धर्म बारबार यह समझाता है कि दान देने वाला बड़ा होता है. दान देते समय यह भी देखा जाता है कि किस ने कितना दिया है. दान देने वाला भी दिखावा करता है. वह चाहता है कि उस के नाम का पत्थर वहां लग जाए जिस से जब तक निर्माण रहे उस का नाम बना रहे. किसी भी मंदिर में ऐसे पत्थरों के शिलापट लिखे देखे जा सकते हैं. जितना बड़ा दान उतना बड़ा नाम लिखा होता है. जो छोटा दान करता है मंदिर वाले उस का नाम तो लिखते ही नहीं, वह खुद भी वहां रखे बौक्स में चुपचाप पैसे दान कर के चला आता है. वहीं ज्यादा दान करने वाला पूरा दिखावा करता है. यहीं सामाजिक असमानता का भाव आना शुरू हो जाता है. आज के समाज में आदमी का बड़प्पन उस के कामों से, सामजिक योगदान से नहीं बल्कि दान से जाना जाता है.

मंदिरों से चल कर यह समाज में, दफ्तरों में, बाजारों में और घरों के अंदर तक आ जाता है. जो घर वालों के लिए महंगे उपहार लाता है उस की कद्र ज्यादा होती है. बड़े बेटे और छोटे बेटे में भेदभाव होता है. घर में रहने वाले और शहर में रहने वाले के बीच अंतर होता है.

क्यों बराबर नहीं होता हर भक्त

कहते हैं कि भगवान के घर भेदभाव नहीं होता, हर भक्त बराबर होता है. बात दान की रकम में इनकम टैक्स से छूट की हो या फिर वीआईपी दर्शन की, यह भेदभाव-असमानता हर जगह पर दिखाई देता है. ऐसे में दिखावा करने वाले लोग अपनी क्षमता से अधिक खर्च करते हैं. मंदिरों में वीआईपी दर्शन की एक नई संस्कृति का उदय हो चुका है. वीआईपी दर्शन उन लोगों के लिए है जो लोग एक विशेष शुल्क देते हैं.

भगवान के दरबार में भी 2 तरह की व्यवस्थाएं हो गईं. एक, आम जनता के लिए और एक, उन लोगों के लिए जो आर्थिक रूप से सक्षम हैं. यहां भी असमानता आ गई.

एक आम आदमी जो घंटों लाइन में लगने के बाद मंदिर के अंदर प्रवेश करता है, उसे बाहर से ही दर्शन करने के लिए बाध्य किया जाता है जैसे वह कोई अछूत हो. दूसरी ओर कुछ वीआईपी लोग बड़े आराम से मंदिर के गर्भगृह में दर्शन लाभ करते हुए नजर आते हैं. एक आम आदमी इसी में खुश हो जाता है कि भले वह अछूत की तरह मंदिर से बाहर निकाल दिया जाता है लेकिन उस ने दूर से ही सही दर्शन तो कर ही लिया.

भारत के लोग सदियों से गुलाम रहे हैं. इन के डीएनए में ही गुलामी करने की मानसिकता भर गई है. इन में स्वाभिमान नाम की कोई चीज बची ही नहीं है. सोचने वाली बात है कि क्या भगवान वीआईपी दर्शन करने वालों पर विशेष कृपा बरसाएंगे? यह दोयम दर्जे का व्यवहार कदापि स्वीकार नहीं करना चाहिए. हमारे देश के लोगों की मानसिकता में कुछ पाने की लालसा भरी होती है. इस कारण वह कभी भी लालच के दलदल से बाहर ही नहीं आ पाता है. यही लालच उस के शोषण का सब से बड़ा कारण होता है. मंदिर में अपने लालच के कारण ही लोग शोषित होते हैं.

