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कोचिंग बाजार : ऊंची दुकान फीका पकवान

बिहार में सरकारी स्कूलों और कालेजों में पढ़ाईलिखाई की बदहाली के चलते कोचिंग की अमरबेल बखूबी पनप चुकी है. दरअसल, कोचिंग के पनपने के पीछे सरकारी शिक्षा को साजिश के तहत पंगु बनाए रखना है. पटना विश्वविद्यालय के रिटायर्ड प्रोफैसर जगन्नाथ प्रसाद कहते हैं कि अगर सरकारी स्कूलों और कालेजों में अच्छी पढ़ाई होती, तो कोचिंग इंस्टिट्यूट कभी न पनपते. सरकारी स्कूलों और कालेजों के टीचर मोटा वेतन पाने के बावजूद पढ़ाई को ले कर लापरवाह बने रहते हैं. वही टीचर प्राइवेट कोचिंग सैंटरों में जा कर पूरी तल्लीनता से पढ़ाते हैं. ज्यादातर सरकारी टीचर तो अपने घर पर ही कोचिंग सैंटर चलाते हैं और मोटी कमाई करते हैं. सरकारी टीचर जितना मन लगा कर बच्चों को कोचिंग सैंटरों में पढ़ाते हैं अगर उस का 50 फीसदी भी सरकारी स्कूलों और कालेजों के बच्चों को पढ़ा दें तो उन्हें अलग से कोचिंग की जरूरत ही न पड़े.

सूबे में सरकार हर साल तालीम पर अरबों रुपए खर्च करती है. इस के बाद भी बच्चों को बेहतर पढ़ाई के लिए कोचिंग सैंटरों पर निर्भर रहना पड़ता है. बिहार में 2015-16 में पढ़ाईलिखाई पर करीब 22 हजार करोड़ खर्च किए गए. इस के अलावा केंद्र सरकार भी तालीम के नाम पर अलग से रुपए देती है. प्राथमिक शिक्षा के लिए 11 हजार करोड़, माध्यमिक शिक्षा पर 6 हजार करोड़, विश्वविद्यालयी शिक्षा पर 5 हजार करोड़ और प्रौढ़ शिक्षा पर 255 करोड़ खर्च किए गए. इतनी बड़ी रकम खर्च करने के बाद भी सूबे में जितनी तेजी से शिक्षा की बदहाली बढ़ती जा रही है उस से कई गुना तेजी से शिक्षा का प्राइवेट बाजार फूलताफलता जा रहा है.

सपने दिखा कर लूट

सरकार मानती है कि राज्य में करीब 1,500 करोड़ से ज्यादा का कोचिंग का कारोबार है और करीब 1 लाख लोग इस की बहती गंगा में हाथ ही नहीं धो रहे हैं, बल्कि नहा रहे हैं. कोचिंग उद्योग रेलवे के गैंगमैन से ले कर आईएएस अफसर बनाने तक का सपना छात्रों को दिखाता है. यूपीएससी, स्टेट पीएससी, एसएससी, रेलवे, बैंकिंग, मैनेजमैंट, क्लर्क आदि की प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कराने के अलावा कंप्यूटर कोर्स और इंगलिश स्पीकिंग कोर्स कराने के नाम पर भी कोचिंग संचालक चांदी काट रहे हैं. रेलवे, बैंकिंग, कर्मचारी चयन आयोग आदि की परीक्षाओं की तैयारी में लगे करीब 3 लाख, मैडिकल और इंजीनियरिंग की तैयारी में लगे करीब 2 लाख और प्रशासनिक और मैनेजमैंट परीक्षाओं की तैयारी में लगे करीब 75 लाख छात्र हर साल कोचिंग इंस्टिट्यूटों के भरोसे इम्तिहान पास करने का सपना देखते हैं, जो बिहार के कोचिंग संस्थानों के नैटवर्क को साल दर साल मजबूत बनाते हैं.

कुछ पूछना मना है

कोचिंग सैंटरों में छात्रों की बढ़ती भीड़ को देख कर कोटा और दिल्ली के कई कोचिंग संस्थानों ने भी पटना में अपने सैंटर खोल लिए हैं. इंजीनियरिंग, मैडिकल की कोचिंग के लिए 60 हजार से 1 लाख, मैनेजमैंट संस्थानों में दाखिले की तैयारी कराने के एवज में 25 से 50 हजार, बैंकिंग प्रतियोगिताओं के लिए गाइड लाइन देने के लिए 10 से 30 हजार, यूपीएससी के इम्तिहान की तैयारी कराने के नाम पर 20 से 40 हजार, हाई स्कूल एवं इंटरमीडिएट के इम्तिहान में अच्छे नंबरों से पास कराने के टिप्स देने के लिए 10 से 15 हजार की कोचिंग फीस वसूली जा रही है. इतनी बड़ी रकम वसूलने के बाद भी ज्यादातर कोचिंग सैंटरों में छात्रों को सवाल पूछने की इजाजत ही नहीं है. सर ने जो भी पढ़ाया उसे कोई समझे या न समझे, इस से कोचिंग संचालकों को कोई मतलब नहीं है. क्लास में सवाल पूछने वालों को डांटडपट कर बैठा दिया जाता है.

आईआईटी की तैयारी कर रहा छात्र मयंक वर्मा बताता है कि उस ने एक नामी कोचिंग सैंटर में एक नामी टीचर की वजह से दाखिला लिया था. मगर कोर्स खत्म हो गया पर वे कभी क्लास लेने नहीं आए. इंटर और ग्रैजुएशन में पढ़ने वाले छात्रों द्वारा ही पढ़ाया गया. यह हाल है कोचिंग सैंटरों का. इन कोचिंग सैंटरों पर ऊंची दुकान फीका पकवान वाली कहावत सौ फीसदी सटीक बैठती है.

सरकारी योजनाएं विफल

ज्यादातर छात्र और उन के मातापिता भी कोचिंग सैंटरों को कामयाबी का जरीया मान बैठे हैं. अब तो यह हाल है कि 8वीं क्लास से ही बच्चों को कोचिंग सैंटर में दाखिल करा दिया जाता है. रिटायर्ड जिला शिक्षा पदाधिकारी उपेंद्र प्रसाद कहते हैं कि यह सच है कि शिक्षा के नाम पर बनाई गई ज्यादातर योजनाएं फाइलों से बाहर ही नहीं निकल पाती हैं. इस वजह से सैकड़ों शिक्षा माफिया शिक्षकों के भेस में छात्रों को लूट ही नहीं रहे हैं, उन के कैरियर से भी खिलवाड़ कर रहे हैं. जब कोचिंग और प्राइवेट ट्यूशन से बच्चों का भविष्य चमक सकता है, तो सरकारी स्कूलों और कालेजों पर हर साल अरबों रुपए खर्च करने की क्या जरूरत है? बिहार में 6000 बड़ेछोटे कोचिंग इंस्टिट्यूट हैं और उन का सालाना टर्न ओवर 1,500 हजार करोड़ का है. करीब 90 हजार लोग कोचिंग के कारोबार से जुड़े हुए हैं. रेलवे, बैंकिंग, कर्मचारी चयन आयोग आदि परीक्षाओं के छात्र 3 लाख के करीब हैं. मैडिकल की तैयारी में हर साल डेढ़ लाख से ज्यादा और इंजीनियरिंग की तैयारी में हर साल 1 लाख स्टूडैंट लगे होते हैं. प्रशासनिक और मैनेजमैंट परीक्षाओं की तैयारी करने वाले छात्र अलग से हैं. इस से यह साफ हो जाता है कि पटना के कोचिंग संस्थानों का नैटवर्क और आमदनी कितनी तगड़ी है.

