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नोट में खोट : इस मशीन के चक्कर में लाखों रुपए गंवा रहे हैं लोग

भारतीय करेंसी के बड़े नोटों को 8 नवंबर, 2016 को एकाएक बंद कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नकली नोटों के कारोबारियों को करारी चोट पहुंचाई थी. ये कारोबारी एक सुनियोजित तरीके से भारतीय अर्थव्यवस्था को खोखला करने की कोशिश में लगे थे. 500 और 1000 के नोट बंद करने के बाद भले ही कुछ दिनों के लिए बाजार में नकली नोट आने बंद हो गए थे. लेकिन स्थिति आज भी पूरी तरह बदली नहीं है.

कुछ जालसाजों ने तो नोट छापने की मशीन बेचने के बहाने लोगों को ठगना शुरू कर दिया है. भारतीय रिजर्व बैंक को अपनी बपौती समझने वाले कुछ ऐसे गिरोह हैं, जो पुलिस प्रशासन की आंखों में धूल झोंक कर 5 सौ और 2 हजार रुपए के नकली नोट छाप रहे हैं और लोगों को रुपए तिगुना करने का लालच दे कर ठग रहे हैं.

असम के उत्तर लखीमपुर जिले के अंतर्गत कई गांव ऐसे हैं, जहां के अधिकांश लोग इस जालसाजी के धंधे में लगे हैं. एक दिन में अमीर बनने के लालच में लोग वहां अपनी गाढ़ी कमाई लुटाने चले जाते हैं.

आइए जानें, इस गांव के लोग आखिर नोट छापने और नोटों को दोगुना करने का धंधा किस तरह करते हैं.

असम के उत्तर लखीमपुर के एक गांव का रहने वाला है नजरूल काका नूर मोहम्मद उर्फ राहुल. उस का कहना है कि उसे भारतीय रिजर्व बैंक, दिल्ली की ओर से यह अनुमति मिली हुई है कि अगर कोई व्यक्ति उसे 37 लाख रुपए देता है तो वह नोट छापने वाली मशीन से 10 मिनट में एक करोड़ 15 लाख रुपए छाप कर उसे दे सकता है.

उत्तर लखीमपुर जिले के बिहपुरिया से 3 से 4 किलोमीटर दूर बंगालमरा पुलिस चौकी में आने वाले अहमदपुर, ठेंगिया, सोनापुर, फतेपुर, दौलतपुर, कुतुबपुर, इसलामपुर, मिरीसीट समेत तमाम गांवों में रहने वाले अधिकांश लोगों के यहां नोट छापने की मशीनें उपलब्ध हैं.

और तो और भारतीय रिजर्व बैंक का ‘लोगो’ भी मशीन पर है. राहुल ने बताया कि रिजर्व बैंक से नोट छपाई में काम आने वाले 10 करोड़ कागज और मशीन लेने के लिए 10 प्रतिशत रकम बैंक को देनी होगी, तब जा कर आप रुपए छापने की मशीन अपने शहर ले जा सकते हैं. और नोट छापने वाली मशीन के लिए हर महीने आरबीआई को 20 लाख रुपए देने होंगे अन्यथा मशीन वापस करनी होगी.

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यही नहीं मशीन में कोई गड़बड़ी आती है तो कंपनी दूसरी नई मशीन उपलब्ध करा सकती है. राहुल ने बताया कि नोट छापने की सभी जरूरी वस्तुएं नई दिल्ली स्थित आरबीआई उपलब्ध कराती है. राहुल का कहना है कि वह ग्राहकों को खुश करने के लिए पहले 10 हजार से ले कर 20 हजार रुपए लेता है और बदले में 10 का 30 और 20 का 60 हजार मशीन से छाप कर दे देता है. यानी दी गई रकम के 3 गुने नोट मिल जाते हैं.

सच्चाई जानने के लिए लेखक ने पिछले 10 दिनों से उन लोगों से बात करने की लगातार कोशिश की, जो घरों में मशीन से 2 हजार और 5 सौ के नोट छाप रहे हैं. लेखक ने खुद को राशन का थोक व्यापारी बताया. लेखक ने यह भी कहा कि वह 20 लाख रुपए देने को तैयार है, पर बदले में कितना मिलेगा.

जवाब आया कि 20 लाख रुपए के 60 लाख रुपए मिलेंगे, लेकिन हमारी ओर से 15 लाख अलग से दिए जाने का औफर है. यानी 20 लाख रुपए के बदले 75 लाख रुपए दिए जाएंगे.

मामले की तहकीकात करने के लिए लेखक ने असम पुलिस के कई आला अधिकारियों से संपर्क साधा तो पता चला कि रिजर्व बैंक औफ इंडिया का नाम ले कर जालसाजी करने वाले कुछ ऐसे गिरोह सक्रिय हैं, जो इस तरह से लालच दे कर लोगों से असली रुपए लूट लेते हैं.

इस समय उत्तर लखीमपुर जिले के विभिन्न इलाकों से नोट दोगुना करने वाले गिरोह अपने जाल में फांस कर लोगों को लूट रहे हैं. गिरोह के लोगों ने अब तक कई लोगों से लाखों रुपए लूट लिए हैं.

गिरोह के जाल में केंद्रीय रिजर्व सुरक्षा बल (सीआरपीएफ) का एक डीएसपी भी फंस कर लाखों रुपए लुटा चुका है. विस्तार से जानकारी हासिल करने के लिए लेखक ने किसी तरह गिरोह के सरगना से संपर्क साधने की कोशिश की, जिस में सफलता मिली.

हुआ यूं कि किसी तरह एक नेपाली युवती का फोन नंबर मिल गया. उस युवती से संपर्क साधने के बाद नोट दोगुना करने वाले राहुल का नंबर मिला.

राहुल से संपर्क करने की कोशिश की तो उस ने फोन काट दिया, लेकिन दूसरे दिन उस से खुद फोन किया और मतलब की बात की. ‘जय माता दी’ कह कर अपनी बात की शुरुआत करने वाले राहुल का असली नाम नजरूल काका नूर मोहम्मद है.

खुद को गुवाहाटी के दक्षिण गांव का रहने वाला बता कर उस ने कहा कि वह भारतीय रिजर्व बैंक के निर्देश पर नोट दोगुने करता है. उस ने कहा, ‘‘आप कुछ रुपए ले कर बिहपुरिया आ जाएं, वहां आने के बाद काल करें. हमारा आदमी आप को मेरे घर ले कर आ जाएगा और 5 हजार या 10 हजार रुपए देने के बाद आप के नोट दोगुना कर दिए जाएंगे.’’

चूंकि यह पूरा धंधा गैरकानूनी रूप से चल रहा था, इसलिए हम ने असम पुलिस के एसटीएफ के एडीजीपी वाई.के. गौतम से संपर्क किया. वह हमारी मदद करने को तैयार हो गए. उन्होंने हमारे साथ पुलिस की एक टीम भी भेजी.

हम राहुल के कहे अनुसार, गुवाहाटी से निकल गए. तभी राहुल का फोन आया. उस ने बताया कि वह हर घंटे काल करता रहेगा. सोनापुर, हैबरगांव, कलियाभोमरा पुल और नारायणपुर तक राहुल फोन करता रहा. फिर अचानक 5 बज कर 17 मिनट पर राहुल का मोबाइल स्विच्ड औफ हो गया.

हम लगातार उस के नंबर पर संपर्क करते रहे, लेकिन उस का फोन बंद ही मिला. हम ने लखीमपुर के मां काली होटल में रात गुजारी. सबेरे हम ने नोट दोगुना करने वाले गिरोह की खोजबीन शुरू की, लेकिन कुछ पता नहीं चल सका.

दोपहर के समय हम बंगालमरा आउट पुलिस चौकी में गए. चौकीइंचार्ज जौन पाठरी से बात करने के बाद हमें नोट दोगुना करने वालों के बारे में सच्चाई पता चली.

चौकीइंचार्ज पाठरी ने बताया कि उन के इलाके के अलावा अन्य कई जगहों पर लोगों को नोट दोगुना करने वाले गिरोहों की कमी नहीं है. हर मकान में नोट छापने के नाम पर एक मशीन है, जिसे नोट छापने वाली मशीन बता कर लोगों को लूटा जा रहा है.

बाद में हमें पता चला कि राहुल नाम के इस शातिर ठग को भनक लग गई थी कि गुवाहाटी से पुलिस की टीम हमारे साथ है. तभी उस ने अपना मोबाइल स्विच्ड औफ कर दिया था.

तहकीकात करने पर पता चला कि नोट दोगुना करने वालों के जाल में अरुणाचल प्रदेश, त्रिपुरा, नागालैंड, मिजोरम और मेघालय के साथसाथ विभिन्न प्रदेशों के लोग शिकार हो चुके हैं.

नोट दोगुना करने वाले गिरोह वाशिंग मशीन के आकार का एक डब्बा, जो कई रंगबिरंगी लाइटों से जगमगाता रहता है और उस पर आरबीआई का स्टीकर लगा रहता है, में पहले से कुछ असली नोट रख देते हैं और ग्राहक के सामने मशीन को चालू कर दिया जाता है.

