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बेरोजगारी और मानसिकता

आंकड़ों के अनुसार देश में बेरोजगारी बढ़ रही है. सरकार के इस दावे के बावजूद कि भारत दुनिया की सब से तेज बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था है, बेरोजगारी के संकट में कोई कमी नहीं आने वाली. देश में छिपी बेरोजगारी तो बहुत ज्यादा है क्योंकि हमारे यहां 1 कमाए 5 खाएं की परंपरा आज भी चल रही है. बहुत से बेरोजगार आधाअधूरा काम कर के अपनेआप को कमाऊ मान लेते हैं.

बेरोजगारी बढ़ने की जिम्मेदार सरकार ही हो, जरूरी नहीं. किसी भी अर्थव्यवस्था में बेरोजगारी की जड़ उस की उत्पादकता में होती है. यदि जनसंख्या उत्पादक होगी तो थोड़े से लोग बहुतों के लायक खाना, मकान, कपड़ा जुटा सकते हैं और बाकी व्यर्थ के विलासिता वाले कामों में लग कर अपने को कामकाजी मान सकते हैं, लेकिन यदि उत्पादकता कम होगी तो ज्यादा लोग उसी जमीन या उन्हीं कारखानों में लगेंगे और वे केवल अपने लायक ही सामान पैदा कर सकेंगे या बना सकेंगे.

अमीर देशों में प्रतिव्यक्ति उत्पादकता कृषि, औद्योगिक व सेवा क्षेत्रों में बहुत ज्यादा है और वहां जनसंख्या की 2 से 5 प्रतिशत लोगों की बेरोजगारी भी सरकार के लिए चिंता का विषय होती है. इस के उलट हमारे यहां स्पष्ट व अस्पष्ट बेरोजगारी के आंकडे़ भयावह हैं और गांवों में कृषि पर आधारित बेरोजगारी भी बढ़ रही है. इस का अर्थ है कि देश में ह्यूमन कैपिटल का बेहद नुकसान हो रहा है. देश की अर्थव्यस्था में 10 प्रतिशत से कम योगदान देने वाली कृषि पर 50 प्रतिशत आबादी निर्भर है.

कठिनाई यह है कि देश में सोच है कि यहां रोजगार उसे माना जाता है जहां बिना काम किए पैसा मिले. यहां सरकारी नौकरी ही सर्वोत्तम मानी जाती है चाहे उस का अर्थव्यवस्था के लिए कुछ लाभ न हो. यहां लूट के माल में बंटवारा सर्वोत्तम काम माना जाता है और वही सफल रोजगार माना जाता है जो मुफ्त की खा सके. यह हमारी उस पौराणिक संस्कृति की देन है जिस में काम करने वाले लोग समाज के सब से निम्न हैं और लूटने वाले पंडेपुजारी सब से ऊंचे.

इस समस्या का हल आसान नहीं है क्योंकि मानसिकता बदलने में कई पीढि़यां लगती हैं. अंगरेज हमें बदल नहीं पाए और हमारे नेताओं का तो कहना ही क्या है? वे तो लूट के देवताओं के पुजारी हैं.

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घर टूटने की वजह, महत्त्वाकांक्षी पति या पत्नी

निर्देशक गुलजार की 1975 में आई फिल्म ‘आंधी’ ने सफलता के तमाम रिकौर्ड तोड़ डाले थे. इस फिल्म पर तब तो विवाद हुए ही थे, यदाकदा आज भी सुनने में आते हैं, क्योंकि यह दिवंगत पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की जिंदगी पर बनी थी. संजीव कुमार इस फिल्म में नायक और सुचित्रा सेन नायिका की भूमिका में थीं, जिन का 2014 में निधन हुआ था.

‘आंधी’ का केंद्रीय विषय हालांकि राजनीति था. लेकिन यह चली दरकते दांपत्य के सटीक चित्रण के कारण थी, जिस के हर फ्रेम में इंदिरा गांधी साफ दिखती थीं, साथ ही दिखती थीं एक प्रतिभाशाली पत्नी की महत्त्वाकांक्षाएं, जिन्हें पूरा करने के लिए वह पति को भी त्याग देती है और बेटी को भी. लेकिन उन्हें भूल नहीं पाती. पति से अलग हो कर अरसे बाद जब वह एक हिल स्टेशन पर कुछ राजनीतिक दिन गुजारने आती है, तो जिस होटल में ठहरती है, उस का मैनेजर पति निकलता है.

दोबारा पति को नजदीक पा कर अधेड़ हो चली नायिका कमजोर पड़ने लगती है. उसे समझ आता है कि असली सुख पति की बांहों, रसोई, घरगृहस्थी, आपसी नोकझोंक और बच्चों की परवरिश में है न कि कीचड़ व कालिख उछालू राजनीति में. लेकिन हर बार उसे यही एहसास होता है कि अब राजनीति की दलदल से निकलना मुश्किल है, जिसे पति नापसंद करता है. राजनीति और पति में से किसी एक को चुनने की शर्त अकसर उसे द्वंद्व में डाल देती है. ऐसे में उस का पिता उसे आगे बढ़ने के लिए उकसाता रहता है. इस कशमकश को चेहरे के हावभावों और संवादअदायगी के जरीए सुचित्रा सेन ने इतना सशक्त बना दिया था कि शायद असल किरदार भी चाह कर ऐसा न कर पाता.

आरती बनीं सुचित्रा सेन दांपत्य के दूसरे दौर में खुलेआम अपने होटल मैनेजर पति के साथ घूमतीफिरती और रोमांस करती नजर आती है, तो विरोधी उस पर चारित्रिक कीचड़ उछालने लगते हैं. स्वभाव से जिद्दी और गुस्सैल आरती इस पर तिलमिला उठती है, क्योंकि उस की नजर में वह कुछ भी गलत नहीं कर रही थी. चुनाव प्रचार के दौरान जब उस से यह सवाल हर जगह पूछा जाता है कि होटल मैनेजर जे.के. से उस का क्या संबंध है, तो वह हथियार डालती नजर आती है. ऐसे में पति उसे संभालता है. चुनाव प्रचार की आखिरी पब्लिक मीटिंग में वह पति को साथ ले कर जाती है और सच बताते हुए कहती है कि ये उस के पति हैं. अगर इन के साथ घूमनाफिरना गुनाह है, तो वह गुनाह उस ने किया है. आखिर में रोतीसुबकती आरती भावुक हो कर जनता से अपील करती है कि वह वोट नहीं इंसाफ मांग रही है.

जनता उसे जिता कर इंसाफ कर देती है. फिल्म के आखिरी दृश्य में जब वह हैलिकौप्टर में बैठ कर दिल्ली जा रही होती है तब संजीव कुमार उस से कहता है कि मैं तुम्हें हमेशा जीतते हुए देखना चाहता हूं. फिल्म इसी सुखांत पर खत्म हो जाती है. लेकिन बुद्धिजीवी दर्शकों के सामने यह सवाल छोड़ जाती है कि क्या कल कैरियर के लिए छोड़े गए पति को सार्वजनिक रूप से स्वीकारना भी राजनीति का हिस्सा नहीं था? यह जनता के साथ भावनात्मक ब्लैकमेलिंग नहीं थी?

साबित यह होता है कि राजनीति में सब कुछ जायज होता है. साबित यह भी होता है कि एक महत्त्वाकांक्षी पत्नी, जिसे हार पसंद नहीं, जीतने के लिए किसी भी हद तक जा सकती है.

इंदिरा गांधी: मिसाल व अपवाद

फिल्म से हट कर देखें तो इंदिरा गांधी भारतीय महिलाओं की आदर्श रही हैं. वजह एक निकाली जाए तो वह यह होगी कि 70 के दशक में औरतों पर बंदिशें बहुत थीं. उन का महत्त्वाकांक्षी होना गुनाह माना जाता था और इस महत्त्वाकांक्षा की हत्या तब बड़ी आसानी से प्रतिष्ठा, इज्जत और समाज के नाम के हथियारों से कर दी जाती थी. चूंकि इंदिरा गांधी इस का अपवाद थीं, इसलिए उन्होंने अपनी महत्त्वाकांक्षा को जिंदा रखा और दांपत्य व गृहस्थी के झंझट में ज्यादा नहीं पड़ीं तो वे मिसाल और अपवाद बन गईं. नई पीढ़ी उन के बारे में यही जानती है कि वे एक सफल और लोकप्रिय नेत्री थीं. पर यह सब उन्होंने किन शर्तों पर हासिल किया था, इस की झलक फिल्म ‘आंधी’ में दिखाई गई है.

इंदिरा गांधी के पति फिरोज गांधी का पत्नी पर कोई जोर नहीं चलता था. इसीलिए इंदिरा अपने अंतर्जातीय प्रेम विवाह पर कभी पछताई नहीं न ही उन्होंने कभी सार्वजनिक तौर पर पति की निंदा या चर्चा की. इस खूबी ने भी जिसे पति का सम्मान समझा गया था उन्हें ऊंचे दरजे पर रखने में बड़ा रोल निभाया.

लेकिन जब पत्नी इतनी महत्त्वाकांक्षी हो कि घर तोड़ने पर ही आमादा हो जाए तब पति को क्या करना चाहिए ताकि गृहस्थी भी बनी रहे और पत्नी का नुकसान भी न हो? इस सवाल का एक नहीं, बल्कि अनेक जवाब हो सकते हैं, जो मूलतया सुझाव होंगे, क्योंकि स्पष्ट यह भी है कि पत्नी का महत्त्वाकांक्षी होना समस्या नहीं है, समस्या है पति द्वारा उसे मैनेज न कर पाना. इसी कड़ी में गत अक्तूबर के आखिरी हफ्ते में पाकिस्तान के मशहूर 63 वर्षीय क्रिकेटर इमरान खान का भी नाम आता है, जिन्होंने अपनी पत्नी रेहम खान को तलाक दे दिया. उल्लेखनीय है कि रेहम खान और इमरान दोनों की यह दूसरी शादी थी. रेहम को पहले पति से 3 बच्चे हैं और इमरान को भी पहली पत्नी से 2 बच्चे हैं. उम्र में रेहम इमरान से 20 साल छोटी हैं.

