“तुम्हारे पापा नहीं रहे.” उस के फोन उठाते ही मां ने कहा और फफकफफक कर रो पड़ीं.

“क्या कह रही हैं आप? कल ही तो मैं ने उन से बात की थी. अचानक ऐसा क्या हुआ?” अनामिका ने खुद को संभालते हुए कहा.

“बेटा, रात में जब वे सोए थे तब तो ठीक थे. सुबह अपने समय पर नहीं उठे तो मैं ने सोचा शायद रात में ठीक से नींद न आई होगी. 7 बजे जब मैं नीबूपानी ले कर उन्हें जगाने गई तो देखा…” वाक्य अधूरा छोड़ कर वे फिर फफक पड़ीं.

“मां, संभालो खुद को, मैं आती हूं,” कह कर उस ने फोन रख दिया.

उस ने राजीव अंकल, जो उन के पड़ोसी व पापा के अच्छे मित्र थे, को फोन मिलाया. उन्होंने तुरंत फोन उठा लिया. वह कुछ कहने ही वाली थी कि उन्होंने कहा, “बेटा, तुम चिंता मत करना, मैं और तुम्हारी आंटी तुम्हारी मां के पास ही हैं.”

“अंकल, मैं शाम तक ही पहुंच पाऊंगी, चाहती हूं कि पापा का अंतिम संस्कार मेरे सामने हो.”

“ठीक है बेटा, मैं दिनेश के पार्थिव शरीर को बर्फ की सिल्ली पर रखवा देता हूं.”

“थैंक यू अंकल.”

अनामिका फ्लाइट का टिकट बुक करा कर पैकिंग करने लगी. 3 घंटे बाद उस की फ्लाइट थी. बेंगलुरु का ट्रैफिक, 2 घंटे उसे एयरपोर्ट पहुंचने में लगने थे. वह तो गनीमत थी कि बेंगलुरु से लखनऊ के लिए डायरैक्ट फ्लाइट मिल गई थी वरना समय पर पहुंचना मुश्किल हो जाता. टैक्सी में बैठते ही उस ने छुट्टी के लिए मेल कर, अपने बचपन के मित्र पल्लव, जो सीतापुर में रहता था, को फोन कर के पिता के बारे में बताया. उस की बात सुनकर वह स्तब्ध रह गया. कुछ देर बाद उस ने कहा, “मैं तुरंत सीमा के साथ आंटीजी के पास जाता हूं. तुम परेशान न होना, धैर्य रखना.” उस से बात कर उस ने अपने टीममेट अभिजीत को फोन कर वस्तुस्थिति से अवगत कराया. उस ने उसे सांत्वना देते हुए कहा कि वह यहां की चिंता न करे, काम का क्या, वह तो चलता ही रहेगा.

‘काम का क्या, वह तो चलता ही रहेगा’ अभिजीत के शब्द उस के कानों में गूंज रहे थे लेकिन इसी काम के लिए वह पिछले 2 वर्षों से घर नहीं जा पाई है. मां बारबार उस से आने के लिए कहतीं पर उस पर काम का प्रैशर बहुत अधिक था या वही अपना सर्वश्रेष्ठ परफौर्मैंस देने के लिए घर जाना टालती रही. माना आईटी क्षेत्र के जौब में पैसा अधिक है पर यह व्यक्ति का खून भी चूस लेता है. न खाने का कोई समय, न घूमने का, ऊपर से सिर पर छंटनी की तलवार अलग लटकी रहती है.

दस वर्ष हो गए उस को यह जौब करते हुए. मांपापा चाहते थे कि वह विवाह कर ले. विभव उसे चाहता है व उस से विवाह भी करना चाहता है लेकिन अपने औफिस में काम करने वाली अपनी सखियों नमिता और सुहाना की स्थिति देख कर उसे विवाह से डर लगने लगा है. परिवार बढ़ाने के लिए उन का नित्य अपने पतियों से झगड़े की बात सुन कर उसे लगने लगा था कि यदि वह अपने काम के साथ घरपरिवार को समय नहीं दे पाई तो उस के साथ भी यही होगा. वह 2 नावों की सवारी एकसाथ नहीं कर सकती. उस के लिए उस का कैरियर मुख्य है. यह सब सोचतेसोचते वह 32 वर्ष की हो गई लेकिन अपनी मनोस्थिति के कारण वह कोई भी फैसला लेने में खुद को असमर्थ पा रही है. अब तो पापा भी नहीं रहे. मां की जिम्मेदारी भी अब उस पर है. क्या विभव उस की मां की जिम्मेदारी लेने को तैयार होगा? वह विचारों के भंवर में डूबी ही थी कि एयरपोर्ट आ गया. उस ने जल्दी से टैक्सी का पैसा चुकाया और एयरपोर्ट के अंदर गई. बोर्डिग पास ले कर, सिक्यूरिटी चैक के बाद वह वेटिंगलाउंज में जा कर बैठी ही थी कि विभव का फोन आ गया.