मशीन के चालू होने के बाद डब्बे के ऊपर बने एक छेद से 2 हजार के नोट जो एक तरफ छपे हुए होते हैं और दूसरी तरफ सफेद रहता है, डाले जाते हैं. थोड़ी देर बाद एक अन्य स्विच को चालू करने पर नीचे बने छेद से तेज रफ्तार से 2 हजार के नोट एकएक कर के बाहर निकलने लगते हैं.

नोट के बाहर निकलने पर उस के पास आया ग्राहक उस नोट को ले कर बाजार में जाता है और कुछ चीजें खरीदता है. नोट के बाजार में चल जाने से ग्राहक को इस बात का विश्वास हो जाता है कि मशीन से असली नोट ही बाहर आते हैं. फिर वह दोबारा मोटी रकम ले कर उस के पास आता है. नोट दोगुना करने वाले गिरोह के सदस्य नोट के आकार के कागज के टुकड़े को एक तरफ कलर फोटोकापी किए हुए 2 हजार के नोट को लगा कर बंडल बना कर रस्सी बांध देता है.

वह बंडल यह कह कर ग्राहक को दे देता है कि आप ने 20 लाख रुपए दिए थे, ये रहे 60 लाख और कंपनी की ओर से 15 लाख रुपए का औफर भी इसी में है.

नोट के बंडलों को ले कर ग्राहक खुशीखुशी वहां से चला जाता है. बाद में उसे पता चलता है कि वह इस गैंग के द्वारा ठगा जा चुका है. डर और भय से वह इस की शिकायत पुलिस थाने में भी नहीं करता और न ही उस स्थान पर जाने की उस की हिम्मत होती है, जहां से वह नोट के आकार का बंडल ले कर आया हुआ होता है.

बंगालमरा आउट थाने के थानाप्रभारी ने पहले से जब्त की गई नोट छापने की तथाकथित मशीन के अलावा 2 हजार और 5 सौ रुपए के आकार के कागजों के बंडलों के अलावा रुपए की फोटोकापियों और गिरोह द्वारा बनाए गए आरबीआई के लोगो, प्रमाणपत्र आदि दिखाए.

उन्होंने कहा कि कुछ महीने पहले त्रिपुरा से आया एक व्यक्ति अपनी कार टीआर01सी 0741 जेन वाईएक्स से नोट दोगुना करने वाले गिरोह के चक्कर में फंसा था. उसी समय पुलिस की रेड हुई तो वह अपनी कार छोड़ कर भाग खड़ा हुआ.

नोट दोगुना करने वालों को कई बार गिरफ्तार तो किया गया, लेकिन कोर्ट से जमानत पर छूटने के बाद वे फिर से इस धंधे को शुरू कर देते हैं और ग्राहकों की तलाश में ये लोग अपने एजेंट बाजार में छोड़ देते हैं. इस तरह से इन का धंधा चल रहा है.

भाई भतीजावाद पर विश्वास नहीं : कैलाश खेर

कश्मीरी पंडित परिवार में जन्मे मेरठ के इंडियन पौप रौक और प्लेबैक सिंगर कैलाश खेर ने ‘टूटाटूटा एक परिंदा…’ गाने से अपनी पहचान बनाई. उन का शुरुआती दौर काफी संघर्षपूर्ण था. केवल 13 साल की उम्र में उन्होंने घर छोड़ दिया था और अपने संगीत की पहचान बनाने के लिए पहले दिल्ली, फिर मुंबई आए. उन्होंने सूफी संगीत के साथ रौक का फ्यूजन कर जो शैली विकसित की, वह काबिलेतारीफ है.

वे देश में ही नहीं, विदेशों में भी अपने संगीत की वजह से पहचाने जाते हैं. वे हर तरह के गीतों को गाना पसंद करते हैं. उन्होंने 18 भाषाओं में गाने गाए हैं, जिन में बौलीवुड के 300 गाने हैं. उत्कृष्ट गायिकी के लिए उन्हें इस साल पद्मश्री पुरस्कार से भी नवाजा गया है. साधारण कदकाठी के कैलाश खेर से उन के अंधेरी स्थित स्टूडियो ‘कैलासा’ में मिलना हुआ. अपनी मंजिल तक वे कैसे पहुंचे, इस को ले कर वे बताते हैं-

‘‘मैं दिल्ली का हूं और मेरा बचपन काफी अलग था. मेरे पिता गाते थे, उन्हें देख कर, पढ़ाई के साथसाथ मुझे भी गाने का शौक था. लेकिन गाने से अधिक मुझे रहस्यवाद कविताएं लिखने का शौक था, जो सूफी कहलाता है. बड़े ये गाते थे और मुझे सुनने में बहुत अच्छा लगता था. उस समय मेरी उम्र केवल 4-5 साल की थी. वहीं से मेरे अंदर इसे गाने की इच्छा पैदा हुई. लेकिन परिवार वाले कहते थे कि पढ़ाई पूरी कर नौकरी करना है, जो मुझे पसंद नहीं था.

‘‘मैं अपनी जिद पर अड़ा था कि मैं गाना ही गाऊंगा. इसलिए मैं परिवार में किसी का प्यारा नहीं था और 14 वर्ष की उम्र में घर छोड़ देने के बाद मैं ने सारे रिश्ते छोड़ दिए. अब अपने दम पर जीने की चुनौती आई.’’

वे आगे कहते हैं, ‘‘कामयाब होने से पहले मेरे जीवन में बहुत संघर्ष था. घर छोड़ कर दिल्ली जैसे शहर में अकेले रहना, पेट भरना, पढ़ाई पूरी करना और अपनेआप को साबित करना सब एकसाथ आ गया. किराए पर बहुत दिनों तक रहा, करीब 12 वर्षों तक दिल्ली में 10 से

15 घर बदले. जिंदगी जीने का बहुत बड़ा संघर्ष था. इस संघर्ष से मैं ने विनम्र होना, जीना और चुनौती लेना सीखा. मैं ने इस संघर्ष से एक इंसान बनना भी सीखा.’’

संघर्ष के दिनों में संगीत कहां तक साथ था, इस पर कैलाश बताते हैं, ‘‘उस समय मैं संगीत क्या है, उसे करीब भूल चुका था. कैसे अपना पेट भरूं, कैसे मातापिता को अपनी शक्ल दिखाऊं, इस उठापटक में कब मैं 27 साल का हो गया, पता ही न चला. जिस के लिए घर छोड़ा उसी को नहीं कर पाया, क्योंकि आटे, तेल, लकड़ी आदि में जिंदगी उलझ गई थी. हमारे देश में ऐसे लाखों लोग हैं जो सपने तो देखते हैं पर उन्हें वे पूरे नहीं कर पाते.

‘‘इस के अलावा दिल्ली में मेरा एक छोटा सा एक्सपोर्ट का व्यवसाय भी फेल हो चुका था. मैं अवसाद में चला गया था. उस से निकलने के लिए कई काम किए. एक बार तो आत्महत्या की भी इच्छा हुई, पर इस दौरान मैं ने देखा कि जब भी कुछ गाता था तो सुनने वाले झूम उठते थे. फिर मैं ने साल 2001 में मुंबई आने का प्लान बनाया और अलबम बनाने की सोची.

‘‘2 साल यहां मेहनत की और साल 2004 में ‘टूटाटूटा’ गाने के रिलीज के बाद तो कहानी पूरी तरह से बदल गई. टीवी, रेडियो जिंगल्स और फिल्मों में गाने के औफर मिलने लगे.’’

संघर्ष के दौरान परिवार से अलग रहने के बाद जब सफलता मिली तब फिर परिवार के साथ कैसे जुड़े, इस पर वे कहते हैं, ‘‘मुंबई आने के बाद काम के साथसाथ जब पैसे मिलने लगे, तो जिंदगी में खुशियां मिलने लगीं, आत्मविश्वास बढ़ने लगा. मातापिता के पास गया, उन्हें मुंबई ले आया. अब वे दोनों नहीं रहे पर मैं खुश हूं कि उन्होंने मेरी कामयाबी को देखा है.

मेरी शादी अरेंज्ड है. मेरी पत्नी शीतल भान हाउसवाइफ है. मेरा एक बेटा कबीर 7 साल का है, जो मेरे और अंगरेजी गाने सुनता है. मेरी कामयाबी में परिवार, पत्नी और मेरे सहयोगी सभी का हाथ है. सैलिब्रिटी स्टेटस मुझे उन की वजह से ही मिला है. जीवन में कोई भी प्रसिद्धि आसानी से नहीं मिलती और जो इस से गुजरते हैं, उन्हें इस का मूल्य पता होता है. इसलिए जमीन से जुड़े रहने में कोई मुश्किल नहीं होती.’’

फिल्म इंडस्ट्री में आउटसाइडर यानी बाहरी लोगों को ले कर कैसा रवैया दिखता है? इस पर उन का कहना है, ‘‘जिन में हुनर हो उन्हें मौका मिलता है. इंडस्ट्री कोई नहीं होती, हुनर ही इंडस्ट्री है. आप में अगर प्रतिभा है तो हर कोई आप को पसंद करता है. जब मैं ने ‘देव’ फिल्म के दौरान ‘पिया के रंग, रंग दीनी…’ गाना गाया तो अमिताभ बच्चन भी चौंक कर मुझे देखने लगे थे.