इस तलाक की वजह दोनों की दूसरी शादी या बेमेल शादी नहीं, बल्कि इमरान खान की मानें तो रेहम की बढ़ती राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाएं जिम्मेदार हैं. इमरान पाकिस्तान के प्रमुख राजनीतिक दल तहरीके इंसाफ पार्टी (पीटीआई) के संस्थापक और मुखिया हैं. चर्चा यह भी रही कि रेहम पीटीआई पर कब्जा जमाना चाहती थीं. वे नियमित पार्टी की मीटिंग में जाने लगी थीं और कार्यकर्ताओं की पसंद भी बनती जा रही थीं. पीटीआई का दखल पाकिस्तान की सत्ता में हो या न हो, लेकिन वहां की सियासत में खासा दखल है, जिस की वजह पाकिस्तान में इमरान के चाहने वालों की बड़ी तादाद है.

इस तनाव पर पेशे से कभी बीबीसी में टीवी ऐंकर रहीं रेहम ने यह बयान दे कर जता दिया कि इस तलाक की वजह वाकई उन की महत्त्वाकांक्षा है. रेहम का कहना है कि पाकिस्तान में उन्हें गालियां दी जाती थीं. वहां का माहौल औरतों के हक में नहीं है. वे तो पूरे देश भर की भाभी हो गई थीं. जो भी चाहता उन्हें गालियां दे सकता था. तलाक के बाद रेहम ने यह भी कहा कि इमरान चाहते थे कि वे रोटियां थोपती रहें यानी एक परंपरागत घरेलू बीवी की तरह रहें, जो उन्हें मंजूर नहीं था. जाहिर है, वाकई रेहम की महत्त्वाकांक्षाएं सिर उठाने लगी थीं और इमरान को यह मंजूर नहीं था.

एक फर्क शौहर होने का

क्या सभी पतियों से ऐसी उम्मीद की जा सकती है कि वे पत्नि की महत्त्वाकांक्षाएं पूरी करने के रास्ते में अड़ंगा नहीं बनेंगे? तो इस सवाल का जवाब साफ है कि नहीं, क्योंकि पुरुष का अपना अहम होता है. वह पत्नी को खुद से आगे बढ़ने का, अपनी अलग पहचान बनाने का और लोकप्रिय होने का मौका नहीं देता. इस बाबत पूरी तरह से उसे ही दोषी ठहराया जाना उस के साथ ज्यादती होगी. जब पत्नी कह सकती है कि वह ही क्यों झुके और समझौता करे, तो पति से यह हक नहीं छीना जा सकता. सवाल गृहस्थी और बच्चों के साथसाथ अघोषित विवाह नियमों का भी होता है.

1973 में अमिताभ बच्चन और जया भादुड़ी द्वारा अभिनीत फिल्म ‘अभिमान’ ने भी बौक्स औफिस पर झंडे गाड़े थे. इस फिल्म में पतिपत्नी दोनों गायक होते हैं. लेकिन पूछपरख पत्नी की ज्यादा होने लगती है, तो पति झल्ला उठता है. नौबत अलगाव तक की आ जाती है. पत्नी मायके चली जाती है और गर्भपात हो जाने से गुमसुम रहने लगती है. बाद में पति उसे मना कर स्टेज पर ले आता है और उस के साथ गाना गाता है. लेकिन ऐसा तब होता है जब पत्नी हार मान चुकी होती है. स फिल्म की खूबी थी मध्यवर्गीय पति की कुंठा, जो पत्नी की सफलता और लोकप्रियता नहीं पचा पाता, इसलिए दुखी और चिड़चिड़ा रहने लगता है. उसे लगता है पत्नी के आगे बढ़ने पर दुनिया उस की अनदेखी कर रही है. पत्नी के कारण उस की प्रतिभा का सही मूल्यांकन नहीं हो पा रहा है और लोग उस का मजाक उड़ा रहे हैं. अब नजर रील के बजाय रियल लाइफ पर डालें, तो अमिताभ शीर्ष पर हैं और हर कोई जानता है कि इस में जया भादुड़ी का योगदान त्याग की हद तक है. जिन्होंने पति के डूबते कैरियर को संवारने के लिए ‘सिलसिला’ फिल्म में काम करना मंजूर किया था. ऐसा आम जिंदगी में होना और हर कहीं दिख जाना आम बात है कि प्रतिभावान महत्त्वाकांक्षी पत्नी का पति अकसर हीनभावना और कुंठा का शिकार रहने लगता है. वजह उस की कमजोरी उजागर करता एक सच उस के सामने आ खड़ा होता है.

यहां से शुरू होता है द्वंद्व, कशमकश, चिढ़ और कुंठा. पति जानतासमझता है कि वह पत्नी से पीछे है और यह सच सभी समझ रहे हैं. दांपत्य का यह वह मुकाम होता है जिस पर वह पत्नी को नकार भी नहीं सकता और स्वीकार भी नहीं सकता. जबकि पत्नी की इस में कोई गलती नहीं होती. इधर सफलता और लोकप्रियता की सीढि़यां चढ़ रही पत्नी पति की कुंठा और परेशानी नहीं समझ पाती. लिहाजा, अपना सफर जारी रखती है. उधर पति को लगता है कि वह जानबूझ कर उसे चिढ़ाने और नीचा दिखाने के लिए ऐसा कर रही है. ऐसे में जरूरत ‘अभिमान’ फिल्म की बिंदु, असरानी और डैविड जैसे शुभचिंतकों की पड़ती है, जो पतिपत्नी को समझा पाएं कि दरअसल में गलत दोनों में से कोई नहीं है. जरूरत वास्तविकता को स्वीकार लेने की है, जिस में किसी की कोई हेठी नहीं होने वाली.

पर ऐसे शुभचिंतक फिल्मों में ही मिलते हैं, हकीकत में नहीं. इसलिए पति की कुंठा हताशा में बदलने लगती है और वह कई बार क्रूरता दिखाने लगता है.इस कुंठा से छुटकारा पाने के लिए जरूरी है कि  पति पत्नी की हैसियत और पहुंच को दिल से स्वीकार करे और पत्नी को चाहिए कि वह पति को यह जताती रहे कि ये तमाम उपलब्धियां उस की वजह और सहयोग से हैं. इस में कोई शक नहीं कि महत्त्वाकांक्षी पत्नी की पहली प्राथमिकता उस की अपनी मंजिल होती है, गृहस्थी, बच्चे या पति नहीं. पर इस का मतलब यह भी कतई नहीं कि उसे इन की चिंता या परवाह नहीं होती. इस का मतलब यह है कि वह अपनी प्रतिभा पहचानती है, लक्ष्य तक पहुंचना उसे आता है और वह कोई समझौता करने में यकीन नहीं करती.

याद रखें

– पतिपत्नी में किसी भी तरह की प्रतिस्पर्धा गृहस्थी और दांपत्य दोनों के लिए सुखद नहीं है, इसलिए इस से बचें. एकदूसरे की भावनाओं और इच्छाओं के सम्मान से ही दोनों वे सब पा सकते हैं, जो वे पाना चाहते हैं. – पत्नी जिंदगी में कुछ बनना या हासिल करना चाहती है, तो कुछ गलत नहीं है. यह उस का हक है. लेकिन पत्नियों को यह देखसमझ लेना चाहिए कि वे जो पाना चाहती हैं उस से आखिरकार हासिल क्या होगा और पति की भावनाओं को जरूरत से ज्यादा ठेस तो इस से नहीं लग रही.

– पति का प्रोत्साहन और प्रशंसा पत्नी की प्रतिभा को निखारती है. उस की मंशा पति को नीचा दिखाने की नहीं होती. यह नौबत तब ज्यादा आती है जब पति कुढ़ने लगता है और पत्नी की उपलब्धियों में से खुद की भागीदारी खत्म कर लेता है.

– पत्नी कमाऊ हो, सार्वजनिक जीवन जी रही हो तो पति को चाहिए कि वह बजाय हीनभावना से ग्रस्त होने के पत्नी पर गर्व करे.

पछतावा सईद जाफरी का

हाल ही में दिवंगत हुए 86 वर्षीय अभिनेता सईद जाफरी ने 2 शादियां की थीं और दोनों ही असफल सिद्ध हुईं.

सईद की पहली पत्नी मधुर जाफरी दिल्ली के एक संपन्न परंपरावादी कायस्थ परिवार की थीं और खुद भी पति की तरह कलाकार, ऐंकर और एक कामयाब सैलिब्रिटी कुक थीं और आज भी हैं. इन दोनों का प्यार परवान चढ़ा और शादी में तबदील हो गया. शादी के बाद सईदमधुर को 3 बेटियां हुईं. मधुर प्रतिभाशाली होने के साथसाथ एक अच्छी पत्नी और गृहिणी भी थीं. लेकिन सईद ने उन की कद्र नहीं की. नतीजतन टकराहट शुरू हुई और तलाक हो गया.

सईद का यह भ्रम जल्द ही टूट गया कि मधुर उन के बगैर कुछ नहीं कर पाएंगी. हुआ उलटा. मधुर को तलाक के बाद खुद को साबित करने का मौका मिला और उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कुकरी के क्षेत्र में खूब नाम कमाया. सईद ने फिर जेनिफर से शादी की. लेकिन कुछ समय बाद जेनिफर की बेरुखी जब हदें पार करने लगीं तो उन्हें दोबारा मधुर की याद आई, जो सेनफोर्ड एलन नाम के शख्स से दूसरी शादी कर अमेरिका जा बसीं और पति व बेटियों के साथ खुशहाल जिंदगी जी रही हैं. तलाक के 8 साल बाद न जाने किस उम्मीद और हिम्मत से सईद उन से मिलने अमेरिका उन के घर पहुंचे तो उस वक्त सकते में रह गए जब मधुर ने उन से मिलने से सख्ती से मना कर दिया. लेकिन बेटियां आखिरी बार मिल लीं.

