला, उस में मैं ने कुछ करने का मन बनाया और मुंबई चली आई और मौसी के घर रहने लगी. हालांकि फिल्में देखना पसंद करती थी, लेकिन यही मेरा प्रोफैशन बनेगा, ऐसा सोचा नहीं था. फिर मैं ने अनुपम खेर का ऐक्टिंग स्कूल जौइन किया और छोटा सा ऐक्टिंग कोर्स कर लिया, क्योंकि मैं इस ब्रेक में कुछ ऐक्टिंग कर वापस कनाडा जाना चाहती थी.

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प्रशिक्षण के दौरान एक तेलुगु फिल्म का औडिशन हो रहा था. मैं ने उस में औडिशन दिया और 200 लड़कियों में मैं चुन ली गई. इस फिल्म की शूटिंग सैनफ्रांसिस्को में 2 महीने की थी. मुझे बहुत अच्छा लगा. फिर प्रमोशन के लिए इंडिया आई और मैं ने 3 तेलुगु और 1 तमिल फिल्म की. हिंदी फिल्म ‘जज्बा’ भी मिली. यहीं से ऐक्टिंग में रुचि आ गई. मैं मुंबई में रहती हूं और मेरे पेरैंट्स कनाडा में.

पहला ब्रेक कब मिला और क्या कभी इंडस्ट्री में कास्टिंग काउच का सामना करना पड़ा?

मुझे हिंदी फिल्मों में ब्रेक फिल्म ‘जज्बा’ से मिला. उस समय मैं केवल 23 साल की थी. मुझे कास्टिंग काउच का कभी सामना नहीं करना पड़ा. किसी ने मुझे एप्रोच नहीं किया. मेरे निर्मातानिर्देशकों का व्यवहार मेरे साथ हमेशा अच्छा रहा. मेरे हिसाब से ऐसा हर फिल्म इंडस्ट्री में होता है. यह नया नहीं है. मैं ने जो सुन रखा था इंडस्ट्री उतनी बुरी नहीं. आज हर फील्ड में अच्छे और बुरे लोग रहते हैं. क्या सही है क्या गलत यह आप को खुद देखना होता है. जबरन यहां कुछ भी नहीं होता.

क्या आउटसाइडर के लिए सही फिल्में मिलना मुश्किल होता है?

अब मैं अपने हिसाब से फिल्में चुन सकती हूं, लेकिन मैं न्यूकमर हूं और बहुत अधिक चौइस मिलना मुश्किल है. मेरे हिसाब से बहुत अधिक चूजी होना ठीक नहीं. काम करते रहना चाहिए ताकि फिल्म मेकर और दर्शकों के बीच रह सकूं, जिस से मुझे बड़ा ब्रेक मिले.

आप के ब्यूटी सीक्रेट क्या हैं? कितनी फूडी हैं और अपने पर्स में 5 जरूरी चीजें क्या रखती हैं?

फिलहाल सीक्रेट कुछ खास नहीं है, क्योंकि मैं 2 फिल्मों की शूटिंग कर रही हूं. समय मिलने पर अपना ध्यान रख पाती हूं. सब कुछ खाती हूं, डाइटिंग नहीं करती. जंक फूड

कम खाती हूं, घर का खाना खूब खाती हूं. मुझे घर का खाना अधिक पसंद है, इसलिए मैं ने मां से चिकनबिरयानी और अंडा करी बनाना सीखा है. रात को सोने से पहले मेकअप जरूर उतार लेती हूं. मैं अपने पर्स में लिपस्टिक, लिप ग्लौस, हैंड सैनेटाइजर, कंघी और घर की चाबी रखती हूं.

युवाओं को क्या संदेश देना चाहती हैं?

अपने ड्रीम को फौलो करें, धैर्य रखें. जब भी मौका मिले तो खुद को हार्डवर्क से प्रूव करने की कोशिश करें. लोग कुछ भी कहें, अपने ड्रीम को कभी न छोड़ें.

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वृद्धावस्था में बेटों से चाहत, माता पिता आखिर किस के सहारे जिएं

समाचारपत्र में हर रोज नकारात्मकता और विकृत सचाई से रूबरू होना ही होता है. एक सुबह खेल समाचार पढ़ते हुए पन्ने पर एक समाचार मन खराब करने वाला था. अवकाशप्राप्त निर्देशक का शव बेटे की बाट जोहता रह गया.

एक समय महत्त्वपूर्ण पद पर आसीन व्यक्ति, जिस की पत्नी मर चुकी थी, आज वृद्धाश्रम में रह रहा था. उन का एकमात्र बेटा विदेश में जा बसा था. उसे खबर ही एक दिन बाद मिली और उस ने तुरंत आने में असमर्थता जाहिर की. देश में बसे रिश्तेदारों ने भी अंतिम क्रियाकर्म करने से इनकार कर दिया. आश्रम के संरक्षक ने शवदहन किया. एक समय पैसा, पावर और पद के मद में जीता  व्यक्ति अंतिम समय में वृद्धाश्रम में अजनबियों के बीच रहा और अनाथों सा मरा.

आखिर लोग कहां जा रहे हैं? बेटे की निष्ठुरता, रिश्तेदारों की अवहेलना ने सोचने पर मजबूर कर दिया कि आखिर जीवन का गणित कहां गलत हुआ जो अंत ऐसा भयानक रहा. दुनिया में खुद के संतान होने के बावजूद अकेलेपन का अभिशप्त जीवन जीने को मजबूर होना पड़ा. जवानी तो व्यक्ति अपने शारीरिक बल और व्यस्तता में बिता लेता है पर बुढ़ापे की निर्बलता व अकेलापन उसे किसी सहारे के लिए उत्कंठित करता है.

विदेशों से इतर हमारे देश में सामाजिक संरचना ही कुछ ऐसी है कि परिवार में सब एकदूसरे से गुथे हुए से रहते हैं. मांबाप अपने बच्चों की देखभाल उन के बच्चे हो जाने तक करते हैं. अचानक इस ढांचे में चरमराहट की आहट सुनी जाने लगी है. संस्कार के रूप में चले आने वाले व्यवहार में तबदीलियां आने लगी हैं. बच्चों के लिए संपूर्ण जीवन होम करने वाले जीवन के अंतिम वर्ष क्यों अभिशप्त, अकेलेपन और बेचारगी में जीने को मजबूर हो जाते हैं? इस बात की चर्चा देशभर के अलगअलग प्रांतों की महिलाओं से की गई. सभी ने संतान के व्यवहार पर आश्चर्य व्यक्त किया.