मंदिर में दान के नाम पर भेदभाव होता है जो सामाजिक असमानता का प्रतीक है. यह सामजिक असमानता जीवन के हर हिस्से में घुन की तरह घुस चुकी है. जो दान नहीं कर सके वे अपने को हीन समझते हैं और बजाय अतिरिक्त परिश्रम के, जीवन सुधारने के, पूजापाठ में घंटों और ज्यादा लगाते हैं. जो लोग इस गुत्थी को समझ चुके हैं वे मेहनत करते हैं, रातदिन लगते हैं और जीवनस्तर सुधार लेते हैं.

कर्मक्षेत्र में सामाजिक असमानता

धर्म के बाद कर्मक्षेत्र में भी असमानता देखने को मिलती है. यहां असमानता का आलम यह है कि जिस से लाभ होता है उस का खयाल ज्यादा रखा जाता है. सरकार ने अपने कर्मचारियों को जनता का दामाद बना डाला है, उन्हें ही सारी सुविधाएं दे दी हैं.

एक प्राइवेट प्राइमरी स्कूल में टीचर को 12 से 15 हजार रुपए महीना नौकरी जौइन करने के समय मिलता है. वहीं सरकारी प्राइमरी स्कूल के टीचर की सैलरी 54 हजार रुपए से शुरू होती है. निजी कंपनी में काम करने वाले क्लर्क की सैलरी शुरुआत में 10 से 12 हजार रुपए होती है. सरकारी नौकर 55 हजार रुपए से नौकरी शुरू करता है. एक सरकारी डिग्री कालेज में प्रिंसिपल रिटायरमैंट तक 2 लाख 30 हजार रुपए की सैलरी पाने लगता है. रिटायर होने के बाद उस की पैंशन 80 हजार रुपए से ऊपर होती है. कर्मक्षेत्र में इस तरह की असमानता के अनगिनत उदाहरण हैं. इस असमानता के कारण समाज में बराबरी का दर्जा नहीं मिलता है. यह सरकार द्वारा थोपी गई असमानता है. सरकारी कर्मचारी देश को बंधक बनाए रख रहे हैं.

श्रम का भेदभावपूर्ण बंटवारा सामाजिक असमानता का कारण होता है. आज समाज में जाति के साथसाथ पैसे का भी प्रभाव है. अगर आप के पास पैसा है तो आप अपना रहनसहन बेहतर कर सकते हैं. जाति से कितने ही बड़े क्यों न हों, अगर गरीब हैं तो आप की औकात नाली में रहने वाले कीड़े से अधिक नहीं है. हां, नाली में रहने वाले अपने जैसे दूसरों से आप जाति के कारण श्रेष्ठ हैं, असमान हैं, खास हैं. गरीब को जाति के बावजूद न तो मंदिर में वीवीआईपी दर्शन मिल पाएगा, न ही वह अपने लिए अच्छा घर बना पाएगा और न ही वह अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दे पाएगा कि जिस से वे अगली पीढ़ी में बेहतर बन सकें. शिक्षा का वर्गीकरण कर दिया गया है. असमानता लाने के लिए तकनीकी शिक्षा केवल पैसों वाले बच्चों को मिल पा रही जो फिर और ज्यादा पैसा कमा रहे हैं.

आईफोन 16 के लिए लगी लंबीलंबी लाइनों में वे लोग खड़े हैं जिन की जेब में 1 लाख रुपए से अधिक का खर्च करने की औकात है. इतने लोग आखिर कहां से आ गए? शायद विदेशी उत्पादकों को अंदाजा नहीं था कि भारत में आसमानता कितनी गहरी है. आईफोन की सब से कम कीमत 50 हजार रुपए और सब से अधिक कीमत 1 लाख 84 हजार रुपए है.