पिछले साल फरवरी महीने में कोचिंग संस्थानों की मनमानी के खिलाफ छात्रों का उपजा गुस्सा कहीं से भी गलत नहीं था. यह गुस्सा अचानक पैदा नहीं हुआ था, बल्कि सालों से पनप रहा था. कोचिंग के छात्रों ने पटना के करीब 60 कोचिंग संस्थानों पर हमला कर तोड़फोड़ की और कई जगहों पर आग लगा दी. कोचिंग संस्थानों के पढ़ाने के ढर्रे के बारे में पड़ताल की गई तो उन की मनमानी और तानाशाहीपूर्ण रवैए की परतें खुलती चली गईं. कोर्स पूरा कराने के एवज में कोचिंग संस्थानों द्वारा इंजीनियरिंग और मैडिकल की तैयारी करने वाले हर छात्र से कोर्स के मुताबिक 60 हजार से डेढ़ लाख वसूले जाते हैं. जितना बड़ा ब्रैंड उतनी ही मोटी फीस होती है. प्रतियोगी परीक्षाओं में कामयाब होने का सपना लिए छात्र अपनी पढ़ाई में सुधार और निखार के लिए कोचिंग सैंटरों में दाखिला लेते हैं. दाखिले से पहले कोचिंग संस्थान छात्रों को खूब सब्जबाग दिखाते हैं पर दाखिले के बाद ज्यादातर कोचिंग सैंटरों के छात्र खुद को ठगा महसूस करते हैं.

अंकुश लगाना जरूरी

कोचिंग संस्थानों में साप्ताहिक, मासिक, तिमाही, छमाही और सालाना टैस्ट लिया जाता है. किसी टैस्ट में छात्रों के फेल होने के बाद उन पर अलग से ज्यादा ध्यान देने के बजाय उन्हें घर पर ही मेहनत करने की सलाह दी जाती है. मैडिकल की तैयारी कर रही छात्रा सोनाली के पिता गोविंद यादव कहते हैं कि अगर बच्चा घर पर ही मेहनत कर ले तो उसे कोचिंग में भेजने की क्या जरूरत? बच्चों को स्पैशल ट्रेनिंग दिलाने के लिए ही अभिभावक उसे कोचिंग में दाखिला दिलाते हैं. हजारोंलाखों रुपए डकार कर भी कोचिंग वाले यह कहें कि घर पर ही मेहनत करो, तो फिर कोचिंग का क्या मतलब है? सुपर-30 के संचालक आनंद कुमार कहते हैं कि यह सच है कि कुछ शिक्षा माफिया शिक्षकों के भेस में छात्रों को लूट ही नहीं रहे हैं उन के कैरियर के साथ खिलवाड़ भी कर रहे हैं. ऐसे लुटेरे संस्थानों पर नकेल कस कर ही छात्रों को इंसाफ दिलाया जा सकता है.

दरअसल, कोचिंग संस्थानों पर सरकार और कानून का कोई अंकुश ही नहीं है. अब जब हंगामा मचा है तो मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कोचिंग संस्थानों के लिए नई नीति बनाने का ऐलान किया है. बिहार के मानव संसाधन विकास महकमे के प्रधान सचिव अंजनी कुमार सिंह कहते हैं कि सरकार को कोचिंग संस्थानों के चलने से कोई परेशानी नहीं है, पर अनापशनाप पैसा ले कर बच्चों को ठगने वाले संस्थानों पर अंकुश लगाना जरूरी है. वैसे सरकार पहले ही कोचिंग पौलिसी बनाने का मन बना रही थी, पर अब हंगामे के बाद तुरंत ऐक्ट बनाना जरूरी हो गया है.

छात्रों का नाराज होना गलत नहीं

मिर्जा गालिब कालेज के वाइस प्रिंसिपल प्रोफैसर अरुण कुमार प्रसाद कहते हैं कि कोचिंग संस्थान बच्चों को सब्जबाग दिखा कर दाखिल तो कर लेते हैं पर उन्हें गाइड करने का दायित्व भूल जाते हैं. प्रतियोगी परीक्षाएं सिर पर आ जाती हैं, मगर पाठ्यक्रम आधा भी खत्म नहीं हो पाता है. ऐसे में बच्चों का गुस्सा होना जायज है. यह कहीं से भी सही नहीं है कि स्पैशल पढ़ाई के नाम पर मोटी फीस ले कर एक बैच में 500 से 1000 बच्चों की भीड़ को पढ़ाया जाए. कोचिंग की हालत तो सरकारी स्कूलों और कालेजों से भी बदतर हो गई है. जब बच्चे स्कूलों और कालेजों में ही ठीक से पढ़ लें तो वे प्राइवेट कोचिंग संस्थानों में क्यों दाखिला लें?

यहां कई धंधे भी पनपते हैं

पटना में कोचिंग के कारोबार के साथ कई धंधे चल रहे हैं. कोचिंग संस्थानों के आसपास गर्ल्स और बौयज होस्टल, मेस, किताबकौपियों की दुकानें, सैलून, टिफिन वालों का कारोबार फूलताफलता रहा है. पटना के महेंद्रू, मुसल्लहपुर हाट, खजांची रोड, मखनियां कुआं, नया टोला, भिखना पहाड़ी, कंकड़बाग, चित्रगुप्त नगर, डाक्टर्स कालोनी, राजेंद्र नगर, बोरिंग रोड, कदमकुआं, आर्य कुमार रोड, पीरमुहानी, पोस्टल पार्क आदि इलाकों की गलीगली में कोचिंग सैंटर और होस्टलों की भरमार है. शहर में करीब 3000 से ज्यादा छोटेबड़े होस्टल हैं और इन का कारोबार करोड़ों रुपए का है. होस्टलों में सीलन भरे दड़बानुमा छोटेछोटे कमरे होते हैं और उन में 2-3 चौकियां लगा दी जाती हैं. पढ़ाई के लिए बच्चों को कुरसीटेबल आदि नहीं दिए जाते. हवा आनेजाने के लिए ठीक से खिड़कियां तक नहीं होती हैं. बाथरूम और टौयलेट की भी नियमित साफसफाई नहीं की जाती है. संकरी सीढि़यां, दीवारों और छतों से उखड़ा प्लास्टर, रंगरोगन का नामोनिशान नहीं होता है. पानी की टंकियों की भी सफाई नहीं की जाती है. होस्टल के मेन गेट पर सिक्योरिटी के नाम पर खड़ा बूढ़ा और कमजोर गार्ड ही दिखाई देता है. ज्यादातर होस्टलों में तो कोई गार्ड भी नहीं होता है. राज्य सरकार की ओर से भी होस्टल के रजिस्ट्रेशन आदि का कोई नियम नहीं है.

