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इस गेंदबाज के डर से स्ट्राइक नहीं लेना चाहते थे सचिन

24 सालों तक भारतीय दर्शकों के लिए क्रिकेट का दूसरा नाम रहे सचिन ने खुलासा किया है कि वह 1999 में ऑस्ट्रिलिया में हुई सीरीज को अपने करियर की सबसे मुश्किल सीरीज मानते हैं.

मुंबई में एक कार्यक्रम में तेंदुलकर ने कहा, ‘इसमें कोई संदेह नहीं कि सबसे कड़ी सीरीज 1999 की थी जब हम ऑस्ट्रेलिया गए थे और उनकी टीम बेजोड़ थी. उनकी एकादश में सात से आठ मैच विजेता थे और बाकी भी काफी अच्छे थे. यह ऐसी टीम थी जिसने विश्व क्रिकेट में कई वर्षों तक दबदबा बनाया. उनकी खेलने की अपनी शैली थी, काफी आक्रामक.’

आपको बता दें कि स्टीव वॉ की टीम ने तीन मैचों की इस सीरीज में पूरी तरह से दबदबा बनाते हुए भारत का 3-0 से वाइटवॉश किया था.

सचिन तेंदुलकर ने कहा कि उन्हें अच्छी तरह से याद है कि मेलबर्न, एडिलेड और सिडनी में ऑस्ट्रेलिया ने जिस तरह का क्रिकेट खेला उससे पूरी दुनिया प्रभावित हुई थी. सभी इसी तरह का क्रिकेट खेलना चाहते थे. हालांकि हम सभी अपने खेलने के तरीके का सम्मान करते हैं लेकिन सभी को लगता था कि उन्होंने जो क्रिकेट खेला वह विशेष था. तेंदुलकर ने कहा कि ऑस्ट्रेलिया के खिलाड़ी लगातार ऐसा ऐसा प्रदर्शन करने में सफल रहे. वह विश्व स्तरीय टीम थी.

इस गेंदबाज का सामना करने से घबराते थे सचिन

तेंदुलकर ने रहस्योद्घाटन किया कि उन्हें दक्षिण अफ्रीका के पूर्व कप्तान हैंसी क्रोन्ये का सामना करना पसंद नहीं था. उन्होंने कहा, ‘1989 में जब से मैंने खेलना शुरू किया उस वक्त कम से कम 25 विश्व स्तरीय गेंदबाज मौजूद थे. लेकिन जिनके खिलाफ बल्लेबाजी का मैंने लुत्फ नहीं उठाया वह हैंसी क्रोन्ये थे. किसी न किसी कारण से मैं आउट हो जाता था और मुझे महसूस होने लगा था कि मैं गेंदबाजी छोर पर खड़ा ही अच्छा हूं. पिच पर जो भी दूसरा बल्लेबाज होता था मैं उसे कहता था कि हैंसी की गेंद पर स्ट्राइक तुम रखो.’

हैंसी ने कितने बार किया आउट

आपको बता दें कि दक्षिण अफ्रीका के पूर्व कप्तान हैंसी क्रोन्ये ने सचिन तेंदुलकर को 32 वनडे मैचों में सिर्फ तीन बार आउट किया था. लेकिन 11 टेस्ट मैचों में क्रोन्ये ने सचिन को 5 बार पवेलियन की राह दिखाई थी.

हैंसी क्रोन्ये एक मीडियम पेसर थे और वो अपने मजबूत कंधों की वजह से गेंद को बाउंस कराने के साथ-साथ उसे तेजी भी प्रदान करते थे, जिसकी वजह से उन्हें खेलना मुश्किल हो जाता था.

टेस्ट है फेवरेट फॉर्मेट

सचिन तेंदुलकर ने कहा कि अगर उन्हें टेस्ट और एकदिवसीय की तुलना करनी पड़े तो उन्हें टेस्ट में अच्छा प्रदर्शन करने पर ज्यादा संतोष मिलता है. शायद यही वजह है कि सचिन तेंदुलकर ने टेस्ट क्रिकेट से सबसे आखिर में सन्यास लिया था. बताते चलें कि सचिन ने अपने करियर में केवल एक टी-20 इंटरनेशनल मैच खेला है.

आईपीएल के इस सुपरस्टार ने गर्लफ्रेंड संग रचाई शादी

आईपीएल 2018 में किंग्स इलेवन पंजाब के सलामी बल्लेबाज और घरेलू क्रिकेट में कई बड़े रिकार्ड अपने नाम करने वाले क्रिकेटर मयंक अग्रवाल शादी के बंधन में बंध गए. उन्होंने अपनी गर्लफ्रेंड आशिता सूद से शादी कर ली है. मयंक ने लंदन के थेम्स रिवर के किनारे हवाई झूले पर अपनी गर्लफ्रेंड आशिता को प्रपोज किया, जिसके बाद वह उन्हें मना नहीं कर पाई. अब सोशल मीडिया पर मयंक अग्रवाल और आशिता सूद की शादी की कई तस्वीरें वायरल हो रही हैं.

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मयंक और आशिता की शादी में केएल राहुल भी बाराती बनकर पहुंचे. इस दौरान उन्होंने जमकर ठुमके भी लगाए. केएल राहुल ने अपने आफिशियल इंस्टाग्राम पेज से मयंक की शादी के बेहतरीन लम्हों को फैंस के बीच शेयर भी किया. केएल राहुल ने अपने इंस्टाग्राम अकाउंट से फोटोज शेयर करते हुए इस कपल को शादी की बधाई दी. केएल राहुल ने लिखा, ‘मयंक के जीवन का आज बहुत बड़ा दिन है’. केएल राहुल के अलावा और भी कई क्रिकेटर्स ने मयंक अग्रवाल और आशिता को आने वाले जीवन के लिए बधाई दी है.

हाल ही में हुए सीएट क्रिकेट अवार्ड्स में मयंक अग्रवाल को वर्ष के सर्वश्रेष्ठ घरेलू खिलाड़ी का अवार्ड भी मिला है. मयंक अग्रवाल ने रणजी ट्राफी 2017-18 में 105.45 के औसत से 1160 रन ठोके, जिनमें 5 शतक शामिल रहे. पिछले साल घरेलू क्रिकेट में अपने बल्ले से जमकर धमाल मचाने वाले कर्नाटक के इस बल्लेबाज को इंग्लैंड दौरे के लिए ‘इंडिया ए’ टीम में चुना गया था. इस दौरे से पहले ही मयंक अग्रवाल ने अपनी गर्लफ्रेंड संग शादी रचा ली है.

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हालांकि, आईपीएल 2018 में मयंक अग्रवाल का प्रदर्शन कुछ खास नहीं रहा. आईपीएल के इस सीजन में मयंक अग्रवाल ने 11 मैच खेलकर 12.00 की औसत और 127.65 की स्ट्राइक रेट से केवल 120 रन ही बनाए.

‘भावेश जोशी’ को डुबाने में पी आर कंपनी की भूमिका या साजिश..?

विक्रमादित्य निर्देशित और  अनिल कपूर के बेटे व सोनम कपूर के भाई हर्षवर्धन कपूर के अभिनय से सजी फिल्म ‘‘भावेश जोशी’’ की बाक्स आफिस पर जितनी दुर्गति हो रही है, उसकी तो किसी ने कल्पना भी नही की थी. भावेश जोशी को पूरे देश में एक हजार सिनेमाघरों में प्रदर्शित किया गया और इस फिल्म ने चार दिन के अंदर सिर्फ एक करोड़ रूपए ही इकट्ठा किये. यानी कि खर्च निकालकर निर्माता के हाथ में सिर्फ चालीस लाख रूपए ही आए.

इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि ‘भावेश जोशी’’ की क्या दुर्गति हो रही है. हालात यह बन गए हैं कि अब सिनेमाघरों ने ‘भावेश जोशी’ के शो रद्द करके सोनम कपूर की फिल्म ‘‘वीरे दी वेडिंग’’ को देना शुरू कर दिया है. एक मल्टीप्लैक्स के मालिक ने अपना नाम छिपाते हुए कहा-‘‘फिल्म ‘भावेश जोशी’ को देखने के लिए एक भी दर्शक नहीं आ रहा है. ऐसे में हमारे पास इस फिल्म के शो को रद्द करने के अलावा कोई चारा नहीं है. पर हम फिल्म ‘भावेश जोशी’ के शो रद्द करके सोनम कपूर आहुजा की फिल्म ‘वीरे दी वेडिंग’ को दे रहे हैं, क्योंकि ‘वीरे दी वेडिंग’ को मुंबई से इतर कुछ क्षेत्रों में अच्छे दर्शक मिल रहे हैं.’’

यूं तो हमने फिल्म ‘भावेश जोशी’ की समीक्षा में साफ तौर पर लिखा था कि इस फिल्म को दर्शक मिलने कठिन हैं. क्योंकि इस फिल्म में कहानी निर्देशन सहित सब कुछ बहुत ही कमजोर है. असफल फिल्म ‘मिर्जिया’ से करियर की शुरुआत करने वाले हर्षवर्धन कपूर की दूसरी फिल्म है-‘भावेश जोशी’. लेकिन इस फिल्म में भी हर्षवर्धन कपूर अपने अभिनय में सुधार नहीं ला पाए हैं. ऐसे में भावेश जोशी को दर्शकों द्वारा पसंद ना किया जाना कोई आश्चर्य वाली बात नहीं है.