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शिक्षा व्यवस्था में चार चांद लगाते अमेरिका के पब्लिक स्कूल

भारत के पब्लिक स्कूलों में समृद्ध परिवारों की लाड़ली संतानें उत्तम शिक्षा प्राप्त करती हैं जबकि अमेरिका की सघन आबादी वाले शहरों में पब्लिक यानी सरकारी स्कूल सिस्टम के तहत संचालित स्कूलों में अधिकतर साधारण वर्ग की संतानें शिक्षित की जाती हैं. अमेरिका में स्कूली आयु के हर बच्चे को निकटवर्ती स्कूल में भरती करवाना कानूनन अनिवार्य है जिस के लिए उसे निशुल्क बस सेवा, मुफ्त या केवल प्रतीकमात्र दर पर लंच (कई स्कूलों में सुबह का नाश्ता भी), फील्ड ट्रिप्स और कई सुविधाएं उपलब्ध हैं. कुछ कर्तव्यनिष्ठ अभिभावक स्कूलों में यथासंभव योगदान करते हैं. शारीरिक या मानसिक रूप से बाधित बच्चों के लिए विशेष शिक्षा का प्रावधान है जिस के लिए विशेष ट्रेनिंगप्राप्त शिक्षक तो होते ही हैं, उन बच्चों को बाथरूम वगैरा ले जाने,  उन के डायपर तक बदलने के लिए सहायक नियुक्त किए जाते हैं. हर स्कूल के उपचार कक्ष के लिए फुल नहीं तो पार्टटाइम नर्स अवश्य होती हैं.

सरकारी खर्च पर पढ़ाई

लौटरी सिस्टम के जरिए बच्चे अपने रिहाइशी क्षेत्र से दूर अपने पसंदीदा स्कूल में भी सरकारी खर्च पर पढ़ने जा सकते हैं. सर्वधर्म, समभाव के नजरिए से देखें तो अमेरिका अति संवेदनशील व निरपेक्ष है. पब्लिक स्कूल सिस्टम में किसी धर्मविशेष की शिक्षा निषिद्ध है. सवेरे प्रार्थनासभा का नियम नहीं, विशेष अवसरों पर देशभक्ति की शपथ का सामूहिक उच्चारण होता है. विभिन्न धार्मिक संप्रदायों द्वारा डार्विन के विकास सिद्धांत पर उठाए गए विवाद के कारण सरकारी स्कूलों में अब इस की शिक्षा निषिद्ध है. डार्विन के सिद्धांत को अलग तरह से केवल जानकारी के रूप में प्रस्तुत किया जाता है. धर्मपरायण ईसाई, यहूदी आदि संप्रदायों के लोग अपनी संतान की धर्मनिष्ठा को दृढ़ रखने के लिए स्वेच्छा से महंगी फीस दे कर उन्हें प्राइवेट धार्मिक स्कूलों में भेजते हैं.

सरकार व अदालत का हस्तक्षेप यदि वहां कभी होता है तो केवल छात्रों के हितों की सुरक्षा के लिए. जातिवाद उन्मूलन के लिए अमेरिका प्रतिबद्ध है. जाति, धर्म, वर्ण अथवा अन्य किसी भी वर्ग के अल्पसंख्यकों को समान अवसर प्रदान करने के लिए अमेरिका में कभीकभी आवश्यकता से अधिक संवेदनशीलता भी देखी जा सकती है. कुछ वर्ग स्वार्थवश इस का अनुचित लाभ भी उठाते हैं. शहरों की सघन आबादी वाले इलाकों के स्कूलों में उपद्रवी तत्त्व भी होते हैं, इस कारण वहां सुरक्षा का कड़ा प्रबंध होता है और पुलिस की गश्त रहती है. अलगाववाद और अराजक मानसिकता किशोर व युवा अपने परिवारों, समुदायों व गुटों से ग्रहण करते हैं और संकट में पड़ते हैं. उत्तेजित किशोरों और मानसिक रूप असंतुलित व्यक्तियों द्वारा स्कूलों में घुस कर निर्दोषों पर गोलीबारी की घटनाएं भी हुई हैं. भविष्य में दुर्घटनाओं को रोकने के लिए सरकार हर संभव उपाय करती है. छात्रों की काउंसलिंग, अभिभावकों के साथ मीटिंग्स द्वारा स्थिति पर नियंत्रण रखने के प्रयास किए जाते हैं लेकिन अनहोनी कब और कहां हो जाए, कोई नहीं कह सकता.

क्या भारत, क्या विदेश, वास्तव में हर जगह समस्या युवा जोश को साधने की है. स्पोर्ट्स, सुरक्षा सेवा में भरती, क्रियात्मक और सृजनात्मक अभिरुचियों में युवा मन को रमा कर सकारात्मक समाधान ढूंढ़ें या उन्हें बेलगाम छोड़ कर विध्वंसात्मक परिणाम भोगें, इस का चयन समाज को ही करना है.

भेदभाव यहां भी

कानून और व्यवस्था के रखवालों में कभी श्वेतवर्ण पुलिसकर्मी द्वारा श्यामवर्ण अपराधी के विरुद्ध की गई कार्यवाही की सख्ती से पड़ताल होती है. श्यामवर्ण समुदाय के लोगों के साथ श्वेतवर्ण पुलिसकर्मियों की भिड़ंत के विरुद्ध व्यापक आक्रोश व प्रदर्शन होते हैं. निर्णय करना कठिन होता है कि अन्याय का दोषारोपण कितना सत्य है. निम्न आयवर्ग के श्यामवर्ण समुदाय में बेरोजगारी, वैलफेयर स्कीमों के तहत सरकार को दुधारी गोमाता मान कर दुहे जाने की प्रवृत्ति, किशोरावस्था में ही यौन संबंध, नशाखोरी और अविवाहित मातापिता की नाजायज संतान से बढ़ती जनसंख्या श्वेतवर्ण समुदाय की तुलना में कहीं अधिक है. भारतीय और अन्य एशियाई समुदायों में ऐसी समस्याएं बहुत कम हैं क्योंकि इन में गरीब से गरीब अभिभावक कमरतोड़ मेहनत कर के संतान की शिक्षादीक्षा के प्रति सचेत रहते हैं.

मैक्सिको, पोर्टो रीको, क्यूबा, मध्य व दक्षिण अमेरिका तथा स्पैनिश मूल के अन्य समुदायों में भी शिक्षा व संस्कृति की जड़ें गहरी हैं और विपन्नता से उबरने के लिए इन में से अधिकांश शिक्षा और कड़ी मेहनत का रास्ता चुनते हैं. पूर्वी यूरोप से आने वाले परिवार कारखानों, होटलों, रेस्तरांओं में 16-18 घंटे रोज काम कर के अपनी संतान को केवल पढ़ाई पर केंद्रित रह कर सम्मानित क्षेत्रों में अवसर खोजने के लिए प्रोत्साहित करते हैं. एअरपोर्ट पर सामान ढोते, रेस्तरांओं में भोजन परोसते या स्टोर्स में सेल्स जौब करते अधिकांश युवा या तो अपनी नाइट क्लासेज के लिए पैसा कमा रहे होते हैं या परिवार की आय में योगदान करते हैं.

शिक्षकों का भरपूर सहयोग

बहुत से शिक्षक स्वेच्छा से स्कूलों में अतिरिक्त समय लगाते हैं और व्यक्तिगत रूप से भी किताबें, नोटबुक्स, यहां तक कि पेपर टावैल्स, नैपकिंस और पैकेटबंद सूखा नाश्ता तक जुटाते हैं ताकि किसी भी बच्चे को उन का अभाव न हो. अधिकांश स्कूलों की पीटीए (पेरैंट टीचर एसोसिएशन) शिक्षकों के साथ भरपूर सहयोग करती है. विकसित देशों में अग्रणी अमेरिका की शिक्षा व्यवस्था साधनों की कतई मुहताज नहीं. अमेरिकी स्कूलों में अनेक भारतीय शिक्षक अमेरिकी पब्लिक स्कूल सिस्टम को सुदृढ़ बनाने में जुटे रहते हैं और सम्मानित भी किए जाते हैं. आम धारणा है कि साइंस और मैथ्स विषयों के शिक्षण में भारतीय मूल के अध्यापक श्रेष्ठ हैं. फैडरल सरकार और स्टेट सरकार से भारी फंडिंग और निष्ठावान शिक्षकों के अथक परिश्रम पर निर्भर अमेरिका के पब्लिक स्कूलों की लगातार कटु आलोचना होती रहती है क्योंकि हर संभव फार्मूला आजमाने के बावजूद अमेरिकी सरकारी स्कूलों में मैथ्स, रीडिंग और अंगरेजी का स्तर निराशाजनक है.

समस्या है गरीबी की सीमारेखा से नीचे वर्ग के अनेक बच्चों का घरेलू वातावरण जिस में वे मानसिक रूप से असुरक्षित व त्रस्त रहते हैं. उन के भीतर पनपता, पलता व बढ़ता आक्रोश उन्हें अपराध, ड्रग्स और ‘टीन प्रैग्नैंसी’ की ओर ढकेलता है. यहां बच्चों को शिक्षित करने से पहले ऐसे अभिभावकों को शिक्षित करना आवश्यक है जो हर सरकारी सुविधा को अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानते हैं, बच्चों की पढ़ाई पर स्वयं भी ध्यान देने, होमवर्क करवाने या पीटीए की मीटिंग्स में आने के बजाय अपने बच्चों के

पिछड़ेपन के लिए शिक्षकों को दोष देने में सदैव आगे तो रहते हैं लेकिन और किसी प्रकार का योगदान नहीं करते हैं. बच्चों की अनुशासनहीनता के प्रति शिक्षकों को हर हाल में संयत, शांत और शिष्ट रहना पड़ता है. बच्चों को फूल की छड़ी से भी छूना तो दूर, उन्हें बड़ी मुलायमियत से अनुशासित करना पड़ता है. अवांछित घटना होने पर बालसुलभ झूठ या सच का लिखित ब्योरा रखना पड़ता है और घटनास्थल पर उपस्थित शिक्षक या स्टाफ के सदस्य की गवाही जुटानी पड़ती है. इन सब का स्ट्रैस टीचर्स में ‘जलन’ का मुख्य कारण है. टीचर्स यूनियन शिक्षकों के हितों को यथासंभव सुरक्षा देती है, जिस का कुछ शिक्षक अनुचित लाभ भी उठाते हैं. घूमफिर कर बोझ स्टेट और फैडरल फंडिंग पर पड़ता है. शिक्षकों के उदार वेतन और सुविधाओं में निरंतर कटौती, भावी शिक्षकों में शिक्षण के प्रति रुझान को क्षीण कर सकती है.