असुरक्षित माहौल

गर्ल्स होस्टल्स का यह हाल है कि बाहर से देखने पर अजीब सा रहस्यमयी वातावरण नजर आता है. टूटेफूटे पुराने मकानों के कमरों में लड़की या प्लाईबोर्ड से पार्टिशन कर के छोटेछोटे कमरों का रूप दे दिया गया है. सीलन भरे कमरों में न ही ढंग से रोशनी का इंतजाम है, न पानी और साफसफाई का. खानेपीने की व्यवस्था काफी लचर है. खजांची रोड के एक गर्ल्स होस्टल में रहने वाली प्रिया बताती है कि 8 बाई 8 फुट के कमरे में 3 चौकियां लगी हुई हैं और खिड़की का कोई नामोनिशान नहीं है. खाने के लिए 2 हजार हर महीने लिए जाते हैं और घटिया चावल और उस के साथ दाल के नाम पर पानी दिया जाता है. सब्जी के रस में आलू या गोभी ढूंढ़ने में काफी मशक्कत करनी पड़ती है. होस्टल की सुरक्षा के नाम पर चारों ओर की खिड़कियां बंद कर दी जाती हैं. चारदीवारी को ऊंचा कर दिया जाता है और लोहे का बड़ा सा गेट लगा दिया जाता है. मखनियां कुआं के होस्टल में रह कर मैडिकल की तैयारी करने वाली पूर्णियां की रश्मि सिन्हा बताती है कि हर सुबह और रात को लड़कियों की हाजिरी नहीं लगाई जाती है. लड़कियों, उन के अभिभावकों और होस्टल संचालकों के बीच पारदर्शिता न होने पर होस्टलों को हमेशा संदेह की नजरों से देखा जाता है. ज्यादातर गर्ल्स होस्टलों के संचालक मर्द होते हैं, जो लड़कियों से अकसर बेशर्मी से पेश आते हैं. पटना के सिटी एसपी चंदन कुशवाहा कहते हैं कि गर्ल्स होस्टलों की वार्डन महिला ही होनी चाहिए. लोकल थानों के नंबर होस्टलों में चिपकाने चाहिए. गर्ल्स होस्टलों की कई शिकायतें मिलने के बाद समयसमय पर महिला पुलिस द्वारा होस्टलों के मुआयने के निर्देश हर थाने को दिए गए हैं.

पटना के श्रीकृष्णापुरी महल्ले के मुसकान गर्ल्स होस्टल की इंचार्ज श्वेता वर्मा कहती हैं कि उन के होस्टल में ज्यादातर मैडिकल और इंजीनियरिंग की कोचिंग करने वाली लड़कियां ही रहती हैं. उन का दावा है कि उन के होस्टल में लड़कियों की हिफाजत, मैडिकल और साफसफाई का पूरा खयाल रखा जाता है. अगर किसी होस्टल के रखरखाव से लड़कियां और अभिभावक संतुष्ट नहीं होंगे तो उन का कारोबार चल ही नहीं सकता है. किसी भी तरह की बदनामी का धब्बा लगने के बाद होस्टल को चलाना मुमकिन नहीं है. होस्टल में रह कर मैडिकल की तैयारी करने वाली सुरभि जैन कहती है कि उन के होस्टल का इंतजाम पूरी तरह से चुस्तदुरुस्त है. शाम 8 बजे तक हर हाल में होस्टल में आना होता है वरना वार्डन अभिभावकों को खबर देती है.

ढाबा, चाय और लिट्टीचोखा

कोचिंग सैंटरों और होस्टलों के आसपास छोटेमोटे ढाबे, चायबिस्कुट की दुकानें, समोसेपकौड़ों की दुकानें, गोलगप्पों और चाट वालों के ठेले, फलों और जूस की दुकानें आदि खुल गई हैं. गंदगी और खुले में रखी खानेपीने की चीजें छात्रों की सेहत को

नुकसान पहुंचाती हैं. घरपरिवार से दूर रह कर कोचिंग संस्थानों में पढ़ाई कर बेहतर भविष्य बनाने के लिए जीतोड़ मेहनत करने वाले छात्रों को ढंग का खाना नहीं मिल पाता है. ज्यादातर स्टूडैंट्स गलियों और चौकचौराहों पर बने ढाबों में खाना खाने को मजबूर हैं, जिस से वे अकसर बीमार पड़ जाते हैं. पटना के कंकड़बाग महल्ले में रह कर आईआईटी की तैयारी कर रहा शेखपुरा जिले का मयंक वर्मा बताता है कि कोचिंग सैंटर से पढ़ कर लौटने पर खाना बनाने की हिम्मत नहीं होती है. वह 4 दोस्तों के साथ एक कमरा किराए पर ले कर पटना में रहता है. वह कहता है कि ढाबे में एक टाइम खाना खाने पर कम से कम 40 चुकाने पड़ते हैं. उस के बदले में एक प्लेट चावल, दाल, एक सब्जी और प्याज मिलता है. कभीकभार अंडाकरी खा लेता है, जिस के लिए 30 अलग से देने होते हैं. कोचिंग सैंटरों और होस्टलों के आसपास मेस और ढाबा चला कर उन के मालिक खुद तो मालामाल हो रहे हैं पर छात्रों को शारीरिक और मानसिक तौर पर कमजोर कर रहे हैं.

बंदूकधारियों से घिरे रहते हैं

कोचिंग के कारोबार में मोटी कमाई और बढ़ती आपसी प्रतिद्वंद्विता की वजह से ज्यादातर कोचिंग संचालकों ने अपने चारों ओर सुरक्षा का मजबूत घेरा बना रखा है. प्राइवेट सिक्योरिटी गार्ड्स से घिरे कोचिंग संचालकों को स्टूडैंट्स की सुरक्षा का कोई खयाल नहीं रहता है. पटना विश्वविद्यालय के एक प्रोफैसर कहते हैं कि कोचिंग सैंटर चलाने वालों को सब से ज्यादा खतरा स्टूडैंट्स से ही होता है. 95 फीसदी कोचिंग सैंटरों में समय पर पाठ्यक्रम पूरा नहीं कराया जाता है, जबकि छात्रों से मोटी फीस पहले ही वसूल ली जाती है. ऐसे में स्टूडैंट्स का भड़कना लाजिम है. 2 साल पहले पटना के भिखना पहाड़ी महल्ले में जब स्टूडैंट्स ने हंगामा मचाया तो एक कोचिंग संचालक के सुरक्षा गार्ड ने लड़कों की भीड़ पर गोली चला दी थी, जिस से 5-6 दिनों तक खूब हंगामा होता रहा और पढ़ाईलिखाई ठप रही. महल्ले वालों को अलग ही परेशानी का सामना करना पड़ा.

छात्र भी अभिभावकों को ठगते हैं

शिक्षाविद् प्रियव्रत कुमार कहते हैं कि जो बच्चे पढ़ाई में कमजोर होते हैं उन को भी उन के मातापिता जबरन मैडिकल या इंजीनियरिंग की कोचिंग में भेज देते हैं. वहीं कई बच्चे फुजूल में अपने दोस्तों की देखादेखी कोचिंग संस्थान में दाखिला ले लेते हैं. कोचिंग के बहाने लड़केलड़कियों को घर से बाहर निकलने का लाइसैंस मिल जाता है. नहीं पढ़ने वाले बच्चे अपने मातापिता को कोचिंग की डबल फीस बताते हैं. मिसाल के तौर पर अगर किसी कोचिंग की फीस 50 हजार है तो लड़का पिता को 70-80 हजार बताता है. इस तरह वह 50 हजार कोचिंग में जमा कर देता है और बाकी रुपयों से मौज करता है. किताबों और कौपियों के बहाने भी बच्चे रुपए ऐंठते रहते हैं. अत: अभिभावकों को भी अपने बच्चों की गतिविधियों पर नजर रखनी चाहिए और बीचबीच में कोचिंग सैंटर में जा कर उन की प्रोग्रैस की जानकारी लेते रहना चाहिए.