मगर बौलीवुड से जुड़े कुछ लोग आशंका व्यक्त कर रहे हैं कि फिल्म ‘‘भावेश जोशी’’ निर्माण के स्तर पर कमजोर होने के साथ साथ इस फिल्म की पी आर कंपनी ने इस फिल्म को असफल बनाने में बहुत बड़ा योगदान दिया है. इस सूत्र का दावा है कि भुक्तभोगी सोनम कपूर को चाहिए था कि वह अपने भाई हर्षवर्धन कपूर की भलाई के लिए उसे सलाह देती कि वह निर्माता से कह कर फिल्म की पी आर कंपनी को बदलवाता.

ज्ञातब्य है कि फिल्म ‘‘खूबसूरत’’ के असफल होने पर इसका सारा दोष सोनम कपूर ने फिल्म ‘खूबसूरत’ की पी आर कंपनी पर मढ़ते हुए कई आरोप लगाए थे. मजेदार बात यह है कि ‘खूबसूरत’ का पी आर करने वाली कंपनी ने ही ‘भावेश जोशी’ का पी आर किया है.

लोग सवाल उठा रहे हैं कि फिल्म ‘‘भावेश जोशी’’ की पी आर कंपनी ने इस फिल्म को ठीक से प्रचारित क्यों नहीं किया? ‘भावेश जोशी’ की पी आर कंपनी ने फिल्म के कलाकारों इंटरव्यू भी सही ढंग से नहीं करवाए. तमाम पत्रकारों की अनदेखी की गयी. जिसके चलते भावेश जोशी सही ढंग से प्रचारित नहीं हो पायी. यदि फिल्म सही ढंग से प्रचारित होती, तो इस फिल्म को कम से कम ओपनिंग तो अच्छी मिल जाती. कुछ लोग पी आर कंपनी की बजाय हर्षवर्धन कपूर को दोष दे रहे हैं कि जब पी आर कंपनी उन्हे व फिल्म को सही ढंग से प्रचारित नहीं कर रही थी, तो उन्होंने किसी अन्य प्रचारक को रखकर अपना प्रचार क्यों नहीं करवाया.

जबकि बौलीवुड का एक तबका मानता है कि वर्तमान समय के फिल्म निर्माता अपनी पी आर कंपनी से जवाब तलब क्यों नहीं करते हैं? फिल्म निर्माता को स्वंय इस बात पर नजर रखनी चाहिए कि उनकी फिल्म का पी आर सही ढंग से उनकी फिल्म को प्रचारित कर रही है या नहीं?

वहीं बौलीवुड का एक सूत्र दावा कर रहा है कि एक साजिश के तहत कमजोर फिल्म ‘‘भावेश जोशी’’ को पूरी तरह से डुबाया गया. इस तरह की शंका व्यक्त करने वाले लोग सवाल उठा रहे हैं कि ‘भावेश जोशी’ को अचानक 25 मई की बजाय 1 जून को ‘वीरे दी वेडिंग’ के साथ प्रदर्शित करने का निर्णय क्यों लिया गया? क्या ऐसा सोनम कपूर, रिया कपूर और अनिल कपूर की मंशा से किया गया? कुछ लोग तो यह भी कह रहे हैं कि हर्षवर्धन कपूर के करियर पर कम से कम आंच आए, इसके लिए ‘वीरे दी वेडिंग’ के साथ ‘भावेश जोशी’ को प्रदर्शित किया गया, जिससे यह कहा जा सके कि भाई बहन की फिल्मों के टकराव में जीत बहन की फिल्म की हुई.

कुल मिलाकर ‘‘भावेश जोशी’’ की बाक्स आफिस पर हो रही दुर्गति के बाद अफवाहों का बाजार गर्म है..

फिल्म ‘संदीप और पिंकी फरार’ क्यों नही आएगी तीन अगस्त को

‘यशराज फिल्म्स’ के आदित्य चोपड़ा ने घोषित किया है कि दिबाकर बनर्जी निर्देशित फिल्म ‘संदीप और पिंकी फरार’ अब तीन अगस्त की बजाय एक मार्च 2019 को प्रदर्शित होगी. ‘यशराज फिल्म्स’ के अनुसार इसकी मूल वजह यह है कि फिल्म का पोस्ट प्रोडक्शन का काम बाकी है. उधर फिल्म के निर्देशक दिबाकर बनर्जी कहते हैं- ‘‘हमारी फिल्म की शूटिंग नेपाल के अलावा उत्तराखंड के जूनाघाट में की गयी है. नेपाल सीमा पर खराब मौसम के चलते हमारी फिल्म की शूटिंग में एक माह की देरी हो गयी. तो वही पोस्ट प्रोडक्शन का काफी काम बाकी है. इसी के चलते हमने व आदित्य ने मिलकर तय किया है कि हम अपनी फिल्म को तीन अगस्त की बजाय अगले वर्ष एक मार्च को प्रदर्शित करेंगे.’’

मगर बौलीवुड से जुड़े सूत्र दावा कर रहे हैं कि फिल्म के प्रदर्शन की तारीख टालने की वजह कुछ और है. सूत्र दावा कर रहे हैं कि फिल्म ‘‘संदीप और पिंकी फरार’’ में अर्जुन कपूर और परिणीत चोपड़ा की अहम भूमिकाएं हैं. फिलहाल अर्जुन कपूर का करियर डांवाडोल चल रहा है. हालिया प्रदर्शित फिल्म ‘‘भावेश जोशी’’ में अर्जुन कपूर मेहमान कलाकार के रूप में नजर आए, मगर इस फिल्म ने बाक्स आफिस पर पानी नहीं मांगा. उधर परिणीति चोपड़ा की पिछली फिल्मों ने निर्माताओं को नुकसान ही पहुंचाया है. इसलिए अब ‘यशराज फिल्म्स’ कुछ समय इंतजार करना चाहता है. इसके अलावा वह चाहते हैं कि अर्जुन कपूर और परिणीत चोपड़ा की फिल्म‘‘नमस्ते लंडन’’पहले प्रदर्शित हो जाए, तो शायद हालात बदल जाएं.

जबकि ‘‘यशराज फिल्म्स’’ के करीबी सूत्रों के अनुसार फिल्म ‘‘संदीप और पिंकी फरार’’ का कुछ अंश देखकर आदित्य चोपड़ा काफी निराश हुए और अब उन्होंने निर्देशक दिबाकर बनर्जी को इस फिल्म के 25 प्रतिशत हिस्से को पुनः फिल्माने का आदेश दिया है. यानी कि अब फिल्म का कुछ हिस्सा पुनः फिल्माया जाएगा, जिसमें समय लगना स्वाभाविक है. इसी के चलते फिल्म के प्रदर्शन की तारीख बदली गयी है.

नीट : असमानता और भेदभाव की साजिश

एक राष्ट्र, एक परीक्षा’ जैसी दार्शनिक विचारधारा को ध्यान में रखते हुए नैशनल एलिजिबिलिटी कम ऐंट्रैंस टैस्ट यानी नीट लागू किया गया. यह एक ऐसा बाहुबली एग्जाम है जिस का आयोजन देश के उन सभी मैडिकल और डैंटल कालेजों में ऐडमिशन के लिए 2017 से अनिवार्य कर दिया गया जो मैडिकल और डैंटल काउंसिल औफ इंडिया द्वारा संचालित हैं. इस परीक्षा का उद्देश्य राज्यस्तरीय और प्राइवेट कालेजों द्वारा आयोजित की जाने वाली परीक्षाओं से विद्यार्थियों को मुक्त करना और ऐडमिशन प्रोसैस में समानता लाना है, लेकिन आज के हालात देखें, तो नीट ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वालों, गरीब, पिछड़ी जातियों और स्टेट बोर्ड के छात्रों के पक्ष में नहीं है.

शुरू से ही नीट स्टूडैंट्स और उन के पेरैंट्स के लिए सिरदर्द बना हुआ है. केरल में कई स्टूडैंट्स को परीक्षा केंद्रों पर शर्मिंदगी का सामना करना पड़ा था. कन्नूर जिले में एक छात्रा को एग्जाम हौल में जाने से पहले इनरवियर निकालना पड़ा था, क्योंकि उस में मैटल हुक लगा था जो मैटल डिटैक्टर से पता चला. इस पर आपत्ति जताते हुए केरल के एक सांसद पी के श्रीमाधी ने कहा था, ‘‘परीक्षा केंद्रों पर छात्राओं के कपड़े उतरवाना बेहद चौंकाने वाली व अमानवीय घटना है.’’

अगस्त 2017 में तमिलनाडु के त्रिची जिले के एक कुली की 17 वर्षीया बेटी अनीता ने इसलिए आत्महत्या कर ली क्योंकि उसे मैडिकल में ऐडमिशन नहीं मिल सका. अनीता ने नीट में 700 में से मात्र 86 मार्क्स प्राप्त किए थे जो मैडिकल की पढ़ाई के लिए पर्याप्त नहीं थे, जबकि स्टेट बोर्ड के परिणाम के अनुसार, अनीता एक मेधावी और प्रतिभाशाली छात्रा थी, 12वीं में उसे कुल 1,200 में से 1,176 मार्क्स मिले थे. फिजिक्स और मैथ्स में 100 प्रतिशत के साथ उस ने कुल 98 प्रतिशत मार्क्स प्राप्त किए थे.