लेखक, संपादक, संवाद, व्हाट्सऐप ग्रुप पर व्यक्त विचार इस समस्या पर गहन विमर्श करते हैं. आप भी रूबरू होइए :

अहमदाबाद की मिनी सिंह ने छूटते ही कहा, ‘‘अच्छा है कि उन के कोई बेटा नहीं है, कम से कम कोई आस तो नहीं रहेगी.’’ पटना की रेनू श्रीवास्तव ने कहा, ‘‘यदि बेटी होती तो शायद ये दिन देखने को न मिलते. बेटे की तुलना में बेटियां संवेदनशील जो होती हैं.’’ वहीं रानी श्रीवास्तव ने इस बात को नकारते हुए कहा, ‘‘बात लड़का या लड़की की नहीं, बल्कि समस्या परिवेश व परवरिश की है. समस्या की जड़ में भौतिकवाद और स्वार्थीपन है.’’

मुंबई की पूनम अहमद ने माना, ‘‘कुछ बेटियां भी केयरलैस और स्वार्थी होती हैं, जबकि कई बहुएं सास के लिए सब से बढ़ कर होती हैं.’’ अपने अंतर्जातीय विवाह का उदाहरण देते हुए वे कहती हैं, ‘‘उन की सास से उन का रिश्ता बहुत ही खास है. बीमार होने पर उन की सास उन के पास ही रहना पसंद करती हैं.’’ पूनम अहमद के एक ऐक्सिडैंट के बाद उन की सास ने ही सब से ज्यादा उन का ध्यान रखा. उन का कहना है, ‘‘पेरैंट्स को प्यार और सम्मान देना बच्चों का फर्ज है चाहे वे लड़के के हों या फिर लड़की के.’’

कौन है जिम्मेदार

सही बात बेटा या बेटी से हट, सोच के बीजारोपण में है. हम बच्चों को शुरू से जीवन की चूहादौड़ में शामिल होने के लिए यही मंत्र बताते हैं कि जीवन में सफल वही होता है जिस के पास अच्छी पदवी, पावर और पैसा है. हम उन्हें भौतिकवाद की शिक्षा देते हैं. बच्चों पर सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन का इतना दबाव होता है कि वे दुनियावी और व्यावहारिक बातों में पिछड़ जाते हैं. किताबी ज्ञान भले ही बढ़ता जाता है पर रिश्तों की डोर थामे रखने की कला में वे अधकचरे रह जाते हैं.

सरिता पंथी पूछती हैं, ‘‘बच्चों को इस दौड़ में कौन धकेलता है? उन के मांबाप ही न, फिर बच्चों का क्या दोष?’’ रेणु श्रीवास्तव सटीक शब्दों में कहती हैं, ‘‘भौतिक सुखों की चाह में मातापिता भी तो बच्चों को अकेलापन देते हैं उन के बचपन में, तो संस्कार भी तो वही रहेगा.’’ वे कटाक्ष करती हैं, ‘‘रोपा पेड़ बबूल का तो आम कहां से होय.’’ इस पर मुंबई की पूनम अहमद कहती हैं, ‘‘इसी से क्रैच और ओल्डहोम दोनों की संख्या में इजाफा हो रहा है.’’

अजमेर में रहने वाली लीना खत्री कहती हैं, ‘‘हमें अकसर बच्चों की बातें सुनने का वक्त नहीं होता है. यही स्थिति हमारे बूढ़े हो जाने पर होती है जब बच्चे जिंदगी की आपाधापी में उलझ जाते हैं और उन के पास हमारे लिए वक्त नहीं होता है.’’

नीतू मुकुल कहती हैं, ‘‘उक्त घटना हृदयविदारक और चिंतनीय है. मेरे हिसाब से इस समाचार का एक पक्षीय अवलोकन करना सही नहीं. हम बच्चों को पढ़ाने में तो खूब पैसा खर्च करते हैं पर उन के लिए क्या कभी समय खर्च करने की सोचते हैं. केवल अच्छा स्कूल और सुविधाएं देना ही हमारी जिम्मेदारी नहीं है.’’

इंदौर की पूनम पाठक कहती हैं, ‘‘मशीनों के साथ पलता बच्चा मशीन में तबदील हो गया है. उस के पास संवदेनाएं नहीं होती हैं, होता है तो सिर्फ आगे बढ़ने का जनून और पैसा, पावर व सफलता पानी की जिद. इन सब के लिए वह सभी संबंधों की बलि देने को तैयार रहता है.’’

पटना की रेणु अपने चिरपरिचित अंदाज में कहती हैं, ‘‘यह घटना आधुनिक सभ्यता की देन है जहां हृदय संवेदनशून्य हो कर मरुभूमि बनता जा रहा है.’’

ये सभी बातें गौर फरमाने के काबिल हैं. बच्चों के साथ बातें करना, वक्त गुजारना हमें उन के मानस और हृदय से जोड़े रखता है. दिल और मानस को वार्त्तालाप के पुल जोड़ते हैं और उस वक्त हम अपने भावों व संस्कारों को उन में प्रतिरोपित करते हैं. अंधीदौड़ में भागना सिखाने के साथ बच्चों को रिश्तों और जिम्मेदारियों का भी बचपन से ही बोध कराना आवश्यक है. बड़े हो कर वे खुदबखुद सीख जाएंगे, ऐसा सोचना गलत है. पक्के घड़े पर कहीं मिट्टी चढ़ती है भला?

बेरुखी का भाव

बच्चे तो मातापिता के व्यवहार का आईना होते हैं. कई युवा दंपती खुद अपने बुजुर्गों के प्रति बेरुखी का भाव रखते हैं. उन के लिए बुड्ढेबुढि़या या बोझ जैसे अपशब्दों का प्रयोग करते हैं. अपनी पिछली पीढ़ी के प्रति असंवेदनशील और लापरवाह दंपती अपनी संतानों को इसी बेरुखी, संवेदनहीनता और कर्तव्यहीनता की थाती संस्कारों के रूप में सौंपते हैं. फिर जब खुद बुढ़ापे की दहलीज पर आते हैं तो बेचारगी और लाचारी का चोला पहन अपने बच्चों से अपने पालनपोषण के रिटर्न की अपेक्षा करने लगते हैं. हर बूढ़ा व्यक्ति इतना भी दूध का धुला नहीं होता है.

मिनी सिंह पूछती हैं, ‘‘क्या मांबाप अपने बच्चे की परवरिश में भूल कर सकते हैं, तो फिर बच्चों से कैसे भूल हो जाती है?’’

इस पर रायपुर की दीपान्विता राय बनर्जी बिलकुल सही कहती हैं, ‘‘जिंदगी की आपाधापी में निश्चित ही हर बार हम  तराजू में तोल कर बच्चों के सामने खुद को नहीं रख पाते. इंसानी दिमाग गलतियों का पिटारा ज्यादा होता है और सुधारों का गणित कम, एक कारण यह है जो बच्चों को भी अपनी जरूरतों के अनुसार ढलने को मजबूर कर देता है. जो मातापिता जिंदगीभर अपने रिश्तेनातों में स्वार्थ व भौतिकता को तवज्जुह देते हैं, अकसर उन के बच्चों में भी कर्तव्यबोध कम होने के आसार होते हैं.’’