अनुशासन के पाबंद

समस्याग्रस्त अमेरिकी पब्लिक स्कूल सिस्टम उस मरीज की तरह है जिस के उपचार के लिए हरसंभव उपाय पर सैंट्रल और स्टेट गवर्नमैंट द्वारा पानी की तरह पैसा बहाया जाता है. यहां तक कि देश के शिक्षा बजट में ऐसे उपचार पर होने वाले खर्च को प्राथमिकता दिए जाने के कारण कई स्कूलों में बालरुचि को परिष्कृत करते म्यूजिक, आर्ट्स और ड्रामा जैसे विषय काटने तक पड़ जाते हैं. अमेरिकी शिक्षाविद शिक्षा को प्रथम और परम मानने वाले देशों में शिक्षा के उच्च स्तर का अध्ययन करने के लिए भेजे जाते हैं. उन देशों से अध्यापक भी उदार शर्तों के कौन्ट्रैक्ट पर बुलाए जाते हैं. शिक्षार्थियों की बेअदबी और उन के अभिभावकों की सीनाजोरी से दहल कर कई अध्यापक कौन्ट्रैक्ट की मियाद से पहले अध्यापन छोड़ कर लौट जाते भी सुने गए हैं क्योंकि गुरुता का अनादर उन्हें सुशिक्षा के नियमों के विरुद्ध लगता है. उपनगरों के स्कूलों में स्थिति बेहतर है क्योंकि उपनगरीय निवासियों की संख्या कम और आय अपेक्षाकृत अधिक होती है. उपनगरीय स्कूल प्रादेशिक प्रशासन के अधीन हैं और वे अभिभावकों के मत को प्राथमिकता देते हैं क्योंकि शिक्षकों को उन का पूरा सहयोग मिलता है. ऊंचे पदों पर आसीन और शहर के शोरशराबे से बहुत दूर रईसों की बस्ती में रहने वाले उच्चवर्गीय एक दंपती अपनी इकलौती संतान, कुशाग्रबुद्धि पुत्र को कार द्वारा किसी प्राइवेट स्कूल में भेजने के बजाय उसे बस द्वारा शहर के सघन इलाके में सरकारी स्कूल में भेज रहा था.

रात को डिनर पर दिनभर के क्रियाकलापों पर बातचीत के दौरान रईस परिवार का इकलौता पुत्र अकसर उन्हें बताता कि उस का कौन सा सहपाठी अपनी बस्ती में गैंगवार की चपेट में आ कर बुरी तरह जख्मी हो गया, किस सहपाठी का भाई ड्रग्स के चक्कर में जान से हाथ धो बैठा, कौन सी सहपाठिन प्रैग्नैंट हो गई, कैसे उस के स्कूल की अपनी सिक्योरिटी फोर्स के बावजूद खुराफात की आशंकावश अकसर पुलिस भी स्कूल के गलियारों के फेरे लगाती है.

चिंतित स्वजन व मित्रगण के लिए मातापिता का दृढ़ उत्तर :

प्राइवेट स्कूल के ‘चार्म्ड सर्कल’ से बाहर कटु यथार्थ से परिचित रह कर ही बड़ा होने पर उन का पुत्र न सिर्फ उस के साथ निर्वाह करना सीखेगा, बल्कि संभव है कि सामर्थ्यानुसार उस में परिवर्तन लाने का प्रयास भी करे. कौन्वैंट्स और प्राइवेट स्कूल्स में शिक्षित, नामी कालेज और यूनिवर्सिटीज से 2-3 डिगरियां प्राप्त कुछ पिं्रसिपल और टीचर्स से यह पूछे जाने पर कि बेहतर माहौल वाले टौप ग्रेड प्राइवेट स्कूल्स के बजाय समस्याग्रस्त पब्लिक स्कूल सिस्टम में उन के जैसे लोग क्यों सेवारत हैं, तो उन का संक्षिप्त उत्तर था- ‘‘बिकौस हियर इज व्हेयर वी कैन मेक द मैक्सिमम डिफरैंस.’’

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महिलाएं शौचालय के लिए जाएं तो कहां जाएं

महिलाओं को भी शौच की स्वाभाविक जरूरत होती है. पुरुष तो अपनी इस स्वाभाविक जरूरत को दीवारों, पेड़ों, गली, नुक्कड़ या चौराहों के दबेछिपे कोनों में पूरी कर लेते हैं लेकिन महिलाओं, स्थिति कितनी ही दबावभरी हो, के पास यह विकल्प नहीं होता. महिलाओं के पास 2 ही रास्ते बचते हैं–या तो वे घंटों अपनी यूरीन पास करने की स्वाभाविक प्रक्रिया को रोक कर रखें या फिर ऐसे पब्लिक टौयलेट्स का इस्तेमाल करें जहां से वे संक्रमण ले कर बाहर निकलें.

सेहत का खतरा

यह समस्या हर उस महिला की है जो घर से बाहर निकलती है. पब्लिक टौयलेट के अभाव में वह अपनी इस स्वाभाविक जरूरत को घंटों दबा कर रखती है और अनेकानेक बीमारियों को आमंत्रण देती है. आसपास वाशरूम न होने के कारण कई बार तो वे घंटों पानी नहीं पीतीं. ऐसी स्थिति में वे डीहाइड्रेटेड भी हो जाती हैं. महानगरों में यदि मौल्स को छोड़ दिया जाए तो बड़ी दुकानों या भरे बाजारों में भी सार्वजनिक शौचालय की व्यवस्था नहीं होती. फील्ड में काम करने वाली महिलाएं इस नजर से खासी परेशान रहती हैं. डाक्टरों का मानना है कि शौचालय न होने की वजह से जो महिलाएं बहुत देर तक यूरीन पास नहीं कर पातीं उन्हें यूरीन इनफैक्शन और किडनी इनफैक्शन होने का खतरा रहता है. ज्यादा देर तक यूरीन रोकने से उन्हें पेटदर्द का सामना करना पड़ता है.

सुरक्षा का खतरा

ग्रामीण इलाकों में भारत की तकरीबन 30 करोड़ महिलाएं और लड़कियां खुले में शौच करने को मजबूर हैं. इन में अधिकांश महिलाएं गरीब परिवारों से होती हैं. हैरानी की बात है कि आजादी के 69 साल बीत जाने के बाद भी देश की महिलाएं खुले में शौच करने के लिए मजबूर हैं. 2011 की जनगणना के अनुसार, देश के 53 प्रतिशत घरों में शौचालय नहीं हैं. ग्रामीण इलाकों में यह प्रतिशत 69.3 है. देश में शौचालय की उपलब्धता के मामले में सब से दयनीय स्थिति झारखंड व ओडिशा की है, जबकि सब से अच्छी स्थिति केरल की है. घरों में शौचालय के अभाव में जब महिलाएं खुले में शौच के लिए जाती हैं तो लड़के न केवल उन्हें घूरते हैं बल्कि अश्लील बातें भी करते हैं. और बहुत बार तो बलात्कार तक हो जाते हैं. बलात्कार के डर से शौच करने जाना तो छोड़ा नहीं जा सकता और इसलिए बलात्कारियों के लिए शौचालय का न होना सरकारी वरदान है.

पिछले साल बदायूं जिले के एक गांव में शौच के लिए घर से बाहर गई 2 युवतियों के साथ न केवल बलात्कार की घटना घटी, बल्कि बलात्कार के बाद उन की हत्या भी कर दी गई. इस घटना के बाद राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग ने एक बयान जारी करते हुए कहा था कि अगर देश में ज्यादा शौचालय होंगे तो बलात्कार जैसी घटनाओं में कमी आएगी. गांवों में महिलाओं की निजता की रक्षा के लिए घूंघट में रहने के आदेश दिए जाते हैं, जबकि शौच के लिए उन्हें खुले में जाना पड़ता है. इसी सोच को बदलने के लिए ‘जहां सोच वहां शौचालय’ वाली टैगलाइन से अभिनेत्री विद्या बालन ने एक विज्ञापन के जरिए ग्रामीण इलाकों में लोगों को जागरूक करने का सरकारी फर्ज निभाया. शौचालयों के अभाव में बड़ी संख्या में देश की लड़कियां माहवारी शुरू होने पर स्कूल जाना बंद कर देती हैं. एक उदाहरण ही है, जमशेदपुर से करीब 50 किलोमीटर दूर सरायकेला जिले में पर्याप्त शौचालय न होने के कारण तकरीबन 200 छात्राओं ने स्कूल जाना छोड़ दिया. कितनी हैरानी की बात है कि शौचालय की कमी की वजह से महिलाओं व लड़कियों की सुरक्षा, सम्मान और उन का विकास सबकुछ दांव पर लग जाता है.

महिलाओं के प्रति भेदभाव

अगर राजधानी दिल्ली की बात की जाए तो दिल्ली में एमसीडी के अधिकांश पुरुष शौचालय आप को खुले मिलेंगे लेकिन महिला शौचालय बंद ताला लगे मिलेंगे. अगर खुले मिल भी गए तो वे प्रयोग करने लायक नहीं होंगे. या तो वे बेहद गंदे होंगे या उन के दरवाजे टूटे होंगे या फिर लाइट व पानी की उचित व्यवस्था नहीं होगी. इस के अतिरिक्त आप को यह जान कर हैरानी होगी कि जहां पुरुषों के लिए सार्वजनिक शौचालय का प्रयोग करने के लिए कोई फीस नहीं ली जाती वहीं महिलाओं को इस काम के लिए फीस चुकानी पड़ती है. अगर इस का कारण पूछा जाए तो जवाब मिलता है, ‘महिलाओं को अधिक पानी व सफाई के सामान की आवश्यकता होती है. महिलाओं की प्राइवेसी की खातिर दरवाजा, पानी व बैठने के लिए अधिक जगह की भी जरूरत होती है,’ पीरियड के समय तो महिलाओं को डस्टबिन व अधिक पानी की जरूरत होती है. है न हैरानी की बात.