‘‘कैसे भी आप हो, छोटेबड़े, कम या अधिक उम्र, लेकिन हुनर सब का बाप है. भाईभतीजावाद पर मैं विश्वास नहीं करता. रंगभेद और जातिवाद को कभी मैं ने महसूस नहीं किया, लेकिन शुरू में सब सोचते थे कि मैं कौन हूं, कहां से हूं और क्या गा सकता हूं. यह समस्या आई लेकिन जब प्रतिभा दिखी तो सब ने स्वीकार कर लिया.’’

जब आप को रिजैक्शन का सामना करना पड़ा, तब आप ने इस का सामना कैसे किया, इस को ले कर कैलाश कहते हैं, ‘‘मैं तो रिजैक्शन से ही आगे आया हूं. शुरू से अगर मुझे स्वीकृति मिल जाती तो मैं यहां तक पहुंच ही न पाता. शुरू में मैं ने शाहरुख खान की फिल्म ‘चलतेचलते’ के लिए गाना गाया था, मैं खुश था कि मुझे बड़ा ब्रेक मिल रहा है.

‘‘कुछ दिनों बाद जब म्यूजिक रिलीज हुई, तो उस में मेरा नाम नहीं था. उसी गाने को किसी और सिंगर से गवाया गया  था. ऐसी घटना से आप को पता नहीं चलता कि आप रिजैक्ट हो चुके हैं, बड़ा झटका लगा था लेकिन ये सब चीजें आप को सीख देती हैं.’’

रियल एस्टेट : जानेंगे जितना, जोखिम कम होगा उतना

जमीन-जायदाद में पैसा लगाना अक्सर फायदेमंद साबित होता है. इनके दाम में गिरावट आने की आशंका कम होती है. लेकिन दूसरी परेशानियां हो सकती हैं. इसलिए इस बाजार में दांव लगाने से पहले की तैयारी ज्यादा जटिल होती है.

आम तौर पर माना जाता है कि जमीन-जायदाद की कीमत कभी कम नहीं होती. पिछले एक दशक के दौरान प्रॉपर्टी की दाम जिस हिसाब से बढ़े हैं उसे देखकर ये निवेश के आकर्षक साधन नजर आते हैं. लेकिन, इस मामले में अक्सर यह हकीकत भुला दी जाती है कि किसी निवेश से जितना ज्यादा रिटर्न की गुंजाइश होती है, उसमें जोखिम भी उतना ही अधिक होता है.

फिलहाल जमीन-जायदाद और आवास निर्माण कारोबार मुश्किल दौर में है. फ्लैट और प्लॉट के दाम में बेतहाशा बढ़ोतरी तो हुई है, लेकिन इसी हिसाब से लोगों की आमदनी नहीं बढ़ी. इस कारण प्रॉपर्टी की मांग कम हो गई, जिहाजा इसका बिजनेस ठंडा पड़ गया है.

नेशनल हाउसिंग बैंक की एक रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि कुछ महानगरों में प्रॉपर्टी के दाम घटे हैं. इसके अलावा गाहे-बगाहे नोएडा में सुपरटेक के टावर जैसे मामले में सामने आते रहते हैं, जिनमें बड़ी-बड़ी कंपनियों के रिहायशी प्रोजेक्ट कानून के पचड़े में फंस गए हैं. ऐसे प्रोजेक्ट में पैसा लगाने वाले खुद को ठगा हुआ महसूस करते हैं. चाहे उन्होंने निवेश के तौर पर दांव लगाया हो या निजी इस्तेमाल के लिए फ्लैट खरीदे हों. इसलिए पैसा लगाने से पहले इसके तमाम पहलूओं पर बारीकी से गौर करना जरूरी है.

पोर्टफोलियो में रियल एस्टेट

हकीकत यही है कि एक या एक से अधिक फ्लैट या फिर ढेर सारे प्लॉट खरीदने से पोर्टफोलियो नहीं बनता. चूंकि पिछले एक दशक के दौरान जमीन-जायदाद में पैसा लगाने वालों को तगड़ा फायदा हुआ है, लिहाजा इस सेक्टर में दांव लगाने वाले नए निवेशकों के लिए पहली जरूरत यह पता लगाना है कि कीमतों में बढ़ोतरी का सिलसिला आगे भी जारी रहने की गुंजाइश है या नहीं. इसका सही जवाब मुश्किल है और इस मामले में जो अनुमान लगाए जा रहे हैं, उनका सही होना संदिग्ध है.

निवेश से पहले की तैयारी तमाम जटिलताओं के बावजूद रियल एस्टेट में पैसा लगाने का एक सही तरीका है. इस क्षेत्र में पहली बार निवेश करने वालों को सबसे पहले यह पता कर लेना चाहिए कि अब तक सही समय पर डिलिवरी के मामले में डेवलपर का रिकॉर्ड कैसा रहा है. इसके अलावा प्रोजेक्ट के लोकेशन पर भी गौर करें. यह देखें कि प्रोजेक्ट आपके दफ्तर या बच्चों के स्कूल के करीब है या काफी दूर. इसके बाद प्रॉपर्टी की लागत पर ध्यान दें. पता लगाएं कि कर्ज चुकाने की ईएमआई कितनी होगी.

ध्यान रखें कि यदि आप किराए के मकान में रहते हैं, तो आपकी माली हालत पर ईएमआई का अतिरिक्त बोझ पड़ेगा. ऐसे में सबसे पहले यह पक्का करें कि प्रॉपर्टी की डिलिवरी समय पर हो जाएगी. प्रॉपर्टी की डिलिवरी में अक्सर गैर-वाजिब देरी होती है. ऐसा होने पर आपकी लागत बढ़ जाती है और मानसिक तनाव भी होता है.

ऐसे बढ़ती है गैर-वाजिब लागत

इसे एक उदाहरण से समझते हैं. मान लीजिए कि आपने एक मकान खरीदा है, जिसकी डिलिवरी अगले एक साल में होनी है. आप फिलहाल किराए के घर में रहते हैं, जिसके लिए हर माह 8,000 रुपए चुकाना होता है. इसके अलावा जो मकान आपने लिया है, उसका लोन चुकाने के लिए हर माह 11,000 रुपए की ईएमआई देनी पड़ती है. इस तरह अगले एक साल तक आपको किराए के लिए 96,000 रुपए का इंतजाम करना होगा. इसके बाद किराए से मुक्ति मिल जाएगी क्योंकि जो मकान आपने खरीदा है, उसकी डिलिवरी एक साल में ही होनी है. इस लिहाज से यदि समय पर डिलिवरी होती है, तो आपको हर माह केवल 11,000 रुपए ईएमआई चुकानी होगी और मकान भी आपका अपना होगा.

लेकिन यदि मकान की डिलिवरी में देरी होती है, तो मासिक खर्च का हिसाब-किताब गड़बड़ाना तय है. वजह यह है कि एक साल बीत जाने के बाद भी आपको किराए की रकम चुकानी होगी. यानि किराए का बजट 96,000 रुपए से ऊपर निकलेगा. मान लीजिए कि मकान की डिलिवरी में 6 माह की देरी होती है. ऐसे में 6 माह तक आपको किराया देना पड़ेगा. आम तौर पर एक साल बाद किराए में 10 प्रतिशत इजाफा किया जाता है. इस हिसाब से आपको 52,800 रुपए (8,800 गुना 6) का अतिरिक्त इंतजाम करना होगा.

ईएमआई का हिसाब

किसी भी सूरत में ईएमआई की रकम नेट टेक-होम इनकम के 40 प्रतिशत से अधिक नहीं होनी चाहिए. इसके अलावा यदि आप घर का किराया भी देते हैं, तो ऐसी स्थिति में किराए और ईएमआई की रकम कुल मिलाकर नेट इनकम के 50-55 प्रतिशत से ऊपर नहीं जानी चाहिए. इसलिए यदि आप किराए के मकान में रहते हैं, तो ऐसा मकान खरीदें जिसकी डिलिवरी 6-9 महीनों में निश्चित तौर पर हो जाए. मूल रूप से कोशिश इस बात की होनी चाहिए कि लंबे समय तक किराया और ईएमआई साथ-साथ न चुकानी पड़े.

दूसरा मकान खरीदना

इस मामले में भी वैसी ही तैयारी की दरकार होती है, जैसी पहली प्रॉपर्टी खरीदने से पहले की गई थी. अंतर केवल मकसद का होता है. मसलन, दूसरा मकान किराए के तौर पर अतिरिक्त आय के लिए लेना चाहते हैं, निवेश के लिहाज से या फिर दोनों मकसद से. एक उद्देश्य रिटायरमेंट के बाद आराम की जिंदगी पक्की करना भी हो सकता है. इसलिए पहले मकसद जान लें, फिर आगे बढ़ें.