जिम्मेदारी का एहसास

शन्नो श्रीवास्तव ने अपने अनुभवों को सुनाते हुए बताया, ‘‘उन्होंने अपने ससुर की अंतिम समय में अथक सेवा की जिसे डाक्टरों और सभी रिश्तेदारों ने भी सराहा. वे इस की वजह बताती हैं अपने मातापिता द्वारा दी गई शिक्षा व संस्कार और दूसरा, अपने सासससुर से मिला अपनापन.’’

कितना सही है न, जिस घर में बच्चे अपने दादादादी, नानानानी की इज्जत और स्नेहसिंचित होते देखते हैं. कल को हजार व्यस्तताओं के बीच वे अपने बुजुर्गों के प्रति फर्ज और जिम्मेदारियों को अवश्य निभाएंगे, क्योंकि वह बोध हर सांस के साथ उन के भीतर पल्लवित होता है.

पूनम पाठक कहती हैं, ‘‘बात फिर घूमफिर वहीं आती है. उचित शिक्षा और संस्कार बच्चों के बेहतर भविष्य का निर्माण तो करते ही हैं, साथ ही उन्हें रिश्तों के महत्त्व से भी परिचित कराते हैं. सो, सही व्यवहार से बेहतर भविष्य व रिश्तों के बीच संवेदनशीलता बनी रहती है.’’

सुधा कसेरा बड़े ही स्पष्ट शब्दों में कहती हैं, ‘‘हमें स्कूली पढ़ाई से अधिक रिश्तों के विद्यालय में उन्हें पढ़ाने में यकीन करना चाहिए. रिश्तों के विद्यालय में यह पढ़ाया जाता है कि बच्चों के लिए उन के मातापिता ही संसार में सब से महान और उन के सब से अच्छे मित्र होते हैं. दरअसल, रिश्तों को ले कर हमें बहुत स्पष्ट होना चाहिए.

‘‘तथाकथित अंगरेजी सीखने पर जोर देने वाले विद्यालय ने बच्चे को सबकुछ पढ़ा दिया, पर रिश्तों का अर्थ वे नहीं पढ़ा पाए. ऐसे स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे, विदेश में नौकरी तो पा लेते हैं और वे विदेश में सैटल भी हो जाते हैं, लेकिन भारत में रहने वाले मातापिता के प्रति वे अपने कर्तव्य को अनदेखा करने से नहीं चूकते. रिटायर्ड बाप और मां किस काम के? विदेश की चमकीली जिंदगी में टूटे दांतों वाला बूढ़ा बाप बेटे के लिए डस्टबिन से अधिक कुछ नहीं रह जाता.’’

‘‘आज खुद मैं आगे पढ़ने के लिए अपने दोनों बच्चों को बाहर भेज रही हूं. अगर उस के बाद मैं यह आस रखूं कि वे मेरी जरूरत के समय वापस भारत आ जाएंगे तो यह मेरी बेवकूफी होगी. हमें उन्हें खुला आकाश देना है तो खुद की सोच में भी परिवर्तन लाना ही होगा,’’ कहना है सरिता पंथी का.

पद्मा अग्रवाल का कहना है, ‘‘मेरे विचार से बच्चों को दोष देने से पहले उन की परिस्थितियों पर भी विचार करना जरूरी है. एक ओर विदेश का लुभावना पैकेज, दूसरी ओर पेरैंट्स के प्रति उन का कर्तव्य, कई बार वे चाहे कर भी कुछ नहीं कर पाते. अपने कैरियर और जिंदगी ले कर भी तो उन की कुछ चाहतें और लक्ष्य होते हैं.’’

‘‘सीमा तय करना हमारी मानसिकता पर निर्भर करता है. जिस प्रकार मातापिता अपने बच्चे के भविष्यनिर्माण के कारण अपने सुखसंसाधनों का परित्याग करते हैं, उसी प्रकार बच्चों को उन के लिए अपने कैरियर से भी समझौता करना चाहिए. नौकरी विदेश में अधिक पैकेज वाली मिलेगी, तो भारत में थोड़े पैसे कम मिलेंगे, बस इतना ही अंतर है. अधिकतर जो लोग रिश्तों को महत्त्व नहीं देते, वे ही विदेश में बसना पसंद करते हैं. वे यह नहीं सोचते कि उन के बच्चे भी बड़े हो कर उन के साथ नहीं रहेंगे तो उन को कैसा लगेगा,’’ ऐसा मानना है सुधा कसेरा का.

पल्लवी सवाल उठाती हैं, ‘‘क्या हम बच्चे सिर्फ अपनी सुखसुविधाओं के लिए ही पालते हैं? क्या वे हमारे नौकर या औटोमेशन टू बी प्रोग्राम्ड हैं? हर व्यक्ति का नितांत अलग व्यक्तित्व होता है. कोई जीवनभर आप से जुड़ा रहेगा, तो कोई नहीं. क्या पता कल को आप के बच्चे इतना समर्थ ही न हों कि वे आप की देखभाल कर सकें. क्या पता कल को वे किसी बीमारी या मुसीबत के मारे काम ही न कर सकें. कहने का तात्पर्य है कि बच्चों पर निर्भरता की आशा आखिर रखें ही क्यों.’’

पहले संयुक्त परिवार होते थे तो बच्चों का दूर जाना खलता नहीं था. आजकल मांबाप पहले से ही खुद को मानसिक रूप से तैयार करने लगते हैं कि बच्चे अपनी दुनिया में एक दिन अपने भविष्य के लिए जाएंगे ही.

संयुक्त परिवारों के विघटन और एकल परिवारों का चलन ने ही इस एकाकीपन को जन्म दिया है. पहले बच्चे भी अधिक होते थे. भाईबहन मिल कर मांबाप के बुढ़ापे को पार लगा लेते थे. एकदो अगर विदेश चले भी गए तो कोई फर्क नहीं पड़ता था. अब जब एक या दो ही बच्चे हैं तो हर बार समीकरण सही नहीं हो पाता है जीवन को सुरक्षित रखने का.

एहसान नहीं, प्यार चाहिए

जोयश्रीजी कहती हैं, ‘‘अगर बच्चों को मनपसंद कैरियर चुनने व जीने का अधिकार है तो सीनियर सिटीजंस को भी इज्जत के साथ जीने व शांतिपूर्वक मरने का हक है. यदि बच्चे देखभाल करने में खुद को असमर्थ पाते हैं तो उन्हें मातापिता से भी किसी तरह की विरासत की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए.’’

वास्तविकता के मद्देनजर अगर मातापिता बच्चों को बिना उम्मीद पाले, बिना अपने किए का हिसाब गिनाए कई स्मार्ट विकल्पों पर ध्यान दें, मसलन वृद्धाश्रम या सामाजिक सरोकार वाले आश्रम, तो वे बखूबी अपनी जिंदगी किसी पर थोपने के एहसास से बचा कर अपने ही हमउम्र लोगों के साथ हंसतेमुसकराते कुछ नया करते, सीखते और साझा करते जिंदगी बिता सकते हैं. जब दूसरों को सुधारने की गुंजाइश नहीं रहती है तो खुद को कई बातें सहज स्वीकार करनी होती हैं.