जान बचाने वाला धंधा, इसे आधुनिक विज्ञान की देन समझ कर अपनाएं

बीमारी का काला साया जब सिर पर पड़ता है तो अच्छेअच्छों के पसीने छूट जाते हैं. चिकित्सा विज्ञान ने बहुत उन्नति कर ली है और देश के हर शहर में भव्य सुपर स्पैशियलिटी हौस्पिटल्स दिखने लगे हैं पर उन में जा कर संतुष्ट हो कर निकलने वालों की लगातार कमी हो रही है. आमतौर पर इन हौस्पिटल्स के गलियारों में झल्लाए, बेबस रिश्तेदार दिखते हैं जो डाक्टरों, नर्सों और अर्दलियों से परेशान रहते हैं. ऊपर से जो खर्च होता है वह सरकारी बजट के बराबर कम सा लगने लगता है.

आधुनिक चिकित्सा महंगी तो है ही, इस से संतुष्ट होने वालों की गिनती भी लगातार कम हो रही है. लोग इलाज कराने के बाद ठीक हो कर लौट आते हैं पर डाक्टरों की लूट का बखान करते नजर आते हैं. डाक्टरों का मंत्र है चुप रहो, मरीजों को कोई बात पूरी तरह नहीं बताओ, उन के सवालों का अधूरा जवाब दो. यह डाक्टरों का डिफैंस मैकेनिज्म हो सकता है पर यह मरीजों के मानसिक स्वास्थ्य पर भारी पड़ता है.

मरीज चुप रहने वाले डाक्टरों को कुछ छिपाने वाला समझने लगते हैं जबकि डाक्टर जटिल रोगों की व्याख्या नहीं करना चाहते क्योंकि वे जानते हैं कि मरीज या उस के रिश्तेदारों के पल्ले कुछ नहीं पड़ेगा. वे यह भी जानते हैं कि पूछे गए सवाल निरर्थक होते हैं. उन से जूझना समय की बरबादी ही है.

डाक्टरों का मरीज को उस के रोग के बारे में पूरी जानकारी देना मरीज की सेहत के लिए अच्छा है ताकि वह अपने को तैयार कर सके. उसे इंटैंसिव केयर यूनिट में बंद कर के और उस का रिकौर्ड नर्सों के पास छिपा कर रखने से वह छटपटाने लगता है. उसे लगता है कि या तो वह बचेगा नहीं या फिर उसे कुछ नहीं हुआ और हौस्पिटल उसे जबरन रख कर पैसा कमाना चाहता है. दोनों ही स्थितियों में डाक्टरों और मरीजों के बीच खाई बढ़ जाती है.

अमेरिका व यूरोप में गलती होने पर भारी मुआवजे के मामले आएदिन अदालतों में जा पहुंचते हैं. भारत में वकीलों का रवैया डाक्टरों से भी ज्यादा खराब है इसलिए ऐसे मामले कम होते हैं पर फिर भी डाक्टर कम बताते हैं ताकि उन पर दोष न लगे.

चिकित्सा का बढ़ता खर्च चिंता की बात है पर रोगों से निदान मिल रहा है, यह बात भी तो माननी पड़ेगी. अस्पतालों में मौतें होती हैं पर ठीक हो कर निकलने वालों की भी कमी नहीं है. डाक्टरों को कोसना एक तरह से अपनी खीज गलत इंसान पर उतारना है. यह क्षेत्र सेवा नहीं, धंधा है पर फिर भी जान बचाने वाला है. इसे आधुनिक विज्ञान की देन समझ कर अपनाएं.

शारीरिक व्यायाम से डायबिटीज का खतरा कम

औफिस के बिजी शैड्यूल व डैस्कवर्क ज्यादा करने के कारण अधिकांश युवा कम उम्र में ही डायबिटीज व मोटापे की गिरफ्त में आने लगते हैं साथ ही उन्हें थकान भी ज्यादा महसूस होने लगती है.

ओहियो स्टेट यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं के अनुसार युवाओं का अधिकांश समय औफिस में बीतता है और अगर बैठने का ही ज्यादा काम है, फिर तो 8 घंटे की जौब में 6-7 घंटे सिर्फ बैठेबैठे ही बीत जाते हैं. इस दौरान कोई शारीरिक व्यायाम नहीं होता, क्योंकि ब्रेक टाइम में युवा सिर्फ मौजमस्ती करना ज्यादा पसंद करते हैं और इस बीच जो मिला वही खा लिया, इस से जहां मोटापा बढ़ता है वहीं देर तक बैठे रहने वाले युवा जल्दी ही डायबिटीज की गिरफ्त में आ जाते हैं.

शोधकर्ताओं ने एक अध्ययन किया, जिस में उन्होंने कई लोगों को शामिल किया, कुछ लोगों को ज्यादा शारीरिक व्यायाम करने की सलाह दी गई जबकि कुछ को बैठने का काम दिया गया. जिन्होंने ज्यादा शारीरिक व्यायाम किया उन का वजन कुछ हफ्ते में ही कम हो गया जबकि अन्य लोगों का न सिर्फ वजन बढ़ा बल्कि वे चुस्त भी नहीं दिखाई दिए.

इसलिए अधिकांश बैठ कर समय गुजारने वाले युवाओं को यही सलाह दी गई कि उन्हें बीचबीच में उठ कर घूमते रहना चाहिए, ताकि वे बीमारियों की गिरफ्त में न आएं.

टाइल्स फ्लोरिंग : खूबसूरत भी और किफायती भी

कमरे के फर्श का कमरे के इंटीरियर को खूबसूरत बनाने में महत्त्वपूर्ण योगदान होता है. इसीलिए अब लोग कमरे की सीलिंग, दीवारों और अन्य साजसज्जा के सामान के साथसाथ फर्श की सजावट पर भी ध्यान दे रहे हैं. यह ध्यान सिर्फ फर्श की सुंदरता बढ़ाने पर ही नहीं, बल्कि उस की साफसफाई और खुद की सेहत के मद्देनजर भी है.

दरअसल, फर्श कमरे का वह हिस्सा होता है, जो बहुत जल्दी गंदा होता है और यदि उसे समयसमय पर साफ न किया जाए तो कमरे की खूबसूरती में धब्बे के समान हो जाता है. लेकिन बेहद व्यस्त जीवनशैली में खूबसूरती और सफाई दोनों में तालमेल बैठाना मुश्किल होता है. ऐसे में सही फर्श का चुनाव बहुत फायदेमंद रहता है.

बाजार में वुडन, लैमिनेटेड, कारपेट टाइल्स सहित कई विकल्प फर्श की रौनक बढ़ाने के लिए उपलब्ध हैं. इन में टाइल्स एक ऐसा विकल्प है जिस के साथ सफाई, सौंदर्य और सेहत तीनों का सही तालमेल बैठाया जा सकता है.

आइए, जानते हैं टाइल्स फ्लोरिंग के क्या फायदे हैं:

– सीमेंट या मार्बल वाला फर्श जल्दी खराब हो जाता है. इसी तरह जहां सीमेंट फ्लोरिंग में दरारें पड़ सकती हैं, वहीं मार्बल फ्लोर में दागधब्बे जल्दी पड़ते हैं, जबकि टाइल्स फर्श को सख्त आधार देती हैं.

बाजार में टाइल्स के 2 विकल्प हैं- पहला सिरैमिक और दूसरा पोर्सिलेन. यदि इन्हें फर्श पर सही तरीके से लगाया जाए और सही देखभाल की जाए तो ये फर्श की खूबसूरती को लंबे समय तक कायम रखती हैं.