बैंक लोन मानक नहीं होते

आम तौर पर माना जाता है कि रियल एस्टेट के जिन प्रोजेक्ट के लिए बैंक से लोन मिल जाते हैं, उनमें जोखिम नहीं होता. लेकिन, हकीकत यही है कि ऐसे मामलों में बैंक से लोन मिलना कोई मानक नहीं होता. बेहतर यही होगा कि भावनाओं में बहकर कोई फैसला न करें. इसके अलावा ऐसा सोचने का भी कोई कारण नहीं है कि आपके मित्र या परिवार के किसी सदस्य को रियल एस्टेट में पैसा लगाने की वजह से नुकसान उठाना पड़ा है, तो आपके साथ भी ऐसा ही होगा.

सुरक्षा की गारंटी नहीं होते बड़े नाम

आम तौर पर बड़ी रियल्टी कंपनियों के प्रोजेक्ट मानकों पर खरे माने जाते हैं, जिनमें गड़बड़ियों की आशंका कम होती है. लेकिन, पिछले कुछ वर्षों के दौरान ऐसे कई मामले सामने आएं हैं, जिनमें बड़ी कंपनियों के प्रोजेक्ट में प्रॉपर्टी लेने वाले ग्राहकों को धोखा हुआ है. इसलिए इस मामले में यह बाद ध्यान रखनी जरूरी है कि जिस प्रोजेक्ट में पैसा लगा रहे हैं, उसमें कानूनी तौर पर कोई चूक नहीं की गई हो. ऐसे प्रोजेक्ट जब कानूनी पचड़े में फंसते हैं तो दशकों तक मामला नहीं सुलझता . मुंबई में कैंपा कोला सोसायटी का मामला ऐसा ही है, जहां दो दशक बाद हंगामा मचा है.

मैं जब भी आंखों का मेकअप करती हूं, मेरी आंखें ऐसी लगती हैं जैसे बाहर आ जाएंगी. मैं जानना चाहती हूं कि आंखों का मेकअप कैसा होना चाहिए.

सवाल
मेरी आंखें उभरी हुई हैं. मैं जब भी आंखों का मेकअप करती हूं. मेरी आंखें ऐसी लगती हैं जैसे बाहर आ जाएंगी. मैं जानना चाहती हूं कि आंखों का मेकअप कैसा होना चाहिए ताकि मेरी समस्या का समाधान हो सके?

जवाब
आंखें बड़ी होने से चेहरा आकर्षक लगता है, लेकिन ऐसा लगता है आप की आंखें कुछ ज्यादा ही अधिक बड़ी हैं. आप अपनी आंखों को सुंदर आकार देना चाहती हैं, तो इस के लिए आप को अपनी पलकों पर गहरे रंग का आईशैडो इस्तेमाल करना चाहिए या फिर ब्राउन शेड का आईशैडो बहुत अच्छा व नैचुरल लगेगा.

आंखों के बिलकुल नजदीक से आईलाइनर की पतली लकीर खींचें जो धीरेधीरे बाहर की ओर मोटी होती दिखाई दे. इस लकीर को आंखों से बाहर निकाल कर लगाएं. अब अगर अपनी समस्या का परमानैंट हल चाहती हैं, तो इस के लिए परमानैंट आईलाइनर लगवा सकती हैं. परमानैंट लाइनर से आप की आंखों को सही आकार मिल सकता है. इस से आप की आंखें हर पल खूबसूरत और आकर्षक नजर आएंगी.

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ऐसा हो आई मेकअप

गरमी का मौसम है. आप पार्टी में जा रही हैं. आप मेकअप नहीं करना चाहती हैं. लेकिन चाहती हैं कि आप पार्टी में सब से अलग दिखें. ऐसे में आप हैवी मेकअप करने के बजाय अपनी आंखों को ही आकर्षक बनाएं. आज मार्केट में आंखों को आकर्षक बनाने के लिए बहुत से ट्रैंडी आई मेकअप हैं. आंखों को हाइलाइट करने के लिए कलर्स, स्पार्कल, सितारा, स्वरोस्की का प्रयोग किया जा सकता है. आइए जानें, कैसे आप इन के जरिए अपनी आंखों को आकर्षक बना सकती हैं.

आंखें जो लगें सब से अलग

लैपर्ड व कैट मेकअप से आंखों को आकर्षक लुक दिया जाता है. यह मेकअप बेहद खूबसूरत दिखता है. इस से आप की आंखें दूसरों से अलग दिखेंगी. इस मेकअप में आप की आंखों पर लैपर्ड व कैट की स्किन जैसे प्रिंट्स बनाए जाते हैं. इस मेकअप में लिक्विड कलर और एकसाथ 2-3 कलर प्रयोग किए जाते हैं.

आकर्षक लुक देती आंखें

कई बार मेकअप ऐसा होता है कि उस में खालीपन महसूस होता है और यह अच्छा भी लगता है. इन दिनोें यह खालीपन ही चलन का हिस्सा बना हुआ है. आंखों को स्मोकी व कजरारी बनाने के लिए ब्लैक आईलाइनर प्रयोग किया जाता है, लेकिन अब व्हाइट आई मेकअप चलन में है. इस में आंखों के ऊपर व नीचे सिल्वर व व्हाइट आई मेकअप किया जाता है, जिस से आंखों का खालीपन बरकरार रहता है और आंखें दूसरों से अलग भी दिखती हैं.

कलरफुल कलर्स

ड्रामैटिक आई मेकअप में रंगों का काफी प्रयोग किया जाता है. आईब्रो व आंखों के आसपास आप की ड्रैस से मैच करता ड्रामैटिक मेकअप किया जाता है.

फैदर्स जो अलग लुक दे

आजकल फैदर्स का इस्तेमाल मेकअप में भी काफी देखने को मिल रहा है. मार्केट में अलग स्टाइल के फैदर आ रहे हैं, जिन्हें आप आई मेकअप में प्रयोग कर सकती हैं. आप इस में बर्ड्स, पीकौक व ईगल के फैदर ट्राई कर सकती हैं.

फैंटेसी आइज

फैंटेसी मेकअप में सारा कमाल आर्टिस्ट की क्रिएटिविटी का होता है. दरअसल, आर्टिस्ट की कल्पना जितनी अच्छी होगी, वह उतना ही खूबसूरत मेकअप आप की आंखों पर करेगा. फैंटेसी मेकअप में पलकों की ऊपर वाली जगह पर अलग स्टाइल की पेंटिंग की जाती है. इस में पेड़, बटरफ्लाई, फूल, पक्षी वगैरह बनाए जाते हैं. इस के लिए कलर, क्रिस्टल, सैटन, स्पार्कल व ग्लिटर का इस्तेमाल किया जाता है. आंखों के मेकअप का यह आर्ट सब से ज्यादा अलग व ज्यादा वक्त लेने वाला है. फैंटेसी आइज मेकअप में आंखों को सजाने के लिए करीब 2 से 4 घंटे लगते हैं. हालांकि इस स्टाइल से आंखों का मेकअप करने पर ज्यादा खर्च नहीं आता है.

 

दुनिया के ये बैंक सेविंग्स पर उपभोक्ताओं से वसूलते हैं ब्याज

भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के दरों में इजाफा करने के बाद बैंकों की तरफ से ब्याज दरों में की गई बढ़ोतरी जहां आम उपभोक्ताओं को परेशान कर रही हैं वहीं सेविंग्स पर मिल रहा कम ब्याज उनकी इस परेशानी को और बढ़ा रहा है.

सेविंग्स पर मिल रहा कम ब्याज दर बेशक चिंता का कारण हो सकता है, लेकिन क्या आपको पता है कि दुनिया में ऐसी भी जगहें है, जहां बैंकों में रखे पैसे पर ब्याज देना तो दूर, उल्टे उस पर ब्याज का भुगतान करना पड़ता है.

आरबीआई की ही तरह दुनिया के सभी केंद्रीय बैंक एक निश्चित अंतराल के बाद समीक्षा बैठक करते हैं. इस समीक्षा बैठक के दौरान या तो कुछ बेसिस प्वाइंट की कटौती की जाती है या फिर कुछ बेसिस प्वाइंट का इजाफा. हाल ही में आरबीआई ने समीक्षा बैठक में रेपो रेट में इजाफा किया था, जिसके बाद बैंकों ने भी ब्याज दरों में इजाफा किया.

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लेकिन स्विस नैशनल बैंक ने अपनी हालिया बैठक में नेगेटिव पौलिसी रेट को पहले की ही तरह बरकरार रखा है. स्विस नैशनल बैंक (एसएनबी) ने डिपौजिट पर (-) 0.75 फीसदी टैक्स रखा है. जिसका मतलब है कि बैंकों में पैसा रखने के बदले ग्राहकों को ही ब्याज का भुगतान करना होगा. ऐसी स्थिति में बैंक लोगों को ज्यादा खुले तौर पर कर्ज देता है ताकि लोगों को निवेश और खर्च के लिए प्रोत्साहित किया जा सके.

इसके अलावा बैंक औफ जापान ने भी ब्याज दरों को नेगेटिव में बरकरार रखा है. एक नजर दुनिया के उन देशों पर जहां पर पैसे रखने की एवज में या तो ब्याज का भुगतान करना पड़ता है या फिर बेहद न्यूनतम ब्याज मिलता है.