बच्चों को उन के कैरियर और विकास से दूर तो नहीं कर सकते. दूसरी बात, पहले बच्चे अकसर मातापिता के साथ ही रह जाते थे चाहे नौकरी हो या पारिवारिक व्यवसाय. पर अब कैरियर के विकल्प के रूप में पूरा आसमान उन का है. मातापिता कब तक उन के साथ चलें. उन्हें तो थमना ही है एक जगह. बेहतर है कि परिवर्तन को हृदय से स्वीकारें और यह युवा होती पीढ़ी के हम मातापिता अभी से इस के लिए खुद को तैयार कर लें.

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मां बनना औरत की मजबूरी नहीं बल्कि उस की काबिलीयत है

मातृत्व का एहसास औरत के लिए कुदरत से मिला सब से बड़ा वरदान है. औरत का सृजनकर्ता का रूप ही उसे पुरुषप्रधान समाज में महत्त्वपूर्ण स्थान देता है. मां वह गरिमामय शब्द है जो औरत को पूर्णता का एहसास दिलाता है व जिस की व्याख्या नहीं की जा सकती. यह एहसास ऐसा भावनात्मक व खूबसूरत है जो किसी भी स्त्री के लिए शब्दों में व्यक्त करना शायद असंभव है.

वह सृजनकर्ता है, इसीलिए अधिकतर बच्चे पिता से भी अधिक मां के करीब होते हैं. जब पहली बार उस के अपने ही शरीर का एक अंश गोद में आ कर अपने नन्हेनन्हे हाथों से उसे छूता है और जब वह उस फूल से कोमल, जादुई एहसास को अपने सीने से लगाती है, तब वह उस को पैदा करते समय हुए भयंकर दर्द की प्रक्रिया को भूल जाती है.

लेकिन भारतीय समाज में मातृत्व धारण न कर पाने के चलते महिला को बांझ, अपशकुनी आदि शब्दों से संबोधित कर उस का तिरस्कार किया जाता है, उस का शुभ कार्यों में सम्मिलित होना वर्जित माना जाता है. पितृसत्तात्मक इस समाज में यदि किसी महिला की पहचान है तो केवल उस की मातृत्व क्षमता के कारण. हालांकि कुदरत ने महिलाओं को मां बनने की नायाब क्षमता दी है, लेकिन इस का यह मतलब कतई नहीं है कि उस पर मातृत्व थोपा जाए जैसा कि अधिकांश महिलाओं के साथ होता है.

विवाह होते ही ‘दूधो नहाओ, पूतो फलो’ के आशीर्वाद से महिला पर मां बनने के लिए समाज व परिवार का दबाव पड़ने लगता है. विवाह के सालभर होतेहोते वह ‘कब खबर सुना रही है’ जैसे प्रश्नचिह्नों के घेरे में घिरने लगती है. इस संदर्भ में उस का व्यक्तिगत निर्णय न हो कर परिवार या समाज का निर्णय ही सर्वोपरि होता है, जैसे कि वह हाड़मांस की बनी न हो कर, बच्चे पैदा करने की मशीन है.

समाज का दबाव

महिला के शरीर पर समाज का अधिकार जमाना नई बात नहीं है. हमेशा से ही स्त्री की कोख का फैसला उस का पति और उस के घर वाले करते रहे हैं. लड़की कब मां बन सकती है और कब नहीं, लड़का होना चाहिए या लड़की, ये सभी निर्णय समाज स्त्री पर थोपता आया है. वह क्या चाहती है, यह कोई न तो जानना चाहता है और न ही मानना चाहता है, जबकि सबकुछ उस के हाथ में नहीं होता है, फिर भी ऐसा न होने पर उस को प्रताडि़त किया जाता है.

यह दबाव उसे शारीरिक रूप से मां तो बना देता है परंतु मानसिक रूप से वह इतनी जल्दी इन जिम्मेदारियों के लिए तैयार नहीं हो पाती है. यही कारण है कि कभीकभी उस का मातृत्व उस के भीतर छिपी प्रतिभा को मार देता है और उस का मन भीतर से उसे कचोटने लगता है.

कैरियर को तिलांजलि

परिवार को उत्तराधिकारी देने की कवायद में उस के अपने कैरियर को ले कर देखे गए सारे सपने कई वर्षों के लिए ममता की धुंध में खो जाते हैं. यह अनचाहा मातृत्व उस की शोखी, चंचलता सभी को खो कर उसे एक आजाद लड़की से एक गंभीर महिला बना देता है.

लेकिन अब बदलते समय के अनुसार, महिलाएं जागरूक हो गई हैं. आज कई ऐसे सवाल हैं जो घर की चारदीवारी में कैद हर उस औरत के जेहन में उठते हैं, जिस की आजादी व स्वर्णिम क्षमता पर मातृत्व का चोला पहन कर उसे बाहर की दुनिया से महरूम कर दिया गया है.

आखिर क्यों औरत की ख्वाहिशों को ममता के खूंटे से बांध कर बाहर की दुनिया से अनभिज्ञ रखा जाता है? जैसे कि अब उस का काम नौकरी या उन्मुक्त जिंदगी जीना नहीं, बल्कि अपने बच्चे की परवरिश में अपना अस्तित्व ही दांव पर लगा देना मात्र रह गया हो.

बच्चे को अपने रिश्ते का जामा पहना कर उस पर अपना अधिकार तो सभी जमाते हैं, लेकिन जो बच्चे के पालनपोषण से संबंधित कर्तव्य होते हैं, उन का निर्वाह करने के लिए तो पूरी तरह से मां से ही अपेक्षा की जाती है. क्या परिवार में अन्य कोई बच्चे का पालनपोषण नहीं कर सकता. यदि हां, तो फिर इस की जिम्मेदारी अकेली औरत ही क्यों ढोती है?

निर्णय की स्वतंत्रता

दबाव में लिया गया कोई भी निर्णय इंसान पर जिम्मेदारियां तो लाद देता है परंतु उन का वह बेमन से वहन करता है. जब हम सभी एक शिक्षित व सभ्य समाज का हिस्सा हैं तो क्यों न हर निर्णय को समझदारी से लें तथा जिम्मेदारियों के मामले में स्त्रीपुरुष का भेद मिटा कर मिल कर सभी कार्य करें. ऐसे वक्त में यदि उस का जीवनसाथी उसे हर निर्णय की आजादी दे व उस का साथ निभाए तो शायद वह मां बनने के अपने निर्णय को स्वतंत्रतापूर्वक ले पाएगी.

