Relationship Guide: सुधा अपने औफिस से लौट कर आई थी. इसी बीच दरवाजे की घंटी बजी. उस ने दरवाजा खोला तो सामने डिलीवरी बौय खड़ा था. उस के हाथ में पार्सल था. उस ने सुधा के पति का नाम लिया. कहा ‘राकेश के नाम का पार्सल है. सुधा बोली ‘वह अभी घर पर नहीं हैं. औफिस गए हैं.’

‘सर से पूछ कर ओटीपी बता दीजिए उन के नम्बर पर आया होगा.’ डिलीवरी बौय ने कहा तो सुधा ने पति को फोन किया. पति को डिलीवरी बौय के बारे में बताया तो राकेश ने एक ओटीपी बता दिया. जिस के बाद डिलीवरी बौय ने पार्सल सुधा को दे दिया.

पहले उस ने सोचा कि पार्सल खोल कर देखें फिर लगा यह ठीक नहीं है. पर उस का मन नहीं माना उस ने पार्सल खोल लिया. देखा तो उस के अंदर राकेश ने हाथ ही घड़ी मंगवाई थी. यह मंहगी थी. सुधा ने पार्सल के साथ लगी रसीद देखी तो 25 हजार की घड़ी थी. सुधा का मूड घड़ी देखते ही खराब हो गया.

उस की वजह यह थी कि राकेश के पास कई घड़ियां पहले से थीं. इस के बाद इतनी मंहगी घड़ी की क्या जरूरत थी ? दूसरी तरफ राकेश पैसे की कमी को ले कर रोना भी रोता रहता था. कल की ही बात है घर की वाशिंग मशीन बदलने की बात सुधा ने की तो बोला था कि इधर ईएमआई में पैसा बहुत खर्च हो रहा है. 2 माह बाद लेंगे. वाशिंग मशीन के लिए पैसों का रोना और दिखावे के लिए महंगी घड़ी खरीद ली.

थोड़ी देर में राकेश आ गया. सुधा ने घड़ी का पैकेट देते कहा, ‘वाशिंग मशीन के लिए पैसा नहीं था और फालतू में घड़ी के लिए पैसा था ?’

राकेश ने पहले तो सुधा को समझाने की कोशिश की लेकिन फिर उस का गुस्सा भड़क गया. उस ने सुधा पर हाथ उठा दिया. सुधा ने भी सहन नहीं किया दोनों के बीच झगड़ा हुआ और सुधा घर छोड़ कर चली गई. सुधा भी नौकरी करती थी. अपना खर्च उठा सकती थी फिर पति की मार क्यों खाए ?

विवाद बढ़ गया. मसला पुलिस तक पहुंच गया. दोनों की शादी को 2 साल ही हुए थे. उन का कोई बच्चा नहीं था. एक हंसतीखेलती जिदंगी बिखर गई थी. पुलिस ने मारपीट का मुकदमा लिख लिया. वहां अलग से राकेश को जमानत लेनी पड़ी. जिस में उस का 40-50 हजार खर्च हो गया. तलाक के लिए जब फैमली कोर्ट गए तो 2 साल इधरउधर चक्कर काटते बीत गए. दोनों को हर 15 दिन में नौकरी से छुट्टी ले कर कोर्ट जाना पड़ता था. सुधा के वकील ने 75 हजार रुपए फीस के पहले ही ले लिए थे. इस के बाद हर पेशी पर अलग पैसे खर्च होते थे.

राकेश को घरेलू हिंसा वाला केस भी लड़ना पड़ रहा था. और तलाक वाला भी उस की परेशानी अधिक थी. 2 साल इस में लगाने के बाद फैमली कोर्ट ने समझौते के लिए कहना शुरू किया. वहां जज ने दोनों को समझाते हुए कहा कि जितने पैसे के लिए आप दोनों ने विवाद किया उस से कई गुना खर्च हो चुके होंगे. अब क्या सोच रहे हैं ? और पैसा खर्च करने से अच्छा है कि साथ रहिए.

दोनों के वकीलों ने भी यही समझाया. राकेश और सुधा साथ तो रहने लगे पर अब दोनों के बीच पहले वाले रिश्ते वापस नहीं बन सके थे.