“तुम ने बताया नहीं कि अंकल नहीं रहे,” विभव ने कहा.

वह समझ नहीं पा रही थी कि उस के प्रश्न का क्या उत्तर दे, तभी उस ने फिर कहा, “तुम कुछ कह क्यों नहीं रही हो, तुम ठीक तो हो न? बुरा न मानना यार, मुझे अभी पल्लव से पता चला तो मुझे लगा कि तुम ने उसे तो बता दिया पर मुझे नहीं.”

“विभव, मैं अभी बात करने के मूड नहीं हूं. वैसे भी, बोर्डिंग शुरू हो गई है,” कहते हुए अनामिका ने फोन काट दिया. विभव की यही बात उसे अच्छी नहीं लगती थी. हमेशा शिकायतें ही शिकायतें. और समय तो ठीक है पर आज…ऐसे समय में भी वह यह नहीं सोच पा रहा है कि मैं कितनी परेशान हूं. सांत्वना के दो शब्द कहने के बजाय आज भी सिर्फ शिकायत.

जिस्म एयरपोर्ट पर था लेकिन मन घर पहुंच गया था. पापा के पार्थिव शरीर को पकड़ कर मां के फफकफफक कर रोने की छवि आंखों के सामने आते ही उस की आंखों से आंसू निकल पड़े. उसे सदा से ही आंसू कमजोरी की निशानी लगते थे किंतु आज उस ने उन्हें बहने दिया. आज उसे लग रहा था कि ये आंसू ही तो हैं जो इंसान के दर्द को कम करने में सहायक होते हैं. मां अब पापा के बिना कैसे अकेले रहेंगी? वे तो दो जिस्म एक जान रहे हैं. कभी काम से पापा के बाहर जाने की बात यदि छोड़ दें तो मांपापा कभी अलग नहीं रहे. बोर्डिंग का एनाउंसमैंट होते ही उस ने बरसती आंखों को पोंछा व सब से पहले बोर्डिंग गेट पर जा कर खड़ी हो गई. मानो उस के बैठते ही प्लेन चल पड़ेगा. सच, कभीकभी मन तो तुरंत पहुंचना चाहता है और शायद पहुंच भी जाता है पर तन को बहुत सारे बंधनों व नियमों को मानना ही पड़ता है, बहुत सारी बाधाओं को झेलना पड़ता है.

आखिर प्लेन ने उड़ान भर ही ली. उस ने आंखें बंद कर लीं. बंद आंखों में अतीत के पल चलचित्र की तरह मंडराने लगे. उसे वह दिन याद आया जब उच्च शिक्षा के लिए लखनऊ शहर में उस का दाखिला होने के बाद पापा उसे होस्टल छोड़ने गए थे.

पापा के जाने के बाद उस की आंखें बरसने को आतुर थीं लेकिन आंसुओं को आंखों में ही रोक कर वह अपने कमरे में आ कर निशब्द एक ही जगह बैठी रह गई थी. मन में द्वंद चल रहा था. आखिर वह दुखी क्यों है? उस की ही इच्छा तो उस के पापा ने उस की मां के विरुद्ध जा कर पूरी की है. उस के मन के प्रश्न का उस के पास कोई उत्तर ही न था. वह एक छोटे कसबे से आई थी. जहां यहां आने से पहले वह खुश थी वहीं अब यहां आ कर न जाने क्यों मन में द्वन्द था, चिंताएं थीं, आशंका थी कि क्या वह इस बड़े शहर में खुद को एडजस्ट भी कर पाएगी. पापा की कपड़े की दुकान थी. वे खुद तो अधिक पढ़ेलिखे नहीं थे लेकिन मनमस्तिष्क से आधुनिक विचारधारा के पोषक थे. वे चाहते थे उन की बेटी इतनी सक्षम बने कि अगर कभी जीवन में कोई कठिनाई आए तो वह उस का सामना कर सके पर उस की मां उस के दूर जाने की आशंका मात्र से ही परेशान थीं. उन्हें लगता था कि उन की भोलीभाली बेटी शहर में अकेली कैसे रह पाएगी.

मां की आशंका गलत भी नहीं थी. पापा के विपरीत उन्होंने शुरू से ही दुनिया की कुत्सित नजरों से बचाने के लिए उसे इतने बंधन में रखा था कि वह किसी से भी बात करने या अकेले कहीं भी जाने में डरने लगी थी. स्कूल भेजना तो मां की मजबूरी थी. घर से स्कूल, स्कूल से घर ही उस की दुनिया थी. मां का अनुशासन या कहें रोकटोक उसे कोई स्वप्न देखने का अधिकार ही नहीं देती थी.