दरअसल, तमिलनाडु में मैडिकल में ऐडमिशन के लिए नीट के स्कोर को अनिवार्य करने के केंद्र के फैसले के विरोध में अनीता ने देश की सब से बड़ी अदालत सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया और याचिका दाखिल की, जिस में उस ने कहा था कि उस के जैसे गरीब व ग्रामीण क्षेत्र के बच्चे, शहर के बच्चों जैसी कोचिंग क्लासेस नहीं ले सकते हैं, इसलिए उन्हें नीट जैसी कठिन प्रतिस्पर्धात्मक परीक्षा में छूट दी जाए. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने अनीता की याचिका को खारिज करते हुए आदेश दिया कि तमिलनाडु में मैडिकल में प्रवेश 12वीं कक्षा के अंकों पर नहीं, बल्कि नीट के परिणाम पर ही आधारित हो. यह फैसला आने के बाद अनीता की डाक्टर बनने की आखिरी उम्मीद भी टूट गई और उस ने आत्महत्या कर ली. यह घटना हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि नीट के जरिए हम किस तरह के मैडिकल छात्रों का चुनाव कर रहे हैं.

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ऐसे में नैशनल एलिजिबिलिटी कम ऐंट्रैंस टैस्ट न केवल एक गलत विचार है बल्कि इसे आयोजित करने का तरीका आज के समय में किसी कल्पना से कम नहीं है. देश के मैडिकल कालेजों में ऐडमिशन लेने के लिए नीट एकमात्र जरिया है, इसलिए इस की कठिनाई के स्तर पर कई तरह के सवाल उठाए जा रहे हैं. विविधताओं से भरे भारत जैसे देश में ऐसा कोई संस्थान सक्षम और योग्य नहीं है जिस में नीट जैसी परीक्षा को इतने बड़े स्तर पर उचित ढंग से आयोजित करने की क्षमता हो.

केंद्रीय पाठयक्रम और स्टेट बोर्ड:?भारतीय शिक्षा विरोधी संघ

नीट का पैटर्न एनसीईआरटी द्वारा तय 11वीं व 12वीं के पाठ्यक्रम पर आधारित है. इस में स्टेट एवं अन्य बोर्ड्स के पाठ्यक्रमों को शामिल करने पर कोई अध्ययन या विचार तक नहीं किया गया है. ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर क्यों मैडिकल काउंसिल औफ इंडिया ने नीट के लिए एनसीईआरटी के ही पाठ्यक्रम को चुना है, जबकि देश में मात्र कुछ ही फीसदी छात्र एनसीईआरटी का पाठ्यक्रम पढ़ते हैं.

इस निर्णय पर देश के कई शिक्षाविदों ने सवाल उठाया था कि उस देश में केवल एक बोर्ड पर आधारित नीट की अनिवार्यता कैसे न्यायपूर्ण हो सकती है, जहां शिक्षा बोर्ड और उन के सिलेबस एकसमान नहीं हैं. नीट राज्यस्तरीय शिक्षा प्रणाली को पूरी तरह नजरअंदाज कर केंद्रीय शिक्षा प्रणाली को स्वीकार कर रहा है. इस के अलावा नीट प्रश्नपत्र अंगरेजी और हिंदी में होने के कारण क्षेत्रीय भाषाओं में पढ़ रहे छात्रों की जरूरतों को नजरअंदाज किया जा रहा है. इस से स्पष्ट है कि नीट, भारत के संघीय ढांचे में भेदभाव पैदा कर रहा है और असमानता फैला रहा है.

अप्रासंगिक हुआ 12वीं का परिणाम

नीट का प्रश्नपत्र बहुविकल्पीयहोता है, जिस में फिजिक्स, कैमिस्ट्री, बायोलौजी, जूलौजी और इंगलिश सब्जैक्ट शामिल हैं. नीट ने उन छात्रों के लिए 12वीं के परिणाम को अप्रासंगिक बना दिया है जो मैडिकल में ऐडमिशन के लिए मेहनत करते हैं क्योंकि अब मैडिकल काउंसिल द्वारा मान्य तकनीकी जरूरतों के अलावा अन्य अंकों की गणना नहीं की जाएगी. नीट की परीक्षा के लिए 12वीं में सामान्य वर्ग के छात्रों को कम से कम 50 फीसदी और आरक्षित वर्ग के छात्रों को 40 फीसदी अंक प्राप्त करना जरूरी है, विशेषकर इंगलिश, फिजिक्स, कैमिस्ट्री और बायोलौजी के पेपर में पास होना अनिवार्य है. इस के बावजूद नीट की मैरिट लिस्ट में आने के बाद ही आप किसी मैडिकल कालेज में ऐडमिशन के लिए योग्य होंगे.

सवाल है कि दोनों परीक्षाओं में औसत परिणाम अनिवार्य करने की आवश्यकता क्या है? जब ऐडमिशन के लिए नीट के परिणाम ही सर्वमान्य हैं तो मैडिकल काउंसिल को 12वीं में 5 फीसदी लाने की अनिवार्यता खत्म कर देनी चाहिए जिस से छात्रों को दोहरी पढ़ाई के भार से राहत मिल सके.

मुंबई के केसी कालेज की फिजिक्स की प्रोफैसर ज्योत्सना पांडेय के अनुसार, एनसीईआरटी (नैशनल काउंसिल औफ एजुकेशन रिसर्च ऐंड ट्रेनिंग) द्वारा निर्धारित फिजिक्स, कैमिस्ट्री, जूलौजी और मैथ्स के पाठयक्रम विशेषरूप से मैडिकल और इंजीनियरिंग में प्रवेश लेने वाले स्टूडैंट्स को ट्रेनिंग देने के उद्देश्य से तैयार किए जाते हैं. वहीं स्टेट बोर्ड साइंस को ले कर हैलिकौप्टर दृष्टिकोण अपनाता है, जिस के कारण स्टूडैंट्स को नीट जैसी परीक्षा पास करना मुश्किल साबित होता है. स्टेट बोर्ड साइंस के बजाय क्षेत्रीय भाषा, कला और संस्कृति पर अधिक जोर देता है जो नौनसाइंस कोर्सेस के लिए उपयुक्त है.

नीट की तैयारी कर रहे छात्रों का कहना है कि स्टेट बोर्ड का सिलेबस सब्जैक्टिव होता है जबकि नीट का सिलेबस काफी व्यापक व बहुविकल्पीय होता है. ऐसे में दोनों की अलगअलग तैयारी करनी पड़ती है, जिस से उन पर दोहरा भार पड़ता है. इतना ही नहीं, बिना कोचिंग क्लासेस के नीट पास कर के किसी अच्छे कालेज में ऐडमिशन लेना लगभग असंभव है.

कोचिंग के बिना नीट पास करना मुश्किल

नीट का पेपर कुल 700 मार्क्स का होता है, जिस में से स्टूडैंट्स को कम से कम 400 मार्क्स हासिल करना अनिवार्य है. इस के बाद भी ऐडमिशन राज्य में सीटों की उपलब्धता पर निर्भर करता है. कर्नाटक में लोअर रैंक लाने वाले छात्रों को भी ऐडमिशन मिल जाता है, क्योंकि पड़ोसी राज्यों केरल और महाराष्ट्र की तुलना में वहां मैडिकल कालेजों की संख्या ज्यादा है.

मुंबई के केईएम मैडिकल कालेज में नीट पास कर के आए एमबीबीएस के स्टूडैंट्स का कहना था कि नीट और स्टेट बोर्ड के सिलेबस में काफी अंतर है. नीट के प्रश्नपत्र में जहां 90 प्रतिशत सीबीएसई बोर्ड का विषय रहता है, तो वहीं

10 प्रतिशत स्टेट बोर्ड का होता है. ऐसे में स्टेट बोर्ड के छात्रों को बिना कोचिंग क्लास के यह परीक्षा पास करना बहुत कठिन है. परीक्षा में केवल पास होना ही माने नहीं रखता, बल्कि केईएम जैसे बड़े मैडिकल कालेज में ऐडमिशन के लिए नीट में अधिकतम स्कोर प्राप्त करना महत्त्वपूर्ण है, जो बिना कोचिंग के संभव नहीं है. यही वजह है कि देश के हर कोने में बड़ी संख्या में कोचिंग सैंटर फलफूल रहे हैं.

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महाराष्ट्र में कोचिंग सैंटर चला रहे एक प्रोफैसर का कहना है कि राज्य में इन क्लासेस की फीस क्षेत्र के अनुसार 1 लाख से ले कर 5 लाख रुपए है, जो मध्यवर्गीय और निम्नवर्गीय परिवारों के लिए बहुत ज्यादा है. यह समस्या ग्रामीण इलाकों में और भी गंभीर है, जहां शिक्षकों और बुनियादी ढांचे दोनों की कमी है.