एकदूसरे से दूरदूर रहते थे. केवल मशीन की तरह संबंधों को निभा रहे थे. न पहले जैसा प्यार था न पहले जैसी नोकझोंक. दोनों के मन में एक गांठ पड़ चुकी थी. एक छत और एक बिस्तर पर सोते हुए भी वह अलगअलग दिखते थे. सुधा और राकेश अकेले नहीं हैं. ऐसे कई पति पत्नी कोर्ट के फैसलों के बाद एक साथ रहते हुए भी अलगअलग रहते हैं. उन के तन मिल रहे होते हैं पर मन में कहीं गांठ पड़ चुकी होती है.

‘रहिमन धागा प्रेम का, मत तोरो चटकाय, टूटे पे फिर ना जुरे, जुरे गांठ परी जाय’ रहीमदास के इस दोहा का मतलब है कि प्रेम का रिश्ता एक नाजुक धागे की तरह होता है, जिसे गुस्से में अचानक नहीं तोड़ना चाहिए. अगर यह एक बार टूट जाए, तो इसे फिर से जोड़ना बहुत मुश्किल होता है. यदि जुड़ भी जाए, तो उस में गांठ पड़ जाती है, जिस से पहले जैसा सहजता और विश्वास नहीं रहता है. पतिपत्नी के बीच का रिश्ता भी ऐसा ही होता है. यह बात कोर्ट को भी समझ लेनी चाहिए कि जब मामला पुलिस कोर्ट तक आ गया तो यह रिश्ता वापस जुड़ नहीं पाएगा. जबरन जुड़ भी गया तो गांठ पड़ ही जाएगी.

पतिपत्नी के बीच पनपने वाले विवादों को सुलझाने के जितने भी प्रयास हो रहे हैं वह उतने ही बढ़ते जा रहे हैं. पहले यह माना जाता था कि फैमिली कोर्ट में यह विवाद सुलझ जाएंगे. अब ऐसा नहीं है. फैमिली कोर्ट के बाद भी ऐसे विवाद ट्रायल कोर्ट, हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक यह विवाद जाने लगे हैं. सुप्रीम कोर्ट का फैसला सभी को मान्य होता है. इस के ऊपर कोई दूसरी कोर्ट नहीं है. वरना हो सकता था कि यह मामले वहां तक भी जा पहुंचते. कोर्ट को यह लगता है कि वह जो भी फैसला देती है पतिपत्नी स्वीकार कर लेते हैं. इस के बाद उन की हर समस्या खत्म हो जाती है.

सवाल उठता है कि क्या पतिपत्नी के रिश्ते औन औफ जैसे बटन से चल सकते हैं? बटन औफ तो रिश्ता बंद, बटन औन तो रिश्ता शुरू. अगर कोई पतिपत्नी दो-तीन साल कोर्ट कचहरी और थाने के चक्कर लगा लेते हैं, दोनों एकदूसरे के खिलाफ तमाम तरह के आरोप लगा लेते हैं इस के बाद अगर कोर्ट के फैसले से सहमत हो कर एक साथ रहने भी लगते हैं तो क्या उन के बीच के संबंध ऐसे सहज हो सकते हैं कि वह पहले की तरह से बिस्तर पर कपड़े उतार कर एक साथ आ सकते हैं ? या कोर्ट के फैसले, घर परिवार, समाज और बच्चों का ध्यान रख कर केवल कोर्ट के फैसले को मानते हुए साथ रह रहे होते हैं.

असल में एक छत के नीचे रहते हुए भी वह केवल औपचारिकता निभा रहे होते हैं. पतिपत्नी के संबंध बेहद मजबूत होते हैं. यह एकदूसरे के भरोसे विश्वास पर टिके होते हैं. पति के साथ बिस्तर पर कपड़े उतारते हुए पत्नी के मन में एक क्षण को भी कोई दूसरा विचार आता नहीं है. यही दोनों के संबंधों की मजबूती होती है. आपसी विवाद के बाद क्या रिश्तों में इतनी गुजाइंश बची रहती है ? फैमली कोर्ट से ले कर सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचने वाले मामले बताते हैं कि अगर आगे कहीं अपनी बात रखने की गुजांइश मिले तो यह झगड़े वहां तक भी जा सकते हैं. आखिर इस का हल क्या है ?