प्राकृतिक जरूरत के नाम पर भी महिलाओं को भेदभाव का सामना करना पड़ता है. यही कारण है कि घर से बाहर निकलने वाली पढ़ीलिखी शहरी महिलाएं अपनी इस प्राकृतिक जरूरत से निवृत होने के लिए मौल्स, रेस्टोरैंट व कैफे का सहारा लेती हैं. जरूरत है कि शहरों में हर 500 मीटर पर साफ व सुरक्षित सार्वजनिक शौचालय हों जहां पर्याप्त सुविधाएं हों. पर यह भी कौन करे?

मुंबई के कई गैर सरकारी संगठन महिलाओं के लिए सार्वजनिक शौचालय की बेहतर व्यवस्था की मांग कर रहे हैं. यह मांग 33 गैर सरकारी संगठनों द्वारा की जा रही है. ऐसा इसलिए है क्योंकि 2.2 करोड़ की आबादी वाले मुंबई शहर में भुगतान कर के प्रयोग किए जाने वाले 11 हजार शौचालयों में से केवल एकतिहाई शौचालय महिलाओं के लिए हैं. जो शौचालय मौजूद हैं वे भी खस्ता हालत में हैं. टूटे दरवाजे, गंदगी, लाइट व पानी का अभाव, महिलाओं को इन के प्रयोग से भी रोक देता है. स्लम एरिया में रहने वाली महिलाओं को तो अकसर सुनसान जगह का सहारा लेना पड़ता है जहां उन के यौन उत्पीड़न की आशंका बनी रहती है.

सार्वजनिक शौचालय महिलाओं की स्वाभाविक व मानवीय जरूरत है. यह बात समझना जरूरी है कि घरों के भीतर शौचालय जहां किसी की व्यक्तिगत जिम्मेदारी है वहीं सार्वजनिक क्षेत्र, चाहे वह बाजार हो या औफिस में इस सुविधा को उपलब्ध कराना सरकार की जिम्मेदारी है. संयुक्त राष्ट्र की 2014 की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में प्रति 100 व्यक्ति मोबाइल फोन की संख्या अधिक है और शौचालय की कम. ऐसे में यह सवाल उठता है कि सार्वजनिक स्थलों पर महिलाओं की इस आधारभूत जरूरत की तरफ नीतिनिर्माताओं का ध्यान क्यों नहीं जाता? अब जबकि महिलाएं घर से बाहर हर क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही हैं, ऐसे में स्वच्छ व सुरक्षित सार्वजनिक शौचालय की सुविधा का मिलना हर महिला का बुनियादी अधिकार है. कहीं यह महिलाओं को घर की चारदीवारी में रखने की साजिश तो नहीं.

शिक्षा पर असर

नैशनल इंस्टिट्यूट औफ एजुकेशन प्लानिंग ऐंड ऐडमिनिस्ट्रेशन के द्वारा किए गए एक अध्ययन के अनुसार, देशभर में सिर्फ 32 प्रतिशत स्कूलों में ही लड़कियों के लिए अलग शौचालय की व्यवस्था है जबकि ग्रामीण इलाकों में यह प्रतिशत 29.41 प्रतिशत ही है. नियमानुसार स्कूलों में हर 40 बच्चों पर एक शौचालय होना चाहिए, जबकि बालिकाओं के लिए 25 बालिकाओं पर एक शौचालय का नियम है. लेकिन वास्तविकता के धरातल पर ऐसा कुछ भी नहीं है. अधिकांश सरकारी विद्यालयों में यह नियम लागू नहीं होता है. अधिकांश सरकारी विद्यालयों में कुल 2 शौचालय होते हैं वह भी खराब व खस्ता हालत में. इस वजह से मासिकधर्म के समय अधिकांश छात्राएं स्कूल नहीं आतीं.

लव्बोलुआब यह है कि देश व राज्य की सरकारों के साथसाथ स्थानीय नागरिक प्रशासन को जगहजगह शौचालय बनवाने पर ध्यान देना चाहिए. सरकारी स्तर के अलावा समाजसेवी संगठनों को भी इस अहम सामाजिक कार्य में सक्रिय भागीदारी निभानी चाहिए. यह महिलाओं की ही नहीं, सभ्य समाज की भी जरूरत है. महिलाओं का सम्मान बाकी रहेगा तो विश्व की नजर में देश का सम्मान बढ़ेगा.

पोर्टेबल शौचालय- पी बडी

आज की आधुनिक महिलाएं घर की चारदीवारी को लांघ कर औफिसों में काम कर रही हैं. इस बाबत उन्हें कई बार ट्रेन व हवाई सफर भी तय करना पड़ता है. ऐसे में सार्वजनिक शौचालय के प्रयोग से यूरिनरी ट्रैक्ट इनफैक्शन (यूटीआई) होने का खतरा रहता है. इस के अलावा कई बार इंडियन पद्धति के शौचालय में बुजुर्ग महिलाएं जोड़ों के दर्द की वजह से नहीं जा पातीं. इन सभी परेशानियों से बचने के लिए पोर्टेबल शौचालय यानी पी बडी बाजार में आ गया है. यह एक नली जैसी किट है, जिस का प्रयोग महिलाएं खड़े हो कर कर सकती हैं. इसे आसानी से बैग में रखा जा सकता है व प्रयोग के बाद फेंका जा सकता है. भारत में यह किट औनलाइन और कुछ स्टोर्स में उपलब्ध है. पी बडी 5, 10 या 20 के पैक में विभिन्न औनलाइन शौपिंग साइट्स पर क्रमश: 120, 200 और 350 रुपए में उपलब्ध हैं.

महिलाएं हो रही हैं मुखर

–       शौचालय का न होना इतनी बड़ी कमी है कि महिलाएं अब अपने इस अधिकार के लिए स्वयं लड़ रही हैं.

–       पटना के एक गांव की महिला ने 4 साल की लंबी लड़ाई लड़ कर घर में शौचालय बनवाने की जंग जीती.

–       उत्तर प्रदेश के खेसिया गांव की 6 बहुओं ने इस मांग के साथ अपना ससुराल छोड़ दिया कि जब घर में शौचालय बनेगा, तभी वे ससुराल लौटेंगी.

–       हरियाणा के भिवानी जिले की एक महिला ने शौचालय के निर्माण की खातिर अपनी भैंस को बेच दिया.

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कहीं जीवन की आखिरी तसवीर न बन जाए सैल्फी

रिमझिम बारिश और सुहावने मौसम के लालच में आकर सत्यम ने अपने सभी दोस्तों को फोन घुमाया और बाहर चलने का प्लान बनाया. सभी दोस्त सत्यम की बात से से घूमने के लिए तैयार हो गए. 10 दोस्तों की टोली गाड़ी में सवार कानपुर स्थित गंगा बैराज पहुंची. सभी दोस्तों ने तय किया कि एकएक डुबकी लगाने के बाद घर वापस लौट जाएंगे. तय कार्यक्रम के मुताबिक सभी ने एकएक डुबकी लगाई, लेकिन बाद में सभी गाड़ी पर वापस लौटने की जगह सीढि़यों पर नदी में पैर लटका कर लेट गए और अपने मोबाइल फोन से सैल्फी खींचने लगे. कुछ देर बाद ही सत्यम के एक दोस्त ने कहा की कोई मेरा पैर खींच रहा है. सभी दोस्तों ने सत्यम की बात को हवा में लेते हुए उस का मजाक बनाना शुरू कर दिया, लेकिन देखते ही देखते सत्यम एक दोस्त डूबने लगा. उस की चीख ने सभी दोस्तों का ध्यान सैल्फी से उस की ओर खींचा.

कुछ दोस्त उसे बचाने के लिए पानी में कूदे लेकिन वे भी डूबने लगे. दोस्तों को डूबता देख सत्यम और उस के अन्य दोस्त भी नदी में कूद गए. लेकिन सभी एक भवर में फंसते चले गए. दूर से यह सब देख रहा आदमी भी नदी में सभी को बचाने के लिए कूद पड़ा. सत्यम के 4 दोस्तों को बचाने के बाद वह और 6 लड़के नदी के साथ ही बह गए.  चंद मिनटों में सुहावना मौसम खौफनाक हो गया. खुशियां मातम में बदल गईं और सैल्फी जीवन की आखिरी तसवीर बन कर रह गई. 10 में से बचे हुए 4 दोस्त यही सोच रहे थे कि काश आज सत्यम ने यह प्लान न बनाया होता, काश एकएक डुबकी लगाने के बाद हम सब वापस हो लिए होते, तो शायद जिंदगी दोस्तों को यूं अलविदा न कहती.

22 जून 2016 को हुआ यह हादसा खौफनाक होने के साथ ही चेतावनी देने वाला भी है. युवाओं में बढ़ते सैल्फी के क्रेज ने सैल्फी डैथ के ट्रैंड को बढ़ावा दिया है. वैसे यह कोई पहला हादसा नहीं है. इस वर्ष ऐसे तकरीबन 10 हादसे संज्ञान में आ चुके हैं और न जाने कितनों की रिपोर्ट ही दर्ज नहीं कराई गई है. चौकाने वाले आंकड़े तो यह भी कहते हैं कि दुनिया में भारत एक ऐसा देश है जहां सबसे अधिक सैल्फी डैथ होती हैं. वौशिंगटन पोस्ट वैबसाइट के मुताबिक वर्ष 2015 में दुनिया भर में सैल्फी लेते वक्त 27 लोगों की मौत हुई थी जिनमें से 15 मौतें भारत में ही हुई थी.

इसे विडंबना ही कहा जाएगा की महज सैल्फी लेने के क्रेज में युवा पीढ़ी अपने जीवन गवाने तक को तैयार है. आड़े तिरछे मुंह बना कर और विपरीत परिस्थितियों में भी सैल्फी लेने की लोकप्रियता ने युवाओं को पागल बना दिया है. यह पागलपन ही उन्हें मौत के करीब ले जा रहा है. हैरानी की बात तो यह है, कि सैल्फी का क्रेज सिर्फ कुछ युवाओं को नहीं बल्कि देश के सभी युवाओं, बच्चों और बूढ़ों में देखा जा रहा है. खासतौर पर 15 से 30 वर्ष के लोगों में सैल्फी की लोकप्रियता कुछ अधिक ही दिख रही है. इस की वजह है खुदी की पब्लिसिटी और लोगों के चंद कमैंट्स का लालच.