एक बार वह बूआ के घर गई. सीमा दीदी, बूआ की बेटी, जो उस समय डाक्टरी की पढ़ाई कर रही थी, को देख कर उस के नन्हें मन में भी एक नन्हा सपना तिर आया था. उस ने सुना था कि डाक्टर बनने के लिए बहुत अच्छे नंबर आने चाहिए. उस ने मन लगा कर पढ़ना शुरू कर दिया था. मैट्रिक में उस के 95 प्रतिशत अंक आए तो उस की बूआ ने के पापा से उस का शहर के अच्छे कालेज में दाखिला करवाने के लिए कहा. पापा को भी अपनी बहन की बात अच्छी लगी. सो, पापा ने इस शहर के अच्छे कालेज में दाखिला करवा कर, स्कूल के पास स्थित महिला होस्टल में उस के रहने की व्यवस्था कर दी है. पापा के जाते समय वह फूटफूट कर रोने लगी थी.

‘बेटा, रो मत. तेरे भविष्य के लिए ही तुझे यहां छोड़ रहे हैं. बस, अपना खयाल रखना. तुझे तो पता है तेरी मां तुझे ले कर कितनी पजेसिव है,’ कहते हुए पापा ने उस के सिर पर हाथ फेरा था व बिना उस की ओर देखे चले गए.

अपने आंसुओं को रोक कर वह अपने कमरे में आ गई पर उसे बारबार ऐसा लग रहा था कि उसे छोड़ कर जाते हुए पापा की आंखों में भी आंसू थे जिस की वजह से उन्होंने पीछे मुड़ कर नहीं देखा. यह विचार आते ही वह और उदास हो गई.

‘मैं अंजली, और तुम?’ अंजली ने कमरे में प्रवेश करते ही कहा.

‘मैं अनामिका,’ अपने विचारों के कवच से बाहर निकलते हुए उस ने कहा.

‘बहुत प्यारा नाम है, क्या करने आई हो?’

‘मैं ने यहां जयपुरिया कालेज में 11वीं में एडमिशन लिया है.’

‘जयपुरिया, उस में तो मैं भी पढ़ रही हूं.’

‘क्या 11वीं में?’

‘नहीं, 12वीं में.’

‘ओह,’ कहते हुए अनामिका के चेहरे पर उदासी झलक आई.

‘क्यों, क्या हुआ? अरे क्लास एक नहीं है तो क्या हुआ, हमारा आनाजाना तो साथ होगा,’ अंजली ने उस के चेहरे की उदासी देख कर कहा.

‘वह बात नहीं, मांपापा की याद आ गई,’ अनामिका ने रोंआसी आवाज में कहा.

‘मैं तुम्हारा दर्द समझ सकती हूं. जब भी कोई पहली बार घर छोड़ता है, उस की मनोदशा तुम्हारी तरह ही होती है. पर धीरेधीरे सब ठीक हो जाता है. आखिर, हम अपना कैरियर बनाने के लिए यहां आए हैं. अच्छा, बेसन के लड्डू खाओ. मैं भी कल ही आई हूं, मां ने साथ में रख दिए थे,’ अंजली ने अनामिका का मूड ठीक करने का प्रयास करते हुए कहा.

‘बहुत अच्छे बने हैं,’ अनामिका ने लड्डू खाते हुए कहा.

‘अच्छे तो होंगे ही, इन में मां का प्यार जो मिला है. अच्छा, अब मैं चलती हूं. थोड़ा फ्रैश हो लूं. अपने कमरे में जा रही थी, यह कमरा खुला देख कर तुम्हारी ओर नजर गई तो सोचा मिल लूं अपनी नई आई सखी से. मेरा कमरा तुम्हारे कमरे के बगल वाला है रूम नंबर 205. रात में 8 बजे खाने का समय है, तैयार रहना और हां, अपना यह बिखरा सामान आज ही समेट लेना, कल से तो कालेज जाना है,’ अंजली ने कहा.

अंजली के जाते ही अनामिका अपना सामान अलमारी में लगाने लगी कि तभी मोबाइल की घंटी बज उठी. फोन मां का था.

“बेटा, तू ठीक है न? सच तेरे बिना यहां हमें अच्छा नहीं लग रहा है. बहुत याद आ रही है तेरी.’

‘मां, मुझे भी,’ कह कर वह रोने लगी.

‘तू लौट आ,’ मां ने रोते हुए कहा.

‘अनामिका, क्या हुआ? अगर तू ऐसे कमजोर पड़ेगी तो पढ़ेगी कैसे? बेटा, रोते नहीं हैं. तेरी मां तो ऐसे ही कह रही है. अगर तुझे नहीं पढ़ना तो आ जा, मैं तुम्हें रोकूंगा नहीं लेकिन कोई भी फैसला लेने से पहले यह मत भूलना कि पढ़ाई के बिना जीवन बेकार है. चाहे लड़का हो या लड़की, जीवन के रणसंग्राम में खुद को स्थापित करने के लिए शिक्षा बेहद आवश्यक है. क्षणिक निर्णय सदा आत्मघाती होते हैं बेटा. सो, जो भी निर्णय लेना सोचसमझ कर लेना क्योंकि इंसान का सिर्फ एक निर्णय उस के जीवन को बना भी सकता है और बिगाड़ भी,’ पापा ने मां के हाथ से फोन ले कर कहा.