पत्नी से खर्चों में योगदान की अपेक्षा करना ‘क्राइम’ नहीं

स्वाभाविक तौर पर पतिपत्नी के रिश्ते ऐसे होते हैं कि जिस में एकदूसरे से हर तरह के सहयोग की आपेक्षा की जाती है. यह रिश्ते अब बदल रहे हैं. घरेलू खर्च को ले कर एक विवाद कोलकाता हाईकोर्ट तक पहुंचा. पतिपत्नी दोनों ही जीएसआई विभाग में एक साथ काम करते हैं. 2011 में दोनों की शादी हुई. शादी के कुछ दिनों के बाद ही दोनों के बीच विवाद शुरू हो गया. पत्नी ने पति के खिलाफ पुलिस में दर्ज शिकायत में दावा किया कि उस का पति “अधीर, आक्रामक, असमर्थक, क्रूर, बेपरवाह, असंवेदनशील, आलोचनात्मक, मांगलिक, आत्ममुग्ध, घमंडी और अन रोमांटिक स्वभाव का है.‘

पत्नी ने अपने आरोप में आगे बताया कि उस के पति और उस के मातापिता ने उस के रूप रंग पर टिप्पणी की. उस के नीची जाति का मजाक उड़ाया. महिला ने दावा किया कि उन्होंने उस पर होम लोन की ईएमआई चुकाने का दबाव डाला, उसे और उस के बच्चे को पर्याप्त भोजन, कपड़े और दवाइयां नहीं दीं. उस को मजबूरन औनलाइन खरीदने के लिए मजबूर होना पड़ा.’ पत्नी की शिकायत पर पुलिस ने पति के खिलाफ 498 के तहत मामला दर्ज किया. इस से बचने के लिए पति ने हाईकोर्ट पंहुचा. वहां इस मसले को समझ कर फैसला किया गया.

कोलकाता हाईकोर्ट ने कहा कि, ‘कानून में साफ है कि आंतरिक कलह का हर मामला आईपीसी की धारा 498ए के तहत ‘क्रूरता’ नहीं माना जाता’. कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि महिला का उस की जाति के लिए कथित सार्वजनिक रूप से मजाक नहीं उड़ाया गया था, तो यह अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के प्रावधानों के अंतर्गत नहीं आएगा. कोलकाता हाईकोर्ट ने महिला की याचिका को खारिज करते हुए टिप्पणी करते हुए, ‘एक शिक्षित, कमाने वाली महिला से घरेलू खर्चों में योगदान की अपेक्षा करना भारतीय दंड संहिता की धारा 498ए के तहत ‘क्रूरता’ नहीं है.’

जस्टिस अजय कुमार गुप्ता ने कहा कि ‘वैवाहिक जीवन में यह स्वाभाविक है. दोनों पतिपत्नी आपसी सम्मान बनाए रखें, जिम्मेदारियां शेयर करें और समाज के कल्याण में योगदान दें. दूसरी पक्ष (पत्नी) एक शिक्षित और कमाने वाली महिला है. पत्नी को घरेलू खर्चों में योगदान देने, कोविड-19 लौकडाउन के दौरान औनलाइन खरीदारी करने या सास द्वारा बच्चे को खाना खिलाने के लिए कहे जाने जैसी अपेक्षाएं, किसी भी तरह से, भारतीय दंड संहिता की धारा 498ए के अर्थ में ‘क्रूरता’ नहीं मानी जा सकतीं.’

कोर्ट ने आगे कहा, ‘अगर एक अपार्टमेंट की मालिकाना हक दोनों का है तो उस का ईएमआई की भुगतान पति की नहीं है, पत्नी भी बराबर की हिस्सेदार है. पति अगर ईएमआई भरने के लिए उस से पैसे की मांग करता है या फिर पिता द्वारा बच्चे को बाहर ले जाना घरेलू जीवन की क्राइम नहीं हैं.’ कोर्ट ने अपने फैसले के बाद यह आपेक्षा की है कि पतिपत्नी दोनों सुलह से रहेंगे. क्या यह संभव है ? झगड़े के बाद ऐसे संबंध बने रह सकते हैं ? शायद नहीं. मजबूरी में साथ रहने और मन से साथ रहने में अंतर होता है.

क्या है धारा 498 ए ?

भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 498 किसी विवाहित महिला को उस के पति या ससुराल पक्ष के किसी व्यक्ति द्वारा आपराधिक इरादे से बहला फुसला कर ले जाने या हिरासत में रखने से संबंधित है. इस धारा का उद्देश्य पति अपनी पत्नी को दूसरों के साथ ले जाने के इरादे से फुसलाने से बचा सके.