खतरनाक सैल्फी के दीवाने युवा

वैसे देखा जाए तो सेल्फी लेना गुनाह नहीं है लेकिन हां, इसे बुरी लत जरूर कहा जा सकता है और यह लत आज देश के हर युवा को लग चुकी है. इस से भी बुरी बात यह है कि युवा साधारण तसवीर खींचने की जगह असाधारण तसवीर खींचने में ज्यादा यकीन रखने लगे हैं. एक अध्ययन के मुताबिक युवाओं को खतरनाक परिस्थितियों में तसवीर खींचने में जो सफलता मिलती है वह उन्हें इस बात पर भरोसा दिलाती है कि वह भी रचनात्मक और रोचक हैं.

वास्तव में यह सफलता कुछ देर का सकून जरूर हासिल करा देती है, लेकिन इससे होने वाले नुकसान का गुणाभाग कोई भी युवा नहीं लगाता. बल्कि सैल्फी लेते वक्त युवा खुद पर कम और अपने बैकग्राउंड पर अधिक फोकस करता है. इस से वह दूसरों के आगे यह साबित करना चाहता है कि, देखों मैं कितना बहादुर हूं और इस तरह की यह एकलौती तसवीर है. मगर अपनी बहादुरी का सबूत महज एक सैल्फी से कैसे दिया जा सकता है.

इस बात पर युवाओं को विचार करना चाहिए. यह सिर्फ एक पागलपन है और मजे की बात तो यह हैकि इस पागलपन की दुनिया भर में कोई दवा भी नहीं.  अधिकतर युवाओं में जंगली जानवरों, नदी समुद्र, पुल, झरनों, पहाड़ों और ऊंची इमारतों पर चढ़ कर सैल्फी लेने की सनक देखी गई है. कुछ इससे भी अव्वल होते हैं और खतरना वस्तुओं जैसे पिस्तौल या चाकू के साथ भी सैल्फी लेना पसंद करते हैं. इसी वर्ष 1 मई को ऐसी ही एक घटना सामने आई जिस में महज 15 वर्ष के एक बच्चे ने सैल्फी के चक्कर में खुद को ही मार डाला. दरअसल घटना पठानकोट की है. एक बच्चे ने अपने पिता की रिवौल्वर के साथ सेल्फी लेनी चाहिए और उसी दौरान गोली उस के सिर के आरपार हो गई.

माता पिता भी हैं जिम्मेदार

इस तरह की अन्य घटनाएं भी हैं. लेकिन इस तरह के हादसे न हों अगर बच्चों और युवाओं के मातापिता अलर्ट हो जाएं आजकल के टैकसेवी मातापिता बच्चों के आगे ही अपने स्मार्टफोन से चिपके रहते हैं. बच्चे भी मातापिता की इन आदतों को अडौप्ट कर लेते हैं और स्मार्टफोन खरीदने की मातापिता से जिद कर बैठते हैं. मातापिता भी बच्चों की जिद पूर कर देते हैं. यहां से शुरू होती है. सोशल नैटवर्किंग साइट्स से जुड़ने की लत.

औनलाइन सेफ्टी एडवाइजरी वैबसाइट नौथनैट की सोशल एज रिपोर्ट के मुताबिक 8 से 16 वर्ष के बच्चे, जो अभी सोशल नैटवर्किंग साइट्स पर अपना प्रोफाइल बनाने के लिए अंडर ऐज हैं, वे धड़ल्ले से फेसबुक, इंस्टाग्राम और बीबीएम में ऐक्टिव हैं. इस के लिए वे अपने ही मातापिता के प्रोफाइल, फेक अकाउंट और गलत जानकारियों का प्रयोग भी कर रहे हैं.

आंकड़ों के मुताबिक लगभग 40 प्रतिशत बच्चे वाट्सएप, 24 प्रतिशत बीबीएम और 52 प्रतिशत बच्चे फेसबुक से गलत तरह से जुड़े हुए हैं. इन बच्चों में अपने ही दोस्तों में अपनी लोकप्रियता को बढ़ाने का लालच है. जिस के लिए यह तरहतरह की लुभावनी पोस्ट करते रहते हैं. इन में से सब से अधिक पोस्ट में उन की सैल्फी होती हैं. इन तसवीरों पर आई लाइक्स और कमैंट्स का लालच ही उन्हें तरहतरह की खतरनाक तसवीरें लेने के लिए प्रोत्साहित करता है.  यह सब कुछ बच्चे के मातापिता की नाक के नीचे ही हो रहा होता है. बल्कि मातापिता खुद भी अपने बच्चों की तसवीरों को फेसबुक और इंस्टाग्राम पर अपलोड करते रहते हैं. यह देख कर बच्चों को और भी अधिक बढ़ावा मिलता है, क्योंकि जो कार्य मातापिता करते हैं बच्चे अकसर उसे दोहराते हैं और हिचकते नहीं हैं क्योंकि बच्चों की मानसिकता होती है कि जो मातापिता कर रहे हैं वह कार्य गलत नहीं हो सकता.

बात फिर वहीं आकर अटक जाती है कि सैल्फी लेना क्राइम नहीं लेकिन गलत जगह और विपरीत परिस्थितियों में सैल्फी लेना खतरनाक जरूर है. इसी वर्ष अप्रैल माह में सहारनपुर के 3 लड़कों ने सैल्फी के लिए रेलवे ट्रैक का चुनाव किया. तीनों दोस्तों में तय हुआ कि जब ट्रेन दूर से ट्रैक पर दिखने लगेगी तब वह तीनों बारीबारी से ट्रेन के साथ सैल्फी लेंगे. लेकिन पटरियों पर सरपट दौड़ती ट्रेन ने उन्हें यह मौका नहीं दिया और तीनों को कुचलते हुए आगे बढ़ गई. पीछे छूट गए तो बस लड़कों के कटे फटे शव.

बचपन में यदि रेल में सफर के दौरान मातापिता अपने बच्चों को यह समझाएं कि चलती ट्रेन उन का क्याक्या बिगाड़ सकती है, तो शायद इस तरह के हादसे थम जाएं. लेकिन ट्रेन के आगे सेल्फी लेने का यह अकेला हादसा नहीं है बल्कि पहले भी कई युवा चलती ट्रेन के दरवाजे पर लटक कर वीडियो बनाते, पीछे से आती ट्रेन के सामने स्टंट करते हुए तसवीर खींचते चपेट में आकर जान गंवा चुके हैं या हाथ पैर कटवा चुके हैं. कानून के मुताबिक ऐसे लोग, जो स्टेशन पर सैल्फी खींचते या ट्रेन के साथ तसवीर लेते पाए जाएंगे उन पर आईपीसी की धारा 307 के तहत अटेम्प्ट टू सुसाइड का मामला चलेगा.  इसलिए समझदारी इसी में है कि सैल्फी लें मगर सुरक्षित स्थान पर.

सेल्फी डैथ की अन्य घटनाएं

जनवरी 2016

1. 20 वर्षीय अभिषेक गुप्ता की जम्मू के रेआसी फोर्ट (भीमगढ़ किले) पर ऊंचाई से गिर कर मौत हो गई. गरने से पूर्व अभिषेक ऊंचाई के साथ खुद को कैमरे में कैद करने की कोशिश कर रहा था.

2. मुंबई का चर्चित तरन्नुम सैल्फी डैथ केस भी कुछ ऐसी ही कहानी बयां करता है. 20 वर्ष की तरन्नुम अपने 2 दोस्तों के साथ बांद्रा में समुद्र किनारे एक रौक पर खड़े होकर सैल्फी ले रही थी. समुद्र की एक ऊंची लहर ने तीनों को बहा कर ले गई. 2 लड़कियां वापस आती लहर के साथ किनारे आगईं लेकिन तरन्नुम को लेहर गहरे में ले गई, जहां डूब कर उस की मौत हो गई.

फरवरी 2016

1. नासिक के वालदेवी डैम पर खड़े एक कालेज गोइंग लड़के की सैल्फी लेते वक्त डैम में गिर कर मौत हो गई.

2. मंदया इंस्टिट्यूट औफ मैडिकल साइंस, बेंगलूरू के एक छात्र की नहर के साथ सैल्फी लेते वक्त उस में गिर कर मौत हो गई.

3. चेन्नई में सेल्फी लेने के चक्कर में 16 वर्ष के 11 वीं में पढ़ने वाले एक छात्र की मौत हो गई. वह ट्रेन के आगे खड़े होकर सैल्फी ले रहा था तब ही ट्रेन उस के ऊपर से गुजर गई.

4. गोआ में 5 दोस्त एक रौक पर खड़े हो कर सैल्फी लेने के चक्कर में ऊंचाई से गिर गए और उन्हें गहरी चोटें आई.

अप्रैल 2016

1. 5 अप्रैल को हैदराबाद में 16 साल के एक युवक की सैल्फी लेने के चक्कर में मौत हो गई. युवक रौक फाउंटेन पर खड़ा हो कर सैल्फी लेने की कोशिश कर रहा था.

2. 15 अप्रैल को मिरजापुर, उत्तर प्रदेश में 2 युवाओं की ट्रेन से कटकर मौत हो गई. दोनों ही चलती ट्रेन के साथ सैल्फी ले रहे थे.

3. 26 अप्रैल को तमिल नाडू के गांव में  25 वर्ष के एक युवक की तालाब के किनारे खड़े होकर सैल्फी लेने की ख्वाहिश ने उसे मौत के आगोश में ले लिया.

जून 2016

1. 3 जून को 18 वर्ष के एक युवक की गंगा नदी में अपनी मां के साथ डुबकी लगाते वक्त सैल्फी लेने की कोशिश में जान चली गई. घटना पश्चिम बंगाल की है.

2. 12 जून को 23 वर्ष के एक युवक की गुजरात के एक शहर में बने डैम पर खड़े होकर सैल्फी लेने के चक्कर में नदी में गिर कर मौत हो गई. लड़के को बचाने के लिए नदी में छलांग लगाने वाले उस के दोस्त ने भी अपनी जान गवा दी.