बहुवर्षीय चारा गिनी घास

पशुपालकों के लिए सालभर हरे चारे का मिलना काफी मुश्किल है. यह संकट पशुपालन की कठिनाइयों के लिहाज से एक प्रमुख समस्या मानी जाती है जबकि पशुओं के समुचित विकास और ज्यादा दूध के लिए सही मात्रा वाले पोषक तत्त्व से युक्त हरा चारा खिलाना बेहद जरूरी होता है.

पशुपालकों के लिए साल के कुछ महीने ऐसे होते?हैं जिस में वह आसानी से हरा चारा ले सकता है. लेकिन गरमियों में ज्यादा पानी व सिंचाई की कमी में पशुओं के लिए जरूरी मात्रा में हरा चारा उगा पाना कठिनाई भरा होता है.

ऐसे हालात में पशुपालकों को हरे चारे के संकट से उबारने में बहुवर्षीय चारे की प्रजातियां बेहद फायदेमंद साबित होती हैं. गिनी घास की खेती इस लिहाज से काफी फायदेमंद साबित होती है.

इस फसल में पानी और सिंचाई की जरूरत दूसरे चारे की अपेक्षा कम होती है. इस की फसल कम नमी की अवस्था में भी बड़ी तेजी से बढ़ती है. गिनी घास में पोषक तत्त्वों की प्रचुर मात्रा और उस का स्वाद दुधारू पशुओं में दूध बढ़ाने में कारगर साबित होता है.

गिनी घास की खेती आसान तरीकों से की जा सकती है. इस के लिए दोमट या बलुई दोमट सही होती है, जिस से जल निकासी की सही व्यवस्थ होना जरूरी है. गिनी घास की फसल के लिए अम्लीय व क्षारीय मिट्टी सही नहीं होती है.

गिनी घास की फसल को छायादार जगहों, मेंड़ों, नहरों के किनारे पर भी आसानी से उगाया जा सकता है. गिनी घास की फसल लेने के लिए इस की बोआई सीधे बीज द्वारा, तने की कटिंग द्वारा या जड़ों को रोप कर की जा सकती है.

पोषक तत्त्वों की मौजूदगी : कृषि विज्ञान केंद्र, बंजरिया, जनपद बस्ती के विशेषज्ञ राघवेंद्र विक्रम सिंह के मुताबिक, गिनी घास में प्रचुर मात्रा में पोषक तत्त्व पाए जाते हैं. इस में रेशा 28-36 फीसदी, प्रोटीन 6.10 फीसदी, फास्फोरस 0.29 फीसदी, कैल्शियम 0.29 फीसदी, मैग्नीशियम 0.38 फीसदी व पत्तों की पाचन कूवत 55-58 फीसदी की मात्रा मौजूद होती है जो पशुओं के विकास व दुधारू पशुओं में दूध बढ़ाने में सहायक होती है.

नर्सरी तैयार करना : गिनी घास की रोपाई जड़ों से करना ज्यादा मुफीद होता है क्योंकि इस से पौधे से पौधे की दूरी व लाइन से लाइन की दूरी का निर्धारण आसानी से किया जा सकता है.

जड़ों से रोपाई के लिए सब से पहले इस की नर्सरी तैयार करनी पड़ती है. नर्सरी डालने के लिए एक हेक्टेयर खेत में जड़ों की रोपाई के लिए 3-4 किलोग्राम बीज की जरूरत होती है.

नर्सरी डालने का सब से सही समय अप्रैल व मई है. इस के लिए 6 मीटर लंबी और 1 मीटर चौड़ी 10-20 क्यारियां बनानी पड़ती हैं. इन क्यारियों में बीज डालने के पहले गोबर की कंपोस्ट खाद मिलाना नर्सरी में मददगार साबित होता है. नर्सरी में बीज डालने के बाद फव्वारे से सिंचाई करते रहें.

बोआई का सही समय : गिनी घास को सालभर में कभी भी बोया या रोपा जा सकता है. फिर भी ठंड के मौसम में गिनी घास को रोपने से बचना चाहिए. बारिश के मौसम में गिनी घास रोपने का सब से सही समय है.

गिनी घास की बोआई या रोपाई के पहले खेत की एक जुताई रोटावेटर या हैरो से करने के बाद दूसरी जुताई कल्टीवेटर से करनी चाहिए. अगर फसल की बोआई बीज से की जा रही है तो बीज को एक से डेढ़ सैंटीमीटर गहराई में डालें. तने की कटिंग की रोपाई की दशा में कटिंग कम से कम 3 माह पुराना होना जरूरी है.

कटिंग के समय यह ध्यान दें कि जमीन के भीतर आधे से ज्यादा गाड़ देना चाहिए. खेत में रोपी गई इस कटिंग में जो गांठ जमीन के अंदर होती?है, उसी से जड़ें निकलती हैं, जबकि ऊपरी गांठ से तना निकलता है.

गिनी घास की रोपाई करते समय पौधों से पौधों की दूरी 50 सैंटीमीटर व लाइन से लाइन की दूरी 100 सैंटीमीटर रखना न भूलें.

अगर इस को दूसरी फसलों के साथ रोपा जा रहा?है तो यह दूरी और बढ़ा देनी चाहिए. यह दूरी 100 से 250 सैंटीमीटर तक हो जाती है. दूसरी फसलों के साथ लेने की अवस्था में इसे बोई गई फसल के 2 लाइनों के बीच में बोया जाता है. 1 हेक्टेयर खेत के लिए गिनी घास की 40,000 से 50,000 जड़ों की जरूरत पड़ती है.

उन्नत प्रजातियां : गिनी घास की जो प्रजातियां ज्यादा प्रचलित?हैं, उन में कोयंबटूर 1, कोयंबटूर 2, डीजीजी 1, बुंदेल गिनी 1, बुंदेल गिनी 2, बुदेल गिनी 4, कमौनी, गटन, पीजीजी 1, पीजीजी 9, पीजीजी 14, पीजीजी 19, पीजीजी 101, हेमिल खास हैं.

खाद व उर्वरक : कृषि विज्ञान केंद्र बंजरिया, जनपद बस्ती के कृषि विशेषज्ञ राघवेंद्र विक्रम सिंह के मुताबिक, हरे चारे की फसल के लिए गोबर की सड़ी खाद, कंपोस्ट खाद या केंचुआ खाद ज्यादा फायदेमंद होती है. ज्यादा चारा उत्पादन के लिए बोआई के पहले ही 200 से 250 क्विंटल गोबर की सड़ी खाद का उपयोग 1 हेक्टेयर खेत के लिए करें.

जब जड़ों की रोपाई खेत में की जा रही हो तब 80 किलोग्राम नाइट्रोजन, 40 किलोग्राम फास्फोरस व 40 किलोग्राम पोटाश की मात्रा का इस्तेमाल प्रति हेक्टेयर की दर से पौधों की जड़ों में देना चाहिए. इस के बाद प्रति हेक्टेयर की दर से हर कटाई के बाद 40 किलोग्राम नाइट्रोजन और 10 किलोग्राम फास्फोरस की मात्रा फसल में दें.

सिंचाई : गिनी घास की जड़ों की रोपाई खेत में करने के तुरंत बाद पहली सिंचाई कर देनी चाहिए. इस के बाद बारिश न होने पर 10-15 दिन के अंतराल पर नियमित सिंचाई करते रहें. फसल में उग आए गैरजरूरी खरपतवार को समयसमय पर निकालते रहना जरूरी है.

कटाई व उत्पादन : गिनी घास की पहली कटाई फसल रोपे जाने के 2 से 3 माह बाद से शुरू की जा सकती है. इस के बाद की नियमित कटाई 30-45 दिन के अंतराल पर की जा सकती है या फसल की लंबाई तकरीबन 5 फुट के करीब हो जाए तो भी फसल को जमीन में 15 सैंटीमीटर के ऊपर से काटा जा सकता है.

सर्दियों की पहली कटाई जमीन से सटा कर करनी चाहिए. इस से फसल में खराब तने अपनेआप हट जाते हैं. गिनी घास की फसल उत्तर भारत व मध्य भारत के लिहाज से सालभर में 5-7 बार व दक्षिण भारत में पूरे साल ली जा सकती है.

गिनी घास की उन्नत प्रजातियों की फसल लेने की दशा में औसतन उत्पादन 200-250 क्विंटल हरा चारा प्रति हेक्टेयर प्रति कटाई हासिल होती है. इस तरह साल का औसत उत्पादन 1200 से 1300 क्विंटल तक हासिल हो सकता है.

गिनी घास की खेती के बारे में ज्यादा जानकारी व बीज हासिल करने के लिए भारतीय घास और चारा अनुसंधान संस्थान (आईजीएफआरआई), (भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद) ग्वालियर रोड, झांसी- 284003, उत्तर प्रदेश से संपर्क किया जा सकता है

पशुपालन व्यवसाय में तकनीक से तरक्की

पशुपालन के बारे में यह आम सोच है कि इसे व्यवसाय के रूप में चुनने के लिए किसी खास पढ़ाई या डिगरी की जरूरत नहीं होती. यह व्यवसाय पीढ़ी दर पीढ़ी चला आ रहा है. अगर इस व्यवसाय को आधुनिक तकनीक के साथ मिला दिया जाए तो किसी भी क्षेत्र में नए आयाम बनाए जा सकते हैं.