धारा 498ए पति या पति के रिश्तेदार द्वारा विवाहित महिला के साथ की गई क्रूरता से संबंधित है. धारा 498 में आपराधिक पलायन का अपराध है, और धारा 498-ए में पति या उस के रिश्तेदारों द्वारा शारीरिक या मानसिक क्रूरता शामिल है. दहेज की मांग से जुड़ी प्रताड़ना भी इस में शामिल है. जिस के लिए अधिकतम 3 साल की जेल और जुर्माना हो सकता है. यह धाराएं गैर-जमानती और संज्ञेय. जिस का अर्थ है कि पुलिस बिना वारंट के गिरफ्तारी कर सकती है और जमानत आसानी से नहीं मिलती है.

आईपीसी की धारा 498 को भारतीय न्याय संहिता बीएनएस 2023 में धारा 85 और 86 में शामिल किया गया है. धारा 85 घरेलू संबंधों में कू्ररता से संबंधित है और धारा 86 आत्महत्या के लिए उकसाने, गंभीर चोट पहुंचाने जैसे मामलों में लगती है. एक तरह से देखें तो केवल नाम में बदलाव किया गया है. विवादों को जल्द से जल्द हल किया जाएं इस का कोई हल नहीं है. कोलकाता हाईकोर्ट के मसले में 5 साल से अधिक समय लग गया है.

पतिपत्नी विवाद में जो भी हल हो वह जल्दी से जल्दी किया जाए. इन विवादों को हल करने का अधिकतम समय 3 साल से अधिक न हो. कोर्ट विवाह संस्था को बचाने के नाम पर फैसला देने में देरी न करें. अगर पतिपत्नी झगड़ा ले कर कोर्ट तक आ गए हैं तो उन के अंदर समझौते की भावना खत्म हो गई है. ऐसे में उन को जबरन एकदूसरे के साथ रहने को मजबूर करने का लाभ नहीं है. पतिपत्नी को भी इस बात का आभास होना चाहिए कि कोर्ट तक मामला पहुंचने के बाद समझौता नहीं हो पाएगा. ऐसे में वह बातबात पर मुकदमा दायर करने से बचेंगे. जिस से कोर्ट पर मुकदमों का बोझ कम हो सकेगा.

पतिपत्नी विवादों की हालत

भारत की अदालतों में पतिपत्नी विवादों की फीगर जानने का कोई रास्ता नहीं है. इन की सटीक जानकारी उपलब्ध नहीं है. कुछ रिपोर्ट के आधार पर इस का अनुमान लगाया जा सकता है. 2022 में देशभर में करीब 6.5 लाख से ज्यादा विवाह संबंधी मामले लंबित थे, और 2023 में यह संख्या बढ़ कर 8.25 लाख से अधिक हो गई थी. ये मामले सिविल और क्रिमिनल दोनों तरह के होते हैं, और इन की संख्या लगातार बढ़ रही है. 2025 में यह संख्या 12 लाख के ऊपर पहुंच चुकी है.

पतिपत्नी के बीच तकरार के मामले और उन के लंबित मामलों की संख्या में साल दर साल वृद्धि हो रही है. इन मामलों में सिविल केस जैसे तलाक और घरेलू हिंसा से जुड़े क्रिमिनल केस दोनों शामिल होते हैं. ऐसे मामलों की बढ़ती संख्या से अदालतों पर भारी बोझ पड़ रहा है. इन पर निर्णय लेने में अधिक समय लगता है. क्योंकि कोर्ट का मानना है कि जितना संभव हो विवाह को बचाने का काम किया जाए.

कोर्ट को चाहिए की जल्दी से जल्दी ऐसे मामलों में तलाक दिया जाए. शादी बचाने के नाम पर केस को लबे समय तक खींचना ठीक नहीं होता है. अदालत के फैसले से पतिपत्नी एक छत के नीचे भी दो अजनबी लोगों की तरह से रह रहे होते हैं. पत्नी पहले की तरह पति के साथ बिस्तर में कपड़े उतार कर नहीं सो पाती है. भरोसा और प्यार टूटता है. तो उस का वापस जुड़ पाना कठिन होता है.

ऐसे में केवल अदालत के कह देने मात्र से पतिपत्नी मन से एक नहीं हो जाते हैं. पुलिस और कोर्ट में मुकदमा दाखिल करते समय जिस तरह से आरोप एकदूसरे पर लगाते हैं उन को भूल पाना सरल नहीं होता है. जिस की वजह से कोर्ट के समझौते के बाद भी रिश्ते सहज नहीं होते हैं. Relationship Guide

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