एक पक्ष यह भी

कानून ने भी औरत के मां बनने पर उस की अपनी एकमात्र स्वीकृति या अस्वीकृति को मान्यता प्रदान करने पर अपनी मुहर लगा दी है.

मातृत्व नारी का अभिन्न अंश है, लेकिन यही मातृत्व अगर उस के लिए अभिशाप बन जाए तो? वर्ष 2015 में गुजरात में एक 14 साल की बलात्कार पीडि़ता ने बलात्कार से उपजे अनचाहे गर्भ को समाप्त करने के लिए उच्च न्यायालय से अनुमति मांगी थी, लेकिन उसे अनुमति नहीं दी गई. एक और मामले में गुजरात की ही एक सामूहिक बलात्कार पीडि़ता के साथ भी ऐसा हुआ. बरेली, उत्तर प्रदेश की 16 वर्षीय बलात्कार पीडि़ता को भी ऐसा ही फैसला सुनाया गया. ऐसी और भी अन्य दुर्घटनाएं सुनने में आई हैं.

बलात्कार पीड़िता के

लिए यह समाज कितना असंवेदनशील है, यह जगजाहिर है. बलात्कारी के बजाय पीडि़ता को ही शर्म और तिरस्कार का सामना करना पड़ता है. ऐसे में अगर कानून भी उस की मदद न करे और बलात्कार से उपजे गर्भ को उस के ऊपर थोप दिया जाए तो उस की स्थिति की कल्पना कीजिए, वह कानून और समाज की चक्की के 2 पाटों के बीच पिस कर रह जाती है. लड़की के पास इस घृणित घटना से उबरने के सारे रास्ते खत्म हो जाते हैं और ऐसे बच्चे का भी कोई भविष्य नहीं रह जाता जिसे समाज और उस की मां स्वीकार नहीं करती.

पिछले साल तक आए इस तरह के कई फैसलों ने इस मान्यता को बढ़ावा दिया था कि किस तरह से महिला के शरीर से जुड़े फैसलों का अधिकार समाज और कानून ने अपने हाथ में ले रखा है. वह अपनी कोख का फैसला लेने को आजाद नहीं है. अनचाहा और थोपा हुआ मातृत्व ढोना उस की मजबूरी है.

लेकिन 1 अगस्त, 2016 को सुप्रीम कोर्ट ने बलात्कार की शिकार एक नाबालिग लड़की के गर्भ में पल रहे 24 हफ्ते के असामान्य भू्रण को गिराने की इजाजत दे दी. कोर्ट ने यह आदेश इस आधार पर दिया कि अगर भू्रण गर्भ में पलता रहा तो महिला को शारीरिक व मानसिक रूप से गंभीर खतरा हो सकता है.

सुप्रीम कोर्ट ने गर्भ का चिकित्सीय समापन अधिनियम 1971 के प्रावधान के आधार पर यह आदेश दिया है. कानून के इस प्रावधान के मुताबिक, 20 हफ्ते के बाद गर्भपात की अनुमति उसी स्थिति में दी जा सकती है जब गर्भवती महिला की जान को गंभीर खतरा हो. 21 सितंबर, 2017 को आए मुंबई उच्च न्यायालय के फैसले ने स्थिति को पलट दिया.

न्यायालय ने महिला के शरीर और कोख पर सिर्फ और सिर्फ महिला के अधिकार को सम्मान देते हुए यह फैसला दिया है कि यह समस्या सिर्फ अविवाहित स्त्री की नहीं है, विवाहित स्त्रियां भी कई बार जरूरी कारणों से गर्भ नहीं चाहतीं.

कोई भी महिला चाहे वह विवाहित हो या अविवाहित, अवांछित गर्भ को समाप्त करने के लिए स्वतंत्र है, चाहे वजह कोई भी हो. इस अधिकार को गरिमापूर्ण जीवन जीने के मूल अधिकार के साथ सम्मिलित किया गया है. महिलाओं के अधिकारों और स्थिति के प्रति बढ़ती जागरूकता व समानता इस फैसले में दिखाई देती है. अविवाहित और विवाहित महिलाओं को समानरूप से यह अधिकार सौंपते हुए उच्च न्यायालय ने लिंग समानता और महिला अधिकारों के पक्ष में एक मिसाल पेश की है.

सुप्रीम कोर्ट का अहम फैसला

28 अक्तूबर, 2017 को गर्भपात को ले कर सुप्रीम कोर्ट ने एक बड़ा फैसला सुनाया. सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के मुताबिक, अब किसी भी महिला को अबौर्शन यानी गर्भपात कराने के लिए अपने पति की सहमति लेनी जरूरी नहीं है. एक याचिका की सुनवाई करते हुए कोर्ट ने यह फैसला लिया है. कोर्ट ने कहा कि किसी भी बालिग महिला को बच्चे को जन्म देने या गर्भपात कराने का अधिकार है. गर्भपात कराने के लिए महिला को पति से सहमति लेनी जरूरी नहीं है. बता दें कि पत्नी से अलग हो चुके एक पति ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी. पति ने अपनी याचिका में पूर्व पत्नी के साथ उस के मातापिता, भाई और 2 डाक्टरों पर अवैध गर्भपात का आरोप लगाया था. पति ने बिना उस की सहमति के गर्भपात कराए जाने पर आपत्ति दर्ज की थी.

इस से पहले पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने भी याचिकाकर्ता की याचिका ठुकराते हुए कहा था कि गर्भपात का फैसला पूरी तरह महिला का हो सकता है. अब सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ और जस्टिस ए एम खानविलकर की बैंच ने यह फैसला सुनाया है. फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि गर्भपात का फैसला लेने वाली महिला वयस्क है, वह एक मां है, ऐसे में अगर वह बच्चे को जन्म नहीं देना चाहती है तो उसे गर्भपात कराने का पूरा अधिकार है. यह कानून के दायरे में आता है.

हम यह स्वीकार करते हैं कि आज कानून की सक्रियता ने महिलाओं को काफी हद तक उन की पहचान व अधिकार दिलाए हैं परंतु आज भी हमारे देश की 40 प्रतिशत महिलाएं अपने इन अधिकारों से महरूम हैं, जिस के कारण आज उन की हंसतीखेलती जिंदगी पर ग्रहण सा लग गया है.

बच्चे के जन्म का मां और बच्चे दोनों के जीवन पर बहुत गहरा और दूरगामी प्रभाव पड़ता है. इसलिए मातृत्व किसी भी महिला के लिए एक सुखद एहसास होना चाहिए, दुखद और थोपा हुआ नहीं.

हर सिक्के के दो पहलू

बच्चा पैदा करना पूरी तरह से महिलाओं के निर्णय पर निर्भर होने से परिवार में कई विसंगतियां पैदा होंगी.

– बच्चे की जरूरत पूरे परिवार को होती है, और उसे पैदा एक औरत ही कर सकती है. ऐसे में उस के नकारात्मक रवैए से पूरा परिवार प्रभावित होगा.