नीट समर्थकों का कहना है कि स्कूल के शिक्षकों को एनसीईआरटी का सिलेबस पढ़ाना चाहिए जिस से बच्चों को इस तरह के एग्जाम्स देने में आसानी हो. परंतु हम सब जानते हैं कि सरकारी स्कूलों में ज्यादातर शिक्षक नदारद रहते हैं. ऐसे में उन से अतिरिक्त जिम्मेदारी उठाने की अपेक्षा अविश्वसनीय है. परिणामस्वरूप, 40 प्रतिशत शहरी छात्रों की तुलना में केवल 1-2 प्रतिशत छात्र ग्रामीण क्षेत्रों से होंगे जो नीट पास कर पाते हैं. इस वजह से मैडिकल की पढ़ाई कर रहे शहर के छात्र ग्रामीण क्षेत्रों में प्रैक्टिस नहीं करना चाहते हैं. यहां तक कि सरकारी कालेजों से पढ़े डाक्टर, जो ग्रामीण इलाकों में प्रैक्टिस करने के लिए बाध्य हैं, भी शहर में आने के मौके तलाशते हैं.

शिक्षा व्यवस्था में जातिवाद की जड़ें

भारत में जाति व्यवस्था लगभग सभी सरकारी प्रक्रियाओं का एक अभिन्न अंग है और इस की जड़ें भारतीय शिक्षा प्रणाली में गहराई तक फैली हुई हैं. ऐसे में जातिगत भेदभाव स्कूल से ही शुरू हो जाता है. देश के कई राज्यों में जातिवाद की पकड़ मजबूत है. जहां ऊंची जाति के लोग अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में नहीं भेजते हैं, तो वहीं पिछड़ी जातियों के लिए विकास का मतलब अपने बच्चों को निजी संस्थानों में भेजना होता है. यद्यपि नीट समर्थकों की मानें तो नीट के अंतर्गत आरक्षण में किसी तरह का परिवर्तन नहीं किया गया है, लेकिन यह स्पष्ट है कि नीट ऊंची जातियों और वर्ग के पक्ष में है. इतना ही नहीं, नीट शिक्षा का बेहतर स्तर भी सुनिश्चित नहीं करता है. ऐसे में इसे एकतरफा लागू करना अनुचित है जब तक कि सभी को समान स्तर की शिक्षा न दी जाए.

शहर और गांव में भेदभाव

2017 में सीबीएसई ने देश के 103 बड़े शहरों में 1,921 परीक्षा केंद्रों पर नीट की परीक्षा आयोजित की थी, जहां स्टूडैंट्स को अपनी सुविधानुसार राज्य के 3 केंद्र चुनने थे. उदाहरण के तौर पर, महाराष्ट्र में मुंबई, ठाणे, औरंगाबाद, पुणे, नासिक, नागपुर में परीक्षा केंद्र थे जहां नीट आयोजित किया गया था, जिस में से कोई 3 केंद्र चुनने थे. लेकिन सीबीएसई की तरफ से यह सुनिश्चित नहीं किया जाता है कि परीक्षा का स्थान कहां होगा, जिस के कारण दूरदराज के छात्रों को परेशानी का सामना करना पड़ता है.

2017 में नीट के सैंटर कम होने से दूरदराज के ग्रामीण विद्यार्थियों को परीक्षा केंद्रों तक पहुंचने में आर्थिक व मानसिक रूप से कई समस्याओं का सामना करना पड़ा था. इसलिए यहां के छात्र संगठनों ने परीक्षा केंद्रों की संख्या बढ़ाने की मांग की थी.

2017 में नीट अनिवार्य करने से पहले, प्री मैडिकल एग्जाम टैस्ट के रूप में एमएचसीईटी को डिविजनल अथौरिटी द्वारा राज्य के सभी 36 जिलों में आयोजित किया जाता था. इस के मुंबई जैसे शहर में 11, ठाणे में 13 और अधिकतम सैंटर चंद्रपुर में 45, गढ़चिरौली में 46 थे. इसलिए बच्चों को सैंटर को ले कर कोई परेशानी नहीं होती थी.

प्राइवेट कालेजों की आसमान छूती फीस

सरकारी और प्राइवेट कालेजों में अपनी सीट सुरक्षित करने के लिए स्टूडैंट्स को नीट पास करना किसी युद्ध लड़ने से कम नहीं है. महाराष्ट्र में 48 सरकारी मैडिकल कालेज हैं जिन में कुल 6,245 सीटें हैं.

मुंबई के जेजे हौस्पिटल के डा. योगेंद्र यादव के अनुसार, सरकारी मैडिकल कालेजों में एमबीबीएस की कुल फीस ढाई लाख रुपए है तो वहीं नवी मुंबई के डीवाई पाटिल जैसे प्राइवेट मैडिकल कालेज में 23 लाख रुपए वार्षिक है. महाराष्ट्र के ज्यादातर प्राइवेट कालेजों की फीस 16 लाख से 23 लाख रुपए वार्षिक है. ऐसे में यदि गरीब और पिछड़े वर्ग के छात्र नीट की मैरिट लिस्ट में जगह हासिल कर सरकारी मैडिकल कालेज में सीट नहीं प्राप्त करते हैं तो उन को डाक्टर बनने के लिए प्राइवेट कालेजों में ऐडमिशन पाना लगभग सपने के समान है क्योंकि इन कालेजों में आसमान छूती फीस चुका पाना उन के लिए असंभव है.

वहीं केरल सरकार ने सभी मैडिकल कालेजों के लिए एकसमान फीस स्ट्रक्चर तय किया था. लेकिन 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार की मैडिकल फीस 5 लाख रुपए की एक निश्चित सीमा खारिज कर दी और प्राइवेट मैडिकल कालेजों को 11 लाख रुपए वार्षिक फीस तय करने का आदेश दिया. यह आदेश ऐडमिशन प्रोसैस समाप्त होने के 3 दिन पहले आया, जबकि ज्यादातर कालेजों ने एकसमान फीस स्ट्रक्चर के तहत 5 लाख रुपए ही फीस ली और शेष 6 लाख रुपए की बैंक गारंटी दी.

सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर केरल

के मुख्यमंत्री ने कहा था, ‘‘मैडिकल के एकसमान फीस स्ट्रक्चर को हटाना हमारी मजबूरी है, क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मैडिकल के लिए एकमात्र प्रवेश परीक्षा नीट अनिवार्य करने के बाद सरकार एकसमान फीस स्ट्रक्चर को जारी नहीं रख सकती है. यह शिक्षा के क्षेत्र में राज्य की स्वायत्तता पर अतिक्रमण है. सरकार उन छात्रों और उन के परिवारों के साथ है जो इस फैसले से पीडि़त हैं.’’

परिणामस्वरूप, डाक्टर बनने योग्य कई छात्रों ने अपना रास्ता बदल लिया है. बीडीएस में ऐडमिशन के पहले राउंड में सीट सुरक्षित करने वाली छात्रा लिंडा एकसमान फीस स्ट्रक्चर के तहत सैल्फ फाइनैंसिंग कालेज में एमबीबीएस के लिए ऐडमिशन लेने वाली थी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद उस ने यह विचार छोड़ दिया, क्योंकि लिंडा जैसे मध्यवर्गीय स्टूडैंट्स इतनी अधिक फीस की व्यवस्था नहीं कर सकते हैं. आज डाक्टर बनने के लिए पैसारूपी ताकत की जरूरत है और यही वजह है कि डाक्टर बनने के बाद ये लोग समाज की सेवा करने के बजाय पैसा कमाने को ज्यादा महत्त्व देते हैं.

दक्षिण भारतीय राज्यों का विरोध

अब तक तमिलनाडु में 10वीं के मार्क्स के आधार पर ही मैडिकल में ऐडमिशन हो रहा था, जिस से वहां के गांव और छोटे शहरों के छात्रों को मैडिकल की पढ़ाई करना आसान होता था. यही वजह है कि तमिलनाडु शुरू से ही नीट के पक्ष में नहीं था. सुप्रीम कोर्ट ने भी तमिलनाडु को नीट की परीक्षा से बाहर रखा था, लेकिन नीट को ले कर तमिलनाडु और केंद्र सरकार की लड़ाई में आखिरकार केंद्र की जीत हुई और 2017 से तमिलनाडु में अनिवार्यरूप से नीट को लागू कर दिया गया.

मई 2013 में पहली बार जब औल इंडिया प्री मैडिकल टैस्ट की जगह नीट को आयोजित किया गया, तब तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और केरल ने स्टेट एजुकेशन बोर्ड को खतरा बताते हुए इस का कड़ा विरोध किया था. जुलाई, 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने नीट को असंवैधानिक करार दे दिया. इतना ही नहीं, नीट को राज्य में दोबारा शुरू करने की केंद्र की घोषणा के बाद फरवरी 2016 में मुख्यमंत्री जयललिता ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिख कर नीट के खिलाफ कड़े विरोध की चेतावनी दी थी. पत्र में उन्होंने लिखा था कि नीट लागू करना संघवाद का उल्लंघन और तमिलनाडु के छात्रों के प्रति अन्याय है, क्योंकि नैशनल एलिजिबिलिटी एग्जाम यानी नीट के लिए सीबीएसई के छात्रों जैसी ट्रेनिंग स्टेट बोर्ड के छात्रों को नहीं दी जाती है.

जयललिता की आपत्ति को नजरअंदाज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने एमबीबीएस और बीडीएस कोर्सेस में ऐडमिशन के लिए नीट अनिवार्य कर दिया, जिस के सामने स्टेट बोर्ड के परिणाम बेमानी रह गए. 24 मई, 2017 को मद्रास होईकोर्ट ने सीबीएसई के खिलाफ नीट के परिणाम पर प्रतिबंध लगाने का आदेश दिया, जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने स्टे लगा दिया. राज्य सरकार ने तमिलनाडु के विद्यार्थियों के लिए विशेष छूट दिए जाने का अनुरोध करते हुए केंद्र सरकार से संपर्क किया और इस के लिए एक अध्यादेश भेजा, लेकिन वह भी मंजूरी हासिल करने में विफल रही. 27 अगस्त, 2017 को सुप्रीम कोर्ट के आदेशानुसार तमिलनाडु में मैडिकल में ऐडमिशन के लिए नीट को अनिवार्य कर दिया गया.