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हर्बल कास्मेटिक : कैरियर संवारे, त्वचा निखारे

भारत में पढ़ेलिखे बेरोजगारों की तादाद देखते हुए मानव संसाधन विकास मंत्रालय और लघु उद्योग मंत्रालय ने पिछले कुछ सालों से स्वरोजगार को बढ़ावा देने की अच्छी पहल की है. इस दिशा में कई प्रशिक्षण संस्थान भी खोले गए हैं, जहां बिलकुल मुफ्त प्रशिक्षण दिया जाता है. उन में एक कोर्स है हर्बल कास्मेटिक मैन्यूफैक्चरिंग. हर्बल कास्मेटिक लघु उद्योग का उत्पाद है. इस की मार्केटिंग और एक्सपोर्ट में सरकार कई तरह की सहायता करती है, साथ ही कर्ज भी मुहैया कराती है.

घर में मैन्यूफैक्चरिंग यूनिट लगा कर कम लागत में अच्छी कमाई की जा सकती है. अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर लोग लागत को ले कर काफी सेंसटिव हैं. हमारे देश के लोग भी त्वचा की देखभाल को ले कर सजग हुए हैं. नामीगिरामी स्किन सेंटर खुले हैं, इन में आम बात यह है कि सभी में हर्बल कास्मेटिक की मांग है. हर्बल कास्मेटिक का आधार जड़ीबूटियां हैं और इस में कोई कैमिकल भी नहीं होता. इस के इस्तेमाल से न तो स्किन के खराब होने का डर होता है, न ही रिएक्शन होने का खतरा. भारत में जड़ीबूटियां काफी मात्रा में उपलब्ध हैं, इसलिए यहां हर्बल कास्मेटिक का उत्पादन अपेक्षाकृत आसान व कम लागत में संभव है.

मैन्यूफैक्चरिंग यूनिट लगाने का खर्च

हर्बल कास्मेटिक मैन्यूफैक्चरिंग का आधार जड़ीबूटियां हैं, जिन में चंदन, हलदी, तुलसी, नीम, एलोवेरा नारियल तेल व लौंग वगैरह का इस्तेमाल किया जाता है. इस कच्चे माल के साथसाथ जरूरी बरतन, गरम करने के लिए गैस और एक कमरे की जरूरत होती है, जहां एक यूनिट लग सके. इन सब मदों में तकरीबन 50 से 75 हजार रुपए तक खर्च आता है.

कर्ज की सुविधा

मैन्यूफैक्चरिंग यूनिट लगाने के लिए खर्च का 90 फीसदी भाग कर्ज के रूप में प्राप्त किया सकता है. सहायता की सीमा 20 लाख रुपए तक है. महिला उद्यमियों को 30 फीसदी तक कर्ज में सब्सिडी भी मिलती है. यह कर्ज पब्लिक सेक्टर के बैंक, क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक और केंद्र व राज्य सरकार की वित्तीय संस्थाएं देती हैं.

पैकेजिंग और मार्केटिंग

आजकल उत्पाद की क्वालिटी के साथसथ पैकेजिंग पर भी काफी जोर दिया जाने लगा है. इस की पैकिंग मार्केट की मांग और निर्यात किए जाने वाले देश के लोगों के शौपिंग बिहेवियर को देखते हुए कर सकते हैं. हर्बल कास्मेटिक की मांग भारत के बाजार में काफी है, लेकिन इन दिनों विदेशों के स्पा सेंटरों में?भी हर्बल कास्मेटिक के बढ़ते उपयोग ने उद्यमियों के लिए एक्सपोर्ट की संभावनाओं का काफी विस्तार किया है.

बनने वाले प्रोडक्ट

हर्बल मैन्यूफैक्चरिंग में साबुन, क्रीम, तेल और शैंपू जैसे उत्पाद तैयार किए जाते हैं, जिन में सिर्फ जड़ीबूटियों का इस्तेमाल किया जाता है. कभीकभी एलोपैथी मैटीरियल्स को भी प्रयोग में लाया जाता है.

हर्बल शैंपू मेकिंग

आज के दौर में शैंपू का प्रचलन बहुत हो गया है. इस के इस्तेमाल से बाल मुलायम और चमकीले बने रहते हैं. व्यावसायिक तौर पर यह काफी लाभप्रद है और इस की मांग भी बहुत ज्यादा है.

आवश्यक सामग्री

नारियल का तेल, कास्टिक पोटाश, शुद्ध पानी (डिस्टिल वाटर) पोटिशियम कार्बोनेट, सुगंधित पदार्थ.

बनाने की विधि

सब से पहले नारियल तेल का पूरी तरह साबुनीकरण करने के लिए उस में कास्टिक पोटाश मिलाया जाता?है. उस के बाद उस में डिस्टिल वाटर मिला कर 75 सेंटीग्रेड तापमान तक गरम किया जाता?है. फिर इस घोल को धीरेधीरे डिस्टिल वाटर की सहायता से पतला कीजिए. उस के बाद पोटेशियम कार्बोनेट मिला दीजिए. अंत में सुगंधित पदार्थ मिला दीजिए. इस मिश्रण को बड़े पारदर्शक जार में रख दीजिए. कुछ देर रखा रहने पर भारी भाग जार की तली में बैठ जाएगा. ऊपर वाले तरल भाग को निकाल कर छान लीजिए और प्लास्टिक की सुंदर शीशियों में पैक कर के और लेबल लगा कर बाजार में बेच दीजिए. इसी तरह आप दूसरे उत्पाद भी तैयार कर सकते हैं और उन्हें आमदनी का जरीया बना सकते?हैं.

प्रशिक्षण संस्थान

देश में कई ऐसे संस्थान हैं, जहां से  तकरीबन 30 दिनों का कास्मेटिक मैन्यूफैक्चरिंग का प्रशिक्षण हासिल किया जा सकता है. ऐसे संस्थानों के पते नीचे दिए जा रहे हैं.

* खादी एंड विलेज इंडस्ट्रीज कमीशन, गांधी आश्रम राजघाट, नई दिल्ली.

* डा. बीआर अंबेडकर इंस्टीट्यूट औफ रूरल टेक्नोलोजी एंड मैनेजमेंट, खादी और विलेज इंडस्ट्रीज कमीशन, त्रियंबक विद्या मंदिर, नासिक.

* मल्टीडिसिप्लिनरी ट्रेनिंग सेंटर, दूरवानी नगर, बेंगलूरू, कर्नाटक.

* खादी एंड विलेज इंडस्ट्रीज कमीशन के ब्लाक, चौधरी बिल्डिंग, कनाट प्लेस, नई दिल्ली.

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परमाणु, केदारनाथ, बत्ती गुल मीटर चालू के बाद अब ‘फन्ने खां’ पर भी संकट

बौलीवुड में प्रेरणा अरोड़ा की कंपनी ‘‘क्रियाज क्रिएशंस’की वजह से कई फिल्मों पर छाए संकट से बौलीवुड का हर शख्स परेशान है. जौन अब्राहम ने ‘क्रियाज क्रिएशंस’के साथ संबंध खत्म करके अपनी फिल्म ‘‘परमाणु’’ को रिलीज करने की तैयारी शुरू कर दी है, तो वहीं अभिषेक कपूर ने अपनी फिल्म ‘केदारनाथ’ को प्रेरणा अरोड़ा की कंपनी के चंगुल से छुड़ाकर अकेले ही बनाकर रिलीज करने का ऐलान कर दिया है. इतना ही नहीं जौन अब्राहम की कंपनी ‘जे ए इंटरटेनमेंट’ और प्रेरणा अरोड़ा की कंपनी ‘क्रियाज किएशंस’ के बीच का विवाद अदालत तक पहुंच गया है.

उधर ‘क्रियाज क्रिएशंस’ द्वारा धन न देने के कारण ‘बत्‍ती गुल मीटर चालू’ और ‘फन्ने खां’ इन दो फिल्मों की शूटिंग रूक गयी है. फिल्म ‘बत्‍ती गुल मीटर चालू’ की शूटिंग बंद होने से अभिनेत्री यामी गौतम सबसे ज्यादा निराश हैं. काफी लंबे समय के बाद उनकी किसी फिल्म की शुरुआत हो रही थी, पर यामी गौतम इस फिल्म के लिए शूटिंग शुरू करतीं, उससे पहले ही यह फिल्म बंद हो गयी है.

प्रेरणा अरोड़ा की कंपनी ‘क्रियाज क्रिएशंस’ पर जौन अब्राहम से लेकर अभिषेक कपूर तक सभी समय पर धन उपलब्ध न कराने का आरोप लगा चुके हैं. अब धन न मिलने से ही दो फिल्मों की शूटिंग रूकी है.

जौन अब्राहम के साथ कानूनी लड़ाई लड़ रही प्रेरणा अरोड़ा ने फिलहाल चुप्पी साध रखी है. उनकी कंपनी के लोग भी सवालों के जवाब देने की बजाए इधर उधर झांकते नजर आ रहे है. जबकि सूत्र दावा करते हैं कि प्रेरणा अरोड़ा जल्दबाजी में एक साथ कई फिल्मों के साथ सह निर्माता बन गयी, पर उनके पास उतना धन नहीं है. कुछ लोग दावा कर रहे हैं प्रेरणा अरोड़ा तो अपनी फिल्मों की बजाय हमेशा खुद को ही लाइम लाइट में रखना चाहती हैं और उसी पर सबसे ज्यादा धन खर्च कर रही हैं. अब असली माजरा तो प्रेरणा अरोड़ा ही जानती हैं…

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व्हाट्सऐप लाया नया फीचर, डिलीट हुए मैसेज कर सकेंगे डाउनलोड

व्हाट्सऐप का डिलीट हुआ डाटा वापस से मिल जाए तो कितना अच्छा हो. आप भी कभी अभी ऐसा महसूस करते होंगे नहीं…तो अब परेशान मत होइये क्योंकि ऐसा हो गया है, जी हां, व्हाट्सऐप अब अपने यूजर्स के लिए नया फीचर लेकर आया है जिसकी मदद से आप डिलीट किए गए फोटो, वीडियो और मैसेज वापस से डाउनलोड कर पाएंगे. हालांकि आप इसके जरिए केवल मीडिया फाइल ही डाउनलोड कर सकेंगे, टेक्स्ट मैसेज नहीं.