– मातृत्व का खूबसूरत एहसास मां बनने के बाद ही होता है. नकारात्मक निर्णय लेने से महिला इस एहसास से वंचित रह जाएगी.

– सरोगेसी इस का विकल्प नहीं है, मजबूरी हो तो बात अलग है.

– अपनी कोख से पैदा किए गए बच्चे से मां के जुड़ाव की तुलना, गोद लिए बच्चे या सरोगेसी द्वारा पैदा किए गए बच्चे से की ही नहीं जा सकती.

– आज के दौर में महिलाएं मातृत्व से अधिक अपने कैरियर को महत्त्व देती हैं. उन की इस सोच पर कानून की मुहर लग जाने के बाद अब परिवार के विघटन का एक और मुद्दा बन जाएगा और तलाक की संख्या में बढ़ोतरी होनी अवश्यंभावी है.

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बीएसएनएल और एमटीएनएल का होने वाला है कायाकल्प

सरकार सार्वजनिक क्षेत्र की दूरसंचार कंपनी भारत संचार निगम लिमिटेड यानी बीएसएनएल तथा महानगर टैलीफोन निगम लिमिटेड यानी एमटीएनएल के कायाकल्प की योजना पर काम कर रही है. योजना के तहत ऐसे कदम उठाए जा रहे हैं कि जिन से बीएसएनएल तथा एमटीएनएल का बाजार अस्तित्व तेजी से बढ़े और ये निजी क्षेत्र की दूरसंचार कंपनियों को टक्कर दे सकें.

दूरसंचार मंत्री मनोज सिन्हा का कहना है कि बीएसएनएल तथा एमटीएनएल का पृथक अस्तित्व बना रहेगा लेकिन दोनों कंपनियां परस्पर बेहतर समन्वय बनाएंगी और बाजार की चुनौतियों से निबटने की रणनीति पर काम करेंगी.

इस के लिए 2016 से ही काम चल रहा था और अब 6 माह के भीतर इन योजनाओं के परिणाम दिखने लगेंगे.

सरकारी क्षेत्र की दूरसंचार कंपनियों की कार्यकुशलता बढ़ाने के लिए सरकारी क्षेत्र की 7 कंपनियों ने योजना बनाई. इन कंपनियों में बीएसएनएल व एमटीएनएल के अलावा आईटीआईएल, सी-डौट, टीसीआईएएल, टीईसी और वीटीआईएल शामिल हैं. योजना का मकसद सरकारी क्षेत्र की कंपनियों की कार्यक्षमता बढ़ाना तथा उन्हें बाजार में प्रतिस्पर्धी बनाना है.


योजना का बड़ा लाभ यह है कि इन कंपनियों के अंदरूनी मामले सीधे अदालतों में जाने के बजाय पहले सी-डौट के पास ले जाए जाएंगे जहां इस का निबटान करने का प्रयास किया जाएगा. सी-डौट यदि विवाद नहीं सुलझा पाता है तो आगे की रणनीति पर विचार किया जा सकता है.

बहरहाल, संचार क्रांति के इस दौर में सार्वजनिक क्षेत्र की दूरसंचार कंपनियां बीएसएनएल व एमटीएनएल जिस तरह से काम कर रही हैं वह उपभोक्ता के अनुकूल नहीं है. एमटीएनएल तो सरकारी हाथी बन चुका है.

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मोहन भागवत का बयान है संगीन इरादों का संकेत

हमारा समाज और व्यवस्था 1947 के बाद सब से गहरे संकट के दौर में है. एक तरफ कश्मीर में सीमा को फिर गरम किया जा रहा है, तो दूसरी तरफ घर में ही एक ऐसी विघटनकारी ताकत खड़ी हो गई है जो पूरी सेना व देश के संविधान को चुनौती दे रही है और ऊपर से यह मौजूदा सरकार को निर्देशित करने की भूमिका में भी है. यह संकट न प्राकृतिक है, न बाहरी, हमारे रक्षकों का खुद का बनाया हुआ है.

पिछले दिनों मुजफ्फरपुर में आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के बयान को इसी आईने की चौखटे में देखा जाना चाहिए. जब वे कह रहे हैं कि उन की सेना देश की सेना से भी बड़ी हो गई है, तो उस के कुछ माने हैं. उन के कथन को सीधे खारिज करने के बजाय उसे समझने की जरूरत है. उन की सेना न तो सीमा पर पाकिस्तान से लड़ने जा रही है और न ही चीन की सेना से डोकलाम में मोरचा लेगी. चूंकि सेना है तो जाहिर है उस का  इस्तेमाल भी होगा.

ऐसे में भागवत की सेना के लिए केवल घर बचता है, बल्कि कहा जा सकता है कि इस सेना का घर यानी देश के भीतर इस्तेमाल हो भी रहा है. अभी, लगभग घोषित तौर पर, यह युद्ध अल्पसंख्यकों के खिलाफ हो रहा है, लेकिन वास्तव में सभी दलित, पिछड़े, आदिवासी और गरीब इस सेना के निशाने पर हैं और यह सिलसिला आगे बढ़ा तो निश्चित तौर पर देश को एक बड़े गृहयुद्ध के लिए तैयार रहना होगा?.

दरअसल, मुसलमानों के खिलाफ संघ की लड़ाई प्रायोजित है, जिस के लिए उसे अलग से अपने समर्थकों में राष्ट्रवाद की हवा भरनी पड़ती है और फिर उस राष्ट्रवादी गुस्से को मुसलमानों की तरफ मोड़ना पड़ता है. लेकिन यह बात गौर करने की है कि अगर मुसलमानों के खिलाफ लड़ने वाला तबका संघ के इशारे पर अपनी जान देने के लिए तैयार है तो फिर वह उन अपनों, जो उस के स्वाभाविक दुश्मन हैं और जिन को जीवनभर उस ने अपने पैरों की जूती समझ कर उन पर शासन किया है, के साथ क्या सुलूक करेगा, आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है.

दलितपिछड़ों पर हमला

उस व्यापक वंचित दलित और पिछड़े तबके का सशक्तीकरण सवर्णसामंती वर्चस्व की कीमत पर हुआ है. पिछले 25 सालों में सत्ता और समाज के वर्चस्व से बाहर रहने की इस तबके की कुंठा अब दलितों व पिछड़ों पर हमले के रूप में सामने आ रही है. इलाहाबाद में बीच चौराहे पर सवर्ण दबंगों द्वारा एक दलित छात्र की हत्या इसी का नतीजा है. वहां एकबारगी उसे भले ही सीधे दलित समझ कर न मारा गया हो, लेकिन सवर्ण तबके में यह एहसास है कि सत्ता अपनी है और अब कुछ भी गलत कर के बचा जा सकता है, इस घटना को अंजाम देने के पीछे का सर्वप्रमुख कारण यही है.