शिक्षा नीति पर पुनर्विचार

हम भारत की विविधता और एकता पर गर्व करते हैं, लेकिन नीट शिक्षा बोर्ड और उन में पढ़ रहे शहरी व ग्रामीण छात्रों के बीच एक बड़ी दरार पैदा कर रहा है. शिक्षाविदों के अनुसार, नीट सीबीएसई की विचारधारा रखने वालों के लिए फायदेमंद है जहां तक अनीता जैसे छात्र नहीं पहुंच सकते हैं.

यह परीक्षा पूरी तरह से इंगलिश में होती है जिस को क्षेत्रीय भाषाओं में अनुवादित किया जाता है. एनडीए की सरकार हो या यूपीए की, आजकल भारत में चलन बन गया है कि पहले किसी विचार को जनता पर थोप दिया जाए, फिर जनता को खुद इस से लड़ने व समझौता करने दिया जाए. ऐसे में कभीकभी देश की सब से बड़ी अदालत भी जमीनी हकीकत को समझने में विफल हो जाती है और सरकार के पक्ष में फैसला ले लेती है, जबकि अनीता जैसे गरीब और समाज में हाशिये पर रहने वाले लोगों की आवाज को सब से अधिक सुरक्षा की आवश्यकता है.

देश की पूरी शिक्षा नीति पर पुनर्विचार करने की जरूरत है. साथ ही, यह भी सुनिश्चित करना होगा कि देश की शिक्षा नीति केवल अमीर, शहरी और समतावादी वर्ग के पक्ष में न हो कर, ग्रामीण, क्षेत्रीय भाषा और उन की जरूरतों को भी पूरा करे.

पोंगापंथ : बच्चों को अंधविश्वासी मत बनाएं

हमारे यहां स्कूल में पढ़ने वाले छात्रों को किताबों में पढ़ने के लिए जो मिलता है उस का उलटा उन्हें अपने परिवार वालों, धर्मग्रंथों और धार्मिक गुरुओं से मिलता है. इसी का नतीजा होता है कि एक पढ़ालिखा इनसान भी बेवकूफ जैसा बरताव करता है.

राकेश 7वीं जमात का छात्र था. उस के गांव में यज्ञ हो रहा था. यज्ञ में आए धर्मगुरु अपने प्रवचन में बता रहे थे कि गंगा शिवजी की जटाओं से निकलती हैं और भगीरथ उन्हें स्वर्ग से धरती पर लाए थे.

प्रवचन खत्म होते ही राकेश ने पूछा, ‘‘महात्माजी, मैं ने तो किताब में पढ़ा है कि गंगा हिमालय के गंगोत्री ग्लेशियर से निकलती है?’’

इस पर महात्माजी ने कहा, ‘‘अभी तुम बच्चे हो. धर्म की बातें नहीं समझ पाओगे.’’

वहां बैठे दूसरे लोगों ने भी उसे बोला कि जब तुम बड़े हो जाओगे तो तुम्हें अपनेआप इन सब बातों की जानकारी हो जाएगी.

दूसरे दिन राकेश ने अपनी क्लास में टीचर से पूछा, ‘‘सर, आप जो पढ़ाते हैं उस का उलटा महात्माजी बताते हैं.’’

टीचर ने भी कहा कि जब तुम बड़े हो जाओगे तब समझोगे.

आज राकेश बड़ा हो गया है, फिर भी इन बातों को समझने में उसे मुश्किल हो रही है कि किसे सच माने और किसे झूठ.

प्रीति इंटर की छात्रा थी. एक दिन उस की मां ने उस से कहा, ‘‘तुम नहा कर रोजाना सूर्य भगवान को जल चढ़ाया करो. इस से तुम्हें हर चीज में कामयाबी मिलेगी.’’

इस पर प्रीति बोली, ‘‘मां, आप को पता नहीं है कि सूर्य भगवान नहीं हैं. सूर्य सौर्य मंडल का एक तारा है जो धरती से कई गुना बड़ा है.’’

प्रीति की मां बोलीं, ‘‘क्या वे सभी लोग बेवकूफ हैं जो सूर्य देवता को जल चढ़ाते हैं?’’

कविता समझ नहीं पाई कि किताब की बातें माने या अपनी मां की.

एक बार जब भूकंप आया तो मंजू के दादा ने बताया, ‘‘धरती शेषनाग के फन पर टिकी हुई है और शेषनाग जब करवट बदलता है, तो वह हिलने लगती है.’’

मंजू ने अपने दादा को जवाब दिया, ‘‘दादाजी, मेरी किताब में लिखा हुआ है कि धरती अपनी धुरी पर 23 डिगरी पर झुकी हुई है. जब 2 टैक्टौनिक प्लेट्स आपस में टकराती हैं तो भूकंप आता है.’’

इसी तरह परिक्रमा करते हुए जब धरती सूर्य और चंद्रमा के बीच आ जाती है तो चंद्रग्रहण होता है, जबकि धर्मशास्त्र बताते हैं कि जब राहु चंद्रमा को खा जाता है तो चंद्रग्रहण लगता है. इस तरह के सैकड़ों उदाहरण हमारे समाज में देखने को मिलते हैं, जो नई पीढ़ी को परेशानी में डाल देते हैं.

दें सही जानकारी

बच्चों को अंधविश्वासी नहीं बल्कि विज्ञान के आधार पर उन की बुद्धि का विकास करें. जब तर्क के आधार पर अंधविश्वासी लोग खरा नहीं उतरते तो वे आस्था की दुहाई देने लगते हैं. सांप की मूर्ति की पूजा करते हैं और जब ऐसे कहीं सांप देखते हैं तो उसे मारने लगते हैं. गणेश की सवारी चूहे की मूर्ति की पूजा करते हैं और घर में चूहेदानी और जहर दे कर उसे मार देते हैं. इन अंधभक्तों की यह कौन सी आस्था है, समझ के बाहर है.

कार्ल मार्क्स ने सही कहा था कि धर्म एक अफीम है. जिन देशों को यह बात समझ आ गई, वहां हालात बदल गए. जो देश गरीब थे, अचानक विकसित हो गए. हमें समझ नहीं आया, तो हम गरीब थे और आज भी गरीब ही हैं.

हम समझ नहीं पाए कि जिसे हम अमृत समझ रहे हैं वह एक धीमा जहर है, जो पूरे समाज और देश को धीरेधीरे खत्म कर रहा है. इसी धर्म रूपी अफीम ने हमे अंधा कर दिया है, जिस वजह से आज विज्ञान की रोशनी पूरी दुनिया में फैलने के बावजूद हम अज्ञान के अंधकार में डूबे हुए हैं और नई पीढ़ी को भी अंधविश्वासी बना रहे हैं.

धर्म के नशे में हम लोगों ने अपना स्वाभिमान खो दिया है. इनसानियत को भूल कर हम पशुत्व को अपना चुके हैं. देशसमाज के लिए हम सामूहिक रूप से इकट्ठा होने के बजाय धर्मों, मजारों, डेरों पर भीड़ के रूप में जमा होते हैं.

जहां सामूहिकता होती है, वहीं बदलाव होता है. जहां भीड़ होती है वहां भेड़चाल होती है. लोगों की भीड़, अलगअलग समाजों की भीड़, जातियों की भीड़, उपजातियों की भीड़, नेताओं की भीड़, पार्टियों की भीड़, गोत्र के नाम पर भीड़, भाषा के नाम पर भीड़, क्षेत्र के नाम पर भीड़, महात्माओं की भीड़, साधुओं की भीड़, मुल्लाओं की भीड़…

इस भीड़ को बनाए रखने में ही कइयों का फायदा होता है, इसलिए समाज को धर्म और जाति के नाम पर भीड़ में बदलने वाले लालची लोग समाज को इसी रूप में बनाए रखना चाहते हैं, क्योंकि भीड़ को बेवकूफ बनाया जा सकता है, समूह को नहीं. वरना ये राम रहीम, आसाराम, रामपाल जैसे हमारे सामने बारबार नजर नहीं आते.

धर्म को नहीं मानने वाला सुखी नीदरलैंड्स दुनिया का सब से ज्यादा नास्तिक देश है. वहां अपराध की दर इतनी कम है कि जेलखाने तक बंद करने पड़े हैं. 100 फीसदी पढ़ेलिखे लोग, रहनसहन का बहुत ज्यादा ऊंचा लैवल. और एक हमारा देश है, जहां रोजाना लोग भगवा, लाल, पीले, नीले, हरे, काले झंडे ले कर घूमते हैं फिर भी भयंकर गरीबी, बढ़ती बेरोजगारी, हत्या, बलात्कार, भेदभाव, जातीय हिंसा, रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार, गरीबों का शोषण आम बात है.