– अन्य फ्लोरिंग विकल्पों की अपेक्षा टाइल्स फ्लोरिंग सेहत के नजरिए से भी फायदेमंद है. यदि टाइल्स को अच्छी तरह साफ किया जाए तो इन में रोगाणुओं आदि के पनपने की संभावना भी खत्म हो जाती है. टाइल्स फ्लोर कमरे के अंदर की वायु की गुणवत्ता को भी बनाए रखता है. इस के अलावा चूंकि टाइल्स को भट्टों में उच्च तापमान पर पकाया जाता है, इसलिए इन में वाष्पशील कार्बनिक यौगिकों (वोलाटिल और्गेनिक कंपाउंड) के होने की संभावना भी खत्म हो जाती है. इस से कई तरह की स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं के होने का खतरा भी खत्म हो जाता है.

– टाइल्स की तीसरी सब से बड़ी खासीयत यह है कि इन पर दागधब्बे नहीं लगते. इन्हें साफ करने के लिए नौनएब्रैसिव औैर नौनऐसिडिक प्रोडक्ट्स का इस्तेमाल होता है. टाइल्स को साफ करने का सब से आसान तरीका है कि टाइल्स को साबुन के पानी से धोया जाए.

– फर्श पर टाइल्स लगवाने का खर्चा भी अन्य डिजाइनर फ्लोर के खर्चे से काफी कम आता है. साथ ही टाइल्स के टूटने और खराब होने का डर भी नहीं होता है. इसलिए जब तक चाहें तब तक इन्हें फर्श पर लगाए रखा जा सकता है.

– टाइल्स वैसे तो बहुत मजबूत होती हैं और आसानी से इन में दरार नहीं आती, फिर भी अगर दरार आ जाए तो टूटी टाइल को आसानी से रिप्लेस किया जा सकता है

वर्जिनिटी टेस्ट : पास या फेल पर टिका रिश्ता

स्थान – महाराष्ट्र का जिला नासिक, पति ने शादी के सिर्फ 48 घंटे बाद इसलिए अपनी शादी तोड़ दी, क्योंकि पत्नी वर्जिनिटी टेस्ट में फेल हो गयी यानी प्यार और विश्वास पर टिका होने वाला पति पत्नी का रिश्ता वर्जिनिटी टेस्ट में पास न होने पर फेल हो गया. हुआ यह था कि नवविवाहित लड़की के पति ने पंचायत को बताया था कि, जिस लड़की से उसकी शादी हुई है वो ‘वर्जिनिटी टेस्ट’ में फेल हो गई और इसके बाद गांव की पंचायत ने शादी खत्म करने का फैसला सुना दिया. पंचायत द्वारा दूल्हे को सुहागरात के दिन एक सफेद चादर दी गई और उससे कहा गया कि वह अगले दिन इसे वापस करे. सुहागरात के बाद दूल्हे ने पंचायत को चादर दिखाई जिसमें कोई खून के धब्बे नहीं थे और इसके बाद पंचायत ने दूल्हे को रिश्ता खत्म करने का आदेश दे दिया, जबकि वास्तविकता यह है कि लड़की पुलिस में  भर्ती की तैयारी कर रही  है और इस कारण फिजिकल टेस्ट के लिए ट्रेनिंग करती है. इसमें दौड़, लॉन्ग जम्प, साइकलिंग जैसी एक्सरसाइज शामिल है.

वर्जिनिटी  से ही जुडा एक अन्य मामला  बेंगलुरू  में भी सामने आया था जिसमे शादी से करीब दो माह पहले लड़के ने लड़की से मांग की कि अगर वह वर्जिनिटी टेस्ट कराने को तैयार होती है तभी वह उससे शादी करेगा. लडकी को यह बात बुरी भी लगी लेकिन वह लड़के से विवाह करने का मौका भी नहीं खोना चाहती थी इसलिए वह टेस्ट के  लिए तैयार हो गई. लडकी टेस्ट में पास हो गई और दोनों की धूमधाम से शादी हो गई. लेकिन बात यहीं ख़त्म नहीं होती. विवाह के बाद भी लड़के ने लडकी पर शक करना जारी रखा और वह उसे प्रताड़ित करने लगा. लड़के  को अभी भी शक था कि लडकी  का चरित्र ठीक नहीं है, जबकि वह वर्जिनिटी टेस्ट में भी पास हो चुकी थी. आये रोज की  प्रताडऩा से तंग आकर  लडकी ने शादी के चार माह बाद पति के खिलाफ मामला दर्ज कराया. पुलिस ने लड़के के खिलाफ उत्पीडऩ करने और दहेज के परेशान करने का मामला दर्ज कर लिया है.

हैरानी की बात है कि एक तरफ  जहाँ  एक तरफ हम मंगल और चाँद पर पहुँच गए है वहीँ आज भी वर्जिनिटी को मूल्यों और संस्कारों से जोड़कर देखा जाता है. विवाह की बात आते ही मामला लड़की की वर्जिनिटी पर आ कर अटक जाता है. बेंगलुरु और नासिक का मामला भी यही है. विवाह से पहले लोग अक्सर  यह पूछते  नज़र आते हैं कि अपनी गर्लफ्रेंड या पत्नी की वर्जिनिटी के बारे में कैसे पता लगाया जाये. इसका बस यही एक जवाब है कि ऐसा कोई तरीका नहीं है.

दरअसल लोगों के बीच यह धारणा आम है कि जब भी कोई युवती पहली बार शारीरिक सम्बन्ध बनाती है तो उसे ब्लीडिंग होती है. लेकिन यह धारणा सही नहीं है. क्योंकि जहाँ कई महिलाओं में हाइमन नहीं होता, वहीँ कुछ महिलाओं में यह  इतना लचीला होता है कि कुछ केस में तो यह बचपन में खेलते कूदते समय ही फट जाता है, इसलिए अगर पहली बार संबंध बनाने पर भी लड़कियों को ब्लीडिंग नहीं होती तो इसका मतलब ये नहीं कि वो वर्जिन नहीं है. वैसे भी हाइमनोप्लास्टी द्वारा आर्टिफीशियल हाईमन की तरह के टिशुज भी बनाये जा सकते हैं.

कोई महिला वर्जिन है या नहीं, यह केवल उसकी प्रेग्नेंसी हिस्ट्री से पता चल सकता है. या फिर तब जब वह खुद इस के बारे में बताये. वैसे भी फैक्ट्स के अनुसार केवल ४२ प्रतिशत महिलाओं को पहले इंटरकोर्स के दौरान ब्लीडिंग होती है इसलिए पहली बार ब्लीड होने का अर्थ वर्जिन होना कदापि नहीं है. ऑनलाइन सेक्स टॉय रिटेलर लव हनी डॉट को डॉट यूके द्वारा किये गए एक अध्ययन के अनुसार जहाँ महिलाएं 17 साल की उम्र में अपनी वर्जिनिटी खो देती हैं और 28 की उम्र में यौन संबंधों को सबसे ज्यादा एंजाय करती हैं वहीँ  पुरूष 33 वर्ष की उम्र में यौन संबंधों को सबसे ज्यादा एंजाय करते हैं. सर्वे में शामिल 40 फीसदी लोगों ने माना कि वे सेक्स के लिए 28 की उम्र को सबसे बेहतर मानते हैं. सर्वे में यह बात भी सामने आई कि पुरूष 18 की उम्र में अपनी सेक्सुअल पीक पर पहुंचते हैं, जबकि महिलाएं 30 की उम्र में.