पशुपालन के क्षेत्र में ऐसे ही कुछ सुनहरे पन्ने जोड़े हैं बीकानेर के एक नौजवान टैक्नोग्रेड नवीन सिंह तंवर ने. यूथ आईकौन के रूप में उभरने वाले नवीन सिंह तंवर ने नौजवानों के लिए उन्नत कृषि और पशुपालन व्यवसाय में संभावनाओं के नए दरवाजे खोले हैं.

आज हर ओर मिलावटी दूध की चर्चा देखनेसुनने और पढ़ने को मिलती है. यूरिया और डिटर्जैंट जैसे हानिकारक तत्त्व दूध के नमूनों में पाए जाते हैं. लेकिन नवीन सिंह ने साबित कर दिखाया है कि किस तरह आधुनिक तकनीक को अपना कर बिना सेहत से खिलवाड़ किए ज्यादा मुनाफा कमाया जा सकता है.

इस सिलसिले में नवीन सिंह तंवर से बातचीत की गई. पेश हैं, उसी के खास अंश:

एक छोटी सी नौकरी पाने के लिए भी नौजवानों को कड़ी मेहनत करते हुए देखा जा सकता है. ऐसे में लाखों रुपए का पैकेज छोड़ कर दूध डेरी खोलने का विचार आप को कैसे आया?

मेरी 3 साल की बेटी के लिए घर में जो दूध आता था, एक दिन मैं ने उस का सैंपल टैस्ट करवाया तो मुझे पता चला कि इस में कितनी पेस्टीसाइड की मिलावट की जाती है.

मेरे एक डाक्टर दोस्त ने कहा कि इस रूप में हम एक तरह से धीमा जहर पी रहे हैं. बस… बच्चों और परिवार की सेहत को ध्यान में रखते हुए मैं होलस्टन नस्ल की 2 गाएं ले आया.

यहीं नहर के किनारे हमारा फार्म है. चूंकि हाथों से दूध निकालते समय भी दूध में कीटाणु जा सकते?हैं इसलिए हम ने मशीन मिल्किंग को अपनाया. धीरेधीरे दोस्तों और रिश्तेदारों ने भी शुद्ध दूध लेने की इच्छा जाहिर की तो फिर इसे एक व्यवसाय के रूप में अपनाने का विचार आया क्योंकि लोग अपनी सेहत को ले कर जागरूक हो गए हैं.

आज जहां आएदिन खानेपीने की चीजों में मिलावट की खबरों से अखबार भरे रहते हैं, वहीं लोग अतिरिक्त पैसा खर्च कर के भी शुद्ध खानपान अपनाना चाह रहे हैं.

इसी सोच ने मुझे डेरी खोलने की प्रेरणा दी. हम ने उत्तर भारत की बहुत सी डेरियां देखी हैं. होलेस्टन नस्ल की गायों के बारे में इंटरनैट से भी बहुत सी जानकारी इकट्ठा की. हम हर साल धीरेधीरे गायों की तादाद बढ़ाते गए. आज हमारे पास तकरीबन 200 गाएं हैं. यहां इस नस्ल को और बेहतर करने का काम भी किया जाता?है ताकि गायों की ज्यादा दुधारू नस्ल विकसित की जा सके.

बीकानेर शहर को एशिया का डेनमार्क कहा जाता है. ऐसे में कड़ी होड़ में न केवल टिके रहना बल्कि मुनाफा कमाना भी एक चुनौती है. आप की क्या रणनीति रही?

आप ने बिलकुल सही?कहा है कि एशिया में सब से ज्यादा डेरी फार्म बीकानेर में ही हैं, लेकिन फिर भी यहां तकरीबन 70 फीसदी दूध मिलावटी पाया जाता है. दूध में पानी की ही नहीं बल्कि यूरिया, डिटर्जैंट और दूसरे हानिकारक कैमिकल मिलाए जाते हैं.

ऐसा एक एनजीओ के सर्वे में सामने आया है. 1,200 घरों से दूध के सैंपल ले कर यह सर्वे किया गया था. तब हम ने अपने उत्पाद की शुद्धता और अच्छी क्वालिटी को पैमाना बना कर इस व्यवसाय में कदम रखा. साथ ही, हम ने अपनी बात लोगों तक पहुंचाने के लिए आधुनिक तकनीक का सहारा लिया.

मिल्क पार्लर में गायों का दूध निकालने के बाद पैक्ड कैन से पाइप के जरीए दूध को बल्क कूलर में सप्लाई किया जाता है. यहां इसे 4 डिगरी तक ठंडा किया जाता है. बल्क कूलर से दूध को पाइप के जरीए ही पैकेजिंग मशीन में लगे बरतन में सप्लाई किया जाता है. यहां से इस की एकएक लिटर की पैकिंग होती है.

हम ने ‘काऊबेस’ नाम से अपना ब्रांड बनाया और क्वालिटी के मानक तय किए. हम ने सोशल मीडिया सहित हर आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल किया. हम ने उपभोक्ता और उत्पादक के बीच से मिडिल की कड़ी को हटा दिया. दूध दुहने से ले कर उस की पैकिंग तक का काम पूरी तरह से मशीनी होता है.

हमारे यहां हर रोज 1500 लिटर दूध तकरीबन 650 घरों में सीधे ग्राहकों तक पहुंचाया जाता है. हम इसे विनायक परिवार कहते हैं. सभी ग्राहक ह्वाट्सऐप ग्रुप के जरीए हम से सीधे जुड़े हैं.

हमें खुशी है कि हम लोगों का भरोसा बना पाए. हमारी डेरी का सालाना टर्नओवर डेढ़ करोड़ रुपए है. यही हमारी कामयाबी का राज है.

गाय एक ऐसा पशु है जिसे जो कुछ भी खिलाया जाता?है, उस का असर जैसे स्वाद, महक और गुण दूध में आ जाते हैं. ऐसे में आप दूध की शुद्धता कहां तक बना कर रखेंगे क्योंकि चारे और दाने में भी तो हानिकारक कैमिकलों की मिलावट हो सकती है?

बीकानेर की ज्यादातर डेरियों में पशुओं को मूंगफली का चारा खिलाया जाता?है, जिस में पेस्टीसाइड भरपूर मात्रा में होते हैं. ऐसे में अगर दूध में कोई बाहरी मिलावट न भी की जाए तब भी पेस्टीसाइड का असर आ जाता है.

दूध में पोषक तत्त्वों को बनाए रखने के लिए हम गायों को पूरे साल अपने ही फार्म में उगा हरा चारा खिलाते हैं. गरमियों में ज्वार और सर्दियों में जई. फार्म में सिर्फ और्गेनिक खाद ही इस्तेमाल की जाती है.

गायों पर कभी भी औक्सीटोसिन का इस्तेमाल नहीं किया जाता. जरूरत होने पर होमियोपैथी दवाएं दी जाती हैं. यहां तक कि गायों में चिचड़ी होने पर भी किसी तरह की दवा नहीं दी जाती. इस के अलावा यहां मुरगीपालन किया गया है, क्योंकि वे चिचड़ी को खोजखोज कर खा जाती हैं. हाईजीन के साथ किसी तरह का समझौता नहीं किया जाता. पूरा फार्म सीसीटीवी कैमरों की निगरानी में है.

यह फार्म 3 भागों में बंटा हुआ है. पहले भाग में हरा चारा सूखी तूड़ी के साथ मिला कर भरपेट खिलाया जाता है. यह सभी के लिए समान है. वहीं दूसरे भाग में पेट से होने वाली गायों को रखा जाता है. यहां उन्हें उन की जरूरत के मुताबिक दाना यानी बांट खिलाया जाता है. दाने या बांट की मात्रा हरेक पशु के लिए उस की बौडी साइज, वजन और दूध देने की कूवत के मुताबिक तय की जाती?है.

पेट से होने वाली गायों की खास देखभाल की जाती है. इन्हें बाईपास फैट खिलाया जाता?है जो कि एक विशेष प्रकार का आहार है और न्यूट्रीशन का बहुत ही रिच सोर्स है. यह सीधा गायों की आंतों में घुलता?है और उस का पूरा फायदा पशु को मिलता है. इस से ब्याने के बाद उस का दूध अच्छी?क्वालिटी का होगा और उस की मात्रा भी ज्यादा होगी.

तीसरे?भाग में नई ब्या चुकी गाएं हैं. नई ब्याई गायों को 2 महीने तक गुड़, अजवाइन और मेथी का बांट पका कर खिलाया जाता है ताकि दूध की मात्रा और पौष्टिकता बनी रहे यानी परंपरागत नुसखों को आधुनिक तकनीक के साथ जोड़ कर गायों की बेहतरीन देखभाल की जाती है.

गरमियों में राजस्थान का तापमान 45 से 50 डिगरी तक पहुंच जाता?है. पशुओं का दूध?भी कम हो जाता है. आप गायों की इन समस्याओं से कैसे निबटते हैं?