देश में यह पूरा तबका आज खुद को ही सत्ता समझने लगा है. इस हिस्से के युवा भले बेरोजगार हों, लेकिन उन में सत्ता में रहने का एहसास पैदा करा दिया गया है और सत्ता के इस नशे ने ही उन्हें संघ के गणवेशधारियों से इतर एक विस्तारित सेना के अभिन्न हिस्से में तबदील कर दिया है. ऐसे में आने वाले दिनों में मुसलिम समुदाय से इतर, बाकी सामाजिक समुदायों के बीच अंदरूनी संघर्ष छिड़ने की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता है.

वहीं आरएसएस प्रमुख के दावे के विपरीत संघ परिवारियों को शर्मिंदा करने वाला एक दूसरा सच भी है कि लड़ाई के किसी भी मोरचे पर संघ कभी आगे नहीं रहा है. इस के उलट, देश में उस के भागने और माफी मांगने का ही इतिहास है. आजादी की लड़ाई हो या आपातकाल का समय, सभी जगहों के लिए यह बात सही है. आजादी की लड़ाई इस का सब से दुरुस्त उदाहरण है. इस में अमूमन तो उस ने हिस्सा ही नहीं लिया और अगर किसी ने लिया भी तो वह सावरकर साबित हुआ. उस ने माफी मांगी और अंगरेजों की सेवा में जुट गया और बाद में अंगरेजों के निर्देश पर मुसलिम लीग के साथ सरकार बनाने की हद तक चला गया.

संघ व बीजेपी नेता देश के बंटवारे के लिए नेहरू को कोसते नहीं थकते, जबकि सचाई यह है कि बंटवारे की नींव इन के पुरखों ने डाली और उस की असली जिम्मेदार मुसलिम लीग के साथ सत्ता की रास रचाई. उस के बाद दूसरी लड़ाई के मोरचे का सच यह है कि आपातकाल में जेलों में बंद इन के नेता सरकार को चिट्ठियां लिखते रहे और बहुतों ने इलाज के बहाने खुद को अस्पतालों में भरती करा लिया था.

भागवत के उद्घोष में एक और चीज शामिल थी, जिस पर भी गौर किया जाना जरूरी है. उन्होंने कहा कि जिस दिन देश हिंदू राष्ट्र बन जाएगा और व्यवस्था उस के मुताबिक चलने लगेगी, उस दिन आरएसएस की भूमिका खत्म हो जाएगी और वह खुद को समाप्त कर लेगा. अब यह हिंदू राष्ट्र किस की कीमत पर बनेगा, इस की राह में कौन रोड़ा है? आंख मूंद कर भी कोई बता सकता है कि वह रोड़ा संविधान और मौजूदा लोकतांत्रिक व्यवस्था है.

अगर कोई शख्स संविधान और लोकतंत्र को खुलेआम चुनौती दे रहा हो और उस की कब्र खोदने की तैयारी कर रहा हो, और फिर इस कड़ी में उस की रक्षा करने वाली सेना के सामने सब से बड़ी सेना खड़ी करने का ऐलान कर रहा हो, तब किसी के लिए भी खतरे की आशंका को समझना कठिन नहीं होना चाहिए. अगर संघ उस मकसद को हासिल करने की दिशा में आगे बढ़ता है तो उस को रोकने वाली ताकतें भी कम नहीं हैं और न ही किसी रूप में कमजोर हैं. लिहाजा, ये बातें एक बड़े गृहयुद्ध की सी आशंका पैदा करती हैं.

बयानबयान का फर्क

कल्पना कीजिए कि भारतीय सेना की तुलना में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तैयारियों के संबंध में जो बयान संघ प्रमुख मोहन भागवत ने दिया है, वैसा ही बयान अगर असदुद्दीन ओवैसी ने या किसी अन्य मुसलिम, दलित या आदिवासी संगठन के नेता ने दिया होता तो सरकार, सत्तारूढ़ दल और मीडिया का रवैया क्या होता?

सरकार भले ही फौरीतौर पर बयान को नजरअंदाज कर जाती या उस के कुछ मंत्री कड़ी निंदा वाला बयान जारी कर देते, मगर सत्तारूढ़ दल तथा संघ के प्रवक्ता और देशभक्ति का व्यापार करने वाले टीवी चैनलों ने तो निश्चित ही आसमान सिर पर उठा लिया होता. ज्यादा कुछ नहीं तो कम से कम बयान देने वाले नेता और उस के संगठन को देशविरोधी तो करार दे ही दिया गया होता और देश के कुछेक शहरों में तो बयान देने वाले नेता के खिलाफ मुकदमे तक दर्ज करा दिए गए होते. हमारी अदालतें जो इस तरह के बयानों पर तुरंत गिरफ्तारी का आदेश दे देती हैं, इन ताकतों का हथियार बन जाती हैं.

हालांकि संघ प्रमुख के बयान पर भी फौरी प्रतिक्रियाओं का बाजार गरम रहा है. कांग्रेस सहित दूसरे विपक्षी दलों ने इस बयान को देश की सेना का अपमान करार दिया. सोशल मीडिया पर तरहतरह के चुटकलों के जरिए भागवत और संघ की खिल्ली उड़ाई गई. संघ और भाजपा की ओर से भागवत के बयान का बचाव करते हुए उस पर सफाई पेश की गई, कहा गया कि उन के बयान का गलत अर्थ निकाला गया. पर इस सब के बीच भागवत के बयान के मानों पर चर्चा लगभग नहीं के बराबर ही हुई.

जो भी व्यक्ति संघ और उस के काम करने के तरीके को ठीक तरह से जानता है, उसे मालूम है कि संघ का हर काम संगठित और योजनाबद्ध तरीक से होता है. सर संघचालक को कब क्या बोलना है, कैसे बोलना है और कितना बोलना है, यह भी पूरी तरह सुनियोजित होता है.

उन के बयान चाहे मुसलमानों की कथित बढ़ती आबादी के संबंध में हों, भारतीय विवाह संस्था के बारे में हों, हर हिंदू को 4 से अधिक बच्चे पैदा करने

की सलाह देने वाला हो, दलितों, आदिवासियों को पिछड़े वर्गों के आरक्षण को ले कर हो, लड़कियों और महिलाओं के पहनावे को ले कर हो या फिर बलात्कार जैसे अपराधों को आधुनिक शिक्षा का नतीजा बताने वाला हो, हर बयान के पीछे संघ की विचारधारा और मकसद छिपा होता है.