आपको जानकार हैरानी होगी कि स्कूल कॉलेज में एडमिशन  व नौकरी के लिए टेस्ट के अलावा एक देश ऐसा भी है जहां स्कॉलरशिप के लिए छात्राओं को वर्जिनिटी टेस्ट से गुजरना होता है. साउथ अफ्रीका के उथूकेला में स्कूल-कॉलेज जाने वाली वर्जिन छात्राओं को जिले की महिला मेयर डूडू मोजिबूको स्कॉलरशिप देती है. इस स्कॉलरशिप को पाने के लिए छात्राओं को वर्जिनिटी टेस्ट देना होता  है.

कितना दोगला है हमारा पुरुष समाज जिनके लिए विवाह पूर्व रिलेशनशिप में  वर्जिनिटी कोई माने नहीं रखती, लेकिन रिलेशनशिप के बाद जब बात विवाह की आती है तो वर्जिनिटी उनके लिए बहुत बड़ा सवाल बन जाता है. वैसे भी विवाह के बाद एक महिला को ही क्यों अपनी वर्जिनिटी साबित करनी  पड़ती है? एक पुरुष से यह  क्यों नहीं पूछा जाता कि वह वर्जिन है कि नहीं या उसने विवाह पूर्व किसी महिला के साथ शारीरिक संबंध तो नहीं बंनाये?

हिचकी : रानी का दमदार अभिनय भी सफलता नहीं दिला सकता

टारेंट सिंड्रोम से पीड़ित रहे अमरीकन मोटीवेशनल प्रवक्ता और शिक्षक ब्रैड कोहेन तमाम मुसीबतों का सामना करते हुए सफल शिक्षक बने थे. फिर उन्होंने अपनी कहानी पर एक किताब भी लिखी, जिस पर अमरीका में 2008 में एक फिल्म ‘‘फ्रंट आफ द क्लास’ बनी थी, उसी के अधिकार लेकर ‘यशराज फिल्मस’ ने फिल्म ‘हिचकी’ का निर्माण किया है. मगर यह फिल्म रानी मुखर्जी के अभिनय को नजरंदाज करने पर शून्य हो जाती है. अब सबसे बड़ा सवाल यही है कि रानी मुखर्जी महज अपने अभिनय के बल पर इस फिल्म को बौक्स औफिस पर कितनी सफलता दिला पाएंगी?

फिल्म ‘‘हिचकी’’ की कहानी टारेंट सिंड्रोम की बीमारी से पीड़ित शिक्षक नैना माथुर(रानी मुखर्जी) के इर्दगिर्द घूमती है. इस बीमारी की वजह से उन्हें बार बार हिचकी आती है. इसके चलते बचपन में उन्हें 12 स्कूल बदलने पड़े और अब जब वह शिक्षक के तौर पर विद्यार्थियों को पढ़ाना चाहती हैं, तो उसे 18 स्कूलों ने नौकरी देने से इंकार कर दिया. जबकि नैना माथुर के पास कई डिग्रियां हैं. पर वह हार नहीं मानती. जबकि नैना माथुर सभी को टारेंट सिंड्रोम के बारे में विस्तार से बताती भी है. अंततः पांच साल के संघर्ष के बाद नैना माथुर को एक कैथोलिक स्कूल में नौकरी मिल जाती है. इस स्कूल के संस्थापक को भी बोलने की समस्या थी. इस स्कूल में शिक्षा के अधिकार के तहत भर्ती गरीब बच्चों की कक्षा नौ एफ को भौतिक शास्त्र पढ़ाने का अवसर नैना माथुर को मिलता है. नैना माथुर इन बच्चों को आम प्रचलित पद्धति की बजाय अनोखे तरीके से पढ़ाती हैं. इस कक्षा के बच्चे झोपड़पट्टी के हैं, तो स्वाभाविक तौर पर वह अपनी शिक्षक को परेशान भी करते हैं और नैना माथुर,आतिष(हर्ष मयार) सहित 14  विद्रोही व शरारती बच्चों से निपटती भी हैं.

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नकल के लिए अक्ल की जरुरत होती है. पर फिल्म ‘हिचकी’ के लेखक व निर्देशक के पास शायद यह अक्ल भी नहीं रही. यह फिल्म 2008 में बनी अमरीकन फिल्म ‘‘फ्रंट आफ द क्लास’’ की अति घटिया नकल है. वास्तव में फिल्म के निर्देशक सिद्धार्थ पी मल्होत्रा ने फिल्म को बेवजह अति नाटकीय/मेलोड्रमैटिक बनाने के चक्कर में फिल्म की ऐसी की तैसी कर दी, जिसे रानी मुखर्जी का उत्कृष्ट अभिनय भी नहीं बचा पाया. मजेदार बत यह है कि इसी विषय पर दक्षिण भारत में एक हौरर फिल्म बनी थी, जिसे हिंदी में ‘मोहन वदनी’ के नाम से डब किया गया. इस फिल्म की हीरोईन भी यही बीमारी है, जिसकी मौत कक्षा के अंदर होती है और उसकी आत्मा स्कूल में भटकती रहती है. यह फिल्म भी टारेंट सिंड्रोम पर जागरूकता लाने में असफल है.

लेखकीय यानी कि कथा कथन और निर्देशकीय कमजोरी के चलते फिल्म ‘‘हिचकी’’ अपने पूरे मकसद से भटक गयी. इसे अपने दमदार अभिनय की बदौलत रानी मुखर्जी भी नहीं बचा पाएंगी? फिल्मकार ने शिक्षक व विद्यार्थी के बीच ऐसा आदर्शवाद परोसा है, जो कि पूरी तरह से बनावटी लगता है, परिणामतः दर्शकों का फिल्म के मूल मकसद से ध्यान हट जाता है. यानी कि फिल्म‘‘हिचकी’’ टारेंट सिंड्रोम जैसी बीमारी को लेकर जागरूकता नही पैदा कर पाती. यहां तक कि छात्र व शिक्षक के बीच का रिश्ता भी जबरन थोपा हुआ नजर आता है. इंटरवल से पहले दर्शक नैना माथुर के साथ जुड़े रहते हैं, मगर इंटरवल के बाद आने वाले उतार चढ़ाव, फिल्म में आने वाले मोड़ का आकलन दर्शक पहले ही लगा लेता है, जिसके चलते इंटरवल के बाद फिल्म दर्शकों को बोर करती है. इतना ही नहीं खलनायक के रूप में नीरव कावी जो कुछ करते हुए नजर आते हैं, वह भी अनावश्यक लगता है. फिल्म का क्लायमेक्स भी अति बनावटी है. लेखक व निर्देशक दोनों ही रूप में सिद्धार्थ पी मल्होत्रा असफल रहे हैं.

फिल्म का गीत संगीत फिल्म के कथानक के साथ तारतम्य नही बैठाता. फिल्म के कैमरामैन बधाई के पात्र हैं.

रानी मुखर्जी ने नैना माथुर के किरदार को पूरे सम्मानजनक तरीके से परदे पर अपने अभिनय से पेश करते हुए टारेंट सिंड्रोम को जिया है. दर्शक नैना माथुर के पढ़ाने की अपरंपरागत शैली के सम्मोहन में जरुर बंधता है. दर्शक सिर्फ रानी मुखर्जी के अभिनय के लिए ही इस फिल्म को देखने जा सकता है.