इसी तरह सामान्य मोटरबाइक, जिस की कीमत 1 लाख रुपए के करीब है, असमानता की प्रतीक है. रीवोल्ट आरवीवन 84,990 रुपए, टीवीएस रेडर 125 97,180 रुपए, हीरो एक्सट्रीम 125 97,484 रुपए, बजाज फ्रीडम 95,055 रुपए, सुजूकी बर्गमैन स्ट्रीट 125 96,827 रुपए, सुजूकी एवेनिस 125 94,786 रुपए, बेनलिंग औरा 91,667 रुपए से शुरु होती है. घर तक पंहुचने में इन सभी की कीमत 1 लाख रुपए से ऊपर पहुंच जाती है. ये लोग आम बस में चलने वालों के मुकाबले खास हैं.

फिर भी इन बाइक वालों को उस समाज की नजर से कभी अच्छा नहीं माना जाता है जो कार को महत्त्व देते हैं. घरपरिवार, नातेरिश्तेदार के घर जब तीजत्योहार, शादीविवाह में मोटरबाइक से जाते हैं तो उन को सम्मान की नजर से नहीं देखा जाता. सामाजिक असमानता का भाव यहां साफ दिखता है. कार से आने वाले के प्रति एक अलग भाव होता है और मोटरबाइक से आने वाले के प्रति अलग भाव होता है भले ही कार से आने वाला कितना ही बड़ा भ्रष्टाचार कर के आया हो. बहुत से बाइक वाले इसलिए टैक्सी कर के शादीब्याह में जाते हैं.

दूर की जाए अमीरगरीब की खाई

देश में धन का सही तरह से बंटवारा न होने से यह हालत हो गई है. अमीरगरीब के बीच की खाई गहरा गई है. आज जमीन के साथ शेयर बाजार और सत्ता असमानता फैला रही है.

2024 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने कहा था कि उन की सरकार आएगी तो आर्थिक सर्वे करा कर संपत्ति का बंटवारा होगा. यह कैसा होगा और कैसे होगा, यह अभी नहीं मालूम पर हो सकेगा, इस पर संदेह है. यह सिर्फ चुनावी स्टंट भर है. हां, आज आर्थिक सर्वे और समान आर्थिक बंटवारे की देश को जरूरत अवश्य है. पूंजी देश के गिनेचुने हाथों में पहुंच गई है. क्या सामाजिक असमानता दूर करने के लिए अमीरों से पूंजी ले कर गरीबों को देनी चाहिए जैसे जमींदार उन्मूलन के समय जमीने दे कर किया गया था. राहुल गांधी जीतेंगे और यह कर पाएंगे, पहले तो इस में संदेह है, पर अगर कर भी लिया तो जो चतुर हैं, वे फिर मुफ्त का पाने वालों से फीस लेंगे. ऐसा पहले कई बार हो चुका है.

देश में एक तरफ 1 से 2 करोड़ रुपए की कार से चलने वाले लोग हैं तो दूसरी तरफ सही तरह की साइकिल भी नहीं है. इस असमानता का कारण देश की आर्थिक नीतियां हैं, हाथ की लकीरें नहीं. मेहनत करने वाला मजदूर केवल दूसरों के लिए घर बनाता रह जा रहा है. उस के पास अपना घर बनाने लायक पैसा नहीं है. पूंजीपति केवल गरीब का शोषण करता है बल्कि उस की मेहनत का पूरा हक भी नहीं देता है. मुनाफाखोरी की असीमित इच्छा के कारण ही असमानता है. इस को दूर करना जरूरी है.

जाति नहीं ‘बिलियनायर राज’

घर बनाने या व्यापार शुरू करने के लिए बैंक जब लोन देता है तो यह देखता है कि आप की लोन अदा करने की क्षमता कितनी है. कम वेतन और लगातार वेतन न पाने वाले को वह लोन नहीं देता. सरकार बिना गारंटी के लोन लेने की स्कीम की कितनी भी योजनाएं चला ले, बैंक बिना गारंटी के लोन नहीं देता है. दूसरी तरफ बड़ीबड़ी कंपनियां लोन ले कर भी बच जाती हैं. इस तरह की सरकारी नीतियों के कारण ही सामाजिक असमानता बढ़ रही है. सामाजिक असमानता का सब से बड़ा कारण आर्थिक असमानता है और गरीबअमीर के बीच बढ़ती खाई है.