क्या है एजेंडा

देश के हर शहर, गांव, महल्ला, गली, सरकारी व गैर सरकारी दफ्तरों, स्कूलों और मैदानों में संघ व उस से जुड़े संगठनों के स्वयंसेवक हिंदुत्व की खास विचारधारा के तहत नियमित जुटते हैं और अनुशासित ढंग से अपने एजेंडे पर काम करते हैं. सेना की वरदी के समान प्रतीकात्मक तौर पर संघ के स्वयंसेवक भी खाकी निक्कर, सफेद शर्ट, काली टोपी और हाथ में लाठी धारण करते हैं. हालांकि, निक्कर की जगह अब काली फुलपैंट ने ले ली है. संघ की शाखाओं में महिलाओं का प्रवेश वर्जित है, लेकिन सहयोगी संगठनों में महिलाओं के लिए दुर्गावाहिनी जैसे संगठन हैं, जो अपने मूल संगठन के एजेंडे के तहत काम करते हैं.

हर साल दशहरे के अवसर पर पथ संचालन के नाम पर देश के तमाम शहरों व गांवों में संघ के स्वयंसेवक अपनी वरदी धारण कर तथा लाठियां ले कर सड़कों पर निकल कर अपना शौर्य प्रदर्शन करते रहे हैं. पिछले कुछ वर्षों से लाठियों के साथ अब अकसर तलवारों, बंदूकों और अन्य हथियारों का प्रदर्शन भी होने लगा है. दुर्गावाहिनी में शामिल महिलाएं भी ऐसे हथियारों का प्रदर्शन करती हैं. शस्त्रपूजा के नाम पर इन हथियारों की पूजा भी की जाती है.

संघ अपने स्वयंसेवकों को हथियार चलाने का प्रशिक्षण देने के लिए समयसमय पर शिविरों का आयोजन करता रहता है. इन शिविरों में सेना के अवकाशप्राप्त अफसरों को प्रशिक्षण देने के लिए बुलाया जाता है.

यह गौरतलब है कि संघ 93 वर्र्ष पुराना संगठन है. भागवत से पहले 5 सर संघचालक हो चुके हैं. संघ की जो गतिविधियां आज चल रही हैं, वे भागवत के सर संघचालक बनने से पहले से जारी हैं, लेकिन इस से पहले किसी सर संघचालक ने ऐसा बयान नहीं दिया था जबकि उन के दौर में देश को युद्ध की स्थिति का सामना भी करना पड़ा. आज तो युद्ध जैसी कोई बात अभी तक नहीं है. फिर भागवत को यह बयान देने की जरूरत क्यों महसूस हुई?

राजनीतिक ताकत भी संघ ने पर्याप्त तौर पर अर्जित कर ली है, जिस के बूते वह केंद्र सहित देश के 19 राज्यों में सत्ता पर काबिज है. वर्षों की तैयारी और सत्ता प्रतिष्ठान से वह देश में एक सशस्त्र ताकत के तौर पर तैयार हो चुका है. सेना के कई अवकाशप्राप्त अफसर संघ के विभिन्न आनुषंगिक संगठनों में काम कर रहे हैं.

संघ अपने प्रचार यानी कि अफवाह फैलाने वाले तंत्र का परीक्षण भी वर्षों से समयसमय पर करता रहा है. इस संदर्भ में गणेश प्रतिमाओं को दूध पिलाने वाला वाकेआ तो कुख्यात है ही. संघ प्रमुख भागवत के बयान का सीधा आशय यह है कि आज तो जरूरत नहीं है क्योंकि आज हम सत्ता में हैं, लेकिन कल अगर हमारे प्रतिकूल कोई स्थिति आई तो संघ की यह सैन्य तैयारी भारतीय सेना को भी चुनौती दे सकती है और देश में गृहयुद्ध हुआ तो उथलपुथल मच सकती है.

संघ की विचारधारा से असहमति रखने वाली सामाजिक व राजनीतिक ताकतों के लिए संघ का बयान एक संगीन चेतावनी है, जिसे महज सेना के अपमान से जोड़ कर न देखा जाए और न ही उस की खिल्ली उड़ा कर खारिज किया जाए.

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दिनरात शौपिंग : महाराष्ट्र सरकार के इस बड़े फैसले के बारे में जानिए

महाराष्ट्र सरकार ने लोगों को काम करने में आजादी देते हुए दुकानों और मौलों को 24 घंटे खुला रखने की इजाजत दे कर सही किया है. पहले कर्मचारियों के हितों के नाम पर दुकानों के घंटे बांधे गए थे ताकि मालिक उन से रातदिन काम न ले सकें. यह कानून बिजली के आने से पहले तो शायद ठीक था पर जब से पूरे शहर ही नहीं, कसबे और गांव भी रातदिन रोशनी में जगमगा रहे हैं, तो यह निरर्थक है.

इस बदलाव के बाद अब व्यवसायियों पर निर्भर है कि वे अपने प्रतिष्ठानों को कब खोलें और कब बंद करें. पहले जहां लोग सुबह जल्दी दुकानें खोलते थे और जल्दी बंद करते थे, अब उलटा होने लगा है. ज्यादातर बाजार निर्धारित 9-10 बजे की जगह 11-11:30 बजे तक खुलते हैं और देररात तक खुले रहते हैं.

आज लोगों को घर से काम की जगह तक जाने में एक तर से 1 से 2 घंटे लगाने पड़ रहे हैं. ऐसे में उन के पास रात को ही शौपिंग का समय बचता है. दिन में बच्चों की देखरेख, स्कूल होमवर्क में व्यस्त गृहिणियों तक को फुरसत नहीं मिलती कि वे आराम से शौपिंग कर सकें. रात को यह सुविधा मिलने का अर्थ है कि बच्चों को सुला कर घर से आराम से निकला जा सकता है.

दरअसल, अभी भी सरकारों ने नागरिकों की रोजमर्रा की जिंदगी में बहुत से अंकुश लगा रखे हैं. कुछ कर्मचारियों के हितों के नाम पर हैं, कुछ सामाजिक व्यवस्था के नाम पर, कुछ कानून बनाए रखने के नाम पर. अब समय आ गया है कि लोग छोटे समूहों में अपने नियम खुद तय करें. दुकानों का समय दुकानों के मालिक अकेले या बाजार में व्यापारियों के साथ मिलजुल कर तय करें.

पार्किंग भी कुछ ऐसा ही मामला है. इसे घरों और दुकानों को तय करना चाहिए, ट्रैफिक पुलिस या कौर्पाेरेशनों को नहीं. केवल सड़कों पर असुविधा न हो, इस के लिए बंधन हों पर जहां सीमित आनाजाना है वहां जनता खुद तय करे. यह सोच कि सरकारी दफ्तर में बैठा अफसर या चुना हुआ नेता ज्यादा जानकार है, बंद होनी चाहिए.

व्यक्तिगत मामलों में सरकार का दखल न हो क्योंकि हर दखल का मतलब है रिश्वतखोरी और तरफदारी की एक खिड़की खोल देना. रिश्वत की दलदल के कारण यहां कानूनों की भरमार है जो तेजी से बढ़ रहे हैं. रातभर दुकानें खोेले जाने की अनुमति मिलना एक राहत है. पक्की बात है कि इस में भी सरकारी अगरमगर जरूर होंगे जो जल्दी ही दिखेंगे.

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