‘अर्जक संघ’ के राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष शिवनंदन प्रभाकर कहते हैं कि इस देश में पढ़ेलिखे डाक्टर, इंजीनियर, यहां तक कि वैज्ञानिक भी अंधविश्वासी और धर्म के जाल में उलझे हुए हैं. जब ये लोग इस खोल से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं तो समाज के दूसरे आम लोग इन का उदाहरण देने लगते हैं.

‘शोषित समाज दल’ के राष्ट्रीय अध्यक्ष रघुनिराम शास्त्री का कहना है कि हम किसी भी बात को तर्क की कसौटी पर देखें. अगर सही लगता है तो उसे मानें. अगर नहीं लगता तो उसे न मानें. किसी चीज को इसलिए नहीं मानें कि हमारे पूर्वज मानते आए हैं. वैसे, हमारे पूर्वज तो जंगल में नंगे घूमते थे, तो फिर आप सूटबूट क्यों पहनते हैं?

ऐनकाउंटर के नाम पर हत्याएं…

उत्तर प्रदेश में योगी सरकार बनने के बाद 20 मार्च, 2017 से फरवरी, 2018 तक तकरीबन 11 महीने में कई ऐनकाउंटर हो चुके हैं जिन में 43 तथाकथित अपराधी मारे गए हैं और तकरीबन डेढ़ हजार घायल हुए हैं.

कानून व्यवस्था को ठीक करने के नाम पर होने वाले इन ऐनकाउंटरों पर अब सवाल उठने लगे हैं. ऐसे ऐनकाउंटरों के तौरतरीके, पुलिस की कहानी, ऐनकाउंटर पीडि़तों के जख्मों वगैरह की जांचपड़ताल करने पर ऐसे सवालों का उठना लाजिमी भी है. सब से बड़ा सवाल तो यह है कि मुठभेड़ की जाती?है या हो जाती है?

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के बयानों को देखें तो इस नतीजे पर पहुंचना मुश्किल नहीं है कि मुठभेड़ की जाती है और ऐसा तथाकथित अपराधियों की निशानदेही कर के होता है.

उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले में मुठभेड़ में छन्नू सोनकर, रामजी पासी, जयहिंद यादव और मुकेश राजभर मारे गए थे. उन के परिवार वालों और गांव वालों से मिलने के बाद जो तथ्य सामने आए हैं वे चिंता बढ़ाने वाले हैं.

छन्नू सोनकर को अमरूद के बाग से पुलिस वाले ले गए और जब वह देर रात तक घर नहीं आया तो उस के परिवार वालों ने उस के मोबाइल पर फोन किया. पता चला कि वह जहानागंज थाने में है.

पिता झब्बू सोनकर और उस की बहनों ने बताया कि अगली सुबह 2 पुलिस वाले उन के घर पहुंचे और बताया कि छन्नू का जिला अस्पताल में इलाज चल रहा है. वहां पहुंचने के बाद परिवार वालों को मुठभेड़ में उस के मारे जाने के बारे में पता चला.

मुकेश राजभर की मां ने बताया कि उस का बेटा कानपुर में मजदूरी करता था. 15 दिन पहले पुलिस वाले उस के घर गए थे, गालीगलौज और मारपीट की थी और मुकेश का कानपुर का पता मांगा था.

मां का आरोप है कि पुलिस वाले उस से रिश्वत में बड़ी रकम मांग रहे थे. उस ने बताया कि 26 जनवरी को 9 बजे पुलिस ने मुकेश को कानपुर से उठाया था.

दिन में 12 बजे सिपाही रामजन्म ने फोन कर के मुकेश की मां से पूछा था कि उस के पास कितने खेत हैं तो उस ने उस से कहा था कि मुकेश को ले गए हो तो उसे मारनापीटना मत, लेकिन पुलिस ने उस को ऐनकाउंटर में मार डाला.

मुकेश को सीने में एक गोली मारी गई थी. पुलिस ने उस पर बंदी रक्षक को गोली मारने का अरोप लगाया है.

जयहिंद यादव के पिता शिवपूजन यादव ने बताया कि जयहिंद उन को साथ ले कर दवा लाने जा रहा था. सादे कपड़ों में कुछ लोगों ने उसे उठा कर एक गाड़ी में बैठा लिया और चले गए. उस के बाद सूचना मिली कि उस की मुठभेड़ में मौत हो गई. उसे 21 गोलियां लगी थीं.

क्षेत्र पंचायत सदस्य रहे रामजी पासी के पिता दिनेश सरोज का कहना था कि पुलिस ने पहले उस पर फर्जी मुकदमे लगाए और फिर फर्जी मुठभेड़ कराने में उस की हत्या कर दी.

उन का कहना था कि रामजी ने 600 वोटों से क्षेत्र पंचायत चुनाव जीता था. इस के चलते कुछ सवर्ण लोग उस से जलते थे और मुठभेड़ में उन लोगों का भी हाथ है.

बाराबंकी में पुलिस ऐनकाउंटर में घायल रईस अहमद के परिवार वालों से भी मुलाकात की गई. रईस अहमद की पत्नी ने बताया कि 30 दिसंबर को अंधेरा होते ही मुखबिर आबिद के साथ सादा कपड़ों में गाड़ी में आए पुलिस वाले उसे गांव से ही उठा कर ले गए.

जिला पंचायत का चुनाव लड़ चुके रईस अहमद की पत्नी ने आगे बताया कि उस के पति की गांव के कुछ लोगों से प्रधानी के चुनाव को ले कर रंजिश थी. उस को इस से पहले नहर काटने के आरोप में फंसाया गया था.

पुलिस ने मारे गए सभी तथाकथित अपराधियों पर कई अपराधों से जुड़े होने का आरोप लगाया है और उन्हें इनामी भी बताया है. इस के अलावा इन मुठभेड़ों के बाद पुलिस की कहानी में कई चीजें ऐसी हैं जो सभी मामलों में एकजैसी हैं.

जैसे सभी मुलजिम मोटरसाइकिल से जा रहे थे और उन में से हरेक के साथ उस का एक साथी भी था. पुलिस ने जब उन्हें रोकने की कोशिश की तो मोटरसाइकिल सवारों ने उन पर गोलियां चलाना शुरू कर दिया.

पुलिस ने जवाबी फायर किया तो मुलजिमों को गोली लगी जिस में वे घायल हो गए लेकिन उन के साथी फरार होने में कामयाब रहे. मुठभेड़ के बाद मौके से मोटरसाइकिल के अलावा हर वारदात में एक हथियार भी बरामद हुआ.

सवाल है कि मोटरसाइकिल सवार से मुठभेड़ में किसी को 21 गोलियां कैसे लग सकती हैं? 21 गोलियां लगने के बाद पुलिस का यह कहना कि अस्पताल ले जाते समय मौत हुई, ऐसा स्वाभाविक नहीं लगता.

मुकेश राजभर के सीने में जिस जगह पर गोली लगी और जिस से उस की मौत भी हो गई उस जगह पर गोली लगने के बाद कुछ मिनटों तक ही जिंदा रहने की उम्मीद रह जाती है, ऐसे में पुलिस जिला अस्पताल में इलाज के दौरान उस की मौत की बात कह कर शक ही पैदा कर रही है.

उठ रहे सारे सवालों के मद्देनजर उत्तर प्रदेश राज्य मानवाधिकार आयोग ने आजमगढ़ के मुकेश राजभर, जयहिंद यादव, रामजी पासी और इटावा के अमन यादव की फर्जी मुठभेड़ पर जांच बैठा दी गई है. उत्तर प्रदेश की विधानसभा में भी विपक्षी दलों ने फर्जी मुठभेड़ के नाम पर की जा रही हत्याओं का सवाल उठाया.

दरअसल, मुठभेड़ों की यह मुहिम कानून व्यवस्था का मामला कम और ऐनकाउंटर पौलिटिक्स का मसला ज्यादा लगता है.

भाजपा सरकार अपराधियों के प्रति कठोर होने के दिखावे के नाम पर राजनीतिक हिसाबकिताब चुकता कर रही है. ऐनकाउंटर में मारे जाने वालों में मुसलिमों, दलितों और पिछड़ों की तादाद सब से ज्यादा है. नामी सवर्ण अपराधी या भाजपा की शरण में चले जाने वाले लोग तो निश्चिंत हो कर घूम रहे हैं.

मुठभेड़ों के बढ़ते हुए आंकड़े ही यह बताने के लिए काफी हैं कि सबकुछ ठीक नहीं है. 20 मार्च, 2017 से शुरू इस मुहिम के पहले 6 महीने में कुल 420 ऐनकाउंटर हुए थे जिन में 15 लोग मारे गए थे जबकि यह आंकड़ा 3 फरवरी, 2018 तक क्रमश: 1142 और 38 था.

योगी सरकार की दिलचस्पी किसी से छिपी हुई नहीं है और यह मामला कानून व्यवस्था को ले कर कम राजनीतिक ज्यादा है.

हेयर केयर से आप भी पा सकती हैं खास लुक

आजधूलमिट्टी व बढ़ते प्रदूषण की वजह से बाल रूखे व बेजान हो जाते हैं. ऐसे में भले ही आप अपने बालों को कैसा भी स्टाइल दें या फिर कैसी भी हेयर ऐक्सैसरीज यूज करें लेकिन उस से पहले हेयर केयर जरूरी है और उस के लिए विटामिन ई युक्त केयोकार्पिन हेयर आयल से बालों को सौफ्ट टच देना न भूलें.