हमारी गाएं संकर नस्ल की हैं. ये गाएं 50 डिगरी के तापमान पर भी बेहतर काम करती हैं. साथ ही, यहां पर गायों को पूरी तरह कुदरती माहौल दिया जाता है यानी घने पेड़ों की छाया और और्गेनिक हरा चारा.

चूंकि गायों को पसीना नहीं आता इसलिए इन की डाइनिंग टेबल के आसपास पंखे और फौगर लगाए गए हैं ताकि उन के शरीर में ठंडक बनी रहे. गायों को सैंधा नमक भी चारे के साथ चटाया जाता है. इस का सोडियम पशु को?स्वस्थ रखता है. यहां बड़ेबड़े ब्रश भी लगाए गए हैं. यहां आ कर गाएं अपनेआप को खुजा कर जाती हैं. ये छोटेछोटे उपाय पशुओं को सेहतमंद रखने में कारगर साबित होते हैं.

हमारे यहां हरेक गाय के दूध का रिकौर्ड रखा जाता है. 1-2 किलोग्राम लिटर दूध का उतारचढ़ाव आते ही उसे डाक्टरी मदद मुहैया कराई जाती है. इस के लिए प्रतिदिन एक पशुचिकित्सक की विजिट होती है. आप अपने भविष्य की योजनाएं हमारे युवा दोस्तों के साथ साझा कीजिए.

आने वाले समय में हम फार्म पर ही केंचुआ खाद बनाएंगे. बायोगैस से बिजली बनाने की भी योजना है. इस के अलावा दूसरे दूध उत्पाद जैसे दही, घी, मक्खन, पनीर वगैरह भी हम सहयोगी उत्पाद के रूप में बनाने पर विचार कर रहे हैं.

परंपरागत जानकारी के साथसाथ आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल किसी भी व्यवसाय को ऊंचाइयों तक पहुंचा सकता है. इस क्षेत्र में भी काफी संभावनाएं हैं. सरकार भी खेती और पशुपालन को बढ़ावा दे रही है. बहुत सी आधुनिक तकनीक इस क्षेत्र में आ चुकी हैं. उन से अपडेट रहना समझदारी है. बस थोड़ा सा सब्र और अपने पेशे के प्रति ईमानदारी रखी जाए तो यह नौजवानों के लिए एक बेहतर भविष्य वाला व्यवसाय है. ज्यादा जानकारी के लिए आप नवीन सिंह तंवर के मोबाइल फोन नंबर 9829217401 पर संपर्क कर सकते हैं.

क्या आपने भी स्मार्टफोन को लेकर पाल रखे हैं ये भ्रम

स्मार्टफोन्स के फीचर्स को लेकर कई भ्रम है जो आज भी यूजर्स के दिमाग में बैठे हुए है. अफवाहों और कंपनियों की मार्केंटिंग नीति के चलते कई गलत जानकारियां यूजर्स के पास पहुंचती है, जिन्हें यूजर्स अक्सर सही मान लेते हैं. ऐसे में हम आपको तीन ऐसी बातों के बारे में बताएंगे जिनके बारे में आपको अबतक गलत जानकारी मिलती आई है.

ज्यादा मेगापिक्सल मतलब बेहतर इमेज क्वालिटी

स्मार्टफोन को लेकर सबसे बड़ा भ्रम ये है कि ज्यादा मेगापिक्सल मतलब बेहतर इमेज क्वालिटी होता है, जबकि सच्चाई कुछ और ही है. दरअसल मेगापिक्सल ओवरऔल रेजोल्यूशन्स और कैमरे की जूम की क्षमता को बढ़ाने में मदद करते हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि इससे आपके फोन की इमेज क्वालिटी सबसे बेहतर हो जाएगी. इमेज क्वालिटी न सिर्फ मेगापिक्सल पर बल्कि सेंसर की साइज, अपर्चर, लेंस की औप्टिक्स क्वालिटी और सबसे बड़ा स्मार्टफोन कैमरे के एल्गोरिथ्म पर निर्भर करती है.

उदाहरण के लिए सैमसंग गैलेक्सी S9 का रियर कैमरा 12 मेगापिक्सल का है, वहीं सैमसंग गैलेक्सी A8 Plus का कैमरा 16 मेगापिक्सल का है, लेकिन गैलेक्सी S9 की इमेज क्वालिटी A8 Plus के मुकाबले कहीं ज्यादा अच्छी है.

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इमेज को bokeh इफेक्ट देता है ड्यूल कैमरा

ऐप्पल ने अपने आईफोन 7 Plus में Portrait mode फीचर को शामिल करते हुए बताया था कि फोन का सेकेंडरी लेंस डीएसएलआर जैसा ब्लर (blur) इफेक्ट देगा. इसके बाद से दूसरी स्मार्टफोन कंपनियों ने ड्यूल कैमरा फीचर को अपने फोन में शामिल करना शुरू कर दिया और इस तरह से कंपनियों की मार्केटिंग के चलते bokeh इफेक्ट का भ्रम यूजर्स के बीच फैल गया. इसका सबसे बड़ा उदाहरण गूगल पिक्सल 2 स्मार्टफोन है.

एआई तकनीक से बेहतर इमेज क्वालिटी आती है

स्मार्टफोन्स में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस फीचर कोई नया नहीं है. ऐसे में सवाल है कि क्या एआई इंजन के इस्तेमाल से बेहतर इमेज क्वालिटी आती है, तो इसका जवाब है नहीं. ऐसा जरूरी नहीं है कि इस फीचर की मदद से हमेशा बेहतर इमेज क्वालिटी मिले. यह इस बात पर निर्भर करता है कि फोन को बनाने वाली कंपनी ने फोन में किस तरह से मशीन लर्निंग और एआई तकनीक को डिजाइन किया है.

बाजार की जानकारी ले कर ग्वारपाठा की करें खेती

एलोवेरा यानी ग्वारपाठा एक ऐसा औषधीय पौधा?है जिस का इस्तेमाल अनेक तरह के आयुर्वेदिक उत्पादों में होता है. यह कम लागत में की जाने वाली और मुनाफा देने वाली फसल है. इस को लगाने से पहले बाजार की जानकारी जरूर ले लें क्योंकि लीक से हट कर कोई भी खेती करना आसान तो है, लेकिन उस के लिए बाजार ढूंढ़ना कठिन होता है. लेकिन आज के समय में अनेक आयुर्वेदिक कंपनियां ऐसी हैं जो किसानों से सीधे माल खरीदती हैं या उन से पहले ही ठेके पर खेती की बात कर ली जाती?है.

एलोवेरा की खेती किसी भी तरह की मिट्टी में की जा सकती है. बंजर जमीन में भी इसे उगाया जा सकता है. ऐसी जगह का चुनाव न करें जहां पानी इकट्ठा होता हो. इस की खेती में खास दवा पड़ती है.

खास बात यह भी है कि पशु इसे नहीं खाते हैं इसलिए इस फसल में नुकसान होने की संभावना न के बराबर होती है. इस की एक बार फसल लगाने पर कई साल तक इस से पैदावार ली जा सकती है.

जलवायु : यह भारत के आमतौर पर सभी इलाकों में उगाया जा सकता है. इस को पानी की बहुत कम जरूरत पड़ती है. इस को राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और हरियाणा के शुष्क इलाकों में भी उगाया जा सकता?है.

जमीन की तैयारी :

20-30 सैंटीमीटर तक की गहराई वाली 1-2 जुताई काफी हैं. इस की खेती के लिए खेत में छोटीछोटी क्यारियां बना लेनी चाहिए.

खाद : 5-6 टन गोबर की खाद प्रति एकड़ जमीन को तैयार करते समय अच्छी तरह से मिला देनी चाहिए. अगर राख मिल सके तो राख को बीजाई के समय और बाद में पौधों के चारों ओर बिखेर देना चाहिए.

बीजाई का समय : इस की बीजाई सर्दी के महीनों को छोड़ कर पूरे साल की जा सकती?है, परंतु अच्छी पैदावार के लिए इस की बीजाई जुलाईअगस्त के महीनों में करनी चाहिए.

बीजाई का तरीका : 3-4 महीनों के पौधे 4 से 5 पत्तों वाले तकरीबन 20-25 सैंटीमीटर लंबाई के 60×60 सैंटीमीटर की दूरी पर लगाने चाहिए. पौधे के चारों तरफ जमीन को अच्छी तरह से दबा देना चाहिए जिस से पौधे मजबूती से जमीन पकड़ सकें. एक एकड़ जमीन के लिए 5000 से 5500 पौधे काफी हैं.

सिंचाई : पहली सिंचाई बीजाई के तुरंत बाद करनी चाहिए. 2-3 सिंचाई जल्दीजल्दी कर देनी चाहिए ताकि पौधों की जड़ें अच्छी तरह से जम सकें. 4-6 सिंचाइयां हर साल करनी चाहिए.