‘अरे, तुम अभी बात ही कर रही हो, खाना खाने नहीं चलना,’ अंजली ने कमरे में आ कर कहा.

‘पापा, मैं खाना खाने जा रही हूं, आ कर बात करती हूं.’

वह अंजली के साथ मेस में गई. वहां उस की तरह ही लगभग 15 लड़कियां थीं. सभी ने उस का बेहद अपनेपन से स्वागत किया. सब से परिचय करते हुए उस ने खाना खाया. रेखा और बबीता नौकरी कर रही थीं जबकि अन्य लड़कियां पढ़ रही हैं. खाना घर जैसा तो नहीं लेकिन ठीकठाक लगा.

खाना खा कर जब वह अपने कमरे में जाने लगी तो उस के साथ चलती रेखा ने उस के पास आ कर कहा, ‘अनामिका, तुम नईनई आई हो, इसलिए कह रही हूं, हम सब यहां एक परिवार की तरह रहते हैं. तुम खुद को अकेला मत समझना. कभी मन घबराए या अकेलापन महसूस हो, तो मेरे पास आ जाना. मेरे कमरे का नंबर 208 है.’

रेखा की बात सुन कर एकाएक उसे लगा कि जब ये लोग रह सकती हैं तो वह क्यों नहीं. मन में चलता द्वन्द ठहर गया था. अंजली ने बताया था कि सुबह 8 बजे नाश्ते का समय है. अपने कमरे में आ कर अब वह काफी व्यवस्थित हो गई थी. मां का फोन आते ही उस ने सारी घटनाओं के बारे में बताते हुए कहा, ‘मां, चिंता मत करो, मैं ठीक हूं, यहां सब लोग अच्छे हैं.’

‘ठीक है बेटा, ध्यान से रहना. आज के जमाने में किसी पर भरोसा करना ठीक नहीं है. कल तेरा स्कूल का पहला दिन है, अपना खयाल रखना. स्कूल से सीधे होस्टल आना और मुझे फोन करना.’

‘जी मां.’

ढेरों ताकीदें दे कर मां ने फोन रख दिया था. मां उस के लिए चिंतित जरूर रहती थीं लेकिन उन्होंने उसे कभी किसी ढोंग या ढकोसले, रूढ़ियों, बेड़ियों व परंपराओं में नहीं बांधा था.

समय पंख लगा कर उड़ता गया, पता ही नहीं चला. हायर सैकंडरी के साथ उस ने इंजीनियरिंग की कोचिंग शुरू कर दी. उस की खुशी की सीमा न रही जब वह जेईई मेंस में क्लियर हो गई. आईआईटी में दाखिले के लिए उसे जेईई एडवांस की परीक्षा देनी थी. उस की मेहनत का परिणाम था कि वह प्रथम बार में ही इस में भी सफल हो गई. आखिरकार, उसे आईआईटी कानपुर में दाखिला मिल गया. मांपापा की खुशी का ठिकाना न था. उन के परिवार में वह लड़के, लड़कियों में पहली थी जो इंजीनियरिंग पढ़ेगी. उस के बाद उस ने मुड़ कर नहीं देखा. मां कभी विवाह के लिए कहतीं तो वह कह देती ‘मुझे समय नहीं है’ या ‘जौब के साथ घरपरिवार’ मुझ से न हो पाएगा. वैसे भी, उसे कभी लगा ही नहीं कि उसे विवाह करना चाहिए. पिछले 10 वर्षो में वह कई लोगों के संपर्क में आई. कुछ लोगों ने उस से विवाह की इच्छा जताई पर वह आगे नहीं बढ़ पाई क्योंकि कुछ ही दिनों में उस पर उन की पुरुषवादी मानसिकता प्रभावी होने लगती और उसे अपने आगे बढ़े कदमों को पीछे खींचना पड़ता. इस के साथ ही उसे यह भी लगता कि वह अपने मातापिता की अकेली लड़की है, अगर कभी उन्हें उस की आवश्यकता पड़ी तो क्या उस से विवाह करने वाला पुरुष उस की भावनाओं को समझेगा.

जब वह छोटी थी तो अकसर मांपापा के हितैषी उन से परिवार के वारिस की बात करते तो पापा कहते कि मेरी अनामिका मेरे लिए पुत्र और पुत्री दोनों है. आजकल न पुत्र पास में रहता है और न पुत्री. फिर किसी से आस क्यों? माना मांपापा उस से आस नहीं करते हैं और न ही कभी करेंगे लेकिन उम्र की भी तो अपनी बंदिशें होती हैं.

