रात काफी हो गई थी. शिवा और सृजा घर पर चल रही पार्टी खत्म होने का इंतजार कर रहे थे. जैसे ही सारे मेहमान विदा हुए, शिवा बोले, ‘‘आज की पार्टी देख कर मेहमानों की आंखें फैली रह गईं. उन्होंने हमारी ओर से ऐसी पार्टी की कभी कल्पना भी नहीं की होगी.’’

‘‘आज सब के सामने हमारी इज्जत बहुत बढ़ गई, शिवा. काश, हमारे पास ढेर सारा रुपया होता तो हम आएदिन ऐसी ही पार्टी करते रहते.’’

‘‘चिंता क्यों करती हो? पापा के पास बहुत सारी प्रौपर्टी है. उन के अपने खर्चे तो कुछ हैं नहीं. उन के जाने के बाद वह सबकुछ हमारा हो जाएगा और फिर हम सबकुछ बेच कर ऐसे ही ऐश करेंगे.’’

‘‘तुम ने उन्हें वसीयत के बारे में याद दिला दिया था न?’’

‘‘पापा से कहने की मेरी हिम्मत नहीं पड़ती. मम्मी को कई बार कह चुका हूं. वे हर बार यह बात टाल जाती हैं.’’

‘‘जितनी जल्दी हो सके उन का सबकुछ अपने नाम करवा लो, तभी हमारी जिंदगी सुकून से चल सकती है. हमारे अपने खर्चे अब तनख्वाह से पूरे नहीं होते हैं. बैंक बैलेंस की हालत तुम देख ही रहे हो. किटी पार्टीज और क्लब मैंबरशिप में बहुत रुपए निकल जाते हैं. यही हाल रहा तो कुछ समय बाद परेशानियां खड़ी हो जाएंगी.’’

‘‘मैं तुम्हारी बात समझ रहा हूं, सृजा. लेकिन यह मेरे हाथ में नहीं है.’’

‘‘एक बार जा कर उन से बात कर लो.’’

‘‘वहां जा कर क्या होगा? ढेर सारे उपदेश सुनने पड़ेंगे और संयमित जीवन जीने का पाठ पढ़ाया? जाएगा. मुझे इन सब पचड़ों में नहीं पड़ना. मुझे इन में कोई इंटरैस्ट नहीं है. बस, जो कुछ उन्होंने जोड़ा है चाहता हूं कि वह जल्दी से जल्दी हमारे नाम हो जाए, जिस से हमारी जिंदगी इसी तरह ऐशोआराम से गुजरती रहे.’’

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