बालों की कर्लिंग व स्ट्रेटनिंग

– कर्लिंग के लिए सिरैमिक कर्लिंग आयरन चुनिए यह बालों को अंदर से बाहर की तरफ हीट देता है, जिस से आसानी से कर्ल्स बनते हैं. हां, इस बात का ध्यान रखें कि इस में आसानी से तापमान नियंत्रित करने की सुविधा हो.

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– अगर आप बालों को बेहतर फिनिशिंग देना चाहती हैं, तो केयोकार्पिन तेल लगाना न भूलें. इस से आप स्मूद लुक पाएंगी.

– बालों को स्ट्रेट लुक देने के लिए प्रैसिंग की प्रक्रिया शुरू करने से पहले बालों को स्मूदिंग शैंपू से धोएं. फिर कंडीशनिंग करने के बाद सुखा लें. उस के बाद थर्मल प्रोटैक्शन फ्लुइड अप्लाई कर के प्रैसिंग की प्रक्रिया शुरू करें और प्रोसैस कंप्लीट होने के बाद केयोकार्पिन लगाना न भूलें.

स्टाइलिंग हेयर प्रोडक्ट्स

– जैसे बौडी क्रीम्स स्किन में मौइश्चर बनाए रखने का काम करती हैं वैसे ही हेयर क्रीम्स जड़ों में नमी बनाए रखती है. आप भी फ्रीजी हेयर्स को स्मूद और परफैक्ट हेयरस्टाइल बनाने के लिए हेयर क्रीम्स का चयन कर सकती हैं. इस से बालों में चिपचिपापन न लग कर नैचुरल सा लुक लगता है.

– अगर आप अपने एक जैसे लुक से बोर हो गई हैं तो हेयर जैल का यूज बैस्ट है. यह बालों में लौंग टाइम तक स्टे रहने के साथसाथ उसे डिफरैंट लुक भी देता है.

– हेयर स्प्रे एक ऐसा ग्रूमिंग प्रोडक्ट है जिस का इस्तेमाल हेयरस्टाइल को पूरे दिन अपनी जगह पर होल्ड करने के लिए किया जाता है. ये बालों का वॉल्यूम बढ़ाने का भी काम करता है.

– हेयर मूज़ बालों को एक्स्ट्रा वॉल्यूम और शाइन देने के लिए यूज किया जाता है. इस की खास बात यह है कि ये स्टाइल को हलके से होल्ड करता है जिस से बाल नैचुरल लुक देते हैं.

पोनीटेल दे यूनीक लुक

– स्लीक पोनीटेल बनाने के लिए बालों में अच्छे से कौंबिंग कर के उन्हें रबड़ बैंड से टाई करें. फिर पोनीटेल के छोटे छोटे सैक्शन ले कर उस में केयोकार्पिन आयल लगा कर पोनीटेल की परफैक्ट लुक दीजिए.

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– लो फुल पोनी बनाने के लिए मिडिल पार्टिंग करते हुए बालों को गरदन के पीछे करते हुए इस तरह कंघी करें कि किसी भी तरह बाल निकले नहीं. ध्यान रखें कि पोनीटेल गरदन के पास ही बने.

– बालों में कौंबिंग करते हुए हाई पोनीटेल बना कर रबड़ बैंड से बांधें. फिर पोनीटेल की चोटी बनाते हुए उसे नीचे से टाई करें. फिर धीरे धीरे चोटी को खोलें और उस पर स्प्रे करें.

कुछ अन्य जरूरी टिप्स प्रिसिला से जानें

– बालों को डैमेज होने से बचाने के लिए जरूरी है कि हमेशा ईकोफ्रैंडली कलर्स का ही इस्तेमाल करें.

– हेयर जैल, मूज़ लगाने से बालों में ड्राईनैस आती है तो ऐसे में इस की ड्राईनैस को कम करने के लिए उस में केयोकार्पिन लाइट हेयर आयल की 5 बूंदें डालना न भूलें.

– स्टाइल को परफैक्ट बनाने के लिए हेयर ऐक्सैसरीज का यूज करना न भूलें.

– बालों को जितना हो सके धूलमिट्टी व तेज धूप से बचाएं.

– बालों के टैक्स्चर को देखते हुए ही हेयर प्रोडक्ट का इस्तेमाल करना चाहिए.

– बालों को पोषण देने के लिए हेयर मास्क लगाना न भूलें.

कैसे पाएं दोमुंहे बालों से छुटकारा

– सनस्क्रीन लोशन को केयोकार्पिन तेल के साथ मिक्स कर के बालों की जड़ों में लगाने से दोमुंहे बालों से छुटकारा मिलता है.

– दो अंडों को संतरे के रस और केले के साथ मिला कर उस का पेस्ट हेयर मास्क की तरह भी बालों में अप्लाई करने से फायदा मिलता है.

– पके हुए पपीते में आधा कप दही मिला कर बालों में लगाने से बाल चमकदार होने के साथ साथ दोमुंहे बालों की समस्या से भी छुटकारा मिलेगा.

– एक चम्मच शहद में थोड़ा सा दही मिला कर लगाने से बाल सॉफ्ट होने के साथ साथ दोमुंहे बालों से भी राहत मिलती है.

गरमी में ये टिप्स आजमाएंगी, तो लंबे समय तक टिका रहेगा मेकअप

गरमी के मौसम में त्वचा का खास खयाल रखना पड़ता है. मेकअप करने से पहले चेहरे को अच्छी तरह साफ कर लें. इस के लिए कौटन का प्रयोग करें. आईलाइनर और आई मेकअप हटाने के लिए इयरबड का प्रयोग करें. चेहरे पर मेकअप करने से पहले लाइटर टोन का लेप लगाएं.

आंखों के आसपास के धब्बों को हटाने के लिए नारंगी टोन लगाएं. लिपलाइनर से होंठों को बेस दें. यदि आंखों का मेकअप भारी है, तो होंठों का मेकअप हलका रखें. इस मौसम में होंठों पर गुलाबी और नारंगी रंग का ज्यादा प्रयोग करें और मेकअप बहुत ही सफाई से करें.

कंसीलर: गरमी के मौसम में फाउंडेशन चेहरे को थोड़ा हैवी दिखा सकता है, इसलिए इस के प्रयोग से बचें. इस की जगह कंसीलर का प्रयोग करें. यह चेहरे से दागधब्बों को मिटाता है.

अगर सिंपल दिखना है, तो लिक्विड कंसीलर का उपयोग करें. चेहरे पर कंसीलर या फाउंडेशन किसी ठंडी जगह बैठ कर ही अप्लाई करें. इस से मेकअप करते समय पसीना नहीं आएगा और कंसीलर भी सही तरह से लगेगा.

काजल: अगर आप हलका मेकअप कर रही हैं, तो काजल भी हलका ही लगाएं. अगर रात की पार्टी में जा रही हों तो उस समय आंखों को हाईलाइट करने के लिए गाढ़ा काजल लगाएं. अगर चाहती हैं कि आईलाइनर व आईशैडो लंबे समय तक आंखों पर टिके रहें, तो काजल लगाने से पहले आंखों के नीचे कौंपैक्ट पाउडर लगाएं, फिर काजल. इस से काजल फैलेगा नहीं. आंखों में लिक्विड आईलाइनर का प्रयोग न करें.

साड़ी या सूट जैसा पारंपरिक परिधान पहनने का वक्त सब से अधिक त्योहारों के दौरान होता है. लेकिन आप वैस्टर्न कपड़े पहनती हैं तो सब से बड़ी समस्या मेकअप को ले कर होती है, क्योंकि वैस्टर्न कपड़ों के साथ दूसरी तरह का और साड़ी या सूट के साथ दूसरी तरह का मेकअप किया जाता है.

इसलिए जरूरी है कि मेकअप से पहले कुछ बातों का खयाल रखा जाए. अपनी ड्रैस के अनुसार नहीं, बल्कि अपने चेहरे के रंग के अनुसार मेकअप का चुनाव करें. अगर 2 रंग हैं, तो आईशैडो को अच्छी तरह ब्लैंड करें.

फाउंडेशन: अकसर फाउंडेशन के सही रंग का चुनाव करने में दुविधा होती है. जब भी फाउंडेशन के रंग का चुनाव करें तो यह देख लें कि आप के फेस में कौन सा रंग सब से अधिक ब्लैंड हो रहा है. लेकिन एक व्यक्ति के चेहरे पर कई तरह के शेड्स होते हैं, इसलिए यह भी जानना जरूरी है कि आप फाउंडेशन का टैस्ट किस जगह करें.

अगर एक रंग पूरे फेस को कवर नहीं कर रहा है तो 2 रंगों का चुनाव कर सकती हैं. बेस को जौ लाइन पर टैस्ट करें, क्योंकि यह जगह गरदन और चेहरे दोनों को कवर करती है. फिर आप ने जिन रंगों का चुनाव किया है उन्हें चेहरे पर लगा कर चैक कर लें.

हाफ वे आईलाइनर: इसे आंख के बीच में से शुरू कर के लगाना है. फिर इसे अच्छी तरह भर दें. नीचे की ओर से भी लगाएं. आईलाइनर अपने हिसाब से चुन सकती हैं. आईलिड्स छोटी हैं, तो आईलाइनर को सूखने दें. मसकारा भी लगाएं. नीचे की भौंहों को छोड़ें नहीं. सब से पहले आई मेकअप करें फिर बाकी मेकअप.