“अब हम लखनऊ के चौधरी चरण सिंह एयरपोर्ट पर उतर रहे हैं” की आवाज ने उसे अतीत से वर्तमान में ला दिया. प्लेन की खिड़की से उसे नजर आते छोटेछोटे घरों, पेड़पौधों तथा पतली धार में दिखती गोमती नदी को देखना बहुत अच्छा लगता था पर आज उस को कुछ अच्छा नहीं लग रहा था. प्लेन के लैंड करते ही उस ने मोबाइल औन कर मां को फोन मिलाया. फोन चाचाजी ने उठाया. उस की बात सुन कर उन्होंने कहा, “बेटा, सब तेरा ही इंतजार कर रहे हैं.”

उस ने प्लेन में बैठेबैठे ही कैब बुक करवा दी जिस से बाहर निकलते ही वह चल सके. जैसे ही वह एयरपोर्ट से बाहर निकली, कैब मिल गई और वह तुरंत चल पड़ी. वह कुछ तो मिस कर रही थी, शायद पापा को. दरअसल जबजब भी वह घर आती थी, पापा का न जाने कितनी बार फोन आ जाता था, ‘बेटा, तू कहां तक पहुंची है, अभी आने में कितना समय और लगेगा.’

जब वह घर पहंचती, मांपापा गेट के पास खड़े उस का इंतजार करते मिलते. उस के पहुंचते ही गरमागरम जलेबियां और खस्ता मिल जाती थीं क्योंकि उसे जलेबियां बहुत पसंद थीं. आज इस समय वह सब से अधिक पापा के फोन को मिस कर रही थी.

लगभग डेढ़ घंटे में वह सीतापुर अपने घर पहुंची. सभी उस का इंतजार कर रहे थे. पल्लव और सीमा भी वहां उपस्थित थे. अंतिमक्रिया की सारी तैयारियां हो चुकी थीं. उस के घर पहुंचते ही परिवार के सदस्यों ने पिताजी के पार्थिव शरीर को श्मशान घाट ले जाने की तैयारी शुरू कर दी. उन को उठाने को चार लोग बढ़े तो उस ने कहा, “पिताजी को कंधा मैं भी दूंगी.”

“यह कैसी बात कर रही है बिटिया? हमारे घर की लड़कियां शवयात्रा में सम्मिलित नहीं होतीं. तेरा भाई अमित है न, वह बेटे की जिम्मेदारी निभाएगा,” उस के चाचा अविनाश ने उसे रोकते हुए कहा.

“बेटा, तेरे चाचा ठीक कह रहे हैं. अमित और रोमेश तो हैं ही,” उस के मामा जितेंद्र ने कहा. उन के पीछे खड़ा उन का पुत्र रोमेश भी उन का समर्थन करता प्रतीत हो रहा था.

“चाचाजी, प्लीज मुझे पापा के प्रति अपना कर्तव्य निभाने दीजिए,” उस ने मामा की बात को अनसुना करते हुए चाचाजी से कहा.

“बेटा, लेकिन…”

“राकेशजी, प्लीज, अनामिका ठीक कह रही है. दिनेशजी के लिए वह बेटी नहीं, बेटा ही थी. उन्होंने इसे उसी तरह काबिल और आत्मनिर्भर बनाया जैसा वे अपने बेटे को बनाते. इसे अपने पिता के प्रति कर्तव्य निभाने दीजिए.” राजीव अंकल का सहयोग मिलते ही उपस्थित सभी लोगों के सुर धीमे पड़ गए. उस ने शुरू से अंत तक सारे कर्तव्य निभाए. उस का बचपन का मित्र पल्लव और उस की पत्नी सीमा भी लगातार उसे सहयोग देते रहे. चाचाजी को उस की छोटी जाति के कारण उस का आना बिलकुल पसंद नहीं था लेकिन वे चुप ही रहे क्योंकि वे जानते थे कि उन के कहने का अनामिका पर कोई असर नहीं होगा. भाभी को तो होश ही नहीं है.

मां की स्थिति देख कर अनामिका सोच रही थी कि सच एक स्त्री का सारा मानसम्मान, साजश्रृंगार पति ही होता है. पति के बिना उस की ज़िंदगी अधूरी है. पापा थे भी ऐसे, उन्होंने सदा अपनी पत्नी के मानसम्मान को सर्वोपरि रखा था. उस ने कभी उन दोनों को झगड़ते नहीं देखा, न ही अपनी इच्छा को दूसरे पर थोपते देखा था. उस की नजरों में वे आदर्श पतिपत्नी थे.

मां की हालत देख कर उस ने छुट्टी बढ़ा ली. साथ ही, उसे वर्क फ्रौम होम की इजाजत मिल गई थी. लेकिन ऐसा कब तक चलेगा, उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे? नौकरी उस का पैशन है जबकि मां जिम्मेदारी. एक दिन उसे लैपटौप पर काम करते देख कर उस की मां ने कहा, “बेटा, तेरे काम में हर्जा हो रहा होगा. अब तू अपने काम पर लौट जा, मेरी चिंता मत कर. मैं अब ठीक हूं.”