एक घंटे 58 मिनट की अवधि वाली फिल्म ‘‘हिचकी’’ का निर्माण ‘यशराज फिल्मस’ ने किया है. फिल्म के लेखक सिद्धार्थ पी मल्होत्रा व अंकुर चैधरी, पटकथा लेखक अंकुर चैधरी, अंबर हड़प व गणेश पंडित, संगीतकार हितेष सोनिक, कैमरामैन अविनाश वरूण व कलाकार हैं – रानी मुखर्जी, हर्ष मयार, नीरज कावी, सुप्रिया पिलगांवकर, सचिन पिलगांवकर, कुणाल शिंदे, शिवकुमार सुब्रमणियम, सुप्रिया बोस, जन्नत जुबेर रहमानी व अन्य.

हुंडई ने लौन्च की पहली इलेक्ट्रिक कार, स्पीड है शानदार

प्रदूषण के बढ़ते स्तर के बीच सरकार लगातार इलेक्ट्रिक वाहनों पर ध्यान केंद्रित कर रही है. इसी बीच खबर है कि शीर्ष कार निर्माता कंपनी हुंडई (Hyundai) अपनी पहली इलेक्ट्रिक कार को भारत में लाने के लिए पूरी तरह से तैयार है. कंपनी की नई कार का नाम कोना (KONA) है. एक खबर के अनुसार हुंडई कोना इलेक्ट्रिक एसयूवी को जेनेवा मोटर शो में प्रदर्शित किया गया. इसके कौन्सेप्ट वर्जन को ग्रेटर नोएडा में फरवरी में आयोजित हुए औटो एक्सपो 2018 में भी प्रदर्शित किया गया था.

अगले साल भारत में आने की उम्मीद

अब खबर है कि इंडियन मार्केट में इसे अगले साल तक लौन्च किया जा सकता है. अगर ऐसा होता है तो यह भारत में हुंडई की पहली इलेक्ट्रिक कार होगी. ऐसी उम्मीद है कि हुंडई कोना इलेक्ट्रिक ग्लोबल मार्केट में दो वेरिएंट में आएगी. भारत में इसका एंट्री लेवल सेग्मेंट आएगा. फुल चार्ज करने पर यह 300 किमी की दूरी तय करेगी. कोना में 133 एचपी की मोटर है, जो 395 न्यूटन मीटर की टौर्क जेनरेट करती है.

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6 घंटे में होगी फुल चार्ज

कार में 39.3 किलोवाट की लिथियम आयन बैटरी होगी. यह बैटरी 6 घंटे में पूरी तरह चार्ज हो जाएगी. वहीं क्विक चार्जर से इसे 1 घंटे में 80 फीसदी तक चार्ज किया जा सकेगा. कंपनी का दावा है कि कार 0 से 100 किलोमीटर प्रति घंटा की स्पीड 9.3 सेंकेंड में पकड़ लेगी. कार की टौप स्पीड 167 किलोमीटर प्रति घंटा की होगी. कोना के दूसरे वर्जन में 201 एचपी की मोटर होगी. यह भी 395 न्यूटन मीटर का टौर्क जेनरेट करेगी.

दूसरे वेरिएंट में 64 किलोवाट की बैटरी

अब आप सोच रहे होंगे कि आखिर इस कार में क्या अलग होगा, तो हम आपको बता देते हैं कि हुंडई की इस कार में 64 किलोवाट की बैटरी होगी. इस कार के फुल चार्ज होने पर एक बार में 470 किमी तक का सफर तय किया जा सकेगा. हालांकि भारत में इस कार के आने की उम्मीद नहीं है. इस कार की कीमत में एंट्री सेग्मेंट कार से ज्यादा होगी. कार में 17 इंच के एलौय व्हील का प्रयोग किया गया है.

जनता पर फिर गिरेगी महंगाई की गाज, 1 अप्रैल से बढ़ जाएंगे CNG, PNG के दाम

जनता पर एक बार फिर से महंगाई की गाज गिर सकती है. मीडिया में आईं खबरो के मुताबिक सरकार अगले सप्ताह घरेलू प्राकृतिक गैस की कीमत बढ़ाकर दो साल के ऊपरी स्तर पर ले जा सकती है. अगर ऐसा होता है तो गैस की कीमत बढ़ने से सीएनजी, पीएनजी, बिजली और यूरिया की कीमतें भी बढ़ जाएंगी. सूत्रों के मुताबिक घरेलू गैस फील्ड की प्राकृतिक गैस को दी जाने वाली कीमत को मौजूदा 2.89 डालर प्रति इकाई से बढ़ाकर एक अप्रैल से 3.06 डालर किया जा सकता है.

इससे पहले सरकार ने अक्टूबर 2017 से मार्च 2018 के लिए गैस कीमत को बढ़ाकर 2.89 डालर प्रति एमबीटीयू किया था. यह दर पूर्व छह महीने के लिए 2.48 डालर थी. इसी तरह आलोच्य अवधि की वृद्धि बीते तीन साल में पहली बढ़ोतरी रही.

कई उपभोक्ता वस्तुएं होंगी महंगी

घरेलू उत्पादित प्राकृतिक गैस के दाम बढ़ने से जहां ओएनजीसी व रिलायंस इंडस्ट्रीज जैसी उत्पादक कंपनियों की आय बढ़ेगी. गैस मूल्य में हाने वाली हर एक डालर की वृद्धि की एवज में ओएनजीसी को सालाना 4,000 करोड़ रुपये की अतिरिक्त आय होगी. वहीं इससे सीएनजी और पीएनजी के लिए कच्चा माल महंगा हो जाएगा. इससे बिजली उत्पादन और उर्वरक तथा पेट्रोकेमिकल के लिए फीडस्टौक लागत भी बढ़ जाएगी. इसका मतलब यह है कि ये चीजें महंगी हो जाएंगी.

बता दें कि अमेरिका, रूस व कनाडा जैसे गैस अधिशेष देशों के औसत मूल्य के आधार प्राकृतिक गैस के दाम हर छह महीने में तय होते हैं. भारत अपनी आधी गैस आयात करता है जिसकी लागत उसकी घरेलू दर से दोगुने से भी अधिक है. सूत्रों ने कहा कि 3.06 डालर प्रति एमबीटीयू की दर एक अप्रैल से छह महीने के लिए लागू होगी. यह दर अप्रैल सितंबर 2016 के बाद की उच्चतम होगी.

विराट ने दीपिका के साथ काम करने से किया इनकार

भारतीय टीम के कप्तान विराट कोहली के सितारे सातवे आसमान पर हैं. विराट एक के बाद एक रिकौर्ड तोड़ते जा रहे है. विराट की लोकप्रियता इतना है कि लोग उनके स्टाइल को फौलो करना पसंद करते है. उनकी ब्रांड वैल्यू शादी के बाद और बढ़ गयी है. लेकिन अभी जो खबरें चल रही हैं, उनके मुताबिक बौलीवुड की मशहूर अभिनेत्री दीपिका पादुकोण के साथ विराट ने काम करने से मना कर दिया है.

गौरतलब है कि दीपिका और विराट अपने-अपने क्षेत्रों में शीर्ष पर हैं. जहां विराट खेल के मैदान पर ही नहीं बल्कि मैदान से बाहर भी सुर्खियों में रहते है. तो वहीं दूसरी तरफ बौलीवुड अभिनेत्री दीपिका पादुकोण की करीब करीब हर फिल्म हिट हो रही है और हर बौलीवुड स्टार उनके साथ काम करना चाहता है.