वर्ल्ड इनइक्वैलिटी लैब के मुताबिक, वर्ष 2022-23 में देश की कुल आय में टौप एक फीसदी अमीर आबादी की हिस्सेदारी बढ़ कर 22 फीसदी हो गई है. आंकड़े बताते हैं कि देश में अमीरों और गरीबों के बीच खाई काफी बढ़ गई है. साल 2000 के दशक की शुरुआत से यह लगातार बढ़ती जा रही है. इस के मुताबिक, देश की कुल आबादी अगर 100 रुपए कमाती है, तो इस में 22 रुपए केवल एक फीसदी अमीर लोगों के पास है. देश की कुल संपत्ति में इन एक फीसदी अमीर आबादी की हिस्सेदारी बढ़ कर 40.1 फीसदी हो गई है.

आर्थिक असमानता के मामले में भारत अमेरिका, साउथ अफ्रीका और ब्राजील से भी आगे है. अन्य देशों की बात करें तो अमेरिका में टौप एक फीसदी अमीर आबादी की आय में हिस्सेदारी 20.9 फीसदी है. ब्राजील के मामले में यह आंकड़ा 19.7 फीसदी, साउथ अफ्रीका में 19.3 फीसदी, चीन में 15.7 फीसदी है. इनइक्वैलिटी लैब की रिपोर्ट बताती है कि 1991 के आर्थिक उदारीकरण के बाद अमीरगरीब के बीच असमानता की खाई तेजी से बढ़ी है.

1975 तक भारत और चीन के लोगों की औसत आय लगभग बराबर थी. लेकिन वर्ष 2000 तक इस मामले में चीन हम से 35 फीसदी आगे बढ़ गया. 21वीं सदी में चीन की रफ्तार और तेज हुई और अब चीन में प्रतिव्यक्ति आय हम से ढाई गुना ज्यादा हो गई है. परेशानी की बात यह है कि पूंजीवादी लोग भारत में जातीय असमानता की बात करते हैं जिस से आर्थिक असमानता का मुद्दा दबा रहे, जमींदारी उन्मूलन जैसे फैसले लेने की दिशा में सरकार सोच न सके.

आज देश पर जातीय व्यवस्था का नहीं आर्थिक व्यवस्था का राज है. आर्थिक व्यवस्था में चुनावी चंदा दे कर राजनीतिक दलों को मजबूर किया जाता है कि वे गरीबी के लिए जातीय व्यवस्था को कोसते रहें. चुनाव जीतने के लिए नेता और राजनीतिक दलों की सब से बडी जरूरत पैसा होता है. इस से गरीबों को और गरीब रखने की योजनाएं चलाई जाती हैं. पूंजीपतियों के लिए ऐक्सप्रैसवे, मौल्स और गोदाम बनाने के लिए सड़क, बिजली, पानी दिया जा रहा है. कृषि कानूनों का उद्देश्य भी यही था, किसानों की जमीन अमीरों को दी जा सके.

देश में सामाजिक असमानता को दूर करने के लिए पहले आर्थिक असमानता को दूर करना होगा. सिद्धांत के रूप में यह स्वीकार करना होगा कि देश में अमीरों का राज है. उस के हिसाब से गरीबों को हक देना होगा. जब तक इस को स्वीकार कर के योजनाएं नहीं बनेंगी तब तक अमीर केवल ऐप्स बना कर देश की जनता को गरीब करते जाएंगे. जनता को मुफ्त का राशन दे कर मेहनतमजदूरी करने से दूर रख कर लाचार बना दिया जाएगा. इस के बाद वह वोट दे कर मुफ्त का चंदन घिसती रहेगी, इस से आर्थिक असमानता बढ़ती रहेगी.

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