बीमारी का काला साया जब सिर पर पड़ता है तो अच्छेअच्छों के पसीने छूट जाते हैं. चिकित्सा विज्ञान ने बहुत उन्नति कर ली है और देश के हर शहर में भव्य सुपर स्पैशियलिटी हौस्पिटल्स दिखने लगे हैं पर उन में जा कर संतुष्ट हो कर निकलने वालों की लगातार कमी हो रही है. आमतौर पर इन हौस्पिटल्स के गलियारों में झल्लाए, बेबस रिश्तेदार दिखते हैं जो डाक्टरों, नर्सों और अर्दलियों से परेशान रहते हैं. ऊपर से जो खर्च होता है वह सरकारी बजट के बराबर कम सा लगने लगता है.

आधुनिक चिकित्सा महंगी तो है ही, इस से संतुष्ट होने वालों की गिनती भी लगातार कम हो रही है. लोग इलाज कराने के बाद ठीक हो कर लौट आते हैं पर डाक्टरों की लूट का बखान करते नजर आते हैं. डाक्टरों का मंत्र है चुप रहो, मरीजों को कोई बात पूरी तरह नहीं बताओ, उन के सवालों का अधूरा जवाब दो. यह डाक्टरों का डिफैंस मैकेनिज्म हो सकता है पर यह मरीजों के मानसिक स्वास्थ्य पर भारी पड़ता है.

मरीज चुप रहने वाले डाक्टरों को कुछ छिपाने वाला समझने लगते हैं जबकि डाक्टर जटिल रोगों की व्याख्या नहीं करना चाहते क्योंकि वे जानते हैं कि मरीज या उस के रिश्तेदारों के पल्ले कुछ नहीं पड़ेगा. वे यह भी जानते हैं कि पूछे गए सवाल निरर्थक होते हैं. उन से जूझना समय की बरबादी ही है.

डाक्टरों का मरीज को उस के रोग के बारे में पूरी जानकारी देना मरीज की सेहत के लिए अच्छा है ताकि वह अपने को तैयार कर सके. उसे इंटैंसिव केयर यूनिट में बंद कर के और उस का रिकौर्ड नर्सों के पास छिपा कर रखने से वह छटपटाने लगता है. उसे लगता है कि या तो वह बचेगा नहीं या फिर उसे कुछ नहीं हुआ और हौस्पिटल उसे जबरन रख कर पैसा कमाना चाहता है. दोनों ही स्थितियों में डाक्टरों और मरीजों के बीच खाई बढ़ जाती है.

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