आपको बता दें हाल ही में इंस्टाग्राम ने विराट और दीपिका को सबसे मशहूर सेलेब्रिटी चुना है. ऐसे में इन दोनों की ही डिमांड विज्ञापन की दुनिया में खूब है. जिसको देखते हुए आईपीएल की टीम आरसीबी इन दोनों को लेकर एक विज्ञापन करना चाहती थी. लेकिन विराट ने दीपिका के साथ काम करने से मना कर दिया है.

दरअसल आरसीबी को गोआईबिबो के साथ 11 करोड़ रुपये की डील मिली थी. इसी कंपनी की ब्रांड एम्बेसडर दीपिका पादुकोण भी हैं. लेकिन विराट ने दीपिका के साथ स्क्रीन न शेयर करने का फैसला इसलिए किया है, क्योंकि जब Goibibo की ब्रैंड एंबेसडर दीपिका पादुकोण इस विज्ञापन में शामिल हो जाएंगी तो कहीं ना कहीं यह विज्ञापन आरसीबी का न होकर Goibibo का विज्ञापन बन जाएगा.

ऐसे में विराट कोहली बिना किसी कौन्ट्रैक्ट के ही इस ट्रैवल कंपनी का प्रचार कर देंगे. इसलिए विराट ने बड़ा दांव चलते हुए इस विज्ञापन से खुद को अलग कर लिया है. इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि क्रिकेट के मैदान पर जिस तरह विराट का दिमाग खूब तेज चलता है ठीक उसी तरह विज्ञापन की दुनिया में भी वह अपने दिमाग का खूब इस्तेमाल करते हैं.

‘क्रास वोटिंग’ में दिख रहा सत्ता का चरित्र

16 राज्यों में राज्यसभा के लिये खाली हुई 58 सीटों के लिये हुये चुनाव में हर दल क्रास वोटिंग का तलबगार दिखा. सबसे चाल चरित्र और चेहरा की बात करने वाली भाजपा के चेहरे पर लगा उबटन उतर गया. चुनावी जोड़तोड़ के लिये कभी कांग्रेस को पानी पी कर कोसने वाली भाजपा आज खुद उसी राह पर चलते हुये कांग्रेस से दो कदम आगे निकल गई है.

राज्यसभा के इन चुनावों को देखते साफ लगता है कि देश में संविधान की मंशा, चुनावी सुधार, दलबदल कानून और स्वच्छ राजनीति बेमानी बातें हैं. यह ठीक उसी तरह है जैसे कोर्ट में गीता पर हाथ रखकर झूठी गवाही देना.

राज्यसभा के चुनाव में पूरे देश में सबसे अधिक चर्चा उत्तर प्रदेश की रही. राज्यसभा चुनावों के पहले उत्तर प्रदेश में सरकार चला रही भाजपा गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा के उपचुनाव में बुरी तरह से हार गई थी. अपनी इस हार का बदला लेने के लिये बौखलाई भाजपा ने राज्यसभा चुनावों में बहुजन समाज पार्टी उम्मीदवार भीमराव अम्बेडकर को हराने के लिये हर बल को आजमा लिया.

हर दल के वोट को देखें तो भाजपा अपने कोटे से 8 उम्मीदवारों को राज्यसभा पहुंचा सकती है. इनमें केन्द्र में मंत्री अरुण जेटली, प्रार्टी प्रवक्ता जीवीएल नरसिम्हा राव, अशोक वाजपेई, विजय पाल सिंह तोमर, कांता करदम, हरनाथ सिंह यादव, सकल दीप राजभर और अनिल जैन प्रमुख हैं. समाजवादी पार्टी के वोट से जया बच्चन राज्यसभा पंहुच जाएंगी.

उत्तर प्रदेश में सारा विवाद बसपा के प्रत्याशी भीमराव अम्बेडकर के चुनाव मैदान में उतरने से खड़ा हो गया. राज्यसभा के एक प्रत्याशी को चुनाव जीतने के लिये 37 विधायकों के वोट चाहिये थे. कांग्रेस, बसपा और सपा के पास बचे हुये 29 वोट हैं. ऐसे में उसे 8 वोट उसे निर्दलीय या दूसरे विधायकों से चाहिये थे. भाजपा के पास अपने 8 प्रत्याशियों को वोट देने के बाद 28 वोट बच रहे थे. ऐसे में उसने अपने बचे वोटो का उपयोग करने के लिये गाजियाबाद के स्कूल प्रबंधक अनिल अग्रवाल को चुनाव मैदान में उतार दिया. अब यह तय हो गया कि 10 वोटों का इंतजाम करने के लिये क्रास वोटिंग जरूरी हो गई.

असल में भाजपा के लिये गाजियाबाद के शिक्षण संस्थाओं के संचालक अनिल अग्रवाल का कोई महत्व नहीं है. उसके लिये नाक का सवाल बसपा के प्रत्याशी भीमराव अम्बेडकर को राज्यसभा पहुंचने से रोकना है. इसकी 2 बड़ी वजहें भाजपा के नेता गिनाते हैं. पहली वजह कार्यकर्ताओं को समझाने के लिये है कि बसपा के एक वोट से 1998 में केन्द्र की अटल सरकार गिर गई थी. बड़ी वजह सपा-बसपा का होने वाला गठबंधन है. इस गठबंधन के सहारे ही भाजपा गोरखपुर और फूलपुर के लोकसभा उप चुनाव हारी थी. अब भाजपा खिसियानी बिल्ली की तरह किसी भी कीमत पर बसपा के प्रत्याशी को राज्यसभा में पहुंचने से रोकना चाहती है.

इसके लिये विधायकों में तोड़फोड़ और क्रास वोटिंग हर दांव को आजमा लिया गया. नरेश अग्रवाल को भाजपा मे शामिल करना, उनके विधायक बेटे नितिन अग्रवाल को भाजपा में शामिल करना. निर्दलीय विधायकों को प्रभावित करना सब खेल होने लगे. बसपा के विधायकों में तोड़फोड़, हर खेल का सहारा लिया गया. बसपा के प्रत्याशी को जितवाने के लिये पूरी ताकत और रणनीति सपा नेता अखिलेश यादव के द्वारा तैयार की जा रही है. ऐसे में भाजपा की रणनीति बसपा प्रत्याशी को चुनाव हराकर एक ही वोट से मायावती और अखिलेश यादव को मात देने की है. अखिलेश और मायावती को मात देने के लिये भाजपा अपने असूलों को दरकिनार कर दिखा चुकी है कि चाल चरित्र और चेहरा की बात करने वाली पार्टी का मुखौटा उतर चुका है.

अटल जी ने भले ही एक वोट के लिये बसपा से समझौता नहीं किया पर आज उनकी पार्टी हर तरह के समझौते को करने के लिये तैयार है. केवल उत्तर प्रदेश ही नहीं झारखंड, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल में भी क्रास वाटिंग का पेंच साफ दिख रहा है.

राज्यसभ को उच्च सदन कहा जाता है. भाजपा के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद ससंद में प्रवेश करते हुये संसद की सीढ़ियों के पैर छू कर वादा किया था कि लोकतंत्र के इस मंदिर को ईमानदार और कलंक से दूर रखेंगे. राजनीति का अपराधीकरण तो रोका नहीं जा सका, राज्य सभा में क्रास वोटिंग को भी बढ़ावा दिया जा रहा है. ऐसे में साफ है कि भाजपा की करनी और कथनी में फर्क है. आदर्शवाद का उबटन अब उतर चुका है. भाजपा को जोड़तोड़ वाला चेहरा साफ दिख रहा है.

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