बता दें कि इससे पहले भी कंपनी व्हाट्सऐप ऐप पर शेयर किए गए फोटो, GIFs, वीडियो, डौक्यूमेंट, औडियो क्लिप आदि को अपने सर्वर पर 3० दिनों तक स्टोर करके रखता था, लेकिन कुछ दिन पहले व्हाट्सऐप ने ऐसा करना बंद कर दिया था, वहीं अब कंपनी ने एक बार फिर से सर्वर पर डाटा को स्टोर करना शुरू कर दिया है.

कैसे डाउनलोड करें डिलीट हुए डाटा?

WhatsApp के एंड्रायड ऐप के 2.18.113 पर यह फीचर आ गया है. वहीं iOS यूजर्स को अभी इंतजार करना पड़ेगा. अगर आप भी डिलीट हुए फोटो, वीडियो और औडियो फाइल को फिर से डाउनलोड करना चाहते हैं तो इसके लिए सबसे पहले अपने ऐप को अपडेट करें.

इसके बाद उस चैट में जाएं जिसमें से आप मीडिया फाइल को डाउनलोड करना चाहते हैं. यहां पर यूजर्स के नाम पर टैप करें. अब आपके ठीक नीचे Media लिखा मिलेगा, उसमें से जिस फाइल को डाउनलोड करना है, उस पर क्लिक करें और डाउनलोड का विकल्प द्वारा फाइल डाउनलोड कर लें. उदाहरण के लिए- मान लीजिए कि आपके दोस्त का नाम दिनेश है. आप दिनेश की चैट में से डिलीट किए गए फोटो और वीडियो डाउनलोड करना चाहते हैं तो इसके लिए दिनेश के चैट में जाएं और फिर नाम पर टैप करें. अब आपको नाम के ठीक नीचे मीडिया फाइल्स दिख जाएंगी. यहां से जो भी फाइल चाहिए उसे डाउनलोड कर लें. बता दें कि आप 2 महीने पहले डिलीट किए गए डाटा को भी डाउनलोड कर सकेंगे.

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ऐड शूट से ज्यादा मजा गन शूटिंग में है : धोनी

मैदान पर हेलिकौप्टर शौट के लिए महेंद्र सिंह धोनी के लिए आईपीएल 2018 की शुरुआत फिर से शानदार रही है. उनकी टीम ने अपने पहले दो मुकाबले जीत लिए हैं. वैसे भी आईपीएल के इतिहास में वह सबसे कामयाब कप्तान हैं. उनकी टीम दो साल के बैन के बाद आईपीएल में लौटी है. इस बार भी उनकी टीम शानदार प्रदर्शन दिखा रही है. ये तो हम सभी जानते हैं कि क्रिकेट के अलावा भी धोनी दूसरे खेलों में रुचि रखते हैं.

आईपीएल के इतर उन्होंने अपने फैंस को दूसरा रूप दिखाया. टीम इंडिया के पूर्व कप्तान महेंद्र सिंह धोनी ने अपने औफिशियल ट्विटर अकाउंट पर एक वीडियो पोस्ट किया. इसमें वह एक शूटिंग रेंज में निशाने साधते दिख रहे हैं. वीडियो पोस्ट करते हुए महेंद्र सिंह धोनी ने लिखा… एड की शूटिंग करने के मुकाबले गन से शूटिंग करना ज्यादा मजेदार है.

30 सेकंड के इस वीडियो में धोनी ने 15 फायर किए हैं और इनमें से कुछ फायर निशाने पर जाकर भी लगे हैं. 15 अप्रैल को धोनी की टीम चेन्नई का मैच पंजाब की टीम से है. मजेदार बात ये है कि अब तक चेन्नई की टीम में धोनी की कप्तानी में खेलते रहे आर अश्विन की टीम से उनका मुकाबला होगा.

शूटिंग के अलावा धोनी फुटबौल जैसे गेम्स भी अक्सर खेलते हुए दिखाई देते हैं. धोनी को अक्सर ऐसे साहसिक कारनामे करते देखा जाता है. घुड़सवारी से लेकर धोनी के बाइक प्रेम के बारे में तो हर कोई जानता ही है. भारतीय सेना ने धोनी को लेफ्टिनेंट कर्नल की उपाधि से नवाजा है. अभी हाल में उन्हें जब पद्मभूषण से सम्मानित किया गया तो धोनी ने सेना की ड्रेस में ही ये सम्मान लिया था.

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इन शहरों में खरीद सकते हैं 5 से 7 लाख में फ्लैट, ये है शर्त

महंगाई के दौर में अपने घर की तलाश कर रहे लोगों के लिए अच्छा मौका है. सिर्फ 5-7 लाख रुपए में बढ़िया फ्लैट आप अपने नाम कर सकते हैं. देश के कई शहरों में आपके लिए मौके बन रहे हैं. फ्लैट खरीदने का मन बना रहे लोगों के लिए यह बिल्कुल सही वक्त है. हालांकि, इतनी कम कीमत पर मिलने वाले फ्लैट को लेकर आपके मन में कई सवाल उठ रहे होंगे, लेकिन यह सच है. फ्लैट किसी छोटे शहर नहीं बल्कि बड़े शहरों में बिक्री के लिए उपलब्ध हैं. इसमें गड़बड़ी या धोखा होने की संभावनाएं भी कम हैं, क्योंकि सरकार इस स्कीम पर नजर बनाए हुए है. सरकार और बिल्‍डर की स्‍कीम क्‍या है और इस स्‍कीम का फायदा कैसे उठा सकते हैं. आइये जानते हैं.

कहां मिल रहे सस्ते फ्लैट

सिर्फ 5 से 7 लाख रुपए में फ्लैट खरीदने की बात सुनकर हैरानी होती है. लेकिन, फ्लैट लेना हैं तो आपको दिल्‍ली के आसपास शहरों यानी एनसीआर के गुरुग्राम, फरीदाबाद, गाजियाबाद, ग्रेटर नोएडा, सोनीपत, राजस्‍थान के अलवर, बहादुरगढ़, मेरठ जैसे शहरों में इस तरह के औफर हैं.

रहेजा, गोदरेज जैसे बिल्डर दे रहे मौका

सस्ते फ्लैट औफर करने वाले कोई छोटे बिल्डर नहीं बल्कि नामी-गिरामी बिल्डर्स हैं. रहेजा से लेकर गोदरेज के प्रोजेक्ट में फ्लैट आप अपने नाम कर सकते हैं. गुड़गांव के सेक्‍टर 109 में रहेजा अर्थवा प्रोजेक्‍ट के तहत करीब 6.4 लाख रुपए में फ्लैट मिल रहा है. इसके अलावा, सेक्‍टर 67A गुड़गांव में इरिओ डेवलपर्स 6 लाख रुपए में फ्लैट औफर किया है. गुड़गांव के ही सेक्टर 104 में गोदरेज समिट सोसायटी में 5.5 लाख रुपए में फ्लैट बिक रहा है.

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ग्रेटर नोएडा में भी मिलेगा सस्ता फ्लैट

गेटर नोएडा के सेक्‍टर एमयू 2 में बीएचएस 16 स्‍कीम के तहत 7 लाख रुपए में फ्लैट मिल रहा है. यमुना एक्‍सप्रेस वे डेवलपमेंट अथॉरिटी के अफोर्डेबल हाउसिंग स्‍कीम के तहत यमुना एक्‍सप्रेस-वे से सटी सोसायटी में 7 लाख रुपए का फ्लैट मिल रहा है. इनके अलावा भी आप अपने शहर में 5 से 7 लाख रुपए की कीमत के फ्लैट तलाश सकते हैं.

क्‍या है सस्ते घर की स्‍कीम?

केंद्र और राज्‍य सरकार लगभग हर बड़े शहर में अफोर्डेबल हाउसिंग प्रोजेक्‍ट्स बना रही हैं. इसका मकसद लोगों को सस्‍ते में घर मुहैया कराना है. स्‍कीम के तहत सरकार उन बिल्‍डर्स को इन्‍सेंटिव देती है, जो सस्‍ते घर बनाते हैं. हर फ्लैट के लिए 1.5 लाख रुपए तक की ग्रांट भी दी जाती है. स्‍कीम के तहत बिल्‍डर्स ने ईडब्‍ल्‍यूएस फ्लैट की कीमत 5 से 7 लाख रुपए रखी है.

किन बातों का रखें ख्याल?

फ्लैट्स की बुकिंग कराने से पहले कुछ बातें जानना जरूरी है. फ्लैट लेने से पहले बिल्‍डर्स का रियल एस्‍टेट रेग्‍युलेशन एक्‍ट (रेरा) के तहत रजिस्‍ट्रेशन है या नहीं. बिल्डर को राज्‍य की अफोर्डेबल हाउसिंग पौलिसी के तहत सर्टिफिकेट मिला हुआ है या नहीं. बिल्‍डर के प्रोजेक्‍ट की पूरी पड़ताल जरूर करें. बिल्‍डर के पजेशन टाइम को रेरा को पजेशन टाइम से मैच जरूर करें. अगर यह दोनों अलग हैं तो इसके लिए आप पूछ सकते हैं. साथ ही रेरा में भी आपत्ति दर्ज करा सकते हैं.

फ्लैट लेने के लिए क्‍या है शर्त?

अगर आप इस स्‍कीम के तहत फ्लैट लेना चाहते हैं तो आपकी इनकम सालाना 3 लाख रुपए होनी चाहिए. इसके लिए आपको इनकम प्रूफ और एफिडेविट देना होगा. तब ही आप इस स्‍कीम के तहत बन रहे फ्लैट्स के लिए अप्‍लाई कर सकते हैं. हालांकि, कुछ राज्‍यों में बिल्‍डर्स को यह अधिकार दिया गया है कि वह एक तय सीमा के बाद ईडब्‍ल्‍यूएस वर्ग के अलावा भी सामान्‍य वर्ग को फ्लैट्स बेच सकते हैं.

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