“नहीं मां, आप की खुशी से ज्यादा मेरा काम नहीं है. मैं आप के लिए अपना जौब छोड़ सकती हूं पर आप को अकेले छोड़ कर नहीं जा सकती.”

“बेटा, मैं इतनी स्वार्थी कैसे हो सकती हूं कि अपनी खुशी के लिए तेरी खुशियां छीन लूं. माना तेरे पापा के जाने के कारण मैं दुखी हूं लेकिन अब मुझे उन के बिना जीने की आदत डालनी ही होगी. बेटा, हम सब इस दुनिया में अपनेअपने किरदार निभा रहे हैं. जब किसी किरदार का रोल खत्म हो जाता है तो उसे जाना ही पड़ता है. बेटा, तेरे पिता का इस संसार में किरदार खत्म हो गया था, इसलिए उन्हें जाना पड़ा. अब मुझे अपना और तुझे अपना किरदार निभाना है,” मां ने उस की ओर देखते हुए कहा.

“किरदार, आप क्या कह रही हैं मां? मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा है?” अनामिका ने कहा.

“बेटा, अब हमें अपनेअपने किरदार अर्थात अपने कर्तव्य निभाने होंगे. मुझे तेरे पापा की दुकान को संभालना होगा और तुझे अपना काम फिर जौइन करना होगा जिस के लिए तूने इतनी मेहनत की है.”

“मां, दुकान आप संभालोगी?” अनामिका ने आश्चर्य से पूछा.

“क्यों, क्या हुआ? जब तुम बाहर जा कर काम कर सकती हो तो मैं क्यों नहीं? वैसे भी, तुम्हारे पापा मुझ से दुकान की हर बात शेयर करते रहे हैं. मुझे विश्वास है मैं सब संभाल लूंगी. वैसे, भोला तो है ही, तुम्हारे पापा के कहीं जाने पर वही दुकान संभालता था. तेरे पापा को उस पर बहुत विश्वास था. कल जब तू सो रही थी तब वह आया था. वह कह रहा था कि मालकिन, जो होना था वह तो हो गया पर आप इस दुकान को बंद मत कीजिएगा. सदा मालिक का नमक खाया है. छोटा मुंह बड़ी बात मलकिन, मैं झूठ नहीं बोलूंगा. आप तो जानती ही हैं मालकिन कि इस दुकान में मालिक की यादें हैं.

“बेटा, मुझे उस की बात ठीक लगी. वह छोटा था, तभी तेरे पापा उसे गांव से ले कर आए थे. उस का विवाह भी हम ने ही करवाया था. अब इस उम्र में वह बालबच्चों को ले कर कहां जाएगा. तेरे पापा द्वारा छोड़ी जिम्मेदारियों का निर्वहन करना अब मेरा कर्तव्य ही नहीं, दायित्व भी है,” कहते हुए मां की आंखें भर आई थीं.

“आप का सोचना ठीक है मां, पर मां, आप अकेली कैसे रहोगी?” अनामिका की आंखों में चिंता झलक रही थी.

“मैं अकेली कहां हूं बेटा, मेरे साथ तेरे पापा की यादें हैं, अड़ोसीपड़ोसी हैं, भोला है. फिर, जब चाहूं, तुम से बात कर सकती हूं. इस मोबाइल की वजह से दुनिया बहुत छोटी हो गई है. बस, एक रिक्वैस्ट है, तू अब विवाह कर ले. देख, कोई बहाना मत करना. मातापिता के जीवन की यही सब से बड़ी खुशी है कि उन की संतान अपने घरपरिवार में खुश रहे,” मां ने चेहरे पर मुसकान लाते हुए, उसे समझाते हुए कहा.

“मां, विवाह करना आसान नहीं है. लेकिन आप को विश्वास दिलाती हूं कि जब भी मुझे समझने वाला लड़का मिल जाएगा, उसे आप से जरूर मिलवाऊंगी.”

“ठीक है बेटा, मेरी चिंता छोड़ कर अब तू अपने काम पर जा. तेरी खुशी ही मेरी खुशी है.”

आखिर मां की जिद के आगे अनामिका को हथियार डालने ही पड़े. वह बेंगलुरु लौटते हुए सोच रही थी कि उस की मां समय के साथ चलने का जज्बा ही नहीं रखतीं, बहादुर भी हैं.

अभी उसे बेंगलुरु आए हुए महीनाभर ही हुआ था कि भोला का फोन आया.

“दीदी, अब हम क्या कहें, कहने में अच्छा तो नहीं लग रहा है लेकिन अगर हम नहीं कहेंगे तो हम मालिक के प्रति अपना फर्ज नहीं निभा पाएंगे.”

“क्या हुआ भोला, खुल कर कहो?”