बालों के कलर के हिसाब से मेकअप का तरीका: अगर आप के बालों का कलर ब्राउन है, तो आप न्यूड मेकअप का औप्शन अपना सकती हैं. इस मेकअप में लिपग्लौस और मसकारा जरूर शामिल करें. लेकिन इस तरह के हलके मेकअप में अपनी आईब्रोज को डिफाइन करना न भूलें. ब्राउन हेयर टोन के साथ पीच, ब्रौंज और दूसरे न्यूट्रल कलर्स के ब्लश भी आप इस्तेमाल कर सकती हैं.

आंखों के लिए मैटेलिक क्रीम बेस्ड आईशैडो लगाएं. टाइगर आई कलर के साथ नैचुरल मेकअप परफैक्ट रहेगा. यह आप के बालों के कलर को तो हाईलाइट करेगा ही, साथ ही आप को अट्रैक्टिव लुक भी देगा.

– डा. नरेश अरोड़ा, संस्थापक, चेज ऊरोमाथेरैपी कास्मैटिक्स

फेसबुक खंडे ट्विटर द्वीपे : मौडर्न जमाने में ये हैं लड़ाई के मैदान

दिनरात मेरे जैसे जिस भी लिच्चड़ को जहां भी देखो, जब भी देखो, कोई सपने से लड़ रहा है तो कोई अपने से लड़ रहा है. कोई धर्म से लड़ रहा है तो कोई सत्कर्म से लड़ रहा है. कोई प्रेम के चलते खाप से लड़ रहा है तो कोईकोई जेबखर्च के लिए बाप से लड़ रहा है. फौजी बौर्डर पर लड़ रहा है तो मौजी संसद में लड़ रहा है. कोई ईमानदारी से लड़ रहा है तो कोई अपनी लाचारी से लड़ रहा है. कोई बीमारी से लड़ रहा है तो कोई अपनी ही खुमारी से लड़ रहा है. आप जैसा हाथ में फटा नोट लिए महंगाई से लड़ रहा है तो मोटा आदमी अपनी बीजी फसल की कटाई से लड़ रहा है. कुंआरा पराई लुगाई से लड़ रहा है तो शादीशुदा उस की वफाई से लड़ रहा है. मतलब हरेक अपने को लड़ कर व्यस्त रखे हुए है. जिस की बाजुओं में दम है वह बाजुओं से लड़ रहा है. जिस की बाजुओं में दम नहीं वह नकली बट्टेतराजुओं से लड़ रहा है.

लड़ना हर जीव का मिशन है. लड़ना हर जीव का विजन है. मेरे जैसे जीव की क्लास का वश चले तो वह मरने के बाद भी लड़ता रहे. मित्रो, हर दौर में कुछ करना हमारा धर्म रहा हो या न रहा हो, पर लड़ना हम मनुष्यों का धर्म जरूर रहा है. लड़ना हमारा कर्म रहा है. लड़ना हमारे जीवन का मर्म रहा है. लड़ना हमारे जीवन के लक्ष्य का चरम रहा है. लड़ना सब से बड़ा सत्कर्म रहा है. हम लड़तेलड़ते पैदा होते हैं और लड़तेलड़ते मर जाते हैं.

मेरे बाप के दौर की अपनी लड़ाई थी. निहायत शरीफ किस्म की. पर गया अब वह जमाना जब बंदा रोटी से लड़ता था. गया अब वह जमाना जब बंदा लंगोटी से लड़ता था. गया अब वह जमाना जब बंदा धोती से लड़ता था. गया अब वह जमाना जब बंदा खेत से लड़ता था. गया अब वह जमाना जब बंदा पेट से लड़ता था. कुल मिला कर हम सभी अपनेअपने समय में अपनेअपने साहसदुसाहस के हिसाब से लड़ते रहे हैं. हमारे हाल देख कर उम्मीद की जानी चाहिए कि आगे भी हमजैसे कारणअकारण दिलोजान से लड़ते रहेंगे.

अब उन्हें ही देखिए, वे बूढ़े हो गए. पर उन का लड़ना नहीं गया. मुंह में एक असली दांत तक नहीं, पर दूसरे के जिस्म में दांतों का गड़ना नहीं गया. हम महल्ले में पानी की बाल्टी के लिए लड़े तो वे कुरसी के लिए संसद में, जिस में जितनी ताकत उस ने उतनी बड़ी कुरसी एकदूसरे पर दे मारी. जिस के बाजुओं में कम ताकत, उस ने फाइल ही उन के मुंह पर दे मारी. कुरसी लड़ाई में टूट गई बेचारी, पर उन्होंने लड़ने की हिम्मत न हारी. बंधुओ, हम सांस लिए बिना रह सकते हैं, पर लड़े बिना नहीं रह सकते. अगर हम एक मिनट को लड़ना बंद कर दें तो दूसरे ही पल हमारा दम घुट जाए. हमारा जिंदा रहने के लिए लड़ना बहुत जरूरी है. तभी तो हर आदमी अपनी हिम्मत के हिसाब से लड़ रहा है.

पर अब समय तेजी से बदल रहा है, भाईसाहब. सो, लड़ने के तरीके भी बदल रहे हैं. कुछ ज्ञानजीवी कहते हैं कि हम महामानव होने के युग में प्रवेश कर गए हैं. हम सभ्य हैं, ऐडवांस हैं, साहब. सो, अब हम लड़ते नहीं, भिड़ते हैं. लड़ने के परंपरागत तरीके, माफ कीजिएगा, अब तथाकथित सभ्यों ने छोड़ दिए हैं. आप आज भी जो परंपरागत ढंग से लड़ रहे हो तो अपने को पिछड़ा मान लीजिए, प्लीज. मन को लड़ते हुए भी शांति मिलेगी. इस से पहले कि कोई आप को आप के मुंह पर ही पिछड़ा, गंवार, जाहिल और जो भी मन में आए बक कर मदमाता चला जाए, आप अपने लड़ने के तौरतरीके को जरा मौडर्न बना लें. खुद जाहिल ही रहें तो कोई बात नहीं. आज की तारीख में बंदा इंसानियत से कम, लड़नेभिड़ने के तरीकों से अधिक जानापहचाना जाता है.

आज के तथाकथित सभ्य अपने हाथपांव की उंगलियों के नाखून हाथपांव की उंगलियों में दिखाते नहीं, उन्हें दिमाग में सजाते हैं. आज के स्वयंभू सभ्य बड़ी सफाई से लड़ते हैं, बड़ी गहराई से लड़ते हैं, बड़ी चतुराई से लड़ते हैं. किसी को दिखता नहीं. पर मत पूछो वे लड़तेलड़ते कैसेकैसे आपस में भिड़ते हैं. अपनों की रहनुमाई में अपनों से ही मौका हाथ लगते ही पूरी ईमानदारी से सारे रिश्तेनाते भुला मन की गहराइयों से भिड़ते हैं. पर आमनेसामने हो कर नहीं, छिप कर. छिप कर लड़ना संभ्रांतों की प्रिय कला हो गई है. कमबख्त तकनीक ने कुछ और सिखाया हो या न हो, पर छिपछिप कर एकदूसरे से लड़ना कम, भिड़ना बड़े सलीके से जरूर सिखाया है.

आज के लड़ने में सिद्धहस्त, धुरंधर लड़ाके फेसबुक पर लड़ते हैं, बच्चों की तरह ट्विटर पर भिड़ते हैं. फेसबुक के घोड़े, ट्विटर के रथ पर चढ़ कर एकदूसरे पर अचूक वार करते हैं. पर जब एकदूसरे के आमनेसामने होते हैं तो ऐसे गले मिलते हैं कि न ही पूछो तो भला. वे लड़ने के लिए बाजुओं, टांगों का नहीं, तकनीक का दुरुपयोग करते हैं. इधर से वे ट्विटर पर शब्दभेदी बाण चलाते हैं तो उधर से वे ट्विटर के माध्यम से ही उन के बाण को धूल चटाते हैं. इधर से वह शब्द उन के मुंह पर मारता है तो उधर से वह चार शब्दों का तमाचा ट्विटर पर रसीद कर देता है. तमाचा पढ़ने वाला तिलमिला उठता है तो तमाचा लिखने वाला खिलखिला उठता है. आज के लड़ाके ट्विटर पर एकदूसरे से भिड़े होते हैं, हालांकि ऐसे तो मेरे गांव के मेले में आपस में झोटे भी नहीं भिड़ते थे.

देखते ही देखते ट्विटर पर, फेसबुक पर बेमसला तीसरा विश्वयुद्ध शुरू हो जाता है. एक अपने को जीत का श्रेय ले अपने को ट्विटर का सब से बड़ा नायक बता खुद ही अपनी पीठ थपथपाता है तो दूसरा उस को कायर बता कर अपने दिमाग को खुद ही बहलाताफुसलाता है. इसलिए ज्ञान के युग में शान से जीना है तो हे दोस्त, तू भी लड़नेभिड़ने के नए तरीके अपना मौडर्न हो जा. अपनों से फेसबुक, ट्विटर पर लड़तेभिड़ते परमपद पा. चल उठ, देश के लिए नहीं, फेसबुक, ट्विटर के लिए शहीद हो जा. आने वाली पीढि़यां तेरे गुणगान गाएंगी. तुझ में अपने समय का अवतार पाएंगी.

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