निराईगुड़ाई : बीजाई के एक महीने बाद पहली गुड़ाई करनी चाहिए. बाद में 2-3 गुड़ाइयां हर साल करनी चाहिए. खरपतवार बिलकुल नहीं होने चाहिए. बीमारी वाले और सूखे पौधों को निकाल देना चाहिए. निराईगुड़ाई के समय पौधों की जड़ों पर मिट्टी चढ़ा देनी चाहिए, जिस से पौधे गिरें नहीं.

बीमारी व कीड़े : अभी तक किसी बीमारी व कीड़ों का प्रकोप इस फसल पर नहीं पाया गया है. कभीकभी दीमक लग जाती है या छोटे कीड़े (मिलीबग) आ जाते हैं. इस को रोकने के लिए हलकी सिंचाई जरूर करनी चाहिए. जरूरत हो तो कीटनाशक का इस्तेमाल किसी विशेषज्ञ से सलाह ले कर करें.

कटाई : पौधा लगाने के एक साल बाद फसल काटने लायक हो जाती है. हर 3 माह में हर पौधे पर 3-4 छोटी पत्तियां छोड़ कर बाकी सभी पत्तियों को तेज धारदार हंसिए से काट लेना चाहिए. कटे हुए पत्तों में फिर से नई पत्तियां बननी शुरू हो जाती हैं. पत्तों की पैदावार एक बार लगाने से 5 साल तक फसल हासिल कर सकते हैं.

असली और नकली के फेर में किसान

फसलों को कीटपतंगों के हमलों से बचाने के लिए किसानों को कई तरह के कीटनाशकों की जरूरत होती?है और इस के लिए वे दुकानदार के कहे मुताबिक कीटनाशक खरीदते हैं.

देश में ऐसे बहुत कम दुकानदार हैं जिन के पास डिगरी या डिप्लोमा हो. इसी वजह से अकसर किसानों को नुकसान उठाना पड़ता है, क्योंकि किस फसल के कीट के लिए कौन सी दवा ज्यादा कारगर होगी और कितनी मात्रा में, इस की जानकारी ज्यादातर दुकानदारों को नहीं होती. किसानों को इस की भी जानकारी नहीं होती कि कौन सी खाद असली है या नकली.

किसानों के सामने जो सब से बड़ी दिक्कत है, वह है कैमिकल खाद और कीटनाशक की. कौन सी खाद या कीटनाशक असली है या नकली, वे इस की पहचान नहीं कर पाते.

हैरानी की बात यह है कि जब हम ने भोपाल के कुछ दुकानदारों से इस बारे में जानकारी जाननी चाही तो उन का जवाब गोलमोल था. मतलब, उन्होंने माना कि आमतौर पर उन्हें भी इस के बारे में कोई खास पहचान नहीं होती, इसलिए उन के पास जो सब से ज्यादा बिकने वाली दवा होती है, उसी को किसानों को देने की कोशिश करते हैं.

इस में एक बात और गौर करने वाली है कि असली की पहचान ज्यादा बिकने और महंगे होने से है, क्योंकि नकली उत्पाद असली के मुकाबले काफी कम कीमत पर दुकानों में मिल जाते हैं, जिन के इस्तेमाल से किसानों को काफी नुकसान उठाना पड़ता है. साथ ही, मिट्टी की उर्वराशक्ति कमजोर हो जाती है इसलिए बड़े ब्रांड को देख कर खरीदारी करें. साथ ही, कुछ ऐसे तरीके भी हैं, जिन से असली और नकली कीपहचान की जा सकती है.

नकली और मिलावटी कीटनाशकों की वजह से देश में हर साल करोड़ों रुपए की फसलें तबाह हो जाती हैं. इस से किसानों पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ता है. किसान कर्ज ले कर फसलें उगाते हैं, फसलों को हानिकारक कीटों से बचाने के लिए वे कीटनाशकों का इस्तेमाल करते हैं, लेकिन नकली और मिलावटी कीटनाशक कीटों पर प्रभावी नहीं होते. इस वजह से कीट और पौधों पर लगने वाली बीमारियां फसल को नुकसान पहुंचाती हैं. उत्पादन कम होता?है या कई बार पूरी फसल ही खराब हो जाती है.

एक अनुमान के मुताबिक, देश में हर साल औसतन 3,000 करोड़ रुपए के नकली कीटनाशक बेचे जाते हैं, जबकि कीटनाशकों का कुल बाजार 7,000 करोड़ रुपए से ज्यादा का है. यहां हर साल तकरीबन 80,000 टन कीटनाशक बनाए जाते?हैं.

इंडियन काउंसिल औफ एग्रीकल्चरल रिसर्च (आईसीएआर) की मानें तो देश में इस्तेमाल होने वाले कुल कीटनाशकों में से तकरीबन 40 फीसदी हिस्सा नकली है.

काबिलेगौर है कि बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र जैसे राज्यों में नकली कीटनाशक बनाने का करोबार बड़े पैमाने पर होता है. नामीगिरामी कंपनियों के लेबल का ये लोग इस्तेमाल करते हैं. अधिकारियों की मिलीभगत के चलते इन कारोबारियों के खिलाफ कोई सख्त कार्यवाही नहीं हो पाती है.

किसानों को असली और नकली कीटनाशकों और उर्वरकों की पहचान नहीं होती इसलिए वे दुकानदार पर भरोसा कर के कीटनाशक खरीद लेते हैं.

ऐसा नहीं है कि सभी दुकानदार नकली कीटनाशक बेचते हैं. जिन दुकानदारों को बाजार में अपनी साख बनाए रखनी है, वे सीधे कंपनी से माल खरीदते हैं. ऐसे दुकानदारों की भी कमी नहीं है, जो किसी बिचौलिए से माल खरीदते हैं.

दरअसल, बिचौलिए ज्यादा मुनाफा कमाने के चक्कर में दुकानदारों को असली की जगह नकली कीटनाशक बेचते हैं. नकली कीटनाशकों की पैकिंग भी हूबहू नामीगिरामी कंपनियों की तरह ही होती है.

यूरिया से किसान करें तोबा

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘मन की बात’ में कहा था, ‘हम यूरिया से धरती मां को गंभीर नुकसान पहुंचा रहे हैं. लेकिन किसान तो धरती मां का पुत्र है. वह अपनी मां को नुकसान कैसे पहुंचा सकता है? किसान एक संकल्प लें कि वे आजादी के 75 साल पूरा होने पर यानी साल 2022 तक यूरिया का इस्तेमाल आधा कर देंगे.’

फर्टिलाइजर एसोसिएशन औफ इंडिया (एफएआई) का अनुमान है कि देश में अगले एक दशक में कैमिकल उर्वरक की खपत 20 फीसदी ज्यादा हो जाएगी. 2024-25 तक नाइट्रोजन की मात्रा 2 करोड़ टन तक हो जाएगी. वहीं फास्फोरस की खपत 93 लाख टन और पोटाश की खपत 42 लाख टन तक पहुंच जाएगी.

भारत में हर साल 3 करोड़ टन यूरिया की खपत होती है, जबकि हरित क्रांति से पहले यह लैवल 10 लाख टन हर साल था. साथ ही, इस का आयात पिछले कुछ सालों के 90 लाख टन के मुकाबले साल 2017 में घट कर 60 लाख टन रह गया.

यह आयात पर निर्भरता में कमी को दिखाता है. भारत में किसान औसतन एक हेक्टेयर खेती पर 158 किलोग्राम उर्वरक का इस्तेमाल करते?हैं, जबकि चीन, बंगलादेश और वियतनाम में यह क्रमश: 420 किलोग्राम, 278 किलोग्राम और 270 किलोग्राम है.

मुश्किल है डगर

प्रोफैसर अशोक गुलाटी कहते हैं, ‘‘खाद्य मांग में जोर के चलते साल 2022 तक इस टारगेट को हासिल कर पाना मुश्किल है, जब तक कोई बड़ा चमत्कार नहीं हो जाता.’’

वे आगे कहते हैं, ‘‘अगर यूरिया की खपत में 50 फीसदी की कमी करनी है तो अगले 3 साल में इस का आयात शून्य हो जाना चाहिए.’’

अशोक गुलाटी कहते?हैं कि मैं ऐसा होते हुए नहीं देख रहा. उर्वरक वितरण में तस्करी और दूसरे उद्योगों में वितरण वगैरह लूपहोल को बंद करने से थोड़ाबहुत फायदा मिल सकता है लेकिन अगले 5 से 10 साल में भारत में कुल यूरिया की खपत बढ़ेगी.

इसी तरह से किसान कुछ सावधानी बरत कर उर्वरक की पहचान कर सकते हैं, जिस से उन के खूनपसीने की कमाई पर पानी न फिरे. हमारी सलाह है कि उन्हें छोटीमोटी दुकानों से इस तरह की चीजें खरीदने से परहेज करना ही मुनासिब रहेगा, क्योंकि छोटे दुकानदार कम ग्राहकों से ज्यादा फायदा वसूलना चाहते हैं.

साथ ही, किसानों को समय के साथ यूरिया के इस्तेमाल पर भी निर्भरता कम करनी चाहिए, क्योंकि देश में सब से ज्यादा यूरिया खाद का ही इस्तेमाल किया जाता है. इस से मिट्टी भी खराब न होगी और किसानों का पैसा भी बचेगा.

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