“दीदी, आप के आने के बाद रोमेश भैया दुकान पर आ कर बैठने लगे हैं. कभीकभी मामाजी भी आ जाते हैं. हिसाबकिताब के 2 रजिस्टर बना लिए हैं. मालिक का तो एक ही रजिस्टर था. हमें उन की नीयत ठीक नहीं लग रही है.”

“क्या, और मां?”

“रोमेश भैया के यहां आने के बाद उन्होंने दुकान पर आना बंद कर दिया है.”

“वे रहते कहां हैं?”

“मालकिन के घर में ही सब आ गए हैं.”

“अच्छा किया जो तुम ने हमें बता दिया. हम देखते हैं.”

“दीदी, मालकिन को न बताइएगा कि हम ने आप को बताया है वरना अगर मामाजी को पता चल गया तो वे हमें नौकरी से निकाल देंगे.”

“हम किसी को कुछ नहीं बताएंगे, तुम निश्चिंत रहो.”

रोमेश दुकान पर बैठने लगा है, सुन कर वह अचंभित थी. मामाजी अपने कार्य के प्रति कभी समर्पित नहीं रहे. पिता से विरासत में मिले व्यवसाय को उन्होंने सुरासुंदरी में गंवा दिया. मामीजी ने उन्हें उन के दुर्व्यसन से मुक्ति दिलवाने की बहुत कोशिश की लेकिन वे उन की हर कोशिश को अपने शक्ति बल से नाकाम कर देते थे. मामी यह सब सह नहीं पाईं. आखिरकार, एक दिन उन्होंने मौत को गले लगा लिया. मामाजी तब भी नहीं सुधरे. मां ने उन्हें समझाने की कोशिश की तो वे उन के साथ भी अभद्र व्यवहार करने लगे. पापा ने उन से दूरी बना ली थी. उन के स्वभाव के कारण मां भी उन से कतराने लगीं. मां को दुख था कि 10 वर्षीय रोमेश उचित देखभाल न होने के कारण आवारा लड़कों की संगत में पड़ कर बिगड़ता जा रहा है.

उसे कुछ समझ नहीं आया तो उस ने मां को फोन मिलाया. फोन उठाते ही मां ने कहा, “बेटा, तुम मेरी चिंता न किया करो. तेरे मामाजी और रोमेश मेरे पास आ गए हैं. रोमेश ने सब संभाल लिया है.”

“लेकिन मां…”

“वे सब भूलीबिसरी बातें हैं. मैं भूल चुकी हूं, तू भी भूल जा. वे दोनों मेरा बहुत खयाल रखते हैं.”

मां की बात सुन कर वह क्या कहती. उस ने फोन रख दिया. मां की बातों से उसे लगा, भोला सच कह रहा है. मामाजी ने मां को अपने मोहजाल में फंसा लिया है. फोन से उन्हें समझाना संभव नहीं है, क्योंकि यह बात इस समय वे समझ ही नहीं पाएंगी. अब उसे ही उन के इस तिलिस्म को तोड़ना पड़ेगा.

उस ने छुट्टी के लिए अप्लाई कर, टिकट बुक करवाया. जैसे भी वह लखनऊ पहुंची, अपने मित्र पल्लव को सारी बातें बताते हुए, उस से दुकान पहुंचने का आग्रह किया. दरअसल, वस्तुस्थिति का पता लगाने के लिए उस ने घर न जा कर, सीधे दुकान जाना उचित समझा. तब तक पल्लव भी वहां पहुंच चुका था. दुकान में प्रवेश करते ही उस ने देखा कि रोमेश दुकान में अपने मित्र के साथ शराब पीते हुए ताश खेल रहा है. दुकान के अन्य कर्मचारी उन की खातिरदारी में लगे हैं. बस, भोला ही कस्टमर को अटेंड कर रहा है. उसे देख कर एक खरीदार ने कहा, “हम तो वर्षों से यहीं से खरीदते आ रहे हैं. अब न वैसा सामान है न वैसा माहौल. अब कोई दूसरी दुकान ढूंढनी पड़ेगी.”

“चलो जी,, शराब की महक के कारण यहां बैठना भी मुश्किल हो रहा है,” उसी समय खरीदारी करने आई महिला ने उठते हुए अपने पति से कहा.

भोला उसे देख कर चौंक गया जबकि अपने खेल में मस्त रोमेश को उस के आने का पता ही नहीं चला.

“भोला, यहां क्या हो रहा है. तुम तो पुराने कर्मचारी हो, तुम ने मुझे पहले क्यों नहीं बताया?”

उस की कड़क आवाज सुन कर रोमेश उठ खड़ा हुआ, बोला, “दीदी, आप अचानक, यहां  कैसे?”

“मैं अचानक यहां आई, तभी तो तुम्हारी करतूतों का पता चला. अभी यहां से 2 ग्राहक असंतुष्ट हो कर गए हैं. तुम तो अपनी हरकतों से पापा का नाम डुबोने में लगे हो.”

“सौरी दीदी, अब ऐसा नहीं होगा.”

“तुम ठीक कह रहे हो, अब ऐसा नहीं होगा. चाबी मुझे दो और निकल जाओ दुकान से. और तुम लोग ग्राहकों की सेवा के लिए नियुक्त किए गए हो न कि इन की सेवा के लिए. अब से भोला इस दुकान को संभालेगा तथा तुम सब को उस की बात माननी होगी,” अनामिका ने कड़क आवाज में रोमेश की ओर देखते हुए अन्य कर्मचारियों से कहा.

रोमेश उसे चाबी दे कर चला गया. अनामिका ने चाबी पल्लव को पकड़ाई तो वह झिझका लेकिन जब अनामिका ने कहा कि पापा के बाद इस शहर में वह सिर्फ उस पर ही भरोसा कर सकती है, तब उस ने चाबी ले ली. इस के बाद उस ने कहा, “भोला, तुम इन का मोबाइल नंबर नोट कर लो. अगर तुम्हें कोई परेशानी हो तो इन्हें फोन कर लेना. दुकान की एक चाबी तुम रखो तथा एक इन के पास रहेगी.”

वह पल्लव से फिर मिलने की बात कह कर अपने घर पहुंची. उसे देख कर मां चौंकीं, बोलीं, “बेटी, तू अचानक, सब ठीक तो है न.”

“सब ठीक है. मामा, आप यहां कैसे?” उस ने चौंकते हुए कहा.

“बेटी, तेरे भाई रोमेश ने दुकान का काम अच्छे से संभाल लिया है. तेरे मामा उसे गाइड करते रहते हैं.”

“मां, तुम्हें मामा और रोमेश के बारे में सब पता है, फिर भी…”

“अब वे बहुत बदल गए है,” मां ने अपने भाई की ओर देखते हुए कहा.

“मां, कुत्ते की दुम कभी सीधी नहीं होती,” कहते हुए उस ने मामा की ओर देखते हुए दुकान पर घटित सारी घटना उन्हें बताई तथा यह भी कि दुकान के इस माहौल के कारण ग्राहक भी असंतुष्ट हैं.

मामा जब तक कुछ कहते, रोमेश आ गया. रोमेश की हालत देख कर मामा कुछ कह नहीं पाए.

“मामा, आप मां के भाई हैं. मेरा आप को कुछ भी कहने का अधिकार नहीं है लेकिन क्या आप चाहते हैं कि मां भी आप की तरह बरबाद हो जाए. मेरी आप से विनती है कि आप मां को सम्मान से जीने दीजिए. उन से उन के अधिकार मत छीनिए,” कह कर वह अपने कमरे में चली गई.

वह अपने कमरे से बाहर तभी आई जब उसे महसूस हुआ कि मामा चले गए हैं. मां को उदास बैठा देख कर उस ने कहा, “मां, तुम मुझ से नाराज होंगी लेकिन मैं क्या करती? भोला ने मुझे फोन कर के बताया. वह बेहद चिंतित था. मैं सीधे घर न आ कर पहले दुकान इसीलिए गई थी जिस से कि वास्तविक स्थिति का पता लगा सकूं. जैसाकि मैं ने आप को बताया, स्थिति सचमुच भयावनी थी. अगर कुछ दिन और ऐसा चलता तो दुकान ही बंद करवानी पड़ जाती. तुम भोला पर विश्वास कर सकती हो, तो ठीक है, वरना हम दुकान को बेच देते हैं. तुम मेरे साथ में रहो.”

“नहीं बेटी, मैं तेरे पापा की अमानत को अपने जीतेजी नहीं बेचने दूंगी. तेरे मामा पर विश्वास कर मैं ने गलत किया. अब मैं खुद दुकान पर बैठूंगी.”

“ठीक है मां, जैसी तुम्हारी इच्छा. दुकान की एक चाबी तो भोला के पास है, दूसरी चाबी मैं ने पल्लव को दे दी है. मैं तो हूं ही, फिर भी अगर कभी कोई समस्या हो तो पल्लव या सीमा से बात कर लेना. बहुत ही भले हैं दोनों. तुम उन पर विशवास कर सकती हो,” मन की कशमकश को विराम देते हुए अनामिका ने उन की गोद में लेटते हुए कहा.

वे उस का सिर सहलाते हुए सोच रही थीं कि अनामिका के बाहर जाते ही दिनेशजी ने कहा था, सावित्री हर इंसान को समर्थ होना चाहिए जिस से वक्तजरूरत पर उसे किसी के सहारे की आवश्यकता न पड़े. अब वह किसी पर अंधविश्वास नहीं करेगी. वह खुद अपनी ज़िम्मेदारी उठाएगी. अपनी बेटी को व्यर्थ परेशान न करो, उसे अपनी ज़िंदगी जीने दो.

 

 

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